बुधवार, 18 नवंबर 2020

दीया

- गणेश पाण्डेय

पहला दीया
उनके लिए जो देख नहीं पाते
दूसरा उनके लिए जो दीया को दीया कह नहीं पाते
तीसरा उनके लिए जो दीया की कोई बात सुन नहीं पाते

एक दीया हिंदी के उन भयभीत दोस्तों के नाम 
जिन्होंने मुझे चींटी की मुंडी के बराबर दोस्ती के लायक़ नहीं समझा

हिंदी के उन दुश्मनों के नाम भी कुछ दीये ठीक उनकी अक़्ल के पिछवाड़े
जिन्होंने हमेशा चूहे की पीठ पर बैठकर शेर की पूँछ मरोड़ने की ज़िद की

ये दीये उन तमाम अदेख दोस्तों की नम आँखों के नाम 
इस वर्ष हारी-बीमारी और हादसों में छोड़ गये जिनके प्रिय और बुज़ुर्गवार
चाहे मारे गये मोर्चे पर जिनके बेटे
पति और पिता और गाँव के गौरव

पृथ्वी की समूची मिट्टी और आँसुओं से बने ये दीये
क्यों नहीं मिटा पाते हैं, सदियों से बढ़ता ही जाता अँधेरे का डर

एक थरथराती हुई स्त्री के जीवन में 
क्यों नहीं ला पाते हैं जरा-सा रोशनी
ये दीये क्यों नहीं जला पाते हैं 
हत्यारों का मुँह उनके हाथ 
और लपलपाती हुई जीभ

ये दीये उम्मीद के सही, हार के नहीं
ये दीये बारूद के न सही, प्यार के सही
ये दीये क्रांति के न सही, प्रतीक सही
दोस्तो फिर भी जलाता रहूँगा 
ऐसे ही ये दीये कविता के दोस्त सही
इनकी लौ में है पलभर में 
हमारी आत्मा को जगाने की शक्ति 

देखो अरण्य के समीप 
ग़रीब-गुरबा की बस्ती में जलते दीये
कैसे काटता है एक नौजवान टाँगे से जलौनी लकड़ी
कैसे इनकी रोशनी में डालती है एक माँ बच्चे के मुख में कौर

कैसे कनखियों से देखती है एक युवा स्त्री 
अपने पति के शरीर की मछलियों को उसकी वज्र जैसी छाती

पैसे की मार से 
दुखी लोगों के लिए कुछ दीये
उस बाप की ड्योढ़ी पर एक दीया 
जिसे बेटियों की फीस की चिंता है

जलायें न जलायें 
चाहे बड़े शौक से भाड़ में जायें
उन आलोचकों के लिए भी कविता के छोटी जाति के कुम्हारों के बनाये कुछ दीये
जिनके घर मुफ़्त पहुँचायी गयी हैं गाड़ियों में भरकर बिजली की विदेशी झालरें

विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, अख़बारों, पत्रिकाओं, प्रकाशकों 
और हिन्दी के बाक़ी दफ़्तरों में 
एक-एक दीया ज़बरदस्त

हिन्दी की उन्नति के नाम पर 
उसकी किडनी बेचकर मलाई काटने वाले 
हज़ारों हरामज़ादों के लिए भी

हिन्दी के जालसाज़ों के छल में 
फँसे हुए बच्चों के लिखने की मेज पर
जीवनभर जलने वाला कविता का 
यह दीया ख़ास

हिन्दी बोलने वाले 
विपन्न बच्चों के लिए उम्मीद का एक दीया
इस साल वे भी बने कलक्टर चाहे कमाएं दो पैसा

हिन्दी बोलने वाले बच्चे पैदा करने वाली माँ के बिना चप्पल के पैरों के पास
मेरी, तेरी, उसकी, सबकी गुज़र गयी 
माँ की ज़िदा याद के पैरों के पास
चाँदी की पायल की जगह 
एक ग़रीब कवि की ओर से 
मिट्टी का यह दीया।


      




   


                                                                   - गणेश पाण्डेय

सोमवार, 28 सितंबर 2020

खलनायक

- गणेश पाण्डेय

प्रिय छेदी
इस देश को तुम्हारे जैसे
खलनायकों की ज़रूरत है

हालाँकि यूपी के
सुल्ताना डाकू की कहानी में
काफ़ी कुछ झोल है
लेकिन तुम्हारी कहानी तो
जीती-जागती हक़ीक़त है
तुम कोई लुटेरे नहीं हो
कि लूट के माल से भलाई करो
पसीना बहाते हो नक़ली हीरो से
मार खाते हो फिर पैसा कमाते हो

तुम भी चाहते तो एक कानी-कौड़ी
ग़रीब-गुरबा और ज़रूरतमंद पर 
अपने ही मुल्क़ में 
सबसे परेशानहाल
लोगों पर ख़र्च नहीं करते
सदी का महाखलनायक बनकर
अपनी आरामगाह में मुँह छिपाकर
सो रहे होते अपनी रातों की नींद
और दिन का सुकून बर्बाद नहीं करते

मैं तुम्हारे बारे में
और कुछ नहीं जानता
सिवाय इसके कि फ़र्श से अर्श पर
पहुँचने की कहानी तुम्हारी है
इस कहानी में ख़ास बात यह 
कि एक खलनायक की देह में
किसी हातिमताई की रूह 
आ जाती है और खलनायक से 
नायकों जैसे काम कराती है

एक खलनायक की सख़्त देह में
एक-एक हिस्से से तड़प उठती है
अपने लोगों के लिए झुक जाती है
आँखें डबडब हो जाती हैं

हाथ आगे बढ़ जाते हैं
पैर उसी ओर चल पड़ते हैं
जिधर लोग सिर्फ़ अपने पैरों पर
खड़े हैं बैठे हैं बच्चों को लाद रखा है
पत्नी सटकर खड़ी है 
टूटी-फूटी चीज़ों की पोटली
पैरों के सुख-दुख पूछ रही है

प्रिय छेदी
छेदी सिंह तुमने शेर की तरह
छलांग लगाई है आसमान में
किसी फ़िल्मी चमत्कार की तरह
रेल के डिब्बों में बसों में जहाज से
अपने देशवासियों को भेज रहे हो
मुश्किलों की सबसे लंबी घड़ी में
अपने घर

छेदी मैं नहीं जानता
कि तुमने सबसे कमज़ोर और उपेक्षित
लोगों में किसे देखा भारतमाता को देखा
कि अपनी माता और पिता 
और बीवी-बच्चों को देखा
कुछ तो तुमने अलग देखा
जो तुम्हारे समुदाय के लोगों ने नहीं देखा
तुम भी चाहते तो प्रधानमंत्री कोष में
कुछ करोड़ डालकर चैन की नींद सोते
तुमने अपनी नींदें क्यों ख़राब कीं
अपने बच्चों का वक़्त और प्यार
दूसरों के बच्चों को क्यों दिया

छेदी तुम्हारा पर्दे का नाम है
हालाँकि जीवन में तुमने आसमान में
छेद करने जैसा बड़ा काम किया है
पर्दे से जो कमाया मज़बूर लोगों पर
लुटाया सुल्ताना डाकू की तरह
हातिमताई जैसा कारनामा किया

तुमने अपने देश 
और अपनी मिट्टी के कर्ज़ का
मूलधन ही नहीं सूद भी लौटाया
मैं नहीं जानता कि तुम्हारे नाम में
यह सूद क्यों लगा हुआ है 
और तुम्हारा नाम सोनू जैसा 
बहुत प्यारा और घरेलू क्यों है

मैं मुंबई में 
लंबे समय से रहने वाले
हिंदी के कवियों की तरह रहता
तो कब को कोरोना पर अपनी
लंबी कविताओं के साथ तुम पर भी 
एक लंबी कविता लिख चुका होता
सोनू सूद

हिंदी में
फ़िल्मी हीरोइनों पर 
कविता लिखने का रिवाज़ है
मधुबाला से लेकर वहीदा रहमान तक
और वहीदा से माधुरी तक पर रीझकर
लिखते हुए कवियों और कथाकारों ने
अपनी क़लमें तोड़ दीं
ये पर्दे की चमक-दमक पर मुग्ध थे
मैं हिंदी के पर्दे और आसमान का नहीं
ज़मीन का आदमी हूँ मेरे बच्चे

जानते हो
छेदी नहीं-नहीं सोनू नहीं-नहीं दोनों
हिंदी में फ़िल्म वालों को सितारा कहते हैं
लेकिन सितारे 
सिर्फ़ आकाश पर नहीं होते
धरती पर भी होते हैं मिट्टी में लोटते हैं
लोकल ट्रेन में सफ़र करते हैं
अपनी लोकल आत्मा को
कभी नहीं बदलते हैं 

सितारों की दुनियाँ विचित्र है
पर्दे का खलनायक जीवन में
नायक हो सकता है
और नायक खलनायक
आए दिन ख़ुलासे होते हैं
मासूम और सुंदर नायिकाएं 
खलनायिका निकलती हैं
और अर्थपूर्ण फ़िल्म बनाने वाले चरित्रहीन
जब तक इनका सच सामने नहीं आता
इनका नायकत्व और महानायकत्व
चेहरे पर मेकअप की तरह सजा रहता है

सोनू 
चाहे पर्दे पर ऐसे ही आजीवन 
बड़े से बड़ा खलनायक बने रहना
जीवन में चाहे जितनी मुश्किल आए
चाहे जितने कमज़ोर क्षण आएं
अपने खलनायक को पर्दे से बाहर
न निकलने देना नहीं तो मेरी यह कविता
बहुत रोएगी इसके शब्द टूट-फूट जाएंगे
ऐसे ही जीवन में नायक बने रहना

जो सितारे
पैदा धरती पर होते हैं
और रहते हैं आसमानों में
ज़मीन के लोग उन्हें कभी भी
अपना नहीं समझते हैं
उनके बीवी-बच्चों को कभी इस तरह
दिल से दुआएं नहीं देते हैं
प्यार नहीं करते हैं

हाँ 
क्रिकेट के कुछ
भगवान की तरह
फ़िल्मों के भी कुछ 
नौटंकी भगवान होते हैं
ये अपनी मिट्टी अपने देश के कर्ज़ का
न मूलधन चुका पाते हैं न सूद
सब तुम्हारी तरह कहाँ हो पाते हैं
सोनू सूद।







पत्र

 प्रियवर गणेश पांडे जी,

कुशल से होंगे। हालांकि यह कहना भी अब मात्र एक औपचारिक मुहावरा बनकर रह गया है। जो भी व्यथित और जरा भी संवेदनशील है, वह बाहर से भले ही सकुशल दिखे, मन से तो हमेशा बेचैन और द्वंद्वग्रस्त ही रहता है। स्थितियां ही कुछ ऐसी हैं। जो दुनियादार हैं, वे स्थितियों में खुद को ढालकर अपने मन को समझा लेते हैं, अवसर के मुताबिक राह पकड़ लेते हैं। लेकिन जो स्थितियों की भयावहता, अमानवीयता, असहिष्णुता के बारे में सोचे बिना नहीं रह पाते-प्रायः उनकी नियति होती है - अकेलापन।

आपको वर्षों से लिखते-पढ़ते देख रहा हूं। इधर थोड़ा-बहुत ह्वाट्सएप, फेसबुक जैसे माध्यमों से थोड़ी-बहुत वाकफियत हो गयी है। फेसबुक पर भी आपकी चिंताओं से परिचित होता रहता हूं। आपकी चिंताओं में अपने को भी शामिल पाता हूं। अपने-अपने अकेलेपन के अंधेरे में, यह शामिल-पन का भाव कभी-कभी उम्मीद के जुगनुओं की तरह जग-मगा उठता है। कुछ साथी - कहीं भी हों, कितनी भी दूर- पर हैं तो, जो अब भी सोचने और महसूस करने की क्षमता बचाकर रखे हुए हैं। यह भी हम-आप जैसों के रचनात्मक सहारे के लिए कम बड़ी बात नहीं है।

आपने 2 अक्टूबर वाली पोस्ट में लिखा-‘ साहित्य में अंधेरा फैलाने वाले, आज गांधी पर प्रकाश डालेंगे!‘ यह विडम्बना यों तो मात्र साहित्य की नहीं, राजनीति-समाज-चिंतन वगैरह सभी क्षेत्रों की है, लेकिन आपने साहित्य का उल्लेख किया तो इसका मर्म मैं समझ सकता हूं। निराला ने ‘सरोज-स्मृति‘ में लिखा- ‘ मैं कवि हूं, पाया है प्रकाश! ‘ यह कोई व्यक्तिगत दंभ नहीं था। यह कवि होने या साहित्यकार होने की सबसे सारगर्भित परिभाषा थी। कवि होना गहरे अर्थो में ‘प्रकाश प्राप्त‘ होना है। प्रेमचंद ने भी राजनीति से नहीं, साहित्य से ही ज्यादा आशा की थी-‘साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है।‘ लेकिन आज ‘प्रकाश‘ और ‘मशाल‘ जैसे शब्दों को हमारे तथाकथित कवि और साहित्यकार ही अर्थहीन करते जा रहे हैं। राजनीति ने तो पहले ही इन शब्छों को मात्र चुनाव-चिह्न जैसा कुछ बनाकर रख दिया है। राजनीति में तो अंधेरा ही सर्वत्र अट्टहास कर रहा है। इस अट्टहास को ही प्रकाश की तरह बिखेरा जा रहा है। इस अट्टहास की चकाचौंध में प्रकाश का इतना भ्रम है कि आंखें चौंधियां जाती हैं। देखने की क्षमता ही जाती रहती है। और आपने इस विडम्बना की ओर ठीक ही इशारा किया है, गांधी के हवाले से। जिनको कुछ नहीं दिखता, वे ही सबकुछ देख लेने की डींग हांकते हैं। अंधता इतनी दंभी कि गांधी जैसा पुरुष-जो खुद अपनी आंखों से देखने पर विश्वास करता था, जिसने सत्य का प्रकाश पाने के लिए ‘सत्य का प्रयोग‘ करने की ठानी थी- उस पर अंधता प्रकाश डालने का दावा करती है।

मैंने कभी लिखा था,‘साहित्य एक प्रकार का रचनात्मक हठ है कि मनुष्य को सबसे पहले और सबसे आखिर तक सिर्फ मनुष्य के रूप में ही पहचाना जाए, न फरिश्ते के रूप में, न राक्षस के रूप में, न देवता के रूप में, न सिर्फ साधु या शैतान के रूप में।‘

गांधी को क्या मनुष्य के रूप में सचमुच हम अभी तक पहचान सके हैं? हमने मूर्तियां बना दीं, न्यायालयों और सरकारी दफ्तरों में उनके फोटो टांग दिए। इन सब रूपों में आज गांधी आज कितने दयनीय हो उठे हैं कि उन्हीं की फोटो के नीचे बैठे अधिकारीगण कैसे-कैसे स्वार्थ-लिप्सा भरे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं।

गांधी को इस दयनीयता से क्या सिर्फ उन पर कविताएं लिखकर उबारा जा सकता है? है कोई ‘प्रकाश प्राप्त‘ कवि जो उनकी इस दयनीयता को सवमुच देख सके? महसूस कर सके? गांधी का अनुसरण करने-कराने का उपदेश देने वाले हर क्षेत्र में हैं। साहित्य में भी। पर गांधी बेचारे ऐसे अनुसरणकर्ताओं से बचने के लिए छिपते-छिपाते, टाट वाले बोरे में अपना चेहरा ढके चुपचाप मुकित्बोध की कविता में चले गए हैं।

सच पूछिए तो अब ‘अनुसरण‘ या ‘अनुयायी‘ जैसे शब्द पाखंड का पर्याय हो गए हैं। कोई किसी का अनुसरण नहीं करना करना चाहता है, सिर्फ अपने-आपके सिवा। अब अनुयायी होना नहीं, पिछलग्गू होना फिर भी कुछ अर्थवान शब्द है। पिछलग्गू ऐसे व्यक्तियों का, जो लाभ पहुंचाने की स्थिति में हों। थोड़ी ख्याति मिल जाए, पुरस्कार या उपाधि मिल जाय-बस इतना ही अभीष्ट है। आज के लेखक की महत्वाकांक्षाएं भी बड़ी क्षुद्र हैं। वह अपनी क्षुद्रता में अमर होना चाहता है।

ऐसी अमरता को हम-आप क्यों चाहें? क्योंकि हमारे लिए तो यह जीते जी मर जाने के समान है। ऐसे में तो अच्छा है, कबीर की तरह रहें-मेरो मन लागा ठाठ फकीरी में! हम साहित्य के फकीर बने रह सकें, यही कामना हमारे लिए ठीक है।

अभी इतना ही।

हां, इतना और कि ज्यादा शिकायती होने में वक्त जाया न करें। हर स्थिति में जितना रचनात्मक हो सकें, रहें।

आपकी सक्रियता और सार्थक चिंताओं में आपका सहभागी-

राजेंद्र कुमार


नोट : इलाहाबाद से वरिष्ठ लेखक राजेंद्र कुमार जी का  पत्र



सोमवार, 13 जुलाई 2020

आलोचकनामा

- गणेश पाण्डेय

1

हिंदी का आलोचक है
हमारे समय का पुराना घाघ आलोचक है
इसके सुनहले फ्रेम के चश्मे पर मत जाइए
इसके भोले-भाले चेहरे पर मत जाइए
इसकी दुर्घटनाग्रस्त टूटी-फूटी आत्मा देखिए
उसे न देख पा रहे हों तो इसे ज़रा ग़ौर से देखिए
कैसे इसके रंग-बिरंगे कपड़े हैं देखिए
लालछींट का कुर्ता देखिए जैसे ख़ून के दाग़ हों
ओह बेढंगा पाजामा देखिए
कितना ढीला-ढाला है जैसे शहर का नाला है
थोड़ा नज़दीक से देखिए कुर्ता उठाकर देखिए
अरे इस नाशुकरे के पास तो ईमान का नाड़ा ही नहीं है।

2

हिंदी का आलोचक है
कैसी शक़्ल है इसकी गर्दन बिल्कुल शुतुरमुर्ग जैसी 
जिसे उठाकर और ऊपर और उसके ऊपर मुँह करके
उफ़ कैसे ज़ोर-जोर से थूकता है बारबार कोई नाम लेकर
और अपनी जगह से टस से मस नहीं होता है
एक बार भी सोचता नहीं कि सब उस पर ही पड़ता है
ओह कितना नशा है इसे अपने आलोचक होने पर
बेशर्मी देखिए पिटाई को प्रशंसा समझता है
जैसे नागार्जुन उसे धंधा करने का लाइसेंस दे गये हों -
अगर कीर्ति का फल चखना है आलोचक को ख़ुश रखना है
ओह कैसे शान से खोल रखा है उसने अपने शहर में
शुद्ध देशी घी का कीर्ति लड्डू भण्डार
उसने अपने कीर्ति लड्डू भण्डार के बाहर 
पुरोहिताई का अलग से एक स्टाल लगाकर 
कवि के गर्भाधान से लेकर 
अंत्येष्टि तक के सोलह संस्कारों के लिए
बाकायदा रेटलिस्ट टांग दिया है
आज्ञा से त्रिलोचन और साथ में यह लिखकर -
आलोचक है नया पुरोहित उसे खिलाओ
सकल कवि-यशःप्रार्थी, देकर मिलो मिलाओ
और सचमुच ऐसे मुग्ध कवियों का मेला लगा हुआ है
इस चोट्टे की दुकान के सामने।

3

हिंदी का आलोचक है
बड़ा पढ़ाकू है जी पट्ठे ने ख़ूब पढ़ रखा है
सोलह दर्जा पढ़ने के बाद सोलह दर्जा और पढ़ रखा है
कुल बत्तीस दर्जा पढ़ रखा है शायद उससे भी ज़्यादा
न न न सिर नहीं पैर धंसाकर पढ़ा है सिर से हो नहीं पाता
जितना पढ़ रखा है उससे एक इंच भी इधर-उधर नहीं होता है
असल में पट्ठे के दिमाग़ में दिमाग़ की जगह
आलमारियों पर किताब की तरह किताबें जमा हैं
सो दिमाग़़ में दिमाग़़ रखने के लिए जगह ही नहीं बची है
इसलिए कोई बीसेक साल से ख़ुद से कुछ सोचता ही नहीं है
बस आप समझ लें कि बंदा हिंदी का आलोचक-सालोचक नहीं 
हमारे समय की आलोचना की सिलाई कढ़ाई का कोई कारीगर है
दिमाग़ बंदकर और आंख मूंदकर धड़ल्ले से आलोचना कर रहा है।

4

हिंदी का आलोचक है
आलोचक क्या है पूरा रंगरेज़ है
आलोचना करता नहीं बस काग़ज़ रंगता है
फूल-पत्ती नदी-नाले गाँव-साँव बनाता है
उसके लिए यही कविता का लोक और जीवन है
उसके लोकजीवन में 
न किसान आंदोलन है न मज़दूर
पट्ठे को यह भी नहीं पता कि लोकजीवन में
महामारी की छाया भी है मलेरिया भी है 
जापानी बुख़ार भी है कोरोना भी है
पोलियो भी है कालाजार भी है
इतनी छोटी सी बात जानता नहीं आलोचक बनता है 
चरणरज लेने वालों को कवि समझता है महाकवि समझता है
जबकि ख़ुद दिल्ली के मठाधीशों के सामने
साष्टांग लेटकर चरणरज लेता है
जिस आलोचक का विकास केंचुए की तरह होगा 
वह हिंदी का आलोचक कैसे हो सकता है नहीं हो सकता है
ज़रूर यह आलोचना का संदिग्धकाल है।

5

हिंदी का आलोचक है
जिधर सब लोग जमा होते हैं उसी ओर भागता है
और वहीं उसी भीड़ में घुसकर तमाशा देखता रहता है
चाहे जो हो जाए चाहे सिर पर कुछ भी पड़ जाएं हज़ार
कोई कुछ भी कह ले बंदा हटने का नाम नहीं लेता है
उसका अपने आप से वादा है आलोचक का तमगा लिए बिना
ऐसी जगहों से हटना नहीं है
उसे मंच पर चढ़ना ही चढ़ना है पर्चा पढ़ना ही पढ़ना है
माइक पकड़कर मंच पर झूमना ही झूमना ही है
इस तरह आलोचक होना ही होना है
और अनंतकाल तक आलोचक बने रहना है
असल में वह इस बात को मान ही नहीं सकता है
कि आलोचक बनने के लिए भी ठोस वजह का होना ज़रूरी है।

6

हिंदी का आलोचक है
इसीलिए चिरकुट बना फिरता है मारा-मारा जगह-जगह
साहित्य के महाजनों और उप महाजनों के पीछे-पीछे
इसकी गठरी उसकी गठरी चोर-उचक्कों तक का सामान ढोता है
बंदे को कोई भला आदमी कुछ कह दे तो उस पर खौंखियाता है 
असल में उसके पास 
अपना कुछ ढोने के लिए है ही नहीं
आलोचना में दूस़रे का ढोना ही एक प्रकार से उसकी जीविका है।

7

हिंदी का आलोचक है
बड़ा ज़बर आलोचक है किसी को कुछ समझता ही नहीं है
ख़ुद को कवियों का मालिक बनता है सब उसके हिसाब से उठें-बैठें
जैसा कहे कविता लिखें माठा कर रखा है समझिए
कि कोई चूहा शेर के पास जाकर उसके कान में कह रहा हो
खड़े हो जाओ और फटाफट अपनी कविता दिखाओ
वह तो कहिए कि इस सदी में है निराला बाल-बाल बच गये
पिछली सदी में रहा होता तो निराला को छड़ी से कोंचकर जगाता
और कहता कविता दिखाओ यह अलग बात है कि निराला 
जागते बाद में पहले उसे जूते से लाल कर देते फिर कहते 
’हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र’ लिखता हूं तो तेरे बाप क्या जाता है बे
अबे सुन बे गुलाब लिखता हूं तो अबे तेरा क्या जाता है
आलोचक नाम का यह जीव उस समय क्या करता 
या निराला इसे क्या करके लौटाते अनुमान का विषय है
फ़िलहाल तो पट्ठा कहता फिर रहा है
कि आज की कविता में वसंत का अग्रदूत वही होगा 
जो दिल्ली दरबार की गोद में पला-बढ़ा होगा
बाहर सुदूर प्रकृति की गोद में
धूल-मिट्टी में लोटने और आँधी-पानी में बड़े होने वाले कवि 
वसंत के अग्रदूत क्या झँटुही कवि भी नहीं हो सकते हैं
मैं पूछता हूं कि अबे कवियों का सुपरवाइजर
तुझे बनाया किसने है पहले उसे बुला
उसको जीभर कर दुरुस्त कर लूं
फिर तुझे बताता हूं उलटा लटकाकर डंडा करता हूं
अब आप लोग ही बताएं कि ऐसे 
नामाकूल आलोचक के साथ क्या-क्या किया जाय 
जिसे यह नहीं पता कि रामविलास शर्मा को आखि़र
निराला की साहित्य साधना लिखते समय
भाग एक लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी
कविता के साथ कवि का जीवन देखना क्यों ज़रूरी है
सच तो यह कि आलोचक का जीवन भी
उसके मूल्यांकन के लिए देखना उतना ही ज़रूरी है
यह न समझें कि हरामज़ादे आलोचकों को बर्दाश्त करना 
कविता की मजबूरी है।

8

हिंदी का आलोचक है
ये वाला और ये मेरी पीढ़ी का है
कहता है कि मैंने अपनी ख़राब कविताओं से
हिंदी कविता का इकलौता रजिस्टर भर दिया है
और अच्छी कविताओं को लिखने के लिए जगह नहीं बची है
अब कहाँ जाएंगे भला अच्छी कविता लिखने वाले कवि
अरे भाई माना कि मैंने रजिस्टर भर दिया है
अभी तुम्हारी पूरी कमीज पूरा पतलून
तुम्हारी ओढ़ने और बिछाने की चादर तुम्हारा तकिया 
तुम्हारी रूमाल और तुम्हारे आँगन का आसमान
तुम्हारी दीवारें और छत और पानी की टंकी
और तुम्हारे शरीर के कुछ हिस्से भी तो
अनलिखे बचे हैं अभी
वहाँ मेरी ख़राब कविता न सही
अपने प्रिय कवियों से हज़ारों
अच्छी कविताएं तो लिखवा ही सकते हो
अरे आलोचना के मुंशियों अच्छी कविता वह है ही नहीं
जिसके लिखे जाने में कोई बाधा खड़ी हो सकती हो
पहाड़ तोड़कर नदियों को पाटकर
यहाँ तक कि मर्द कवि की अपनी छाती पर
फूल की पंखुड़ियों पर तितलियों के परों पर
कहीं भी कभी भी जो कविता लिख दी जाय
वही अच्छी कविता है
अच्छी कविता भीख में काग़ज़ माँगकर नहीं लिखी जाती है
अच्छी कविता दरेरा देकर लिखी जाती है
जैसे मैं लिखता हूं ख़राब कविताएँ।

9

हिंदी का आलोचक है
मैं इसको और उसको और उन सबको अच्छी तरह
आगे से भी पीछे से भी ऊपर से भी नीचे से भी जानता हूं
किस-किस की पांच फुट तीन इंच की कद-काठी में
किस-किस मठाधीश और किस-किस उपमठाधीश 
और उनके झाड़ू-पोछा करने वाले तक का
ठप्पा कहाँ-कहाँ छपा हुआ है
साफ़-साफ़ लिखा हुआ है पुट्ठे पर बाजू पर
ललाट पर गाल पर वगैरह
कि यह आलोचक किस-किस 
बाऊ साहब और पंडिज्जी जी की गाय है
इस गाय में अलबत्ता एक भारी नुक़्स यह है 
कि उनके लिए मरकही गाय है जिनके पुट्ठे पर
बाऊ साहब और पंडिज्जी की छाप नहीं है
इन आलोचकों को गाय ही होना था
तो अल्ला मियाँ की गाय नहीं हो सकते थे।

10

हिंदी का आलोचक है
किसी तरह छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा करता है 
रोज़़ एक-दो तो पुस्तक समीक्षा कर लेता है
अक्सर किसी किताब का लोकार्पण है तो आगे बढ़कर
ख़ुद ही कहकर आलेख-वालेख लिखकर पढ़ देता है
आजकल फेसबुक पर टिप्पणियों से भी पट्ठा
कुछ न कुछ कमा लेता है 
बस घर चला लेता है।

11

हिंदी का आलोचक है
अपने शहर के और बाहर के भी
महारथियों के रथ खींचता है रथियों के भी रथ खींचता है
जिनके पास रथ नहीं है उनकी पालकी ढोता है 
उतनी ही निष्ठा उतने ही समर्पण के साथ
अब तो रथ खींचने और पालकी ढोने में
इतना प्रवीण हो गया है कि यह सब 
किये बिना उसे नींद नहीं आती है
उसे रोज़ एक रथ या पालकी चाहिए
महाजन नहीं तो महाजन के पीछे का रथ
दिल्ली की नहीं तो अपने शहर की पालकी
रथ खींचने वालों का रथ
पालकी ढोने वालों की पालकी
ज़रूर से ज़रूर चाहिए उसे रोज़
एक रथ चाहे पालकी कुछ भी
यहां तक कि आदमी तो आदमी उसे
चूहे के रथ चाहे पालकी से भी 
सुकून और चैन मिल जाता है
उसे उम्मीद है ऐसे ही हिंदी आलोचना में
उसे एक दिन मोक्ष भी मिल जाएगा।

12

हिंदी का आलोचक है
हिंदी के सफल लेखकों के साथ
अपनी डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है
इस तरह सफल आलोचक कहलाता है
आलोचना के शेयर मार्केट का पक्का
दलाल है दलाल 
कवियों के नाम उछालता है भाव बढ़ाता है
हिंदी का आलोचक है वक़्त मौक़ा देखकर चलता है
कवि युवा है तो आगे-आगे चलता है
कवि बुज़ुर्ग है तो पीछे-पीछे चलता है
कह सकते हैं कि है तो आदमी पर
बुद्धि और कारनामे हैं किसी लोमड़ी की।

13

हिंदी का आलोचक है
अरे यह वाला तो रचनावलीबाज़ है
और यह वाला लेखक पर केंद्रित किताबबाज़ है
अरे यह बंदा तो एक नंबर का अकादमीबाज़ है
और यह जुल्फ़ रंगके और लहराके निकलने वाला 
पक्का तिकड़मबाज़ है
संपादक-प्रकाशक का ख़ुशामदबाज़ है 
आज की आलोचना का मशहूर दग़ाबाज़ है।

14

हिंदी का आलोचक है
देखो तो इसका घमंड इसके पतलून से चू रहा है
मिडिलस्कूल के हेडमास्टर की तरह
लेखकों से उठक-बैठक कराना चाहता है
ख़ुद कुछ किया नहीं दूसरों से सब कराना चाहता है
कहता है रामचरित मानस लिखो
तुलसीदास बनो कबीर बनो जायसी बनो
जैसी कविता लिखी जा रही है वैसी कविता मत लिखो
उपदेश और नीति की चौपाई लिखो
किसी कवि-आलोचक का चीरहरण मत करो
इन कुकर्मियों को छुट्टा साँड़ की तरह
ऊधम करने दो
बस कविता में राम भजो सीताराम भजो
राधाकृष्ण भजो चाहे सीधे 
बिहारी की तरह मकरध्वज घोलो
कुछ भी करो लेकिन कविता में
दुष्ट कवियों और आलोचकों की सर्जरी मत करो
हिंदी का आज का नक़ली आलोचक
सबको सीख देता फिरता है कि कैसी कविता लिखो
भू-अभिलेख निरीक्षक और लेखपाल की तरह
पैमाइश करके बताना चाहता है
कि आज सभी कवि लोग
उसकी बतायी जमीन पर कविता लिखें
पट्ठे को पता नहीं है कविता की परंपरा
और आलोचक बना जगह-जगह फिरता है
रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी को बताया था
कि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को
फिर तुम क्यों बावले हुए जा रहे हो
निराला ने छंद तुमसे पूछकर तोड़ा था
कि कुकुरमुत्ता झींगूर डटकर बोला
या गर्म पकौड़ी तुमसे पूछकर लिखा था
मुक्तिबोध को तुमने बताया था
कि मार्क्सवाद में ईमानवाद को
कैसे मिलाएं
छोटे केदार ने 
परमानंद से पूछकर लिखा था
औरों की नहीं जानता स्वयंभू आलोचक
मैं वही लिखूंगा जो अब तक 
नहीं लिखा गया है या कम लिखा गया है
गाँंठ में बाँध लो चाहे चुटिया में
चाहे हाफपैंट की जेब 
या पीटी शू के सफेद मोजे में 
छिपाकर रख लो मेरी बात
तुम मेरे आलोचक नहीं हो सकते हो
मेरा आलोचक 
अभी दूध पी रहा है बादाम खा रहा है
अखाड़े में अपनी देह पर मिट्टी मल रहा है
पसीना-पसीना ख़ूब दण्ड पेल रहा है
आएगा ज़रूर आएगा आलोचना का सोटा लेकर
बहुत बाद में आते हैं
ऐसे निडर ईमानदार और मज़़बूत आलोचक
तुम हमारे समय की कविता की आलोचना के
लिपिक हो सकते हो चाहे मुंशी जी हो सकते हो
हरगिज़-हरगिज़ आलोचक नहीं हो सकते हो।

(लंबी कविता : 5.7.20)







गुरुवार, 2 जुलाई 2020

दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास
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कितने भले
और सीधे सादे लोग हैं
कहते हैं जिसके पास प्रतिभा है
छंद है त्रिष्टुप है अनुष्टुप है पदलालित्य है
हिंदी उर्दू फ़ारसी कविता की समझ है 
वही आज का श्रेष्ठ कवि है

ओह 
निश्चय ही 
निश्चय ही निश्चय ही
जिसके पास इतनी विपुल राशि है
आज की तारीख़ में उसके
दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास 
होने पर तनिक भी संदेह नहीं है
नहीं है नहीं है

कारयित्री प्रतिभा का 
यह रहस्य जानकर मेरी छोटी बुद्धि 
भ्रष्ट हो गयी है गहरे सदमे में है
शायद उसे दिल का दौरा पड़ गया है
यह एक कवि की पहचान है
कि कविता का हुदहुद तूफ़ान है
अरे भाई 
कबीरदास के पास प्रतिभा का
इतना बड़ा ज़लज़ला था
हिंदी की दुनिया में 
कवि होने के लिए
कविता का ईमान काफ़ी क्यों नहीं है
फटकार कर 
सच कहना काफ़ी क्यों नहीं है
और जिसके पास ईमान नहीं है
वह कवि क्यों है 
कविता का लिपिक क्यों नहीं है

मैं पूछता हूं कि 
अभी पिछले दिनों एक धूमिल कवि था 
इस लिहाज़ से धूमिल था कवि नहीं था
चुटकीभर प्रतिभा से कंठ में कैसे बसा
और वह जो कविता 
और आलोचना के हरामज़ादों से
अपनी कविता और आलोचना में
ईमान का डंडा लेकर तीस साल से
अकेले लड़ रहा है लहूलुहान है
क्या है

कवि होने के लिए
प्रतिभा के नाम पर किसी रटन्त विद्या
या छंद के पहाड़े की क्या ज़रूरत है
कवि होने के लिए 
सिर्फ़ चुटकीभर ईमान काफ़ी क्यों नहीं है
कवि वह है जो इतना तो आज़ाद हो ही
कि जिसके पुट्ठे पर किसी की छाप न हो
जो कविता के पाठकों का सगा हो
जिसने कभी 
उन्हें कविता के चमत्कार से ठगा न हो
उनके लिए जिया हो मरा हो
हिंदी के हरामज़ादों से लड़ा हो
और हिंदी के मर्दों से मुँह न चुराया हो।

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पियक्कड़ आलोचक
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कमअक़्ल 
आलोचक को
एक-दो बार में आप 
थोड़ा-बहुत समझा सकते हैं

लेकन
छलछंदी आलोचक को 
हरगिज़ नहीं बिल्कुल नहीं
वह तो टस से मस नहीं होगा

आलोचना के 
गटर में गिरकर
वहीं से चिल्लाता रहेगा
अरे कोई लाओ रे एक पैग
छंद की व्हिस्की लाओ रे

पियक्कड़
आलोचक को छंद की मदिरा से
दूर नहीं कर सकते मर जाएगा
उसका कुनबा बिखर जाएगा
उसे कोई डर नहीं है
कोई शर्म नहीं

उसकी आलोचना की कार
लड़ती है तो जल्द लड़ जाए
उसे कैंसर होता है तो हो जाए
लीवर सिरोसिस चाहे
एनीमिया डिमेंशिया
हृदयरोग कुछ भी हो जाए

हे ईश्वर 
फिर भी इतना करना
कि बेचारा छलछंदी आलोचक
अपने जीवनकाल में आज
छंद की अनिवार्यता पर
एक अमर अकाट्य अद्वितीय
और ’कविता का चाँद और 
आलोचना का मंगल’ से सुंदर
लेख लिख जाए।

(वैधानिक चेतावनी : युवा आलोचकों को ’छंद की अनिवार्यता’ की शराब पीने से बचना चाहिए।)

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कर्ज़
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जिस
आलोचक की आलोचना में
ईमान का छंद नहीं होता है

वही
प्रायः कविता में छंद के लिए
आठ-आठ आँसू रोता है

क्योंकि
उसे कुछ कवियों से लिया गया
पुराना कर्ज़ चुकाना होता है।

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कवि की ऐंठी हुई ऐंठ
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आप 
आप हैं तो आप हैं
ये ये हैं तो ये हैं हां हैं
वो वो हैं तो वो हैं हा हैं
मैं मैं हूं तो मैं हूं हां हूं
फिर भी आप समझते हैं
कि आज की कविता में
आप ही आप हैं ओह
कितने बड़े बेवकूफ़ हैं
आप

आप की माया है
जहाँ उम्मीद नहीं होती
वहाँ भी दिख जाते हैं आप
कोई भी शहर कोई भी क़स्बा
किसी भी गाँव में पहाड़ पर
बस आप ही आप होते हैं
हर जगह आप

अपने समय की कविता में
दो नहीं दो सौ कवि होते हैं
और आप सोचते हैं कि बस
आप ही आप हैं बाक़ी सब
हवा हैं च्यूंटे हैं आक्थू हैं
वाह कितने बड़े वाले आप हैं
यह नहीं पता कि लंबे वक़्त की 
छननी से छनते हैं नाम
कितने बेसब्र हैं आप
अभी तो मौज़ूद हैं
आपके बाप।

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डरे हुए आलोचक को मार दो
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नाम-इनाम की लूटमार में
कविता का असली रखवाला 
आलोचक को होना चाहिए था
चाहे इसकी शुरुआत 
उसने ही की थी

लेकिन आज जबकि 
कविता थरथर कांप रही है
एक डरा हुआ आलोचक
जो ख़ुद की हिफ़ाज़त 
कर नहीं सकता

हिंदी कविता की आबरू
ख़ाक बचाएगा सबसे पहले 
उसे मार दो 

फिर सोचो दूर खड़े
कविता के भाइयो और बहनो
अगरचे तुम भी इस लूटमार में
शामिल नहीं हो।

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हुनर
-----

कवि का हुनर
कविता से पाठक को
कसके जोड़ने के लिए होता है
फ़ासला पैदा करने के लिए नहीं

और
कवि का हुनर क़तई
महाकवि की कुर्सी पर बैठकर
इतराने के लिए नहीं होता है

मेरे पास 
आलोचना की एक ऐसी मशीन है
जिससे ऐंठे हुए कवियों के हुनर को
तोड़-ताड़ कर मुफ़्त में ठीक करता हूं।

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गिनतीकार
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अरे भाई
सुनो-सुनो मैं तो
किसी कविता दशक में
पैदा ही नहीं हुआ
बक़ौल गिनतीकार

चलो अच्छा हुआ
मैं तो अपने हमज़ाद
छोटे सुकल समेत फाट पड़ा
पांच फीट आठ इंच डैरेक्ट 
आधुनिककाल में

गिनतीकारो ने
रोज़-रोज़ कविगणना से
माठा नहीं कर रखा होता
तो मैं उनके ख़लिफ़ भला
ऐसी सख़्त कार्रवाई क्यों करता।

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आलोचक दोस्त से दिल की बात
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मेरे प्यारे आलोचक दोस्त 
हम कबीर और गौतम बुद्ध
छात्रावास में रहते थे 
रोज़ मिलते थे
नहीं मिल पाते थे तो हमारा
खाना हज़म नहीं होता था
हम दो बार एक बार रोज़ 
मिलते ही मिलते थे
जैसे कल की बात हो

अब कितना कुछ बदल गया है
वक़्त रास्ते और प्राथमिकताएं
सब कितनी आसानी से हुआ
मैं शायद ज़्यादा बदल गया
कवि के साथ आलोचक भी
हो गया मैं होना नहीं चाहता था
तुमने रोका भी नहीं हो गया

असली दुनिया में
बहुत मारें पड़ीं तो दिल हिल गया
तुमने रोका नहीं आभासी दुनिया में
आ गया काफ़ी पहले
वक़्त लगा तुम भी इस नयी दुनिया में 
खिंचे चले आये किसी आकर्षण में
मेरा क्या मैं तो मज़बूरी में आया

हम 
यहां भी साथ-साथ हैं
फेसबुक का हॉस्टल आसपास है 
लेकिन यहां कम दिखते हो
दिखते भी हो अगरचे कभी
तो मेरी दीवार की तरफ़
कोई काम निकालकर 
अब आते भी नहीं हो आओ तो
मेरी दीवार पर कुछ भी करो
बुरा नहीं मानूंगा

तुम 
इस दुनिया में 
किसी और काम से 
क्यों नहीं आते हो कुछ तो बड़ा 
कर रहे होगे शायद
कविता का इतिहास लिख रहे होगे
चाहे किसी की रचनावली 
संपादित कर रहे होगे
लेख तो दो दिन में हो जाता होगा
कुछ कवियों को बड़ा कवि बना रहे होगे
ज़रूर कुछ ख़ास है तभी यहां
बहुत नाप-तौल कर आते हो
दो मिनट में लौट जाते हो

किसी बड़े लेखक की पुण्यतिथि पर 
चाहे उसकी जयंती पर आते हो 
ज़्यादातर लेखकों के निधन पर ही
श्रद्धांजलि देने के लिए आते हो
मतलब बहुत ग़लत समय पर 
आते हो मित्र
मुझे तुमसे बहुत डर लगने लगा है
इस तरह तो आशंका की तरह 
यहां पहले कभी नहीं आते थे
कुछ माह पहले मेरी दीवार पर
आते थे कुछ पल के लिए
तो मित्र की तरह 

इस 
आभासी दुनिया में 
कभी-कभार दोस्तों से मिलने के लिए 
निकला करो जैसे पहले निकलते थे
चाय के लिए कविता सुनने के लिए
देखो आज कैसी कविता लिखी है
छंद के छलछंद के ख़लिफ़ लिखी है
ख़ुद तुलसीदास आए आशीष देने
और प्यार देते हुए कहा 
कविता और आलोचना के रावण से
लड़ना ज़रूरी है

तुम 
मेरी कविताओं को 
अब भी प्यार करते हो
किसी माफ़िया का डर भी होगा
तो भी मेरी कविताओं को ज़रूर
दिल ही दिल में प्यार करते होगे।

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तर्क
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किसी को
अपशब्दों की बौछार से
लज्जित करना चाहोगे तो
वह सिर्फ़ नाराज़ होगा

और
उसकी आँख में
आँख डालकर तर्क करोगे
तो उसकी आत्मा लज्जित होगी

बशर्ते 
उसने अपने हाथों
अपनी आत्मा का गला
घोंट न दिया हो

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मज़दूर क्रांति
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मज़दूर 
सिर से पैर तक मज़दूर होता है
न किसी का भाई होता है न बेटा न पिता 
न पति न प्रेमी न नागरिक न मतदाता
न मनुष्य

मज़दूर 
जैसा कोई और नहीं होता है
सिर्फ़ मज़दूर जैसा ही मज़दूर होता है
मज़दूर दुनिया का चाहे इस देश का
अद्वितीय प्राणी होता है
उसका दुख अद्वितीय होता है
उसका पसीना उसका आंसू
सब अद्वितीय होता है

मज़दूर
प्रगतिशील कविता का
प्रमुख विषय होता है कसौटी होता है
कवि जी की दृष्टि में वही प्राणी होता है
शेष पृथ्वी पर चाहे देश में मृतात्माएं हैं
सचल पाषाण प्रतिमाएं हैं 
उन्हें न दर्द होता है
न उन्हें छाला पड़ता है न आंसू बहता है
न बीमार होते हैं न भूख से मरते हैं
न कवि जी की सहानुभूति पाते हैं

आज़ादी के बाद से ही
सिर्फ़ राजनेताओं ने ही नहीं
कवियों ने भी भरपूर कोशिश की
कि देश के ग़रीब अमीर न होने पाएं
और मज़दूर मिल मालिक
यथास्थिति बनी रहे
कविता में रोना-धोना होता रहे
मज़दूरों को काम के लिए
दूर-दूर तक जाना पड़े
मुसीबत में पैदल आना पड़े
और कवि जी को कविता लिखना पड़े
और ऐसी करुणा विगलित कविताओं से 
वाहवाही के पहाड़ उठाना पड़े

हो न हो
यह दशक मज़दूर कविता के नाम रहेगा
आज के कवियों आलोचकों और
संपादकों के बहुत काम का रहेगा
दशक की बेवकूफ़ी में फंसे कवियों के लिए
मज़दूर दशक इस दशक की कविता का
नाम रहेगा

यह भी 
हो सकता है कि मज़दूर इंडिया नाम से 
धड़ाधड़ कई खंडों में संकलन आ जाएं
पत्रिकाओं में लाइव पर दीवार पर
चर्चा की बाढ़ आ जाए

आज यशपाल होते
तो हरगिज़ करवा का व्रत नहीं लिखते
कोरोना पर भी लंबी कहानी नहीं लिखते
मज़दूर का व्रत ज़रूर लिख रहे होते
केदारनाथ अग्रवाल भी हे मेरी तुम 
आज की तारीख़ में हरगिज़ नहीं लिखते
हे मज़दूर लिख रहे होते
और कविता में औचक हो रही
मज़दूर क्रांति पर
ख़ुश हो रहे होते।

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शास्त्रार्थ
----------

हे
सूथन वाले
पंडिज्जी पालागी 

ऊ पगलेटवा से
भिनसरवे से काहे
शास्त्रार्थ करत हौ

चोर उच्चकन से
मक्कार हरामजादन से
शास्त्रार्थ करब ठीक है

शास्त्रार्थ ज्ञानी पंडितन से 
ईमानदार मनइन से करबो
कि हिंदी कै दगाबाजन से

जौन सब
कबीर प्रेमचंद निराला
मुक्तिबोध कै बेचिखाइन

वोन्हनन सालन से
कब तक शास्त्रार्थ करबो
ई जिनगी बरबाद करबो

हम पूछित है पंडिज्जी 
एन्हनन कै कौने जनम में
डंडा करबो।

------
पापी
------

पहुंचभर जाता
साहित्य की काशी

किसी भी घाट पर
डुबकी लगा लेता

बहती हुई गंगा में 
मैं भी हाथ धो लेता

तो कोई बंदा आज
पापी नहीं कहता।

------------
सोने वालो
------------

जागते 
रहो

सोन का
इनाम
लेने वालो!

---------
कवि थे
---------

वे सब तेज़ी से
उधर ही भाग रहे थे

जिधर 
कुछ बंट रहा था

लॉकडाउन में
मुसीबत के मारे
मज़दूर नहीं थे

सब के सब
हिंदी के कवि थे।

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कवि नहीं कहा
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पापी कहा
पागल कहा
कुंठित कहा
असफल कहा
क्या-क्या नहीं
कहा ज़माने ने

बस एक 
कवि नहीं कहा।

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काँटों की सेज की कविता
------------------------------

मैंने
उनकी बहुत सुंदर
और बहुत कोमल कविताओं को
बहुत-बहुत देखा 

वाह-वाह 
करते-करते थक गया
उन्हें और कुछ लिखना आता ही नहीं था
इतना तो देखा और कितना देखता

उन्होंने तो
मेरी कँटीली कविताओं को कभी
चाहे मुझे फूटी आँखों से भी नहीं देखा
फिर भी लंबे समय तक उन्हें देखता रहा

आख़रि ऐसे
महाकवियों की ओर कब तक देखता
जिनकी कविताएं फूल जैसी हैं
और कविता की समझ पत्थर की तरह

कोई महाकवि 
यह कैसे समझ सकता है कि कविता
कभी कांटों की सेज पर नहीं सोएगी
हमेशा फूल ही पंखुड़ियों में बंद रहेगी

कोई कवि 
सोचता है कि वह जैसी कविता लिखेगा
बस वही कविता होगी बाक़ी पागलपन
तो मुझे उसके कवि होने पर संदेह है।





बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित श्रेष्ठ कवियों का शपथग्रहण तथा अन्य कविताएं


- गणेश पाण्डेय

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बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित श्रेष्ठ कवियों का शपथग्रहण
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हिंदी का कवि 
बहुत अधिक परिश्रमी है
वैश्विक चिंता उसका स्थायी भाव है
कितना बोझ है हिंदी के कवि पर
क्या पता विश्व के बाक़ी कवि 
लंबी छुट्टी पर हों

जो भी हो
हिंदी का कवि इस महादेश का प्रहरी है 
लोकतंत्र का सबसे सच्चा रखवाला है 
संसद और जनता का शुभचिंतक है 
समता और न्याय का महागायक है 

हिंदी भाषा और साहित्य का
लाडला है राजकुमार है महाराज है
हिंदी के सारे मंच सारे पुरस्कार
सारे कवितापाठ सारे लाइव
सारे संगठन सारी अकादमियां
सारी सुंदर कविताएं
सब उसकी हैं 

बस एक कमी है
उसका नज़दीक का चश्मा टूट गया है
इस वजह से वह सतह पर
चाहे ज़मीन के नीचे हिंदी का
हाथी जैसा नुक्स भी देख नहीं पाता है
उसके लिए सत्य एक अनुमान है इसीलिए
उसे हिंदी में कुछ भी चिंताजनक नहीं दिखता है
वह सिर से पैर तक मार्क्सवादी होकर भी 
हिंदी में पूर्ण रामराज्य देखता है 
शेर और बकरी का शुभविवाह होते देखता है
किसी की पीठ में किसी को छुरा भोंकते नहीं देखता है
किसी को किसी का इनाम लेकर 
भागते नहीं देखता है 

वह 
सिद्धावस्था का कवि है
हिंदी का अंतर्यामी है उसे जो प्रिय है 
जो उसके मन और आचरण में बसा है
वही उसके लिए पूर्ण सत्य है शेष असत्य है
उसने मान लिया लिया है
हिंदी का उसका संगी-साथी कोई कवि
किसी कवि की गठरी नहीं चुराता है
सारे कवि दूध के धुले हैं 
कोई विश्वकविता से कुछ नहीं लेता है
उसके प्रशंसक हिंदी के सारे कवि मौलिक हैं

उसे गर्व है
अपने आठवें दशक का कवि होने पर
हिंदी कविता की महान परंपरा में
सत्य हरिश्चंद्र की औलाद होने पर
कबीर निराला मुक्तिबोध ही नहीं
नौमीनाथ केदारनाथ आदि की भी
औलाद होने पर
उसके लिए यह विस्मय का नहीं
अपनी कविताओं के प्रति आश्वस्ति का कारक है
उसे एक साथ सबका
उत्तराधिकारी होने का गौरव प्राप्त है
हिंदी का भविष्य ऐसे हाथों में सुरक्षित है
उसने अपने अथक श्रम से
हिंदी में विश्व का सबसे स्वस्थ लोकतंत्र रचा है
अभी हाल में सबने
आठवें दशक के इन कवियों को निर्विरोध
बीसवीं शताब्दी का श्रेष्ठ कवि चुना है
बहुत थोड़े से कवि हैं 
उंगलियों पर गिने जाने लायक
जो दिल्ली से बहुत दूर हैं
पागल हैं इस चुनाव को 
निरस्त करने की मांग करते हैं
लेकिन नक्कारख़ाने में 
चंद तूतियों की आवाज़
भला कौन सुनता है

फिर भी शपथग्रहण के रंग में
कोई भंग न पड़े इसलिए बात
काफ़ी ऊपर तक ले जायी गयी है-
हे कविता के अंतरराष्ट्रीय देवताओं
हे अनुवादप्रिय हे प्रभावप्रिय हे सत्कारप्रिय 
हे अंग्रेजीप्रिय इन पागलों को देखिए 
एक तो बड़ा ही ज़बरदस्त पागल है 
ग़ुस्से में अपना कुर्ता-पाजामा फाड़ लेता है
उसे हिंदी कविता की परंपरा का 
रत्ती भर ज्ञान नहीं है कहता है- 
हिंदी की दुनिया में जो इनामी है 
कवि नहीं डाकू है
हे विश्वकविता के छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं
आप ही बताएं ऐसा कैसे हो सकता है
हिंदी का कवि चोर तो हो सकता है
डाकू कैसे हो सकता है
और इन कवियों को ऊपर से
हरी झंडी भी मिल गयी है

हिंदी के बाक़ी दशकों के
सुकवि अतिप्रसन्नतापूर्वक लकदक
बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित 
श्रेष्ठ कवियों के
शपथग्रहण की भव्य तैयारियों में
जोर-शोर से लगे हुए हैं
ओह इनके पास तो नंबर एक तक
करने की फुरसत नहीं है 
ऐसा उत्साह ऐसा उत्सव 
क्या किसी अन्य भाषा में 
संभव है

हिंदी के इन
कनिष्ठ कवियों जैसी निष्ठा 
विश्व की दूसरी भाषाओं में 
विरल है विरल है विरल है।

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लाउडस्पीकर
----------------

(लोग हैं लागि कवित्त बनावत
मोहि तौ मोरे कवित्त बनावत।
याद आए अनन्य प्रेमी घनानंद)

मुझे हिंदी में
चींटी की मुंडी के बराबर भी
मान नहीं मिला न चाहिए था
न अब चाहिए

अकादमी तो अकादमी
अपने शहर का चाहे मुहल्ले का
कोई इनाम नहीं मिला न चाहिए था

किसी शहर किसी संस्था
किसी सरकार किसी बेकार का
कोई तमगा मुझे नहीं मिला
न कभी चाहिए

मैं ही था 
जिसे मौक़ा नहीं मिला
वक़त पर एकल काव्यपाठ का
बुड्ढों ने जगह ही नहीं खाली की
मरते दम तक पढ़ते रहे कविता

अब पैंसठ की उम्र में
मुझे कविता पढ़ना भी नहीं है
बिना पढ़े मैंने खाली कर दी थी जगह
अपने बाद के लोगों के लिए
काफ़ी पहले

मैंने शुरू में ही
इधर-उधर देखने की जगह
ख़ुद पर भरोसा किया ख़ुदमुख़्तार बना
और मुझमें कुछ अजीब बदलाव हुए

ख़ासतौर से
मेरे सिर पर निकल आयीं थीं
ख़ूब लंबी-लंबी बैलों जैसी कई सींगे 
कोई आशीर्वाद देने के लिए डर के मारे
हाथ ही नहीं रख पा रहा था

हिंदी में कृपा बरसाने वाले
दूर से नहीं बरसाते थे पास बुलाते थे
बिल्कुल पास झुकाते थे कृपा बरसाते थे
मुझे पास नहीं बुलाते थे
मेरे पास सींग थी

मेरा चेहरे से नूर नहीं टपकता था
मेरे गाल गोरे नहीं थे मुस्कराता नहीं था
चट्टान की तरह सख़्त था चेहरा
सारे बड़े लोग और उनके चमचे साले
दूर से भगा देते थे

मैं क्या करता
मेरे पास न भाग्य था न सीढ़ी
मैं ख़ुद ही लंबी-लंबी छलांगे लगाने लगा
किसी के भी सिर तक कूदकर जाने लगा

मुझे देखते ही सब चिल्लाने लगते
हटाओ-हटाओ इस देहाती-भुच्चड़ को
कोई-कोई मुझे मां-बहन की गाली देते
असल में मैं उन लोगों का कुछ भी
बिगाड़ नहीं सकता था

न मैं गाली देता था 
न उन पर डंडे बरसाता था
न ही उनका कुर्ता-पाजामा 
कमीज-पतलून वगैरह फाड़ता था 
जबकि ऐसा आसानी से कर सकता था

मुझे 
उन लोगों से कुछ नहीं चाहिए था
न की गयी चोरियों-डकैतियों में हिस्सा
न स्त्रियों संग दुराचरण में सहभागिता
मैं अपनी पत्नी को बहुत प्रेम करता हूं

मैं तो सिर्फ़ दूर से 
लाउडस्पीकर लगाकर
साहित्य की अवनति के विरुद्ध
रोज़ बोलता था उनसे प्रश्न करता था
यह सब भी उनके लिए असह्य था
जो उनके लिए असह्य था
मेरे लिए प्रिय था और है
और रहेगा

देखिए 
क्या-क्या किया गया है मेरे साथ
हाय मेरे लाउडस्पीकर को देखिए
इसे तोड़ने-फोड़ने की कोशिश की गयी 
फिर भी मैं चुप नहीं हुआ 
तो मुझे हिंदी के सबसे बड़े कूड़ेदान में
ज़बरदस्ती उठाकर फेंक दिया गया है
और मैं वहीं से उनके मुंह पर 
रोज़ थूकता हूं।

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अंगरखे में सुर्ख़ गुलाब
------------------------

नेहरू ने 
ठीक कहा था आराम हराम है
सिर उठाकर जिस शान से कहते हैं 
हिंदी के ये क्रांतिकारी लेखक

काश 
उसी तरह कह पाते ये लेखक
बुलंदतर आवाज़ में इनाम हराम है
और प्रलय तक विद्यमान रहती 
इनकी गूंज दिशाओं में

और ये लेखक
हिंदी को जन-जन तक ले जाते
उसे उनके सरोकारों से जोड़ पाते
काश ये हिंदी के नेहरू बन पाते

इनाम की जगह 
अपने अंगरखे में सुर्ख़ गुलाब टांकते
हिंदी के बच्चों के चाचा कहलाते

मुझ जैसे को
रातों में नींद कहां दिन में चैन कहां
हिंदी के बच्चों की चिंता में अब
इस जीवन में आराम कहां।

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कितनी अच्छी सरकार है
---------------------------

कितनी आज़ादी है
कोई इमरजेंसी नहीं लगायी गयी है
फ़ासिस्टों के विरोध में एक-एक कवि
हज़ार-हज़ार टन कविताएं
लिख सकता है

सरकार ने 
किसी को मना नहीं किया है
कि अपना आदर्श मार्क्स को मत बनाओ
गांधी या लोहिया को बनाओ
साहित्य की काशी न जाओ 
मगहर जाओ

सरकार ने 
किसी भी गिरोहबंद लेखक का नाम 
किसी कालीसूची में नहीं डाला है
हिंदी का कोई लेखक नज़रबंद नहीं है
कोई भी किसी भी स्त्री को
बुरी नज़र से देख सकता है

कोई पाबंदी नहीं है
कोई भी किसी का भी चरणरज ले सकता है
किसी भी तुच्छ लेखक की पादुका
जिह्वा से स्वच्छ कर सकता है

कितनी अच्छी सरकार है
किसी को भी दूसरे के हिस्से का पुरस्कार
मंच माइक माला छीनने की
कोई मनाही नहीं है
लेखक कुछ भी कर सकता है
कोई आचारसंहिता ही नहीं है
कोई लेखक आयोग भी नहीं है

हमारी प्यारी सरकार ने 
कविता की नकल चोरी गैंग बनाने
या साहित्यिक क़त्ल रोकने के लिए
कोई अध्यादेश नहीं पारित कराया है

फिर भी आप कवि लोग
सरकार के लोगों को कितनी गालियां देते हैं
सरकार ने हिंदी के कवियों को
कितनी छूट दे रखी है
सभी प्रकार के व्यभिचार करने की
छूट दे रखी है

सरकार ने
साहित्य की काशी में मोक्ष के लिए
टिकट के बिना उड़कर 
जाने की अनुमति दे रखी है
लेखकों की लाइन लगी हुई है
अकादमियों के गेट खुले हुए हैं
धड़ाधड़ लेखक मशहूर हो रहा है
साहित्य की कच्ची शराब के नशे में
चूर हो रहा है

बस सरकार 
सिर्फ़ मगहर जाने वालों पर 
बहुत से बहुत सख़्त है
मेरी तो हालत पस्त है
जिस पागल लेखक को 
वहां जाना है पैदल ही जाए
इकतालीस डिग्री की धूप में 
सिर से पैर तक पसीना बहाए
फिर कबीर का दास कहलाए।

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कोमलांगी कवियो
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एक तो हिंदी में 
मेरी किस्मत पहाड़ जैसी सख़्त 
और उतनी ही बेजान है

उस पर 
मेरी दीवार ज़बरदस्त कँटीली
उस पर मेरी बर्छी जैसी कविताएं 
और गद्य आए दिन चस्पा होते रहते हैं

ओह
कोमलांगी कवियों 
और आलोचकों को 
कितनी दिक़्क़त होती होगी
एहतियात के तौर पर तो उन्हें 
सौ गज दूर से इस बघनखे लेखक को
देखना पड़ता होगा

यह सोचकर
कि चलो हमारे समय में है साला
इस साले को भी दूर से जीभर देख लो
क्या लगता है कुछ नहीं लगता है
कुछ मां-बहन की गालियां भी देते होगे
मैं बुरा नहीं मनाता कोमलांगी लेखको

मैं ऐसा शुरू में नहीं था
रीफ़ जैसे दस उपन्यास लिख सकता था
ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला जैसी 
हज़ार से ज़्यादा कविताएं लिख सकता था
कई सौ शुद्ध शाकाहारी लेखों का 
पहाड़ खड़ा कर सकता था

ये तो हिंदी के राक्षस थे
जिन्होंने मुझे ऐसा करने नहीं दिया 
चलती हुई ट्रेन के सेकेंड क्लास के डिब्बे से 
मुझे पूरी तबीअत से ठोकर मारकर 
बाहर कर दिया 
मेरे साथ भी ऐसा होना था

तुम्हीं बताओ 
कोमलांगी लेखको
मेरे पास हिंदी के इन ज़ालिमों के इशारे पर 
चलती हुई ट्रेन पर पत्थर बरसाने के अलावा 
और क्या विकल्प था
क्या मैं ट्रेन की पटरी पर लेट जाता
और इन ज़ालिमों की धड़धड़ाती हुई ट्रेन को
अपने ऊपर गुज़र जाने देता

अब तो मेरा यह हाल है
कि जहां-जहां हिंदी के ज़ालिम दिखते हैं
आप से आप मेरे हाथों से जादू की तरह
तेजी से पत्थर छूटते हैं बर्छी छूटती है

अच्छा करते हो 
जालिमों के घराने से ताल्लुक रखने वाले 
हिंदी के कोमलांगी लेखको
जो मेरी दीवार से दूर रहते हो

तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा हुआ
कि तुम्हें वज्र जैसी छाती नहीं मिलीं
एक साथ दसों दिशाओं में अहर्निश
तलवार चलाने वाली बलिष्ठ 
भुजाएं नहीं मिलीं

तुम्हें तो 
सारे के सारे अंग अतिकोमल मिले हैं
हिंदी के विधाताओं ने हाय तुम्हें
कितनी फुरसत से गढ़ा है
तुमने वह सब सीखा जो चाहा
सारी कलाएं भी चतुराई भी

तुमने कव्वे की तरह 
जब-जब जितना सिखाया गया 
उससे भी ज़्यादा होशियारी सीख ली है
अपना सिर सलामत रखना ख़ूब जानते हो
यह भी जानते हो कि जिस राह पर तुम हो
गद्दी और मुकुट सब मिलना तय है

कुसूरवार तो मैं हूं
मैंने ही तय रास्तों पर 
शुरू में ही चलना छोड़ दिया नहीं तो 
तुम्हें मुझ जैसे आत्मघाती लेखक से
कभी कोई शिकायत नहीं होती।

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साहित्य में तीन सौ सत्तर
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वाजपेयी जी चाहते हैं
राजनेता प्रतिदिन दुग्धस्नान करें
पूरे शरीर पर चंदन का गाढा लेप करें
धवल वस्त्र धारण करें

मिश्र जी जोशी जी पाण्डेय जी 
बाऊ साहब लाला जी भी चाहते हैं
फ़ासिस्टों का समूल नाश कर दिया जाय
नाश न हो पाने तक पूरी मुस्तैदी के साथ
उन्हें रोज़ पटककर कचर-कचर कर
डिटर्जेंट से सुबह-शाम साफ़ किया जाय
दिन में चार बार और रात में तीन बार
गुलाबजल में नहलाया जाय

ये लेखक लोग मिलकर
संयुक्त वक्तव्य जारी करते हैं-
चूंकि देश में समाज में कोने-अंतरे में
हर जगह बुरे लोग राजी-खुशी रहते हैं
लेखकों को भी ठीक उसी तरह 
राजी-खुशी रहने दिया जाय

यहां तक 
सब ठीक चल रहा था
लेकिन जैसे इन सब लोगों ने
वक्तव्य में पुनश्च करके जोड़ा
कि उन्हें नहाने के लिए न कहा जाय
उन्हें वस्त्र पहनने के लिए न कहा जाय
उनके उच्च विचार और आदर्श जीवन
केवल उनके साहित्य में देखा जाय

एक पागल लेखक
उछलकर उनके पास पहुंच गया
नटई पकड़कर घसीटते हुए चिल्लाया
तुम सब लेखक हो तो तुम्हारे लिए
साहित्य में अलग से कोई धारा
तीन सौ सत्तर की तरह
क्यों चाहिए क्यों।
















आलोचक अभिनव ज्ञान की मौखिक परीक्षा तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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आलोचक अभिनव ज्ञान की मौखिक परीक्षा
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आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
अपने पट्टशिष्य अभिनव ज्ञान से 
मौखिक परीक्षा में सबसे पहले पूछा-
वत्स, अपना नाम बताओ 

अभिनव ज्ञान ने 
हाफपैंट की जेब से हाथ बाहर निकाला
और धाराप्रवाह बोलना शुरू किया-
जी, मेरे अग्रज का नाम ज्ञानेंद्र है
उनके अग्रज का नाम ध्यानेंद्र है
मेरे अनुज का नाम रणेंद्र है
उसके अनुज का नाम देवेंद्र है
मेरे चचेरे भाई का नाम नरेंद्र है
मेरे मौसेरे भाई का नाम जितेंद्र है
मेरे फुफेरे भाई का नाम धर्मेंद्र है

आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह को
गर्व से देखा कि ग़ौर से देखिए 
मेरे संस्थान का नगीना है नगीना
एक प्रश्न के दस-दस उत्तर दे सकता है

बाह्य परीक्षक 
आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने पूछा-
वत्स, तुम्हारे पिता जी का क्या नाम है
और अभिनव ज्ञान की आँखों से निकलती
अद्भुत ज्योति से चकित होकर
फिर कहा- हां, वत्स बताओ

अभिनव ज्ञान ने फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे ताऊ का नाम है निर्मल प्रसाद
मेरे मंझले ताऊ का नाम है विमल प्रसाद
मेरे चाचा का नाम है सदल प्रसाद
उनसे छोटे चाचा का नाम है कोमल प्रसाद
मेरे फूफा का नाम है लालमन प्रसाद
मेरे मौसा का नाम है ढुनमुन प्रसाद
मेरे मामा का नाम है भुल्लन प्रसाद

इस बार 
बाह्य परीक्षक सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक हँसमुख शास्त्री डी. लिट. को 
सविस्मय देखा
और एक चौड़ी मुस्कान मुस्काए-
वाह, क्या विद्यार्थी है अद्भुत है
हिंदी का प्रतिभाशाली आलोचक है
पूछो एक बताता है दस
आचार्य हँसमुख शास्त्री ने 
अपना सीना छप्पन इंच का करके
अतिहर्षित होते हुए कहा-
मित्र सुतुही प्रसाद सिंह जी पूछिए 
कुछ और पूछिए

आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने 
अभिनव ज्ञान को ग़ौर से ऐसे देखा
जैसे सूर्य और चंद्रमा को देख रहे हों
जैसे रामचंद्र शुक्ल 
और हजारी प्रसाद द्विवेदी को
साक्षात देख रहे हों 
मन ही मन प्रणाम भी किया
तत्क्षण सहज होकर अभिनव ज्ञान से पूछा - 
वत्स, अपने गाँव का नाम बताओ

अभिनव ज्ञान ने 
प्रचण्ड आत्मविश्वास से फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे गाँव में गाँधी जी आ चुके हैं
और नेहरू जी दो बार आ चुके हैं
मेरे गाँव में वाजपेयी जी भी आ चुके हैं
मेरे गाँव में नामवर जी आ चुके हैं
मेरे गाँव में रामविलास जी आ चुके हैं
मेरा गाँव आदर्श गाँव बन चुका है
मेरा गाँव जनपद मुख्यालय के पास है
मेरे गाँव के पास रेलवे स्टेशन है
मेरे गाँव के पास हवाईअड्डा बन रहा है

बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह
अभिनव ज्ञान की कारयित्री प्रतिभा से
और आचार्य हँसमुख शास्त्री डी. लिट. के भव्य
सत्कार से तृप्त और अतीव प्रसन्न हो चुके थे
उन्होंने कहा- अब जाओ, वत्स!
आलोचना के आकाश में विचरण करो
जो चाहो सो करो

परीक्षार्थी के जाने के बाद
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक और अपने मित्र
आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. से
तपाक से कहा-
अभिनव ज्ञान को उसके अभिनव ज्ञान 
और विलक्षण तर्कणा के आधार पर
हमारे समय की हिंदी आलोचना की
पीएचडी की उपाधि प्रदान करने हेतु 
संस्तुति की जाती है।

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चुग़द उर्फ़ मियाँ मोहन राकेश
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(तुम से पहले भी वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था/
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था : हबीब जालिब)

इस शहर में 
तब भी कोई हलचल नहीं हुई थी
शायद सब अपने-अपने में 
बहुत मसरूफ़ रहे होंगे
कुछ जो अपने शहर के लेखक से
भीतर ही भीतर जलते रहे होंगे
शायद ख़ुश भी हुए होंगे
कि चलो हम नहीं छोटा कर पाये
उसे किसी ने तो किया

जब
मोहन राकेश ने
शायद अपने बोले चाहे लिखे में
कोई नुक़्स निकालने की वजह से
इस शहर के एक लेखक को
चुग़द कहा था बल्कि लिखा था
टाँक दिया था बाक़ायदा 
अपनी डायरी में हमेशा के लिए
बिना वजह बताए उसके मुँह पर 
कालिख मल दिया था

क्या 
कोई बड़े से बड़ा लेखक भी
साहित्य का ख़ुदा होता है
कि कोई उसकी आलोचना न करे
कोई उसे चुभने वाली बात न करे
और चुभने वाली बात का जवाब
शानदार दलील की जगह गाली क्यों हो
भला ख़ुदा भी कहीं गाली देता है

काश
मैं मोहन राकेश का
समकालीन रहा होता तो कहता
मियाँ मोहन राकेश बड़े लेखक हो
तो तुम्हारे पास कोई अच्छा शब्द 
क्यों नहीं है 
अनाड़ी नहीं कह सकते थे
नासमझ नहीं कह सकते थे
औसत नहीं कह सकते थे
कहाँ गयी थी तुम्हारी भाषा
घास चरने चली गयी थी
उस वक़्त जब तुम 
किसी लेखक पर
टल्ली होकर
थूक रहे थे

मोहन राकेश 
तो मोहन राकेश
आज की तारीख़ में
छोटे से छोटा लेखक भी ख़ुद को
बड़ा लेखक से कम नहीं समझता है
उसे ख़ुद के तख़्त-नशीं
और ख़ुदा होने का 
घमंड हो गया है

बुरा वक़्त है
मोहन राकेश के समय से काफ़ी बुरा है 
जो आज काफ़ी बुरा है वह भी
धड़ल्ले से किसी लेखक को
उसके मुँह पर चुग़द कह सकता है
मुझे भी

मेरी बात और है
फिर भी मेरे मुँह पर कोई
मेरे बराबर का या मुझसे बड़ा शख़्स
मुझे चुग़द कहेगा तो शायद मैं 
सीधे उसका कुर्ता फाड़ दूँ
अगर मैं ऐसा नहीं करता 
तो यह शहर तो मेरे साथ भी
ठीक वही सलूक करेगा
अकेला छोड़ देगा

यह शहर है ही ऐसा
कहने के लिए सब साथ होते हैं
लेकिन असल में सब के सब
बहुत अकेले होते हैं
इतनी बुरी तरह अकेले होते हैं 
कि अकेले चलने जीने और लड़ने का
साहस ही किसी के पास नहीं होता है
भला ऐसा शहर भी कोई शहर होता है।

(नोट : यह कविता एक अर्थ में अपने शिक्षक परमानंद श्रीवास्तव के प्रति श्रद्धांजलि है। परमानंद जी एक लोकतांत्रिक लेखक थे। सहमति और असहमति, दोनों का स्वागत करते थे। साहित्य में कई मुद्दों को लेकर मेरी उनसे असहमति भी रही है, लेकिन मुझ पर एक शिक्षक के रूप में उनका ऋण भी रहा है। इस कविता को मुझे कोई पच्चीस-तीस साल पहले लिखना चाहिए था, लेकिन किसी बात को लिखने का समय कब और किस घटना-दुर्घटना के बहाने आएगा, यह कौन जानता है।)

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परिक्रमाकार 
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जब 
आपके पास 
ढंग का एक लेख भी नहीं है
जिसका नाम लेकर 
अभी बता सकें कि यह
आपकी कीर्ति का आधार है
एक बीघा खेत नहीं है 
और आप बनना चाहते हैं
गोरखपुर की आलोचना का 
ज़मींदार
ऐसा कैसे हो सकता है भला
और अगर आप बज़िद हैं 
तो फिर आपको इस उम्र में 
साहित्यिक औषधि की जरूरत है

बेहतर हो
आप अपने लिए 
औषधि की विधि का चुनाव ख़ुद करें 
चाहें तो आयुर्वेदिक चाहें तो होम्योपैथ 
लेकिन एलोपैथ आपके लिए
ख़तरनाक होगा उसमें सर्जरी है

इस उम्र में
दुर्बल महत्वाकांक्षाओं को 
अपने घर के सहन में मिट्टी खोदकर 
उसी में रखकर अच्छी तरह से 
ऐसे दबा देना चाहिए 
कि फिर कभी बाहर न आ सकें
जैसे मैंने एकल काव्यपाठ 
मंच माइक माला 
और पुरस्कार की इच्छा को 
दफ़्न कर दिया है

साहित्य में 
एक कार्यकर्ता के रूप में भी 
ईमान साथ हो तो अच्छा काम 
किया जा सकता है 
और अमूमन मठाधीश के रूप में 
बहुत ख़राब काम किया जाता है 
गोरखपुर के मठाधीश का हाल देख लें
न कविता में कुछ न आलोचना में कुछ 

और
आप हैं कि आलोचना का क़िला 
फ़तह करने की ज़िद लिए बैठे हैं
यह भूल गये हैं कि आप ऊंट हैं
और पहाड़ को मां की गाली दे बैठे हैं

असल में 
आप छेदीलाल शुक्ल के काव्य संग्रह पर
ब्लर्ब लेखन को ही आलोचना समझ बैठे हैं
और आपको घमंड इस मूर्खता पर है
जबकि आपका छेदीलाल
मेरे मित्र का चरणरज 
हज़ार बार ले चुका है

जब मैं
अपने प्यारे आलोचक मित्र 
अरविंद की कमियों पर चोट कर सकता हूं
तो आप किस खेत की मूली हैं 
अरविंद के पास तो 
आलोचना की अच्छी खेती बारी है
मोटा-महीन सब बोता है
आपके पास तो 
एक बिस्वा खेत नहीं है 
जो है हवा-हवाई है 
आलोचना में हाथ की सफाई है 

ज़रूरी नहीं
कि परमानंद के सेवक भी 
इस शहर में आलोचना का परमपद
प्राप्त करें ख़ुद को शांत करें
ठंडा तेल अपनी खोपड़ी पर धरें
कुछ बनने के लिए तीस साल बहुत होते हैं 
मान लें कि इतने लंबे वक्त में 
न आप आलोचक का पद बचा पाए 
न विमर्शकार बन पाए
बेहतर होगा
आलोचना के परिक्रमाकार के रूप में
ख़ुद को मुतमइन करें।

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दीन-हीन निरीह लेखक की हवाई फायरिंग
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गोरखपुर के एक लेखक ने 
बाहर के एक लेखक की पोस्ट पर 
कुछ टिप्पणी की 

बाहर के लेखक ने 
गोरखपुर के लेखक को उसके मुंह पर कहा, 
आप मूर्ख हैं 

और 
गोरखपुर के लेखक ने
तुरत झुककर हथियार डालते हुए कहा,
आप यही कह सकते हैं

हद है 
इस दीन-हीन निरीह लेखक ने
गोरखपुर का मान कितना घटा दिया  

पलट कर यह भी नहीं कहा 
कि आप महामूर्ख हैं 
या मैं नहीं आप मूर्ख हैं

किसी ने पूंछ पर पैर रखा
तो दस दिन बाद फनफनाये
हवा में खूब तलवारबाजी की
बेनामी गालियां दीं 

बाहर के लेखक को 
पता ही नहीं कि पट्ठा यह प्रलाप 
किसे सुनाने के लिए कर रहा है
पूंछ पर पैर रखने वाले को पता नहीं

हवाई फायरिंग का मतलब भीड़ में होता है
साहित्य में हवाई फायरिंग का मतलब
शुद्ध मूर्खता है

पट्ठा जो-जो ऊपर वाले पर फेंक रहा था
सारा सूखा गीला गंदा उसके मुंह पर 
गिर रहा था फिर भी वह बहुत खुश था

गोरखपुर का लेखक है इतना ही काफी है
कुछ भी कहूंगा तो हम सबकी बदनामी है
यों कहने को पूरा पोथा अभी बाकी है।

--------------
मेरे विद्यार्थियो
--------------
कहां होंगे 
मेरे विद्यार्थी 
कविता का दरवाज़ा खोलना 
उन्हें ठीक से याद होगा

अब भी सीढियों से उतरकर
दोस्तों और सखियों संग
मर्मस्थल पर पहुंचने की बेचैनी
उतनी ही तीव्र होगी

अब भी 
उनके जीवन में 
उतना ही गाढ़ा होगा
गुलमोहर और अमलतास का
सुर्ख़ और चटक पीला रंग

कहां होगे
मेरे विद्यार्थियो
मेरे बच्चो इस हारी-बीमारी में
कहीं निपट अकेले तो नहीं होगे
किस हाल में होगे।

-----------------------
लाइव मुकुट वितरण
-----------------------
कवि जी
ख़ूब आस्तीनें मोड़ते हैं
ख़ूब तलवारें भांजते हैं
काले बादलों से भी ज़्यादा
ख़ूब-ख़ूब गरजते हैं

कवि जी जैसे
अपने इस महारोर से
सब उलट-पलट देंगे
हिंदी की काली दुनिया को
दिव्यज्योति से पलभर में
भासमान कर देंगे

ये क्या हुआ
कवि जी का सिंहनाद
लाइव में आते ही गुम हो गया
कवि जी मुदितमन प्रसन्नवदन 
मुकुट वितरण करने लगे।











गुरुवार, 21 मई 2020

मेरे कानों में हिंदी की चीखें हैं तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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मेरे कानों में हिंदी की चीखें हैं
-----------------------------------
बहुत हुआ 
रोज़-रोज़ का झगड़ा-टंटा
कोई और बात करो

बहुत किया
दूसरी तरह के लेखकों के
आराम में ख़लल जाने दो

ख़ुद की सोचो
बीपी और शुगर की गोली
अब और न बढ़ने दो

औरों को जी लेने दो
नाम-इनाम की मदिरा 
छककर पी लेने दो

छोड़ो सब
चंद रोज़ की पाबंदी में 
आराम करो

मुझे मेरे दोस्त ने  
समझाया तो कहा आंसू देखो
हिंदी की तार-तार लाज देखो

मेरे भाई आराम कहां
मेरे कानों में हिंदी की चीखें हैं
मुझे बुलाती उसकी पुकार सुनो।

----------
ग़ुलामी
----------
साहित्य में
बहुत ज़रूरी 
काम करो

सम्मान 
सबका करो
ग़ुलामी किसी की नहीं।

-------------------------------
चार कवि चुनने की जल्दी
-------------------------------
आठवें दशक में
या किसी भी दशक
या काल की कविता में
चार कवि चुनने की 
जल्दी क्यों थी

आखि़र
यह किसकी साजिश थी
ओह कितनी बड़ी 
नाइंसाफ़ी थी

जिस काम में 
सदियां लग जाती हैं
उसे दो मिनट में और
अकादमी इनाम का
सिक्का उछालकर क्यों
सबसे पंजा लड़ाकर 
क्यों नहीं

अब से
सिर्फ़ मुश्किल काम 
नाम की एक कविता से
इनकी तमाम कविताएं 
लड़ाकर देख लो
और भी सैकड़ों
कविताएं मौजूद हैं
कई कवि हैं
हमारे समय में
चुनौती की तरह

असली
देशी घी की तरह शुद्ध
और लोहे की तरह
मज़बूत।

------------------------
बाक़ी कवि खड़े रहें
------------------------
सबके पास
कुछ अच्छी कविताएं
होती ही होती हैं

सबके बैठने के लिए
कुर्सी या मोढ़ा होता है

ऐसा नहीं होना चाहिए
कि सभी कुर्सियों पर
चार-छः कवि बैठें
बाक़ी कवि खड़े रहें

किसी समय में
ऐसा अंधेर होगा
तो कुर्सियां टूटेंगी
सिर फूटेंगे।

---------------------
प्रतिभा का इंजन
---------------------
युवा हो
बहुत प्रतिभाशाली हो
अपनी प्रतिभा का
सही इस्तेमाल करो

क्यों क्यों क्यों
प्रतिभा का इस्तेमाल
पालकी ढोने के लिए क्यों

प्रतिभा का इंजन
चालू करो और सोचो
साहित्य के लोकतंत्र में
पालकी की ज़रूरत क्यों।

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ईमान के जागने का समय
--------------------------------
समय 
बदल गया है
इनाम का कुर्ता 
और पाजामा
सब फट गया है

कवि की औक़ात
उसकी चतुराई नहीं
उसकी निश्छलता
उसकी सरलता
तय करेगी

कवि की चालाकियों
और उसकी तमाम
दुरभिसंधियों का काल
बीत गया है 

उसके हेलीमेली 
चमचे चाकर लठैत
और गैंग
सबका अंत
सामने है

उठो
सोने वाले लेखको
ठीक तुम्हारे सिरहाने
ईमान के जागने का
समय आ गया है।

----------------------------------
बहादुर लेखक की मिसाइल
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बड़ा
बहादुर लेखक है
किसी पर दाग देता है
मिसाइल

उसकी 
ये मिसाइल
अमेरिका और इजराइल से
बहुत अच्छी है

ये देश
मिसाइल दागने
और निशाने पर लगने के बाद
वापस नहीं मंगा सकते

यहां
बहादुर लेखक
जब चाहता है लंबी और कम दूरी की
मिसाइल दागता है और निशाने पर
लग जाने के बाद उसे वापस कर लेता है।

मुझे भी
मिसाइल वापस मंगाने की
इस कला को सीख लेना चाहिए
यहां बहादुर से बहादुर लेखकों को
पलटी मारते देर नहीं लगती।

----------------------------
महाकवियों की पालकी
----------------------------
यह पालकी
महाकवियों की थी

हमारे समय के
कुछ चलता-पुर्जा वरिष्ठ कवियों ने
आव न देखा ताव न देखा उसमें
कुछ कमउम्र चापलूस 
कवि-आलोचकों के उकसावे पर
बिना टिकट बैठ गये

इन
वरिष्ठ कवियों का
यह गुनाह यक़ीनन बड़ा था
इन्हें साहित्य में जेल हो सकती थी
जेल में इनके साथ कुछ भी बुरा हो सकता था

लेकिन
जिन चापलूस 
कवि-आलोचकों ने
इन्हें इस हाल में पहुंचाया 
और महाकवियों की पालकी में बैठाकर
इन्हें शहर-शहर घुमाया 
लाइव दिखाया

असल गुनाह तो 
इस साहित्यिक ख़ुदकुशी के लिए
उकसाने वाले लालची चापलूसों का था
उन्होंने इनको महान कह-कह कर
इन्हें कविता का गुनहगार बनाया

ऐसे लड़कों को
सबक सिखाना बहुत ज़रूरी था
वरगना हिंदी के उस्ताद कवि क्या समझते
कुछ समझाने वाले आए भी
कड़ी से कड़ी भाषा में समझाया

लेकिन 
एक शख़्स ने तो कल
इन लड़कों की चमड़ी ही उधेड़ दी।

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वाचिक लिखित लाइव प्रशंसा के ख़तरे
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किसी ने 
आपके साथ 
साहित्य के किसी 
स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया है

किसी ने 
अपने समय के साहित्य में 
कोई युगांतर हस्तक्षेप नहीं किया है

किसी ने
साहित्य की संस्थाओं में ऐयाशी करने 
और अनुयायी बनाने का काम किया है
इसके लिए करोड़ों का फंड जुटाया है

किसी ने 
कविता या आलोचना में 
साठ पार करने के बाद भी कहीं
अपने अंगूठे का निशान नहीं लगाया है

किसी ने 
आए दिन कविता और कहानी में
बाहर की तमाम भाषाओं का 
तर माल उड़ाया है 

किसी ने
नाम-इनाम हासिल करने के लिए
साहित्य में वो सारे काम किए हैं
जो नाम डुबोने के लिए किए जाते हैं
जैसे नाक रगड़ना दुम हिलाना 
बिछ जाना इत्यादि

आप 
ऐसे किसी भी लेखक की प्रशंसा
वाचिक लिखित लाइव किसी भी रूप में
दो-तीन बार से ज़्यादा करेंगे 

तो
कवि-आलोचक की जगह
उसके पक्के पालतू ख़ानदानी
चापलूस वगैरह समझे जाएंगे। 











शनिवार, 9 मई 2020

आदरणीय की गुफा तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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आदरणीय की गुफा
----------------------
वे
आदरणीय थे
उम्र में मुझसे कुछ बड़े थे
और ज्ञान में तो बहुत बड़े थे
मैंने कभी नहीं चाहा था कि वे
मुझसे एक भी कदम पीछे रहें
बल्कि चाहा कि उम्र में बड़े हैं तो
आगे रहें

लेकिन
वे कुछ ऐसे लोगों के पीछे रहे
जो उम्र और सलाहियत में मुझसे
न सिर्फ़ पीछे थे बल्कि साहित्य के
चलता-पुर्जा क़िस्म के लोग थे
फिर भी मैंने आदरणीय का 
भला चाहा

आदरणीय ही
अपना भला ख़ुद नहीं चाहते थे
उनके भीतर जाने कैसी दिक़्कत थी
कि वे जिनके साथ रहते थे
उनकी तरह दिखना नहीं चाहते थे
शायद उनकी ख़्वाहिश रही हो
कि मेरी तरह दिखना चाहते थे

बस 
यों समझ लें कि आदरणीय
अपनी कमीज़ धोना भी नहीं चाहते थे
और साफ़ दिखना भी चाहते थे
मैं फिर भी मदद करने के लिए
तैयार था

आदरणीय 
जितना बाहर रहते थे
उससे ज़्यादा भीतर रहते थे
कोई गुफा थी उनके भीतर
शायद गुफा के भीतर कोई गुफा थी 
शायद उसके भीतर भी कोई गुफा थी

आदरणीय
गुफा से बाहर निकलकर भी
गुफा में होते थे गुफा लेकर चलते थे
आदरणीय सड़क पर चलते थे
तो गुफा साथ-साथ चलती थी
कुर्सी पर बैठते थे 
तो पीछे खड़ी रहती थी

आदरणीय
किसी के सामने होते थे 
फिर भी गुफा में होते थे
बोलते वहीं से थे बाहर होंठ हिलता था
सोचते वहीं से थे बाहर हाथ हिलता था
मैं उनकी अदृश्य गुफा को देखता रहता था
उसके भीतर की एक-एक हरकत 
मुझे दिख जाती थी

आदरणीय को 
एक झटके में हाथ पकड़कर
उनकी ख़ुद की बनायी गुफा से 
बाहर खींच सकता था
पर वे मुझे अपनी कानी उंगली तक
तो पकड़ने नहीं देना चाहते थे

वे
हिंदी के
चूहे बिल्ली गिरगिट चींटी
और गधे वगैरह किसी भी
प्राणी की मदद ले सकते थे
मेरी मदद नहीं लेना चाहते थे
वे मुझे ख़ुद से कमतर समझते थे
फिर मेरी मदद कैसे ले सकते थे
वे उन्हीं चीकटों के साथ रहते हुए
ख़ुद को मिटा देना चाहते थे
यह कैसी ज़िद थी

वे
मुझे छोड़कर
किसी के भी साथ खड़े हो सकते
किसी के भी दोस्त बन सकते थे
किसी से भी रिश्ता जोड़ सकते थे

आदरणीय
मेरे साथ दो नहीं एक कदम भी
आधा कदम भी चल नहीं सकते थे
मेरी बगल में कभी बैठ नहीं सकते थे
असल में उनकी भीतरी गुफा में 
कोई मनोमालिन्य छिपकर बैठ गया था
ऐसे लोगों का कुछ नहीं हो सकता था
फिर भी मैं उनके लिए प्रार्थना करता था 
उनके बारे में अक्सर सोचता था
और उदास हो जाता था।

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विलक्षण कविताएं
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कुछ कवि
अपनी कविताएं
ज़मीन पर नहीं रखना चाहते
शायद मैली हो जाने के डर से

वे अपनी कविताएं
फूल के पौधों पर भी
खिलने और सूखने के लिए
फैलाना नहीं चाहते
कि तेज़ धूप में मुरझा न जाएं

वे कवि
अपनी कविताएं
पेड़ पर भी नहीं रखना चाहते
कहीं आंधियों में खो न जाएं
किसी देहाती-भुच्चड़ के
हाथ न लग जाएं

वे अपनी कविताएं
मज़दूरों की टेंट में भी
छिपाकर नहीं रखना चाहते
कि उसे चिलम पर चढ़ाकर
गांजे की तरह पी न जाएं

वे अपनी कविताएं 
हीरे की अंगूठी की तरह
प्रेयसी की उंगलियों में
पहनाना नहीं चाहते कि कोई
चाकू की नोंक पर छीन न ले

वे कवि
अपनी कविताएं बैंक में 
इस डर से रखना नहीं चाहते
कि बैंक दीवालिया न हो जाए
कोई लेकर भाग न जाए

वे अपनी कविताएं
इतनी ऊंचाई पर रखना चाहते हैं
कि परिंदा भी पर न मार सके
ऐसे बचाकर रखना चाहते हैं
कि प्रलय भी नष्ट न कर सके

ऐसे कवियों की कविताएं
ग़रीब-गुरबा के चूल्हे पर
रोटी की तरह नहीं पकती हैं
जिससे सबकी भूख मिटे
सबके होठों को मीठी लगे

इनकी कविताएं
सीधे कला की भट्ठी से
भाप बनकर उठती हैं और
आकाश में बादल बनकर 
कविता के अंतरिक्ष में
राज करती हैं

पाठक 
देखकर ख़ुश हो सकता है
उचक-उचक कर आसमान में
उसे छू नहीं सकता 
चूम तो बिल्कुल नहीं सकता

वे विलक्षण कविताएं
प्रायः धरती पर उतरती नहीं
धरती पर कभी बरसती भी हैं 
तो ख़ास नक्षत्र में ख़ास मात्रा में

वह भी तब जब उनका आलोचक 
अपनी छत पर शरद की चांदनी में
मुंह निकाल और खोलकर सोया हो
और उसमें टप से चू जाएं।

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कवि-आलोचक-संवाद
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आलोचक जी
ग़रीब कवि वह होता है
जो कविता का अभिजन नहीं होता है
जो कला का ध्वजवाहक नहीं होता है
जो कविता में साहित्यिक मूल्यों के लिए
जोख़मि उठाता है संघर्ष करता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि वह नहीं होता 
जो साहित्य के मठों का कारिंदा होता है
जो साहित्यिक शामियाना हाउस का
मैनेजर वगैरह होता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि वह होता है
जो किसी नामी-गिरामी बाऊसाहब
और पंडिज्जी से आशीर्वाद नहीं लेता है
जो साहित्यिक यात्राएं नहीं करता है
जो अपनी मेज और अपने पाजामे से
बाहर नहीं जाता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि वरिष्ठ लेखकों की ख़ुशामद
और कनिष्ठ लेखकों के पीछे चलने का
काम नहीं करता है

आलोचक जी
कोई ग़रीब कवि 
(साहित्यिक रूप से)
ताउम्र भूखा रह सकता है 
पानी पीकर जी सकता है
भीख नहीं मांग सकता है
दांत नहीं चियार सकता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि आपसे
कभी नहीं कह सकता है
उस पर लेख लिख दीजिए
सूची में उसका नाम डाल दीजिए

आलोचक जी
यह कवि की ख़ुद्दार ग़रीबी है
इस ग़रीबी को लंबे संघर्षों में
ख़ून-पसीना बहाकर कमाया जाता है
इस ग़रीबी का मज़ाक नहीं उड़ाया जाता है।

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कविता का छप्पर
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छप्पर बनाना
बहुत अच्छा काम है
इसे बनाने के काम में
उठाने और रखने के काम में
लगे हुए लोग एक दूसरे से आगे 
क्यों नहीं निकलना चाहते हैं

आज की तारीख़ में
ग़रीब कविता का छप्पर 
बनाने के काम में लगे हुए लोग
एक दूसरे से आगे क्यों होना चाहते हैं
आज का कवि कोरोना से ज़्यादा
दूसरे कवि से डरता है
कि उससे आगे निकल जाएगा

कवि का यह भय
क्या उसे जीते जी मार नहीं डालेगा
डर-डर कर तुम लोग
पेशाब तो ठीक से कर नहीं सकते
कविता क्या ख़ाक लिखोगे

कवियो
कविता का छप्पर बनाते समय
दूसरे कवियों को मत देखो
एक समय की कविता का छप्पर
कई लोग मिलकर बनाते हैं

इस काम के लिए
किसी उजरत की उम्मीद मत करो
यह भलाई का काम है व्यापार नहीं
कविता की दुनिया इसी तरह चलती है
कविता का छप्पर इसी तरह बनता है

ऊंची फ़ीस पर
अमीरों की कविता का 
महल बनाने के लिए विलायत से
कविता की इंजीनियरिंग पढ़कर लौटे
शहराती कवियों की ओर मत देखो

अपने लोगों की कविता को देखो
ग़रीब की कविता का छप्पर देखो
उसे देखो जिसके लिए
छप्पर बनाना है।

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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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सक्सेना
सर्वेश्वर दयाल
कविता के लाल थे
दलाल नहीं थे

मेरे 
जनपद के थे
स्वप्निल के जनपद के थे
हम उसी बस्ती जनपद के थे

बच्चो
वैसा सक्सेना
कविता की बस्ती में
कुआनो नदी के पास
फिर नहीं आया

सोने का 
पानी चढ़ाने वाले
कविता की भाषा के ठग
बहुत आए बहुत आए

मंचों पर 
घुंघरू पहनकर
कठिन नाच नाचने वाले
कविता को मौत के कुएं में भेजकर
सर्कस और जादू दिखाने वाले
तमाम कवि आए

सरल कवि कम आए
स्वाभाविक कवि कम आए
पाठकों की चिंता करने वाले कवि
बहुत कम आए।

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कविता का नाराज़ फूफा
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भाई जी ने
छोटे सुकुल को बताया-
कविता का स्वयंवर रचाया जा रहा है
उत्सव लाइव दिखाया जा रहा है
जिस कवि को देखो सजा-धजा
तेल-फुलेल लगाकर सीना फुलाये है
नयी-नयी कविता सुनाये है

छोटे सुकुल ने 
पहले ख़ुद को शांत किया
फिर भाई जी से कहा-
भाई जी मुझे क्या जी
मुझे लौंडों की बेजा हरकतों से 
बहुत से बहुत दूर रखो जी
उम्र के इस पड़ाव पर
मुझे कविता के स्वयंवर
और तख़्त और ताज़ से अब क्या जी
छोड़ो जी इस लाइव-साइव से 
क्या लेना-देना जी

देक्खो भाई जी 
मैं तो ठहरा कविता का देहाती-भुच्चड़
अपने समय की कविता की बारात का
नाराज़ फूफा हूं जी 
जिसे मेरा कोई साढ़ू साला उनका बेटा 
चाहे कोई और रिश्तेदार मनाता ही नहीं 
अब आप ही बताओ मैं क्या करूं जी
जो कर रहा हूं क्यों न करूं जी
ताड़ के पेड़ पर सबसे ऊपर चढ़कर
रोज़ अपनी नाराज़ कविता सुनाना
क्यों बंद करूं जी आओ नीचे बैठो जी
कविता के नाराज़ फूफा की कविता
आप तो सुनो जी।