- गणेश पाण्डेय
राजकिशोर जी अच्छा लिखते थे, साफ़-साफ़ लिखते थे, दो-टूक कहते थे, इसलिए एक लेखक के रूप में प्रिय थे, संपादक के रूप में आकर्षित करते थे। देवेंद्र कुमार बंगाली का गीत ’सुनती हो तुम रूबी/एक नाव फिर डूबी’ रविवार में छापा था। तब से उनके साहित्य-विवेक से परिचित रहा हूँ।
एक बार ’यात्रा’ में छोटे सुकुल का कालम पढ़कर राजकिशोर जी ने फोन किया और पूछा कि “कविता की जान लेने के सौ तरीके“ किताब कहां से छपी है, इसके लेखक कौन हैं? मुझे अच्छा यह लगा कि राजकिशोर जी जैसे जुझारू पत्रकार-लेखक की मेधा कैसे एक शीर्षक के भीतर की चिंगारी को तुरत ग्रहण कर लेती है। शायद कालम पढ़कर फौरन फोन किया था। मैंने बताया कि इस शीर्षक का अभी केवल जिक्रभर है, न किताब छपी है, न लिखी गयी है। अब जबकि राजकिशोर जी हमारे बीच नहीं हैं, तो सोचता हूँ कि “ कविता की जान लेने के सौ तरीके “ किताब लिख ही दूँ। पहले से कुछ योजनाएँ हैं, उन्हें पूरा करने के बाद, चाहे उन्हीं में राजकिशोर जी को याद करते हुए लिखूँ।
यह कहने में न कोई संकोच है, न भय कि हमारे समय में अब कोई दूसरा राजकिशोर नहीं है। वैसा साहित्य-विवेक आज के पत्रकारों और संपादकों में नहीं है। न आज के सितारे पत्रकार राजकिशोर जी के पासंग बराबर हैं, न साहित्य-संपादक। राजकिशोर जी एक ओर सरोकारों के प्रति समर्पित पत्रकार थे, तो दूसरी ओर साहित्य के प्रति उनका अनुराग सच्चा था। आज कितने पत्रकार ऐसे हैं, जिनमें कविता की जान लेने के सौ तरीके जानने की भूख हो और वह भी छोटे शहर के लेखकों से जुड़ा हो। आज के दिल्ली के कुछ स्वनामधन्य और कुछ ज्यादा ही मशहूर संपादकों ने अपनी मंडलियां बनायी हुई हैं, जब उन्हें कभी छठे-छमासे साहित्य-वाहित्य पर बात करके मनोरंजन करने की इच्छा होती है, तो उन्हीं दो-चार की मंडलियों में से किसी लेखक-अलेखक से बात करके, हिन्दी साहित्य की चौहद्दी दिल्ली में बैठे-बैठे तय करते हैं। ऐसे पत्रकार, लेखक, संपादक भी कविता की जान लेते हैं, कहानी और उपन्यास की ऐसी-तैसी करते हैं। आज किस संपादक को कविता की सुनियोजित हत्या के बारे में पता है? संपादक नचनियाँ कवियों पर फिदा है, उसके पास जाए, उसके दफ़्तर में मत्था टेके, उसके गुण गाये।
दिल्ली आज साहित्य-संपादक विहीन है। किसी भी संपादक में कविता को पहचानने की तमीज नहीं है। प्रकाशकों के संपादकीय विभाग कमउम्र और कम साहित्य-विवेक के युवाओं के हवाले है। प्रकाशक साहित्य समझता नहीं है, पुरस्कार देखकर, चर्चा और जगह-जगह कवि-लेखक की उपस्थित से उसे पहचानता है या फिर उसका युवा संपादकीय विभाग जो समझा दे, जिस कृति को महान या कूड़ा या खतरनाक कह दे, वही समझ लेता है। मैं पचास की उम्र तक दिल्ली नहीं गया और बेटे और भतीजों की उम्र की पीढ़ी दिल्ली पहुँच कर संपादन के हिमालय पर विराजमान है और हम जैसों का, जो दिल्ली की परिक्रमा स्वभाववश नहीं कर पाते हैं, का भाग्य बना-बिगाड़ रही है।
राजकिशोर जी 2003 में मुझे राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने की तैयारी करने के लिए कह रहे थे। उनके पत्र का मजमून हैः
“प्रिय गणेश जी,
आपका उपन्यास, कवितासंग्रह के साथ, बहुत पहले ही मिल गया था।
’अथ ऊदल कथा’ तो तुरंत पढ़ गया, कविताएँ बाद में पढ़ीं। अपने गजब का उपन्यास लिखा है क्या रवानगी है। विषय पर क्या पकड़ है। मेरा खयाल है, भारत के प्रत्येक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से ऐसा उपन्यास निकल सकता है, बशर्ते कि आप जैसा लिखने वाला हो। आपकी कविताओं ने भी काफी आकर्षित किया। अब आपको राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने की तैयारी करनी चाहिए। शुभकामनाओं के साथ आपका
राजकिशोर
24.10.03’’
और कहाँ आज के हिन्दी के साहित्य संपादक समझ ही नहीं पाते हैं। उन्हें दिल्ली में और दिल्ली के प्रकाशन गृहों में रहने का इतना अहंकार हो गया है कि वे ख़ुद को महावीर प्रसाद द्विवेदी समझते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि उनकी ज़िंदगी से दिल्ली या उनका प्रकाशन गृह हटा दिया जाय, तो मुहल्ले के संपादक जी हो जाएंगे। लिखा कुछ नहीं, काम कुछ नहीं, सिर्फ़ धंधई किया।
राज किशोर जी ने 2003 में जब राष्ट्रीय स्तर पर आने की तैयारी करने की बात की थी तो जाहिर है कि उस समय राष्ट्रीय स्तर पर जाने का रास्ता सिर्फ़ वही था जिस पर आज भी अधिकांश लेखक चलते हैं। लेखक संगठन, मठ, साहित्य अकादमी, भारत भवन आदि संगठनों और संस्थाओं और मठाधीशों की कृपा से ही तब राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित होना संभव होता था। राजकिशोर जी की मंशा यह नहीं रही होगी कि मैं स्वाभिमान च्युत होकर ऐसा कुछ करूँ और अपनी इज्ज़त लुटा दूँ, बल्कि उन्होंने चाहा होगा कि मुख्यधारा में जो क्रम बना हुआ है ऊपर सीढ़ी पर चढ़ने का, उन पर चढ़ते हुए ऊपर आ जाऊँ। तब दूसरे विकल्प नहीं थे। शायद उन्हें आभास नहीं रहा होगा हर किसी के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाता है और कम से कम मेरे लिए तो यह संभव नहीं था इसलिए मैंने अपनी जगह पर ही खूँटा गाड़ लिया और खुद को यहीं से राष्ट्रीय परिदृश्य पर उपग्रह (असल में बहुत से लोगों के लिए बुरे ग्रह ) की तरह प्रक्षेपित कर दिया। मैंने चर्चा की जगह लेखन के जरिए राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचने का रास्ता चुना, समर्पण की जगह विद्रोह का रास्ता चुना और पहुँचा भी। आज बहुत सारे बेईमान लेखक अगर मुझे एक साथ नापसंद करते हैं और मुझसे दूर भागते हैं और मेरा विरोध करते हैं तो जाहिर है कि यह मेरी शक्ति का प्रमाण है और यही राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदगी का प्रमाण भी है। बाद में या बहुत बाद में भी उन्होंने राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने की बात नहीं की। शायद इसीलिए कि मैं जहाँ पहुँचा, वह राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं था, तो और क्या था। नाम-इनाम से ही राष्ट्रीय परिदृश्य पर पहुँचना नहीं होता है। आपकी क़लम की शक्ति, आपकी उपस्थित की हनक दूर तक पहुँच जाय, बुरे लेखक भयभीत हो जाएँ, यह सब राष्ट्रीय परिदृश्य पर पहुँचना नहीं है, तो और क्या है? आज कोई यह समझता है कि भारी-भरकम पुरस्कार हथियाना, बड़े प्रकाशन गृहों से छपना या प्रकाशन-माफिया मुन्ना भाई की कृपा से ही संभव है, तो उनसे कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है, वे उसी के पात्र हैं। और हाँ, ये कथित बड़े पुरस्कार भी छोटे लेखक या रद्दी किताब पर क्यों? ये बड़े प्रकाशन औसत कविता लिखने वालों को क्यों छापते हैं, अपने समय में ज़बरदस्त लिखने वाले की कविता क्यों नहीं? ये आग छापने की हिम्मत क्यों नहीं रखते, फिर काहे के बड़े प्रकाशन गृह और काहे का प्रकाशन-डॉन मुन्ना भाऽऽई! आज जो अनेक भाऽऽई लोग दिखते हैं, 2003 में जब राजकिशोर जी ’अथ ऊदल कथा’ को गजब का बता रहे थे, तब क्या कर रहे थे? शायद बीए, एमए में रहे होंगे।
बहरहाल राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने के लिए फेसबुक, ब्लॉग आदि जैसे माध्यम और दूसरे प्रकाशन से छपी किताबें कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मैंने एक लंबी लड़ाई की है, सब पता है। इसीलिए जवाब तलब करने के लिए भी कुछ करते रहना और कहते रहना पड़ता है। बुरे लोगों ने ही अच्छे लोगों को छेड़ने या तंग करने का ठेका नहीं ले रखा है, अच्छे लोगों में भी कोई बुरे लोगों को छेड़ने और तंग करने वाला हो सकता है। होना ही चाहिए।
राजकिशोर जी को याद करने का आशय आज के पत्रकारों और संपादकों का ध्यान आकर्षित करना है कि राजकिशोर जी के साहित्य-विवेक के आईने में खुद को देखें कि वे कहाँ खड़े हैं!