सोमवार, 17 सितंबर 2012

त्रिपाठी जी तथा अन्य गुरु


            
                                                              -गणेश पाण्डेय
प्रिय राय साहब, आप गुरुवर त्रिपाठी जी के सबसे प्रिय शिष्य हैं। कई गुरुओं का शिष्य तो मैं भी हूँ पर शायद यहाँ किसी भी गुरु का सबसे प्रिय शिष्य होने का सौभाग्य मेरे पास नहीं है। शायद विद्या की दुनिया में सबसे टूटा-फूटा पीस मैं ही हूँ। उस अभागे कटपीस की तरह जिसे वक्त की कैंची ने जीवन के मुश्किल दिनों में बहुत-सी चीजों से अलग कर दिया। माँ और बाबूजी भी चतुराई की विद्या की सीख दिये बगैर इस कँटीली दुनिया के बीचोबीच मुझे निहत्था छोड़कर चले गये। संत कवियों का सौभाग्य कि उनका जीवन, सद्गुरुओं के चरणकमल पाकर तर गया। पर मैं इस जीवन में तर पाऊँगा, मुझे संदेह है। क्योंकि मुझे लगता है कि अभी मुझे अनेक जन्मों में अनेक हिंदी विभागों के पापागार में बंदी रहना पड़ेगा। किसी गुरु का शाप है या यम का कोई नियम कि हिंदी विभाग से जुड़े किसी भी स्वाभिमानी लेखक को अंतिम रूप से हिंदी विभाग में ही मारा जायेगा, शायद मेरे उपन्यास ‘अथ ऊदल कथा’ के नायक ऊदल की तरह पत्थर से कूच-कूच कर। शायद तब कहीं जाकर हिंदी के किसी निडर कार्यकर्ता को मुक्ति मिलेगी। ऐसे ही हिंदी विभागों का अप्रिय और दुष्ट केवल मैं और त्रिपाठीजी के सबसे प्रिय शिष्य आप, यह सब भाग्य का खेला है राय साहब। त्रिपाठीजी की कृपा आप पर हुई तो मुझ पर भी हुई। पर मैं कैसे हिंदी विभाग का बुरा आदमी बन गया और मेरे समकालीन बाकी लोग हिंदी का मान बढ़ाने वाले और देश में हिंदी विभाग का नाम रोशन करने वाले हिंदी के सच्चे सपूत। हिंदी के इस कारागार में घुसते ही कैसे-कैसे पापी पीछे पड़ गये। आप इनमें तो नहीं थे राय साहब! पर जो थे गुरुभाई ही थे। कैसे-कैसे गुरु मिले और कैसे-कैसे गुरुभाई!
       हिंदी विभाग में नहीं आता तो हिंदी में हजार बार एम.ए. करने के बावजूद यह समझ नहीं पाता कि कबीर आखिर बार-बार सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? यह अलग बात है कि हिंदी विभाग में आने के बाद भी कुछ लोग यह जान नहीं पाते हैं कि कबीर आखिर सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? कबीर ही नहीं दूसरे संत कवि भी आखिर यह सद्गुरु-सद्गुरु क्यों करते रहते हैं ? इन्हीं अर्थों में मेरे लिए त्रिपाठी जी सद्गुरु हैं, जिन्होंने मुझे इस शहर और बाहर के हिंदी के कापुरुषों को  उलट-पलट कर देखने का अवसर दिया। मैं व्यक्तिगतरूप से अपने को त्रिपाठी जी का अत्यंत ऋणी अनुभव करता हूँ कि उन्होंने मुझे कबीर के सद्गुरु और आँधरा गुरु के फर्क को हिंदी की अकादमिक प्रयोगशाला और खासतौर से हिंदीविभाग की परखनली में रखकर और हजार बार लाल-पीला- काला करके देखने का मौका दिया। त्रिपाठी जी सिर्फ इसलिए ही मेरी दृष्टि में अच्छे गुरु नहीं हैं कि उन्होंने मुझे अवसर दिया, बल्कि इसलिए भी अच्छे गुरु हैं कि उन्होंने मुझे कभी टोका नहीं, कभी डाँटा नहीं कि तुम क्या करते-रहते हो। कभी कुछ नहीं कहा मुझे। कभी नाराज नहीं हुए कि तुम मेरे घर आते क्यों नहीं हो, कहाँ व्यस्त रहते हो ? जब भी मैं अपने गुरुओं की सीरीज पर नजर दौड़ाता हूँ तो त्रिपाठी जी का चेहरा सामने आते ही आँख भर आती है। त्रिपाठी जी ने कभी किसी से मेरी शिकायत क्यों नहीं की ? क्यों नहीं बुला कर किसी बात पर मुझे कुछ कहा ? दूसरे गुरुओं की तरह आखिर त्रिपाठी जी ने किसी से मेरी बुराई इस शहर में या दूसरे शहर में क्यों नहीं की ? त्रिपाठी जी के अलावा अनेक गुरु थे और हैं जिन्होंने चिकवे की दुकान पर टंगे हुए बकरे की तरह उल्टा लटका कर मुझे हजम कर जाना चाहा। त्रिपाठी जी ने कभी ऐसा कुछ क्यों नहीं किया ? त्रिपाठी जी का मुझ पर हक है वे चाहते तो मेरी त्वचा को चाँदी के वर्क में लपेट कर पान का बीड़ा बना सकते थे। मैं औरों की बात नहीं जानता पर इतना जानता हूँ कि त्रिपाठी जी ने अपने इस शिष्य को लोहे की मोटी जंजीर में नहीं, बल्कि किसी बेहद कोमल धागे से बाँध रखा है। शायद ऐसा इसलिए कि त्रिपाठी जी का मन एक कवि का मन है, उन्हें पता है कि किसी कविता के कार्यकर्ता को किस तरह बाँधना चाहिए और कितना बाँधना चाहिए ? कवि और लेखक तो मेरे और भी गुरु थे और हैं। मेरे पहले कविता संग्रह ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ में गुरुओं पर लिखी हुई मेरी दस कविताओं की एक पूरी सीरीज ही है। जिसमें गजब-गजब के गुरु हैं। कोई डँसने वाला गुरु है तो कोई शिष्य के विरुद्ध मिथ्या कहने वाला, कोई कान का कच्चा है तो कोई अक्ल का कच्चा, कोई किसी खुशामदी को प्रधान शिष्य बनाने के लिए सच कहने वाले शिष्य को प्रधान शिष्य के पद से बर्खास्त करने वाला, कोई-कोई गुरु तो सीधे सच कहने वाले शिष्य की अनेक प्रकार से हत्या पर उतारू हो जाता है- ‘पहला बाण/जो मारा मुख पर/आँख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा/खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू।’ निर्दयी गुरु की गाथा यहीं खत्म नहीं हो जाती है। शिष्य के आँसुओं की बाढ़ कम नहीं होती है। मेरी पीढ़ी के बहुत से लोग संत साहित्य के विशेषज्ञ होंगे, शायद वे लोग गुरु-शिष्य प्रकरण को संत कवियों की आँख से और अच्छी तरह देखते होंगे। मैं अपने जीवन में घटित होते हुए  अपनी ग्लोकोमायुक्त आँख से जितना देख पा रहा हूँ और जो अनुभव कर रहा हूँ, बस उतना ही कहना चाहूँगा। मेरे एक गुरु बड़े भारी कवि के रूप में इस शहर में प्रसिद्ध हुए हैं, उनसे मैंने काफी पहले एक बार पूछा कि अच्छी कविता लिखने के लिए क्या करना चाहिए ? तो वे बड़े आश्वस्त भाव से बोले कि अरे गणेश जी सब ऐसे ही करते-करते आ जाता है। जाहिर है कि मैं बहुत दुखी हुआ था। कविताई के प्रति ऐसी भयंकर उपेक्षा या कहें कि अपने बाद की पीढ़ी के प्रति ऐसा अदेख मैं पहली बार देख रहा था। कल्पना कीजिए कि देवेंद्र कुमार की रचना-प्रक्रिया को जानने के बाद उक्त गुरु की प्रक्रिया विषयक अगंभीर टिप्पणी से मुझे कितना दुख हुआ होगा। इतना ही नहीं दुख तो कई बार इससे भी अधिक हुआ। शायद ऐसे ही अनेक गुरुओं की गूँज ‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम’ कविता में है-‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले-/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।’ ऐसे स्वयंभू महान गुरुओं की एक फेहरिश्त है। एक गुरु जी कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते जीवन के लिए सूत्रवाक्य कहते थे कि अकेला होना बड़ा रचनात्मक होता है और अपने जीवन में और अपने लिखने की मेज पर कभी अकेला हुए ही नहीं। कभी भी किसी कृति का साक्षात्कार अकेले किया ही नहीं। मेज पर कभी आलोचना के किसी अपने समय के महान का खड़ाऊँ रखा होता था तो जिस लेखक ही किताब पर लिख रहे होते थे उसका फोटो और पदनाम या लेखिका हुई तो अन्य उपयोगी सूचनाएँ। कभी भी किसी के भी पीछे चलने में कभी कोई असुविधा नहीं महसूस की। अपने चलता-पुर्जा किस्म के शिष्यों के पीछ चलने में भी नहीं। किसी के भी पीछे रहने का दुर्गुण एक और लेखक गुरु में रहा है। अपने लेखन पर मुग्ध और अतिसंतुष्ट रहना उतना बुरा नहीं है जितना अपने समय और आसपास के लेखकों से स्वस्थ साहित्यिक प्रतिस्पर्धा का न होना। मुझे इस बात का दुख हमेशा रहा कि मेरे अमुक गुरु उम्र में अपने से छोटे अमुक गुरु से आगे क्यों नहीं रहना चाहते थे और हैं ? उनके भीतर क्यों नहीं कोई ऐसी चिंगारी मौजूद थी और है ? उनके भीतर किसी चिंगारी को न पाकर आखिर मैं किस चीज को सुलगाता ? और भी कई तरह की दिक्कतें रही हैं। कई गुरुओं से। मुझसे भी दिक्कत रही होगी मेरे गुरुओं को। मेरे गुरुभाइयों को भी मुझसे तमाम दिक्कतें थीं, जिस वजह से मैं अपने गुरुओं का प्रिय शिष्य नहीं बन पाया। ‘ खूब मिले गुरुभाई/सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल/कुछ भी हो जाने के लिए/मेरे विरुद्ध/बात सिर्फ इतना-सी थी/कि मैं कवि था भरा हुआ/कि टूट रहा था मुझसे/कोई नियम/कि लिखना चाहता था मैं/नियम के लिए नियम। ’कोई ढ़ाई दशक गुरुभाइयों की ईर्ष्या-द्वेष और मेरे साहित्यिक काम की वजह से अकारण भयभीत होकर लगातार मुझ पर किये गये आक्रमण और मेरे विरुद्ध साजिशों के जर्बदस्त तनाव के बावजूद मैं थोड़ा-बहुत कुछ कर पाया तो यह वीणा वादिनी का चमत्कार है। अन्यथा मेरे जैसे शिष्य को तो साहित्यिक रूप से कब को खत्म हो जाना चाहिए था। जिसके खिलाफ केवल गुरुभाई ही कुछ भी खाने को तैयार नहीं रहे हैं, बल्कि खुद नामी-गिरामी गुरु भी लघुता की अनेक सीमाएँ लाँघते रहे हैं। पर मैं देख रहा हूँ कि जब मुझसे ईर्ष्या करने वाले ये गुरुभाई नहीं रहेंगे तो इन बड़े नाम वाले लघुगुरुओं को महान कौन कहेगा ? कौन इनके काम को सराहेगा ? क्या कृतियों की जगह यहाँ के पुस्तकालयों में इनके पुरस्कार रखे जायेंगे ? इनके अँगरखे रखे जायेंगे ? क्या कोई ऐसा समय आने वाला है कि जब लोग कृतियों को प्रमाण नहीं मानेंगे, उन्हें समुद्र में डुबो देंगे और नाच-गाने और तमगे समेत अन्य चीजों को महत्वपूर्ण मानेंगे ? फेहरिश्त को और लंबा नहीं करना चाहूँगा। फिर कभी अपने सभी गुरुओं पर विस्तार से कुछ कहूँगा। यहाँ तो सिर्फ त्रिपाठी जी पर कुछ कहना है। उनकी छवि के बारे में कुछ कहना है। त्रिपाठी जी की कोई खराब छवि मेरे मन में कभी नहीं रही। न विद्यार्थी जीवन में और न अब। विद्यार्थी जीवन में  त्रिपाठी जी अपनी अध्यापन शैली और छवि से प्रभावित करते थे। भाषाविज्ञान जैसे दुरूह विषय को भी सरस शैली में पढ़ाने की कला आज शायद ही किसी के पास उस स्तर की हो। जब पढ़ने का मन न हो और भाषाविज्ञान पढ़ना हो तो यह सिर्फ त्रिपाठी जी की क्लास में ही संभव था। वे कब हमारी थकान को दूर करके हमें तरोजाता कर देते हम जान ही नहीं पाते। भाषाविज्ञान ही नहीं लोकसाहित्य को हमारे सामने सजीव कर देते थे। लोक हमारे सामने उपस्थित हो जाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि लोक साहित्य के प्रति जो थोड़ा-सा अनुराग मुझमें है वह त्रिपाठी जी कक्षाओं की वजह से ही। त्रिपाठी जी के समय के शिक्षकों की बात ही कुछ और थी। त्रिपाठी जी अच्छा पढ़ाते थे। भगवती प्रसाद सिंह अच्छा पढ़ाते थे। तिवारी जी अच्छा पढ़ाते थे। जब मैं तिवारी जी कह रहा हूँ तो मेरा आशय रामचंद्र तिवारी से है। विश्वनाथ जी से नहीं। विश्वनाथ जी अच्छा नहीं पढ़ाते थे। परमानंद जी अच्छा पढ़ाते थे। रामदेव जी अच्छा पढ़ाते थे। जगदीश जी तो अपने गीत भी अच्छा पढ़ते थे। रस्तोगी जी अच्छा पढ़ाती थीं। गुरु तो कई और भी हैं। इन गुरुओं में कई ऐसे गुरु रहे हैं जो शिक्षक होने के साथ-साथ लेखक भी रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि कई गुरु खुशामदी शिष्यों की अतिशय पूजा और महान लेखक जैसी स्थानीय प्रतिष्ठा से मुग्ध होकर साहित्यिक खुदकुशी के शिकार हुए। एकाधिक गुरुओं ने देशभर में घूमने और दिल्ली में भारी-भरकम गॉडफादर बना लेने के बावजूद रचना और आलोचना में कुछ भी नया और महत्वपूर्ण नहीं किया है। यहाँ तक कि सत्तर-पचहत्तर का होने के बाद भी पुरानी रुई को भी ठीक से धुनना और रजाई में ढंग से भरना और तागना सीख नहीं पाये। गॉडफादरों के पीछे-पीछे भागना काम नहीं आया। एक भी अविस्मरणीय रचना या आलोचनात्मक लेख ऐसा नहीं है जिसे पढ़ने के लिए कोई पाठक विकल हो जाय। मेरा तो मानना है कि कोई आलोचक कोई एक ढ़ंग का लेख लिख दे तो काफी है। दुर्भाग्य यह कि एक तो दूर आधा या चौथाई लेख भी ऐसा नहीं दिखता जिसे पढ़ने के बाद कोई कह सके कि यदि अमुक जी पैदा नहीं हुए होते तो यह लेख नहीं लिखा जाता। अच्छा हुआ कि त्रिपाठी जी ने किसी धंधेबाज आलोचक या आई.ए.एस. अधिकारी को या ऐसे ही किसी साहित्य के सौदागर को अपना गॉडफादर नहीं बनाया। क्योंकि यह रास्ता साहित्य के मंदिर का रास्ता नहीं है, बल्कि साहित्य में अपराध की दुनिया का रास्ता है। त्रिपाठी जी ने पिछले पच्चीस साल यदि इस रास्ते पर चलने की कोशिश नहीं की तो ठीक ही किया।
     त्रिपाठी जी केवल अच्छे शिक्षक ही नहीं रहे, बल्कि एक रचनाकार उनके भीतर निरंतर सक्रिय रहा है। त्रिपाठी जी की कुछ कविताएँ विश्वविद्यालय पत्रिका में देखने के बाद अनुभव हुआ था कि त्रिपाठी आधुनिक काव्य संवेदना से जुड़े हुए तो हैं ही काव्यभाषा और शिल्प की दृष्टि से भी प्रभावित करते हैं। पर पता नहीं क्या हुआ कि त्रिपाठी जी की वह रचनाशीलता स्थगित हो गयी। कहना चाहूँगा कि त्रिपाठी जी रचनाशीलता स्थगित न हुई होती तो यह भी हो सकता है कि आज यहाँ के साहित्य का दृश्य दूसरा होता। शायद कोई विकल्प होता। त्रिपाठी जी ने इधर फिर से रचनारत होकर अच्छा किया है। पर और अच्छा रहा होता कि त्रिपाठी जी की यह नई शुरुआत पहले के काव्यरूप और संवेदना के साथ होकर आगे बढ़ती। खैर जो भी है, इस नई सदी की नई सक्रियता के साथ गुरुवर त्रिपाठी जी को देखना सुखद है।

[संस्मरण]

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कविता की पृथ्वी पर लौट आओ साथियो...

                  -गणेश पाण्डेय
दोस्तो, कुछ लोग नेट की दुनिया को आभासी दुनिया कहते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि फिर कागज पर जो दुनिया होती है, वह क्या है ? वह आभासी नहीं है। सचमुच की है। सचमुच की है तो कागज फट नहीं जाएगा ? कागज लोहे का है क्या ? कितना मजबूत लोहा है कि पृथ्वी का भार संभाल लेगा ? इसे छोड़िए, ये साहित्य भी क्या सचमुच की दुनिया है ? ठोस भी, तरल भी, जिसे इंद्रियों से अनुभव कर सकें ? फिर नेट की दुनिया ही आभासी क्यों बाकी दुनिया आभासी नहीं है क्या ? उसे छूकर और देखकर नहीं जान सकते हैं क्या ? जीवन नेट पर नहीं है क्या ? कोई समाज नेट पर नहीं है क्या ? विचार और समय की आवाजाही नेट की दुनिया में नहीं है क्या ? मेरे डिपार्टमेंट के कुछ नेटविरोधी दाएँ बाजू के नन्हे विचारक विचारक इतना तो मार्क्सवाद को तुच्छ नहीं समझते हैं, जितना इस कथित आभासी दुनिया को। मार्क्सवादी आचार्य भी इसे कौतुक की दृष्टि से देखते हैं, वे खुद भी जो एक कौतुक ठहरे। बहरहाल, कहना यह है कि यह दुनिया आभासी है या विश्वासघाती, इसके चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। सिर्फ अपनी बात कहना चाहता हूँ। जो कहना है, उसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं। मसलन, आज ही खरा कहने का दावा करने वाले खरे जी का एक मेल आया है। दूसरे मित्रों के पास भी गया होगा। उसमें एक जंगल में बैठ कर कविता की बात करने पर सख्त सजा दी गयी है-कुछ उम्रकैद जैसी। गनीमत यह कि उसी जंगल में ही उम्र कैद नहीं दे दी गयी है। मेरा ख्याल है कि इसके बाद अब किसी और सजा की जरूरत नहींे है। हालाकि मुझे भी मेरे शहर के कुछ लोग मेरी आक्रामता की वजह से पसंद नहीं करते हैं। यह अलग बात है कि उनके लिए जो भाषा और तेवर शाकाहारी नहीं है अर्थात भूसे की तरह बेजान और प्रभावहीन नहीं है, सब खराब है। उनके लिए खराब का मतलब आग्रहपूर्ण होना या बेइमानी करना नहीं है। लेकिन मैं जिन अर्थों में मेल से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ,उसके पीछे वजह सिर्फ यह है कि वह लेख की शक्ल में तार्किक कम और खबर की शक्ल में चटपटा अधिक है। उस लेख में क्या है, यह बताना यहाँ प्रयोजन नहीं है। मैं क्या सोच रहा हूँ, इससे मुझे सरोकर है।
  नेट पर हाल ही में उस कविता कांड पर काफी कुछ कहा गया है। पक्ष और विपक्ष आप से आप फाट पड़े। सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ। एक आयोजन जंगल में हुआ, कुछ लोग वहाँ गये और कुछ लोग वहाँ इसलिए नहीं गये कि उन्हें वहाँ बुलाया नहीं गया। लीलाधर मंडलोई  मित्रों के मित्र हैं। इलाहाबाद से कोई बुलाया गया और गोरखपुर से कोई नहीं बुलाया गया ? पर हे मित्रो शपथपूर्वक कहता हूँ कि मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगा। क्योंकि मैं जानता था कि वहाँ से कविता की कोई गंगोत्री नहीं फूट रही है कि पहुँच जाऊँ या न पहुँच पाने का कोई अफसोस करूँ। बहुत से अच्छी कविता करने वाले मित्र वहाँ नहीं शामिल थे। जो थे सब अच्छे ही थे, ऐसा भी नहीं। यह अलग बात है कि विजयकुमार और मंडलोई और दूसरे लोग वहाँ थे। इसलिए यह भी मानने में दिक्कत है कि सब वहाँ खराब ही हुआ होगा। कविता पर ढ़ंग से बात नहीं की गया होगी, यह स्वीकार करना मुश्किल है। पर मुश्किल कुछ और है। मुश्किल यह कि वहाँ हुआ क्या-क्या और बाहर आया क्या-क्या ? कई कवयित्रियों ने वहाँ के फोटो थोक में नेट पर आभासी दुनिया में जारी किए तो लगा कि बस वहाँ सिर्फ और सिर्फ यही हुआ। यह तो किसी ने ढं़ग से ब्योरेवार बताया हीनहीं कि वहाँ कतिवा पर यह-यह बात हुई या इन-इन अच्छी कविताओं का पाठ हुआ। बहस के नतीजे क्या रहे ? कोई एजेंडा तय हुआ या नहीं ?
  जहाँ तक आभासी दुनिया को पढ़ना सीख पाया हूँ, हुआ यह कि इन फोटो-फाटो से संदेश दूसरा गया और (शायद) लोगों ने समझा कि वहाँ सब अंभीर हुआ। अरे भाई अगंभीर तो दिल्ली में भी किया जा सकता था। इतने बड़े समूह में इतनी दूर जाकर अगंभीर करने की क्या जरूरत थी ? यह कोई पिकनिक था तो पिकनिक पर तो कोई भी कहीं जाए, क्या फर्क पड़ता है। यह फर्क पड़ा क्यों ? एक दूसरी विचारधारा का आदमी जाकर कुछ खराब किया तो अच्छी विचारधारा वालों ने वहाँ क्या अच्छा किया, यह बताना नहीं चाहिए था ? बताने में यह कमी कैसे हुई ? आभासी दुनिया में जैसे अंतरिक्ष में कोई भिड़ंत हो, एक भिड़ंत हो गयी। कहंें कि भिडं़त भी अकेली नहीं, टक्कर पर टक्कर हाल ही में पृथ्वी के नीचे प्रयोगशाला में हुई महाटक्कर जैसी। एक दिन, दो दिन, कई दिन। पक्ष और विपक्ष। जैसे होड़ लग गयी हो विचार व्यक्त करने में। मेरे जैसे आदमी की मुश्किल यह कि कोई उम्र में बीस साल छोटा तो बारह-पन्द्रह साल छोटा। करूँ तो क्या करूँ ? कविता को लेकर आग लगी हो तो दूर बैठ कर तमाशा कैसे देखूँ ? हालाकि वहाँ जाने वाले कुछ मित्र भी चुपचाप तमाशा देख रहे थे। इसे उनकी कविता के प्रति प्रतिबद्धता और साहस की कमी कह सकते हैं। पर यह कहना यहाँ प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन बहुत सीधा-सा है। वाद-विवाद का तूफान थम गया है। छोटे-बड़े महारथी वापस लौट चुके हैं। पर प्रश्न...सामने है।
     बहस के बीच एक जगह मुझे न चाहते हुए भी कहना पड़ा कि ‘‘ मैं कुछ कहना तो नहीं चाह रहा था। कहता भी तो शायद आगे किसी लेख में। पर इस विवाद में मेरे कई मित्र शामिल हैं। उनमें से कुछ के बीच पहली बार साहस की झलक देखने का अवसर मिला है तो कुछ मित्र अपने पक्ष को लेकर काफी नाराज दिख रहे हैं। ऐसे में मेरी कोशिश है कि इस आग पर थोड़ा-सी राख या बालू या पानी पड़ जाय तो बेहतर। चाहता यही हूँ कि सब कविता की प्रतिष्ठा को सबसे ऊपर समझें। अपने दुख को क्रम से कहना चाहूँगा।
1-युवा पीढ़ी ऐसे आयोजनों में यदि अपनी सार्थकता का अनुभव करती है, तो मुझे दुख है।
2-युवा पीढ़ी कविता का भविष्य कविता से इतर गतिविधियों में ढ़ूँढ़ती है, तो मुझे दुख है।
3-युवा पीढ़ी अपने समय के महाजनों के पथ पर चल कर अपनी मुक्ति चाहती है तो मुझे दुख है। 4-युवा पीढ़ी कविकर्म के फल या कविता के प्रयोजन के रूप में यश और चर्चा को स्वीकार करती है, तो मुझे दुख है।
5-युवा पीढ़ी कविता लिख देने के बाद अलग से प्रमोशन के लिए सक्रिय होती है, तो मुझे दुख है। ( यहाँ बात साफ कर दूँ कि कविता लिखने के बाद कवि सम्मेलन में पढ़ने का उपक्रम कविता को राजाओं के दरबार से निकाल कर जनता के बीच ले जाने के लिए हुआ था।)
6-युवा पीढ़ी अपनी कविता में अपनी बात कह नहीं पा रही है, तो मुझे दुख है।
7-युवा पीढ़ी कविता के लिए अपने भीतर गहरे में प्रेम का जज्बा नहीं पैदा नहीं कर पा रही है तो मुझे दुख है।
8-युवा पीढ़ी कविकर्म की विफलता से डर रही है तो मुझे दुख है।
9-युवा पीढ़ी अपने को कविता का कलगीदार मुर्गा समझ रही है कि उसके बाँग देने से ही कविता का भला होगा, तो मुझे दुख है।
10-युवा पीढ़ी कम महत्व की रचना से कविता का विश्वविजय करना चाहती है ,तो मुझे दुख है। 11-युवा पीढ़ी सिर्फ और सिर्फ अपनी बात को ही सच मान रही है, तो मुझे दुख है।
इन छोटे-छोटे दुखों के बाद कुछ बड़े दुख भी हैं-
(1)‘संगमन’ के कार्यक्रम को युवा पीढ़ी कोई बहुत जरूरी उपक्रम समझती है तो मुझे दुख है। एक बार कुशीनगर में संगमन का कार्यक्रम किया गया था, जिसमें मैं इसलिए नहीं जा पाया कि उस कार्यक्रम में ऐसे लोगों को महत्वपूर्ण बनाया गया था, जो लेखक ही नहीं थे। कुछ तो औसत से भी कम थे। मेरी प्रियंवद से फोन पर बात भी हुई थी। उन्होंने आश्वस्त भी किया था कि वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो स्तरीय न हो। लेकिन हुआ वही। आशय यह कि संगमन में न जाने के बाद भी मैं कथारचना करना भूल नहीं गया।
(2)- कथाक्रम के आयोजन में गोरखपुर से जो कथाकार और आलोचक जाते रहे, उनसे बहुत खराब उपन्यास या आलोचना नहीं लिखा है।
(3)-कोई बीस-पच्चीस साल से हंस नहीं देखता हूँ, फिर भी कथालेखन भूल नहीं गया।
बड़ा दुखः
1-यह कि युवा पीढ़ी अपने ऊपर भरोसा कब करेगी ? कब तक कविता या साहित्य के शार्टकट पर अमल करेगी ?
2-यह कि अपने समकालीन मित्रों के बीच अहंकार और ईर्ष्या-द्वेष की भावना से काम करेगी ?
3-यह कि युवा पीढ़ी बच्चों जैसी अगलीसीट पर बैठने की जिद कब तक करेगी। ( मैंने तो दिल्ली जाने वाली सारी सुपरफास्ट गाड़ियों को छोड़कर साहित्य की सबसे धीमी गति से चलने वाली माल गाड़ी पर बैठ कर सफर करना मुनासिब समझा है, भाई)।
यह सब कहने का आशय अपने को महान बनाने की बेवकूफी करना नहीं है। बस यह चाहता हूँ कि अरे मेरे युवा बड़े-बुजुर्ग, आप लोग अब आपस में यह सब बंद करो। साथ रहकर कविता का काम नहीं कर सकते तो कोई बात नहींे भाई। अलग-अलग रह कर कविता का काम करो। इसमे बुरा क्या है ? पर यह याद रखो कि ईमानदारी से अपना काम करो। यह पहले तय कर लो युवा दोस्तो कि तुम कविता का भला चाहते हो कि सिर्फ अपना भला ? कविता की प्रतिष्ठा समाज में चाहते हो कि कविता के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा ? यह सब मैंने शास्त्रार्थ के लिए नहीं कहा है। जिसे मेरी बात अच्छी न लगे, अपना गुस्सा थूक दे और मुझे कविता का बुरा आदमी समझ कर क्षमा कर दे।’’
जहिर है कि मेरी इस टिप्पणी से मेरे कुछ युवा मित्र दुखी भी हुए होंगे। पर उनका बड़प्पन यह कि मेरी इस टिप्पणी पर कुछ बुरा-भला नहीं कहा। सच तो यह कि अब मुझे अनुभव हो रहा है कि इस आभासी दुनिया में हर समय विचार वमन खतरे से खाली नहीं है। खतरे से मैं डरता नही पर खतरे में लेखक समाज पड़ जाय, इससे डरता हूँ। हमारे युवा मित्र आपस में भिड़ंत करके लहूलुहान हो जाएँ। एक-दूसरे को देखना न पसंद करें। एक-दूसरे की जड़ में मट्ठा डालने लगें, तो जाहिर है कि ऐसे में मेरा मन बहुत दुखी होगा। अरे भाई बड़े-बुजुर्ग तो यह सब कर ही रहे हैं, गुरु तक शिष्यों का हत्याकांड करने में लगे हुए हैं-
पहला बाण
जो मारा मुख पर
आँख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।
(गुरु सीरीज)
हमारे छोटे मित्र भी आपस में यही सब करने लगेंगे तो फिर कविता देवी का क्या होगा ? अरे भाई स्वाभिमानी लोग अपने आकाश से तनिक नीचे आओ कविता की धरती पर। अपने उन साथियों को देखो जिनके गले में तुम्हारी बाहें अब तक झूल रही हैं। वे तुमसे क्रूा पूछ रही हैं ? कविता का सम्मान क्यों तुम्हारे अपने सम्मान से कम है ? मेरे युवा मित्र न नाराज हों तो जाना चाहूँगा कि पृथ्वी का बुरे से बुरा आदमी भी क्या कविता की अच्छी किताब को छूने का अधिकारी नहीं है ? क्या आप कर्फ्यू लगा देंगे कि मुक्तिबोध की कविता को कोई दक्षिणपंथी छुएँ नहीं या कक्षाओं में पढ़ाएँ नहीं ? यह तो अधिक हो जाएगा भाई। ज्यादती है। यह ठीक है कि आप अपनी प्रतिबद्धता के नाते ऐसे लोगों के साथ कविता के मंच पर नहीं बैठना चाहते हैं। हम आपकी इस भावना का सम्मान करते हैं। लेकिन इसका अर्थ क्या यह है कि फिर कोई बात ही नहीं। कविता का काम ही बंद कर दिया जाय। मित्र लोग शत्रु हो जाएँ ? अरे भाई टकराने के लिए अपने मित्र नहीं होते। टकराने के लिए हिंदी के दुश्मन क्या कम हैं ? मित्रों की आलोचना करें, ऐसे टकराएँ नहीं कि उनका रामनाम सत्य हो जाए। कहीं कुछ गलत दिखे तो उन्हें खूब डाँटें। पर प्यार से। यह मैं इस पीड़ा से दो-चार होते हुए कह रहा हूँ कि मेरा एक प्यारा दोस्त इधर यहाँ मुझसे नाराज है। अरे भाई छूटने वाले दाग के लिए शर्ट फाड़ देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? कम से कम कविता के अँगरखे को नुकसान न पहुँचाओ कविता के युवा साथियो! मेरी प्रार्थना सुन लो! लौट आओ....

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

साहित्यिक मुक्ति का होगा क्या उर्फ ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन

                       -गणेश पाण्डेय
शेष जी, आपका प्रश्न महत्वपूर्ण है। आपका प्रस्थानबिंदु भी संभवतः संदेह से परे है। यह एक संयोग है कि आपके प्रश्न से कोई दो-तीन पहले मेरे एक प्राध्यापक शिष्य ने मुझे गुरुज्ञान दिया-सर दुनिया बदलेगी नहीं। शिष्य को मेरे बारे में काफी कुछ पता है। यह भी पता है कि बहुत से गुरुओं से प्रश्न करता रहता हूँ। पर देखिए मेरा शिष्य मुझसे कितना अधिक योग्य है कि वह प्रश्न नहीं करता है, सीधे उत्तर देता है। कह सकते हैं कि अब ऐसे शिष्य आते हैं जो उत्तरीय युग के हैं। आप भोले हैं शेष जी जो आप यह प्रश्न कर रहे हैं कि भाई आप कहते तो ठीक हैं, पर यह तो बताइए कि यह होगा कैसे ? दरअसल तीन तरह के लोग इस समय साहित्य के परिसर में कुछ कर-धर रहे हैं। यहाँ कर के साथ धर भी है, ध्यान दीजिएगा। पहले तरह के लोग तत्वज्ञानी और सर्वज्ञ हैं। हालाकि जिस अर्थ में कवि को सर्वज्ञ कहा जाता है, मैं उस अर्थ में इन्हें सर्वज्ञ नहीं कह रहा हूँ। इनकी सर्वज्ञता आकाश की तरह नहीं, बल्कि कहना चाहिए कि ये साहित्य के सुरंग की गतिविधयों के सर्वाधिक जानकार हैं। ये जानते हैं कि यह दुनिया नहीं बदलेगी, कोई क्रांति अब इस भारत धरा पर नहीं होगी। कोई सिरफिरा अँधेरे के इस साम्राज्य को छिन्नभिन्न नहीं कर सकता। ये जानते तो यहाँ तक भी हैं कि शिखर को ऐसे सिरफिरे छू भी नहीं सकते, उन्हें हटाना तो बहुत बड़ी बात है। कुछ लोग कह भी सकते हैं कि ये ठीक भी सोचते हैं, आज राजनीति के घोटाले बाजों के सरदार को हटाया जा सका है ? कौन है माई का लाल जो यह कारनामा कर सकता है ? जाहिर है कि ऐसे लोग सत्ता के इर्द-गिर्द रहने में ही मनुष्य मात्र का कल्याण समझते है। अपना तो खैर सबसे अधिक समझते ही हैं। हो सकता है कि मेरे प्राध्यापक शिष्य के मन में मेरे कल्याण की भी बात रही हो कि सर आप कहाँ फँस गये हैं, निकलिए अपने घटाटोप से। देखिए कामयाबी की सीढ़ी आपका इंतजार कर रही है। साहित्य के आकाश का सबसे बड़ा दफ्तर तो अपने शहर में ही है। आप कहाँ देख रहे है, अंट-शंट ? आपके सिद्धार्थ नगर जनपद के ही महान आलोचक इस समय आलोचना के हेड ऑफिस का सारा काम-धाम देखते हैं। क्यों नहीं उन्हें प्रसन्न कर लेते हैं ? आप भी पंडित और उसी जनपद के पंडित फिर भला अनाथ क्यों हैं साहित्य में ? जब एक नहीं दो-दो विश्वनाथ आपके सन्निकट हैं। हाथ भर की दूरी पर। बस हाथ फैलाने भर की देर है। अपने शिष्य से क्या कहूँ भला कि मैं अपने जनपद के गद्दार या अपने मौजूदा शहर के साहित्य के डॉन के आगे हाथ कैसे फेला सकता हूँ, मेरा तो हाथ ही मेरे वश में नहीं है। मेरे दूसरे संग्रह ‘ जल में ’ में की दूसरी कविता है-‘‘मुश्किल काम’’। इसे यहाँ देना जरूरी है-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे जो मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे जो मेरे साथ तो थे
पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीअत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-
‘पीना और शैतान के संग ?’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
पर मेरी बात को मेरे शिष्य ही नहीं, कोई क्यों समझे ? कोई जोर-जबरदस्ती है क्या ? कि मेरे शिष्य मेरी तरह सोचें, कोई किसी चलतापुर्जा गुरु की तरह सोचने के लिए भी उतने ही स्वतंत्र हैं, जितना मैं। गुरुओं पर भी मेरी गुरु सीरीज तो है ही। हमारे समय का विद्या और साहित्य का संसार उसमें मौजूद है ही। खैर शेष जी, ये तो पहले तरह के लोगों की बात हुई जिन्हें पक्का पता है कि साहित्य की दुनिया हरगिज-हरगिज नहीं बदलेगी। सिरफिरे कुछ भी कहते रहें। असल में ऐसे लोगों के साथ दिक्कत ये है कि ये लोग स्टेशन पर रुकने वाली या बदलने वाली गाड़ियों पर नहीं बल्कि नित्य कामयाबी की पटरी पर दौड़ती हुई गाड़ियों पर दौड़कर चढ़ने वाले दु्रतगामी लोग हैं। इन्हें न तो जान की परवाह है न किसी राक्षस से डर लगता है, ये डरते हैं तो बस विफलता के मामूली काँटे से। ऐसे लोग साहित्य में आए ही इसलिए हैं कि अमर हो जाएँ। मरने के लिए तो बेवकूफ लोग हैं ही। मैं भी सोचता हूँ चलो ठीक ही है, यदि एक मुझ नाचीज के मरने से बाकी  लोग अमर हो जाएँ तो भी कुछ बुरा नहीं। यह कोई जरूरी नहीं सिद्धार्थ नगर में या गोरखपुर में कई अमर लेखक हों। मैं तो इतना बुद्धू हूँ कि जानता ही नहीं कि लेखक अमर होने के लिए हुआ जाता है। क्या रेल या जहाज का पायलट अमर होने के लिए हुआ जाता है ? किसी मल्लाह को अमर होते देखा है आपने ? जैसे झाड़ू लगाने का काम अमर होने के लिए नहीं, उसी तरह मेरे लिए भी साहित्य में ईंट-गारा ढ़ोने का काम अमर होने के लिए नहीं है। बस एक सड़क बन जाय। अपने हिस्से का काम कर जाऊँ। बस। कबीर अमर होने के लिए कविता लिख रहे थे कि सूरदास या जायसी या तुलसी ? या मीरा या रैदास या.......।  अमर होने के लिए कोई लिखता है, तो चलो उसे भी अच्छा काम मान लेता हूँ, पर अकादमी पुरस्कार अमर होने का प्रमाणपत्र है। साहित्य के स्वर्ग का टिकट साहित्य अकादमी की खिड़की से मिलता है क्या ? कोई आरक्षण काउंटर है वहाँ ? कुछ लोगों को लगता है कि साहित्य में अमर होने के लिए विदेश यात्राएँ बहुत जरूरी हैं, वे मिनट-मिनट पर विदेश का दौरा करते रहते हैं और अखबार के दफ्तरों में फोटो सहित विवरण छपवाते रहते हैं। मैं तो समझ ही नहीं पाया कि चीन में हिंदी कविता पढ़ने या हिंदी साहित्य पर बात करने का क्या मतलब है। इस काम के लिए अपना सिद्धार्थनगर, गोरखपुर, महराजगंज, देवरिया, पड़रौना...खराब है क्या ? यहाँ हिंदी मर रही है और आप हिंदी का अमृत बाँटने चीन जा रहे हैं, इससे बड़ी बेवकूफी की बात मेरी दृष्टि में दूसरी नहीं। हिंदी के बाऊ साहब को पता है कि उनके पडरौना या बलिया या जीयनपुर में हिंदी मर रही है ? सवाल आज बाऊ साहबों का नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। उन्हें जितना करना था या कह सकते हैं कि हिंदी की दुनिया में जितना जापानी बुखार फैलाना था, फैला दिया है। हिंदी के लाड़ले और सच्चे सपूत क्या कर रहे हैं, जिन्हे अभी पुरस्कारों का राजरोग नहीं लगा है। आजादी की लड़ाई क्या सिर्फ बूढ़ों न लड़ी है ? नौजवानों की हिस्सेदारी क्या कम है ? बहरहाल, आपके प्रश्न के उत्तर में मुझे न जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़ रहा है। असल में आपका प्रश्न असाधारण है। मैं आप पर तनिक भी संदेह नहीं करूँगा कि आपने मजाक में या संदेह में या भय में यह प्रश्न किया है। मैं तो मानता हूँ कि आप के भीतर यह इच्छा है कि साहित्य की सत्ता में भी बदलाव हो भ्रष्ट लोग साहित्य की सत्ता से बेदखल हों। पर सवाल यह है कि यह होगा कैसे ? लेकिन इसके उत्तर की खोज में मुझे फिर एक चक्कर दूसरे तरह के लोगों का लगाना पड़ेगा। पहले तरह के लोगों की बात कर चुका हूँ। दूसरे तरह के लोग क्रांति के गीत गाते हुए ही इस धरती पर अवतरित हुए हैं। इंकलाब जिंदाबाद और मार्क्सवाद जिंदावाद जैसे कई मशहूर नारे मिनट-मिनट पर इनकी जीभ पर होते हैं। चलिए यह भी साहित्य में बुरा नहीं है, बल्कि साहित्य को उद्देश्य को सुंदर बनाने का एक जरूरी विकल्प है। लेकिन यह विकल्प उस वक्त दम तोड़ देता है, जब साहित्य की भ्रष्ट सत्ता के सामने ऐसे लोग हथियार डाल देते हैं। आज की तारीख में इनकी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि ये चाहते हैं कि अमेरिका तो ध्वस्त हो लेकिन साहित्य की दिल्ली या बनारस बना रहे। साहित्य की सत्ता की क्रूरताएँ, हर प्रकार का शोषण और बर्बर दमन और कत्लेआम इन्हें नहीं दिखता है। ये सिर्फ सुरक्षित महान साहित्य का काम करना चाहते हैं। ये लाल कविताएँ तो लिखना चाहते हैं पर साहित्य के अन्यायी के सामने लाल नहीं होना चाहते हैं। ये भी दुनिया भर में घूमते या वहाँ के साहित्य के अच्छे अंशों का पाठ करते नहीं थकते हैं, पर अपने साहित्यिक जीवन में निडरता और मुखरता से परहेज करते हैं। ये बहुत बड़े रिसर्चर तो बनते हैं पर साहित्य की सत्ता के सामने एक छींक भी नहीं निकाल सकते हैं। अरे भाई आप सत्रहवीं शती के बारे में क्या सोचते हैं, इसमें कोई जोखिम नहीं है, इस पर कोई आपसे नासराज नहीं होगा। आप वाह-वाह लूट सकते हैं पर आपने समय के बारे में कितना सच कहते हैं। कबीर ने बपने समय के सच को कितना फटकार कर कहा है, पर आप अपने समय के बारे में चुप क्यों हैं ? जाहिर है, बोलते ही सतता और सफलता का समीकरण बिगड़ जायेगा। इस डर से चुप रहते हैं। यहाँ मैं कहना चाहता हूँ कि मैं भी प्रगतिशील विचारधारासे उतना ही प्रेम करता हूँ, पर भीतरी निष्ठा के साथ। दिखावे के तौर मिनट-मिनट पर सुकविधाजनक छींक, छींक कर नहीं। एक बऔर जरूरी बात यह कि मैं मार्क्सवादी लेखकों में गैरमार्क्सवादी लेखकों से अधिक ईमान और साहस चाहता हूँ। मेरी यह माँग किसी को गलत लगे तो लगे। अरे भाई जब सिपाही ही बेईमान हो जाएगा तो फिर होगा क्या...। साहित्य में विचारधारा के साथ विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों का चोलीदामन का साथ है। दुर्भाग्य से ऐसे ही कुछ विभागों को मैं हिंदी की लंका के रूप में देखता हूँ। जाहिर है जहाँ लंका होगी, वहाँ कोई रावण होगा, कोई कुभकरण, कोई मेधनाद वगैरह...हरण और युद्ध भी होगा ही। पर आज का बाहर का लेखक भी जब हिंदी की लंका के राक्षसों का रिश्तेदार बनने लगता है ....तो लेखक नाम की संस्था का अंत निकट दिखने लगता है। तृतीय कोटि के लेखक वे हैं जो साहित्य कर दुनिया में भी क्रांति का स्वप्न देखते हैं। हैं न ये बेवकूफ नम्बर एक ? ये सोचते हैं कि ये क्रांति का बिगुल बजायेंगे और प्रगतिशील दोस्त दौड़े चले आयेंगे। उलट-पलट देंगे साहित्य की दुनिया। नहीं दोस्तो,  ऐसी बात शायद नहीं है। इन्हें पता है कि इनके चाहने से दुनिया नहीं बदलेगी। पर ये बदल गये तो इन्हें पता है कि फिर दुनिया कभी नहीं बदलेगी। ये अभी थोड़े क्रांति की हड़बड़ी में हैं। इन्हें पता है कि बाँस लेकर तोप का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। ये तो बात को जिंदी रखना चाहते हैं। ये तो बस एक उम्मीद को जिंदा रखना चाहते हैं। ये जानते हैं कि इनके चाहने भर से यश और पुरस्कार की घुड़दौड़ खत्म नहीं होने को है। ये बस बता भर रहे हैं कि पार्टनर तुम्हारे पैर मुड़े हुए हैं। तुम्हें जाना सीधे है और भाग रहे हो पीछे। खुद को अमर करने की होड़ क्यों ? अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाने की चिंता क्यों नही ? यह क्यों नहीं चाहते कि तुम्हारे न रहने के बाद तुम्हारी कोई एक कविता किसी को याद रहे ? सिर्फ कविता ? आज कविता में भी अंधी दौड़ हैं। कोई  केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन या त्रिलोचन या केदारनाथ सिंह इत्यादि...का क्लोन बनना चाहता है तो कोई कविता को उलटा लटका कर कविता का जादूगर ? अकादमी विजेताओं की बात कर ही चुका हूँ। ऐसे में शेष जी, साहित्यिक मुक्ति फौरन से पेश्तर संभव हो जाएगी, ऐसा कोई मुगालता मेरे भीतर नहीं है। बस आप जैसे लेखक इसे एक जरूरी बात के रूप में याद रखें इतना ही बहुत है। मैं सिद्धार्थ नगर से जे.एन.यू. या दिल्ली पहुँचने का भाग्य लेकर साहित्य में नहीं आया हूँ। कबीर भी काशी को तज कर मगहर पहुँचे थे। मैं भी आज की काशी दिल्ली से दूर हूँ। मगहर के पास। गोरखपुर में। गोरख के मुहल्ले में मेरा छोटा-सा घर है। जहाँ बैठ कर हिंदी साहित्य के बारे में कुछ सोचता रहता हूँ। उलटा-सीधा। शेष जी, इत्मीनान से लिखना चाहता था, पर प्रश्न सामने हो तो रुकना वश में कहाँ है ? हाँ, आपके प्रश्न का क्या हुआ, कह नहीं सकता....।