बुधवार, 27 नवंबर 2013

माँ नाम की किताब कभी पीछा नहीं छोड़ती...

-गणेश पाण्डेय

मित्रो, यह समय यों तो अपने आप में ही विचार और जीवन के विलक्षण द्वैत की वजह से , विचार से विश्वास के उठने का है, जिसके लिए कोई अन्य कारण ढ़ूँढने की जरूरत नहीं है, फिर भी कुछ और बातें हैं, जहाँ ध्यान आप से आप जाता है। कई बार देखने में आता है कि कट्टर मार्क्सवादी, एक समय के बाद मठ और मंदिर की शरण में चले जाते हैं। अचानक उन्हें दक्षिणपंथी संगठनों से प्रेम हो जाता है।
          बायें बाजू से प्रेम करने वाले प्रोफेसर लोग तक , पगहा तुड़ाकर दायीं ओर हरे चने के खेत में निकल जाते हैं। कई दृढ़ प्रगतिशील अपने बच्चों के शादी-ब्याह में पियरी धोती पहन कर वह सब करते हैं जो गैर मार्क्सवादी करते हैं। बड़े-बड़े वैज्ञानिक अपने मिशन की सफलता के लिए बाकायदा अनुष्ठान करते हैं। पूजा और विज्ञान के परिसर में ? बहुत से लोग रक्षा-सूत्र पहनते हैं। बहुत सारी बातें हैं। यह सब तो फिर भी कुछ कम है। बहुत से लोग गरीब होकर चोरी करते हैं, बहुत से लोग अमीर होकर चोरी करते हैं, क्या मार्क्सवादी और क्या गैर मार्क्सवादी ? बहुत से लोग दूसरे की सम्पत्ति, हिस्सा, कुर्सी, यश, पुरस्कार इत्यादि लूट लेते हैं। जहाँ अच्छे को बैठना चाहिए वहाँ बुरा बैठ जाता है। तमाम लोग विचार के आधार पर संगठन बनाते हैं और विचार से दगा करने वाले लोगों को उसमें शामिल कर लेते हैं। आयोजनों में कविता पाठ या कहानी पाठ कराते हैं।
      जल, थल और वायु सेना की तरह लेखकों की तीन-तीन सेनाओं जैसे तीन लेखक संगठनों के रहते हुए साहित्य की अकादमियों में दक्षिणपंथी कैसे पदारूढ़ हुए, कैसे सब अपने हाथ में ले लिया ? क्या कर रहे थे ये सब ? साहित्य का भाड़ झोंक रहे थे या साहित्य के दरबारों में चंपी कर रहे थे ? क्या इन नासमझों के एक बूँद पानी में या बिना पानी के ही डूब मरने के लिए काफी नहीं है ? कहने का आशय यह कि पतित कोई भी हो सकता है, बुरा होने से रोकना किसी किताब के हाथ में नहीं है। दुनिया भर में ‘पूँजी’ ही नहीं, महान धर्मों से जुड़ी बड़ी पूज्य किताबें भी हैं, पर क्या दुनिया से बुराई खत्म हो गयी ?
         एक दिन एक युवा लेखक ने मार्क्स का हवाला देते हुए कहा कि मार्क्स ने एक मजेदार बात कही थी-एक व्यक्ति के तौर पर कोई सर्वहारा उतना ही पतित हो सकता है, जितना कोई अन्य व्यक्ति और कोई पूंजीपति भी एक भला मनुष्य। सर्वहारा पतित से पतित हो सकता है, पर हम उसके साथ हैं तो इसलिए कि वह मुक्तिकामी। आज हमारे समय का बड़ा सवाल तो उन लोगों से जुड़ा है जो लोग इन आम लोगों को रास्ता दिखाने का धंधा करते हैं। जहाँ तक मैं समझ पाता हूँ, जनता के भ्रष्ट होने से समाज और व्यवस्था भ्रष्ट नहीं होती है, राजा या नायक के भ्रष्ट होने से समाज या व्यवस्था भ्रष्ट होती है। बिना राजा या नायक के बदले कोई बड़ा और सार्थक बदलाव मुश्किल है। जिस देश की राजनीति के समकालीन चरित्र और आदर्श भ्रष्ट होंगे या जिस समय के बदलाव के नायक और गायक भ्रष्ट होंगे, वहाँ जनता भी क्या भला कर सकती है ? आज ग्रामसभा के प्रधान से लेकर राजधानी के प्रधान तक सब सरकार हैं, सब नायक हैं, सब राजा हैं। जो सरकार में नहीं है या सरकार में जाने की उममीद में नहीं है, सब जनता है। यह जनता भ्रष्ट नहीं है। मैं कहता हूँ कि यह जनता भ्रष्ट नहीं है, बड़े कष्ट में है। बहुत छली गयी है। बहुत मार खायी है। इसे अपनों ने बहुत ठगा है। यह बैलगाड़ी पर बैठ कर चाहे मोटी पर सवार होकर ठगे जाने के लिए गीत गाते हुए आती-जाती है। इस जनता की लाख कमी सिर्फ यह है कि यह उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ती। अपने दुश्मन से भी अच्छे की उम्मीद करती है। जैसे हिंदी के पाठक हिंदी के गंदे से गंदे लेखक से भी उम्मीद नहीं छोड़ते। विचार, सिद्धांत, आदर्श कब कहाँ दगा देने लगें, कोई नहीं जानता। विचार, सिद्धांत, आदर्श भी नहीं जानते कि वे कब ऐसा करने लगेंगे या कौन उनसे यह गंदा काम कराने लगेगा, कौन नायक, कौन लेखक, कौन गुरु, कौन शिक्षक, कौन पत्रकार ? कई बार व्यक्तिगत जीवन में छले जाने के बाद साधारण जन तो धर्म या प्रभु की शरण में जाते ही हैं, कई प्रगतिशील जन भी छले जाने के बाद या अकेलेपन की वजह से किसी शक्ति की खोज में निकल पड़ते हैं। सच तो यह कि जनता प्रायः प्रभुओं के नाम पर छली जाती रही है। हजारों किस्से हैं। चैनल सब दिखाते हैं। सबकुछ। इसके बाद भी मनुष्य जाये तो कहाँ जाये ? आज की तारीख में जनता के कम और विशिष्टजनों तथा समाज और देश के नायकों के पतन के किस्से से यह संसार ज्यादा अटा पड़ा है। मनुष्य के सामने भव सागर को पार करने की नहीं, निराशा के इस महासागर को पार करने की समस्या है।
        दरअसल यह सब कहीं न कहीं मनुष्य के स्वभाव और चरित्र से जुड़ी बातें हैं। कई बार कोई घटना आपके जीवन में किताब से भी ज्यादा प्रभाव डालती है। आपका बचपन आपके भविष्य की किताब को लिखता है। बचपन में जो संस्कार माँ के दूध की घुट्टी के साथ भीतर जाते हैं ,कभी बाहर नहीं होते, जीवन भर साथ रहते हैं। कभी मुखर होकर तो कभी छिपकर। ऐसे उदाहरण भी हैं, जिसमें एक किशोर बहुत पहले अर्थात अपनी तरुणाई में राहुल सांकृत्यायन की दर्शन-दिग्दर्शन पढ़कर जीवन और जगत को बिल्कुल नये नजरिये से देखता है, पर जब आगे जीवन में मुश्किलें आती हैं, कोई मददगार नहीं होता है, न विचार, न लोग, तो फिर से वह अपने बचपन के संस्कारों के अरण्य में चला जाता है। भारतीय माँ नाम की किताब अपने बच्चों को शुरू से ही प्रभु के पाठ पढ़ाती है। प्रभु होते ही इसलिए हैं कि रोज रक्षा करें, रोज मुश्किलों से बचाएँ। कोई संकट और कोई विफलता न आने दें। भारतीय माँ के प्रभु कोई आइसक्रीम खिलाने के लिए थोड़े होते हैं। मैं यहाँ की बात कर रहा हूँ, कहीं और की नहीं। माँ की किताब जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती, आप उसे पलटकर देखें या नहीं, पर वह किताब आपके पीछे लगी रहती है। शायद इसीलिए कई लोग वैज्ञानिक सोच और विश्वास विकसित कर लेने के बाद भी, ‘‘व्यक्तिगत जीवन में’’ छोटे या बड़े संकट के आने पर वापस माँ की किताब के पास लौट जाते हैं। यह लोग शायद बुरे लोग नहीं होते है। क्या करें आखिर जब विचारधारा का पहाड़ सिर पर लेकर घूमने वाले लोग ही इनकी पीठ में छुरा भोकने लगें, दगा करने लगें ? ऐसे लोगों को लगता है कि प्रभु कुछ करें या न करें, कम से कम विचारधारिए प्रभुओं की तरह उनके साथ दगा तो नहीं करेंगे, पीठ में छुरा तो नहीं भोंकेंगे।

         विचार की किताब जीवन के अरण्य में अब तक हमें बचाने में किसी हद तक विफल दिखती है, लेकिन इसका आशय यह नहीं कि नुक्स विचार की किताब में है, शायद विचार की किताब पढ़ाने वालों में ही नुक्स हैं। माँ की किताब को पढ़ाने वाले की जरूरत नहीं, उसे तो बच्चा अपनी बचपन की आँख से ही बहुत अच्छे से पढ़ लेता है।






रविवार, 24 नवंबर 2013

मैं कहता हूँ, खोट आदमी नाम के कीड़े में है...

    मनुष्य जीवन कोई सरल सीधी इकहरी रेखा नहीं है। विचार का संघर्ष और जीवन का संघर्ष एक-दूसरे से जितना नाभिनालबद्ध है, उतना ही एक-दूसरे से पृथक। कहीं का व्यक्ति, समूह, समाज पूरा का पूरा स्वार्थ केंद्रित दिख सकता है। अपने स्वार्थ के लिए विरोध करने वाले को अपमानित कर सकता है, उसके संग कई तरह की क्रूरता कर सकता है। व्यक्तिगत जीवन में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए कई बार महान विचारधारा भी मदद नहीं करती। महान विचारधारा के ध्वजवाहक प्रतिरोध में खड़े व्यक्ति के साथ दगा कर सकते हैं, उसे अकेला छोड़ सकते हैं निरंकुश सत्ता के सामने। व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष और विचार को पीठ दिखाने वाले जन विचारधारा के शामियाने के नीचे क्यों जगह पाते हैं ?

      जंगल में या पिछड़े इलाकों में रहने वाले नागरिकों के लिए की जा रही न्याय और समानता की जो लड़ाई ईमान के साथ दिखती है, वैसी लड़ाई समाज और संस्थाओं में क्यों नहीं होनी चाहिए ? न्याय और समानता जैसे मूल्य सुविधासापेक्ष हैं ?  क्यों व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष से बचना प्रगतिशीलता है ? क्यों संस्थाओं में चुप रहना या बगलें झाँकना बुद्धिवादी होना है ? विचारशील होना है ? जब सत्ता के अन्याय में महान विचारधाराओं वाले बुद्धिजीवी सहायक हों तो विरोधी विचारधारा के लोगों का सहयोग लेना क्यों बुरा है ? यदि उदाहरण देकर कहूँ तो यदि किसी फासिस्ट कहे जाने वाले संगठन के लोग किसी स्थानीय सत्ता के केंद्र हों या उससे प्रमुख रूप से जुड़े हों और महान क्रांतिकारी विचारधारा के लोग भी उनके साथ हों तो प्रतिरोध में अकेले खड़े व्यक्ति को क्या करना चाहिए ?
1-प्रतिरोध की बात भूल जाना चाहिए ?
2-सत्ता और उसकी चौकड़ी के समक्ष समर्पण कर देना चाहिए ?
3-न्याय के लिए किसी भी विचारधारा चाहे फासिस्ट ही क्यों न हो, उससे जुड़े व्यक्ति या सत्ता केंद्र की मदद लेनी चाहिए ?
4-किसी शहर या संस्था में बस्तर के लिए सात आँसू रोने वाले विचारधारा से जुड़े कथित लेखक या पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता लोग स्थानीय संघर्ष से आँख मूँद लें तो क्या करना चाहिए ?
5-अपने अंचल के बच्चों और युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करने वाली संस्थाओं और सत्ता केंद्रों से टकराना चाहिए या नहीं ?
6-सब भूल-भाल कर सत्ता की खुशामद में लग जाना चाहिए और अपने जीवन को ‘‘सुखमय’’ बनाने का उपाय करना चाहिए ?
7-जरूरी सवाल यह कि कोई विचारधारा महान और बहुत अच्छी है तो सबसे पहले अपने अनुयायिओं को अच्छा क्यों नहीं बनाती है ?  विचार अच्छे हों और जीवन बुरा, यह तो ठीक नहीं ? 

       यह सब कहने का आशय यह कि मित्रो, संकट बड़ा और पेचीदा है। राजनीति में सभी दल दूसरे को बुरे से बुरा बताने में अपनी ऊर्जा राष्ट्र की महान सेवा के नाम पर खर्च करते हैं। एकबार जो आ गया, उसे हटाओ मत, वही अच्छा है या दूसरे को लाओ, वह अच्छा है, नहीं वह भी खराब है, तीसरे को लाओ....लाख टके का सवाल यह कि विकल्प जब सब खराब हों तो हम करें क्या ? कहाँ जायें ? अँधेरा बहुत है। हम अभी उतने अँधेरे में ही हैं। यह उजाला जो दिख रहा है, साँप की काली त्वचा की तरह चमकीला है और हम इस उजाले को सचमुच का उजाला समझ बैठे हैं। मैं कहता हूँ, खोट आदमी नाम के कीड़े में है, पहले उसे बदलो... पिछले दिनों अखबार में जहाँ महात्मा गांधी की फोटो छपी थी उस जगह समाज, समता, न्याय, प्रतिपक्ष, मूल्य इत्यदि से दगा करने वाले ऐसे गंदों की फोटो मत छापो, न मंच पर ऐसे गंदे लोगों को माला पहनाओ... संसद ही नहीं, साहित्य की संसद में भी दागी हैं, ऐसे गंदों को सम्मान मत दो...विचारधारा को पहले ईमान से जोड़ो, नही तो आदमी तो बाद में मरेगा, विचारधारा पहले मर जाएगी।