-गणेश पाण्डेय
प्रिय राय साहब, आप गुरुवर त्रिपाठी जी के सबसे प्रिय शिष्य हैं। कई गुरुओं का शिष्य तो मैं भी हूँ पर शायद यहाँ किसी भी गुरु का सबसे प्रिय शिष्य होने का सौभाग्य मेरे पास नहीं है। शायद विद्या की दुनिया में सबसे टूटा-फूटा पीस मैं ही हूँ। उस अभागे कटपीस की तरह जिसे वक्त की कैंची ने जीवन के मुश्किल दिनों में बहुत-सी चीजों से अलग कर दिया। माँ और बाबूजी भी चतुराई की विद्या की सीख दिये बगैर इस कँटीली दुनिया के बीचोबीच मुझे निहत्था छोड़कर चले गये। संत कवियों का सौभाग्य कि उनका जीवन, सद्गुरुओं के चरणकमल पाकर तर गया। पर मैं इस जीवन में तर पाऊँगा, मुझे संदेह है। क्योंकि मुझे लगता है कि अभी मुझे अनेक जन्मों में अनेक हिंदी विभागों के पापागार में बंदी रहना पड़ेगा। किसी गुरु का शाप है या यम का कोई नियम कि हिंदी विभाग से जुड़े किसी भी स्वाभिमानी लेखक को अंतिम रूप से हिंदी विभाग में ही मारा जायेगा, शायद मेरे उपन्यास ‘अथ ऊदल कथा’ के नायक ऊदल की तरह पत्थर से कूच-कूच कर। शायद तब कहीं जाकर हिंदी के किसी निडर कार्यकर्ता को मुक्ति मिलेगी। ऐसे ही हिंदी विभागों का अप्रिय और दुष्ट केवल मैं और त्रिपाठीजी के सबसे प्रिय शिष्य आप, यह सब भाग्य का खेला है राय साहब। त्रिपाठीजी की कृपा आप पर हुई तो मुझ पर भी हुई। पर मैं कैसे हिंदी विभाग का बुरा आदमी बन गया और मेरे समकालीन बाकी लोग हिंदी का मान बढ़ाने वाले और देश में हिंदी विभाग का नाम रोशन करने वाले हिंदी के सच्चे सपूत। हिंदी के इस कारागार में घुसते ही कैसे-कैसे पापी पीछे पड़ गये। आप इनमें तो नहीं थे राय साहब! पर जो थे गुरुभाई ही थे। कैसे-कैसे गुरु मिले और कैसे-कैसे गुरुभाई!
हिंदी विभाग में नहीं आता तो हिंदी में हजार बार एम.ए. करने के बावजूद यह समझ नहीं पाता कि कबीर आखिर बार-बार सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? यह अलग बात है कि हिंदी विभाग में आने के बाद भी कुछ लोग यह जान नहीं पाते हैं कि कबीर आखिर सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? कबीर ही नहीं दूसरे संत कवि भी आखिर यह सद्गुरु-सद्गुरु क्यों करते रहते हैं ? इन्हीं अर्थों में मेरे लिए त्रिपाठी जी सद्गुरु हैं, जिन्होंने मुझे इस शहर और बाहर के हिंदी के कापुरुषों को उलट-पलट कर देखने का अवसर दिया। मैं व्यक्तिगतरूप से अपने को त्रिपाठी जी का अत्यंत ऋणी अनुभव करता हूँ कि उन्होंने मुझे कबीर के सद्गुरु और आँधरा गुरु के फर्क को हिंदी की अकादमिक प्रयोगशाला और खासतौर से हिंदीविभाग की परखनली में रखकर और हजार बार लाल-पीला- काला करके देखने का मौका दिया। त्रिपाठी जी सिर्फ इसलिए ही मेरी दृष्टि में अच्छे गुरु नहीं हैं कि उन्होंने मुझे अवसर दिया, बल्कि इसलिए भी अच्छे गुरु हैं कि उन्होंने मुझे कभी टोका नहीं, कभी डाँटा नहीं कि तुम क्या करते-रहते हो। कभी कुछ नहीं कहा मुझे। कभी नाराज नहीं हुए कि तुम मेरे घर आते क्यों नहीं हो, कहाँ व्यस्त रहते हो ? जब भी मैं अपने गुरुओं की सीरीज पर नजर दौड़ाता हूँ तो त्रिपाठी जी का चेहरा सामने आते ही आँख भर आती है। त्रिपाठी जी ने कभी किसी से मेरी शिकायत क्यों नहीं की ? क्यों नहीं बुला कर किसी बात पर मुझे कुछ कहा ? दूसरे गुरुओं की तरह आखिर त्रिपाठी जी ने किसी से मेरी बुराई इस शहर में या दूसरे शहर में क्यों नहीं की ? त्रिपाठी जी के अलावा अनेक गुरु थे और हैं जिन्होंने चिकवे की दुकान पर टंगे हुए बकरे की तरह उल्टा लटका कर मुझे हजम कर जाना चाहा। त्रिपाठी जी ने कभी ऐसा कुछ क्यों नहीं किया ? त्रिपाठी जी का मुझ पर हक है वे चाहते तो मेरी त्वचा को चाँदी के वर्क में लपेट कर पान का बीड़ा बना सकते थे। मैं औरों की बात नहीं जानता पर इतना जानता हूँ कि त्रिपाठी जी ने अपने इस शिष्य को लोहे की मोटी जंजीर में नहीं, बल्कि किसी बेहद कोमल धागे से बाँध रखा है। शायद ऐसा इसलिए कि त्रिपाठी जी का मन एक कवि का मन है, उन्हें पता है कि किसी कविता के कार्यकर्ता को किस तरह बाँधना चाहिए और कितना बाँधना चाहिए ? कवि और लेखक तो मेरे और भी गुरु थे और हैं। मेरे पहले कविता संग्रह ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ में गुरुओं पर लिखी हुई मेरी दस कविताओं की एक पूरी सीरीज ही है। जिसमें गजब-गजब के गुरु हैं। कोई डँसने वाला गुरु है तो कोई शिष्य के विरुद्ध मिथ्या कहने वाला, कोई कान का कच्चा है तो कोई अक्ल का कच्चा, कोई किसी खुशामदी को प्रधान शिष्य बनाने के लिए सच कहने वाले शिष्य को प्रधान शिष्य के पद से बर्खास्त करने वाला, कोई-कोई गुरु तो सीधे सच कहने वाले शिष्य की अनेक प्रकार से हत्या पर उतारू हो जाता है- ‘पहला बाण/जो मारा मुख पर/आँख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा/खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू।’ निर्दयी गुरु की गाथा यहीं खत्म नहीं हो जाती है। शिष्य के आँसुओं की बाढ़ कम नहीं होती है। मेरी पीढ़ी के बहुत से लोग संत साहित्य के विशेषज्ञ होंगे, शायद वे लोग गुरु-शिष्य प्रकरण को संत कवियों की आँख से और अच्छी तरह देखते होंगे। मैं अपने जीवन में घटित होते हुए अपनी ग्लोकोमायुक्त आँख से जितना देख पा रहा हूँ और जो अनुभव कर रहा हूँ, बस उतना ही कहना चाहूँगा। मेरे एक गुरु बड़े भारी कवि के रूप में इस शहर में प्रसिद्ध हुए हैं, उनसे मैंने काफी पहले एक बार पूछा कि अच्छी कविता लिखने के लिए क्या करना चाहिए ? तो वे बड़े आश्वस्त भाव से बोले कि अरे गणेश जी सब ऐसे ही करते-करते आ जाता है। जाहिर है कि मैं बहुत दुखी हुआ था। कविताई के प्रति ऐसी भयंकर उपेक्षा या कहें कि अपने बाद की पीढ़ी के प्रति ऐसा अदेख मैं पहली बार देख रहा था। कल्पना कीजिए कि देवेंद्र कुमार की रचना-प्रक्रिया को जानने के बाद उक्त गुरु की प्रक्रिया विषयक अगंभीर टिप्पणी से मुझे कितना दुख हुआ होगा। इतना ही नहीं दुख तो कई बार इससे भी अधिक हुआ। शायद ऐसे ही अनेक गुरुओं की गूँज ‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम’ कविता में है-‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले-/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।’ ऐसे स्वयंभू महान गुरुओं की एक फेहरिश्त है। एक गुरु जी कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते जीवन के लिए सूत्रवाक्य कहते थे कि अकेला होना बड़ा रचनात्मक होता है और अपने जीवन में और अपने लिखने की मेज पर कभी अकेला हुए ही नहीं। कभी भी किसी कृति का साक्षात्कार अकेले किया ही नहीं। मेज पर कभी आलोचना के किसी अपने समय के महान का खड़ाऊँ रखा होता था तो जिस लेखक ही किताब पर लिख रहे होते थे उसका फोटो और पदनाम या लेखिका हुई तो अन्य उपयोगी सूचनाएँ। कभी भी किसी के भी पीछे चलने में कभी कोई असुविधा नहीं महसूस की। अपने चलता-पुर्जा किस्म के शिष्यों के पीछ चलने में भी नहीं। किसी के भी पीछे रहने का दुर्गुण एक और लेखक गुरु में रहा है। अपने लेखन पर मुग्ध और अतिसंतुष्ट रहना उतना बुरा नहीं है जितना अपने समय और आसपास के लेखकों से स्वस्थ साहित्यिक प्रतिस्पर्धा का न होना। मुझे इस बात का दुख हमेशा रहा कि मेरे अमुक गुरु उम्र में अपने से छोटे अमुक गुरु से आगे क्यों नहीं रहना चाहते थे और हैं ? उनके भीतर क्यों नहीं कोई ऐसी चिंगारी मौजूद थी और है ? उनके भीतर किसी चिंगारी को न पाकर आखिर मैं किस चीज को सुलगाता ? और भी कई तरह की दिक्कतें रही हैं। कई गुरुओं से। मुझसे भी दिक्कत रही होगी मेरे गुरुओं को। मेरे गुरुभाइयों को भी मुझसे तमाम दिक्कतें थीं, जिस वजह से मैं अपने गुरुओं का प्रिय शिष्य नहीं बन पाया। ‘ खूब मिले गुरुभाई/सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल/कुछ भी हो जाने के लिए/मेरे विरुद्ध/बात सिर्फ इतना-सी थी/कि मैं कवि था भरा हुआ/कि टूट रहा था मुझसे/कोई नियम/कि लिखना चाहता था मैं/नियम के लिए नियम। ’कोई ढ़ाई दशक गुरुभाइयों की ईर्ष्या-द्वेष और मेरे साहित्यिक काम की वजह से अकारण भयभीत होकर लगातार मुझ पर किये गये आक्रमण और मेरे विरुद्ध साजिशों के जर्बदस्त तनाव के बावजूद मैं थोड़ा-बहुत कुछ कर पाया तो यह वीणा वादिनी का चमत्कार है। अन्यथा मेरे जैसे शिष्य को तो साहित्यिक रूप से कब को खत्म हो जाना चाहिए था। जिसके खिलाफ केवल गुरुभाई ही कुछ भी खाने को तैयार नहीं रहे हैं, बल्कि खुद नामी-गिरामी गुरु भी लघुता की अनेक सीमाएँ लाँघते रहे हैं। पर मैं देख रहा हूँ कि जब मुझसे ईर्ष्या करने वाले ये गुरुभाई नहीं रहेंगे तो इन बड़े नाम वाले लघुगुरुओं को महान कौन कहेगा ? कौन इनके काम को सराहेगा ? क्या कृतियों की जगह यहाँ के पुस्तकालयों में इनके पुरस्कार रखे जायेंगे ? इनके अँगरखे रखे जायेंगे ? क्या कोई ऐसा समय आने वाला है कि जब लोग कृतियों को प्रमाण नहीं मानेंगे, उन्हें समुद्र में डुबो देंगे और नाच-गाने और तमगे समेत अन्य चीजों को महत्वपूर्ण मानेंगे ? फेहरिश्त को और लंबा नहीं करना चाहूँगा। फिर कभी अपने सभी गुरुओं पर विस्तार से कुछ कहूँगा। यहाँ तो सिर्फ त्रिपाठी जी पर कुछ कहना है। उनकी छवि के बारे में कुछ कहना है। त्रिपाठी जी की कोई खराब छवि मेरे मन में कभी नहीं रही। न विद्यार्थी जीवन में और न अब। विद्यार्थी जीवन में त्रिपाठी जी अपनी अध्यापन शैली और छवि से प्रभावित करते थे। भाषाविज्ञान जैसे दुरूह विषय को भी सरस शैली में पढ़ाने की कला आज शायद ही किसी के पास उस स्तर की हो। जब पढ़ने का मन न हो और भाषाविज्ञान पढ़ना हो तो यह सिर्फ त्रिपाठी जी की क्लास में ही संभव था। वे कब हमारी थकान को दूर करके हमें तरोजाता कर देते हम जान ही नहीं पाते। भाषाविज्ञान ही नहीं लोकसाहित्य को हमारे सामने सजीव कर देते थे। लोक हमारे सामने उपस्थित हो जाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि लोक साहित्य के प्रति जो थोड़ा-सा अनुराग मुझमें है वह त्रिपाठी जी कक्षाओं की वजह से ही। त्रिपाठी जी के समय के शिक्षकों की बात ही कुछ और थी। त्रिपाठी जी अच्छा पढ़ाते थे। भगवती प्रसाद सिंह अच्छा पढ़ाते थे। तिवारी जी अच्छा पढ़ाते थे। जब मैं तिवारी जी कह रहा हूँ तो मेरा आशय रामचंद्र तिवारी से है। विश्वनाथ जी से नहीं। विश्वनाथ जी अच्छा नहीं पढ़ाते थे। परमानंद जी अच्छा पढ़ाते थे। रामदेव जी अच्छा पढ़ाते थे। जगदीश जी तो अपने गीत भी अच्छा पढ़ते थे। रस्तोगी जी अच्छा पढ़ाती थीं। गुरु तो कई और भी हैं। इन गुरुओं में कई ऐसे गुरु रहे हैं जो शिक्षक होने के साथ-साथ लेखक भी रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि कई गुरु खुशामदी शिष्यों की अतिशय पूजा और महान लेखक जैसी स्थानीय प्रतिष्ठा से मुग्ध होकर साहित्यिक खुदकुशी के शिकार हुए। एकाधिक गुरुओं ने देशभर में घूमने और दिल्ली में भारी-भरकम गॉडफादर बना लेने के बावजूद रचना और आलोचना में कुछ भी नया और महत्वपूर्ण नहीं किया है। यहाँ तक कि सत्तर-पचहत्तर का होने के बाद भी पुरानी रुई को भी ठीक से धुनना और रजाई में ढंग से भरना और तागना सीख नहीं पाये। गॉडफादरों के पीछे-पीछे भागना काम नहीं आया। एक भी अविस्मरणीय रचना या आलोचनात्मक लेख ऐसा नहीं है जिसे पढ़ने के लिए कोई पाठक विकल हो जाय। मेरा तो मानना है कि कोई आलोचक कोई एक ढ़ंग का लेख लिख दे तो काफी है। दुर्भाग्य यह कि एक तो दूर आधा या चौथाई लेख भी ऐसा नहीं दिखता जिसे पढ़ने के बाद कोई कह सके कि यदि अमुक जी पैदा नहीं हुए होते तो यह लेख नहीं लिखा जाता। अच्छा हुआ कि त्रिपाठी जी ने किसी धंधेबाज आलोचक या आई.ए.एस. अधिकारी को या ऐसे ही किसी साहित्य के सौदागर को अपना गॉडफादर नहीं बनाया। क्योंकि यह रास्ता साहित्य के मंदिर का रास्ता नहीं है, बल्कि साहित्य में अपराध की दुनिया का रास्ता है। त्रिपाठी जी ने पिछले पच्चीस साल यदि इस रास्ते पर चलने की कोशिश नहीं की तो ठीक ही किया।
त्रिपाठी जी केवल अच्छे शिक्षक ही नहीं रहे, बल्कि एक रचनाकार उनके भीतर निरंतर सक्रिय रहा है। त्रिपाठी जी की कुछ कविताएँ विश्वविद्यालय पत्रिका में देखने के बाद अनुभव हुआ था कि त्रिपाठी आधुनिक काव्य संवेदना से जुड़े हुए तो हैं ही काव्यभाषा और शिल्प की दृष्टि से भी प्रभावित करते हैं। पर पता नहीं क्या हुआ कि त्रिपाठी जी की वह रचनाशीलता स्थगित हो गयी। कहना चाहूँगा कि त्रिपाठी जी रचनाशीलता स्थगित न हुई होती तो यह भी हो सकता है कि आज यहाँ के साहित्य का दृश्य दूसरा होता। शायद कोई विकल्प होता। त्रिपाठी जी ने इधर फिर से रचनारत होकर अच्छा किया है। पर और अच्छा रहा होता कि त्रिपाठी जी की यह नई शुरुआत पहले के काव्यरूप और संवेदना के साथ होकर आगे बढ़ती। खैर जो भी है, इस नई सदी की नई सक्रियता के साथ गुरुवर त्रिपाठी जी को देखना सुखद है।
हिंदी विभाग में नहीं आता तो हिंदी में हजार बार एम.ए. करने के बावजूद यह समझ नहीं पाता कि कबीर आखिर बार-बार सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? यह अलग बात है कि हिंदी विभाग में आने के बाद भी कुछ लोग यह जान नहीं पाते हैं कि कबीर आखिर सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? कबीर ही नहीं दूसरे संत कवि भी आखिर यह सद्गुरु-सद्गुरु क्यों करते रहते हैं ? इन्हीं अर्थों में मेरे लिए त्रिपाठी जी सद्गुरु हैं, जिन्होंने मुझे इस शहर और बाहर के हिंदी के कापुरुषों को उलट-पलट कर देखने का अवसर दिया। मैं व्यक्तिगतरूप से अपने को त्रिपाठी जी का अत्यंत ऋणी अनुभव करता हूँ कि उन्होंने मुझे कबीर के सद्गुरु और आँधरा गुरु के फर्क को हिंदी की अकादमिक प्रयोगशाला और खासतौर से हिंदीविभाग की परखनली में रखकर और हजार बार लाल-पीला- काला करके देखने का मौका दिया। त्रिपाठी जी सिर्फ इसलिए ही मेरी दृष्टि में अच्छे गुरु नहीं हैं कि उन्होंने मुझे अवसर दिया, बल्कि इसलिए भी अच्छे गुरु हैं कि उन्होंने मुझे कभी टोका नहीं, कभी डाँटा नहीं कि तुम क्या करते-रहते हो। कभी कुछ नहीं कहा मुझे। कभी नाराज नहीं हुए कि तुम मेरे घर आते क्यों नहीं हो, कहाँ व्यस्त रहते हो ? जब भी मैं अपने गुरुओं की सीरीज पर नजर दौड़ाता हूँ तो त्रिपाठी जी का चेहरा सामने आते ही आँख भर आती है। त्रिपाठी जी ने कभी किसी से मेरी शिकायत क्यों नहीं की ? क्यों नहीं बुला कर किसी बात पर मुझे कुछ कहा ? दूसरे गुरुओं की तरह आखिर त्रिपाठी जी ने किसी से मेरी बुराई इस शहर में या दूसरे शहर में क्यों नहीं की ? त्रिपाठी जी के अलावा अनेक गुरु थे और हैं जिन्होंने चिकवे की दुकान पर टंगे हुए बकरे की तरह उल्टा लटका कर मुझे हजम कर जाना चाहा। त्रिपाठी जी ने कभी ऐसा कुछ क्यों नहीं किया ? त्रिपाठी जी का मुझ पर हक है वे चाहते तो मेरी त्वचा को चाँदी के वर्क में लपेट कर पान का बीड़ा बना सकते थे। मैं औरों की बात नहीं जानता पर इतना जानता हूँ कि त्रिपाठी जी ने अपने इस शिष्य को लोहे की मोटी जंजीर में नहीं, बल्कि किसी बेहद कोमल धागे से बाँध रखा है। शायद ऐसा इसलिए कि त्रिपाठी जी का मन एक कवि का मन है, उन्हें पता है कि किसी कविता के कार्यकर्ता को किस तरह बाँधना चाहिए और कितना बाँधना चाहिए ? कवि और लेखक तो मेरे और भी गुरु थे और हैं। मेरे पहले कविता संग्रह ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ में गुरुओं पर लिखी हुई मेरी दस कविताओं की एक पूरी सीरीज ही है। जिसमें गजब-गजब के गुरु हैं। कोई डँसने वाला गुरु है तो कोई शिष्य के विरुद्ध मिथ्या कहने वाला, कोई कान का कच्चा है तो कोई अक्ल का कच्चा, कोई किसी खुशामदी को प्रधान शिष्य बनाने के लिए सच कहने वाले शिष्य को प्रधान शिष्य के पद से बर्खास्त करने वाला, कोई-कोई गुरु तो सीधे सच कहने वाले शिष्य की अनेक प्रकार से हत्या पर उतारू हो जाता है- ‘पहला बाण/जो मारा मुख पर/आँख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा/खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू।’ निर्दयी गुरु की गाथा यहीं खत्म नहीं हो जाती है। शिष्य के आँसुओं की बाढ़ कम नहीं होती है। मेरी पीढ़ी के बहुत से लोग संत साहित्य के विशेषज्ञ होंगे, शायद वे लोग गुरु-शिष्य प्रकरण को संत कवियों की आँख से और अच्छी तरह देखते होंगे। मैं अपने जीवन में घटित होते हुए अपनी ग्लोकोमायुक्त आँख से जितना देख पा रहा हूँ और जो अनुभव कर रहा हूँ, बस उतना ही कहना चाहूँगा। मेरे एक गुरु बड़े भारी कवि के रूप में इस शहर में प्रसिद्ध हुए हैं, उनसे मैंने काफी पहले एक बार पूछा कि अच्छी कविता लिखने के लिए क्या करना चाहिए ? तो वे बड़े आश्वस्त भाव से बोले कि अरे गणेश जी सब ऐसे ही करते-करते आ जाता है। जाहिर है कि मैं बहुत दुखी हुआ था। कविताई के प्रति ऐसी भयंकर उपेक्षा या कहें कि अपने बाद की पीढ़ी के प्रति ऐसा अदेख मैं पहली बार देख रहा था। कल्पना कीजिए कि देवेंद्र कुमार की रचना-प्रक्रिया को जानने के बाद उक्त गुरु की प्रक्रिया विषयक अगंभीर टिप्पणी से मुझे कितना दुख हुआ होगा। इतना ही नहीं दुख तो कई बार इससे भी अधिक हुआ। शायद ऐसे ही अनेक गुरुओं की गूँज ‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम’ कविता में है-‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले-/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।’ ऐसे स्वयंभू महान गुरुओं की एक फेहरिश्त है। एक गुरु जी कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते जीवन के लिए सूत्रवाक्य कहते थे कि अकेला होना बड़ा रचनात्मक होता है और अपने जीवन में और अपने लिखने की मेज पर कभी अकेला हुए ही नहीं। कभी भी किसी कृति का साक्षात्कार अकेले किया ही नहीं। मेज पर कभी आलोचना के किसी अपने समय के महान का खड़ाऊँ रखा होता था तो जिस लेखक ही किताब पर लिख रहे होते थे उसका फोटो और पदनाम या लेखिका हुई तो अन्य उपयोगी सूचनाएँ। कभी भी किसी के भी पीछे चलने में कभी कोई असुविधा नहीं महसूस की। अपने चलता-पुर्जा किस्म के शिष्यों के पीछ चलने में भी नहीं। किसी के भी पीछे रहने का दुर्गुण एक और लेखक गुरु में रहा है। अपने लेखन पर मुग्ध और अतिसंतुष्ट रहना उतना बुरा नहीं है जितना अपने समय और आसपास के लेखकों से स्वस्थ साहित्यिक प्रतिस्पर्धा का न होना। मुझे इस बात का दुख हमेशा रहा कि मेरे अमुक गुरु उम्र में अपने से छोटे अमुक गुरु से आगे क्यों नहीं रहना चाहते थे और हैं ? उनके भीतर क्यों नहीं कोई ऐसी चिंगारी मौजूद थी और है ? उनके भीतर किसी चिंगारी को न पाकर आखिर मैं किस चीज को सुलगाता ? और भी कई तरह की दिक्कतें रही हैं। कई गुरुओं से। मुझसे भी दिक्कत रही होगी मेरे गुरुओं को। मेरे गुरुभाइयों को भी मुझसे तमाम दिक्कतें थीं, जिस वजह से मैं अपने गुरुओं का प्रिय शिष्य नहीं बन पाया। ‘ खूब मिले गुरुभाई/सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल/कुछ भी हो जाने के लिए/मेरे विरुद्ध/बात सिर्फ इतना-सी थी/कि मैं कवि था भरा हुआ/कि टूट रहा था मुझसे/कोई नियम/कि लिखना चाहता था मैं/नियम के लिए नियम। ’कोई ढ़ाई दशक गुरुभाइयों की ईर्ष्या-द्वेष और मेरे साहित्यिक काम की वजह से अकारण भयभीत होकर लगातार मुझ पर किये गये आक्रमण और मेरे विरुद्ध साजिशों के जर्बदस्त तनाव के बावजूद मैं थोड़ा-बहुत कुछ कर पाया तो यह वीणा वादिनी का चमत्कार है। अन्यथा मेरे जैसे शिष्य को तो साहित्यिक रूप से कब को खत्म हो जाना चाहिए था। जिसके खिलाफ केवल गुरुभाई ही कुछ भी खाने को तैयार नहीं रहे हैं, बल्कि खुद नामी-गिरामी गुरु भी लघुता की अनेक सीमाएँ लाँघते रहे हैं। पर मैं देख रहा हूँ कि जब मुझसे ईर्ष्या करने वाले ये गुरुभाई नहीं रहेंगे तो इन बड़े नाम वाले लघुगुरुओं को महान कौन कहेगा ? कौन इनके काम को सराहेगा ? क्या कृतियों की जगह यहाँ के पुस्तकालयों में इनके पुरस्कार रखे जायेंगे ? इनके अँगरखे रखे जायेंगे ? क्या कोई ऐसा समय आने वाला है कि जब लोग कृतियों को प्रमाण नहीं मानेंगे, उन्हें समुद्र में डुबो देंगे और नाच-गाने और तमगे समेत अन्य चीजों को महत्वपूर्ण मानेंगे ? फेहरिश्त को और लंबा नहीं करना चाहूँगा। फिर कभी अपने सभी गुरुओं पर विस्तार से कुछ कहूँगा। यहाँ तो सिर्फ त्रिपाठी जी पर कुछ कहना है। उनकी छवि के बारे में कुछ कहना है। त्रिपाठी जी की कोई खराब छवि मेरे मन में कभी नहीं रही। न विद्यार्थी जीवन में और न अब। विद्यार्थी जीवन में त्रिपाठी जी अपनी अध्यापन शैली और छवि से प्रभावित करते थे। भाषाविज्ञान जैसे दुरूह विषय को भी सरस शैली में पढ़ाने की कला आज शायद ही किसी के पास उस स्तर की हो। जब पढ़ने का मन न हो और भाषाविज्ञान पढ़ना हो तो यह सिर्फ त्रिपाठी जी की क्लास में ही संभव था। वे कब हमारी थकान को दूर करके हमें तरोजाता कर देते हम जान ही नहीं पाते। भाषाविज्ञान ही नहीं लोकसाहित्य को हमारे सामने सजीव कर देते थे। लोक हमारे सामने उपस्थित हो जाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि लोक साहित्य के प्रति जो थोड़ा-सा अनुराग मुझमें है वह त्रिपाठी जी कक्षाओं की वजह से ही। त्रिपाठी जी के समय के शिक्षकों की बात ही कुछ और थी। त्रिपाठी जी अच्छा पढ़ाते थे। भगवती प्रसाद सिंह अच्छा पढ़ाते थे। तिवारी जी अच्छा पढ़ाते थे। जब मैं तिवारी जी कह रहा हूँ तो मेरा आशय रामचंद्र तिवारी से है। विश्वनाथ जी से नहीं। विश्वनाथ जी अच्छा नहीं पढ़ाते थे। परमानंद जी अच्छा पढ़ाते थे। रामदेव जी अच्छा पढ़ाते थे। जगदीश जी तो अपने गीत भी अच्छा पढ़ते थे। रस्तोगी जी अच्छा पढ़ाती थीं। गुरु तो कई और भी हैं। इन गुरुओं में कई ऐसे गुरु रहे हैं जो शिक्षक होने के साथ-साथ लेखक भी रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि कई गुरु खुशामदी शिष्यों की अतिशय पूजा और महान लेखक जैसी स्थानीय प्रतिष्ठा से मुग्ध होकर साहित्यिक खुदकुशी के शिकार हुए। एकाधिक गुरुओं ने देशभर में घूमने और दिल्ली में भारी-भरकम गॉडफादर बना लेने के बावजूद रचना और आलोचना में कुछ भी नया और महत्वपूर्ण नहीं किया है। यहाँ तक कि सत्तर-पचहत्तर का होने के बाद भी पुरानी रुई को भी ठीक से धुनना और रजाई में ढंग से भरना और तागना सीख नहीं पाये। गॉडफादरों के पीछे-पीछे भागना काम नहीं आया। एक भी अविस्मरणीय रचना या आलोचनात्मक लेख ऐसा नहीं है जिसे पढ़ने के लिए कोई पाठक विकल हो जाय। मेरा तो मानना है कि कोई आलोचक कोई एक ढ़ंग का लेख लिख दे तो काफी है। दुर्भाग्य यह कि एक तो दूर आधा या चौथाई लेख भी ऐसा नहीं दिखता जिसे पढ़ने के बाद कोई कह सके कि यदि अमुक जी पैदा नहीं हुए होते तो यह लेख नहीं लिखा जाता। अच्छा हुआ कि त्रिपाठी जी ने किसी धंधेबाज आलोचक या आई.ए.एस. अधिकारी को या ऐसे ही किसी साहित्य के सौदागर को अपना गॉडफादर नहीं बनाया। क्योंकि यह रास्ता साहित्य के मंदिर का रास्ता नहीं है, बल्कि साहित्य में अपराध की दुनिया का रास्ता है। त्रिपाठी जी ने पिछले पच्चीस साल यदि इस रास्ते पर चलने की कोशिश नहीं की तो ठीक ही किया।
त्रिपाठी जी केवल अच्छे शिक्षक ही नहीं रहे, बल्कि एक रचनाकार उनके भीतर निरंतर सक्रिय रहा है। त्रिपाठी जी की कुछ कविताएँ विश्वविद्यालय पत्रिका में देखने के बाद अनुभव हुआ था कि त्रिपाठी आधुनिक काव्य संवेदना से जुड़े हुए तो हैं ही काव्यभाषा और शिल्प की दृष्टि से भी प्रभावित करते हैं। पर पता नहीं क्या हुआ कि त्रिपाठी जी की वह रचनाशीलता स्थगित हो गयी। कहना चाहूँगा कि त्रिपाठी जी रचनाशीलता स्थगित न हुई होती तो यह भी हो सकता है कि आज यहाँ के साहित्य का दृश्य दूसरा होता। शायद कोई विकल्प होता। त्रिपाठी जी ने इधर फिर से रचनारत होकर अच्छा किया है। पर और अच्छा रहा होता कि त्रिपाठी जी की यह नई शुरुआत पहले के काव्यरूप और संवेदना के साथ होकर आगे बढ़ती। खैर जो भी है, इस नई सदी की नई सक्रियता के साथ गुरुवर त्रिपाठी जी को देखना सुखद है।
[संस्मरण]