- गणेश पाण्डेय
यह एक असाधारण
और काली लंबी रात है
मेरे सिर पर काले छाते की तरह
तनी हुई है जैसे गर्दन पर चाकू
कहीं कोई दूर-दूर तक आवाज़ नहीं है
न किसी गाड़ी की न किसी आदमी की
न किसी कुत्ते और बिल्ली के रोने की
सबके सब पेड़-पत्ते फूल-पत्तियां
सब चुप हैं कुछ नहीं सूझ रहा है किसी को
मैं ख़ुद नहीं कर रहा हूं किसी से कोई बात
रात के ग्यारह बज रहे होंगे
लगता है कि एक से ऊपर बज गये होंगे
शायद सब सो गये होंगे
शायद सब मेरी तरह जाग रहे होंगे
बजते हुए इस वक़्त को सुन रहे होंगे
शायद वक़्त की आवाज़ में
किसी पायल की आवाज़ शामिल होगी
छम-छम छम-छम
कुछ चूड़ियों की आवाज़ के साथ
एक खनकती हुई हंसी शामिल होगी
पता नहीं यह किसी
औरत की आवाज़ होगी
या किसी और की
मुझे डर लग रहा है बाहर सड़क पर
कोई औरत जैसी चीज़ सफेद लिबास में
ज़रूर टहल रही होगी
मौत होगी
शहर-शहर घर-घर घूम-घूम कर
रोशनदान से खिड़की की दरार से
दरवाज़े के नीचे से झांक रही होगी
आदमी की मौजूदगी
बल्ब बुझने की वजह से
जहां कुछ नहीं दिखता होगा
वहां अपनी गजभर लम्बी नाक से
सूंघ-सूंघ कर पता कर रही होगी
आदमी की मामूली से मामूली गंध
सूप जैसे लम्बे कानों से सुन रही होगी
आदमी की सांसों की मद्धिम से मद्धिम
आवाज़
ओह जैसे ही
दरवाज़ा खुलेगा घुस जाएगी
शायद रात के सन्नाटे की वजह से
शायद पैंसठ का होने की वजह से
शायद दिनभर टीवी देखने की वजह से
इस तरह के ख़याल आ रहे हैं
कि हर जगह ऐसी कोई डरावनी चीज़ है
जो आदमियों के प्राण हर लेगी
मैं पत्नी को सोते हुए देखता हूं
तो सोते हुए अपने घर को देखता हूं
घर की एक-एक चीज़ को सोते हुए पाता हूं
लेकिन ख़ुद नहीं सो पाता हूं
देश और दुनिया की सड़कों पर
गज़ब का सन्नाटा देखता हूं
मेरे बार-बार करवट बदलने से
पत्नी जग जाती हैं पूछती हैं-
क्या हुआ नींद क्यों नहीं आ रही है
बच्चों के लिए परेशान हैं क्या
मेरे हां कहते ही उठकर बैठ जाती हैं
मैं भी बैठ जाता हूं
मुझे लगता है
पृथ्वी पर जितने भी पति होंगे
पत्नियों के साथ उठकर बैठ गये होंगे
और अपने बच्चों के बारे में
और मुल्क़ के हालात के बारे में
बात कर रहे होंगे सोच रहे होंगे
कुछ लोग
उन लोगों के बारे में सोच रहे होंगे
जो अपने बच्चों और वतन से दूर होंगे
शायद जहाज रेल बस के इंकार के बाद
इस वक़्त पैदल चल चुके होंगे
रात के दो बज गये होंगे
मां और बाबूजी
हैजा और प्लेग की महामारी के बारे में
जब हम सभी छोटे थे बताते थे
लेकिन हमने तो ख़ुद अपनी आंखों से
पहले जापानी बुख़ार से
यूपी बिहार और नेपाल की तराई के
पचास हज़ार से ज़्यादा बच्चों को
अपनी मांओं की गोद सूनी करके
असमय जाते देखा है
और अब
चीनी बुख़ार की काली छाया से
बूढ़ों और बच्चों को जाते देख रहे हैं
चीन से फैले कोरोना वायरस ने
पृथ्वी के जीवन का रस निचोड़ लिया है
दुनिया का हर देश भयभीत है
दुनिया की आंखों से नींद ग़ायब है
पत्नी कहती हैं
बच्चों से सोने के पहले बात हुई थी
सब ठीक है एहतितात कर रहे हैं
कोई बाहर नहीं जाएगा
ऑफिस का काम घर से होगा
आप भी अब सो जाइए
मेरी नींद छुट्टी पर है
नहीं- नहीं मेरी नींद बहुत डरी हुई है
और आंखें जाग रही हैं नौकरी पर हैं
आकर टीवी के कमरे में बैठ जाता हूं
टीवी पर एक भयावह दृश्य है
इक्कीस दिन के लॉक डाउन में
आनंदविहार बस अड्डे पर यूपी बिहार
झारखंड अपने गांव जाने वाले
दिहाड़ी मज़दूरों की
बीस-पच्चीस हज़ार की भीड़
एक-दूसरे से चिपकी हुई गुंथी हुई
एक के पास भी
छिपा हुआ वायरस हुआ तो तो तो
तो कई प्रदेश श्मशान में बदल जाएंगे
कहां है दिल्ली सरकार कहां है केंद्र
कहां है मज़बूत सरकारों का प्रबंध
ओह कितना कमज़ोर है
और सबसे बड़ी बात जनता ख़ुद
मौत के मुंह में क्यों जाना चाहेगी
ज़रूर कोई बड़ी मजबूरी होगी
चाहे हुआ होगा कुछ उसके साथ
बुरा
टीवी बंद करके बिस्तर पर लौटता हूं
तो दिन में दिल्ली के डिप्टी सीएम का
बयान याद आता है-
हमने स्कूलों में शेल्टर होम बनाए हैं
पूरा इंतजाम है रहने खाने का
लेकिन कोई अपने घर जाना चाहेगा
तो हम ज़बरदस्ती कैसे रोक सकते हैं
और दिल्ली सरकार की बसों से
भीड़ को आनंदविहार ले जाया जाता है
केंद्र कुछ कहता है
राज्य सरकारें कुछ करती हैं
यहां की सरकारों के अहमकों को
दूसरे देश के राजनेताओं के बारे में
पता नहीं कि उनका टेस्ट पाजिटिव आया है
एक देश की राजकुमारी गुजर गयी है
वायरस के साथ की गयी राजनीति
महंगी पड़ेगी राजनेताओं
सब मारे जाओगे मौत किसी को
ऊंची कुर्सी की वजह से छोड़ नहीं देगी
दूसरे देश कोरोना से लड़ने के लिए
कार और दूसरी चीज़ें बनाने वाली
फैक्ट्रियों में तेजी से वेटिंलेटर बना रहे हैं
देशवासियों के लिए सांसें बना रहे हैं
उनके जीवन को बचाने के लिए
पूरी ताक़त झोंक दे रहे हैं
अस्पताल बना रहे हैं
जांच किट बना रहे हैं
दवा बना रहे हैं
अपने देश की बेटी
वायरोलॉजिस्ट मीनल
अपने बच्चे को जन्म देने के
कुछ घंटे पहले तक अथक काम करके
देश के तमाम बच्चों और उनके
माता-पिता के लिए
कोविड-19 का जांच किट बनाती है
देश के लाखों डाक्टर नर्स
और स्वास्थ्यकर्मी भाई-बहन
जान की बाजी लगाकर लड़ रहे हैं
और हमारे कुछ नेता
ओछी राजनीति कर रहे हैं
टीवी पर सरकारी विज्ञापन में
एक सीएम निर्लज्जतापूर्वक
अपना प्रचार करते हुए
मसीहा बनने की क्या खूब नौटंकी
कर रहा है
बहुत मुश्किल वक़्त है
देश पर एक लंबी काली रात तारी है
हम मौत की जिस काली लंबी रात से
गुजर रहे हैं क्या गुजर पाएंगे
क्या सुकून की सुबह ला पाएंगे
सुबह के बारे में सोचता हूं
डर जाता हूं
मेरी आंखों की नींद
चुरा ले गयी है पृथ्वी पर पसरी हुई
मृत्युभय की अपूर्व काली छाया
लंबी रात की देह में प्रवेश कर चुकी है
और मेरी नींद को कुतर-कुतर खा रही है
मेरे कानों में उसके दांतों के चलने की
बहुत तेज़ आवाज़ आ रही है
कोई भारी चक्की चल रही है
जिसमें मेरी नींद पिस रही है
मेरा चैन पिस रहा है हम पिस रहे हैं
और पृथ्वी पर महामृत्यु हंस रही है
अट्टहास कर रही है।
(कोरोना पर पहली लंबी कविता ’पृथ्वी पर काली छाया’ के बाद, कोरोना पर दूसरी लंबी कविता है ’ लंबी रात’।)
-गणेश पाण्डेय
पृथ्वी पर
एक विशाल काली छाया
उतर आयी है पास और पास
बरगद पर पीपल पर
मंदिर पर मस्जिद पर चर्च पर
ऊंची-ऊंची
बहुमंजिली इमारतों से लेकर
फुटपाथ की गुमटियों पर
झोपड़ियों पर
वायुयान पर साइकिल पर
मिसाइल पर फाउंटेन पेन पर
माल पर सब्जी की दुकान पर
नाई के सैलून पर आटाचक्की पर
अमरीका पर
इटली पर स्पेन पर जर्मनी पर
ईरान पर पाकिस्तान पर
दिल्ली पर कोलकाता पर
मुंबई पर श्रीनगर पर
राजस्थान पर मध्यप्रदेश पर
उत्तर प्रदेश पर बिहार पर
नेपाल पर बांग्लादेश पर
चीन पर जापान पर
देश पर विदेश पर
धरती पर आकाश पर
काली से भी काली छाया
महा से भी महा काली छाया
बूढ़े अधेड़ जवान बच्चे
स्त्री पुरुष किन्नर सब पर
छायी है यह अनाहूत
अप्रिय अवांछित
छाया
कोई जादू है इसके पास
सबको फांस लिया अपने पाश में
काला जादू है किसी जादूगर का
जादूगर अदृश्य है छाया दृश्य है
अनुभवजन्य है
कोई जानकार
माथे का ताप देखकर बता सकता है
छाया अमुक शरीर के भीतर है
उतर रही है छाया उसके गले से
उसके फेफड़े में शनैः शनैः
हवाईअड्डे पर रेल्वे स्टेशन पर
बस अड्डे पर गायिका के बड्डे पर
अस्पताल की सफेद चादर पर
मिट्टी के फर्श पर संगमरमर पर
छाया का साम्राज्य है
यह छाया जितनी प्रकट है
उतना राज़ है काला जादू है
कोई कहता है
शी जिनपिंग का कालाजादू है
वुहान से निकलती है यह प्रेतछाया
पूरी दुनिया पर छा जाती है
बीजिंग शंघाई को छोड़ देती है
आख़रि शी उसका कौन है
शी कहता है यह कालाजादू
डोनाल्ड ट्रंप का है
पूरी दुनिया हलकान है
इन दोनों की शरारतों से
दुनिया बंद है
किसी शहर और मुहल्ले की तरह
एक छोटी-गुमटी की तरह
माचिस की डिबिया की तरह बंद
एक विश्वव्यापी कर्फ़्यू है इमरजेंसी है
भय की एक पूरी दुनिया है
पता नहीं यह काली छाया
कहां-कहां अपने विशाल पग धरेगी
कहां-कहां कोमल उंगलिया फिराएगी
महासुंदरी के घने लंबे केशों में
उसके रक्ताभ कपोलों पर अधरों पर
किस सुंदरी के प्राणप्रिय पतिदेव को
सहसा कहीं से खींचकर
अपने तम के पाश में सुला लेगी
अपने अरूप रूप से बेसुधकर
किसी सुगंध की तरह उसके सांसों में
बस जाएगी
किसी पिता को
राशन चाहे सब्जी की दुकान पर
पकड़ लेगी कोई भी रूपधर
चाहे बालरूप धरकर
चलती चली आएगी उंगली पकड़कर
किसी के घर
किसी के भाई की मोटरसाइकिल पर
बैठकर चाहे उसकी कलाई पर
राखी की तरह चिपक कर
बेटी हो या बहन पत्नी हो या मां
कोई उसे अपनी आंखों से
देख नहीं पाएगी मति मारी जाएगी
निश्चिंत हो जाएगी
उसे पता ही नहीं चलेगा
कि थैले के ऊपर गोभी पर मूली पर
मिठाई के डिब्बे पर बर्फी पर बैठकर
कौन आ गया है उसके घर
किसी को मालूम नहीं
किसी समारोह में किसी भीड़ में
किसी जुटान में किसी के संग
कब किसकी देह से कूदकर
बैठ जाएगी किस पर
आधा दृश्य और आधा अदृश्य
इस काली छाया को कभी
चश्मा लगाकर भी
कोई देख नहीं पाएगा
कभी नंगी आंखों से आप से आप
कोई छाया आसपास दिख जाएगी
चलती-फिरती नाचती
कानों के पास भनभनाती
एक बुजुर्ग के कानों में
काली छाया की यह गूंज बढ़ते-बढ़ते
पृथ्वी के महासन्नाटे को चीरती हुई
विस्फोट में बदल जाती है
पूरे ब्रह्माण्ड में यह आवाज़
बादलों
और बिजली की गड़गड़ाहट की तरह
गरज उठती है- कोरोना कोरोना कोरोना
सूर्य-चंद्र और दूसरे ग्रह-उपग्रह
सब चकित सारे देवी-देवता स्तब्ध
ओह पृथ्वी महासंकट में है
किसी के पास नहीं है कोई उपाय
पृथ्वी के किसी धर्म किसी ग्रंथ
किसी के पास नहीं है
विपदा का दूर करने का कोई मंत्र
सारे मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे बंद
बड़े-बड़े धर्माचार्यों के फूले हैं
हाथ-पांव
दिन हो रात हो सब एक जैसा है
टीवी के एक-एक चैनल पर
एक-एक एंकर के लिपे-पुते चेहरे पर
काली छाया की एक मोटी परत है
महिलाओं एंकर की लिपिस्टिक
होती है लाल और दिखती है काली
और काजल पर काली छाया की छाया है
टीवी के सामने बैठे बूढ़े
समाचार नहीं मृत्यु देखते हैं
पृथ्वी पर महामृत्यु का नंगानाच देखते हैं
हर चीज में
चील की तरह मंडराती काली छाया देखते है
पूरी दुनिया
एक विशाल शवगृह में बदल गयी है
मृत्यु का एक महाठंडाघर जिसमें
बैठकर यह काली छाया खाएगी
एक-एक शव नोच-नोच कर
दुनिया के किसी दारोगा के पास
इतनी हिम्मत नहीं होगी कि उससे पूछे
यह क्या कर रही है काली बुढ़िया
अभी और कितने शव चाहिए तुझे
कह दो
कह दो कह दो दुनिया से कह दो
कोई नहीं है अब यहां महाशक्ति
सब मिट्टी के खिलौने हैं
पुतले हैं पुतलें सारे एंटीमिसाइल
नहीं है कोई लड़ाकू जहाज और टैंक
जो रोक सके काली छाया की आंधी
बच्चो और युवाओ
इस समय पृथ्वी पर सबसे भयभीत हैं बूढ़े
इसलिए नहीं कि काली छाया को
पके हुए देह बहुत प्रिय है
उन्हें खा जाएगी
उन्हें डर है कि उनके बहाने
उनका घर देख लेगी
उनके बच्चों को देख लेगी
बूढ़े
बहुत से बहुत डरे हुए हैं बच्चो
वे अपने नन्हे-नन्हे पोतों को
उठाकर गोद में नहीं ले रहे हैं
दिल बहुत मचलता है
उनके नन्हें होंठ चूम नहीं पा रहे हैं
इसलिए कि काली छाया उनकी खोज में
तमाम समुद्र तमाम आकाश को छानकर
एक कर रही है
एक दादी है
जरा-सा छींक आ जाए तो इस उम्र में
पूरे घर में पोंछा लगाने लगती है
बच्चों को खुद से दूर भगाने लगती है
काम वाली बाई को हटा दिया है
दूध लेने बाहर नहीं जाती है
अपने बूढ़े को भी बिस्तर पर
दूसरी करवट सोने के लिए कहती है
यह कैसी काली छाया है
अभी खाएगी कितने घर
कब जाएगी अपने देश अपने घर
कहां है इसका घर
क्या वुहान है इसका घर
जहां भी हो इसका घर
जाए अपने घर
दादी कहती है चाहे अपने
शी जिनपिंग के सिर पर
चाहे किसी समुद्र में फाट पड़े
टीवी तो नहीं फटती है
लेकिन टीवी के सामने बैठे बुजुर्गों का
रोज़-रोज़ कलेजा फट रहा है
जो बच्चे घर पर हैं उनके लिए भी
जो बाहर हैं उनके लिए तो और भी
बड़ी बिटिया किस हाल में होगी
छोटी कैसे होगी
सबकी बेटियां और बेटे कैसे होंगे
देश बंद है
जहाज बंद है रेल बंद है
आना-जाना सब बंद है फिर भी
कुछ मज़दूर हैं मजबूर हैं
जिनके पास कोई ठिकाना नहीं
चल पड़े सब पैदल अपने घर
अपने गांव
शायद गांव की गोद बचा ले उन्हें
इस काली छाया से
सरकारें जाग रही हैं
खजाने की तोप का मुंह पूरा खोलकर
खाकी वर्दी
और सफेदपोशाक की फौज बनाकर
सड़कों और अस्पतालों में
काली छाया से
सफेद तरीके से रोज लड़ रही हैं
ये तो काली छाया है छद्मयुद्ध कर रही है
छिप-छिपकर पीछे से
किसी का भी कालर पकड़कर खीच ले रही है
दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही है
धोखा देकर किसी भी देश में किसी भी राज्य में
किसी भी घर में घुस जा रही है
एक
पैंतालीस और चालीस साल का
बेहद ख़ूबसूरत जोड़ा
काली छाया की गिरफ्त में
नाउम्मीद होकर
सबके सामने
पृथ्वी का श्रेष्ठ चुंबन ले रहा है
अपने जीवन को चूम रहा है
अपने प्रेम को चूम रहा है
पृथ्वी को चूम रहा है
एक
साठ साल का बुज़ुर्ग
काली छाया की मृत्युकारा से
पांच मिनट का पेरोल लेकर
अपने घर के गेट के सामने
कांच की दीवार के उस पार
अपने भरे-पूरे परिवार को
निहार रहा है
छाया का
न कोई धर्म है न ईमान
अभी-अभी इस क्रूर छाया ने
एक अड़तीस साल के युवा को
खींचकर अपना आहार बना लिया है
जिसकी बीवी रात के भोजन पर
उसकी प्रतीक्षा कर रही है
और उसकी नन्ही बच्ची
इंतजार करते-करते सो गयी है
जबकि छाया को ऐसा नहीं करना था
उस युवा के बुजुर्ग पिता कभी भी
छाया का भोजन बनने के लिए
प्रस्तुत थे
एक स्त्री
अपनी चूड़िया तोड़ रही है
अपना सिर दीवार पर मार रही है
अटूट विलाप कर रही है
पर्वत रो रहे हैं नदियां आंसू बहा रही हैं
फूले हुए सुर्ख़ गुलमोहर
और पीले अमलतास रो रहे हैं
गुलाब असमय अपनी टहनियों से
मुरझाकर गिर रहे हैं
प्रकृति रो रही है
काली छाया हंस रही है
डायनासोर की तरह पृथ्वी को
रौंद रही है
दर्प में चूर निर्वस्त्र हो रही है
वीभत्स हो रही है
कई राजाओं महाराजाओं
और राष्ट्रध्यक्षों के सिर पर पैर रखकर
अहंकार में नाच रही है
यह विहसना ठीक नहीं है छाया
पृथ्वी से यह क्रूरता ठीक नहीं है छाया
मनुष्य से यह शत्रुता ठीक नहीं है छाया
यह एक ऐसा युद्ध है
सभी देशों की सरकारें एक साथ जाग रही हैं
और इस काली छाया के नाश के लिए
सारा विश्व एक है
घर-घर में
जितना भय है उससे ज़्यादा रोष है
दुनियाभर की असंख्य मांएं विकल हैं
दुनियाभर के असंख्य पिताओं के सीने में आग है
दुनियाभर के असंख्य बेटे
कुछ सोच रहे होंगे कुछ कर रहे होंगे
यह काली छाया आज है कल नहीं रहेगी
नहीं रहेगी नहीं रहेगी नहीं रहेगी
पृथ्वी रहेगी पृथ्वी मां है सबकी
इसी धरती के असंख्य लाल जुटे होंगे
अपनी मां को बचाने के काम में जी-जान से
कोई दौड़कर बांस काट रहा होगा
कोई बंदूक में गोली भर रहा होगा
कोई म्यान से तलवार निकाल रहा होगा
कोई काली छाया का झोंटा पकड़ने के लिए
अपनी भुजाओं को तैयार कर रहा होगा
कोई काली छाया को वश में करने के लिए
किसी प्रयोगशाला में कोई प्रयोग कर रहा होगा।
- गणेश पाण्डेय
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चांदी की थाली में झिलमिल मुखड़ा
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थोड़े से
कुछ युवा दिन मिल जाएं
तो हो जाना चाहूंगा बिल्कुल
तुममय स्नेहसिक्त अद्वितीय अनुरक्त
क्या
हो पाऊंगा
तुम-सा कोमल
स्पंदित तरल मधुमय शीतल
सांगीतिक विद्यापति का गान
कहां से लाऊंगा
दीर्घग्रीवा और उसके चहुंओर
काले से भी काले घुंघराले ख़ूब घने
लंबे से भी लंबे स्निग्ध सुवासित केश
छाप पाऊंगा जैसे तुम
आकाश को संध्या की तरह नित
छाप लेती हो कोई राग गाती हो
ब्रह्मांड में
उन्मीलित विस्फारित
पलकों वाली चितवन को केश से
चाहे मृदुल हथेलियों से ढांप पाऊंगा
क्या फिर से
नदी के जल में तैरती
चांदी की थाली में झिलमिल मुखड़ा
गुजरती हुई रेल से देख पाऊंगा
रेल की खिड़की से
रेल की छुक-छुक से भी मीठी आवाज में
तुम्हें पुकार पाऊंगा उसी पुराने पुल से
तुम्हे संबोधित करके
तुम्हारे अधरों पर एक उंगली रखकर
तुम्हारे दोनों कर्णफूल आंखों से छूकर
फिर से
प्रेम कविता लिखना चाहूं तो
चाहकर भी क्या लिख पाऊंगा
तुम्हें पूरा का पूरा नख से शिख तक
तुम्हारी आत्मा से फूटता
भाषा का कलकल करता वह झरना
कहां से लाऊंगा पता नहीं समय का
कितना पानी बह गया होगा
इन खुरदुरी उंगलियों से
असंख्य बेवाई फटे पैरों से दौड़कर
तुम्हारे धवल मसृण द्युतिमान तीव्रगति
शशक जैसे शब्द पकड़ कैसे पाऊंगा
फिर छूट जाऊंगा
तुम्हारे आंचल की छोर से
खुल जाएगी प्रीत की गांठ उसी तरह
जीवन की इस सांझ में
गोधूलि से धुंधले हृदय के आकाश में
आए बिना चली जाओ चली जाओ
मेरे युवा दिनों की तुम।
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आलोचक का कर्तव्य 1
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आलोचक को
पहले अपनी आंख धुलना चाहिए
आलोचक को
फिर अपना चश्मा साफ करना चाहिए
तब रचना को सतह के ऊपर कम
और नीचे से ज्यादा देखना चाहिए
फिर लेखक को उलट-पलट कर
आगे से और पीछे से देखना चाहिए
जुगाड़ी लेखक की किताब हो तो
ठीक से चीर-फाड़ कर देखना चाहिए
कुत्ते की तरह पूंछ हिला-हिला कर
आलोचना कभी नहीं करना चाहिए
आज भी कुछ लोग हैं जिनकी तरह
निडर आलोचना लिखना चाहिए।
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आलोचक का कर्तव्य 2
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चापलूस कवियों को
कान के पास नहीं आने देना चाहिए
और सिर पर चंपी करके हरगिज
खुश करने का मौका नहीं देना चाहिए
साष्टांग दण्डवत वाले कवियों को
चरणरज से काफी दूर रखना चाहिए
देखते रहना चाहिए लेकर जाने न पाएं
कहीं पैर ही उठाकर लेकर न चले जाएं
आलोचक को अपने समय के प्रसिद्ध
कवियों के रथ के आगे-पीछे नहीं चलना
चाहिए चंवर नहीं डुलाना चाहिए
जयकार नहीं करना चाहिए
रथ को गुजर जाने देना चाहिए
धूल बैठ जाने देना चाहिए
फिर उनकी कृतियों को
ईमान की रोशनी में
पढ़ना चाहिए
आलोचक को
कवि की नौकरी नहीं
अपना काम करना चाहिए
अपने लिखे पर अपने अंगूठे का
निशान लगाना चाहिए
आलोचक को
नचनिया कवियों की भीड़ में
खुद नचनिया आलोचक नहीं होना चाहिए
आलोचना को अपने साहित्य समय का
मनोरंजन नहीं संग्राम समझना चाहिए।
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आलोचक का कर्तव्य 3
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आलोचक को
मठों का कुत्ता नहीं बनना चाहिए
साहित्य के भ्रष्ट किले और गढ़
तोड़ना चाहिए
आलोचक को
साहित्य को पुरस्कार के वायरस से
बचाना चाहिए दूर करना चाहिए
लिखने से पहले बीस सेकेंड
साबुन से हाथ जरूर धुलना चाहिए
आलोचक को
फरमाइश पर कुछ भी
लिखने से बचना चाहिए
लिखे बिना जिंदा न रह पाओ
तो अपनी बेचैनी कहो
आलोचकों के लिए
सबसे जरूरी बात यह है
कि हिंदी के बागी लेखकों के साथ
कुछ दिन रहो लेखक किसे कहते हैं
देखो फिर आलोचना लिखो।
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मनुष्य
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ये राजपाट
धरा का धरा रह जाएगा
सारा विज्ञान और विचार
किसी काम नहीं आएगा
दुनियाभर के धर्माचार्यों
दार्शनिकों और लेखकों से
कुछ नहीं हो पाएगा
जब मनुष्य के भीतर का
मनुष्य ही मर जाएगा।
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पिद्दी लेखकों का मेला
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अपने वक़्त के
हिंदी के सभी लेखकों की जाति
उलट-पलट कर देख चुका हूं
बहुत थोड़े से लेखक हैं
गिने-चुने हैं जिन्हें गिनता हूं
जिनकी इज़्ज़त करता हूं
बाक़ी सब के सब
नाम-इनाम के नाबदान में
बहने वाले हिंदी के कीड़े-मकोड़े हैं
लेखिकाओं के बारे में
कोई सख़्त टिप्पणी नहीं करूंगा
कम अच्छी हों तो भी बहन मानूंगा
भाई होने के नाते जरूर कहूंगा
ख़ुद को ठीक करना कुतर्क मत करना
साहित्य को सिंगार-पटार मत समझना
आज हिंदी में
पिद्दी लेखकों का मेला है जिसे देखो
अमर होने का खिलौना ख़रीद रहा है
अबे कुछ करके जाना चाहता है
तो बूढ़ी दादी हिंदी के लिए लोहे का
चिमटा ख़रीद
आख़रि मैं भी तो एक दिन
हिंदी के कार्यकर्ता के रूप में जाऊंगा
देखो मुझमें रत्तीभर यशेषणा है कहीं।
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हाथी और बच्चा 1
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बच्चा
बड़ी मेहनत से
हाथी पर बैठा था
उसे हाथी से
बल और छलपूर्वक
उतार दिया गया
बच्चा
रूठकर
गधे पर बैठ गया
तो बच्चा
फासिस्ट हो गया
और हाथी से उतारने वाले
घुटे-घुटाए दो बूढ़े पक्के
मार्क्सवादी हो गये!
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हाथी और बच्चा 2
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हाथी से
उतार दिए गये बच्चे को
क्या करना चाहिए था
हाथी के पैर के नीचे
लेट जाना चाहिए था
हाथी के पीछे-पीछे
जीवनभर
ताली बजाना चाहिए था
या बुड्ढों को मरते दम तक
राजनीति में ऐयाशी
करने देना चाहिए था
या गधे पर बैठकर
जनता के पास जाना चाहिए था
राजनीति के गधों का अहंकार
तोड़ना चाहिए था
या हाथी से
उतार दिए गये बच्चे को
फासिस्ट कहने वालों को
हिंदी का गधा कहना चाहिए था।
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हाथी और बच्चा 3
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हाथी से उतारे गये
बच्चे को मत कोसो
अक्ल है तो महल को
कुतर-कुतर कर
जर्जर बनाने वाले
पचहत्तर के
चूहों को देखो
महल को बचाना है
तो मदहोश रानी को
युवराज और राजकुमारी के
कारनामों को देखो
अपने हाथ से अपना महल
ढहाने वालों को देखो
भाग्यशाली हो
क्रांतिकारियो अपनी आंख से
व्यावहारिक राजनीति में
अपना पक्ष ढहते हुए देख रहे हो
और कुछ नहीं कर पा रहे हो
राजघराना मदहोश है
और तुम उस पर फिदा हो
काश पहले गाली-गलौज
और चिल्लाना छोड़कर
अपने राजनीतिक मोर्चे को
मजबूत कर पाते।
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हाथी और बच्चा 4
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हाथी से
उतार दिया गया बच्चा
राजनीति का ज्योतिरादित्य है
हिंदी का कोई लेखक नहीं
हिंदी के
असंख्य ज्योतिरादित्य
नित आलोचकों संपादकों
अकादमियों के अध्यक्षों
पुरस्कारप्रदाताओं मठाधीशों
और विभागाध्यक्षों का
पृष्ठप्रक्षालन करते-करते
हाथी के पीछे-पीछे ताली बजाते
हो-हो करते नाचते-गाते
अंत में दांत चियारकर
मर जाते हैं
राजनीति की दुनिया में
जोखिम है संघर्ष है साहस है
साहित्य की दुनिया में दिल्ली से
गोरखपुर तक सब लिबलिब है
हां हां लिबलिब है लिबलिब है।
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हाथी और बच्चा 5
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मैं भी कभी
साहित्य में बच्चा था
मुझे भी इसी गोरखपुर में
कान पकड़कर हाथी से
उतार दिया गया था
फिर भी उतार दिया जाना
मेरे लिए रत्तीभर बुरा नहीं था
रंज का सवाल ही नहीं पैदा होता था
बुरा तो तब लगा गुस्सा तो तब आया
जब मेरी जगह मेरे सामने ही
हिंदी की हाथी पर
हिंदी के सचमुच के गधों को
बैठा दिया गया था
मैंने कुछ नहीं कहा
कहा भी तो खुद से सिर्फ इतना
कि छोड़ो गधों की पार्टी को
और आगे बढ़ो
अपने वक्त के
किसी ऊंट की तरफ नहीं देखा
किसी घोड़े की तरफ नहीं देखा
हिंदी के किसी गधे की तरफ देखने का
कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था
हिंदी के किसी चूहे से भी नहीं कहा
कि मेरा तो नाम ही गणेश है मुझे
अपनी पीठ पर बैठा लो
खुद पर भरोसा किया
अपनी भुजाओं पर भरोसा किया
अपने पैरों पर भरोसा किया
और चल पड़ा हिंदी के बीहड़ में
चलता रहा चलता रहा
तमाम साल चलता रहा
पैदल
इतना आगे निकल आया हूं
कि पीछे मुड़कर देखने पर
न किसी का हाथी दिखता है
न हाथी पर बैठा हुआ
कोई शख्स दिखता है।
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दोस्त 1
---------
वह
मेरा दोस्त है
और मेरे दुश्मन का
ज़रख़रीद ग़ुलाम है
ओह
मेरे ईश्वर
इस जीवन में मुझे
क्या-क्या देखना पड़ेगा।
---------
दोस्त 2
---------
मेरा
एक दोस्त
कामयाब दलाल है
उसके पास काफी सम्पत्ति है
फिर भी
वह मेरी ज़मीन को
गिद्ध की तरह नोच-नोच कर
खा जाना चाहता है।
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दोस्त 3
--------
मेरे
कुछ दोस्त कवि हैं
कुछ कथाकार हैं कुछ आलोचक
शुरू में
सब साथ थे प्यार करते थे
आना-जाना मिलना-जुलना था
जैसे ही मैं एक साथ
तीनों हुआ मुझमें सींग निकल आए
और वे सींग से दूर रहने लगे हैं।
---------
दोस्त 4
---------
मेरे
कुछ दोस्त
बहुत से बहुत भोले हैं
कोई भी कुछ भी
उनके कान में कहभर दे
वे कान में कही गयी हर बात को
आंखों देखी समझ लेते हैं
मेरे
ये लोकल दोस्त
लोकल ट्रेन से भी लोकल हैं
बिछी हुई पटरियों पर
दौड़ते रहने के अलावा कुछ और
कर ही नहीं सकते।
---------
दोस्त 5
----------
होली में
आज एक-एक कर
दोस्तों की याद आ रही है
असल में
मेरे जितने भी दोस्त हैं
हैं और नहीं हैं
कह सकते हैं
सबके सब मित्रता की खोल में
डरे हुए लोग हैं
कह सकते हैं
केंचुए हैं लोमड़ी हैं
दोस्त नहीं किसी के जासूस हैं
मेरे दोस्त
तब भी वही थे आज भी वही हैं
तब तरह-तरह के रंग पोत लेते थे
अब उनके सारे रंग उतर चुके हैं।
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झूठ बोलना छोड़ दो
----------------------
न मंचों पर
कविता पढ़ने के लिए
जुगाड़ करो
न कभी इनाम के लिए
नाक रगड़ो न क़ुबूल करो
सब ठीक हो जाएगा
तुम्हारी
दुआ क़ुबूल हो जाएगी
वतन ख़ुशहाल हो जाएगा
तंगनज़री दूर हो जाएगी
बस
तुम सुधर जाओ
आदमी बन जाओ
गैंग-फैंग से
फ़ौरन से पेश्तर
नौ दो ग्यारह हो जाओ
झूठ बोलना छोड़ दो तो
ये नेता-फेता चुटकियों में
सुधर जाएंगे।
----------------------------
गलत कबीर थे कि तुम हो
----------------------------
पूरब और पश्चिम
चाहे उत्तर और दक्षिण
दंगे में दोनों तरफ से पत्थर
क्यों चलते हैं
आखिर
एक तरफ से पत्थर
और दूसरी तरफ से लाल गुलाब
क्यों नहीं चलते
हद है
खून के प्यासे दोनों तरफ हैं
बस शुरू होने की देर है
एक शुरू होगा तो दूसरा
आप से आप शुरू हो जाएगा
जहर
तो दोनों तरफ के दिमागों में
कूट-कूटकर भरा गया है
तुम्हीं बताओ कबीर गलत थे
कि तुम गलत हो।
---------
शिक्षक
---------
एक कक्षा में
अगर दो गुट हों
तो दोनों बदमाशी करते हैं
एक शिक्षक
दोनों पर नजर रखता है
सब पर नजर रखता है
वक्त आने पर
दोनों को मुर्गा बनाता है
कभी अलग-अलग
कभी साथ-साथ
कबीर की तरह
दोनों की पीठ पर
ईंट पर ईंट भी रखता है
आज
एक लेखक को भी
यही सब करना होता है
लेकिन वह कर नहीं पाता है
बेचारा
कभी पार्टी की
तो कभी लेखकसंघ की
ईंट ढोता है।
-------
दंगाई
-------
दंगाई
आमतौर पर
आदमी नहीं होता है
किसी गैंग का आदमी होता है
किसी पार्टी का कारकुन होता है
उसकी पीठ पर किसी का हाथ होता है
सात चूहे खाकर
एक से एक पार्टियां
बिल्ली की तरह छुपी होती हैं
पर्दे की आड़ में
वहीं से मुहैया कराती हैं
गंदे से गंदे विचार बंदूक पेट्रोल वगैरह
लेखक सब जानते- बूझते हुए
इन्हीं पार्टियों की चाकरी करते हैं
एक को दंगाई कहते हैं दूसरे को
अल्ला मियां की गाय
इस तरह तो
भारत कभी दंगामुक्त नहीं होगा
क्या राजनीति ने दोनों तरफ
दंगाई सांड़ पैदा नहीं किये हैं
तो क्या ये दंगाई आसमान से
फाट पड़े हैं।
------
काश
-------
लेखकों को चाहिए
हाथ जोड़कर सभी पार्टियों से
नत मस्तक होकर विनती करें
हे पार्टियो
अब बस करें
देश को एक जून खाकर
एक चुल्लू पानी पीकर
टूटी-फूटी खाट पर चैन से सोने दें
अपना खेत-खलिहान
मेहनत-मजदूरी करने दें
नंग-धड़ंग बच्चों प्यार करने दें
एक जोड़ी कपड़े में इज्जत से
बिटिया को विदा करने दे
हे पार्टियो
जनता को ईश्वर-अल्ला
हिंदू-मुसलमान के नाम पर
मारकाट में न फंसाएं
देखना
कहीं तुम्हारी सत्ता की भूख
जनता तो जनता
देश को न खा जाए
काश
देश के लिजलिजे लेखक
इतनी-सी सीधी-सादी बात को
समझ पाएं और उठ जाएं।
----------------------
बेचारे थोड़े से लोग
----------------------
ज्यादातर लोग
कट्टर सेकुलर हैं
उनकी आंखें दिनरात
सिर्फ फासिस्ट देखती हैं
ज्यादातर लोग
कट्टर फासिस्ट हैं
उनकी आंखें दिनरात
सिर्फ सेकुलर देखती हैं
बेचारे
थोड़े से लोग हैं क्या करें
उनकी आंखें दिनरात
दोनों को देखती हैं।
-----------
विडम्बना
-----------
इसे
न गाकर हराया जा सकता है
न सड़क बंद कर हराया जा सकता है
न विश्वविद्यालयों और गोष्ठियों में
गालियां देकर हराया जा सकता है
जो भी कुर्सी पर बैठता है
उसकी चमड़ी मोटी हो जाती है
न इसे साबुन धुल सकती हैं
न कलाई पर राखी बांधकर
इसे हराया जा सकता है
बहनो
और बच्चो और बच्चों के चच्चो
इसे सिर्फ चुनाव में हराया जा सकता है
और यह काम बहुत मुश्किल है
जो तुम्हे़ पीछे से
साथ देने की बात करते हैं
और सामने नहीं आते
उन्हें तुम्हारी नहीं अपनी पड़ी है
अपनी कुर्सी की पड़ी है
और उनके पीछे सीबीआई
और दूसरी एजेंसियां पड़ी हैं
सबको कुर्सी चाहिए
सबको प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री बनना है
दस एमपी वाला बीस वाला
जब पीएम बनना चाहेगा तो भला
पचास वाला क्यों नहीं चाहेगा
इस देश में बड़े बदलाव के रास्ते का
असल रोड़ा यही है
तुम्हारा धरना
तुम्हारी आत्मा और ईमान का धरना है
तुम्हारे वक़ार का सत्याग्रह है
इस देश से तुम्हारी मोहब्बत का
अफ़साना है
अपनी मांओं-बहनों से कहने के लिए
उनके पोशीदा आंसुओं को पोछने के लिए
मेरे पास कुछ नहीं है कुछ नहीं
इस वक़्त न मेरे पास कोई रूमाल है
न कोई टूटा-फूटा शब्द
यह कैसी विडम्बना है।
- गणेश पाण्डेय
----------
ओ ईश्वर
----------
ओ ! ईश्वर तुम कहीं हो
और कुछ करते-धरते हो
तो मुझे फिर
मनुष्य मत बनाना
मेरे बिना रुकता हो
दुनिया का सहज प्रवाह
ख़तरे में हो तुम्हारी नौकरी
चाहे गिरती हो सरकार
तो मुझे
हिन्दू मत बनाना
मुसलमान मत बनाना
तुम्हारी गर्दन पर हो
किसी की तलवार
किसी का त्रिशूल
तो बना लेना मुझे
मुसलमान
चाहे हिन्दू
देना हृष्ट-पुष्ट शरीर
त्रिपुंडधारी भव्य ललाट
दमकता हुआ चेहरा
और घुटनों को चूमती हुई
नूरानी दाढ़ी
बस
एक कृपा करना
ओ ईश्वर !
मेरे सिर में
भूसा भर देना, लीद भर देना
मस्जिद भर देना, मंदिर भर देना
गंडे-ताबीज भर देना, कुछ भी भर देना
दिमाग मत भरना
मुझे कबीर मत बनाना
मुझे नजीर मत बनाना
मत बनाना मुझे
आधा हिन्दू
आधा मुसलमान ।
----------------
गाय का जीवन
----------------
वे गुस्से में थे बहुत
कुछ तो पहली बार इतने गुस्से में थे
यह सब
उस गाय के जीवन को लेकर हुआ
जिसे वे खूँटे बाँधकर रखते थे
और थोड़ी-सी हरियाली के एवज में
छीन लिया करते थे जिसके बछड़े का
सारा दूध
और वे जिन्हें नसीब नहीं हुई
कभी कोई गाय, चाटने भर का दूध
वे भी मरने-मारने को तैयार थे
कितना सात्त्विक था उनका क्रोध
कैसी बस्ती थी
कैसे धर्मात्मा थे, जिनके लिए कभी
गाय के जीवन से बड़ा हुआ ही नहीं
मनुष्य के जीवन का प्रश्न ।
----------------------
गुरु सीरीज
----------------------
गुरु-1/
जब मुझे गुरु ने डसा
----------------------
न रोया
न दर्द हुआ, न कोई निशान
न रक्त बहा, न सफेद हुआ
जब मुझे गुरु ने डसा।
इस तरह
मैं पहली परीक्षा पास हुआ।
--------------------------------------
गुरु-2/
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
--------------------------------------
मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ
न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर
सब कुछ सामान्य था मेरे लिए
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
और बनाया किसी खुशामदी को अपना
प्रधान शिष्य।
बस इतना हुआ मुझसे
कि मैं बहुत जोर से हँसा।
-------------------------------
गुरु-3/
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
-------------------------------
चलो अच्छा हुआ
न मुद्रा, न वस्त्र, न अन्न
न अँगूठा, न कलेजा, न गर्दन
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
मैं खुश हुआ।
सहसा लिया मुझसे सभाकक्ष में
मेरे गुरु ने दिया हुआ शब्द।
-------------------------------------
गुरु-4/
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा
-------------------------------------
कोई पत्ता नहीं खड़का
मंद-मंद मुस्काते रहे पवन
आसमान के कारिंदों ने
लंबी छुट्टी पर भेज दिया मेघों को
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा।
अद्भुत यह, कि
पृथ्वी पर भी नहीं आयी कोई खरोंच।
------------------------------
गुरु-5/
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
------------------------------
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।
--------------------------------
गुरु-6/
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान
--------------------------------
सुंदर केश थे गुरु जी के
चौड़ा ललाट, आँखें भारी
लंबी नाक, रक्ताभ अधर
उस पर गज भर की जुबान।
गजब का प्रभामण्डल था
कद-काठी, चाल-ढ़ाल
सब दुरुस्त।
जो छिप कर देखा किसी दिन
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान।
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गुरु - 7/
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं
---------------------------------------------
कैसे हो सकता था
कि जो गुरु के गण थे, नागफनी थे
जड़ थे कितने कार्यकुशल थे।
आगे रहते थे, निकट थे इतने
जैसे स्वर्ण कुण्डल, त्योंरियाँ, हाथ।
क्या खतरा था उन्हें मुझसे
तनिक भी दक्ष नहीं था मैं
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं।
क्यों रोकते थे वे मुझे कुछ कहने से
जरूर हुई होगी कोई असुविधा
इसी तरह वैशम्पायन के गुरुकुल में
याज्ञवल्क्य से।
--------------------
गुरु-8/
खूब मिले गुरु भाई
--------------------
खूब मिले गुरु भाई
सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल
कुछ भी हो जाने के लिए
मेरे विरुद्ध।
बात सिर्फ इतनी-सी थी
कि मैं कवि था भरा हुआ
कि टूट रहा था मुझसे
कोई नियम
कि लिखना चाहता था मैं
नियम के लिए नियम।
----------
गुरु-9/
खीजे गुरु
----------
पहला बाण
जो मारा मुख पर
आंख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।
-----------------
गुरु-10 /
सद्गुरु का पता
------------------
अच्छा लगता था पाठशाला में
कबीर को पढ़ते हुए
अच्छा लगता था जीवन में
कबीर को ढूँढ़ते हुए
अच्छा लगता था सपने में
कबीर से पूछते हुए
सद्गुरु का पता।
-----------------
ऋण है मुझ पर
-----------------
उस खेत का, उस बीज का
उस धूप का, उस पानी का
उस किसान का ऋण है
मुझ पर
उस हवा का, उस जगह का
उस चौखट का, उस छत का
उस दुलार का ऋण है
मुझ पर
उस छड़ी का, उस किताब का
उस पाठशाला का, उस विचार का
उस गुरु का ऋण है
मुझ पर
उस चरण का, उस आशिष का
उस मोतीचूर का, उस हृदय का
उस बुआ का ऋण है
मुझ पर
उस भाई का, उस मित्र का
उस साथ का, उस चाह का
उस अपनत्व का ऋण है
मुझ पर
उस चितवन का, उस स्पर्श का
उस गंध का , उस स्मृति का
उस प्यार का ऋण है
मुझ पर
उस शत्रु का, उस वरिष्ठ का
उस घात का, उस कायर का
उस नाग का ऋण है
मुझ पर
उस आक्रोश का, उस ललकार का
उस साहस का, उस दर्प का
उस रक्त का ऋण है
मुझ पर
उस धारा का, उस यकीन का
उस शक्ति का, उस पृथ्वी का
उस अभिन्न संगिनी का ऋण है
मुझ पर
कोई देखे कितना सुख है
अपने होने की खोज में
कितनी तृप्त है मेरी आत्मा
अपनी इस अतिशय दरिद्रता में।
---------------------------------
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री
---------------------------------
देखो तो कितना सलोना है दस बरस का लड़का
अखबार लहराते हुए हवा से बात करता है किस तरह
हर सुबह करतब दिखाता है लड़का
अपने से अधिक उम्र की साइकिल पर।
देखो तो छूकर कितनी नन्ही-नन्ही हैं उँगलियाँ
हाथ की रेखाएँ पढ़ो, क्या लिखा है
जिनसे बाँटता है संसद में प्रधानमंत्री की घोषणाएँ
और दुनियाभर की खबरें।
देखो तो पुतलियाँ नचाते हुए लड़का
किस तरह देखता देखता है घरों को
सुनो तो कितना सुरीला है लड़के का कंठ
मुर्गे की तरह बाँग देता हुआ-‘पेपर’।
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री,
अखबार बाँटता हुआ दस बरस का लड़का
बहुत अच्छा, बहुत प्यारा
अभी-अभी इधर से निकला है हवा में लहराते हुए
राष्ट्रपति का अभिभाषण।
----------------------
यह देश जो हमारा है
----------------------
कितना दम है मान्यवर
आपकी बूढ़ी हड्डियों में
अभी और आगे ले जाएँगे आप
इस देश को
कितना भरोसा है आप पर
कितना बोझ है आपकी आत्मा पर
माननीय प्रधानमंत्री जी
कितने दृढ़-प्रतिज्ञ हैं आप
आखिरी साँस तक ले जाएँगे अपने संग
इस देश को अभी और कितनी दूर ।
यह देश जो हमारा है
और हमसे दूर होता जा रहा है ।
---------
यह देश
---------
यह देश मेरा भी है
यह देश आपका भी है
एक मत मेरे पास है
एक मत आपके पास भी है
एक अरब आपके पास है
एक सौ मेरे पास है
यह देश आपको प्यारा है
मुझको भी जान से प्यारा है
एक छोटी-सी जिज्ञासा है
मान्यवर, यह देश
कितना आपका है कितना हमारा है ।
-------------------------
एक अफवाह है दिल्ली
-------------------------
कोई तो होगा मेरे जैसा
जो कह सके शपथपूर्वक
चालीस पार किया
गया नहीं दिल्ली
नई कि पुरानी
देखा नहीं कनाट प्लेस
बहादुरशाह जफर मार्ग
चाँदनी चौक, मेहरौली
अलकनंदा, दरियागंज
मुझे अक्सर लगा
एक डर है दिल्ली
किसी शहर का नाम नहीं
जो फूत्कार करता है
लेखकों की जीभ पर
हृदय के किसी अंधकार में
जब-जब बताते रहे एजेंट सगर्व
दिल्ली दरबार के किस्से
लेखकों की जुटान के ब्योरे
कैसे बँटती हैं रेवड़ियाँ
और पुरस्कार
हाय! सुनता रहा किस्सों में
कैसे मचलते हैं नये कवि
किसी उस्ताद की कानी उँगली से
एक डिठौने के लिए
और
नाचते हैं कैसे आज के किस्सागो
किसी दरियाई भालू के आगे
उसकी एक फूँक के लिए
निछावर करने को आतुर
अपना सब कुछ
बेशक होता रहा हाँका
कुल देश में कि खैर नहीं
मार दिये जायेंगे वे
जो जायेंगे नहीं
दिल्ली
मैं हँसता रहा
कि दिल्ली से
दिल्ली के लिए उड़ायी गयी
एक अफवाह है दिल्ली
देखो तो
बचा हुआ है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में साबूत।
-----------------------
ख़ुश है गणेश पाण्डेय
-----------------------
चलो माना
सब कुछ दिल्ली में
गोरखपुर को क्या
कवियों के मीनार
क़ुतुब से बड़े
आलोचकों के फाटक
जैसे इण्डिया गेट
साहित्य
संपादकों के क़िले
लाल-पीले
क़ाबा-काशी
अख़बारों के लेनिनग्राद
सब दिल्ली में
तो क्या
ख़ुश है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में।
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वहां मैं नहीं जा रहा था
------------------------
उस भागती हुई बस में निश्चिंत थे सब
अपने-अपने ठिकाने को लेकर
कुछ स्कूली लड़के थे खेल की मस्ती में डूबे हुए
कुछ किसान थे जो बाजार जा रहे थे ऊँघते हुए
अपने साथ प्याज का गट्ठर लिए
कुछ मारवाड़िनें थीं
बनीं-ठनीं इतनी कि हाय
दुनिया भर की खुशबू लिए
अपने पश्मीने में बंद
जैसे कभी अस्वस्थ हो ही नहीं सकती थीं
थोड़े से बुजुर्गवार थे जो खास रहे थे लगातार
अपने गमछे और कनटोप कसे हुए
मैं था शशि सिंघानिया की याद में दंदाया
और मेरे बाजू में वह थी जो वह नहीं थी।
गांव थे, बाजार थे आते-जाते
धरती थी लगातार नाचती
प्रयाण और पहुंच के बीच
बस के शीशे के बाहर
सरसों के कुछ फूल खिले थे।
वह जो थी
नई नई औरत हुई औरत
उसकी आंखों में था शीत-वसंत
चमकते हुए दांत थे उसके, ताजे सेव से दबे हुए
थिरकती हुई मुस्कान थी बेतहाशा उसके पास
आदिम गंध से लैस थी उसकी देह
नहीं था तो उसके पास कोई कार्डिगन
बड़े जतन से छिपाए हुए थी
फिर भी आंचल के नीचे कुछ
बार-बार
सर्द हवाएं थीं शीशे को चीरती हुई
और साल का पहला हफ्ता था
कंपकंपी छोड़ता हुआ उसके आगे
वह नई औरत मेरे बाजू से सटी हुई
कहीं जा रही थी
जाहिर है कि वहां मैं नहीं जा रहा था।
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दरअसल वे पिछड़े थे
-----------------------
जिनके पास पीने भर का साफ पानी नहीं था
जिनके पास दो जून का मनचाहा अनाज नहीं था
जिनके पास मुर्दे की तरह लेटने भर की जगह नहीं थी
जिनके पास नियम में छेद करने का कोई औजार नहीं था
जिनके पास जीने भर का कुछ भी नहीं था
जिनका कभी किसी संसद में आना जाना नहीं था
जिनके लिए किसी भी तरह का बाजार
एक लंबी और अंतहीन दौड़ का डरावना सपना था
सबसे खराब बात यह कि जिनके पास
कोई खतरनाक शब्द नहीं था
दरअसल वे पिछड़े थे।
वे पिछड़े थे कि उनके प्रतिनिधि तनिक भी नहीं पिछले थे।
-------------
पूरे शरीर से
-------------
कई बार पसीजती हैं हथेलियां
कहना चाहती हैं कि बस
मुझे विदा करो
कई बार दृश्य के विरुद्ध
उद्यत होती हैं
आंखें
कई बार उठते हैं हाथ
कि पूरा चाहिए अपना
राज्य
कई बार
बाजार से लौटकर
सीधे लाम पर जाना चाहते हैं
पैर
कई बार मचलता है मेरा दिल
और पूरे शरीर से होती है
बम होने की इच्छा।
------------------
उठा है मेरा हाथ
------------------
मैं जहां हूं
खड़ा हूं अपनी जगह
उठा है मेरा हाथ
रुको पवन
मेरे हिस्से की हवा कहां है
बताओ सूर्य
किसे दिया है मेरा प्रकाश
कहां हो
वरुण कब से प्यासी है मेरी आत्मा
सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने।
--------------
यह दुनिया 1
--------------
वे किन्हीं ग्रहों और नक्षत्रों से नहीं आए थे
जिनसे रूपाकार हुए, कहीं और से नहीं लाए थे
उन्नत बीज अधिक उपजाऊ धरती
मीठा-मीठा पानी ठंडी-ठंडी हवा
और निरंतर जलने वाली आग
वे बेहद निष्ठावान और कर्मठ लोग थे
जो चलाना चाहते थे इतनी बड़ी दुनिया को
कुछ पूज्य पोथियों से।
और यह दुनिया
एक बहुधंधी दुनिया थी, जो थी
कुछ-कुछ संवेदनशील कुछ काठ की
कुछ-कुछ प्रेम की तो बहुत कुछ मारकाट की।
एक दुनियादार मां थी यह दुनिया जो सबकी थी
झरनों की तो पहाड़ों की, खेतों की तो कारखानों की
कुछ-कुछ कवियों की तो बहुत कुछ ढोंगियों की
कुछ-कुछ बैल की तरह जुते हुए किसानों की
तो कुछ भूखे-नंगे फटे हाल किसानों की
कुछ-कुछ अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत नौजवानों की
तो बहुत कुछ नोट की तरह
दुनिया को अपनी जेब में ठूंसने वाले हत्यारों की।
पोछना चाहती थी सब के आंसू और गुस्सा
यह दुनिया, जो बिल्कुल अकेली थी
असंख्य दुनिया ओं की मां होते हुए
महाविध्वंस, अनंत विस्फोट
और हत्यारों की क्रूरतम अट्टहास के बीच
जो कहते थे
दुनिया का निचोड़ हैं उनकी किताबें
उन्हीं की मुट्ठी में बंद हैं
धरती और मनुष्य और समाज के
सभी ग्रह और नक्षत्र और चक्र।
वे कहना चाहते थे और कहते थे।
और वे भी जो कहते थे
जीवन कोई पदार्थ नहीं है
और भूख की चौहद्दी में
रोटी के अलावा कुछ और भी होता है
थोड़ी-सी चैन की नींद थोड़े से सपने
एक अदद खुली हुई खिड़की, किसी का प्यार
और थोड़ी सी ताजा हवा।
चले गए वे।
और वे भी गए जो चूर थे दर्प से
कांख में दबे हुए ईश्वर महान की पोथी
और जो कहते थे दुनिया की भलाई के लिए
खास उनके पास उतरी हैं पवित्र आसमानी किताबें
और जो बेचैन थे, किसी भी तरह
दुनिया पर लागू करने के लिए
अपने नियम और विश्वास।
वे सब
किन्हीं ग्रहों और नक्षत्रों की ओर नहीं गए
यहीं कहीं किसी घाट की राख में
किसी दरख्त की छाया में
कहीं भी धरती के पेट में
विलीन हुए इस तरह अचानक।
वे
जो कुछ जानते थे
और बहुत कुछ नहीं जानते थे-
सभी पोथियों की मां है यह दुनिया
जो जीना जानती अपने ढंग से
और मरना चाहती है अपनी उम्र
वे नहीं जानते थे।
वे नहीं जानते हैं।
--------------
यह दुनिया 2
--------------
वे कोई देवदूत जैसे थे
कुछ कुछ हुक्काम जैसे थे
तो कुछ-कुछ लुटेरे जैसे
कुछ-कुछ हातिमताई जैसे थे
तो बहुत कुछ आतमतायी जैसे।
वे क्या थे और क्या नहीं थे
वे जो जानते थे उतना ही सच मानते थे
वे जो भी थे
और जहां भी थे
जिस वक्त भी थे
दुनिया के किसी भी कोने से
फरमान जारी कर सकते थे।
वे जानते और मानते थे, बेशक
तमाम मुल्कों की बागडोर संभाल सकती थीं
औरतें
फतह कर सकती थीं सागरमाथा
लिख सकती थीं अच्छी कविताएं
सोच सकती थीं दुनिया के बारे में
खूब
एक अपने बारे में नहीं।
यही ऊपर का हुक्म था
ऐसा ही वे सोचते जानते और मानते थे
वे जानते और मानते थे, अच्छा नहीं होता
औरतों का इस तरह रंगों से मेलजोल।
क्रूर प्रतिबंध और नियम की धार से
वे खुरच देना चाहते थे
औरतों के शरीर से
पहनावे और उनके जीवन से
लाल हरे पीले नारंगी जैसे
चटकीले रंग।
वे थे तो बड़े ताकतवर
बहुत कुछ कर सकते थे
बैठे-बैठे कुछ भी बदल सकते थे
अच्छे खासे आदमी को भेड़
और भेड़ को आदमी कर सकते थे।
बस शरीर के भीतर का रंग नहीं बदल सकते थे
वह, जो बहता चला आया था
शुरू से उन औरतों के शरीर में
उसी तरह लाल चटक।
दरअसल वे
किन्हीं उसूलों के बड़े पाबंद थे
बड़े भोले लोग थे
कुछ-कुछ हिंदुस्तानियों जैसे थे
नहीं-नहीं, पाकिस्तानियों जैसे थे
नहीं-नहीं ईरानियों जैसे थे
नहीं-नहीं तुर्कियों जैसे थे
नहीं नहीं ...
वे थे तो इसी दुनिया के।
-------------
छोड़ो भारत
-------------
क्यों तने हो
आसमान के सामने
इतना
इतराते क्यों हो
झूमते हो किस बात पर
जीभर हवाओं के संग
क्यों लेते हो इतनी अंगड़ाइयां
जुलाई की झमाझम बरसात में
सोचते हुए कि सारा जहां तुम्हारा
ओ गोरे चिट्टे यूकिलिप्टस
किस काम के हो तुम
खूब खाते हो खूब पीते हो
क्या करते हो दूसरों के लिए
ओ खुदगर्ज साहबजादे
जरा अमरूद को देखो
कैसे झपट्टा मारती हैं
ये बड़ी-बड़ी लड़कियां
आम को देखो
कैसे मचल उठते हैं लाल
और इस नीम को देखो
कैसे बतियाते हैं बूढ़े इसके नीचे
दोतों में फंसे सुख-दुख
गुलजार घरों को देखो
चौखट देखो खिडत्रकियां देखो
ये शीशम ये सागौन
ये अपना काला-कलूटा
जामुन देखो
देख सको तो सबसे पहले
छप्पर में खुंसी हुई
लाठी देखो
मैं कहता हूं हट जाओ
हट जाओ मेरे सामने से
ओ गोरे चिट्टे यूकिलिप्टस
छोड़ो भारत
छोड़ो सृजन-संसार।
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अटा पड़ा था दुख का हाट
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देखा वे जल्दी में थे
उन्हें जाना था बाजार खरीदने
थैले थे दोनों हाथों में
दुख की भुजाएं, छाती और नितंब
सब उपलब्ध थे वाजिब दामों पर
अटा पड़ा था दुख का हाट
कोई-कोई सस्ते में बेच रहा था दुख
बिल्कुल मुफ्त
कुछ तो लौट रहे थे हंसी ठट्ठा करते हुए
सिर पर लादे दुख का गट्ठर
कुछ थे
जो मस्ती में थे जीवन पर गीत गाते हुए
मना रहे थे दुख पर्व
दिखी एक सुंदरी मंदस्मित
जिसकी वेणी में गुंथा हुआ था अंतहीन दुख
एक नृत्यांगना दिखी अपनी विद्या में लीन
इसकी गति से फूट रहा था दुख-प्रपात
और जब कार से उतरा तो देखा
एक रूप गर्विता स्त्री ने ढंग से छिपा रखा था
अपनी चितवन में कंटीला दुख
मैं जल्दी में था मित्रो
मुझे बुद्ध पर भाषण के लिए जाना था।
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(प्रथम संग्रह ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’
प्रथम संस्करण 1996/ प्रत्यूष प्रकाशन, गोरखपुर)