- गणेश पाण्डेय
बाहुबली का डर
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बाहुबली का क़ाफ़िला चलता है
तो धरती काँपती है आसमान डर जाता है
क़ानून की मोटी-मोटी किताबें पत्थर हो जाती हैं
राजनेताओं की कुर्सी ज़ोर से हिलने लगती है
वह भगवान के खि़़लाफ़ चुनाव लड़ सकता है
वह किसी से भी नहीं डरता डर उससे डरता है
कोई है जिससे वह थोड़ा-बहुत डर सकता है
तो वह निश्चय ही किसी मज़बूत राज्य का
कोई मामूली एनकाउंटर स्पेशलिस्ट हो सकता है।
बंदूक और गोली
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बाहुबली की बंदूकों में
हज़ारों जान क़ैद होती है
और उसकी जान
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट
की एक गोली में।
अंधा कौन है
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सड़कें समय से बन सकती हैं
फोरलेन सिक्सलेन हो सकता है
छत्तीस सेटेलाइट साथ जा सकता है
बैलगाड़ी युग पीछे जा सकता है
डॉक्टर जज प्रधानमंत्री वग़ैरा
समय से हुआ जा सकता है
समयबद्ध वेतनमान दिया जा सकता है
तो सभी तरह के मुक़दमों का फ़ैसला
समय से क्यों नहीं हो सकता है
कोई देखता क्यों नहीं अंधा कौन है।
नशा
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बाहुबली
यह भूल जाता है कि वह अमर नहीं है
सिर्फ़ उसकी बंदूक में गोली नहीं है
दूसरे बाहुबली के पास उससे अधिक है
बंदूक का नशा राजनीति के नशे से
ज़्यादा तेज़ होता है।
ताक़त
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बाहुबली बंदूक की ताक़त से
राजनीति की ताक़त हासिल करता है
कितना कमज़ोर है हमारा लोकतंत्र
न ग़रीबी दूर हुई न हिंसा
संविधान का सबसे अधिक सम्मान
उन्हीं ग़रीबों ने किया जिनके लिए
संविधान ने सबसे कम किया
बुराई को जड़ से दूर करने की ताक़त
किस राजनीतिक दल में है।
बेमेल विवाह
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बाहुबल और राजनीति के
बेमेल विवाह पर रोक
किस भी दल के एजेंडे में
न था न है न होगा
किसी की भी सरकार रही हो
बैंड-बाजा-बारात और लेन-देन
जारी है लोकतंत्र का खेला जारी है
यह समय जनता पर कितना भारी है।
क़ानून की दुहाई
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बाहुबली के हाथ बहुत से बहुत लंबे होते हैं
बीसियों शार्प शूटर उसके ख़ास हाथ होते हैं
जिन हाथों से वह किसी को भी उड़ा देता है
डर से कांपते हीरे-जचाहरात घर में आते है
और राज्य के हाथ अक्सर बँधे होते हैं
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट उसके हाथ तो होते हैं
जो कभी-कभार खुलते हैं और जब उसमें
बाहुबली की गर्दन फँस जाती है तो उसके
कुनबे के लोग औरत-मर्द हाय-तौबा मचाते हैं
गोली से उड़ा दिए गए क़ानून की दुहाई देते हैं।
विफलता
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जनता क़ानून से अधिक
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पर
भरोसा करने लगे तो यह क़ानून की नहीं
लोकतंत्र की विफलता है और इस विफलता पर
कोई भी राजनेता न रोता है न बोलता है
दुष्ट लेखक के बारे में पूछिए मत वह तो
सिर्फ़ अपने नाम-इनाम के लिए सोचता है
इस लोकतंत्र में वही सबसे अधिक गंदा है
यह हमारे समय के साहित्य की विफलता है।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट
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साहित्य में अपराध
बढ़ते-बढ़ते जब इतना अधिक बढ़ गया
कि हर लेखक के पुट्ठे पर मठाधीश का ठप्पा
अनिवार्य हो गया तो मैं न चाहते हुए भी
फूलों तितलियों नदियों पर्वतों बादलों खेत-खलिहानों
प्रेमी-प्रेमिकाओं और स्त्रीदेह की काव्यभूमि को
तजकर कब हिन्दी साहित्य का
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बन गया पता ही नहीं चला
लोगों ने ही मुझे बताया कि मेरे हाथ में उन्हें अब
क़लम की जगह पिस्तौल अच्छी लगती है
मैं अपने लोगों को निराश कैसे कर सकता था।
ठोकना
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साहित्य को
राजनीति से अच्छा करना था
और लेखकों को राजनेताओं से अच्छा होना था
लेकिन हुआ क्या मैं और क्या कर सकता था
उनकी तरह लौंडानाच कैसे कर सकता था
फिर मैंने वही किया जो मेरी आत्मा ने कहा
एक-एक को ठोकना शुरू कर दिया।
ऐसी कविता
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दाल में सब्जी में
नमक बहुत तेज़ हो जाने पर
बाबूजी नाराज़ हो जाते थे थाली खिसका देते थे
बाबूजी तुलसी और कबीर की कविता पढ़ लेते थे
केशव कवि का कभी नाम नहीं लेते थे
ऐसे ही बाबूजी की तरह किसी भी कविता में कला
अधिक हो जाने पर काफ़ी लोगों के लिए
वह कविता नहीं रह जाती है बुझौवल हो जाती है
ऐसी कविता लिखने से और पढ़ने से क्या फ़ायदा।
कविता में कला
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आँखों में काजल जितनी
सिर्फ़ होठों पर लाली जितनी
बच्चे के चेहरे पर ख़ुशी जितनी
फूल में सुगंध और फल में मिठास जितनी
लाठी में मज़बूती और बंदूक में गोली जितनी
इससे तनिक भी अधिक कविता में कला
किसी पाठक को नहीं चाहिए पाठक को
रामचंद्र शुक्ल क्यों समझते हो गधो
उसकी आँख में धूल क्यों झोंकते हो
पीतल को सोना बनाओगे तो थूर दूंगा।
सजावटी कविता
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ज़रूरी कविता में
ज़रूरी कथ्य और ज़रूरतभर कला
और आसानी से समझने वाली भाषा चाहिए
कविता अपने समय के लोगों के लिए
उनके जीवन के लिए उनके अधिकारों के लिए
अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती है
और अपने पाठकों के हाथ थाम नहीं सकती है
तो कला की थूनी पर बोगनवेलिया जैसी
सजावटी कविता किस काम की है।
पहले की पीढ़ी
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मेरी पीढ़ी से पहले
कैसे कवि थे कैसे आलोचक
जिन्होंने बच्चों को अपने पैरों पर
खड़ा होना नहीं सिखाया
पालकी ढोना सिखाया नाचना सिखाया
झुकना सिखाया लड़ना नहीं सिखाया
बहादुर बनना नहीं सिखाया।
स्वतंत्रता का उपहार
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बाद के ज़रूरी
कवियों की ज़िम्मेदारियाँ बड़ी होती हैं
बाद की पीढियों को कुछ देकर जाना होता है
वे उन्हें हारी हुई लड़ाई देकर कैसे जा सकते हैं
वे उन्हें दीन-हीन विपन्न बनाकर नहीं जा सकते
अख़ीर में हिंदी के दुश्मनों को ठोकना होता है
वे अपने बच्चों को साहित्य की स्वतंत्रता का
उपहार देकर जाना चाहते हैं।
चींटी के जैसे पैर
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हिन्दी में
यह पहले भी हुआ है
ईमानदार के चींटी के जैसे पैर
बेईमान के हाथी के जैसे पैरों को
कुचल देते हैं।
सोना
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कवियो
कहीं भी सो जाना
चारपाई पर चाहे ज़मीन पर
किसी भी तरफ़ पैर कर लेना
बस दिल्ली की तरफ़
सिर करके मत सोना
इससे बड़ा अशुभ
कविता की दुनिया में दूसरा नहीं
बोले तो
अकाल-मृत्यु योग है।
सेना
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साहित्य के
अँधेरे के ख़लिफ़
यह ज़बरदस्त लड़ाई
कोई एक न रहे तो भी रुकेगी नहीं
देखते-देखते एक पूरी सेना
खड़ी हो गयी है।
गद्दीनशीन कवियो
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सींगवाला कवि हैं
नहीं-नहीं बुलडोज़र वाला कवि है
नहीं-नहीं हिंदी का पागल कवि है
बेईमानी से बने कविता के महल को
ज़मींदोज़ कर देता है
एकदम से संभलकर रहियो
तमग़ावाले गद्दीनशीन कवियो।
मशीन
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तुम्हारे पास साहित्य में
अँधेरा फैलाने की मशीन है
तो हमारे पास उस मशीन को
उड़ा देने की मशीन है देखते नहीं
उसी जगह पर हम मारेंगे जहाँ से
तुम अँधेरा फैलाते हो सोच लो
फिर कुछ नहीं कर पाओगे।
कविता पढ़ने से
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किसी महान कवि के घर में
कविता पढ़ने से कोई कवि
महान कवि नहीं हो जाता है
इन मूर्खों को कौन समझाये
कि उस घर की चौखट को चूमने
उसकी दीवारों को चिपककर छूने
और लौटते समय उस घर को
शीश नवाकर प्रणाम करने से
सिर ऊँचा होता है।