-गणेश पाण्डेय
कबाड़
====
वे दो थे
भाई जैसे थे छोटे-बड़े
लड़के थे जाने किस धातु के
लोहा थे पीतल थे कि सोना थे चाँदी थे
जो थे जैसे थे खुश थे उस कबाड़ में
जिधर देखते थे कबाड़ ही कबाड़ देखते थे
कबाड़ दुनिया देखते थे।
कंधे से उतारते थे अपना थैला मैला
खोलते थे मुँह और उठाते थे टिफिन बॉक्स
डिब्बी-डिब्बे, टुकड़े प्लास्टिक के
सब थैले में गड़प।
देखते थे छागल का कोई लंबा टुकड़ा
हँसते थे उस बाई की भूल पर
जिसने फेंका होगा।
उठाते थे किसी का लाल रिबन
और चल देते थे गले में बाँधकर
एक कबाड़ से दूसरे कबाड़ में।
(‘जल में’ से)
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री
=====================
देखो तो कितना सलोना है दस बरस का लड़का
अखबार लहराते हुए हवा से बात करता है किस तरह
हर सुबह करतब दिखाता है लड़का
अपने से अधिक उम्र की साइकिल पर।
देखो तो छूकर कितनी नन्ही-नन्ही हैं उँगलियाँ
हाथ की रेखाएँ पढ़ो, क्या लिखा है
जिनसे बाँटता है संसद में प्रधानमंत्री की घोषणाएँ
और दुनियाभर की खबरें।
देखो तो पुतलियाँ नचाते हुए लड़का
किस तरह देखता देखता है घरों को
सुनो तो कितना सुरीला है लड़के का कंठ
मुर्गे की तरह बाँग देता हुआ-‘पेपर’।
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री,
अखबार बाँटता हुआ दस बरस का लड़का
बहुत अच्छा, बहुत प्यारा
अभी-अभी इधर से निकला है हवा में लहराते हुए
राष्ट्रपति का अभिभाषण।
(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)
बाबू क्लीनर
=========
बाबू क्लीनर
इतने गंदे क्यों रहते हो
क्यों खाते हो हरदम पान
बात-बात पर हँसते क्यों हो
हो-हो।
हर गाने पर
मूड़ी खूब हिलाते क्यों हो
लगता है तुम सचमुच
इस गाड़ी के मालिक हो।
कुछ तो बोलो
बाबू क्लीनर
खुश दिखने का भेद तो खोलो
हँसकर दर्द छुपाते क्यों हो।
(‘जल में’ से)
किसका है यह पेंसिलबॉक्स
==================
जिस किसी का हो
आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स
जो मुझे अभी-अभी मिला है
पागल पहिये और पैरों केबीच।
जिस पर कुछ फूल बने हैं
कुछ तितलियाँ हैं उड़ती-सी
और कम उम्र उँगलियों की ताजा छाप है
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
जिसके भीतर साबुत है आधी पेंसिल
और व्यग्र है उसकी नोंक
किसी मानचित्र के लिए
एक दूसरी पेंसिल है जो उससे छोटी है
बची हुई है उसमें अभी थोड़ी-सी जान
और किसी का नाम लिखने की इच्छा
मिटने से बचा हुआ है एक चौथाई रबर
काफी कुछ मिटा देने की उम्मीद में
किसी तानाशाह का चेहरा
किसी पैसे वाले की तोंद।
किसका है यह
किस दुलारे का किस अभागे का
किस रानी का किस कानी का
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
(‘जल में’ से)
बोर्ड परीक्षा का पहला दिन
================
मेरी सीट
ओ मेरी सीट
कहां है मेरी सीट
उचक-उचक कर ढ़ूढते हैं
इतने सारे बच्चे एक साथ
हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा के पहले दिन
नोटिस बोर्ड पर अपनी सीट का पता
मिलते हैं अन्दर घुसते ही कमरे में
एक तुनकमिजाज और कड़कआवाज
अजीब तरह के मास्टर जी
उसपर एक ढ़िलपुक मेज
और आगे-पीछे होती कुर्सी
और
उसके बाद मिलते हैं
परचे के जंगल में कुछ खरहे जैसे प्रश्न
कुछ होते हैं चीते की तरह आक्रामक
और कुछ हाथी जैसे भारी-भरकम
जिसके उत्तर में
निकालकर रख देना पड़ता है
एक पिता का कांपता हुआ कलेजा
और एक मां का आसभरा
और धड़कता हुआ दिल
देखो तो परचे के आगे-पीछे
पंक्तियों के बीच में लुका-छिपी करता है
एक मासूम सवाल-
कैसे करता है करतब
यह सब इतना कोई किशोर
पहली दफा
कोई बताए
तो सौ में दो सौ पाए !
(‘जल में’ से)
अभी
====
बची हुई है अभी थोड़ी-सी शाम
बची हुई है अभी थोड़ी-सी भीड़
नित्य उठती-बैठती दुकानों पर
रह-रह कर सिहर उठती है
रह-रह कर डर जाती है
नई-नई लड़की
छोटी-सी
श्यामवर्णी
जिसके पास बची हुई है अभी
थोड़ी-सी मूली
और
मूली के पत्तों से गाढ़ा है
जिसके दुपट्टे का रंग
जिससे ढाँप रखा है उसने
आधा चेहरा आधा कान
अनमोल है
जिसकी छोटी-सी हँसी
संसार की सभी मूलियाँ
जिसके दाँतों से
सफ़ेद हैं कम
और
पाव-डेढ़ पाव मूली
एक रुपए में देकर
छुट्टी पाती है
मण्डी से
ख़ुश होती है काफ़ी
एक रुपये से कहीं ज्यादा
मण्डी से लौटते हुए
मुझे लगता है-
मूली से छोटी है
अभी उसकी उम्र
और मूली से बीस है
अभी उसकी ताज़गी
घर में घुसता हूँ तो होता है-
अरे!
ये तो मूली में छिपकर
घुस आई है नटखट
मेरे संग
अभी-अभी
शामिल हो जाएगी
बच्चों में ।
(‘जल में’ से)
धर्मशाला बाजार के आटो लड़के
====================
वे दूर से देखते थे और पहचान लेते थे
मद्धिम होता मेरा प्याजी रंग का कुर्ता
थाम लेते थे बढ़कर कंधे से
मेरा वही पुराना आसमानी रंग का झोला
जिसे तमाम गर्द-गुबार ने
खासा मटमैला कर दिया था
वे मेरे रोज के मुलाकाती थे
मैं चाचा था उन सबका
मेरे जैसे सब उनके चाचा थे
कुछ थे जो दादा जैसे थे
इस स्टैंड से उस स्टैंड तक
फैल और फूल रहे थे
छाते की कमानियों की तरह
कई हाथ थे उनके पास
रंगदारी के रंग कई
दो-दो रुपये में
जहां बिकती थी पुलिस
वे तो बस
उसी धर्मशाला बाजार के
आटो लड़के थे हंसते-मुस्कराते
आपस में लड़ते-झगड़ते
एक-एक सवारी के लिए
माथे से तड़-तड़ पसीना चुआते
पेट्रोल की तरह खून जलाते
वे मुझे देखते थे
और खुश हो जाते थे
वे मेरे जैसे किसी को भी देखते थे
खुश हो जाते थे
वे मुझे खींचते थे चाचा कहकर
और मैं उनकी मुश्किल से बची हुई
एक चौथाई सीट पर बैठ जाता था
अंड़सकर
वे पहले आटो चालू करते थे
फिर टेप-
किसी खोते में छिपी हुई
किसी अहि रे बालम चिरई के लिए
फुल्ले-फुल्ले गाल वाले लड़के का
दिल बजता था
उनका टेप बजता था
आटो में ठुंसे हुए लोगों में से
किसी की सांसत में फंसी हुई
गठरी बजती थी
किसी की टूटी कमानियों वाला
छाता बजता था
किसी के झोले में
टार्च का खत्म मसाला बजता था
और अंधेरे में
किसी बच्चे की किताब बजती थी
किसी छोटे-मोटे बाबू की जेब में
कुछ बेमतलब चाबियां बजती थीं
कुछ मामूली सिक्के बजते थे
किसी के जेहन में-
धर्मशाला बाजार की फलमंडी में
देखकर छोड़ दिया गया
अट्ठारह रुपये किलो का
दशहरी आम
और कोने में एक ठेले पर
दोने में सजा
आठ रुपये पाव का जामुन बजता था
और घर पर इन्तजार करते बच्चों की आंखें
बजती थीं सबसे ज्यादा।
(‘जल में’ से)
खेलो छोटे बहादुर
===========
आओ बहादुर
बैठो बहादुर
खाओ बहादुर
ये खुरमा
ये सेवड़ा
ये देखो रंग-वर्षा
खेलो छोटे बहादुर।
छोड़ो बहादुर
सम्भ्रांत पंक्ति का
पनाला
रहने दो आज जाम
बहने दो जहाँ-तहाँ
छोड़ो कुदाल
फेंको बाँस
लो खुली साँस।
आओ छोटे बहादुर
बताओ छोटे बहादुर
क्या कर रही होगी
इस वक्त पहाड़ पर माँ
माँ के मुख-रंग बताओ
छोटे बहादुर।
कितनी दूर है
तुम्हारा पर्वत-प्रदेश
मुझे ले चलो अपने घर
अकलुष आँख की राह
आओ छोटे बहादुर
अपने अगाये कंठ से
बोलो छोटे बहादुर
मद्धिम क्यों है आज
मुखाकृति।
(दूसरे संग्रह ‘जल में’ से)
आप सौ साल जियें पापा
================
छोड़ दीजिए पापा
पान के बीड़े चबाना
और तरह-तरह के जर्दे की
गमकने वाली खुशबू।
तम्बाकू-चूना मलना, ठोंकना
और होंठ के भीतर दाबकर
चुनचुनाहट के मजे लेना
बंद की जिए पापा बंद।
मुझे नहीं पसंद है पापा
मम्मी को नहीं पसंद है पापा।
ये लीजिए पापा सौंफ
इलायची लीजिए पापा
आप सौ साल जियें पापा।
सफेद फ्रॉकों वाली गुडिया जैसी
दस बरस की बिटिया
करती है प्रार्थना।
(‘जल में’ से)
जापानी बुख़ार
=========
हे बाबा
किसका है यह
जो अभी - अभी था
और इस क्षण नहीं है
जिसके मुखड़े के बिल्कुल पास
बिलख रहे हैं परिजन और स्वजन
राहुल - राहुल कह कर
किसका है यह नन्हा - सा
राजकुमार
जिसे अपनी छाती से लगाये
चूमती जा रही है बेतहाशा
एक लुटी-लुटी - सी बदहवास युवा स्त्री
जिसकी पथराई आँखों से झर रहे हैं
आँसू
झर-झर-झर
कौन है यह
अटूट विलाप करती हुई
अभागी कोमलांगी
जिसे अड़ोस - पड़ोस की बुजुर्ग औरतें
चुप करा रही हैं -
यशोधरा - यशोधरा कह कर
यह किसकी यशोधरा है बाबा
किसका है राहुल यह
तुमसे क्या नाता है
पिपरहवा के किसी सिधई अहीर
और गनवरिया के किसी बुधई कोंहार से
इस कालकथा का क्या रिश्ता है
कितने राहुल हैं बाबा
कितनी यशोधरा
ढाई हजार साल बाद
यह कैसी पटकथा लिख रहा है
काल
कपिलवस्तु के एक - एक गाँव में
कपिलवस्तु के बाहर गाँव - गाँव में
फूस की झोपड़ियों
और खपरैल के कच्चे - पक्के मकानों में
इक्कीसवीं सदी के एक - एक राहुल को
चुन - चुन कर
कैसे डँस लेता है काल
मच्छर का रूप धर कर
क्या पहले भी मच्छर के काटने से
मर जाते थे कपिलवस्तु के लोग
क्या पहले भी धान के सबसे अच्छे खेतों में
छिपे रहते थे जहरीले मच्छर
और देखते ही फूल जैसे बच्चों को
डँस लेते थे ऐसे ही
जापानी बुख़ार - जापानी बुख़ार
कह - कह कर
हमारे पुरखों के पुरखों के पुरखे
शालवन और पीपल के पेड़ वाले
बाबा
आज भी जिस जापान में बजता है
तुम्हारे नाम का डंका
सीधे वहीं से फाट पड़ी है यह महामारी
तीर्थों के तीर्थ बुद्ध प्रदेश में
पूर्वी उत्तर प्रदेश में
शोक में डूबी हुई है
यह विदीर्ण धरती
जहाँ - जहाँ पड़े हैं
तुम्हारे चरणकमल
श्रावस्ती हो या मगध
कपिलवस्तु हो या कोसल
लुम्बिनी हो या कुशीनारा
या हो सारनाथ
हर जगह है तुम्हारा राहुल
अनाथ
आमी हो या राप्ती
सरयू हो या गंगा या कोई और
जिन - जिन नदियों ने छुए हैं
तुम्हारे पांव
डबडब हैं यशोधरा के आँसुओं की बाढ़ से
देखो तो कैसे कम पड़ गया है
तुम्हारी करुणा का पाट
तुम्हीं बताओ बाबा
क्या
मेरी माँ यशोधरा
मेरी चाची यशोधरा
मेरी बुआ यशोधरा
मेरी दादी
मेरी परदादी की परदादी
यशोधरा के असमाप्त रुदन से
जीवित हैं इस अंचल की नदियाँ
क्यों नहीं सूख जाती हैं ये नदियाँ
क्यों नहीं खत्म हो जाता है
राहुल की चिन्ता न करने वाला
राजपाट
क्यों नहीं हो जाता सिंहासन को
जापानी बुखार
बोलो बाबा
कुछ तो बोलो
हे मेरे अच्छे बाबा कुछ तो नया बोलो
यशोधरा के महादुख पर रोशनी डालो
आलोकित करो पथ
क्या गोरखपुर क्या देवरिया
और क्या महराजगंज
क्या सिद्धार्थनगर
क्या अड़ोस - पड़ोस के जनपद
क्या पडोस के बिहार के गांव-गिरांव
और क्या नेपाल बार्डर - अन्दर
हर जगह पसरा हुआ है
मौत का सन्नाटा
और डर
घर - घर में कर गया है घर
किसी
नई - नई हुई माँ से
उसे रह-रह कर पुकारती हुई
उसकी नटखट पुकार को
छीन लेना
सहसा
किसी
पिता की डबडब आँख से
उसके चाँद-तारे को
अलग कर देना
किसी मासूम तितली से
एक झटके में
उसके पंख नोच लेना
और गेंदा और गुलाब से
उसकी पंखुड़ियों को लूटकर
मसल देना
किसी कविता का अंत है
कि जीवन की अवांछित विपदा
कि सभ्यता का कोई अनिवार्य शोकगीत
बोलो बाबा
क्या है यह
जपानी बुखार है तो यहां क्यों है
क्यों पसंद है इसे सबसे अधिक
इसके फंदेनुमा पंजे में
गिरई मछली की तरह तड़प-तड़प कर
शांत हो जाने वाले
इस अंचल के विपन्न , हतभाग्य
और दुधमुंहे
यह कोई बुखार है
बुखार है तो उतरता क्यों नहीं
महामारी है महामारी
नई महामारी
सबसे ज्यादा नये पौधों को
धरती से विलग करने वाली
मौत की तेज आंधी है
बुझाये हैं जिसने
इस अंचल के
हजारों नन्हे कुलदीप
कहां हैं मर्द सब
बेबस
और विलाप करती हुई मांओं की गोद
शिशु शवों से पाट देने वाला
हत्यारा जापानी बुखार
बचा हुआ है कैसे अबतक
कहां है पुलिस
और कहां है सेना
क्यों नहीं करती इसे गिरिफ्तार
जिंदा या मुर्दा
कोई विपक्ष है
है तो क्यों नहीं मांगता
जीने के अधिकार की गारंटी
कोई सरकार है कहीं
है तो कहां है
आये हाईकमान
कोई भारी-भरकम मंत्री-संत्री
कोई राजधानी का पत्रकार आये
और
टीवी पर जिंदगी की दो बूंद देने वाले
महानायक को पकड़कर लाये
कोई तो बतलाये-
जापान में एटमबम से
कितने शिशुओं की आंखें हुईं बंद
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले में
मारे गये कितने अमेरिकी
आखिर कितना है अभी यहां कम
आने से कतराता है
सरकार का मुखिया
करता है वक्त का इंतजार
और हिसाब-किताब
अस्पतालों और सेहत का महकमा
पता नहीं किस अहमक के जिम्मे है
क्या शहर और क्या देहात
क्या धान के खेत
और क्या गड्ढे का पानी
किस सूअर
और किस मच्छर की बात करें
हर कोनें-अंतरे में बठी हुई है मौत
सफेद लिबास में
एक कहता है
हेलीकाप्टर में बैठकर
अपने नुकीले नाखूनों वाले पंजे से
छिड़केंगे दवा
गांव-खेत , ताल-पोखर
चल चुकी है राजधानी से
दवा लगी मच्छरदानियों की भारी खेप
हर मुश्किल में आपके साथ है
एक खानदानी पंजा
दूसरा
पहले शंख बजाता है फिर गाल-
बुखार जापानी हो या पाकिस्तानी
मार भगायेंगे
मर्ज कैसा भी हो
काफी है छूमंतर होने के लिए
कमल की पंखुड़ियों से बनी
एक गोली
तीसरा आता है बाद में
रहता है सरकार में मगन
कहता है कुछ करता है कुछ
मिनट-मिनट पर सोचता है
नफा-नुकसान
क्या खूब फबती है
उसकी दस लाख की गाड़ी पर
हरे और लाल रंग के मखमल जैसे
छोटे से झण्डे में कढ़ी हुई
सुनहली साइकिल
जिसके पास खड़ा होकर
किसी पुराने दर्द भरे गाने की तरह
कहता है-
जो हुआ उसके लिए बेहद अफसोस है
टीके और दवा का करते हैं इंतजाम
लीजिए फौरन से पेश्तर
ले आया हूं आठ करोड़
बस पकड़े रहें
साइकिल की मूठ
आते हैं एक से बढ़कर एक
हाथी नहीं आता
मुमकिन है कभी आये हाथी
गिरते-पड़ते
चाहे हाथी के हौदे पर आये
कोई गुस्सैल
चिंघाड़ते हुए-
नहीं-नहीं , यह नहीं जापानी बुखार
न इंसेफेलाइटिस न मस्तिष्क ज्वर
यह तो है सीधे-सीधे
मनुवादी बुखार
कमजोर तबके पर है जिसकी ज्यादे मार
कोई नहीं आता ऐसा
कोई वैद्य कोई डाक्टर
कोई लेखक कोई कलावंत
जीवन का कोई इंजीनियर
कोई पथ-प्रदर्शक
कोई माई का लाल
माई से कहने-
घबड़ाओ नहीं माई
लो
मेरी त्वचा की रूमाल से
पोंछ लो अपने आंसू
हर पंजे से बचायेंगे
बचायेंगे कमल से
साइकिल से बचायेंगे
बचायेंगे हाथी से
शर्तिया बचायेंगे माई
इस भगोड़े जापानी बुखार से
सूअर से बचायेंगे
बचायेंगे मच्छर से
सबसे बचायेंगे
माई ।
(जापानी बुखार से)
कबाड़
====
वे दो थे
भाई जैसे थे छोटे-बड़े
लड़के थे जाने किस धातु के
लोहा थे पीतल थे कि सोना थे चाँदी थे
जो थे जैसे थे खुश थे उस कबाड़ में
जिधर देखते थे कबाड़ ही कबाड़ देखते थे
कबाड़ दुनिया देखते थे।
कंधे से उतारते थे अपना थैला मैला
खोलते थे मुँह और उठाते थे टिफिन बॉक्स
डिब्बी-डिब्बे, टुकड़े प्लास्टिक के
सब थैले में गड़प।
देखते थे छागल का कोई लंबा टुकड़ा
हँसते थे उस बाई की भूल पर
जिसने फेंका होगा।
उठाते थे किसी का लाल रिबन
और चल देते थे गले में बाँधकर
एक कबाड़ से दूसरे कबाड़ में।
(‘जल में’ से)
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री
=====================
देखो तो कितना सलोना है दस बरस का लड़का
अखबार लहराते हुए हवा से बात करता है किस तरह
हर सुबह करतब दिखाता है लड़का
अपने से अधिक उम्र की साइकिल पर।
देखो तो छूकर कितनी नन्ही-नन्ही हैं उँगलियाँ
हाथ की रेखाएँ पढ़ो, क्या लिखा है
जिनसे बाँटता है संसद में प्रधानमंत्री की घोषणाएँ
और दुनियाभर की खबरें।
देखो तो पुतलियाँ नचाते हुए लड़का
किस तरह देखता देखता है घरों को
सुनो तो कितना सुरीला है लड़के का कंठ
मुर्गे की तरह बाँग देता हुआ-‘पेपर’।
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री,
अखबार बाँटता हुआ दस बरस का लड़का
बहुत अच्छा, बहुत प्यारा
अभी-अभी इधर से निकला है हवा में लहराते हुए
राष्ट्रपति का अभिभाषण।
(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)
बाबू क्लीनर
=========
बाबू क्लीनर
इतने गंदे क्यों रहते हो
क्यों खाते हो हरदम पान
बात-बात पर हँसते क्यों हो
हो-हो।
हर गाने पर
मूड़ी खूब हिलाते क्यों हो
लगता है तुम सचमुच
इस गाड़ी के मालिक हो।
कुछ तो बोलो
बाबू क्लीनर
खुश दिखने का भेद तो खोलो
हँसकर दर्द छुपाते क्यों हो।
(‘जल में’ से)
किसका है यह पेंसिलबॉक्स
==================
जिस किसी का हो
आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स
जो मुझे अभी-अभी मिला है
पागल पहिये और पैरों केबीच।
जिस पर कुछ फूल बने हैं
कुछ तितलियाँ हैं उड़ती-सी
और कम उम्र उँगलियों की ताजा छाप है
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
जिसके भीतर साबुत है आधी पेंसिल
और व्यग्र है उसकी नोंक
किसी मानचित्र के लिए
एक दूसरी पेंसिल है जो उससे छोटी है
बची हुई है उसमें अभी थोड़ी-सी जान
और किसी का नाम लिखने की इच्छा
मिटने से बचा हुआ है एक चौथाई रबर
काफी कुछ मिटा देने की उम्मीद में
किसी तानाशाह का चेहरा
किसी पैसे वाले की तोंद।
किसका है यह
किस दुलारे का किस अभागे का
किस रानी का किस कानी का
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
(‘जल में’ से)
बोर्ड परीक्षा का पहला दिन
================
मेरी सीट
ओ मेरी सीट
कहां है मेरी सीट
उचक-उचक कर ढ़ूढते हैं
इतने सारे बच्चे एक साथ
हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा के पहले दिन
नोटिस बोर्ड पर अपनी सीट का पता
मिलते हैं अन्दर घुसते ही कमरे में
एक तुनकमिजाज और कड़कआवाज
अजीब तरह के मास्टर जी
उसपर एक ढ़िलपुक मेज
और आगे-पीछे होती कुर्सी
और
उसके बाद मिलते हैं
परचे के जंगल में कुछ खरहे जैसे प्रश्न
कुछ होते हैं चीते की तरह आक्रामक
और कुछ हाथी जैसे भारी-भरकम
जिसके उत्तर में
निकालकर रख देना पड़ता है
एक पिता का कांपता हुआ कलेजा
और एक मां का आसभरा
और धड़कता हुआ दिल
देखो तो परचे के आगे-पीछे
पंक्तियों के बीच में लुका-छिपी करता है
एक मासूम सवाल-
कैसे करता है करतब
यह सब इतना कोई किशोर
पहली दफा
कोई बताए
तो सौ में दो सौ पाए !
(‘जल में’ से)
अभी
====
बची हुई है अभी थोड़ी-सी शाम
बची हुई है अभी थोड़ी-सी भीड़
नित्य उठती-बैठती दुकानों पर
रह-रह कर सिहर उठती है
रह-रह कर डर जाती है
नई-नई लड़की
छोटी-सी
श्यामवर्णी
जिसके पास बची हुई है अभी
थोड़ी-सी मूली
और
मूली के पत्तों से गाढ़ा है
जिसके दुपट्टे का रंग
जिससे ढाँप रखा है उसने
आधा चेहरा आधा कान
अनमोल है
जिसकी छोटी-सी हँसी
संसार की सभी मूलियाँ
जिसके दाँतों से
सफ़ेद हैं कम
और
पाव-डेढ़ पाव मूली
एक रुपए में देकर
छुट्टी पाती है
मण्डी से
ख़ुश होती है काफ़ी
एक रुपये से कहीं ज्यादा
मण्डी से लौटते हुए
मुझे लगता है-
मूली से छोटी है
अभी उसकी उम्र
और मूली से बीस है
अभी उसकी ताज़गी
घर में घुसता हूँ तो होता है-
अरे!
ये तो मूली में छिपकर
घुस आई है नटखट
मेरे संग
अभी-अभी
शामिल हो जाएगी
बच्चों में ।
(‘जल में’ से)
धर्मशाला बाजार के आटो लड़के
====================
वे दूर से देखते थे और पहचान लेते थे
मद्धिम होता मेरा प्याजी रंग का कुर्ता
थाम लेते थे बढ़कर कंधे से
मेरा वही पुराना आसमानी रंग का झोला
जिसे तमाम गर्द-गुबार ने
खासा मटमैला कर दिया था
वे मेरे रोज के मुलाकाती थे
मैं चाचा था उन सबका
मेरे जैसे सब उनके चाचा थे
कुछ थे जो दादा जैसे थे
इस स्टैंड से उस स्टैंड तक
फैल और फूल रहे थे
छाते की कमानियों की तरह
कई हाथ थे उनके पास
रंगदारी के रंग कई
दो-दो रुपये में
जहां बिकती थी पुलिस
वे तो बस
उसी धर्मशाला बाजार के
आटो लड़के थे हंसते-मुस्कराते
आपस में लड़ते-झगड़ते
एक-एक सवारी के लिए
माथे से तड़-तड़ पसीना चुआते
पेट्रोल की तरह खून जलाते
वे मुझे देखते थे
और खुश हो जाते थे
वे मेरे जैसे किसी को भी देखते थे
खुश हो जाते थे
वे मुझे खींचते थे चाचा कहकर
और मैं उनकी मुश्किल से बची हुई
एक चौथाई सीट पर बैठ जाता था
अंड़सकर
वे पहले आटो चालू करते थे
फिर टेप-
किसी खोते में छिपी हुई
किसी अहि रे बालम चिरई के लिए
फुल्ले-फुल्ले गाल वाले लड़के का
दिल बजता था
उनका टेप बजता था
आटो में ठुंसे हुए लोगों में से
किसी की सांसत में फंसी हुई
गठरी बजती थी
किसी की टूटी कमानियों वाला
छाता बजता था
किसी के झोले में
टार्च का खत्म मसाला बजता था
और अंधेरे में
किसी बच्चे की किताब बजती थी
किसी छोटे-मोटे बाबू की जेब में
कुछ बेमतलब चाबियां बजती थीं
कुछ मामूली सिक्के बजते थे
किसी के जेहन में-
धर्मशाला बाजार की फलमंडी में
देखकर छोड़ दिया गया
अट्ठारह रुपये किलो का
दशहरी आम
और कोने में एक ठेले पर
दोने में सजा
आठ रुपये पाव का जामुन बजता था
और घर पर इन्तजार करते बच्चों की आंखें
बजती थीं सबसे ज्यादा।
(‘जल में’ से)
खेलो छोटे बहादुर
===========
आओ बहादुर
बैठो बहादुर
खाओ बहादुर
ये खुरमा
ये सेवड़ा
ये देखो रंग-वर्षा
खेलो छोटे बहादुर।
छोड़ो बहादुर
सम्भ्रांत पंक्ति का
पनाला
रहने दो आज जाम
बहने दो जहाँ-तहाँ
छोड़ो कुदाल
फेंको बाँस
लो खुली साँस।
आओ छोटे बहादुर
बताओ छोटे बहादुर
क्या कर रही होगी
इस वक्त पहाड़ पर माँ
माँ के मुख-रंग बताओ
छोटे बहादुर।
कितनी दूर है
तुम्हारा पर्वत-प्रदेश
मुझे ले चलो अपने घर
अकलुष आँख की राह
आओ छोटे बहादुर
अपने अगाये कंठ से
बोलो छोटे बहादुर
मद्धिम क्यों है आज
मुखाकृति।
(दूसरे संग्रह ‘जल में’ से)
आप सौ साल जियें पापा
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छोड़ दीजिए पापा
पान के बीड़े चबाना
और तरह-तरह के जर्दे की
गमकने वाली खुशबू।
तम्बाकू-चूना मलना, ठोंकना
और होंठ के भीतर दाबकर
चुनचुनाहट के मजे लेना
बंद की जिए पापा बंद।
मुझे नहीं पसंद है पापा
मम्मी को नहीं पसंद है पापा।
ये लीजिए पापा सौंफ
इलायची लीजिए पापा
आप सौ साल जियें पापा।
सफेद फ्रॉकों वाली गुडिया जैसी
दस बरस की बिटिया
करती है प्रार्थना।
(‘जल में’ से)
जापानी बुख़ार
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हे बाबा
किसका है यह
जो अभी - अभी था
और इस क्षण नहीं है
जिसके मुखड़े के बिल्कुल पास
बिलख रहे हैं परिजन और स्वजन
राहुल - राहुल कह कर
किसका है यह नन्हा - सा
राजकुमार
जिसे अपनी छाती से लगाये
चूमती जा रही है बेतहाशा
एक लुटी-लुटी - सी बदहवास युवा स्त्री
जिसकी पथराई आँखों से झर रहे हैं
आँसू
झर-झर-झर
कौन है यह
अटूट विलाप करती हुई
अभागी कोमलांगी
जिसे अड़ोस - पड़ोस की बुजुर्ग औरतें
चुप करा रही हैं -
यशोधरा - यशोधरा कह कर
यह किसकी यशोधरा है बाबा
किसका है राहुल यह
तुमसे क्या नाता है
पिपरहवा के किसी सिधई अहीर
और गनवरिया के किसी बुधई कोंहार से
इस कालकथा का क्या रिश्ता है
कितने राहुल हैं बाबा
कितनी यशोधरा
ढाई हजार साल बाद
यह कैसी पटकथा लिख रहा है
काल
कपिलवस्तु के एक - एक गाँव में
कपिलवस्तु के बाहर गाँव - गाँव में
फूस की झोपड़ियों
और खपरैल के कच्चे - पक्के मकानों में
इक्कीसवीं सदी के एक - एक राहुल को
चुन - चुन कर
कैसे डँस लेता है काल
मच्छर का रूप धर कर
क्या पहले भी मच्छर के काटने से
मर जाते थे कपिलवस्तु के लोग
क्या पहले भी धान के सबसे अच्छे खेतों में
छिपे रहते थे जहरीले मच्छर
और देखते ही फूल जैसे बच्चों को
डँस लेते थे ऐसे ही
जापानी बुख़ार - जापानी बुख़ार
कह - कह कर
हमारे पुरखों के पुरखों के पुरखे
शालवन और पीपल के पेड़ वाले
बाबा
आज भी जिस जापान में बजता है
तुम्हारे नाम का डंका
सीधे वहीं से फाट पड़ी है यह महामारी
तीर्थों के तीर्थ बुद्ध प्रदेश में
पूर्वी उत्तर प्रदेश में
शोक में डूबी हुई है
यह विदीर्ण धरती
जहाँ - जहाँ पड़े हैं
तुम्हारे चरणकमल
श्रावस्ती हो या मगध
कपिलवस्तु हो या कोसल
लुम्बिनी हो या कुशीनारा
या हो सारनाथ
हर जगह है तुम्हारा राहुल
अनाथ
आमी हो या राप्ती
सरयू हो या गंगा या कोई और
जिन - जिन नदियों ने छुए हैं
तुम्हारे पांव
डबडब हैं यशोधरा के आँसुओं की बाढ़ से
देखो तो कैसे कम पड़ गया है
तुम्हारी करुणा का पाट
तुम्हीं बताओ बाबा
क्या
मेरी माँ यशोधरा
मेरी चाची यशोधरा
मेरी बुआ यशोधरा
मेरी दादी
मेरी परदादी की परदादी
यशोधरा के असमाप्त रुदन से
जीवित हैं इस अंचल की नदियाँ
क्यों नहीं सूख जाती हैं ये नदियाँ
क्यों नहीं खत्म हो जाता है
राहुल की चिन्ता न करने वाला
राजपाट
क्यों नहीं हो जाता सिंहासन को
जापानी बुखार
बोलो बाबा
कुछ तो बोलो
हे मेरे अच्छे बाबा कुछ तो नया बोलो
यशोधरा के महादुख पर रोशनी डालो
आलोकित करो पथ
क्या गोरखपुर क्या देवरिया
और क्या महराजगंज
क्या सिद्धार्थनगर
क्या अड़ोस - पड़ोस के जनपद
क्या पडोस के बिहार के गांव-गिरांव
और क्या नेपाल बार्डर - अन्दर
हर जगह पसरा हुआ है
मौत का सन्नाटा
और डर
घर - घर में कर गया है घर
किसी
नई - नई हुई माँ से
उसे रह-रह कर पुकारती हुई
उसकी नटखट पुकार को
छीन लेना
सहसा
किसी
पिता की डबडब आँख से
उसके चाँद-तारे को
अलग कर देना
किसी मासूम तितली से
एक झटके में
उसके पंख नोच लेना
और गेंदा और गुलाब से
उसकी पंखुड़ियों को लूटकर
मसल देना
किसी कविता का अंत है
कि जीवन की अवांछित विपदा
कि सभ्यता का कोई अनिवार्य शोकगीत
बोलो बाबा
क्या है यह
जपानी बुखार है तो यहां क्यों है
क्यों पसंद है इसे सबसे अधिक
इसके फंदेनुमा पंजे में
गिरई मछली की तरह तड़प-तड़प कर
शांत हो जाने वाले
इस अंचल के विपन्न , हतभाग्य
और दुधमुंहे
यह कोई बुखार है
बुखार है तो उतरता क्यों नहीं
महामारी है महामारी
नई महामारी
सबसे ज्यादा नये पौधों को
धरती से विलग करने वाली
मौत की तेज आंधी है
बुझाये हैं जिसने
इस अंचल के
हजारों नन्हे कुलदीप
कहां हैं मर्द सब
बेबस
और विलाप करती हुई मांओं की गोद
शिशु शवों से पाट देने वाला
हत्यारा जापानी बुखार
बचा हुआ है कैसे अबतक
कहां है पुलिस
और कहां है सेना
क्यों नहीं करती इसे गिरिफ्तार
जिंदा या मुर्दा
कोई विपक्ष है
है तो क्यों नहीं मांगता
जीने के अधिकार की गारंटी
कोई सरकार है कहीं
है तो कहां है
आये हाईकमान
कोई भारी-भरकम मंत्री-संत्री
कोई राजधानी का पत्रकार आये
और
टीवी पर जिंदगी की दो बूंद देने वाले
महानायक को पकड़कर लाये
कोई तो बतलाये-
जापान में एटमबम से
कितने शिशुओं की आंखें हुईं बंद
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले में
मारे गये कितने अमेरिकी
आखिर कितना है अभी यहां कम
आने से कतराता है
सरकार का मुखिया
करता है वक्त का इंतजार
और हिसाब-किताब
अस्पतालों और सेहत का महकमा
पता नहीं किस अहमक के जिम्मे है
क्या शहर और क्या देहात
क्या धान के खेत
और क्या गड्ढे का पानी
किस सूअर
और किस मच्छर की बात करें
हर कोनें-अंतरे में बठी हुई है मौत
सफेद लिबास में
एक कहता है
हेलीकाप्टर में बैठकर
अपने नुकीले नाखूनों वाले पंजे से
छिड़केंगे दवा
गांव-खेत , ताल-पोखर
चल चुकी है राजधानी से
दवा लगी मच्छरदानियों की भारी खेप
हर मुश्किल में आपके साथ है
एक खानदानी पंजा
दूसरा
पहले शंख बजाता है फिर गाल-
बुखार जापानी हो या पाकिस्तानी
मार भगायेंगे
मर्ज कैसा भी हो
काफी है छूमंतर होने के लिए
कमल की पंखुड़ियों से बनी
एक गोली
तीसरा आता है बाद में
रहता है सरकार में मगन
कहता है कुछ करता है कुछ
मिनट-मिनट पर सोचता है
नफा-नुकसान
क्या खूब फबती है
उसकी दस लाख की गाड़ी पर
हरे और लाल रंग के मखमल जैसे
छोटे से झण्डे में कढ़ी हुई
सुनहली साइकिल
जिसके पास खड़ा होकर
किसी पुराने दर्द भरे गाने की तरह
कहता है-
जो हुआ उसके लिए बेहद अफसोस है
टीके और दवा का करते हैं इंतजाम
लीजिए फौरन से पेश्तर
ले आया हूं आठ करोड़
बस पकड़े रहें
साइकिल की मूठ
आते हैं एक से बढ़कर एक
हाथी नहीं आता
मुमकिन है कभी आये हाथी
गिरते-पड़ते
चाहे हाथी के हौदे पर आये
कोई गुस्सैल
चिंघाड़ते हुए-
नहीं-नहीं , यह नहीं जापानी बुखार
न इंसेफेलाइटिस न मस्तिष्क ज्वर
यह तो है सीधे-सीधे
मनुवादी बुखार
कमजोर तबके पर है जिसकी ज्यादे मार
कोई नहीं आता ऐसा
कोई वैद्य कोई डाक्टर
कोई लेखक कोई कलावंत
जीवन का कोई इंजीनियर
कोई पथ-प्रदर्शक
कोई माई का लाल
माई से कहने-
घबड़ाओ नहीं माई
लो
मेरी त्वचा की रूमाल से
पोंछ लो अपने आंसू
हर पंजे से बचायेंगे
बचायेंगे कमल से
साइकिल से बचायेंगे
बचायेंगे हाथी से
शर्तिया बचायेंगे माई
इस भगोड़े जापानी बुखार से
सूअर से बचायेंगे
बचायेंगे मच्छर से
सबसे बचायेंगे
माई ।
(जापानी बुखार से)