मंगलवार, 20 मई 2014

बाबू बोलता प्रसाद राय का निजी काव्यशास्त्र

-गणेश पाण्डेय

कई दिनों से माठा कर दिया है। बोलते है तो बोलते ही रहते है, बिना कुछ विचारे। यह नहीं सोचते कि थूक किस पर रहे हैं, जिस पर थूक रहे हैं, उसके नीचे तो नहीं खड़े हैं कि ऊपर थूकते समय सारा का सारा थूक अपने ही मुंह पर पड़ रहा है। चूंकि हिन्दी में ऐसे थुक्काचार्यों की कमी नहीं है, जो बिना कोई काम किये दूसरे को छोटा बनाने के लिए व्यग्र रहते हैं। हिन्दी के पत्रकार भी कम महाचूतियापा नहीं करते हैं, ऐसे बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों को अपने अखबार की शोभा बनाते रहते हैं, इसलिए ऐसे लोग लेखक की कुर्सी पर बिना टिकट बैठ जाते हैं और बैठे रहते हैं। साहित्यकार बने फिरते हैं। चूंकि यह एक प्रवृत्ति है, इसलिए एक ऐसे ही बोलता प्रसाद राय की अनमोल और अखण्ड, बल्कि वज्रमूखर्तापूर्ण बातों की चर्चा इस कथा में।
      बोलता प्रसाद राय चूंकि धज के मामले में डायनासोर से तनिक ही कम हैं और नासमझी के मामले में मूसक प्रसाद के सगे छोटे भाई, इसलिए उनकी बातों से तनिक भी नाराज न होते हुए हजार व्रत कथाओं की तरह बोलता प्रसाद राय की एक कथा कहता हूं। बोलता प्रसाद राय क्षण-प्रतिक्षण एक स्वप्न देखते रहते हैं कि जब वे हिन्दी के हमारे समय के बाहर और यहां के सभी बड़ों के अंगरखे के भीतर घुसे रहते हैं तो वे गोबर गणेश नाम के इस शहर के लेखक से बड़े क्यों नहीं ? क्या हुआ जो गोबर गणेश के पास चार कविता संग्रह है, एक कहानी की किताब है, दो उपन्यास है, आलोवना की एक किताब है और ढ़ेर सारे पठनीय लेख हैं, गोबर गणेश का कोई गॉडफॉदर तो नहीं है, वह किसी लेखक संगठन इत्यादि में तो नहीं है, साहित्य की सत्ताओं का फेरा तो नहीं लगाता है, फिर कैसे बोलता प्रसाद से बड़ा है ? क्यों बड़ा है? बोलता प्रसाद ने अपने जीवन काल में बाहर और यहां के लेखकों की हजार धोतियों, पाजामों इत्यादि को धुला है और नगर संचालक के रूप में विख्यात हैं, अपने संस्थान के प्रभावशाली लोगों के रत्नों में शुमार है तो गोबर गणेश से श्रेष्ठ क्यों नहीं ? क्यों इस आभासी दुनिया में लोग गोबर गणेश को मान देते हैं, प्यार करते हैं और उसे नहीं पूछते हैं ? उसे गोबर गणेश के गद्य से परेशानी है कि बिना अपने समय के किसी महान या महानों का अंगरखा इत्यादि धुले ऐसा गद्य लिखता है ? उनकी मुश्किल यह है कि उन्होंने हिन्दी आलोचना के बीज शब्दों की कई किताबों को घोलकर पी रखा है और निरंतर उन्हीं शब्दों की उल्टी करता रहते है और लोग हैं कि उन्हें आलोचक नहीं समझते हैं। उन्हें आलोचक अरविंद त्रिपाठी के समकक्ष या उनसे अधिक क्यों नहीं जाना जाता ? दिल्ली के एक वर्तमान महाकवि का स्थानीय प्रधान सेवक होने के बावजूद काव्यालोचक की कुसी उन्हें  क्यों नहीं मिली ? आलोचना का बच्चा पुरस्कार भी क्यों नहीं मिला ? क्यों गोबर गणेश संस्थान के प्रभावशाली आचार्यों के पीछे-पीछे बोलता प्रसाद राय की तरह दुम दुबाकर नहीं चलता है ? इसी तरह के हजार दुख हैं बोलता प्रसाद राय के। यह भी कि बोलता प्रसाद के सामने बाहर के अच्छा लिखने वालों की तारीफ क्यो ंकर देता हूँ ? क्यों कह देता हूँ कि अमुक विषय पर बोलता जी, शिरीष और अशोक जैसे युवा आपसे खराब नहीं बोलेंगे ? आशय यह कि आपसे अच्छा बोलेंगे। पाठक स्वयं जान सकते हैं कि कुंठा और हताशा की मनोदशा में किस तरह के लोग रहते हैं ? सोचिए कि कहीं किसी जगह एक युवा कवयित्री के संग्रह पर मैं दो शब्द कह रहा हूँ, कुछ अच्छा कह रहा हूँ। अलबत्ता इस माध्यम पर आठ-दस दिन अनुपस्थित रहने के बारे में भी थोड़ा-सा सफाई जैसा कुछ और वह भी कोष्ठक में कहकर आगे बढ़ जा रहा हूँ। कवयित्री की कविताएँ रख रहा हूँ। ध्यान दीजिए कि ऐसे ही एक बोलता प्रसाद राय उस पोस्ट पर फाट पड़ते हैं हरहराकर दौड़ते हुए साँड की तरह। न जगह देखते और न अवसर, बहुत अपमानजनक भाषा में शास्त्रार्थ शुरू कर देते हैं। कहते हैं कि पाण्डेय जी टेबल पर मुक्का मार-मारकर बात करने की मनोदशा में न पहुँच जाएँ तो कुछ अर्ज करना चाहता हूँ। शुरू में ही पाण्डेय जी को मनोरोगी कहते हैं, असामान्य कहते हैं। नासमझ और असंयत कहते हैं। सोचिए भला कैसा लगेगा ? अर्ज भी साहब बिल्कुल साँड़ाना अंदाज में करते हैं कि बताइए कि अनगढ़ता कविता की लय में कभी-कभी वेग को तीव्र करके कविता के सौदर्य को बढ़ाती कैसे हैं ? आगे दूसरी टिप्पणी में ज्ञान-मीमांसा की बात करते हैं। उन्हें संदर्भ चाहिए, फुटनोट चाहिए। जैसे मैं उस कवयित्री की किताब पर शुभकामना के शब्द नहीं कोई शोधपत्र लिख रहा हूँ। बहरहाल वह भी बुरा तो था पर ज्यादा बुरा नहीं था, लेकिन सबसे बुरा यह था कि उन्होंने एक पंक्ति में जानने की गरज से यह नहीं पूछा। अपने ज्ञान से साँड की तरह उठाकर पटक देने के लिए कि लो मैं काव्यशास्त्र पढ़ाता हूँ तो मैंने कुछ पढ़ रखा है, लय को जानता हूँ। यह बात कितनी बेवकूफी की है कि कोई अध्यापक यह सोचे कि वह लय जानता है और कवि जो कविता करता है वह उससे कम लय जानता है या उसके सामने घास छीलता है, पानी भरता है। जबकि अहंकार में डूबे बोलता प्रसाद राय जैसे लोग यह नहीं जानते हैं कि लय ही नहीं हिन्दी कविता  और आलोचना की भाषा को वे कवि ऐसे बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों से बेहतर जानते हैं, वे कवि भी जिन्होंने विद्यार्थी के रूप में हिन्दी की विधिवत या संस्थागत शिक्षा नहीं ली है। इतना ही नहीं विज्ञान के विद्यार्थी रह चुके हिन्दी के कई युवा कवि ऐसे बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों से अधिक हिन्दी संवेदना और काव्यशास्त्र जानते हैं। अधिक यहां भूसे के मंडीले के अर्थ में नहीं है। गुणवत्ता के अर्थ में है। हो सकता कि नाम भी पूछा जाए कि बताइए कौन युवा कवि है जिसकी हिन्दी कविता और आलोचना की समझ ऐसे बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों से अच्छी है। उदाहरण माँगने वालों के लिए पहले से एक उदाहरण दे देना चाहिए। दूर का नहीं भाई, यहीं का बिल्कुल पास का। अपने विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातकोत्तर करने वाले युवा कवि नील कमल का नाम लेता हूँ और कहता हूँ कि इस कवि के पास कविता की भाषा की समझ ही नहीं, आलोचना की भाषा की समझ भी बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों से बहुत अच्छी है। नील ही नहीं, और भी है। केशव तिवारी कामर्स के विद्यार्थी रहे हैं, अशोक अर्थशास्त्र के, पर क्या ये कविता की भाषा और आलोचना की भाषा बोलता प्रसाद राय जैसे आचार्यों से कम जानते हैं ? हिन्दी के समकालीन परिसर में ही युवा कवियों में अरुण देव, शिरीष कुमार मौर्य, जितेंद्र श्रीवास्तव, महेश पुनेठा आदि की समझ और भाषा ऐसे आचार्यों से अच्छी है। जबकि ये नाम बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों से कोई दस-पन्द्रह साल छोटे हैं।  उम्र में काफी छोटे और शिष्य, यहीं अपने विभाग के दीपक प्रकाश त्यागी की ही आलोचना की भाषा ऐसे बोलता प्रसाद राय जैसे आचार्यों से कहीं अधिक अच्छी है। समझ भी। संपादक के रूप मेंं कृतियों की अच्छी पहचान है। दुर्भाग्य यह कि साहित्य में झोलाछाप आलोचकों और आलोचना के दलालों का धंधा ऐसे ही बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों की वजह से चल निकला है। कुछ और अच्छा और मूल्यवान लिखने की जरूरत ही क्या है जब स्थानीय पत्रकार कोई लेख देखे बिना ही युवा आलोचक के रूप में नाम छापने लगते हैं और अखबार में नाम देख-देखकर यह भ्रम हो जता है कि मैं तो आलोचक बन गया। अखबारों में नाम और बड़े नामों के सेवक पद का मद सिर पर चढ़कर बोलता है। किताब रटने के अहंकार में डूबे बोलता प्रसाद राय जैसे कुछ लोग तभी उस सुंदर पोस्ट को तहस-नहस करने की साँड़ाना कोशिश करते हैं। असल में ऐसे साँड़ो के पुट्ठे पर मालिकों के नाम खुदे होते हैं। कई-कई नाम खुदे होते है। वे अपने उत्पात से अपने मालिकों के नाम भी रोशन करते हैं। भला बताइए कि उस युवा कवयित्री की पोस्ट में गोबर गणेश की कविता से क्या लेना-देना था। मैंने खुद ही खुद को गोबर गणेश कहा है कि वे क्या कहेगें जो गोबर से भी कमतर हैं। गोबर गणेश दरअसल ‘नरक का कवि हूँ’ कविता में आता है-

जिस नरक का कवि हूं
जिस शहर का कवि हूं
कई लालाओं का खसरा-खतौनी है
तो कई पंडिज्जियों का पोथी-पत्रा
कई बंदों की इबादतगाह है
कई ठगों का हिंदीबाजार है
कई का उर्दूबाजार
लालाजी हां
पंडिज्जी हां
नरक का कवि हूं तो हूं
कुछ भी नहीं हूं तो क्या
गोबर का गणेश हूं तो क्या
हूं तो हूं नरक का कवि हूं
लालाजी नहीं हूं तो क्या
पंडिज्जी नहीं हूं तो क्या
पानीपांड़े हूं तो क्या
हूं तो हूं
खुश तो हूं
नरक का कवि होने पर
यहां से वहां तक सिरपर
दुनियाभर का मैला ढ़ोने पर
लो देख लो लालाजी
हां-हां पंडिज्जी देख लो गौर से
खड़ा तो हूं सामने
थोड़ा-सा मैला निकालकर
चंदन की जगह पोत लो
लालाजी हां
पंडिज्जी हां।
         जानता था कि एक दिन नरक के ये बोलता प्रसाद राय जैसे आचार्य कहेंगे कि गोबर गणेश हूँ। गनीमत यह कि पंडिज्जी और लाला जी ने अपने मुखारविन्द से अभी ऐसा तो नहीं कहा, लेकिन आचार्य बोलता प्रसाद राय ने आखिर ऊचे सुर में अंग-अंग से बोला। बोला कि गोबर गणेश की कृतियाँ मेलाघुमनी टाइप हैं। कहा कि गोबर गणेश साहित्यकार नहीं है। साहित्यकार एक बड़ा मूल्यवाची शब्द है और उसकी मूल आत्मा की दृष्टि से गोबर गणेश साहित्यकार नहीं हैं। इतने पर भी आचार्य चुप नही हुए, कहा कि गोबर गणेश क्या उनके कई पूर्वज लोग भी इसके लिए उपयुक्त नहीं बैठते। मैंने सोचा भाई चलो बोलता प्रसाद राय से ही पूछ लते हैं कि यहाँ के विश्वनाथ जी, रामदेव जी, अनंत जी इत्यादि साहित्यकार हैं या नहीं ? कविता में मेरे यहां के पूर्वज देवेंद्र कुमार साहित्यकार थे या नहीं ? मेरी तो कविता ही है-
कई कवि देखे
कई तरह के कवि देखे
कोई मधुकर था यहाँ
कोई काला था कोई दिलवाला
कोई परमानंद कोई विश्वनाथ।
देवेंद्र कुमार को यहीं देखा
अपनी हीर कविता के लिए राँझा बनते।
यहीं देखा फक्कड़ अनंत को
क्विता राधा को देखते और देखते रह जाते।
यहीं जाना मैंने
क्या होता है कविता के लिए मर मिटना। (1996)
  कहना यह है कि क्या आलोचना के लिए मर-मिटना जरूरी नहीं होता है। आलोचना के लिए मर-मिटने का मतलब पुरानी शब्दावली और लहजे को पीकर वमन करते रहना नहीं है। आखिर छोटे सुकुल आलोचना की टोनहिन क्यों कहते हैं ? आचार्य बोलता प्रसाद राय को तो छोटे सुकुल से भी बहुत ईर्ष्या है। पहले मेलाघुमनी टाइप कृतियों की बात। छूट न जाए। राय साहब ने अपनी दिव्य दृष्टि से मेरी कृतियों को मेला घुमनी टाइप कहा है। जानना चाहता हूँ कि उनके गॉडफादर के गॉडफादर विश्वनाथ जी की कृतियाँ भी फिर तो मेला घुमनी टाइप हुईं या नहीं ? उनकी कृतियाँ महान कैसे हुईं ? विश्वनाथ जी हों या अनंत जी या खुद मैं महान कवि नहीं हैं, लेकिन मेलाघुमनी टाइप भी नहीं हैं। कम से कम अपने बारे में दावे के साथ कहता हूँ कि तीस-पैंतीस वर्ष हुए मैंने इस शहर में एकल काव्यपाठ नहीं किया है। ऐसा इसलिए कि दृश्य पर तमाम मूर्खताएँ होती रहीं हैं। कविता से प्यार करता हूँ। उन जगहो पर रहना पसंद नहीं करता जहाँ आप जैसे लोग कविता का अपमान करते हों। देवेंद्र कुमार बंगाली आज जीवित होते तो जापानी बुखार पर कविता पहले उन्होंने ही लिखा होता, मुझसे भी अच्छा लिखा होता। मैंने उनका छोड़ा हुआ काम किया है। बाबू बोलता प्रसाद राय आपने किसका काम आगे बढ़ाया है ? रामचंद्र तिवारी का या परमानंद श्रीवास्तव का  ? किया क्या है ? कुछ किया भी है या साहित्य में मुहल्ला स्तर की लफंगई की है ? लफंगई भी ऐसी कर पाए हैं कि मैनेजर पाण्डेय ने जैसे छोटे सुकुल के लेख पर आलोचना में कहा कि यह अब तक की हिन्दी आलोचना की सबसे बड़ी लफंगई है, ऐसा कुछ कहें ? जिसके अपनें हाथ होते हैं, वह अच्छा या अच्छाबुरा दोनों कर सकता। जिसके पास अपने हाथ नहीं होते हैं अर्थात अपनी भाषा नहीं होती है, आलोचना के मुहावरे नहीं होते हैं, अपनी शैली नहीं होती है वे आलोचना के नाम पर केवल भूसा छाप प्लास्टिक की आलोचना लिखते हैं। बेजान, बेस्वाद। ऐसे कई नकली आलोचक लोग हैं। असली आलोचना की भाषा पठनीय और सर्जनात्मक तथा आलोचक की छापयुक्त होती है। चाहे रामचंद्र शुक्ल की आलोचना भाषा हो या रामविलास शर्मा या नामवर जी की। सब साफ-साफ लिखते हैं। जलेबी नहीं बनाते हैं। बताइए साहब, मेरी कविताएँ मेलाघुमनी हैं। मेरा रीफ उपन्यास मेला घुमनी है! जिस पर शिरीष ने भावुक होते हुए एसएमएस किया कि ‘‘अधबिच में हूँ पर आने को रोक नहीं पा रहा हूँ।’’ दुख बोलता प्रसाद राय जैसे लोगों पर उतना नहीं जितना विश्वनाथ जी पर है कि आखिर आप के उपरत्नों मे ऐसे लोग क्यों हैं ? क्यों आपके नवरत्न अपने नवरत्नों में ऐसे लोगों को शामिल करते हैं जो स्वाभिमानी लेखकों का अपमान करते हैं ? ऐसे लोग आलोचक क्या आलोचना का द्वारपाल भी नहीं बन सकते जो निष्ठापूर्वक अपना काम करने वाले लेखकों का अपमान करते हैं। साहित्य की मुश्किल यह कि जिनके पास बचपन में करधन में आगे पहनने वाली चाँदी की एक गुल्ली टाइप चीज भी नहीं है वे आलोचना का शेर बनना चाहता हैं। किताबें तो दूर जिनके पास एक ढ़ंग का लेख तक नहीं है, जिसे विश्वनाथ जी ने पढ़ा हो।
     उस सुंदर पोस्ट पर टपक पड़ने वाले महाशय को समझाने के लिए पहली टिप्पणी है- आप मुझसे उम्र में सात साल छोटे हैं पर विद्या की दुनिया में काफी बड़े हैं। बहुत पढ़ा है आपने। एक गणेश पाण्डेय को छोड़कर इस शहर और बाहर के सभी समकालीन लेखकों को पढ़ा है। मैं तो आज की तारीख में यहाँ कुछ भी नहीं हूँ। मैंने कुछ किया ही नहीं है। मुझे छोड़कर आप सब ने सारा काम किया है। यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे आपके समक्ष या आप जैसे आचार्यों के समक्ष अपने को रखने की जरूरत नहीं अनुभव करता। विश्वनाथ जी भी-जिनकी टीम में आप जैसे कई लोग हैं-मुझे यह नहीं कहेंगे कि मैं आप सभी आचार्यों से प्रमाणपत्र लूँ। आप पूछ लें यदि वे कह दे ंतो मैं उसी तरह निवेदन करूँ, जैसा आपने अपने नितांत सर्जनात्मक और मौलिक आलोचनात्मक गद्य में किया है। पहले मैंने भी अनुभव किया कि आपको कुछ न कहूँ और हँसकर टाल जाऊँ, पर यह भी लगा कि ऐसा करना आपके प्रति अनादर होगा, इसलिए एक शब्द कह रहा हूँ। दो शब्द इसलिए नहीं कि आपने पहली बार कुछ कहा है और पूरा दो शब्द कहा है। पूरा का पूरा दो अविस्मरणीय शब्द। आपके दो शब्द के उत्तर में सिर्फ एक शब्द। इसकी भी जरूरत नहीं थी, काम सिर्फ इस एक कविता से चल जाता, जो आपके समक्ष रखने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। हाँ, दूसरी बार भी कुछ कहिएगा तो भी पच्चीस वर्ष के आपके जीवन  को देखने के बाद भी आपका सम्मान करूँगा। तीसरी बार निवेदन जरूर करूँगा। टूटा-फूटा। कविता देखें-पहले संग्रह की कविता है, पर आज भी कुछ कहती है-शीर्षक है- ‘‘वे युवा थे, पटु थे, आलोचक थे’’-
वे कोई हीरामन नहीं थे
जायसी नहीं थे वे कोई
कुछ भी नहीं थे वे
साफ-साफ।
कभी दिखते थे पट्टू जैसे
करते मृदु संभाषण
कभी तो लगते थे चुकंदर जैसे
अति विशिष्ट।
वे जहाँ-जहाँ जाते थे
जिस संगोष्ठी में, जिस समारोह में
अपना पिजड़ा साथ ले जाते थे
एक बाहर, एक भीतर।
असल में, उन्हें दो से कम
कुछ भी नहीं चाहिए था
दो जीवन, दो जबान, दो नाव
दो निष्ठा, दो से अधिक मैना।
वे युवा थे
पटु थे, राघव चेतन के रिश्ते में थे
रहते थे खबरों में शीर्ष पर
और उतने ही सक्रिय।
जबकि उनके पास
कुछ भी नहीं था उनका अपना
यहाँ तक कि उनकी वह कंठस्थ
भाषा भी।
असाधारण यह, कि
इसी शहर ने दिया था उन्हें
प्रज्ञा च्युत मान।
इसी के साथ स्नेह और आशीष का दोना भी। फेंक दीजिएगा तो भी बुरा नहीं मानूँगा। वे माने नहीं। फिर कुछ कहा। फिर कहना ही पड़ा- मैंने ऊपर कहा था कि विश्वनाथ जी से पूछ लीजिए कि आप जैसे आचार्य को कुछ बताने की जरूरत है या नहीं, लेकिन आपने पूछा नहीं। शायद आपको साहित्य में बिना कुछ मूल्यवान किये ही विश्वनाथ जी से बड़ा होने का भ्रम है। ऐसा इसलिए कहा था कि उन्हें इतना तो पता ही होगा कि आपका काम और मेरा काम किस प्रकार का है। वे जरूर कोई एक शब्द आपसे कहेंगे। आप तो खुद ही आत्ममुग्धता के शिकार हैं। साहित्य के अध्यापक हैं और यह नहीं जानते हैं कि आज का आलोचक किन शर्तों पर किसी का नाम लेता है और क्यों नहीं लेता है। इसी शहर के किन-किन लेखकों-अलेखकों ने किन-किन आलोचकों का चरणरज लिया है। आपसे बात करना इसलिए तकलीफदेह है कि आपने पहले खुद बड़े-बड़े आलोचकों और कवियों के साथ रहने के बाद आज की तारीख तक कुछ (अविस्मरणीय) नहीं किया है। यह कहता नहीं, लेकिन सिर्फ उदाहरण देने के लिए उल्लेख कर रहा हूँ। कहने का आशय यह कि साहित्य की दुनिया में अक्सर कई लेखक अपने समय में अपनी शर्तों अर्थात दूसरों का पाजामा-धोती साफ न करने की जिद की वजह से कई बार चर्चा और पुरस्कार की दुनिया से दूर रहते है। आप जैसे लोग यह मान ही नहीं सकते हैं कि आज साहित्य में कहीं कोई महाभ्रष्टाचार है। भला वे क्यों ऐसा मानेंगे, जो बिना टिकट उस रेल में सफर कर रहे ह, जिसमें उन्हें नहीं होना चाहिएं। मेरा कहा हुआ सबके सामने है। अपने बारे में भी मंथन कीजिए कि आपका कहा हुआ किसके सामने है ? विश्वनाथ जी के सामने है या नहीं ? मैंने विश्वनाथ जी और परमानंद जी की भी आलोचना की है, लेकिन तब जब कुछ टूटा-फूटा कर लिया है। आपको खुद के मूल्यवान और क्रांतिकारी लेखन को सामने लाना चाहिए। जरूर आपके पास मौलिकता का कोई अक्षयभंडार होना चाहिए, जिसे दुर्भाग्यवश  अब तक देखा नहीं जा सका है और जो देखा गया है, वह मेरी समझ से साहित्य का भयानक है। साहित्य का आत्मसंघर्ष तो आप जैसे लोगों के पास है, हम लोगों के पास भला क्या है ? कुछ कहना तो नहीं चाहिए, फिर भी कह रहा हूँ कि जो दूसरों की बेईमान चर्चा और तिकड़मी पुरस्कार की वजह से किसी को बड़ा समझते हैं वे लोग साहित्य के कीट-पंतग होते हैं। जो खुद की आँख से साहित्य को देखते हैं वे सच्चे आलोचक होते हैं। दुर्भाग्यवश आपने इसे नहीं समझा है। आपने इसे भी नहीं समझा है कि जब दिल्ली के आलोचना के दरबार में कोई बच्चा पैदा कर दिया जाता था तो यहां के आलोचकों को डिठौना लगा कर दे दिया जाता था और वे दाई की तरह उसका पालन-पोषण करते थे। मैं तो पचास की उम्र के बाद दिल्ली गया। गोरखपुर में किस तरह का जीवन जिया हूँ उसे देखने की आँख आपके पास होती ही तो आप वह नहीं कहते जो कह रहे हैं। आप जिसे आत्मप्रचार कह रहे हैं, उसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मेरा एक लेख ‘आत्ममुग्धता का संसार’ देख सकते हैं। कई लेख हैं, एक तो ‘साहित्यिकमुक्ति का प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो’ ही है। असल में आप खुद अभी साहित्य के पुरस्कारवाद और पीछेचलवाद के प्रभाव क्षेत्र में हैं। कुछ कहना नहीं है, इसलिए कुछ कह नहीं रहा हूँ। सबसे कहा भी तो नहीं जाता है। फिर अगली टिप्पणी में कहना पड़ा-ऊपर काफी कुछ है। मेरी एक सीमा यह है कि आपसे उम्र में थोड़ा बड़ा हूँ, इसलिए अधिक कुछ नहीं। र्प्याप्त है। बस अंत में आपके के ही इस कथन पर आपका ध्यान ले जाना चाहूँगा कि साहित्य पढ़ाने वाला अपने को साहित्यकार समझने लगता है। आप ऐसा समझते हैं कि आप साहित्यकार हैं और मैं नहीं हूँ तो मुझे कुछ नहीं कहना है। क्यों कहूँगा, क्यों कि आप जैसे लोग साहित्यकार होंगे तो जाहिर है कि मेरे जैसे लोग साहित्यकार नहीं होंगे। इस शहर के बारे में आज तक कम नहीं कहा है, कहना कुछ-कुछ आता भी है। पहले कह  चुका हूँ कि सबसे कुछ कहा नहीं जाता है। रहा सवाल आपका तो विनम्रतापूर्वक, बल्कि शीश झुकाकर कहता हूँ आपको अपने बारे में अच्छा कहने के लिए सौ जन्म में योग्य समझना मेरे लिए मुश्किल है, पर हाँ, कम से कम इस जन्म में आपको अपने (मेरे) बारे में बुरा तक कहने के योग्य नहीं समझता। आप चाहें तो इत्मीनान के लिए विश्वनाथ जी से पूछ लें कि आप मुझे बुरा कहने के योग्य हैं। एक मजेदार संदर्भ यह कि उसी पोस्ट पर जब समीर कुमार पाण्डेय ने कुछ कहा तो उसके नाम की स्पेलिंग पर आ गये। साहित्य रट लेने से साहित्य का संस्कार और विवेक नहीं आता। साहित्य जीने से आता है। एक साधारण व्यक्ति भी जानता है कि नाम और नाम की स्पेलिंग माता-पिता रखते या लिखते हैं या स्पेलिंग बनाने-बिगाड़ने का काम स्कूल के पंडिज्जी करते हैं। क्या बोलता प्रसाद राय जैसे लोग जन्म लेते ही अपने नाम की वर्तनी शुद्ध करते हैं। समीर से कहा कि नाम बदलना चाहिए था। भला मैनेजर पाण्डेय से क्यों नहीं कहा कि नाम बदलना चाहिए था, अंग्रेजी में है या हिन्दी में प्रबंधक पाण्डेय करना चाहिए था। हजारी प्रसाद द्विवेदी से भी कुछ कहना चाहिए था। धूमिल, जवरीमल पारख, जितेंद्र कुमार आदि बहुत से लोगों से कहना चाहिए था। बहरहाल यह सब कहता नहीं, यदि बिना किसी दुर्भावना के सीधे-सीधे अनगढ़ता से लय में वेग की तीव्रता को लेकर खुलेमन से कुछ जानने की निर्मल इच्छा व्यक्त की गयी होती। बहुत आसान था उत्तर देना, पर शुरू में ही मेज पर मुक्का मार-मार कर जोर-जोर से बोलने वाले मनोरोगी के रूप में मेरा स्वागत किया गया, मेरी कृतियों को मेला घुमनी कहा गया, साहित्यकर्मी पद से वंचित किया गया, दो दिनों से भाग रहे हैं कहा गया, तो आखिर मैं क्या करता, यह सब न कहता ! क्या समय आ गया है, एक समय में नामवर जी बोलते थे तो जादू छा जाता था, उनकी अपनी भाषा होती थी, सत्यप्रकाश मिश्र बोलते थे या मैनेजर पाण्डेय बोलते हैं तो श्रोता की आँख में आँख डाल कर बोलते हैं, लगता ही नहीं था सामने बोलने की कोई मशीन है, जैसे खुद वाणी ने रूप धर लिया हो, जो बोलने की मशीन बन जाते हैं, उनकी कोई और पहचान नहीं बन पाती है, कोई नाम नहीं हो पाता है, अच्छा-खास आदमी सिर्फ बोलने की मशीन बन जाता है। जाहिर है कि ऐसी मशीनों के ही नाम बोलता प्रसाद राय होते हैं, किसी सचमुच के आदमी के नहीं। अच्छे लेखक की निजी छाप कलम पर ही नहीं, जुबान पर भी होती है। अंत में अनगढ़ता से लय में तीव्रता के बिन्दु का सवाल तो उनके ही सबसे प्रिय कवि केदार जी के सामने धूमिल का नाम लेता हूँ। एक में कविता की कीमियागीरी है तो दूसरे में अनगढ़ता। देखें कि धूमिल की कतिता में कितना वेग (बल) है। अंत में अपनी ही एक अनगढ़ कविता दूसरे संग्रह से ऐसे ही दिनों और इसी शहर के लिए लिखी गयी, तनिक बल इसमें भी है-‘जहाँ’
अच्छा हुआ
कि मैं वहाँ कम जाना गया
जहाँ थोड़े-से आदमी रहते थे
और चूहे बहुत ज्यादा।














रविवार, 18 मई 2014

टेंघती हुई अम्मा क्या चाहती है

-गणेश पाण्डेय

पके हुए आम हैं बाऊ जी
कुछ ठीक नहीं

ज्यों कोई पत्ता खड़केगा
बगिया की चुप्पी तोड़ते हुए
कंपकंपी छूटने लगेगी अम्मा को

अम्मा की धँंसी हुई और पियराई
आंखों में झाँक सको तो देखो
पके हुए मोतियाबिंद को भेदते हुए
घरेलू लड़ाइयों का जुझारू इतिहास

पेड़ की जड़ों में पानी देती हुई
जवानी के दिनों की हँसमुख
और छपेली साड़ियों की शौकीन अम्मा
किस गली में चंपत हो गयी अचानक

यह कौन है टेंघती हुई अम्मा
क्या चाहती है

पूछो-पूछो अपनी जेब से पूछो
अम्मा की गिरवीं पाजेब से पूछो

तिजोरी के आगे बेचारी पाजेब
अपना दुखड़ा सुनाये भी तो
सावजी की मर्जी के खिलाफ
भला कैसे हो सकती हैं तिजोरियां
टस से मस।

(1982)