सोमवार, 14 सितंबर 2015

धार्मिक सहिष्णुता : एक नोट

-गणेश पाण्डेय

इस पद अर्थात शब्दयुग्म की धारणा के बारे में कुछ कहने के लिए पहले इस बारे में आपसे से यह बात करना जरूरी है कि अलग से इसे रेखांकित करने की जरूरत क्यों पड़ी ? जैसे हमारे शरीर में समय-समय पर कई रोग हो जाते हैं, किसी को सर्दी-जुकाम, किसी को जापानी बुखार, किसी को राजरोग इत्यादि, इन रोगों की दवा करते हैं। कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनके लिए बाकायदा चीर-फाड़ करते हैं। ऐसे ही समाज और उसकी धार्मिक मान्यताओं, उसके विश्वास, उसकी विचारधाराओं इत्यादि में भी कभी मनुष्य के अज्ञान के कारण कुछ दिक्कत या दृष्टिदोष हो जाता है, वह कुछ का कुछ देखने लगता है। ऐसे ही धर्म के बारे में भी हो जाता है। वह भूल जाता है कि धर्म का मूल उद्देश्य मुक्ति है, बंधन नहीं। धर्म का मूल स्वभाव उदारता और प्रेम है, कट्टरता और धृणा नहीं। एक छोटे से उदाहरण से अपनी बात आगे बढ़ाऊँगा।  मेरी एक कविता ‘‘ गाय का जीवन’’ पढ़िए-

वे गुस्से में थे बहुत
कुछ तो पहली बार इतने गुस्से में थे


यह सब
उस गाय के जीवन को लेकर हुआ
जिसे वे खूँटे से बाँधकर रखते थे
और थोड़ी-सी हरियाली के एवज में
छीन लिया करते थे जिसके बछड़े का
सारा दूध


और वे जिन्हें नसीब नहीं हुई
कभी कोई गाय, चाटने भर का दूध
वे भी मरने-मारने को तैयार थे
कितना सात्त्विक था उनका क्रोध


कैसी बस्ती थी
कैसे धर्मात्मा थे,
जिनके लिए कभी
गाय के जीवन से बड़ा हुआ ही नहीं
मनुष्य के जीवन का प्रश्न ।

(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)


आशय यह कि आप अपने धर्म को बचाने या उसके लिए विश्वयुद्ध करने से पहले यह विचार करें कि मनुष्य का जीवन कम जरूरी नहीं है। सारी लड़ाई में मारा कौन जाता है ? राजा, धर्माचार्य या आमजन ? आखिर हम ऐसा क्यो ंकरते हैं ? धर्म तो हजारों बर्षों से है, हमारी गरीबी, हमारी बेरोजगारी और सि़्त्रयों के संग हिंसा और बलप्रयोग धर्म के प्रभाव से अब तक खत्म क्यों नहीं हो पाया ? ये कौन लोग हैं जो धर्म को सफल करने की जगह विफल करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं, इनका क्या उद्देश्य है ? किस राजपाट की आकांक्षा है इन्हें ? 
       धर्म का जीवन भी तब तक है, जब तक मनुष्य है। सारी किताबें सारे महाग्रंथ, सारे पुस्तकालय, सारे विद्वान-महाज्ञानी, सारे धर्माचार्य तब तक हैं, जब तक मनुष्य जीवन है। सोचो , अभी कुछ ही दिन पहले एक बड़ा भूकंप आया था, एक नहीं लगातार कई। हमसब अपना सबकुछ घरों में छोड़कर भागे थे। धर्म की किताब भी हमारे हाथ में नहीं थी। जीवन पहले जरूरी है। धर्म जीवन की रक्षा और उसके उन्नयन के लिए है, उसे खत्म करने के लिए नहीं। फिर यह धर्म के नाम पर अनुदारता और कट्टरता क्यों ? इसी धार्मिक कट्टरता नाम की बीमारी का रामबाण इलाज है, धार्मिक सहिष्णुता। सभी धर्मों का सम्मान, सब के विश्वासों और जीवन शैली का सम्मान। महान कथाकार प्रेमचंद ने ‘‘ईदगाह’’ नाम की बहुत अच्छी कहानी लिखी है, आपको जरूर पढ़ना चाहिए। मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना की है। रसखान, रहीम के दोहे आपको याद होंगे। आज धार्मिक सहिष्णुता का आलोक कोंनें-कोनें में ले जाने का काम आपको करना है, हिन्दी का लेखक बहुत विपन्न और कंकाल हो चुका है, वह समाज में बदलाव के लिए अपने जीवन को उदाहरण नहीं बनाना चाहता है, अपने पुरस्कारों से आपको चकित करना चाहता है कि देखिए मेरे पास यह पुरस्कार है, उसके पास साहस की कमी है, सच को ईमान के साथ कहने का भाव कम है। कबीर की समाधिस्थली पास में है। कबीर ने अपने समय में सच कहने का जोखिम उठाया था। धर्मिक कटृटरता के सामने तर्कों अर्थात सच्चे ज्ञान की दीवार खड़ी कर दी।, लेकिन यह समय पहले के समय से ज्यादा खरनाक है। इधर कई लेखकों और ब्लॉगरों की हत्याएँ दुनिया में कट्टरपंथी ताकतों ने की हैं। एक ऐसे समय में जब खतरा पहले से ज्यादा है, हमें धार्मिक कट्टरता के बरक्स धर्मिक सहिष्णुता के विचार और विश्वास को अधिक से अधिक साझा करना है।