मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

आपकी सदिच्छा का सम्मान करता हूँ...

-गणेश पाण्डेय

आप मेरे शुभेच्छु हैं। आपकी सदिच्छा का सम्मान करता हूँ। मैं मानता हूँ कि वे नहीं बदलेंगे, या कुछ नहीं बदलेगा और यह भी मानता हूँ कि मैं यह सब कर भी नहीं पाऊँगा। मैं तो साहित्य का बहुत छोटा कार्यकर्ता हूँ। आपने खुद कहा है कि मुझे अपना काम करना चाहिए, मैं सिर्फ अपना काम कर सकता हूँ और वही कर रहा हूँ।
              पृथ्वी पर सबके लिए थोड़ी-सी जगह होती है। राजा के लिए बहुत तो रंक के लिए भी जरा-सी। पृथ्वी पर चोर भी रहते हैं तो साव भी। क्या सब चोर ही रहते हैं ? सब राजा-वजीर ही नहीं होते हैं, कुछ कारिन्दे और कुछ चौकीदार भी होते हैं। आखिर एक चौकीदार का भी तो कोई धर्म होता है या नहीं ? क्यों वह अँधेरी रात में खाली सड़क पर लट्ठ खड़काता है और आवाज लगाता है ? जब उसका काम महान पूँजीपतियों जितना रुपया कमाना नहीं है तो वह लट्ठ ही तो खड़काएगा ? समाज में अमन-चैन और हिफाजत रहे, इसलिए कुछ लोग राजा नहीं बनते हैं, सिपाही बनते हैं, ट्रैफिक वाला बनते हैं, फौज में जाते हैं, कुछ लोग समाज सेवी बनते हैं...आप तो जानते हैं कि मुझमें राजा बनने की इच्छा कभी नहीं थी, जिन्दगी भर सुई की नोंक बराबर थोड़ी-सी जगह यहाँ, हिन्दी की दुनिया में पाने के लिए की। आप ही बताएँ, किस आँख वाले राजा के राज्य में ऐसा होता रहा है कि दरबारी, नौकर-चाकर जैसे लोग स्वाभिमानी प्रजा के सिर पर पैर रखकर चलते थे, उसका तनिक साफ-सुथरा अँगरखा फाड़ देते थे ? आशय यह कि बुनियादी तत्व जीवन में कभी नहीं बदलता है। दरबारी, दरबारी होते हैं और विद्रोही, विद्रोही। क्या स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में यहाँ अंग्रेजों के दलाल नहीं थे ? इसे भी छोड़िए, जिसका जो काम है, वह वही करता है। बाघ का काम गधा नहीं कर सकता और मोर का काम हाथी नहीं कर सकता है। वीर का काम कायर नहीं कर सकता और दीवाने का काम कोई धंधेबाज नहीं कर सकता। 
           मुझे महान काम नहीं करना है। रामचरित मानस नहीं लिखना है। मुझे कविता का विश्वविजय नहीं करना है ? मुझे कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, निराला, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद, रामविलास इत्यादि नहीं बनना है, जिन्हें यह सब बनना है, क्या कर रहे हैं या अब तक किया क्या है ? मुक्तिबोध ने कहा है जीवन क्या जिया ? मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम ? इन कथित महान लोगों के रहते आखिर पूर्वांचल में हिन्दी तो मर ही गयी न ? असल में इन बेईमानों को हिन्दी की चिंता कहाँ थी ? इन्हें तो अपने सरदार को अमर करने की चिंता थी। इनकी समझ पत्थर से आगे कहाँ जाती  ? पत्थर पर लिख गया अमुक पद तो अमर हो गये, यह है इनकी समझ। जिन नासमझों को यह सब करना है, करें। यह मेरा काम नहीं है। जैसे वे मेरा काम नहीं कर सकते हैं, वैसे ही मैं उनका काम या उनकी तरह काम कैसे कर सकता हूँ। मैं यह नासमझी कैसे दिखा सकता हूँ कि फूल-मालाओं से लाद कर कहूँ कि आप अमुक अकादमी के अध्यक्ष हो गये हैं तो आपने जग जीत लिया है, क्या आप खुद यह कह सकते हैं कि अमुक प्रधानमंत्री हो गये तो गांधी, नेहरू, लोहिया इत्यादि हो गये हैं ? जाहिर है कि किसी पद पर पहुँचना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, बौद्धिक या साहित्यिक उपक्रम नहीं। मैंने तो यहाँ के लोगों को अनेक छोटे-मोटे या बड़े-बड़े लोगों के सामने साष्टांग होकर पूजा करते देखा है, देखा तो आपने भी है, भला मैं या जो न चाहे वह यह सब कैसे कर सकता है ? मैं या कोई करेगा वही जो वह चाहेगा। अर्थात करेगा तो अपना काम ही। उनका काम वे करें, अपना मैं करूँगा। 
            मैं जानता हूँ कि मेरे कहने से कुछ नहीं होगा, दुनिया जैसे है, वैसे ही चलेगी। आपके मुहावरे में कहूँ तो सब ऐसे ही चलेगा। आप तो साहित्य के एक कथित बड़े पुरस्कार-व्यास-की चयन समिति इत्यादि में रहे हैं, आप निकट से जानते हैं कि आज ऐसे पुरस्कारों की पात्रता और महत्व क्या रह गया है। मैं साहित्य के इस पक्ष को लेकर आपकी बात से सौफीसदी सहमत हूँ कि साहित्य में सब ऐसे ही चलेगा, लेकिन निवेदन यह कि शुरू में अंग्रेजों को हटाना भी तो असंभव था या नहीं ? बाल-विवाह और बेमेल विवाह और सती प्रथा इत्यादि बुराइयों को दूर करने की कोशिश भी तो आखिर हुई या नहीं ? किसी हद तक कुछ बुराइयाँ, खत्म या कम हुईं। यह भी सच है कि भ्रष्टाचार की बुराई, जातिवाद की बुराई, दहेज की बुराई, स्त्री-हिंसा इत्यादि की समस्या जस की तस है तो क्या इसके खिलाफ आवाज न उठाएँ ?
          छोड़िए यह सब, दुनिया से पूँजीवाद का नाश नहीं होगा, साम्प्रदायिकता खत्म नहीं होगी, धार्मिक कट्टरता ऐसे ही रहेगी तो क्या इन्हें हटाने की कामना भी जिंदा न रहे ? जो लोग बेहतर दुनिया का स्वप्न देख रहे हैं, वे अपनी आँखें साहित्य अकादमी के गुसलखाने में जमा कर दें ? इसे भी छोड़िए, कुछ लोग इस देश को यह जानते हुए भी कि सौ बार भी जन्म लें तो ऐसा नहीं होगा, फिर भी इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं तो कुछ लोग यह जानते हुए कि सिर्फ उनके कहने से धर्मनिरपेक्षता का विचार मूर्त रूप नहीं लेगा, क्यो धर्मनिरपेक्षता की वकालत करते हैं ? वे यह सब पाखंड कर सकते हैं तो क्या मैं साहित्य के घर को तनिक साफ-सुथरा करने की बात नहीं कर सकता ? क्या साहित्य में सुधार की बात सचमुच नासमझी है ? चलिए, साहित्य के घर को भी छोड़िए, खुद को तनिक बचाकर नहीं रख सकता हूँ ?
             आप जानते हैं कि मेरा एक छोटा-सा उपन्यास है- ‘अथ ऊदल कथा’। मैं यहाँ जिंदगी भर तरसता ही रहा कि कोई मेरा आल्हा बने, बना कोई ? मैं आज खुद आल्हा हूँ। मैंने बस युवा अवस्था में ही नाम-इनाम की नन्ही-सी इच्छा को अपनी इन्हीं कलम पकड़ने वाली उँगलियों से मसल दिया और आल्हा बन गया। जो ठीक समझता हूँ, कहता हूँ। अपने छोटे भाइयों को आगाह करता हूँ, उनके आँसू पोंछता हूँ, यही मेरा साहित्य में सबसे बड़ा काम है। जो हो सकता है करता हूँ। अनुमति दे ंतो अपनी एक कमजोर कविता से बात खत्म करना चाहूँगा। कमजोर कविता का जिक्र इसलिए कि मैं रचना को उस तरह नहीं देखता जिस तरह हिन्दी के विद्वान देखते हैं। हिन्दी के विद्वान सिर्फ अच्छी और महान रचना को अच्छी नजर से देखते हैं, मैं एक खराब रचना को भी अच्छी नजर से देखता हूँ। देखता हूँ कि तमाम राख में कहीं कोई चिंगारी है या नहीं ? है तो मेरा ध्यान जाएगा। मेरी इस कविता में कवि जीवन का थोड़ा-सा बारूद है, कला का पहाड़ नहीं-

मैंने अपना काम किया

मैंने अपना काम किया
छोड़ो किसने क्या किसके संग किया

चींटी की गति को देखा सप्रेम
किसी नीम की छाल चूमकर पूछा दर्द
पास दिखा जब कोई सच्चा जैसा
कंधे पर रख दिया हाथ

जहां जरूरत थी बोला टूटा-फूटा
विद्या के मंदिर में झाड़ू नित्य दिया
खुद को रखा साफ बचाकर मुश्किल से
धूल फेंकने वाले थे तमाम
कुछ को तो गरियाया खूब
कुछ को लेकिन माफ किया

जीवन के सर्कस में स्कूटर से गिरा गजब
फिर भी न मरा
पहली बार भिड़ा बकरी से
बिजली के खम्भे फाट पड़ा अगली बार
उसके बाद
सिर दे मारा हिंदी की बिल्डिंग पर 
रहा तनावों में अक्सर
अलबत्ता
खुदपर हंसने का खेल नहीं कर पाया

जाने-अनजाने में 
ऐसे ही कुछ इक्का-दुक्का काम किया

किसने खाया किसका हबर-हबर
किसने फेंका किसपर छिपकर अप्रकाश
धाट किया किस विधि से
जीवन की कविता में किसने फ्रॉड किया
छोड़ो भी
जिसने जो भी किया 
किया उसे यों दूर चुटकी से
देखो जी मैंने अपना काम किया। 

                अंत में यह कि साठ की उम्र में न मैं खुद को बदल पाऊँगा, न वे। वे जो कर सकते हैं करते रहें, मुझसे जो हो पाएगा करता रहूँगा। आप जैसे शुभेच्छुओं से बहुत बल मिलता है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आप मेरा मंगल चाहते हैं, आप चाहते हैं कि कविताएँ निरंतर लिखता रहूँ। कोशिश करूँगा कि आगे कुछ अच्छी कविताएँ जरूर लिखूँ। गद्य को निराला ने जीवन संग्राम की भाषा कहा है, इससे दूर नहीं हो पाऊँगा।
नववर्ष की शुभकामनाओं सहित...
         





शनिवार, 27 दिसंबर 2014

कसौटी पर पक्ष और प्रतिपक्ष

- गणेश पाण्डेय
‘‘भारत रत्नों की आलोचना अच्छी बात है, कीजिए खूब कीजिए, लेकिन उन्हीं वजहों से साहित्य रत्नों की आलोचना न करना बहुत खराब बात है। हद तो यह कि ऐसे ही साहित्य रत्नों की खूब लंबी पूजा की जाती है। यह साहित्य की कैसी प्रगतिशील और जनवादी प्रवृत्ति और जन संस्कृति है भाई?’’ - यह प्रश्न 25 दिसंबर को मेरी वॉल पर एक छोटी-सी जिज्ञासा के रूप में दर्ज है। इस सिलसिले में संयोगवश पुरस्कारों के पक्ष और प्रतिपक्ष को लेकर एक दिलचस्प बातचीत नंद भारद्वाज जी, कर्ण सिंह चौहान जी और मेरे बीच हुई। जाहिर है कि पाठकों के विवेक पर भरोसा है, इसलिए अलग से कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। पाठक स्वयं अपना पक्ष चुन लेंगे या तटस्थ रहकर देखेंगे। एक जरूरी और अर्थपूर्ण संवाद जस का तस यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-
1-नंद भारद्वाज : किसी व्यक्ति के सम्मान की आलोचना करना मैं उचित नहीं समझता, लेकिन चाहे नागरिक सम्मान हो या कला-संस्कृति के क्षेत्र में बेहतर काम करने वाले को पुरस्कार, उसके मूल्यांकन की कसौटी और प्रक्रिया वस्तुपरक, निष्पक्ष और निर्दोष होनी चाहिये। अन्यथा उस सम्मान दिये जाने का कोई महत्व नहीं रह जाता।
2-गणेश पाण्डेय : आपके कथन के इस आशय से पूरी तरह सहमति है कि साहित्य में भी सुधार की बेहद जरूरत है। प्रसंगवश कहना चाहता हूं कि अभी कुछ देर पहले एक मित्र को संदेश के रूप में कहा है कि‘‘ मित्र, सबके सामने आपकी बात काटना उचित नहीं है। इसलिए अलग से इतना ही कि साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कार को पानेवाले ने ही उसे आलू का बोरा कहा था, जानते ही होंगे। दूसरी बात यह कि लेखक का सच्चा आनंद महत्वपूर्ण रचने में हैं, पुरस्कार में आनंद की खोज मजबूत लेखक का काम नहीं है। हो सके तो पुरस्कारों के मायाजाल से मुक्त होने की चेष्टा करे। आप मेरे मित्र हैं, कभी नहीं चाहूंगा कि आप कहीं से भी कमजोर दिखें। सादर...’’ इस संदेश से केवल एक वाक्य निकाल लिया है। नंद जी, आप मेरे अग्रज हैं, विनम्रतापूर्वक साहित्य के पुरस्कारों के संदर्भ में कहना चाहूंगा कि पिछले दिनों उम्र में काफी छोटे लेकिन समझदारी में बहुत आगे दिखने वाले युवा कवि शिरीष ने मेरी वॉल के किसी पोस्ट पर कहा था कि ‘‘पुरस्कार शायद रीतिकालीन अवशेष हैं।’’ मैं शिरीष के वाक्य से ‘शायद’ निकालकर शिरीष की पीठ थपथपाना चाहूंगा और किसी का एक शेर याद आ गया है तो उसे भी जरूर कहना चाहूंगा, अनुमति दीजिए - ‘‘हमारे दौर के बच्चे हो गये गंभीर/बुजुर्ग हैं कि अभी तितलियां पकड़ते हैं।’’ जाहिर है कि यह शेर किसी एक वरिष्ठ पर नहीं है, साढ़े निन्यानवे फीसदी लोग हैं जो पुरस्कारों के मायाजाल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
3- कर्ण सिंह चौहान : नंद भाई, जिसे आप “वस्तुगत”, “निष्पक्ष” और “निर्दोष” कह रहे हैं वह असल में एक विचारधारा या पक्ष के हिसाब से वस्तुगत, निष्पक्ष और निर्दोष है कोई सर्वमान्य, सार्वभौम सत्य नहीं । विचार के अपने आधारों पर कोई संघी अपने निर्णयों को वही सब करार देगा जो आपके मानक हैं । और विचार से बंधे लोग भी ऐसा ही करेंगे ।
    दरअसल जब कोई विचार दृष्टि प्रदान करने की बजाय धारा या वाद बन हम पर राज करने लगता है तो हम उससे जुड़े पूर्वाग्रहों को एकमात्र सत्य मानने लगते हैं और दूसरे को निंदनीय । फिर हम न कुछ देखते हैं, न सुनते हैं, न कहते हैं, बस विचार से बंधे समूह की समझ को दुहराते मात्र हैं । यह खेल हमने लंबे समय तक खेला है ।

4-नंद भारद्वाज : आदरणीय कर्णसिंह जी और गणेश जी, आप दोनों की बात से सिद्धान्त रूप से सहमत होते हुए भी मैं इस बात को नहीं समझ पा रहा हूं कि इस प्रक्रिया में नामित होने वाले लेखक की क्या भूमिका रह जाती है, सिवाय इसके कि वह ऐसी परिस्थिति बने तो अपनी ओर से इन्कार कर दे। (मैं उन लोगों की बात नहीं कर रहा जो सम्मान या पुरस्कार अपने पक्ष में करवाने के लिए जोड़-तोड़ करते हैं), इससे न सार्वजनिक मद से विभिन्न राजकीय या स्वयंसेवी संस्थानों द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कारों की प्रक्रिया बंद होगी और न इस बुराई का ही अंत। सम्मान या पुरस्कार के माध्यम से लेखक और कलाकार को सार्वजनिक जीवन में जो पहचान, प्रचार या आम पाठकों तक पहुंच बनती है, उस पर जरूर असर पड़ेगा। क्योंकि यह किसी एक देश या समाज की बनाई प्रक्रिया नहीं है, दुनिया भर के बड़े लेखकों से भी हमारी वाकफियत तभी बनती है जब किसी बड़े पुरस्कार या सम्मान से वे व्यापक चर्चा में आते हैं, वर्तमान समय में ऐसे लोग अपवाद स्वरूप ही हमारी जानकारी में आ पाते हैं, जो किसी सम्मान या पुरस्कार के माध्यम से नहीं, बल्कि अपने काम के माध्यम से चर्चा का वह स्तर प्राप्त कर पाते हैं। हालांकि उनके चर्चित होने के इतर सकारात्मक या नकारात्मक कारण हो सकते है। मेरी अपनी धारणा यही है कि लेखक को सम्मान पुरस्कार से दूर रहने की सलाह देने की बजाय ऐसे प्रावधानों पर रोक लगाने का प्रयत्न अवश्य किया जाना चाहिये जो इस बुराई की जड़ में हैं। ज्यादा बेहतर है कि साहित्य अकादमी या जो भी संस्थान हैं, उन्हें यह सलाह दी जाए कि वे अपनी यह रुग्ण प्रक्रिया बंद करें और उस सार्वजनिक धन को किसी रचनात्मक कार्य में लगाने के बारे में विचार करें। केवल अपनी जगह बैठकर सदाशय अपेक्षाएं करने से शायद ही इस स्थिति में कोई परिवर्तन संभव हो पाए। यही नहीं, अगर मौजूदा प्रक्रिया में भी जो गलत या अनैतिक हो रहा है, उस पर पूरे तथ्यों के साथ खुलकर लिखें, उन संस्थानों में अपना विरोध दर्ज कराएं और जरूंरत हो तो न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से भी इस तरह की प्रक्रियाओं पर रोक लगाने का प्रयास करें। यह भी जरूरी है कि सम्मान पुरस्कार की यह प्रक्रिया सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में बंद होनी चाहिये, तभी समाज से इस ’बुराई’ का अंत संभव हो शायद।
5-गणेश पाण्डेय : नंद भारद्वाज जी, देखें - नोट : पुरस्कार के सच से मुँह न चुराएँ, विरोध करें 
6-नंद भारद्वाज : गणेश जी, आपकी ये सभी पोस्ट मैं पढ़ चुका हूं और इनमें मेरे सवालों के जवाब नहीं हैं। आप मेरी टिप्पणी को अपनी पोस्ट से मिलान करके देख सकते हैं। आप कहेंगे तो मै अपने सवालों को फिर से सूत्रबद्ध कर सकता हूं।
7-कर्ण सिंह चौहान : नंद भाई, प्रयोजन तो लेखक बिरादरी को सचेत करने का ही है । संस्थाओं और संस्थानों के बारे में अक्सर सवाल किए जाते ही रहते हैं पर वे ऊपर के आदेशों पर काम करते हैं । “दुनिया भर में ऐसा होता रहा है” यह उसकी सततता का कोई तर्क नहीं हो सकता । जो भी गलत चल रहा है, भले ही सदियों से, उसका विरोध कर उसे बदलना तो जरूरी है । यह पूरी तरह सही नहीं है कि पुरस्कारों के कारण ही लेखक या अन्य दुनिया में पहचान बनाते हैं । सच्चाई यह है कि बहुत से लेखक जब अपनी पहचान बना चुके होते हैं तो ये संस्थान और अकादमियां पुरस्कार दे उनका इश्तेमाल करती हैं अधिकांश जोड़-तोड़ के पुरस्कारों को विश्वसनीय बनाने के लिए । यह भी पूरी तरह सच नहीं है कि पुरस्कारों के पीछे लेखकों की कोई भूमिका नहीं होती । पर्दे के पीछे की दंद-फंद को तो सब जानते ही हैं, ये जो अपने पर चर्चा कराने के लगातार प्रायोजन चलते हैं- सभा-गोष्ठियों के माध्यम से, लेखों के माध्यम से, पत्रिकाओं के विशेषांकों के माध्यम से-वे भी इसी के अंग है । जहां तक अभियान चलाने वालों की सफलता का सवाल है, अब उसके बारे में तो कौन गारंटी दे सकता है । सब लोग आवाज ही उठा सकते हैं । हर चीज सफल हो जाती तो समाज और देश वह नहीं रहता जो है ।
8-गणेश पाण्डेय : नंद भाई साहब, हम लोग तो उन्हीं बेईमानों की बात कर रहे हैं, जिनके लिए आप खुद कह रहे हैं कि ‘‘ मैं उन लोगों की बात नहीं कर रहा जो सम्मान या पुरस्कार अपने पक्ष में करवाने के लिए जोड़-तोड़ करते हैं।’’ सारी बातचीत और चिंता तो इन्हीं साढ़े निन्यानवे फीसदी लोगों को ध्यान में रखकर की जा रही है। जब मैं यह कह रहा हूं कि “अ“ ने चयनकर्ता के रूप में “ब“ को एक कथित बड़ा पुरस्कार दिया और ब ने अपनी संस्था से अ को एक दूसरा कथित बड़ा पुरस्कार दिया। लोग हैं कि अ की महानता के गीत गा रहे हैं, इसमें कोई साहित्यिक भ्रष्टाचार नहीं दिखता है। क्या पता बिना कुछ पता किये, महानता का कोरस गा रहे हों। जाहिर है कि ये हिन्दी के लाल हैं, कुछ भी कर सकते हैं। हिन्दी के किसी भी लेखक को नोबेल भी मिल जाय तो उसे भी कम से कम एक बार संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए। मेरा संकेत साफ है। आज शीर्ष पर दिखने वाला कौन पुरस्कृत है, जिसने प्रयत्नपूर्वक पुरस्कार प्राप्त नहीं किया है। बाकायदा लेन-देन होता है। नाम लेकर किसी को लज्जित करना प्रयोजन नहीं है, सिर्फ प्रंवृत्ति पर चोट करना है। रहा सवाल पुरस्कार से लेखक की स्वीकार्यता का तो यह तर्क बहुत कमजोर इस अर्थ में है कि हिन्दी के महान लेखक प्रायः अपुरस्कृत ही रहे हैं। बहुत पीछे मत जाइए। मुक्तिबोध का नाम काफी है। हो सकता है कि आप कहें कि केदार जी को हजारों पुरस्कार मिले हैं इसलिए वह मुक्तिबोध से अधिक शक्तिशाली लेखक हैं ? नाम सिर्फ उदाहरण के लिए दिया है, किसी का अनादर नहीं हैं। दूसरी बात यह कि आज हिन्दी में ‘‘हजारों’’ पुरस्कार हैं और ‘‘शुद्ध’’ पाठक ‘‘एक’’ भी नहीं। पुरस्करों में इतनी ही ताकत है तो हिन्दी के पाठक वर्ग का निर्माण और पठनीयता की संस्कृति का उन्नयन क्यों नहीं हो सका ? केवल लिखने वाले, आलोचना करने वाले, कक्षाओं में डिग्री के लिए पढ़ने वाले व्यापक पाठक वर्ग का विकल्प नहीं हैं। कहानी जैसी विधाएं तो इकका-दुक्का दूसरे तरह के लोग भी पढ़ लेते हैं, साहित्य की सत्ता के शीर्ष पर बैठे आलोचकों ने भी आलोचना की पठनीयता पर एक भी काम नहीं किया, उल्टे अपनी पत्रिका में ठस, अपठनीय गद्य लेख के रूप में छापा। आशय यह कि पुरस्कार पाठक समाज का विस्तार नहीं करते हैं, कृतियां करती हैं। पुरस्कार तो ठस उपन्यासों को दिये गये, जब कि कथा की पहली शर्त ही पठनीयता है। पुरस्कार लेखकों में सिर्फ एक नशे की तरह काम करता है कि मैं तो अब अमर हो गया। जैसे नशे के खिलाफ अभियान जरूरी होता है, उसी तरह आज इसके खिलाफ जरूरी है। लेखक पैदा होते ही दिलली भागता है, पाठक बढ़ाने के लिए या कविता और कहानी में महत्वपूर्ण करने के लिए ? जाहिर है कि वह मठाधीशों के चरणरज के लिए भागता है। मैंने यह सवाल भी उठाया था कि एक वर्ष में केवल एक ही किताब या कविता या लेखक महत्वपूर्ण होता है ? आखिर, यह नासमझी क्यों भाई ? लंबा हो जा रहा है, इसलिए अंत में आपकी ओर से एक बात कहूंगा। यह कि ‘‘मुकुट’’ और ‘‘राज्याभिषेक’’ वाले पुरस्कारों का बंद होना हमारे समय के हिन्दी साहित्य की विश्वसनीयता और पठनीयता और साहित्यिक शुचिता के लिए बेहद जरूरी है, हां, लेखकों के सम्मान के लिए उनके अपने जनपद में सबसे पहले सच्ची प्रतिष्ठा हो, विश्वविजय के लिए न निकलें, इस सम्मान के लिए किसी आत्मीय की ओर से ओढ़ाया गया ‘‘सिर्फ’’ ‘‘एक’’ ‘‘शाल’’, ‘‘श्रीफल’’, ‘‘एक’’ ‘‘माला’’ काफी है। ये अकादमी, ये ढ़कदमी, ये पीठ, ये पेट, इन्हें पेटेंट कराना जरूरी नहीं हैं। आपको जयपुर में आपके मुहल्ले में एक छोटे से मंच पर ‘सिर्फ’’ ‘‘एक’’ ‘‘शाल’’, ‘‘श्रीफल’’, ‘‘एक’’ ‘‘माला’’ काफी है।
9-नंद भारद्वाज : गणेश जी, इस मसले पर इतनी खुलासा बात होने के बावजूद मेरी चिन्ता तो उन जेनुइन लेखकों को लेकर ही है, जो इस तरह की अनैतिक प्रक्रियाओं से कतई संबंधित नही होते और संयोग से इस परिस्थिति में आ जाते हैं, उनके लिए आपकी क्या राय है? इसी क्रम में अगर इन बिन्दुओं पर सिलसिलेवार बता सकें, तो बात और स्पष्ट हो सकेगी - 1- इस प्रक्रिया में नामित होने वाले उस लेखक की क्या भूमिका रह जाती है, जिसने न पुरस्कार के लिए आवेदन किया, न किसी से समर्थन लिया और न उस निर्णय में उसकी कोई दिलचस्पी रही। उसके लिए तो यही रास्ता बचा न कि वह ऐसी परिस्थिति बने तो अपनी ओर से इन्कार कर दे। 2- यह किसी एक देश या समाज की बनाई प्रक्रिया नहीं है, दुनिया भर के बड़े लेखकों से हमारी वाकफियत तभी बनती है जब किसी बड़े पुरस्कार या सम्मान के माध्यम से वे व्यापक चर्चा में आते हैं। 3 - लेखक को सम्मान पुरस्कार से दूर रहने की सलाह देने की बजाय ऐसे प्रावधानों पर रोक लगाने का प्रयत्न क्यों न किये जाएं, जो इस बुराई की जड़ में हैं। 4 - केवल अपनी जगह बैठकर सदाशय अपेक्षाएं करने से शायद ही इस स्थिति में कोई परिवर्तन संभव हो पाए। अगर मौजूदा प्रक्रिया में जो गलत या अनैतिक हो रहा है, उस पर पूरे तथ्यों के साथ खुलकर क्यों न लिखा जाय और क्यों न उन संस्थानों में अपना विरोध दर्ज कराएं जो अनैतिक गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं। लोकतांत्रिक तरीके से संगठित विरोध करें और जरूंरत हो तो न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से भी इस तरह की प्रक्रियाओं पर रोक लगाने का प्रयास करें। 5 - यह भी जरूरी है कि सम्मान पुरस्कार की यह प्रक्रिया सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में बंद होनी चाहिये।
10-गणेश पाण्डेय : नंद भाई साहब, आपकी बात के संदर्भ में काफी कुछ कह चुका दूं। गौर करें। पुरस्कारों पर मैंने पहले भी काफी कुछ कहा है। अध्यात्मिक मुक्ति, सामाजिक मुक्ति, राजनीतिक मुक्ति के बाद साहित्यिक मुक्ति की बात की है। कुछ और कहूंगा, बाकी सब पहले कह चुका हूं। 1- मुक्ति चाहने पर मिलती है, कोई मुक्ति न चाहे तो सात जन्मों तक गुलाम बना रह सकता है। 2-दूसरी बात कुछ स्वाभिमानी लेखक नहीं होते तो इन पंक्तियों को लिखने वा या कर्ण सिंह चौहान इत्यादि लेखक मित्र कहां से आते ? 3-आखिर कहने वाले ने नोबेल पुरस्कार तक को आलू का बोरा क्यों कहा ? क्या वाकई उनका दिमाग फिर गया था या सच कहा ? या हम लोगों का सोचने का मामला कुछ गड़बड़ा गया है कि अच्छे विकल्प की बात कर रहे ? 4-क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि कई शीर्ष पुरस्कार आज की तारीख में लेन-देन पर आधारित नहीं हैं ? 5-यदि पुरस्कारों में शक्ति है तो पाने के बाद लेखक में या खुद दूसरे लेखकों में अच्छा लिखने की चुनौती क्यों नहीं पैदा करते हैं ? 6-क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि बड़ी अकादमियों में अच्छा काम न करने वाले लेखकों या अलेखकों का प्रवेश नहीं होता है ? 7- क्या आप यह कह सकते हैं कि स्वाभिमानी और निडर लेखकों का प्रतिशत हिंदी में आज ज्यादा है ? 8- क्या आप मानते हैं कि वाकई पुरस्कारों ने लेखकों की कीर्ति को उचित ही फैलाया है ? 9- क्या आप मानते हैं कि पुरस्कारों के खत्म हो जाने से हिंदी साहित्य खत्म हो जाएगा ? 10-क्या आप मानते हैं कि भक्तिकाल के महान कवियों ने छिपाकर पुरस्कार लिया था, तब महत्वपूर्ण रचा था ?11-क्या आज के पुरस्कृत कबीर, निराला और मुक्तिबोध के सतर का काम कर चुके हैं या कर देंगे ? कौन करेंगे ? नाम लेना उचित है ? 12-केदार जी को इतने अधिक पुरस्कार मिले हैं इसलिए क्या जनमानस को उन्हें तुलसी, सूर, कबीर इत्यादि से बड़ा कवि मान लेना चाहिए ? नाम नहीं लेना चाहता था, मजबूरी में लिया है। 13-अंग्रेजों के जमाने की रायबहादुरी और आज के पुरस्कृत लेखकों की साहित्यिक बहादुरी में क्या फर्क देखते हैं ? अंत में मेरा मानना यह है कि बच्चा बड़ों को नशा करते देखता है तो देखते-देखते नशा करना सीख जाता है ? एक उदाहरण देने का मन है, जब मेरी विश्वविद्याय मे नौकरी लगी तो मैंने तम्बाकू-पान छोड़ने का निर्णय लिया और तुरत छोड़ दिया। लगभग28-29 वर्ष हुए, अब तक सलामत हूं और कलम की धार आप देखते ही हैं। आशय यह कि पुरस्कार के नशे को तज देने के बाद लेखक और अच्छा करेगा। आदर सहित...
11-नंद भारद्वाज : आभार गणेश जी, आपकी तमाम चिन्ताओं और खुलासों के बावजूद मेरी बात अब भी वहीं है कि उन सामान्य सच्चे लेखकों के बीच पुरस्कारों या सम्मानों के कारण पैदा होने वाले विकार और संस्थानों में जड़ कर गई उस बुराई को कैसे खत्म किया जाय। महान् लेखक तो हमेशा से ही इन संस्थाओं और प्रक्रियाओं से उूपर रहे हैं, उनका समय भी अलग था, हमारी समस्या तो आज का समय है। चलिये, सभी लेखकों-कलाकारों और सजग लोगों को इस पर और विचार करने दें, शायद कोई सर्वमान्य हल निकल आए।
12-गणेश पाण्डेय : नंद भाई साहब, आप यह बहुत अच्छी बात कह रहे हैं कि इन समस्याओं पर अब खुलकर बात हो, शायद साहित्य की तमाम समस्याओं को दूर करने के लिए कोई आमराय बने।
      ( इस पोस्ट को कई मित्रों ने पसंद किया और पुरस्कार को हमारे समय के साहित्य की एक बड़ी समस्या के रूप में देखा।)

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

कविता की लाज रखने के लिए धन्यवाद मित्रो

-गणेश पाण्डेय

एकबार मेरे एक शिक्षक ने जो सिर्फ कहने के लिए शिक्षक थे और शिक्षक होने का पैसा पाते थे, लेकिन असल में एक लेखक थे और ईश्वर और महत्वाकांक्षा इत्यादि की कृपा से अभी हैं और लेखक तो खैर जो हैं सो हैं ही, पर उससे पाया काफी कुछ और दिया कुछ भी नहीं, लेकिन इससे क्या होता है, बहुत से लोग देते हैं कम और लेते हैं बहुत ज्यादा। मुक्तिबोध ने कहा ही है, लेकिन छोड़िए मुक्तिबोध को, हर जगह उनका नाम नहीं लेना चाहिए। कम से कम बहुत खराब लोगों के साथ तो कतई नहीं। मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मैं जिस शिक्षक का जिक्र कर रहा हूँ, वह कोई खराब हैं। आप को समझना है तो समझिए, मैं सिर्फ अपनी बात कहूँगा, वह भी उनकी बात से। एक बार उन्होंने कहा था कि निराला की सब कविताएँ अच्छी नहीं हैं, मुझे उनकी यह बात ठीक लगी, फिर उन्होंने जोड़ा कि उनके पास कुल 13 कविताएँ अच्छी हैं, मुझे कुछ-कुछ विस्मय हुआ कि भला कैसे 13 ? 12 या 11 क्यों नहीं ? यह भी उन्होंने नहीं कहा कि कुछ ही कविताएँ अव्छी हैं। एकदम से कहा 13, जैसे तय कर दिया तो मैंने कुछ नहीं कहा, बस उनका मुँह देखता रहा। उन्होंने देखा कि मैं उनका मुँह देख रहा हूँ तो फिर कहा-‘‘मेरे पास अभी 10 अच्छी कविताएँ हैं।’’ मैंने मन ही मन गोविंद को याद किया और कहा, क्षमा करना गोविंद, मुझे पहली बार गुरु के साथ शरारत सूझी। मैंने वहीं सबके सामने कहा-‘‘ आप 3 अच्छी कविताएँ और लिखकर धड़ाक से निराला क्यों नहीं हो जाते ? वे मेरा मुँह देखने लगे। मैंने देखा कि वे मेरा मुँह देख रहे हैं, फिर भी मैंने कुछ और नहीं कहा। कई सहकर्मी बैठे हुए थे, इसलिए बात हँसी में इधर-उधर हो गयी, लेकिन सच कहूँ तो वह बात आज तक मेरी स्मृति में जस की तस बसी हुई है। इसलिए कि गुरु का यहाँ तक कहना सही था कि निराला की सभी कविताएँ बहुत अच्छी नहीं हैं। सच तो यह कि मैंने खुद अनुभव किया कि सिर्फ उनकी ही नहीं, कई बड़े कवियों की कुछ बहुत अच्छी और अविस्मरणीय कविताओं की भी सभी पंक्तियाँ एक जैसी मूल्यवान नहीं हैं। कुछ कमजोर भी हैं। जैसे किसी सुंदरी के लंबे घने काले बालों में एकाध सफेद दिख जाएँ तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता, वैसी ही कुछ पूरी या आधी कमजोर पंक्तियाँ किसी अच्छी और एकाधिक मार्मिक अंशों वाली कविता के प्रभाव को कम नहीं कर पाती। उसका मूल्य कम नहीं होता। यह मेरा सोचना है। मेरे वे शिक्षक क्या सोचते हैं, वे जानें या उनके अनुयायी जानें।
      किस्सा कोताह यह कि सभी कवियों की सभी कविताएँ एक जैसी अच्छी या खराब नहीं होती हैं। आप सौ पांच सौ हजार कविताओं से गुजरेंगे तो कुछ तो बहुत अच्छी हो सकती हैं, कुछ कम अच्छी, कुछ औसत भी होंगी ही। मैं जिस जरूरी बात को आपसे कहने के लिए इतनी लंबी भूमिका बना रहा हूँ, दरअसल वह सिर्फ एक पंक्ति में अँट जाएगी। एक बहुत छोटी-सी पंक्ति में। एक औसत से भी कम कविता में कोई बड़ी बात मिल सकती है। हमेशा आग ही आग लिखने वाले कवियों की कुछ कविताओं में आप काफी राख भी पा सकते हैं कहीं-कहीं, उसी तरह हमेशा कविता में राख लिखने वाले कवियों में कहीं-कहीं राख में दबी हुई बहुत मूल्यवान चिंगारी पा सकते हैं आप। यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि उसकी कविता को देखने की तैयारी और खासतौर से ईमानदारी कैसी है ?
       जाहिर है कि मैं उदाहरण ढ़ूँढ़ने के लिए दूसरे देश में नहीं जाऊँगा। जाता भी यदि मेरा काम इस उदाहरण से नहीं चलता। कोई बीस साल पहले मैं भी चालीस का था और भरा हुआ था, कहने के लिए ही सही, सही और अपना रास्ता ढ़ूँढ़ रहा था। यह कविता उन्हीं दिनों की है और एकबार फिर कह दूँ कि ‘बहुत साधारण’ कविता है, इसकी सिलाई का धागा कमजोर हो सकता है, कपड़ा काटने का हुनर बहुत मामूली हो सकता है, इसके बटन-सटन और इस्त्री करने में भी गड़बड़ हो सकती है, इसका कपड़ा हुजूर भले रेशम का न हो, लेकिन इसे बुनने में तमाम छोटे कवियों की तरह मैंने अपना पसीना ही नहीं, दो-चार बूंद खून भी बहाया है। मेरे जैसे तमाम कवियों के पास क्या है और क्या नहीं, कविता से भी अच्छी आँख उसे देखने के लिए चाहिए हुजूर। आपके पास तो होगी ही, क्यों ? या आप उसे ही देखेंगे और उतना ही देखेंगे, जिसे राजधानी के य खास आपके उस्ताद या गॉडफादर कहेंगे ? कभी-कभी न चाहते हुए भी मुझे अपनी ही कविता को उदाहरण के रूप में रखना पड़ता है। कितना कठिन होता है कि एक कवि खराब कविता के उदाहरण के रूप में अपनी ही किसी कविता को सामने रखे-

एक अफवाह है दिल्ली

कोई तो होगा मेरे जैसा
जो कह सके शपथपूर्वक
चालीस पार किया
गया नहीं दिल्ली
नई कि पुरानी

देखा नहीं कनाट प्लेस
बहादुरशाह जफर मार्ग
चाँदनी चौक, मेहरौली
अलकनंदा, दरियागंज

मुझे अक्सर लगा
एक डर है दिल्ली
किसी शहर का नाम नहीं
जो फूत्कार करता है
लेखकों की जीभ पर
हृदय के किसी अंधकार में

जब-जब बताते रहे एजेंट सगर्व
दिल्ली दरबार के किस्से
लेखकों की जुटान के ब्योरे
कैसे बँटती हैं रेवड़ियाँ
और पुरस्कार

हाय! सुनता रहा किस्सों में
कैसे मचलते हैं नये कवि
किसी उस्ताद की कानी उँगली से
एक डिठौने के लिए

और नाचते हैं कैसे आज के किस्सागो
किसी दरियाई भालू के आगे
उसकी एक फूँक के लिए
निछावर करने को आतुर
अपना सब कुछ

बेशक होता रहा हाँका
कुल देश में कि खैर नहीं
मार दिये जाएंगे वे
जो जाएंगे नहीं
दिल्ली

मैं हँसता रहा
कि दिल्ली से
दिल्ली के लिए उड़ायी गयी
एक अफवाह है दिल्ली

देखो तो
बचा हुआ है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में साबुत।
     पहले तो यह साफ कर दूं कि दिल्ली सिर्फ किसी शहर का नाम नहीं है, इधर लंबे समय से साहित्य की दुनिया में साहित्य की सत्ता के केंद्र का प्रतीक है। बीस साल पहले का वह गोरखपुर भी आज चाहे किसी वजह से साहित्य के छोटे केंद्र का शिविर जैसा कुछ लोगों के लिए बन गया हो, लेकिन मेरे लिए उस वक्त साहित्य के जन की बस्ती का प्र्रतीक था ही, आज भी है। मेरी दृष्टि में दिल्ली को छोड़कर बाकी जगहें भी कमोबेश गोरखपुर जैसी ही हैं। मैंने ऊपर कहा है कि यह कविता सिर्फ एक उदाहरण है। अच्छी कविता का उदाहरण नहीं, बल्कि खराब कविता का अच्छा उदाहरण होने के साथ, मौजूदा प्रसंग को मजबूत करने के लिए एक छोटा-सा नमूना भी है, बस। इस खराब कविता के जरिये सिर्फ इस सवाल से टकराना है कि आज के चालीसपार भी क्या उतने ही बेवकूफ हैं, जितना इस कविता में वर्णित है या उन्होंने चालीस की उम्र में चालीस से ज्यादा बार दिल्ली की परिक्रमा की है ? यह उन कवियों का अपमान कतई नहीं है, हाँ उनकी चतुराई जरूर हो सकती है। कबीर कह सकते थे कि हमन को होशियारी क्या, आज के बहुत से कवि होशियारी के मामले में कबीर से बहुत आगे। इतना आगे कि एक मिनट में सौ कबीर को बेचकर खा जाएँ। एकबार फिर साफ कर दूँ कि चालीस पार और चालीस के करीब और उससे छोटे सभी कवि हरगिज ऐसे नहीं हैं। कुछ ही होते हैं, जो माहौल को खराब करते हैं। बहुत थोड़े से होते हैं। बाकी तो सीधे-सादे लोग होते हैं। मैं सबूत के बिना कोई बात करने से बचता हूँ। सबूत हैं कोई कोई आठ सौ कविताएँ, जो इस अपने समय के पिछड़े कवि के कहने पर उसके पास आयी हैं। जिन कवियों की कविताएँ इन आठ सौ से कुछ अधिक कविताओं में शामिल नहीं हैं, उनकी कविताओं को फालतू या खराब कहने की नासमझी नहीं करूंगा। यह उनकी कविता का अपमान होगा। हाँ उन्हें बहुत होशियार कवि जरूर कहूँगा। होशियार आदमी कभी जोखिम नहीं उठाता है। साहित्य में तो कतई नहीं। नाम और इनाम की गारंटी वह पहले चाहता है, न्याय और अन्याय जाय भाड़ में। आज का होशियार कवि नाम-इनाम समेत कई चीजों में फँसा हुआ है। फलाना जी के पास यह पुरस्कार है, इसलिए उन्हें साध कर रखना है तो उनकी जिससे नहीं पटती उससे दूर रहो। फलाना जी नाराज न हो जाएँ इसलिए फलाना जी से दूर रहो। अरे भाई कैसे कवि हो कि दो कौड़ी के इनाम के लिए डेढ़ कौड़ी के फलाना जी के साथ रहते हो। भाड़ में जाएँ तुम्हारे फलाना जी, तुम कविता के साथ क्यों नहीं रहते ? कविता की बेहतरी से बड़ा कोई एजेंडा किसी कवि के जीवन में कोई मायने रखता है ? यदि ऐसा है तो वह सच्चा कवि नहीं, बना हुआ कवि है। कविता का सौदागर है। पीतल को सोना बनाकर बेचने वाला ठग। जैसे वह ठग पकड़ लिया जाता है, कविता के ठग भी धर लिए जाते हैं। जैसे पुलिस में कुछ लोग भ्रष्ट होते हैं, शिक्षा में भ्रष्ट होते हैं, आलोचक और संपादक भी भ्रष्ट हो सकते हैं और पकड़े जा सकते हैं। कहना बहुत जरूरी है कि इधर कविता और आलोचना मे दिल्लीराग बहुत बढ़-चढ़कर बोल रहा है। बड़ी पत्रिकाएँ हो या छोटी, सब मूल्य और विवेक की जगह होशियारी से निकल रही हैं। साहित्यिक पत्रिकाएँ मंच के मँहगे लेकिन कविता की दृष्टि से बहुत सस्ते गलेबाज कवियों के साक्षात्कार छापने लगें तो समझो कि पत्रकारिता की देह से जरूरी हड्डी पूरी की पूरी गल गयी, सब बहुत थुलथुल और लिजलिजा है। यह किसी पत्रिका को लज्जित करने के लिए नहीं कर रहा हूँ, आगे के लिए आगाह कर रहा हूँ कि आज तो संपादक ऐसी चूक कर रहे हैं, कल को आलोचक इससे चार कदम आगे बढ़ जाएंगे। अभी आलोचना में जो थोड़ा-बहुत बचा हुआ है वह भी खत्म हो जाएगा। मित्रो, इतना और इस तरह कहना नहीं था, बस अस्सीपार से लेकर बिल्कुल नये, पचहत्तर से एक-दो अधिक कवियों को धन्यवाद कहना है कि उन्होंने अपनी बहुत अच्छी कविताएँ मेरे पास भेजीं, आभारी हूँ इस विश्वास के लिए। किसी कविता का कम अच्छी या टूटा-फूटा होना कवि का अपराध नहीं है, लेकिन किसी कवि का ‘बहुत’ कलाबाज होना बुराई जरूर है। कला के बिना कविता की कल्पना नहीं की जा सकती है, लेकिन सिर्फ कला को कविता नहीं कह सकते।
          ऐसे उपक्रम के बीच कविता के दृश्य पर ऐसे चतुर या अलग से कुछ बड़ा पाने की उम्मीद में लगे हुए कवि गिनती के ही सही इक्का-दुक्का दिख सकते हैं, जो कविता की साधारण पंचायत या मुक्त जुटान में बैठने पर अपनी हेठी समझ सकते हैं या अन्य कारणों से संकोचवश तमाम साधारण कवियों के साथ कविता की चटाई पर बैठना जिन्हें पसंद नहीं हो सकता है, ऐसे अभिजन कवि के लिए शायद मेरी छोटी-सी कुटिया में उपयुक्त जगह भी नहीं है। ऐसे कवि मित्रों को अधिकार है कि वे पुरस्कार और प्रतिष्ठा इत्यादि के लिए अकादमी इत्यादि से पुरस्कृत और बहुप्रतिष्ठित कवि या बड़े आलोचक या संपादक के संग रहें। उन्हें हक है कि वे अपनी कविताएँ साहित्य के बड़े कुलीन जनों के पास ले जाएँ। राजधानी में तो बहुत हैं। बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ भी वहाँ हैं। जो उन्हीं की तरह लेकिन कविता के तनिक बड़े कुलीन जन हों, कविता के अभिजन। जहाँ कविता की छोटी-सी पंचायत लगी हो, मेल-मिलाप और जन की चटाई बिछी हो, वहाँ शामिल न होकर अपनी अच्छी कविता को कैद करके रखना मेरी दृष्टि में साहित्यिक जुर्म है, चाहे वह अच्छी कविता किसी साधु की हो या किसी युवा कवि की या किसी चोर की। जो लोग अच्छी कविता साहित्य के राजा-महाराजा या सामंत को दिखाने के लिए लिखते हैं, वे कविता का आभूषण बनाने वाले सोनार तो हो सकते हैं, लेकिन कविता के सच्चे पाठकों के लिए जन की कविता की खुरपी, हँसिया, कुदाल बनाने वाले लोहार नहीं हो सकते हैं।
      अंत में  इतना और कि दस-दस कविताएँ माँगते-माँगते आठ सौ से अधिक कविताएँ हो गयीं। एक छोटी-सी पत्रिका के दरवाजे पर आठ सौ कविताओं की बारात देखकर चकित हूँ। कोशिश करूँगा कि इन  कविताओं से उनका हाल-चाल पूछूँ। अच्छी कविता के सामने शीश झुकाऊँ तो कम अच्छी से भी हाथ मिलाऊँ। एक निश्चित समय के भीतर यह सब करना तनिक मुश्किल होगा, फिर भी उम्मीद है कि जितना सोचा है, हो जाएगा। इस बात के लिए बहुत खुश हूँ कि मैं सीधे-सादे कवियों की अच्छी कविताओं के संग बुरा बर्ताव करने वाले किसी अहंकारी कवि के साथ नहीं हूँ। विस्मय यह कि इतने भले और सीधे-सादे सहज और ताकतवर कवि बड़ी संख्या में अभी बचे हुए हैं, मैं जिनके साथ हूँ। कई हैं जिनमें काफी शक्ति है, अपनी पीढ़ी के चतुर कवियों के गुरूर को आईना दिखाने की भी शक्ति है, जिनके पास शक्ति तनिक कम भी है उनके पास कविता का ईमान बहुत है, जीवन का नमक तो भरपूर है। जो बिल्कुल नये कवि हैं जाहिर है कि उनमें कविता से प्रेम बहुत है। यात्रा के लिए अपनी कविताएँ भेजने वाले सभी कवियों से एकबार फिर कहना चाहता हूँ, धन्यवाद कवियो कविता की लाज रखने के लिए।


शनिवार, 13 दिसंबर 2014

एक खत आधा खुला आधा बंद

-गणेश पाण्डेय

पाँड़े जी, कुछ लेखक बड़े सयंमी होते हैं। कुछ भी खाते-पीते हैं तो बड़े संयम से। क्या नुकसान करेगा, क्या फायदा और क्या मजा देगा। कुछ लेखक सबकुछ बेहिसाब करते हैं। मैं ऐसे कई लेखकों को जानता हूँ जो और सब तो हिसाब से खाते-पीते और करते हैं, लेकिन प्याज बेहिसाब खाते हैं और दारू बेहिसाब पीते हैं। प्याज तो इतना कि दारू से भी ज्यादा भभका छोड़े, उसके बास से पास तो क्या एक हाथ के फासले पर भी बैठना दूभर हो जाए।
आप भी ऐसे तमाम लेखकों को जानते होंगे, क्यों पाँड़े जी। मेरे हमजाद, मेरे हम प्याला, मेरे हम निवाला और मेरे हमपाद। एक जादो जी अर्थात बड़े जादो जी तो ‘पाद’ पर भी कुछ कवितानुमा कविताएं लिख चुके हैं। अब वह स्वर्गवासी हो चुके हैं। अच्छा ही हुआ कि उन्हें हिन्दी के नरक से आखिर छुट्टी मिल गयी। यह अलग बात है कि उन्होंने साहित्य के इस नरक को सुरा ‘इत्यादि’ से सुंदर बनाने की भरपूर कोशिश की। आदमी तो आदमी पशु-पक्षियों तक की मदद ली और की। बाहर हंस की फोटो लगाकर भांति-भांति के मनुष्यों और पशु-पक्षियों से बाकायदा कथापाठ कराया। अब वे रहे नही, लेकिन साहित्य के ऐसे बाबाओं की याद तो तब-तब आएगी, जब-जब कोई आशा या कोई राम पकड़े जाएंगे या चैनलों पर जिनका गुणगान होगा। आप तो जानते ही हैं पाँड़े जी कि मैं किसी की बुराई नहीं करता, हाँ सच ही बुरा हो तो कहने से इन्कार नहीं करता हूँ। जैसे अधिक प्याज खाने को साहित्य के एक तबके के कुछ लेखकों में अधिक देखता हूँ तो अपने को कुछ कहने से रोक नही पाता हूँ। जैसे इस वक्त।
       पाँड़े जी, आपको पता है या नहीं कि रायपुर में भाजपा सरकार की देखरेख में कोई साहित्य महोत्सव चल रहा है, जिसमें विनोद जी, नरेश जी इत्यादि तमाम लेखक शामिल हुए हैं और मंगलेश जी केदार जी इत्यादि नहीं शामिल हुए हैं। हाँ-हाँ इतना तो आपको पता है ही, लेकिन क्या यह पता है कि छोटे जादो जी समेत कुछ लोग जी बहुत खफा हैं कि फलाना-ढ़माका वहां गये क्यों ? उन लोगों ने उस कार्यक्रम का उनकी तरह बहिष्कार क्यों नहीं किया ? मुझे बड़ी हँसी आयी पांड़े जी, मेरी दृष्टि में सभी राजनीतिक दल बुनियादी रूप से एक जैसे हैं। सबको कुछ भी करके सत्ता चाहिए। फिर कौन पार्टी बुरी और कौन अच्छी ? सारा मामला उन्नीस-बीस का है। साहित्य में भी शीर्ष पर कमोबेश यही स्थिति है। आखिर यह अधिक प्याज खाने वाले लोग सिर्फ प्याज ही खाते रहते हैं या कुछ ढ़ंग का भी सोचते हैं ? आप ही बताइए कि किसी कार्यक्रम में सिर्फ चले जाने से कोई लेखक छोटा हो जाएगा या बेईमान हो जाएगा या साहित्य का हत्यारा हो जाएगा ? और किसी कार्यक्रम में न जाने या उसका बहिष्कार करने मात्र से वह हिन्दी का भला लेखक हो जाएगा , बड़ा लेखक हो जाएगा ? हिन्दी का राजा बेटा हो जाएगा ? ईमानदार लेखक हो जाएगा ? साहित्य में साफ-सुथरा हो जाएगा ? अपने समय के या बाद के लेखकों के साथ न्याय करने वाला लेखक हो जाएगा ? क्या बहिष्कार करने से वह साहित्य में साजिश करना और पुरस्कार के लिए नाक रगड़ना बंद कर देगा ? 
       पाँड़े जी, मैं किसी को बुरा नहीं कह रहा हूँ। सिर्फ यह कह रहा हूँ कि कोई कहीं जाने से न छोटा हो जाता है और न जाने से बड़ा नहीं हो जाता है। सिर्फ इस तरह की बातों पर अपना टूटा-फूटा विचार रख रहा हूँ, बस। मैं अपने शहर के एक सम्मान के कार्यक्रमों में लंबे समय से नहीं जाता तो नहीं जाता, लेकिन कभी प्रचार नहीं करता कि मैं नहीं जाता। अरे भाई मैं उसे अच्छा नहीं समझता हूँ तो नहीं जाता हूँ, बात खतम। जो लोग उसमें जाते हैं या उसकी समिति में हैं और उसमें बने रहना चाहते हैं तो बने रहें, बात खतम। उसमें न जाने से मैं महान नहीं हो जाता हँ और जो लोग उसमें हैं, उसमें रहने की वजह से महान या छोटे नही हो जाते हैं, बात खतम। यह साहित्य का भ्रम है। एक लेखक अच्छा लिखने और एक अच्छा साहित्यिक जीवन जीने से बड़ा होता है। अच्छा लिखना निश्चय ही लेखक के अच्छे जीवन से जुड़ा है। अच्छा जीवन पुरस्कार और चर्चा इत्यादि के लिए मत्था टेकना नहीं होता है। स्वाभिमान और संघर्ष की धरती पर लेखक के जीवन की फसल लहलहाती है। साहित्य की सत्ताओं की धोती साफ करेंगे, पाजामा इस्त्री करेंगे और किसी पार्टी-सार्टी के आयोजन में न जाने को ही साहित्य का बड़ा काम कहेंगे ? प्रतिरोध कहेंगे ? पहले हिन्दी के हजारों संभावनाशील लेखकों की हत्या करने वाले आलोचकों और संपादकों से लड़िए, यह ईमानदार लेखक होने की पहली शर्त है, फिर उसके बाद निर्दोष आदिवासियों की हत्याओं के खिलाफ बोलिए, तब अच्छा लगेगा और आप तब ईमानदार लेखक लगेंगे। नहीं तो आपका सारा प्रतिरोध नाटक है।
पाँड़े जी आप ही बताइए कि किसी कार्यक्रम में जाने से नरेश जी जितने बड़े या छोटे हैं उससे भी छोटे लेखक हो जाएंगे और नहीं जाएंगे तो उससे बड़े लेखक हो जाएंगे ?  सड़क बनाने के धंधे में कितना पत्थर तोड़ा जाता है और कितना ईमान, कौन नहीं जानता है ? मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि किसी भी लेखक की निंदा की जाय। दुख तब होता है, जब छोटे-छोटे पुरस्कारों के लिए विकल होते और फिर पाने के बाद इतराते हुए देखता हूं। ऐसे उत्सवों में शामिल होते और खुद भी पुरस्कार की कतार में खड़े जादो जी जैसे तमाम लोगों को देखता हूं तो दुख होता है।
    मेरे कहने का मतलब यह कि एक लेखक में निडरता और ईमान बुनियादी चीजें हैं जो बाद में नहीं अर्जित की जाती हैं, यह लेखक के जीन में शामिल होती हैं। ऐसे आयोजनों के बहिष्कार की घोषणाएं करने के बावजूद एक लेखक जब तक साहित्य की भ्रष्ट सत्ताओं और दरबारों का बहिष्कार नहीं करता, उसकर विरोध नहीं करता, हिन्दी का डरपोक लेखक बना रहता है। ऐसे लेखक न हिन्दी के काम के होते हैं और न अपने समाज के। विनोद कुमार शुक्ल के अंचल का आयोजन है, कई स्थानीय दबाव हो सकते हैं। मैं स्थानीय दबाव को नहीं मानता, यह अलग बात है। उनकी दूसरी कोई दिककत हो सकती हैं। इसलिए जाना उस वक्त बुरा कहते कि जब वह वहां के मुख्यमंत्री के सामने भाजपा में शामिल होते। सिर्फ वहां जाने की वजह से शुक्ल जी दिल्ली के किस कवि से छोटे हो जाते हैं ? ऐसा नहीं है भाई। कईबार स्थानीय विवशताएँ भी जाने के लिए विवश कर देती हैं। हिन्दी के इस वक्त के सबसे बड़े आलोचक ने न जाने कितना ऐसा कुछ किया है ? आज इस बात के लिए उनका विरोध करने वालों में से कौन ऐसा है जिसने किसी समय उनका आशीर्वाद नहीं लिया है ? 
     मैं मानता हूँ कि एक लेखक को विचार के स्तर पर बुरे लोगों और बुरे संगठनों और राजनीतिक पार्टियों से दूर रहना चाहिए, साथ ही यह भी मानता हूँ कि लेखकों को साहित्य के बुरे संगठनों, समूहों और अच्छे विचारों के नाम पर साहित्य का धंधा करने वालों से भी दूर रहना चाहिए। यह अच्छा होता कि विनोद कुमार शुक्ल जैसे तमाम लेखक उस आयोजन से दूर रहते, लेकिन ऐसा हो नहीं सका तो इसे स्थानीयता के भारी दबाव के रूप में भी देखा जा सकता है। हाँ, जरूरी बात यह कि जो नहीं गये वे सिर्फ न जाने की वजह से हिंदी के अच्छे लेखक नहीं हैं और जाकर विनोद कुमार शुक्ल बुरे लेखक नहीं हो जाते। विनोद कुमार शुक्ल जैसे जाने वालों में लेखकों में कुछ अच्छाई भी हो सकती है तो न जाने वाले लेखकों में कुछ ‘दूसरे तरह की बुराई’ हो सकती है। कई और नाम हैं जो वहां गये। उनके बारे में अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं। जो-जो वहां नहीं गये उनके बारे में भी अलग से कुछ और कहने की जरूरत नहीं है। किसी का भी कुछ ढ़का-छिपा नहीं है। हां, वहां जाने वालों का विरोध करने वालों में कुछ भले और मासूम लोग भी हैं। सवाल सिर्फ ऐसे आयोजनों में न जाने को साहित्य के लिए वीरगति का दर्जा और सम्मान देने वालों से है कि भाई क्या यही साहित्य का जरूरी विरोध है ? उनसे विनम्रतापूर्वक जानना चाहता हूं क्या साहित्य के लिए किसी बड़ी लड़ाई की जरूरत नहीं है ? यदि है तो आप उस लड़ाई के लिए क्या कर रहे हैं या क्या सोचते हैं ?
     पांड़े जी, आप तो जानते ही है कि मैंने अपने विभाग के चाय क्लब का बहिष्कार दस-पन्द्रह वर्षों से कर रखा है, पर किसी से कहा कभी नहीं कि साहित्य के बुरे लोगों से कितना दूर रहता हूँ। अपने को किस तरह बचाकर रखता हूँ। जरूरी नहीं कि सब लेखक ऐसा कर पायें। भीतर से इतने दृढ़ हों। कई बार मित्रों के लिए कुछ लोगों को ऐसे भी निर्णय लेने पड़ते हैं। पाँड़े जी आप तो सब जानते हैं कि यहाँ मेरे शहर में साहित्य के बुरे लोगों की फौज किस तरह साहित्य के एक स्थानीय और अब बाहर का भी डॉन के साथ मेरे खिलाफ होती है, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता। अपना काम करता हूं। बिना किसी लेखक संगठन या गुट के। अपने समय की साहित्य की भ्रष्ट सत्ता से लड़ता रहता हूं। बावजूद इसके कि अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति। निराला याद आते हैं। इस तरह की शक्तियाँ पानी के बुलबुले की तरह की तरह होती हैं, जिन्हें थोड़े से वक्त के बाद खुद खत्म हो जाना होता है। इसलिए ऐसी शक्तियों की पूजा साहित्य में राम नहीं करते हैं, रावण ही उपयुक्त होते हैं। साहित्य में रावण एक नहीं, हजार होते हैं। कभी नहीं मरते। हर स्वाभिमानी लेखक को इनके बाणों के सामने अपना सीना करना ही होता है। आप तो यह भी जानते हैं कि साहित्य के रावण किसी भी विचारधारा या गुट या संगठन से जुड़े लोग हो सकते हैं। एक बात कान में बताऊँ पाँड़े जी कि जमाना बड़ा खराब है अरे राम के नाम पर बने संगठनें में भी रावण हो सकते हैं। देखिए तो, लेकिन खुद हमारे भीतर बैठे और हम पर हुक्म चलाते रावण का क्या करें ? 
आपका हमजाद - छोटे सुकुल।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

कविता के रिश्ते की एक बहन से कुछ बातें उर्फ ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया

- गणेश पाण्डेय

प्रिय बहन, मैं नही जानता कि मेरा आपको बहन कहना कैसा लगेगा, आपने मुझे मित्र कहा है और में आपको बहन कह रहा हूं। इसलिए बहन कह रहा हूं कि मित्र और बहन में मेरे लिए कोई अंतर नहीं है। यह इसलिए कह रहा हूं कि शुरू में यह बात साफ कर दूं कि साहित्य में मैं कोई चलता पुर्जा नहीं हूं, देहाती मनुष्य हूं। साहित्य मेरे लिए इंकिलाब का कोई नाटक नहीं है, जैसा कि आज के तमाम लेखक लोग करते हैं। मेरे पास एक बहुत छोटी-सी पत्रिका है। इतनी छोटी कि पूछिए मत। चींटी की मुंडी जितनी। जैसे चींटी और हाथी की कहानियां हैं, ऐसी कोइ्र कहानी इसके साथ नहीं है। अलबत्ता इस पत्रिका की शुरुआत साहित्य की अट्टालिकाओं के सामने असहमति और प्रतिरोध की एक बहुत मामूली छीनी के रूप में हुई थी। शुरू में सोचा था कि बस दस अंक निकल जाएं और अपनी बहुत-सी बातें कह दूं, लेकिन अब देखता हूं कि बातें हैं कि खतम ही नहीं हो रही हैं। हां इन बातों में साहित्य की दुनिया को चुटकियों में बदलकर रख देने का कोई भाव नहीं है। जानता हूं कि हमारे समय के हिन्दी के तमाम महान लेखकों के पास विचारधारा और इनाम-सिनाम का एवरेस्ट है और वे इस देश या दुनिया को रत्तीभर उस तरह नहीं बदल सके, जिस तरह ऐलानिया तौर पर उन्हें बदलना था। मैं और यात्रा तो बहुत छोटी चीज हैं। मैं हिन्दी की दुनिया को बदल नहीं सकता। इतना ही नहीं उसे बदलने की कोई मजबूत कोशिश होतू हुए देख भी नहीं सकता। हां इतना जरूर कर सकता हूं कि उसे बदलने के पक्ष में एक हाथ उठा सकता हूं और वही कर सकता हूं।
    बहन, जब यात्रा के लिए कविताएं आमंत्रित करने की बात दिमाग में आयी तो उसके पहले दिल में एक बात आयी कि कुछ ऐसा हो कि लगे कि हो रहा है। एक कोशिश हो रही है कविता की दुनिया में विकल्प के एक डग की। लोग देखें कि एक कदम ऐसा भी हो सकता है। कविता की खेतीबारी को इस तरह भी देखा जा सकता है। कविता के राजपाट को इस तरह भी मुंह चिढ़ाया जा सकता है। बेईमान के कान इस तरह भी उमेठे जा सकते हैं, इस तरह का एक स्केच कान उमेठते हुए बनाया जा सकता है। यह कान उमेठना नहीं है तो और क्या है कि अपने छोटे से शहर में बैठकर एक देहाती लेखक ताल ठोंककर यह कह रहा है कि ‘‘एक छोटी - सी इच्छा यह है कि युवा कविता की पहचान की जाय। उसे उसके वैशिष्ट्य के साथ रेखांकित किया जाय। सबसे बढ़कर यह कि उसके साथ न्याय की एक छोटी-सी कोशिश यात्रा की ओर से हो। यह सिर्फ हमारे चाहने भर से नहीं होगा, बल्कि आप भी चाहेंगे तब होगा। हम न्याय कर पाएं या न कर पाएं, पर न्याय के लिए छटपटाहट हमारी कोशिश में जरूर हो। यह काम देखने में जितना अच्छा लग सकता है, हो सकता है कि करने में उससे कहीं ज्यादा मुश्किल हो। मुश्किलों की फेहरिस्त से पहले अपनी बात। मैं पचास साल का होने के बाद पहली बार अपनी बिटिया को एक इम्तिहान दिलाने के लिए दिल्ली गया था। दूसरे तमाम युवा और युवतर लेखक पच्चीस - तीस की उम्र में पचास बार दिल्ली की परिक्रमा कर चुके होते हैं। कहने का आशय यह कि बहुत से लेखक जो अपने समय के साहित्य के मठाधीशों की परिक्रमा करने में निपुण नहीं होते हैं, वे प्रायः आलोचक और संपादक की तंगनजरी की वजह से अपने समय के अँधेरे में पड़े रहते हैं। क्या एक वर्ष में एक ही अद्वितीय कविता लिखी जाती है? फिर एक कविता से और एक चयनकर्ता के प्रभामंडल के प्रभाव से एक युवा कवि रातोंरात चर्चा में ला दिया जाता है । मेरा मतलब कविता के भाभू आभूषण से है। असल बात यह कि बहुत से लेखकों के लिए दिल्ली जिन्दगी भर दूर रहती है और बहुत से लोग फीकी कविता कुछ लोगों की कृपा से ऊंची कीमत पर बेच लेते हैं। मैं यह नहीं कहता कि भाभू कवि रोशनी के आलीशान होटल में न रहें, लेकिन जो कवि उन-उन सालों में अदेख रहे, उन्हें भी देखने की कोशिश हो। इस आयोजन को भाभू के विरोध में देखने की कोशिश के रूप में न लेंगे, निश्यच ही उनमें भी कई कवियों ने अच्छी कविताएँ लिखी होंगी। क्या ही अच्छा हो कि वे भी अपनी दस-दस चुनी हुई कविताएँ भेज दें, जिनमें उनका पूरा कवि व्यक्तित्व अँटा हो। उन्होंने अच्छी कविताएँ लिखी होंगी यह जितना सच है उतना ही सच यह भी है कि भाभू के बाहर भी अच्छी कवतिएँ लिखी गयी होंगी। क्या ऐसा सोचने में कोई नुक्स है? मैं अपने कुछ मित्रों और प्रियजनों से क्षमायाचना के साथ यह निवेदन करना चाहूँगा कि मैं सिर्फ भाभू को अच्छी कविता का सबसे बड़ा प्रमाण नहीं मानता, बल्कि उसे अच्छी कविता और अच्छे कवियों की पहचान में बड़ी बाधा मानता हूँ। जबकि हमारे समय के कुछ निठल्ले इसी के आधार पर पिछले पचास साल की कविता में कवियों की सूची बनाते हैं। ऐसे ही चयनकर्ताओं की पसंद से कुछ और नाम जोड़ लेते होंगे। यात्रा की योजना कोई सूची बनाने की नहीं है, बल्कि हम चाहते हैं कि सिर्फ एक पुख्ता सबूत पेश हो। यह काम आसान नहीं है। सबूत तो आपकी कविताएँ हैं, आप हमें भेजेंगे तब हम यह कर पाएंगे। कोई कवि यह सोचेगा कि हम पीछे के रास्ते से कविता के ठेकेदारों के घर में अपने लिए जगह बना लेंगे तो यह अपने समय की कविता के साथ गद्दारी होगी। मेरी कविता तेरी कविता से आगे सबकी कविता और अच्छी कविता की ओर बढ़िए। इसके लिए जरूरी है कि पहले अपनी कविता भेजिए। अच्छी कविताएँ जरूर भेजिए। कुछ मित्रों का सुझाव है कि पचास से कम उम्र के कविताएँ आमंत्रित करने के साथ पचास से ऊपर के कवियों को भी सादर आमंत्रित किया जाय। सहमत हूँ, उल्लेख कर दें और भेजे। कविताएँ 15 दिसम्बर तक इस पते पर भेज दें-’’ 
   आखिर जब मैं कहता हूं कि ‘‘ कोई कवि यह सोचेगा कि हम पीछे के रास्ते से कविता के ठेकेदारों के घर में अपने लिए जगह बना लेंगे तो यह अपने समय की कविता के साथ गद्दारी होगी। मेरी कविता तेरी कविता से आगे सबकी कविता और अच्छी कविता की ओर बढ़िए। ’’ तो मुझे यह पता है कि आज अधिकांश कविता लिखने वाले कवि अपने कवि जीवन में बेहद लिजलिजे डरपोक और सिर्फ कविता में कह कर इंकिलाब करने वाले हैं। वे हिन्दी के राक्षसों से लड़ने के लिए नहीं आएंगे, बल्कि उनसे कोई इनाम पाने की जुगत भिड़ांएंगे। जाहिर हैं कि मैं ऐसे लोगों से कविताएं नहीं मांगता। स्वाभिमानी कवियों से कविताएं मांगता हूं। उन कवियों से कविताएं मांगता हूं जो कविता की भ्रष्टसत्ता की आंख में उंगली डालकर अपने समय की कविता का सच दिखाना चाहते हैं। जानता हूं कि कविता के गद्दार कवि कविताएं नहीं भेजेंगे। उन्हीं के खिलाफ तो यह प्रतीकात्मक लड़ाई है। उन्हें और उनके आकाओं को दिखाने के लिए कि लो देख लो। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे गांव की कुश्ती में पहलवान ताल ठोंककर चैलेंज करता है कि है कोई जो इस पहलवान से लड़ेगा! मित्रो कविता की दुनिया में मल्लयुद्ध नहीं होता है। कविताएं आमने-सामने रखी जाती हैं। इतने से काम हो जाता है। उदाहरण के लिए अपनी सिर्फ एक कविता रखता हूं, यह बताने के लिए आमने-सामने ऐसे कविताएं रखी जाती हैं, पर दुर्भाग्य से हमारी पीढ़ी के आलोचकों और संपादकों ने ऐसा किया नहीं। ‘‘मुश्किल काम’’ शीर्षक है मेरी कविता का-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहां-वहां
जहां-जहां जाता था वह अक्सर धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे जो मेरे साथ तो थे
पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेर नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-
‘पीना और शैतान के संग ?’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
     इस कविता को देखिए बहन और साठ साल के मेरी पीढ़ी के दूसरे कवियों की कविताओं में से कोई एक कविता इस वजन और रूह की छांटिए। फिर पता कीजिए कि इस कविजीवन की कविता किस कवि के पास है ? गौर कीजिए कि विचार और अचार की किताब से देखकर ऐसी कविताएं नहीं लिखी जाती हैं, जीवन से बनती हैं ऐसी कविताएं। आज के महाकवियों के पतली मोरी के पाजामे से भी नहीं झरती हैं कि उनके पीछे-पीछे चलने वाले कवि बटोर लें। सच तो यह कि ऐसी कविता लिखने वाले पुरस्कार के लिए साहित्य के ठेकेदारों के तलुवे नहीं सहला सकते और तलुवे सहलाने वाले कवि ऐसी कविताएं लिख नहीं सकते है। प्रिय बहन, मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मैंने कोई महान काम किया है इस या किसी भी कविता को रचकर। मेरा आशय यह कि इस तरह कविताओं को आमने-सामने रखकर हम फर्क देख सकते हैं। एक बात फिर साफ कर दूं कि अपनी कविता को सिर्फ उदाहरण के रूप में रखा है। अपने को किसी भी कवि से श्रेष्ठ बताने के लिए कतई नहीं।
    बहन चाहता तो यही हूं कि आने वाली कविताएं ऐसे ही रखी जाएं, लेकिन सभी कविताओं को देखने के बाद कुछ कह पाना संभव होगा। आपकी यह चिंता ध्यान में है कि ‘‘मुझे नहीं लगता कि कविता की सही-सही परख रचयिता के नाम के साथ हो पाएगी ! कविता का सत्यानाश ही इसलिए हुआ है क्यों कि आलोचना राग द्वेष से परे हो ही नहीं पाई है। हमने व्यक्ति की हस्ती बेहस्ती देख कविता के आकलन किये। कितनी ही पत्रिकाओं में बहुलता में ऐसी कविताएँ आ रही हैं जिन्हें जन से कविता की दूरी का घोषित श्रेय देने का मन हो जाए पर वे छपीं ही नहीं नाम ही काफी है की तर्ज़ पर सराहीं गईं। यह हुई एक बात दूसरी बात उन विरक्तों की जो कविता की दुनिया में पूरी प्रतिभा ईमानदारी और लगन से आये किन्तु हत्प्रभ घृणा के साथ लौट गए एक से एक उम्दा किन्तु अब अप्रसिद्ध कविता देकर। ऐसे खुद्दारों का क्या ? उनके लिखे को कैसे खोजा जायगा जो आप तक कुछ भी नहीं पहुँचाना चाहते और पटल पर कौन हैं ? आत्मप्रचार के हाय हल्ले में निमग्न या संग्रह के कवर पेज तक प्रचारित करते लज्जाहीन गैंगबाज़ मठाधीश आलोचना के हथियार तक कब्जाए हुए लोग ? अच्छा हो कि कविताएँ मंगाने के बाद नाम पहचान विहीन होकर ही आलोचित हों। बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़िए और तब देखिये कि दम कितना है विचार की ताज़गी कितनी है सलीका कैसा है वर्ना मुझे ख़ास उम्मीद नजर नहीं आती इस प्रयास में भी। आशा है आप इस कोशिश में समकालीन कविता के अतिवरिष्ठ मर्मज्ञ भी साथ रखेंगे जो फेसबुकिया पॉलटिक्स से सुदूर कहीं साधनारत हैं। आपके विचार भी जानना चाहूँगी। आदर सहित।
पुनश्च फेस बुक ही कविता का प्रांगण नहीं जबकि आप इस मसले में फेस बुक पर अतिनिर्भर दीख हैं क्या यह सीमित प्रयत्न भर न रह जाएगा ? खैर आशा है अन्यथा न लेंगे मशविरा और वार्ता भी पथ प्रशस्त करेंगे इस औत्सुक्य एवम् हार्दिक सम्मान के साथ...’’ बहन आपकी चिंता कविता की सखी की चिंता है। आपकी चिंता में मेरा भी स्वर है।
   अपनी ओर से आपकी चिंता में कुछ जोड़ना-घटाना चाहूंगा। जरा-सा। दरअसल जहांतक मैं कविता के मूल्यांकन में कमी देख रहा हूं वह आलोचक के साहस की कमी है। वह अपने को कविता की देवी का चाकर या पुजारी नहीं समझता, बल्कि खुद को कविता का धंधेबाज समझता है। उदाहरण तो यह भी है कि नागार्जन जैसे कवि कहते हैं कि ‘अगर कीर्ति का फल चखना है/आलोचक को खुश रखना है।’ नागार्जन का यह कहना आलोचना की आंख फूटने का का प्रमाण नहीं है ? आज आलोचक की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा खतरे में है। नौमीनाथ से लेकर मरे दोस्त तक सब के सब संदेह के घेरे में हैं। फिर आप चाहें तो यह सवाल कर सकती हैं कि मैंने अपने मित्र को इस काम में क्यों शामिल किया ? असल में मैं जानता हूं कि मेरा मित्र कहां कितना ढ़ीला होगा, कहां धीरे से कुछ कहेगा। दूसरों के बारे में आश्वस्त कम हूं। अपने मित्र के काम पर मेरी नजर रहेगी। जरूरत पड़ने पर मैं हाजिर रहूंगा। सारी कविताओं पर लिख तो मैं भी सकता हूं, पर चाहता हूं कि इधर की कविता पर काम करने वाले काव्यालोचक भी गौर करें। मैं तो गौर करूंगा ही। अपने मित्र अरविंद त्रिपाठी की दुर्बलताओं को जानता हूं तो उनकी शक्ति को भी जानता हूं। वे हमारे समय की कविता का अवगाहन मनोयोगपूर्वक करेंगे। जानता हूं कि कैसे दो बजे रात तक कविताओं के संग जागते हैं। आप यकीन करें कि वे नाम से बहुत प्रभावित नहीं होंगे। कम से कम उन क्षणों में जिनमें मैं उनके साथ रहूंगा। कविताओं को उत्तरपुस्तिका बनाकर कोड़िंग करना, फिर आलोचक को सौपना किसी भी आलोचक के लिए सम्मानजनक नहीं होगा। मैं तो यहां के अपने दुश्मनों के अपमान की भी चिंता करता हूं। दरअसल इस तरह के प्रयास आलोचक की आंख खोलने के लिए ही होते हैं। आपकी इस बात पर ध्यान जा रहा है कि आपने ठीक ही ध्यान दिया कि यह सारा आयोजन फेसबुक पर आधारित हो जा रहा है। एक बात जरूर है कि यहां मित्रों से मैंने ऐसी कोई अपील तो नहीं की है कि फेसबुक के बाहर के मित्रों को फोन से इस आयोजन के बारे में बताएं। ऐसा इसलिए कि भरोसा है कि कविता के आयोजन को सभी कवि अपना आयोजन समझेंगे, बाहर के कवियों को बताएंगे। फिर भी आपने कहा तो अब अपील करता हूं कि मित्र फोन से बाहर के मित्रों को भी बताएं कि 15 दिसंबर तक दिये गये ईमेल के पते पर कविताएं भेज दें। वैसे अंत में यह कहना जरूरी है बहन कि यह सिर्फ एक छोटी-सी शुरुआत है, और भी लोग आएंगे जो इस काम को आगे ले जाएंगे। मैं खुद को सिर्फ नींव खोदने वाला मजदूर मानता हूं, कविता की नयी इमारत बनाने वाले कारीगर लोग आगे आयेंगे। शेषफिर। आपका...कविता के रिश्ते का एक भाई।








रविवार, 2 नवंबर 2014

यह न पूछें, क्यों लिखता हूँ

-गणेश पाण्डेय

   नवनीत जी, यह न पूछें कि मैं क्यों लिखता हूँ ? ‘सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी/ एक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है।’-दुष्यंत के एक शेर से शुरू करता हूँ। आप ने पूछा ही है तो कुछ तो कहूँगा। इसकी एक नहीं दो नहीं, कई वजहें हैं। पहली बात तो यह कि मेरी कुंडली में कवि होना लिखा था। दूसरी बात यह कि अपने भीतर का सब कहना बहुत जरूरी था, मैं उसके बगैर रह ही नहीं सकता था। तीसरी बात यह कि मुझे बंगाली जी मिल गये। चौथी बात यह कि मुझे हिन्दी के कापुरुषों से रोज लड़ना था। पाँचवी बात कि हिंदी के ये चोट्टे मुझे गुप्त कवि बना कर रखना चाहते थे। छठी बात यह कि यहाँ के एक डॉन ने हिंदी के राक्षसों की एक टीम बना ली थी और जिसे अक्सर मेरे खिलाफ प्रमोट करते रहते थे। अपने कंधे पर बैठाकर घूमते थे। सातवीं बात यह कि मैं हिंदी का मर्द था, मैदान छोड़कर भाग नहीं सकता था। आठवीं, नौवीं, दसवीं, न जाने कितनी वजहें। मैं समाज को शर्तिया बदल देने के लिए नहीं लिखता था, क्यों कि सिर्फ कविताएँ समाज को बदल देंगी, यह नहीं मानता था। हाँ, अलबत्ता इसलिए लिखता था कि यह दुनिया बदल जाय, सुंदर हो जाय, इस भाव से लिखता था। प्रतिरोध की चिंगारी को नित सुलगाते हुए यह जानता था कि दुनिया को कवि नहीं, कार्यकर्ता बदलते हैं, जनता क्रांति करती है, वह जनता जो ढं़ग से साहित्य पढ़ना भी नहीं जानती। इसीलिए खुद को कवि कम और कविता का कार्यकर्ता अधिक समझता था। यह भी जानता था कि हमारे समय के अधिकांश कवि डरपोक हैं, इसलिए कविता और दुनिया का सच एक साथ कहने के लिए लिखता था। नाम की लालसा बचपन में रही होगी, पर जब बालिग हुआ और साहित्य में कदम-कदम पर गंदगी के दर्शन हुए तो कविता का सफाई कर्मचारी बनना ज्यादा रास आया। यह सब जानते हैं कि नाम और इनाम के लिए मैं हरगिज-हरगिज नहीं लिखता और न कभी नाम और इनाम की इच्छा से प्रेरित होकर कोई काम करूँगा। लिखने के साथ पत्रिका निकालने की वजह भी साहित्य में हस्तक्षेप करना भी एक बड़ी वजह थी और है। आपने देखा है कि अब तक मैंने साहित्य के सच को फटकार कर कहा है। जब अपने भीतर के स्वार्थ को आदमी मार देता है तो वह पृथ्वी का सबसे निडर बन जाता है। आप जानते हैं कि मैं साहित्य के किसी भी डॉन-फॉन से नहीं डरता, हाँ डॉन-फॉन ही मुझसे डरने लगें तो दूसरी बात है।
    साहित्य मेरे लिए सच का मंदिर है जो समाज को सुंदर बनाने के लिए स्वप्नों की दीवार और मेहराब पर टिका हुआ है। इस मंदिर में जब गंदगी फैलाने वालों को देखता हूँ तो आगबबूला हो जाता हूँ। साहित्य मेरे लिए मनुष्य की शक्ति का स्रोत है, विवेक और साहस का स्रोत है, मनुष्य की वृत्तियों और संवेदनाओं को परिष्कृत करने का स्रोत है। साहित्य मनुष्य की आत्मा के पीने के पानी का निर्मल झरना है। मुझे इस पानी के धंधे से शिकायत है। मिनरल वाटर जो बाजार में बिकता है, उससे भी शिकायत है तो इस स्तर पर कि सरकारें अगर देश में पीने का शुद्ध पानी नहीं मुहैया करा सकीं तो यह उनकी और इस पूँजीवादी निजाम की विफलता है। साहित्य के जिस पानी की बात कर रहा था, उस पवित्र झरने-आप चाहें तो नदी कह लें-में देश की साहित्य अकादमियों, विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों, प्रकाशन उद्योग, हिन्दी के नामी और इनामी डाकू-बदमाशों ने अपनी गंदगी का पनाला डाल रखा है। आप ही बताएँ कि इस देश और हिन्दी की दुनिया में एक लेखक अच्छा लिखे भी और अपनी किताबें छपवाने के लिए प्रकाशकों के दरबार में अपना शीश झुकाए, ऐसा क्यों ? क्या यह हिन्दी साहित्य की बड़ी गंदगी नहीं है ? एक लेखक अच्छा लिखे और आलोचकों के चरणरज लेने के लिए साष्टांग प्रणाम करे, यह साहित्य की गंदगी नहीं है ? क्या तुलसीदास या मलिक मुहममद जायसी या सूरदास, रामचंद्र शुक्ल के पास चापलूसी करने के लिए आए थे ? कबीरदास, हजारी प्रसाद द्विवेदी के पास बनारस का पान लेकर पहुँचे थे ? निराला जी ने रामविलास जी का पैर दबाया था क्या ? फिर आज का आलोचक हरामजादा यह अपेक्षा क्यों करता है कि लेखक उसके चरणरज को अपने माथे से लगाए और अपनी पीठ पर उसको सवारी कराए ? आप ही बताएँ कि यह हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी गंदगी है कि नहीं ? आखिर नागार्जुन को यह क्यों कहना पड़ा -
‘अगर कीर्ति का फल चखना है
आलोचक को खुश रखना है’
आलोचक पुलिस के सिपाही की तरह दो-दो रुपये के लिए कविता के ट्रकों को बीच सड़क पर रोक दे रहा है। बिना दो रुपये लिए जाने ही नहीं देता। यह तो कोई गणेश पाण्डेय की तरह कविता के ट्रक का उजड्ड ड्राइवर हो या बैलगाड़ी का मस्त गाड़ीवान तो बैरियर-सैरियर को तोड़-ताड़कर चल देगा। बाकी लोगों की तो जान साँसत में है। आपसे एक राज की बात बताता हूँ कि मैं तो सीधा-सादा एक छोटा-मोटा कवि था और हूँ, मैं आलोचना में आया ही हिंदी के हरामजादे आलोचकों की हरामजदगी के खिलाफ। कुछ आलोचक जरूर ऐसे हैं जिनमें गंदगी कम है। कुछ में तो गंदगी बिल्कुल कम मिलेगी, लेकिन साहस की कमी तो हर जगह एक जैसी है। एक आलोचक को डरते देखा कि हाय अमुक का नाम लूँगा तो अमुक नाराज हो जाएंगे, अमुक मेरी बेटी को हिंदी विभाग में नियुक्त नहीं होने देंगे। एक आलोचक को देखा कि अमुक का नाम लूँगा तो अमुक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में मेरी नियुक्ति की संभावना खत्म हो जाएगी, एक को डरते देखा कि अमुक की प्रशंसा करूँगा तो अमुक अलेखक और हिंदी का छुटभैया डॉन नाराज हो जाएगा। लंबी कहानी है भाई डरपोंक आलोचकों की। आलोचक तो आलोचक, नामी-गिरामी कवि भी बहुत डरपोंक दिखे। एक बड़े भारी कवि रहते हैं राजधानी में और पूरब के महाकवि समझे जाते है, वे भी डरते रहे कि हाय इस कवि से दूर रहो, मेरे चेले-चापड़, मेरे संगी-साथी नाराज हो जाएंगे, अलेखकों के साथ रह लेना ठीक, हिंदी के हरामजादों के साथ दारू पी लेना ठीक मगर इस फटीचर कवि से दूर रहो। कहा न, कहानी लंबी है।ं सार यह कि हिंदी की गंदगी को साफ करने के लिए कलम की धार को तेज किया। भीतर के स्वार्थ को- नाम-यश की आकांक्षा को- मार डाला, इन्हीं हाथों से किया है खून, लीजिए देखिए, तब कहीं जाकर सच कहना और सच के लिए लड़ना सीखा है। मेरे लिए साहित्य की कोई विधा हो फर्क नहीं पड़ता, दर्द अगर सच्चा है तो आप गद्य में ही नहीं कविता में भी जीवन का संग्राम लिख सकते हैं। अब एक कविता आपको न दिखाऊँ, यह कैसे हो सकता है-कविता का शीर्षक है-कम कविता के दिन थे-
कुछ करने के दिन न थे
कविता के लिए मरने के दिन न थे
जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।
रोशनी का काम उनके जिम्मे न था
जिनके पास कुछ ढँका-छिपा न था।
गजब का मंजर था सामने
टुटही हरमुनिया थी
वक्त-बेवक्त राग जैजैवन्ती गवैया थे
वही झाँझ-करताल वही बजवैया थे
बड़े-बड़े घुटरुन चलवैया थे
कुछ थे जो
बाहरी जहाजों पर कूद-कूद चढ़वैया थे
कई तो अपने ऊपर ग्रंथ छपवैया थे।
रटन्त विद्या के दिन थे
एक कविता दौर के अन्तिम दिन थे
दृश्य उन्हीं का था
जिनके जीवन में कोई संग्राम न था
जीवन छोटा था
कम कविता के दिन थे
फिर भी कुछ पागल थे बचे हुए
जिनके हौसले थे कि कम न थे।
(‘जल में’ से)
   यह कविता अपने समय की कविता और कवियों का पोस्टमार्टम है। इसे देने की वजह यह कि आप जान सकें कि एक खराब कविता और खराब कविता को दुरुस्त करने वाली कविता में क्या फर्क है ? एक वजह यह भी है कि आप जान सकें कि यह समय कविता के लिए कितना मुश्किल समय है। इस मुश्किल समय में जाहिर है कि मैं कोई आसान काम कैसे कर सकता था। आसान काम तो वह था जो ऊपर दिख रहा है कि एक पागल को छोड़कर बाकी लोग जिसे कर रहे थे। आप चाहे जितना बुरा मानें, लेकिन ‘‘मुश्किल काम’’ नाम की एक कविता और यहाँ देना चाहूँगा, ताकि जान जान सकें कि कौन आसान काम कर रहा था और कौन मुश्किल काम-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ जाता था वह अक्सर धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे जो मेरे साथ तो थे
पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अति प्राचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इंकार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-
‘पीना और शैतान के संग ?’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
(‘जल में’ से)
    दरअसल यह वह फर्क है जो मेरे जैसे कविता के मामूली कार्यकर्ता और हमारे समय के नामी-इनामी कवियों के बीच है। मैं यह नहीं कहता कि मैंने अच्छी कविताएँ लिखी हैं, पर यह कहता हूँ कि मेरी कविताओं में मेरे जीवन का भरपूर खुरदुरापन है। आप इस खुरदुरेपन को कोई भी नाम दे सकते हैं। आप ‘मर्दाना’ के अर्थ को लिंग से जोड़कर देखने की जगह शक्ति के चेहरे के रूप में देखें तो कह सकते हैं कि मैंने एक अर्थ में मर्दाना कविताएँ और गद्य लिखने की कोशिश की है। मेरा मानना है कि एक छोटे से छोटा कवि भी अपने भीतर सबसे निचले तल में पक्का घर बना कर रहने वाली नाम और इनाम की कमजोरियों को दूर कर ले तो वह भी अपने समय की कविता की सच्ची राह पर चल सकने का कमाल कर सकता है , जिस पर मैंने बस अभी पहला डग ही रखा है।
     कहना जरूरी हे कि साहित्य की भ्रष्ट सत्ताओं के सामने आत्मसमर्पण करने वाले लेखक साहित्य के कीट-पतंग तो हो सकते हैं, हिंदी के सच्चे लेखक नहीं। जाहिर है कि सिर्फ आत्मसंघर्ष ही लेखक के महत्व को जानने की पहली और सबसे बड़ी कसौटी है। एक लेखक जब हिंदी के किसी माफिया के सामने अपनी गर्दन झुकाता है तो सिर्फ़ उसकी गर्दन नहीं झुकती है, उसकी आत्मा झुक जाती है, उसका काव्यविवेक धूल धूसरित हो जाता है, उसकी आलोचना के लोचन में मोतियाबिंद हो जाता है, वह अपने समय के झूठ-मूठ के महाजनों का पिछलग्गू बनकर लेखक के स्वाभिमान की हत्या करता है। ऐसे झुंड में भेड़-बकरियों की तरह जीना सबसे नहीं हो पाता है भाई। ऐसे लोगों को राजधानी के साहित्य का राजपथ मुबारक, मुझे अपनी स्वाधीन कुटिया भली। दरअसल साहित्य दृष्टि, विचार, मूल्य, संवेदना और स्वप्न का घर है, जब एक दुर्बल लेखक उसे नाम और इनाम का कारखाना समझ लेता है तो वह साहित्य में जीवन का नहीं मृत्यु का वरण करता है। मेरे लिए साहित्य आत्मा का फाँसीघर नहीं है। मेरे लिए कविता एक अर्थ में मनुष्य का पुनर्जीवन है, इस नये जीवन में हम अपने रचना के ठीक पहले के जीवन में हुई टूट-फूट को ठीक करने की कोशिश करते हैं। यह काम कविता के प्रति सच्चे समर्पण का है। जब लेखक का ध्यान कुछ और पाने और जल्दी से पा जाने की ओर होगा तो वह अपने इस दायित्व से विमुख हो जाएगा।
     मेरे लिए तनिक सुविधाजनक यह कि आपने यह पूछा है कि मैं क्यों लिखता हूँ, यह नहीं पूछा है कि जो लिखता हूँ, वह क्यों लिखता हूँ ? नही ंतो मुझे सच बताना पड़ता। सच यह कि जैसे और जो-जो और सब लिखते हैं, उस तरह और वह मैं नहीं लिखता हूँ। इसलिए कि मैं न तो फर्जी क्रांति का बिजूका बनना चाहता हूँ और न अपने समय के साहित्य की मुख्यधारा में बह जाना चाहता हूँ। एक लेखक खुद को समय के अँधेरे से नहीं बचाएगा तो दुनिया को सुंदर बनाने का स्वप्न क्या खाक देखेगा ? इस देश को फासीवादी ताकतों से मुक्त कराने का स्वांग करने वालों करी सच्चाई उस वक्त उनके पतलून से बाहर आ जाती है, जब वे साहित्य की भ्रष्ट और क्रूर सत्ता के सामने घुटने टेकते हैं। नाम और इनाम को छोड़िये, कुछ कार्यक्रमों बुलाये जाने के बहुत मामूली स्वार्थ में हिंदी के तमाम छुटभैयों को फिसड्डी महाप्रभुओं के सामने साष्टांग लेटकर प्रणाम की मुद्रा में देखता हूँ तो लगता है कि हम हिंदी के सचमुच के नर्क में तो नहीं आ गये हैं ? देखिए यह देखना बहुत आसान है कि सामने बैठा लेखक किस कोटि का है ? आप उसकी एक रचना को छुएँ या उसके मुखारबिंद से दो शब्द झरने दे ंतो पता चल जाएगा कि इस बंदे की असली जाति क्या है ? जैसे फर्जी भक्ति होती है, उसी तरह फर्जी सांप्रदायिकता विरोध होता है, उसी तरह पूँजीवाद का फर्जी विरोध होता है, ठीक वैसे ही सामंतवाद का फर्जी विरोध दिखता है। आखिर नाम और इनाम सामंती मूल्य है या नहीं ? भक्तिकाल की बड़ी कविता में नाम और इनाम की आकांक्षा है या मुक्ति की ? गौर से देखिए तो वह मुक्ति भी आध्यात्मिक मुक्ति के भीतर सामाजिक मुक्ति की बड़ी और जनाकांक्षा की अभिव्यक्ति है। मैं जो लिखता हूँ, वह इन्हीं फर्जी लेखकों की गंदगी साफ करने का साबुन है। झाग भले ही कम देता हो , पर मैल बहुत अच्छी तरह काटता है, यहाँ तक कि पतलून तो पतलून, चमड़ी भी बाजदफा कट जाती है। यह कहना गलत है कि मैं चमड़ी काटने के लिए लिखता हूँ, पतलून साफ करने के लिए नहीं। काफी पहले आलोचकों और आलोचना पर लिखे गये एक मामूली पर जिसे हमारे समय के दूसरे नंबर के एक आलोचक ने हिंदी आलोचना की अब तक की सबसे बड़ी लफंगई कहा था, उसका बड़ा विरोध हुआ कि उसमें लेखकों की चमड़ी काटी गयी है, जबकि मैंने तो सिर्फ मैल साफ करने की कोशिश की थी। आखिर उस लेख में जिस आलोचना में जिस जातिवाद पर प्रहार था, आलोचना में जिस मुंशीगीरी पर चोट थी, लेखिकाओं के साथ संपादक और आलोचक जो शोषण और नाइंसाफी कर रहे थे,, साहित्य के तमाम अँधेरों में दियासलाई जलाने की कोशिश की गयी थी, वह सब क्या था ? मेरा मानना है कि आलोचना की धंधई ही हिंदी की दुर्दशा की सबसे बड़ी वजह है। इसीलिए हिंदी के बेटे का फर्ज निभाता हूँ। जो जरूरी है, वह लिखना जरूरी है। सांप्रदायिकता के विरोध को न तो बारबार रिपीट करना जरूरी है और न सिर्फ किसी एक संगठन का नाम लेना जरूरी है, कहो तो ऐसे कि वह जितनी अपनी समय में हो उतना ही आने वाले समय में ? आज जो संगठन दिख रहे हैं, कल उसी तरह के दूसरे संगठन दूसरे नाम से आ सकते हैं। यह मेरा मानना है, मैं इस सोच के साथ सांप्रदायिकता का विरोध करता हूँ अपने लेखन में। ‘ओ ईश्वर’ लिखता हूँ, ‘गाय का जीवन’ लिखता हूँ तो ‘सबद एक पूछिबा’ भी लिखता हूँ। जो लिखता हूँ, वह इस तरह लिखता हूँ कि चेहरा खुला रहे और पाठक उसे पहचान ले। कविता लिखता हूँ, भाषण लिखने से बचता हूँ। पैर में पाजामा पहचनता हूँ, बालों में कंघा करता हूँ अर्थात गद्य में गद्य लिखता हूँ और कविता में कविता। मैं लिखता हूँ तो अपनी तरह लिखता हूँ। अपने अँगूठे का निशान लगाता हूँ। किसी नामी-इनामी कवि का फर्जी दस्तखत अपनी कविता में नहीं करता हूँ। मैं लिखता हूँ तो सौ फीसदी मैं लिखता हूँ। मैं लिखता हूँ क्यों कि मैं लिखे बगैर रह नहीं सकता। लिखना छोड़ दूँगा और अपनी तरह लिखना छोड़ दूँगा तो मर जाऊँगा। जीने के लिए लिखता हूँ। अमर होने के लिए नहीं लिखता हूँ। कविता पर मर-मिटने के लिए लिखता हूँ। ऊपर कह चुका हूँ- कविता के लिए मरने के दिन न थे/जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।’ फिर भी कवि स्वभाव का क्या करूँ। कुत्ते के स्वभाव में चमड़ा प्रेम है तो सहृदय का स्वभाव है अच्छी कविता पर रीझना। यहाँ मुझे कोई डरके मारे पूछे न पूछे कोई फर्क नहीं पड़ता। लगें रहें सब यहाँ के साहित्य के डॉन और उनके गैंग के छुटभैयों के पीछे-पीछे, धुलते रहें उनकी धोती इत्यादि और करते रहें उनकी पूजा, न पूछें मुझे जैसे बंगाली जी को नहीं पूछते, सच्ची कविता को नहीं पूछते। कोई फर्क नहीं पड़ता। आप जैसे मित्र बहुत हैं, पूछते रहें, बहुत है। दरअसल मैं हिंदी के कापुरुषों के लिए नहीं, हिंदी के बेटों के लिए लिखता हूँ।



गुरुवार, 18 सितंबर 2014

कसौटी यह कि पहले कवि की आँख का पानी देखें

-गणेश पाण्डेय
स्वप्निल श्रीवास्तव का नया संग्रह आज ही मिला है। स्वप्निल जिला-जवार के हैं। उनका हक बनता है कि सब काम रोक कर उनका संग्रह देखूँ। स्वप्निल भी यूपी के सिद्धार्थनगर जनपद के हैं, जो पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बस्ती जनपद का हिस्सा था। सनद के मुताबिक स्वप्निल मुझसे आठ माह बड़े हैं, पर कविता में मुझसे पहले और मुझसे काफी प्रतिष्ठित हैं। यों कहने के लिए इसी जनपद के और असल में दिल्ली के बाबा विश्वनाथ त्रिपाठी भी हैं। बाबा पंडिज्जी के अर्थ में कह रहा हूँ। वे चहुँओर पंडित हैं। बस अपने जनपद के कुछ नहीं हैं। उन्होंने खुद एक बार मेरे सामने सिद्धार्थनगर में खुद को घर का जोगी जोगड़ा कहा था। जाहिर है कि वजह वे खुद हैं। बहरहाल, छोड़िये अपने जनपद के ऐसे किसी पुरनिया की बात। बात तो हमउम्र स्वप्निल की करेंगे, जो हमवतन हैं और मुझे हमेशा हमवतन लगते हैं। भाभू पाने के बाद कभी कोई ऐंठ इस कवि में नहीं दिखी। कम से कम मुझे। कुछ और भी होंगे जो भाभू के बाद भी धरती पर रहते हैं। ऐसा इसलिए कहता हूँ कि कुछ कवि तो ऐसे छोटे-मोटे इनाम पाने के बाद आसमान में उड़ने लगते हैं। कहना यह है कि स्वप्निल आसमान में उड़ने वाले नहीं, सचमुच की धरती के कवि हैं। गाँव-जवार और एक अर्थ में कस्बाई मन के कवि हैं। शायद इसीलिए उनके प्रगतिशील में शील अलग से लगा हुआ देखता हूँ। नहीं तो आज तमाम ऐसे प्रगतिशील कवि दिख जाएंगे जिन्होंने गाँव और कस्बे के शील को तज कर शुद्ध शहराती बनकर साहित्य में काफी प्रगति की है। असल में जैसे-जैसे वाणिज्य हमारे परिवेश के कण-कण में एक-एक साँस में समा गया है, साहित्य की दुनिया में भी लेन-देन का एक नया दौर चला है। एक धंधा चल निकला है। पहले दोस्तो के बीच अलीबाबा और चालीस चोर का एक मुहावरा खूब चलता था, इधर साहित्य में एक बाबा या एक ठाकुर और चार सौ चोर का मुहावरा शुरू हुआ है। हाँ, यह सच है कि मेरे गद्य का अपना अलग रंग है, इसलिए किसी भी बात को मुहावरे में कहने लगता हूँ। कहने का आशय यह कि साहित्य का एक नेटवर्क है। उससे जुड़े हैं तो मालामाल, नाम-इनाम इत्यादि भरपूर। कुछ इनाम तो स्वप्निल को भी मिले, पर कभी इनामी डाकू जैसा कुछ लगे नहीं। स्वप्निल की यह सहजता उनकी कविता का आधार है। इसीलिए स्वप्निल कभी खाँटी राजनीतिक कवि, खाँटी सांगठनिक कवि या खाँटी क्रांतिकारी कवि लगे नहीं, बावजूद इसके कि उनकी कविताओं में राजनीतिक संदर्भ कभी कम नहीं रहे या परिवर्तन की आवाज कभी गुम नहीं हुई। कह सकते हैं कि एक सहज प्रगतिशील कविता का स्वर स्वप्निल की कविता की पहचान है, लेकिन इस प्रगतिशीला की राह में उनकी निजता कभी बाधक नहीं रही। सच तो यह कि अपनी निजता को तज कर ढंग का प्रगतिशील कवि हुआ भी नहीं जा सकता है। मैं स्वप्निल के बारे में कुछ अधिक कहने के मूड में नहीं था, पर कक्षा के लिए निकलने में कोई तीस मिनट का वक्त था, सोचा क्यों न यह सारा का सारा वक्त अपने जिला-जवारी के लिए खर्च कर दूँ, आखिर मैं दिल्ली का कोई बाबा-साबा तो हूँ कि सारा जीवन औरों के लिए और अपने जिला-जवार के लिए नहीं । कम से कम मैं इतना स्वार्थी नहीं हो सकता हूँ भाई। दुश्मन की भी कविता अच्छी हो तो रुक कर देखूँगा और इत्मीनान से एक बार जोरदार ढं़ग से साँस खींचकर वाह कहूँगा, फिर आगे बढ़ूँगा। यह तो स्वप्निल की कविता है। उस स्वप्निल की, जिसकी हँसी बाँध लेगी और जिसकी डबडब आँखें खींचकर अपने में डुबो लेंगी। जब तक है जीवन, स्वप्निल जैसे कवियों का साथ है। यह स्वप्निल की नये संग्रह का नाम भी है- जब तक है जीवन।
    स्वप्निल के लिए कविता का अर्थ जीवन है। आप चाहें तो सुविधा के लिए पर्याय कह लें। स्वप्निल के लिए भी जीवन का पर्याय कविता ही है। जीवन का एक छोर यर्थाथ की सख्त चट्टान पर टिका है तो दूसरा भावना के समुद्र के सबसे निचले तल में। इस तरह भी कह सकते हैं स्वप्निल की कविता की नदी बुद्धि और हृदय के दो पाटों के बीच बहती है। आप यह न समझें कि मैं स्वप्निल की कविता की तारीफ में कोई पर्वत बना रहा हूँ या समुद्र लाँघ रहा हूँ। यह सब जो कह रहा हूँ, स्वप्निल जैसे हजारों कवियों में मौजूद है। यह सब कह इसलिए रहा हूँ कि आप यह जाने कि मेरी दृष्टि में स्वप्निल कवि है, कविता के व्यापारी नहीं। कविता के कार्यकर्ता हैं, इंजीनियर नहीं। खुरदुरे हाथों से कविता की सड़क बनाते हैं, कमीशन नहीं खाते हैं। कविता है तो कविता ही है, लेख नहीं, निबंध नहीं, कुछ और नहीं। स्वप्निल कविता की बुनियादी शर्तों को कभी नहीं तजते। कहीं-कहीं यथार्थ का दबाव उन्हें बतकही तक खींचकर जरूर ले जाता है, पर अगली कविता में वापस कविता में लौट आते हैं। गाँव स्वप्निल के यहाँ लोक के मुहावरे में पहले की कविता की छौंक के साथ नहीं, बल्कि संवेदना के स्तर पर यथार्थ के आलोक में दिखता है। ‘हलवाहे’ कविता आप खुद देखें-
हलवाहे दिखते नहीं
मैंने सोचा-
वे बैलों के आसपास होंगे
लेकिन बैल कहाँ हैं ?
तो चलो हलवाहे को हल और
जुआठे के आसपास खोजा जाय
लेकिन अफसोस वे वहाँ नहीं हैं

हो सकता है कि हलवाहे खेत
जोत रहे हों
हाँ वे खेत में शर्तियाँ होंगे
लेकिन वे वहाँ भी नहीं मिले
उन्हें खोजने की यह कोशिश भी
बेकार गयी

किसी ने बताया हलवाहों के बिना
जोते जा सकते हैं खेत
यह मेरे लिए दुखद सूचना थी
हलवाहों के बिना खेत की
कल्पना नहीं होती
लेकिन हमारी कल्पना से ज्यादा
घटित हो रही हैं दुर्घटनाएँ

यह मानने में वक्त लगेगा कि
हलवाहे नहीं रहे
उसी तरह हमें एक दिन यह भी
सुनना पड़ सकता है कि खेत
नहीं रहे।

लेकिन मेरी दिलचस्पी स्वप्निल की राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ से जुड़ी कविताओं के साथ उन कविताओं में भी है जहाँ स्वप्निल अपने वजूद के साथ, अपने निजी संसार के साथ, कवि होने की पहली शर्त के साथ के साथ दिखते हैं। जिस कवि की आँख में आँसू नहीं, वह कवि, कवि नहीं, कविता का दलाल है। कहना तो कुछ और चाहता हूँ, पर दलाल शब्द की व्यंजना अपना काम कर देगी। हाँ, तो आते हैं उस कविता की ओर, जिसका जिक्र अपने एक लेख में अन्यत्र कर चुका हूँ और जिसे यात्रा में दे चुका हूँ-सूई धागा :
तुम सूई थी और मैं था धागा
सूई के पहले तुम लोहा थी
धरती के गर्भ में सदियों से
सोई हुई

तुम्हें एक मजदूर ने अंधेरे से
मुक्त किया
उसी ने तुम्हें तराश तराश
बनाया सूई
ताकि तुम धागे से दोस्ती
कर सको

धागे के पहले मैं कपास था
जिसे मां जैसे हाथों से चुनकर
चरखे तक पहुँचाया गया
कारीगरों ने मुझे बनाया धागा

मैं अकेला भटकता रहा
और एक दिन मैं तुमसे मिला
इस तरह हम बन गये
सूई धागा
और साथ साथ रहने लगे

तुम्हारे बिना मैं रहता था
बेचैन
और मेरे बिना तुम
रहती थी अधीर

हम दोनों मिलकर ओढ़ते रहे
जिंदगी की चादर
और अपने सुख-दुख को रफू
करते रहे

एक दिन तुम मृत्यु के अंधेरे में
गिर गयी
मैं रह गया अकेला

जब भी मैं तुम्हारे बारे में
सोचता हूँ
तुम मुझे चुभती हो
आत्मा तक पहुँचती है
तुम्हारी चुभन।

      इस तरह की कविताओं को स्वप्निल की कविता की कसौटी मानता हूँ। यों यह कसौटी किसी भी भले कवि के लिए हो सकती है कि सबसे पहले उसकी आँख का पानी देखें। कुछ मित्रों को लग सकता है कि दूसरे कवियों पर एकाध पैराग्राफ कहे और स्वप्निल की कविता पर कई पैराग्राफ।  इस आरोप के जवाब में सिर्फ इतना कहना है कि मैं कोई दिल्ली का बाबा नहीं हूँ जीवन में बाहर के लोगो के लिए करता रहूँगा, अपने जिला-जवार के कवियों को हिंदी के आदमखोर जानवरों के हिस्से में छोड़कर अपनी मिट्टी का कर्ज उतारे बिना चल दूँगा। अंत में मित्रो आपसे विनम्र प्रार्थना है कि स्वप्निल की कविता को एक भले कवि की कविता के रूप में देखें, मेरे जिला-जवार के कवि के रूप में हरगिज नहीं, वह तो मैं ऐसे ही कह रहा था।
 (नोट : यह संग्रह पाने के बाद शिष्टाचारवश एक त्वरित प्रतिक्रिया है। इसे संग्रह की पुस्तक समीक्षा के रूप में न देखें।)


रविवार, 29 जून 2014

बच्चों को बताएँ कि सिर्फ एक फूल क्यों नहीं

-गणेश पाण्डेय
 
कुछ राजे-रजवाड़े या रईस लोगों के बच्चों की तरह मेरी प्रारंभिक शिक्षा घर पर विशेष शिक्षकों की देख-रेख में नहीं हुई और न तो बहुत नामी-गिरामी अर्थात किसी दूसरी जगह के अमीरों के बच्चों वाले स्कूल में हुई। कविता का सबसे पहला पाठ घर पर नीम की छड़ी से ,  जो पिता जी के हाथ में थी। मैं स्कूल जाना नहीं चाहता था, बहुत से बच्चों की तरह खेलने- कूदने को ही जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा समझता था। असल में यह उम्र ही ऐसी थी। तब स्कूल भी ऐसे कहाँ थे जिनमें सबसे छोटी कक्षा में जाने पर चॉकलेट मिलती ? हाँ, उस वक्त मेरे बहुत छोटे-से कस्बे में जो एक ग्रामसभा थी, दो स्कूल थे, एक प्राइमरी स्कूल था जो सरकारी था और एक गैर सरकारी। उस गैर सरकारी स्कूल के कर्ताधर्ता तेलिया पंडिज्जी थे, हम सब उन्हें इसी नाम से जानते थे। साँवला चेहरा, दरमियाना कद, धोती-कुर्ते की पोशाक और कड़क आवाज, बाद में ऐसी ही एक शानदार आवाज सबसे ऊँची कक्षा में दुबले-पतले और नाटे कद के एक कवि-आलोचक गुरु में दिखी थी। तेलिया पंडिज्जी की आवाज तो बहुत अच्छी थी ही, ज्ञान-वान की पहचान भला हम बच्चों को उस वक्त कहाँ थी, पर सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली बात उनकी लिखावट थी। श्यामपट्ट पर क्या मोती जैसे सुंदर अक्षर लिखते थे। उन्हीं सुंदर अक्षरों ने कुछ सीखने के लिए प्रेरित किया। वे हाथ पकड़कर भी पटरी पर खड़िया मिट्टी से लिखवाते थे। भाषा को सीखना ही मेरे लिए कविता के देश में जाने का पहला पासपोर्ट था। हालाँकि कविता लिखना कुछ और वक्त बाद शुरु किया। उठो लाल अब आँखें खोलो जैसी कविताओं से होते हुए आगे बढ़े। तेलिया पंडिज्जी के स्कूल में सिर्फ कक्षा चार तक की पढ़ाई होती थी, पाँचवीं में दाखिले के लिए प्राइमरी स्कूल में जाना पड़ा। वहाँ रामप्रकाश पंडिज्जी मिले। कड़क वे भी थे। सामने रेलवे लाइन थी और बगल में स्टेशन। पाँचवीं के बच्चे शरारती इतने थे कि रेल पर बिना टिकट बैठ कर पश्चिम के स्टेशन चिल्हिया नंबर एक करने चले जाते थे तो कभी पूरब के स्टेशन उस्का दो करने। रामप्रकाश पंडिज्जी ने एक ऐसे ही शरारती बच्चे को पीठ पर रेल की पटरी के पत्थर से जरा-सा ही कस कर मारा था और उसके आसपास के बच्चे ंके बस्ते भीग गये थे। कहना यह कि ऐसे ही बच्चों के बीच से निकल कर जब कस्बे के इंटर कालेज में दाखिला लिया तो वहाँ के प्रधानार्य आरछी सिंह तो बहुत धाकड़ प्रिसिंपल थे, पर मेरा ध्यान उनकी जगह हिन्दी के अध्यापक रमेश सिंह गुरु जी की तरफ आकर्षित हुआ। पहली बार जब मैंने ग्रामजीवन पर निबंध लिखा और उस पर रमेश गुरु जी ने जो तीन शब्दों का एक छोटा-सा वाक्य टीप के रूप में दर्ज किया, कई दिनों तक उस कापी को अपने सीने से लगाए रहा।  इसके तनिक पहले ही कविता लिखने की कोशिश में तुकबंदी शुरु कर दी, पर असल में कविता के प्रति अनुराग और प्रगाढ़ कस्बे में होने वाले मुशायरों और कविसम्मेलनो से हुआ। मेरे लिए पारंपरिक स्कूल ही नहीं साहित्य के पारंपरिक आयोजन भी साहित्य के स्कूल बने। किशोर जीवन में कृष्णबिहारी नूर जैसे शायर के शेरों ने मेरे भीतर न सिर्फ कविता, बल्कि जीवन के प्रति नजरिया भी बदला-
मैं एक कतरा हूँ मेरा वुजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।
  राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन ने भी जीवन को देखने की नयी दृष्टि दी। बुद्ध का घर मेरे घर से कुछ कोस की दूरी पर था। एक सबसे बड़ी चीज थी रात में गर्मियों में नीम के पेड़ के नीचे चारपाई डालकर सोना पड़ता था, कस्बे में किसी के घर बिजली थी नहीं, हाँ, सिंचाई विभाग की कॉलोनी में कोई बड़ा-सा जनरेटर था, जिससे सड़कों पर स्ट्रीट लाइट जल जाती थी। एक खम्भा मेरे घर के सामने भी था। बस रात में कागज-कलम लेकर बिस्तर पर लेटे-लेटे कुछ लिखता रहता। हालाँकि कविता सोचने की कुछ ऐसी जगहें भी होती थीं, जिनका जिक्र नहीं किया जा सकता। आशय यह कि पारंपरिक स्कूलों ने और गैर पारंपरिक स्कूलों ने कविता के प्रति रुचि पैदा की। भक्तिकाल और आधुनिककाल की कविताओं ने ही नहीं, मुशायरों और कविसम्मेलनों की कविताओं ने भी काव्यरचना के लिए प्ररित किया। मेरे कस्बे में कविता के लिए कोई कार्यशाला नहीं लगती थी। कुछ संस्थाएँ बनी जिन्होंने कवितायात्रा के अगले पड़ाव तक पहुँचाया। मैं, नजीर, सत्यप्रकाश, असलम और दूसरे कई साथियों ने मिलकर एक संस्था बनायी, एक छोटी-सी पत्रिका निकाली, पर यह सब साहित्य के मेरे पहले गुरु जो पेशे से चिकित्सक हैं, श्रद्धेय डा. सच्चिदानंद मिश्र के संरक्षण में हुआ। कविता लिखने की शुरुआत आदिकवि की तरह क्रौंच पक्षी के वध जैसी किसी घटना को देखकर नहीं हुआ, बल्कि जीवन की एक स्वाभाविक गति में आप से आप। हालाँकि एक तथ्य यह भी है कि मेरी कुंडली में कवि होना लिखा भी था। मेरे पिता जी ने जब एक जानकार को मेरे सामने ही दिखाया तो मैंने भी सुना। बहरहाल कुंडलियों में बहुत-सी बातें होती हैं, सब सही होतीं तो कोई बेरोजगार या दुखी रहता ? निराला जी की कुंडली में दो विवाह लिखे ही थे, पर हुआ ? कविजीवन के निर्माण की अपनी प्रक्रिया होती है, कुछ धीमी होती है।
        असल में कविजीवन का अपना वैशिष्ट्य होता है। पहला तो यह कि कवि की आँख उसे बेचैन करती रहती है, दूसरा उसका दिल। विशेष ये आशय सिर्फ यह कि दिखे सबकी तरह और हो तनिक-सा हटकर। हर कवि अपने जीवन में एक अर्थ में अपनी कविता का ही जीवन जीता है। कवि का जीवन और कविता का जीवन, दोनों में संगति ही अच्छी कविता को संभव करती है। हाँ, अच्छी कविता की समझ बनने में भी वक्त लगता है। मैं भूलता नहीं हूँ कि बहुत पहले एक बार विश्वनाथ जी पूछा कि अच्छी कविता लिखने के लिए क्या करना चाहिए ? उन्होंने बड़ी सहजता और विनम्रता से उत्तर दिया था कि अरे गणेश जी, यह सब लिखते-लिखते अपने आप हो जाता है। क्यों प्रश्न को टाल गये, इसका जवाब उनकी चिर-परिचित जासूस मुस्कान में ढ़ूँढ़ना चाहिए था,सोचता हूँ किसी दिन उनके घर जाऊँ और फिर से ढ़ूँढ़ू ? बहरहाल, यह विनोद ऐसे ही।
          मैं अपने बच्चों को कक्षा में कविता भिन्न प्रकार से पढ़ाता हूँ। आचार्यों की बात कहना जरूरी होता है तो भी कोशिश करता हूँ कि ऐसे कहूँ कि मेरी बात उन तक पहुँच जाय। उनके जीवन के आसपास की चीजों को उठाकर उन्हें बताना चाहता हूँ। ऐसा इसलिए कि पूर्वांचल के बच्चे, जेएनयू के बच्चे नहीं होते हैं। यहाँ तो सबसे ऊँची उपाधि लेने के बाद भी बच्चा एक साधारण प्रार्थना-पत्र ठीक से नहीं लिख पाता है। जिस अंचल में पीएचडी करके बच्चे पाँच-सात हजार की नौकरी करेंगे, वहाँ पढ़ाई का माहौल और स्तर भला क्या होगा ? जहाँ विश्वविद्यालयों के आचार्य हिन्दी की उन्नति की जगह ईर्ष्या-द्वेष और संस्थान की राजनीति में लगे रहेंगे तो यह सब नित्य देखकर बच्चे अच्छे कैसे बनेंगे ? हाँ तो कह रहा था कि कविता को कैसे समझाएँ! कोलरिज की इस बात को समझाने के लिए कि कविता उचित शब्दों का उचित क्रम है, उदाहरण देता हूँ कि नाई तुम्हारे बाल कैसे बनाता है, कान के बिल्कुल पास बहुत छोटा, फिर ऊपर थोड़ा-सा बड़ा, फिर ऐसे ही वह बालों को उचित क्रम देता है। यह भी बताता हूँ कि वह कितनी बार कैंची चलाता है, कितनी बार हाथ उठाता है, कितनी बार बाएँ-दाएँ, आगे-पीछे होता है। यह भी बताता हूँ कविता पान की पीक की तरह एकबार में बाहर नहीं हो जाती है, समय देना होता है। घुलाना होता है। पान की पीक है भी नहीं कविता, बहुत खास चीज है। बताता हूँ कि तुम्हारे जैसे बच्चे कितनी बार शीशे के सामने खड़े होकर कंघा करते हैं
           एकबार में जब कंघा नहीं हो पाता है तो कविता कैसे ? कई बार लड़के बिजली की गति से हजार बार कंघे को आगे-पीछे ले जाते हैं। इतना ही नहीं, जब वे पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं और जूते पैरों में डाल कर निकल रहे होते हैं, उस वक्त भी मुड़कर अपने बालों को एकबार फिर देख लेते हैं। बच्चों को यह भी बताता हूँ कि कोई-कोई बच्चे रात में सोने के पहले भी एक बार कंघा करना पसंद करते हैं। ऐसे बनती है कविता। इतना समर्पण , इतनी दीवानगी और सुदर दिखने की इतनी इच्छा से ही कविता भी सुदर बनती है। केवल आचार्य शुक्ल का ‘कविता क्या है’ निबंध ही नहीं महावीर प्रसाद द्विवेदी के  निबंध ‘कवि-कर्तव्य’ को भी ध्यान में रखना पड़ता है।
          जहाँतक बात लेखन कार्यशालाओं की है, इसे बहुत अच्छा माध्यम मानता हूँ, लेकिन जैसे कविता को जनता से जोड़ने के माध्यम मुशायरों और कविसम्मेलनों का पतन हुआ है, उसी तरह आज कविता की कार्यशालाएँ भी वह नहीं कर पा रही हैं जो उन्हें करना चाहिए। देखिए अपवाद भी है। कुछ कार्यशालाएँ अच्छी भी होंगी। मैं मानता हूँ कि छोटे बच्चों के लिए कार्यशालाएँ जिस रूप में चल रही है, उसके कुछ अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं, लेकिन किशोर या युवा कवियों के लिए, कविता की रचना-प्रक्रिया पर ही नहीं कविजीवन की रचना-प्रक्रिया पर भी कुछ बताना चाहिए। बताना चाहिए कि कवि भी भ्रष्ट और गंदा हो सकता, ऐसा होने से बचने के तरीके क्या हैं, ऐसे गंदे लोगों को कविता का प्रवक्ता या प्रशिक्षक बनने से कैसे रोकें, जिसे साहित्य अकादमी मिल गयी वह कविता का मान्य प्रशिक्षक कैसे बन गया ? जिसने जीवन भर इंजीनियरी करके खूब धंधा किया, करोड़ों कमाए और सड़के और भवन सब खराब बनाया, वह अच्छी कविता कैसे सिखएगा, जो अस्सी साल के बाद बच्चों का पुरस्कार पाने के लिए मचलेगा, वह अच्छी कविता कैसे बताएगा ? वह कैसे बताएगा कि अच्छी कविता के लिए एक कवि को नौ महीने तक प्रसव के लिए की गयी प्रतीक्षा की तरह घैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना पड़ता है। वह कैसे बताएगा कि आलोचना के लिए ही नहीं, कविता के लिए भी ईमान, धीरज और साहस की जरूरत होती है ?
      सच तो यह कि आज सृजनात्मकता के विकास के लिए ऐसी कार्यशलाओं की जरूरत है, जो बच्चों और युवाओं में कविता या रचना की किसी भी विधा के चरित्र और स्वभाव को ही नहीं, लेखक के चरित्र और स्वभाव से भी परिचित कराएँ। बताएँ कि बच्चों जब तुम्हारे माता पिता ने तम्हें जन्म देते समय किसी पुरस्कार की कामना नहीं की, बल्कि माना कि तुम्हारा आना ही उनके जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार है तो ये गंदे कवि अपनी कविता के लिए पुरस्कारकामना में मरे क्यों जाते हैं ? बताएँ कि अच्छा कवि अपनी कविता को ही कविजीवन का सच्चा पुरस्कार मानता है। पुरस्कार में सिर्फ एक कलम क्यों नहीं ? सिर्फ एक फूल क्यों नहीं ? सिर्फ पाठक का प्यार क्यों नहीं ?

(श्री महेश पुनेठा के बच्चों की कार्यशाला और पत्रिका के बहाने)







सोमवार, 23 जून 2014

बिगाड़ के डर से पुरस्कार का सच न कहें ?

-गणेश पाण्डेय
          मुझे ऐसा लगता है कि अपने समय में कवि, कविता और पुरस्कार का पूरा सच न तो पत्रिकाएँ छाप पाती हैं और न इस माध्यम पर आ पाता है। एक तीसरा माध्यम भी है मित्रो, जिसे समय कहते हैं। मूल्यांकन के मामलें में तो साहित्य का यह माध्यम अपने समय में बिल्कुल ही नहीं काम करता। यह काम तब करता है, जब काफी पानी सिर से गुजर चुका होता है। काफी कुछ बीत चुका होता है। काफी लोग किसी और लोक में कविता लिखने या आलोचना का धंधा करने जा चुके होते हैं। आशय यह कि जब उम्रदराज कवि और उनके चेले-चापड़ और उपकृत जन इस पृथ्वी से कूच कर चुके होते हैं। कवियों की मालाएँ, रुपये और शाल इत्यादि, मिट्टी में मिल चुके होते हैं या खर्च हो चुके होते हैं या उनके उत्तराधिकारी उसे फेंक-फाँक या फेँक-फाँक चुके होते हैं। तब साहित्य का सच्चा और निर्मम आलोचक समय प्रकट होता है और  अपना काम शुरू करता है।
        साहित्य का यह सबसे बड़ा और विश्वसनीय आलोचक ‘समय’ नहीं आता रहता तो बहुत से लेखकों ने अपने समय में धारा के विरुद्ध लिखना ही छोड़ दिया होता। बहुत से लेखक अच्छा लिखने के साथ खुशामद न करने की जिद छोड़ चुके होते। वे सब अपने वक्त की कविता के देवताओं की बैठक और आलोचना के दारोगाओं के थाने में उठक-बैठक करते हुए पूरी उम्र बिता चुके होते और उन्हें खुश करने के लिए न सिर्फ उनका अँगरखा धुलते रहते, बल्कि उनके सेवकों और दलालों की खुशामद की कला में अपने समय के तमाम कवियों की तरह पारंगत होते। बचाया किसने ? बस वही साहित्य के ‘समय’ जी ने।
           मित्रो, आप सोच रहे होंगे कि मैं काफी समय बाद फिर कवि, कविता, पुरस्कार पर क्यों कुछ कह रहा हूँ। असल में हुआ यह कि अभी बिल्कुल अभी हमारे समय के हिन्दी के एक अच्छे कवि को ज्ञानपीठ मिला है। यहाँ जो कुछ भी कहूँगा, पुरस्कृत कवि के प्रति असम्मान व्यक्त करने के लिए नहीं। यह बात स्पष्ट कर देना जरूरी है। केदार जी हमारे समय के तीन-चार अति महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। जिस पुरस्कार के बहाने बात कर रहा हूँ, उसे आज की तारीख में हिन्दी कवियों को देना हो तो जाहिर है कि यही नाम होंगे। यहा इन नामों से तनिक भी विरोध नहीं है। विरोध पुरस्कार की संस्कृति से है। आज की तारीख में पुरस्कार इन कवियों को नहीं, यदि भगवान को भी मिलता तो तब भी इस तरह की बातें होतीं। असल में हिन्दी कविता में पुरस्कार की संस्कृति के साथ ही अनुयायीपन भी खूब फैला है। कबीर, निराला, मुक्तिबोध के समय उनके इतने अनुयायी न रहे होंगे। ये अनुयायी इतना शोर करने लगते हैं कि लगता है कि आसमान सिर पर उठा लेंगे। इतना ही नहीं, ये अपने प्रिय कवि को महान ही नहीं मानते हैं, बल्कि बाकायदा उनकी कविता की नकल शुरू कर देते हैं। जाहिर है कि यह प्रवृत्ति हिन्दी कविता के सहज विकास की बाधक बनती है। अपने समय को प्रभावित करती है। अपने समय के साहित्यिक मूल्य को नुकसान पहुचाती है। ऐसे में साहित्य का जो अँधेरा ये निर्मित करते हैं, उसके मूल में हजार-पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर बड़े-बड़े पुरस्कार शामिल हैं। पहले कविता के इतने बच्चे पुरस्कार न थे कि हर युवा कवि एक पुरस्कार का बैट-बाल लेकर घूमे। इधर पुरस्कारों की दुकानें खुल गयी हैं। बहुत बड़ी दुकान भी खुल गयी हैं। ज्ञानपीठ हो, व्यास हा, साहित्य अकादमी हो, पुरस्कारों की एक लंबी पंक्ति है। ज्ञानपीठ ग्यारह शायद ग्यारह लाख रुपये का पुरस्कार है। अभी दो-चार दिन पहले विमल जी ने या किसी ने कहा कि यह पुरस्कार पाँच रुपये का होता तो क्या होता! असल में पत्रकार का दिमाग केवल कविता और आलोचना लिखने वालों से कुछ अधिक चलता है। ठीक चलता है।
   आखिर ज्ञानपीठ पुरस्कार को क्या भगवान ने खुद गढ़ा है ? उसकी निणार्यक समितियों में अपने समय के लेखक-अलेखक ही होते हैं या सीधे ईश्वर खुद आकर बैठते हैं ? दूसरी समितियों में भी तो ऐसे ही लोग बैठते हैं या अन्य पुरस्कारों की दूसरी समितियों में मिट्टी की मूर्तियाँ बैठती हैं ? फर्क केवल पैसे का है या और कुछ ? तो अब पुरस्कार के पैसे से तय होगा कि कौन अपने समय का बड़ा लेखक है ? रचनाओं से तय नहीं होगा ? केदार जी हों या कोई और, किसी भी हिन्दी कवि को यह पुरस्कार मिला होता तो वह कवि अपनी रचनाओं से बड़ा या छोटा नहीं होता ? फिर यह पुरस्कार क्यों ? कवि की कविता का सम्मान पाठक के हाथ में जाने से है या पुरस्कार की जूरी के सामने जाने से ? पुरस्कार को लेकर यह तो पृथ्वी की सबसे बड़ी नासमझी है भाई। संतोष की बात यह कि इस तरह की नासमझी हिन्दी के सभी लेखकों में नहीं है। उन लेखकों में ही है जो औसत लेखक हैं या पुरस्कारवादी लेखक हैं या जिन्होंने पुरस्कार को साहित्य का सबसे बड़ा सच और मूल्य मान लिया है या जो खुद हजार-पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर कुछ हजार या लाख के पुरस्कारों की कतार में हैं, न सिर्फ एक कतार में हैं, बल्कि कई कतार में हैं। किसी कतार में सिर फँसाया है तो किसी में हाथ, किसी में पैर, किसी में कुछ। ये पुरस्कारकामी लेखक हिन्दी के मर्द कवि नहीं है। जानता हूँ कि ऐसा कहते ही कई मित्र नाराज हो सकते हैं, पर क्या बिगाड़ के डर से पुरस्कार का सच नहीं कहूँगा ? स्पष्ट करना चाहता हूँ कि पुरस्कारकामी सिर्फ उन्हें नहीं समझता हूँ जो अपने घर में बैठे रहते हैं और कुछ लिखने के आधार पर पुरस्कार की कामना करते हैं। पुरस्कारकामी उन्हें कह रहा हूँ जो बाकायदा पुरस्कारों के लिए जहाँ-तहाँ नाक रगड़ते हैं। हद दर्जें की तिकड़म करते हैं। जाने दीजिए, क्या-क्या नहीं करते हैं। किसी ने एक दिन कवि के जीवन की बात की थी, कुछ ने कवि के जीवन को अदेख करने की बात की थी। शायद ऐसा ही कुछ था। न भी रहा हो, बस इतना कि हिन्दी में बड़ी कविताएँ कवि के बड़े जीवन के बिना संभव नहीं हुईं हैं। कवि का जीवन ही नहीं, बड़ी कविता के लिए साहित्य का बड़ा मूल्य भी जरूरी होता है। भक्तिकाल की महान कविता में पुरस्कार या अशर्फियों के लिए कहीं जगह है ? बाद की कविता में भी बड़ी कविता के सामने कहाँ ठहरती है पुरस्कारकामना ? इससे पहले कि कुछ और कहूँ, मर्द कवि के बारे में साफ कर दूँ कि शमशेर ने ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका लिखते हुए मुक्तिबोध को मर्द कवि कहा है। शमशेर न भी कहते मुक्तिबोध को मर्द कवि तो कबीर, निराला, मुक्तिबोध जैसे तमाम कवियों को बड़े मजबूत कवि के रूप में ही हम देखते। यह मजबूती दरअसल कहीं न कहीं कवि के जीवन से आती है। कबीर जब यह कह सके कि आन बाट ह्वै काहे न आया, तो इसमे उनके खरे जीवन की शक्ति शामिल थी। बहरहाल, कहना यह है कि मजबूत कवि होना और अच्छा कवि होना दोनों दो तरह की बातें हैं। अच्छे कवि तो बिहारी भी हैं, पर मजबूत कवि नहीं हैं। बात पुरस्कार की कर रहा था। ज्ञानपीठ की बात कर रहा था। अभी बिल्कुल अभी, हिन्दी के एक अच्छे कवि को मिला है। केदार जी हमारे समय में दिये जाने वाले इस पुरस्कार से खराब कवि नहीं हैं। यहा जो कुछ कह रहा हूँ सिर्फ पुरस्कार संस्कृति के विरोध में कह रहा हूँ। केदार जी के विरोध में नहीं।
     इस पुरस्कार को लेकर कई तरह की बातें इस माध्यम पर की गयी हैं। तमाम लोगों ने बल्लियों उछलकर स्वागत किया है, यह अच्छी बात है। कोई अपना या निकट का है या जिससे कुछ संबंध है, उसे मिले पुरस्कार पर बिल्कुल सकारात्मक प्रतिक्रया देना सही है। खुश होने का पूरा हक है ऐसे लोगों को जिन्हें पुरस्कृत कवि ने खुद कभी पुरस्कृत किया हो। यह साहित्य के शिष्टाचार का तकाजा है। जिस कवि को मिला है, निश्चित रूप से भले कवि हैं। भला केदार जी को भला आदमी कौन नहीं कहेगा ? कभी कहीं कोई लड़ाई-सड़ाई नहीं, सबसे मधुर संबंध। ऐसे कवि का अनिष्ट भला कौन चाहेगा ? पृथ्वी के सारे पुरस्कार केदार जी को मिल जाएँ तो भी किसी को तनिक भी दुख नहीं होना चाहिए। चिंता और प्रश्न यह कि पुरस्कार सबके लिए होते कहाँ हैं भाई ? मुक्तिबोध को मिला ? क्या मिला ? कई महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला। इसका अर्थ यह नहीं कि साहित्य के समाज में इन पर चर्चा नहीं होगी। कुछ तो लोग कहेंगे ही कहेंगे। कोई डरेगा नहीं तो इन बकवास पुरस्कारों का पूरा सच ही कहने लगेगा। जो डरेगा या जिसका स्वार्थ कभी सधा होगा या सधने वाला होगा या सधने की उम्मीद होगी या जिसे साहित्य में अपनी जाति सबको बताने की जल्दी होगी कि भाई लोग देख लो मैं भी पुरस्कारवादी हूँ, इसलिए बहुत खुश हूँ, ऐसे लोग ऐसे मौके पर पुरस्कारों कर सच्चाई पर बात नहीं करेंगे।
      बात केदार जी के प्रसंग के बहाने ही पुरस्कारों पर चल रही है।मैं केदार जी का मान कम करने की हिमाकत नहीं कर रहा हूंँ। कुछ प्रश्न और चिंताएँ है और विश्लेषण प्रश्नोंऔर चिंताओं की धरा पर ही संभव है। मैं एक छोटा-सा उदाहरण यहाँ रखना चाहता हूँ। केदार जी पूर्वांचल के कवि है। यह शहर पूर्वांचल का ही हिस्सा है। यहाँ से केदार जी का निकट रिश्ता रहा है। रिश्ता तो उनका यहाँ के कवि देवेंद्र कुमार बंगाली से भी रहा है। उन्होंने अपने प्रयास से बंगाली जी पर साहित्य अकादमी पर एक कार्यक्रम भी कराया। कुछ-कुछ बंगाली जी का प्रिय था मैं। बंगाली जी केदार जी को प्रिय थे। फिर मेरे और केदार जी के बीच कुछ तो प्रेम का रिश्ता होना चाहिए था ? पर केदार जी एक बहुत अच्छे कवि होकर अकवियों या कुकवियों या सिर्फ प्राध्यापकों या दूसरे तरह के लोगों से क्यों घिरे रहे ? इस अवसर पर क्या कहना चाहिए या क्या नहीं, यह पीछे छूट चुका है। जो सामने है कह देना है। जिसने बंगाली जी को हीर कविता से प्रेम करते अनुभव किया वह कवि उस काय्रक्रम से दूर था। इसलिए कि कुछ लोग या कोई गिरोह मेरे विरोध में था। यह अपने मान-अपमान की कथा नहीं कह रहा हूँ, सिर्फ केदार जी के कविता प्रेम और साहस की कथा कह रहा हूँ। बातें तमाम हैं, पर मैं कुछ और नहीं कह रहा हूँ। केदार जी में वह कम है, जो किसी कवि को बड़ा कवि बनाता है। सिर्फ यह कहने के लिए यहाँ का तनिक-सा प्रसंग उद्धृत किया। इस उदाहरण के पीछे मेरी कोई अन्य मंशा नहीं। इसलिए बात आगे बढ़ाता हूँ। किसी बडे से बड़े कविव्यक्तित्व के लिए न्यूनतम यह है कि वह किसी छोटे से छोटे कवि के साथ अनादर और अन्याय न होने दे। कोई स्वाभिमानी कवि ऐसा होने नहीं देगा। स्वाभिमान के नाटक भी बहुत होते हैं। वह भी पता है। आप किस तरह के लोगों के सामने झुक जाते हैं, किस तरह के लोगों के साथ रहते हैं, यह सब आपके कविव्यक्तित्व को बनाता है। केदार जी में बहुत मुलायमियत दिखी। कोमलता इतनी की पूछिये मत। यह हर समय दुर्गुण नहीं होता है। कभी-कभी हो जाता है। एक बात यहाँ साफ कर देना बहुत जरूरी है कि कुछ तो कमी मुझमें भी रही होगी। वह क्यो न बताऊँ ? मेरी कमी यह कि केदार जी जब भी यहाँ आते मैं उनसे मिलने नहीं जाता था। शायद एक या दो बार उनसे मिलने जाना हुआ होगा, पर वह बाहर जब भी और जहाँ भी मिलते अपनी कविता की सबसे लंबी मुस्कान लिए मिलते। बहुत प्यार से। यह जो सामने दिखता था, उनका गुण था। कुछेक शामें भी कई मित्रोंऔर नामी-गिरामी लेखकों के बीच गुजरीं। यह सब उनका गुण था। एक कवि के रूप में भी उनमें कम गुण नहीं हैं। रेशम के धागे से बुनी उनकी कविताएँ भला किसे अच्छी नहीं लगेंगी ?
         मुझे कहना ही हो केदार जी के कविरूप पर तो कहूँगा कि केदार जी हमारे समय सबसे सुदर, सबसे कोमल और सबसे ज्यादा उजले-धुले इकलौते खरगोश कवि हैं। हमारे समय की हिन्दी कविता के अरण्य में अपने कोमल पग में नूपुर डाल कर सबसे तेज दौड़ने वाले कवि। सबसे चतुर कवि। सबसे चौकन्ने कवि। यह केदार जी हैं और जो नहीं हैं, पूरा कहने का अधिकारी तो नहीं हूँ, पर कुछ अनुभव करता हूँ। केदार जी में जीवन का वह खुरदरापन नहीं देख पाया जो पहले के दूसरे कवियों के यहाँ है। वह संघर्ष नहीं देख पाया। यह मेरी सीमा रही होगी कि पहले के कवियों कबीर, फिर निराला, फिर मुक्तिबोध को पसंद करता रहा। मैं केदार जी को उन कवियों की पंक्ति में रखकर नहीं देख सकता। केदार जी मुझे इसके लिए क्षमा करेंगे। हालांकि केदार जी खुद भी इतने अज्ञानी नहीं हैं कि अपने को उन कवियों की पंक्ति में रखकर देखेगें। यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि पीछे चलने वाले नये कवियों की फौज सिर्फ इस माध्यम पर ही नहीं, बाहर भी कुछ इस अंदाज में जयकार करती है कि जैसे केदार जी ने कोई पुरस्कार पाकर कविता का कोई किला जीत लिया। अरे भाई पुरस्कार कविता का किला नहीं है। धंधा है। शुद्धरूप से धंधा। आखिर ज्ञानपीठ हो या अज्ञानपीठ या कोई भी पीठ, यदि वह सचमुच साहित्य को सम्मानित करने के लिए पुरस्कार देती है तो अपने समय के कवियों को क्यों ? क्यों नहीं जो पहले के महान कवि हैं उनके वंशजों और उत्तराधिकारियों में जो हों उन्हें बुलाकर सबसे पहले सम्मानित करती ? उसे भी छोड़िये। पहले के कवियों को पुरस्कार नहीं तो अब क्यों ? यह उम्र के आखिरी पड़ाव पर या शुरू में ही कवियों को पुरस्कृत करने की जरूरत क्यों ? उनकी रचनाओं के प्रकाशन और संरक्षण और जनसुलभ बनाने की कोशिशों की जगह ये पुरस्कार क्यों ? आज हिन्दी प्रकाशन जगत लूटमार का अड्डा बना हुआ है। किताबों के चयन में हजार बेईमानियाँ हैं। एक लेखक के महत्व को सीध्रो प्रकाशक नहीं समझता है, उसे कोई माध्यम चाहिए। कोई हो जो बताए कि यह अच्छा या खराब है। वह चाहे तो किसी अच्छे को खराब बताए और खराब को अच्छा। यह हिन्दी का सबसे भयानक है कि एक लेखक अच्छा लिखे और उसके बाद प्रकाशक और आलोचक के चरणों में सिर नवाये। लानत है ऐसे हिन्दी लेखक समाज पर। पुरस्कारों को लेकर भी क्या कम गंदगी है ? ऐसे में इस अँधेरे को दूर करने की जगह पुरस्कारों के प्रति यह आकर्षण क्यों ? या इसलिए कि आज के कवि पहले से बेहतर हैं ? या इसलिए कि आपके पास कुछ पैसों की व्यवस्था है तो आप साहित्य के पुरस्कारों का धंधा कर सकते हैं ? सच तो यह हमारे समय के पुरस्कारों ने साहित्य में इंसेफेलाइटिस फैलाया है, जिससे साहित्य के बच्चे विकलांग होते जा रहे हैं। इंसेफेलाइटिस पर मेरी कविता है, केदार जी की बनारस पर है। क्षमा करेंगे मुझे अपनी कविता का नाम नहीं लेना चाहिए था। पर कहना यह था कि केदार जी हमारे समय के तमाम कवियों से अच्छे कवि हैं, बल्कि बहुत अच्छे कवि हैं, बल्कि सबसे अच्छे कवि हैं, पर यह जरूरी तो नहीं कि पहाड़ की मिट्टी में वह तत्व हो ही जो तराई के किसी ढ़ेले में हो। हाँ कहना जरूरी है कि मुझे भी केदार जी की कविता मुग्ध करती है, पर नशा हर समय अच्छा हो जरूरी नहीं। केदार जी की कविता मुग्ध करती है, पर मुक्तिबोध की कविता उठाकर कंधे पर बैठा लेती है। केदार जी को किसी और तरह से कहना हो तो यथार्थ का नर्स कहना जरूरी चाहूँगा और मुक्तिबोध को सर्जन। एक बड़ी चीर-फाड़, बहुत सारा खून और फिर एक जीवन को संभव बनाता दृश्य। समाज को बेहतर बनाने का उपक्रम करता कवि। अपने समय के सच को फटकार कर कहता कवि। जोखिम उठाता कवि। मैं यह सब कह क्या रहा हूँ ? यह सब कहने की कोई जरूरत थी ? भला मुक्तिबोध का नाम लेने की क्या जरूरत थी ? केदार जी तो उस पंक्ति में हैं ही नहीं। क्या इसलिए कह रहा हूँ कि उनके अनुयायी बल्लियों उछल रहे हैं ? उछलें न क्या फर्क पड़ता है ? केदार जी से भला मुझे क्या ईर्ष्या ? वे अस्सी के मैं साठ के करीब ? बंगाली जी उनकी बड़ी इज्जत करते थे, भला उनके प्रति मेरे मन में असम्मान कहाँ से आ सकता है ? बंगाली जी की आत्मा मुझे डाँटेगी। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता। हाँ, यह जो कुछ कह रहा हूँ सिर्फ पुरस्कार को लेकर फैली महामारी के बारे में कह रहा हूँ। केदार जी का बहाना है, बस। ‘साहित्यिकमुक्ति का प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो’ में पुरस्कार से मुक्ति की बात कर चुका हूँ, पर वह बात केदार जी जैसे लोगों के लिए नहीं के बराबर और नये लोगों के लिए ज्यादा है। अखबार के लोग गँवरई करें तो बात समझ में आती है कि उन्हें कविता समझ में नहीं आती है, वे छोटे-बड़े पुरस्कारों के आधार पर ही किसी कवि का मूल्य तय करते हैं, लेकिन जब कविता करने वाले लोग ऐसी गँवरई करते हैं तो तकलीफ होती है। कहना सिर्फ इतना है कि यह नासमझी है कि ज्ञानपीठ पाने से या कोई भी पुरस्कार पाने से केदार जी हो या कोई भी कवि वह बदल नहीं जाता है। उसकी कविता जितनी अच्छी या खराब रहती है, पुरस्कार के बाद भी उतनी ही अच्छी या खराब रहती है। किसी कवि की कसौटी पुरस्कार नहीं उसकी रचनाएँ होती हैं। केदार जी को अच्छा कहें या बड़ा कहें, उनकी रचनाओं के आधार पर कहें। पुरस्कारों के आधार पर कवियों की पूजा साहित्य की सबसे बड़ी नासमझी है।
      कर्णसिंह चौहान की दो पुरानी पोस्ट से बात खत्म करना चाहता हूँ -
‘ पहली पोस्ट :
पुरस्कार प्रकरण
साहित्यिक भ्रष्टाचार के स्रोत
1-पुरस्कार लेना गलत है।
2-पुरस्कार देना गलत है ।
3-पुरस्कार समितियों में होना गलत है ।
4-पुरस्कारों पर बधाई देना और लेना गलत है ।
5-पुरस्कारों पर चर्चा करना गलत है
ये सब साहित्य में भ्रष्टाचार के स्रोत हैं ।
दूसरी पोस्ट :
पुरस्कार राशि का सदुपयोग
1-जितने सरकारी, अर्द्ध सरकारी, स्वायत्त और निजी पुरस्कार हैं - केंद्रीय, राज्य स्तरीय, स्थानीय, व्यक्तिगत - उनकी राशि को केन्द्रीय, राज्य स्तरीय, स्थानीय साहित्य कोषों में जमा कराना चाहिए ।
2- इस राशि को साहित्य और संस्कृति के विकास की योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए ।
3- इस राशि में से आर्थिक रूप से विपन्न मसिजीवी लेखकों और कलाकारों को नियमित सहायता दी जानी चाहिए । इसी में से बीमार पड़ने पर बिना सरकार के आगे हाथ फैलाए उनके इलाज का बंदोबस्त होना चाहिए ।
4-इस राशि में से लेखकों-कलाकारों के लिए भारत भर में ऐसे भवनों, स्थलों, रिजार्टों का निर्माण होना चाहिए जहां वे जाकर रचना-कर्म कर सकें या अवकास ले सकें ।
5-इससे पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिका संग्रहालयों, गोष्ठी कक्षों का जगह-जगह पर निर्माण होना चाहिए ।
        अगर साहित्यिक भ्रषटाचार का स्रोत बनी यह राशि पिछले 65 साल में इन कोषों में जमा होती और इन बुनियादी कामों पर खर्च होती तो अब तक एक व्यापक, सुंदर, साहित्यिक परिवेश का निर्माण हो गया होता । व्यक्तिगत पुरस्कारों के रूप में बांटकर उनका कितना सदुपयोग हुआ यह निश्चित करना मुश्किल है ।’
       मैं तो साहित्य का यहाँ का सबसे बुरा आदमी हूँ, मेरी बात खराब हो सकती है, पर कर्णसिंह जैसे तमाम मित्र जो कह रहे हैं, क्या वह भी खराब बात है ? पुरस्कारवादी या कामी जो कर रहे हैं करते रहें, मेरी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं, ईश्वर करें कि पुरस्कारवादी मित्रों को साहित्य में बहुत यश और सुदीर्घ जीवन मिले।