बुधवार, 28 दिसंबर 2011

नये साल का हवाईजहाज

- गणेश पाण्डेय

कैसे होंगे
ये नये दिन
किस रंग में होंगे
कितने उजले-धुले होंगे
कितने कोमल कितने मीठे
हाथ हिलाते
खिल-खिल करते
हंसते-गाते संतूर बजाते
पीली साड़ी पर
सोने के झुमके जैसे
झिलमिल करते ये दिन
किस-किस के लिए होंगे
नववर्ष के ये दिन
कितने अच्छे होंगे
कितने अलग होंगे
कठिन दिनों से
थके-हारे
भूखे-प्यासे पसीना-पसीना
अन्नदाता की उदास आंखों में
सुदूर जुगनू जैसे टिमटिमाते
नववर्ष के ये दिन
धरती की गोद में
नये आषाढ़ के नये दिन
झमाझम नई बारिश जैसे
जैसे खिली हुई नई धूप
आकाश से उतरी हो जैसे
कोई नई पुरवाई
जैसे
किसी नई-नई सलोनी का
नया-नया
प्रेम

इस नये वर्ष में पृथ्वी पर
कितने हजार करोड़ का
प्रेम का व्यापार होगा
कितने हजार करोड़ का फूलों का सौदा
कौड़ियों के मोल बिकेंगी कितनी दोस्तियां
कितने हजार करोड़ का होगा
हिंसा का कारोबार
कितने हजार लोग मारे जाएंगे
कितने अरब लोग छले जाएंगे
कितने लोग होंगे
जो कामयाब होंगे
जीवन की ऊंची मीनार पर
पैर रखने में
नये दिन का एक सुर्ख फूल
मनचाही जगह पर टांकने में
कितने ऐसे लोग होंगे
जो जीवन में एक चौथाई सोएंगे
और चैन की एक नींद नहीं पाएंगे
शेष तीन चौथाई जागेंगे
और एक बार भी किसी दिन
ठीक से जाग नहीं पाएंगे
कितने लोग होंगे जो भागेंगे
जाम के सिर के ऊपर पैर रखकर
और कितने होंगे जो डूबेंगे
प्रेम के थोड़े-से जल में
निकल पड़ेंगे
जीवन के अरण्य में
उम्दा नस्ल के घोड़े जैसे
नये दिनों की पीठ पर

मेरे बच्चो
तुम्हारे लिए है
नववर्ष का यह रथ
खास तुम्हारे लिए है
नये साल का हवाईजहाज
उठो देखो जल्दी करो
कहां रखा हुआ है तुम्हारा पासपोर्ट
तुम्हारा होलडाल
और तुम्हारे स्वप्न का ब्रीफकेस
आओ नजदीक आओ
बैलगाड़ी की सैर करने वाले
ओ मेरे बच्चो तुम्हारे लिए भी है
नये साल का यह हवाईजहाज
कोई टिकट विकट नहीं है
हौसला है तो टिकट है
नये वर्ष का यह उत्सव
और जागरण का
यह नया संगीत
तुम्हारे लिए भी उतना ही है
जितना अमीरजादों के लिए
क्या हुआ जो नहीं है तुम्हारे पास
अपने ही देश में ढ़ंग से जीने का
गारंटी का कोई मुड़ातुड़ा
कागज

ये कविताएं हैं तुम्हारे लिए हैं
मेरे बच्चो
जिसके पास सरकार का कागज नहीं
उसके लिए है कविता का संसार
तुम्हारे बहुमत से चलती है
कविता की सरकार
आएगा एक दिन
ऐसा नववर्ष जरूर
जब तुम्हारे इशारे पर नाचेंगी
दुनिया की बड़ी-बड़ी सरकारें
जिस दिन तुम बड़े हो जाओगे
तनकर खड़े हो जाओगे
मेरे बच्चो यह देश तुम्हारा हो जाएगा

कितनी कमी हो गयी है आज
इस देश में
न काम का कोई कागज मिलता है
न काम की जगह
न काम के लोग
रहते तो हैं अपने देश में
पर लगता है जैसे परदेश में हो
नहीं मिलता है कोई
नहीं दिखता है कोई
देश का ढ़ग का खेवनहार
एक महानायक
सचमुच के गांधी का देश है यह
कि किसी झूठमूठ के गांधी का
हाय कितना मजबूर है
एक महादेश
शायद बन जाए इस वर्ष
यह देश
अमेरिका की किसी गुप्त पर्ची से
चाहे भीख में मिली खुली रजामंदी से
झूठमूठ की महाशक्ति जैसी कोई चीज
हो सकता है इस वर्ष
चाहे किसी और नववर्ष में
इस देश का कोई यान-सान
हजार बार जाकर छोड़ दिये गये
चांद पर
जाए
और सरकारें
कागज का सीना थोड़ा और फुलाएं

मेरे बच्चो मैं तुम्हारे बारे में
नये वर्ष के प्रथम दिवस के
सफेद कागज पर
कोई प्रस्ताव करते हुए डरता हूं
इस समय की दुनिया की बागडोर
जिन हाथों में हैं
वे बच्चों और बडों के रक्त से सने हैं
वे बच्चों के दिल और दिमाग
और अच्छे दिनों के हत्यारे हैं
यमराज के हाथों में है
पृथ्वी का राजपाट
डरता हूं
अच्छी-अच्छी बात करते हुए
और डरावनी बातें करते हुए
सांस लेना भूल जाता हूं
जीवन की यह कैसी विफल कविता है
कि नये वर्ष के पहले दिन मुस्कराते हुए
डरता हूं
और हंसते हुए रोता हूं
डरते हुए पतंग देखता हूं
हो-हो करता हूं
कांटेदार फूलों के बीच
तितलियों के पीछे-पीछे
भागता हूं
कितनी बेखबर हैं तितलियां
कितने बेखबर हैं फूल
देखो तो
किस तरह कर रहे है मह-मह
इनकी दुनिया में डर कहां है
कहां है
देखता क्यों नहीं
दुनिया का चिरकुट नेता
मैं भी कितना बावला हूं
बच्चों की दुनियां में डर कहां है
बच्चों के लिए
नये दिन बिल्कुल नये होते हैं
न डरने के दिन होते हैं न रोने के
पुलकित करने के लिए होते हैं
नये दिन
एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर जाकर
उत्सव मनाने के लिए।

रविवार, 4 दिसंबर 2011

घर सीरीज की सात कविताएँ

-गणेश पाण्डेय                                   


घर: एक / 
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है                     
                                             
कहां हो तुम
उजाले में हो कि किसी अंधेरे में
बोलो अकेले में हो
कि किन्हीं अपनों के बीच
कि यादों के किसी तहखाने में
बंदी
किसी छत के नीचे हो
कि खुले आसमान में 
पृथ्वी के किस कोने में हो
इस वक्त
कितनी तेज है धूप
और हवा कितनी गर्म
जहां भी हो
कैसी हो
किसी घर में हो
सुकून का घर है 
कि घर है                    
कोई खिड़की है घर में              
जिसके आसपास हो                         
जो दिख जाय
यह अटाला कहीं से
तो देख लो
काम भर का है यहां भी सब
इस अटाले पर
बस
एक मैं हूं
जो किसी काम का नहीं हूं
चाय की पत्ती है
तो चीनी नहीं है मेरे पास
चीनी है तो माचिस नहीं
माचिस है
तो उसमे अब आग कहां
तुम्हारे पास आग है
ऐसे ही बदल जाती हैं चीजें
बदलने के लिए ही होती हैं चीजें
इस दुनिया को देखो
कितनी बदल गयी है
जहां होना था चैन का घर
लग गया है वहां मुश्किलों का कारखाना
रोज सुबह
एक थका हुआ आदमी निकलता है घर से
और
शाम को थोड़ा और थका हुआ
लौटता है बाहर से              
अब कोई नहीं देखता चाव से
मेरी अधलिखी कविता
किसे फुरसत है कि देखे
क्या पक रहा है
क्या रिस रहा है
मेरे भीतर
किससे कहूं कि आओ बैठो
घड़ीभर                  
मेरे इर्द-गिर्द
जंजीर की झंकार सुनो
देह के हर हिस्से से उठती हुई
पुकार सुनो
ये देह और देह का मूल
सब हुआ है थककर चूर
कैसी हो तुम
किस हाल में हो
किसी सितार का कीमती तार हो
खुश होे
कि मेरी तरह हो
सांस है कि टूटती नहीं
और लेना उससे भी कठिन
भला अब कौन आएगा
आखिरी वक्त में
इस भीड़ भरे एकांत में
मेरा पुरजा-पुरजा जोड़ने
कैसा आदमी हूं
बावला नहीं हूं तो और क्या हूं
अपने को खत्म करते हुए
सोचता हूं जिन्दगी के बारे में
अपनी कविता का अन्त जानते हुए -
इस कबाड़ के ढ़ेर पर    
एक फेंका हुआ सितार हूं बस
और
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है ।
                                                  

                                          
घर: दो / 
कितना अच्छा होता जो प्रेम होता     
                                          
अच्छा होता
जो मेरा घर
हरी-हरी और कोमल पत्तियों के बीच      
खिले हुए फूलों की गंध
और पके हुए फलों के बिल्कुल पास
चोंच भर की दूरी पर होता ं
किसी दरख्त पर
एक-एक तिनका जोड़कर
और
नादान आदमियों की नजर बचाकर
सुरुचि से बनाया गया
सबसे छोटा
घर
अच्छा होता
जो पक्षियों के बीच होता
मनुष्यों के शब्द
और सभ्यता की कैद से मुक्त होता
प्रेम और जीवन के संगीत में
जितना चाहता डूबता
न किसी से घृणा
न कोई दंभ
न कोई लूट
न पीढ़ियों के लिए कुछ
न कोई दिखावा
न कोई टंटा
न कोई रोना
न किसी से अप्रेम
न किसी पर क्रूरता
न किसी से छल
न असत्य का आग्रह
न किसी के संग बुरा होता
जो किसी का साथ होता
मन से मन का साथ होता
साथ में जो होता
दोनों के साथ होता
साथ रहते तो रहते
न रहते तो न रहते
न मारकाट होती
न मनमुटाव होता
कितना अच्छा होता
जो प्रेम होता
संघर्ष जीवन का होता
जैसे रहते भूधर और वटवृक्ष
जैसे छोटे-छोटे पौधे
और कीट-पतंग
प्रचंड धूप में
अटूट बारिश में
और भयंकर आंधी-तूफान में
जिंदा रहते
घर रहते नहीं रहते
घर के मुहताज नहीं रहते
हौसलेे
और कोशिश से फिर बनता धर
एक नहीं हजार बनता
रुपया रहता नहीं रहता
रुपये का क्या गम रहता
हम रहते
और घर रहता
न कोई कर रहता
न कोई डर रहता
न कोई अफसर
न कोई कागज-पत्तर
बस हम रहते
सरोसामान रहता नहीं रहता
जीवन साथ रहता
मेरे मन के मीत तुम क्या रहते
तोता होते कि मैना रहते
छोड़ो भी अब
जब होते तब होते
और
उस घर का क्या
जो बन नहीं सका               
जब उसमे रहते तब रहते
अनुभव की उस दुनिया में
जिस दुनिया में
और                   
जैसे घरों में रहते हैं हम
कैसे रहते हैं                               
किसी से कह नहीं सकते
और चुप रह नहीं सकते ।                 
                          
              
घर: तीन / 
यह घर शायद वह घर नहीं है
                                      
                                       
जिस घर में रहते थे हम
यह शायद वह घर नहीं है
कहां है वह घर
और
कहां है उस घर का लाडला
जो दिन में मेरे पैरों से
और अंधेरी रातों में
मेरे सीने से चिपका रहता था
कहां खो गया है
बहती नाक और खुले बाल वाला
नंग-धड़ंग मेरा छोटा बाबा
मुझे ढूंढ़ता हुआ
कहां छिप गया है
किस कमरे में                                     
किस पर्दे के पीछे
कि मां की ओट में है
नटखट
यह कौन है जो तन कर खड़ा है
किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ
बेटा है कि पूरा मर्द           
भुजाओं सेे
पैरों से
और छाती से
फट पड़ने को बेचैन
आखिर क्या चाहिए मुझसे
किसका बेटा है यह
जो छीन लेना चाहता है मुझसे
सारा रुपया
मेरा बेटा है तो भूल कैसे गया
मांगता था कैसे हजार मिट्ठी देकर
एक आइसक्रीम
एक टाफी और थोड़ी-सी भुजिया
मांग क्यों नहीं लेता उसी तरह
मुझसे मेरा जीवन
किसका है यह जीवन
यह घर
कहां छूट गयी हैं
मेरी उंगलियों में फंसी हुईं
बड़ी की नन्ही-नन्ही कोमल उंगलियां
उन उंगलियों में फंसा पिता
कहां छूट गया है
किसी को खबर न हुई
हौले-हौले हिलते-डुलते
नन्ही पंखुड़ी जैसे होंठों को
पृथ्वी पर सबसे पहले छुआ
और सुदीप्त माथा चूमा
पहलीबार
जिनसे
मेरे उन होंठों को क्या हो गया है
कापते हैं थर-थर
यह कैसा डर है
यह कैसा घर है
छोटी की छोटी-छोटी
एक-एक इच्छा की खातिर
कैसे दौड़ता रहा एक पिता
अपनी दोनों हथेलियों पर लेकर
अपना दिल और कलेजा
अपना सबकुछ
जो था पहुंच में सब हाजिर करता रहा
क्या इसलिए कि एक दिन
अपनी बड़ी-बडी आंखों से करेगी़
पिता पर कोप
कहां चला गया वह घर
मुझसे रूठकर
जिसमें पिता पिता था
अपनी भूमिका में
पृथ्वी का सबसे दयनीय प्राणी न था
और वह घर
जीवन के उत्सव में तल्लीन
एक हंसमुख घर था
यह घर शायद वह घर नहीं है
कोई और घर है
पता नहीं किसका है यह घर ।

                              
घर: चार / 
जो उसके पास हुआ मुझसे बड़ा दुख

इस घर से
जो निकलना ही हुआ 
तो किधर ले चलेंगे मुझे
मेरे कदम              
कहीं तो रुकेंगे
कोई ठिकाना देखकर
किस घर के सामनेे रुकेंगे
ये पैर
अब इस उम्र में
किस अधेड़ स्त्री को होगा भला
मेरी कातर पुकार का इन्तजार
फिर मिली कोई चोट
तो मर नहीं जाउंगा
डर कर
फिर मुड़ेंगे किधर मेरे पैर
किस दिशा में ढूढ़ेंगे  
कोई रास्ता
किस बस्ती में पहुंच कर
किस स्त्री के कंधे पर रखूंगा सिर
क्या करूंगा जो उसके पास हुआ
मुझसे बड़ा दुख          
दो दुखीजन मिल कर     
बना सकते हैं क्या
एक छोटा-सा
सुखी घर ।
                                  

घर: पांच / 
कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
                                       
                                             
कैसे निकलूं इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नींद
एक स्त्री की तीस बरस लंबी नींद
नींद भी जैसे किसी नींद में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नींद में हो
बस एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नींद
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नींद में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूं उसके जीवन से
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूं कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में           
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह
नींद में
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूं
बताकर जाना चाहता हूं
कि जा रहा हूं
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूं कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूं
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे
कि जा रहा हूं।


घर: छः / 
उठो यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है

कैसे जगाऊंगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूंगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूंगा हौले से
जागो यशोधरा
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताजा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है
उठो यशोधरा
तुम्हारा राहुल सो रहा है
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊं तुम्हें
तुम्हीं बताओ यशोधरा
किस गुरु के पास जाऊं
किस स्त्री से पूछूं
युगों से
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मंत्र
किससे कहूं कि देखो
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी हैे
और मुझ जैसे
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से
क्या करूं
इस यशोधरा का
जिसे
मेरे जैसा एक साधारण आदमी
बहुत चाह कर भी
जगा नहीं पा रहा है
और
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।

                                       
घर: सात / 
बहुत उदास हूं आज की रात                         
                               
किससे कहूं
कि मुझे बताये
अभी कितने फेरे लेने होंगे वापस
जीवन की किसी उलझी हुई गांठ को
सुलझाने के लिए
जो खो गया है
उसे दुबारा पाने के लिए
कहां हो मेरे प्यार                                        
देखो     
जिस छोटे-से घर को बनाने में 
कभी शामिल थे कई बड़े-बुजुर्ग
आज कोई नहीं है उनमें से
कितना अकेला हूं
हजार छेदों वाले इस जहाज को
बचाने के काम में
जहाज का चूहा होता
तो कितना सुखी होता
मेरी मुश्किल यह है कि आदमी हूं
कितना मुश्किल होता है कभी
किसी-किसी आदमी के लिए
एक धागा तोड़ पाना
किसी तितली से
उसके पंख अलग करना
किसी स्त्री के सिंदूर की चमक
मद्धिम करना
और अपने में मगन
एक दुनिया को छोड़कर
दूसरी दुनिया बसाना
कोई नहीं है इस वक्त
मेरे पास
कभी न खत्म होने वाली
इस रात के सिवा
बहुत उदास हूं आज की रात
यह रात
मेरे जीवन की सबसे लंबी रात है
कैसे संभालूं खुद को
मुश्किल में हूं   
एक ओर स्मृतियों का अधीर समुद्ऱ है                       
दूसरी तरफ दर्द का घर                        
कुछ नहीं बोलते पक्षीगण
कि जाऊं किधर
पत्तियां भूल गयी हैं हिलना-डुलना
चुप है पवन
बाहर
कहीं से नहीं आती कोई आवाज
बहुत बेचैन हूं आज की रात
किससे कहूं
कि अब इस रात से बाहर जाना                    
और इसके भीतर जिंदा रहना
मेरे वश में नहीं।

( चौथे संग्रह ‘परिणीता’ से )


                     
         

शनिवार, 12 नवंबर 2011

सबद एक पूछिबा

-गणेश पाण्डेय

सबद एक पूछिबा
बाबा
दया करि कहिबा
मनि न करिबा
रोस

बाबा
हे अच्छे बाबा
इस कलिकाल में
क्या अच्छा है
क्या बुरा
आज की तिथि में
इस शहर का बाशिंदा होना
अच्छा है कि बुरा
हिन्दू का हिन्दू होना
और मुसलमान का मुसलमान
अच्छा है कि बुरा
अपने - अपने ढंग से इबादत करते हुए
ईश्वर के बंदों को प्यार करना
अच्छा है कि बुरा
खेलने - कूदने
और राजा बेटा बनने की उम्र के लड़कों का
बात - बात पर म्यान से
तलवार निकाल लेना
अच्छा है कि बुरा
पुलिस के सामने
उसकी गाड़ी से ज़बरदस्ती खींचकर
एक हिन्दू लड़के को पीट-पीट कर
मार डालना
अच्छा है कि बुरा
और बदले में
एक मुसलमान लड़के को
कहीं से पकड़कर धायं-धायं दाग देना
अच्छा है कि बुरा
आखि़र
लड़के तो लड़के हैं बाबा
जैसे आपके बच्चे वैसे सबके बच्चे
ऐसे हालात पैदा करना
अच्छा है कि बुरा

बाबा
हे दूरंदेशी बाबा
आपने शेर देखा है
जिं़दा देखा है
कि भूसा भरा हुआ
मुझे तो जब भी मौक़ा मिला
मेरी बदकिस्मती देखिए -
भूसावाला देखा
इस बार तो
एक और अचंभा देखा
पुलिस की वर्दी में भूसावाला
शेर देखा
छब्बीस जनवरी
दो हजार सात की रात थी
औैर था रात का पहला पहर
सरकारी इमारतों पर
अँधेरे में हिल-डुल रहा था
झंडा
डी ए वी  कालेज के गेट के पास
हर देखी हुई चीज़ पर शक करने वाली
और मौके़ पर
चौकसी के नाम पर खड़े-खड़े सोने वाली
पुलिस की आँखों के सामने
और उसके हाथों की ज़द में
सुबह अख़बार बांटकर
और शाम को
ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करने वाले
नौजवान राजकुमार को
पुलिस के भरे हुए
नये-नये आग्नेयास्त्रों की मौजूदगी में
माइक-स्पीकर हूटर-नीलीबत्ती लगी
और उस पर पुलिस लिखी हुई
जीप से खींचकर                                                         
पीट - पीट कर
पटक - पटक कर
और सीने में तलवार भोंक कर
मोहर्रम के जुलूस में शामिल नौजवानों ने
मार डाला
पुलिस
जैसे काठ की पुलिस थी
जैसे पत्थर की पुलिस
लोहे के हाथी जैसी पुलिस की जीप
वायरलेस सेट और भारी-भरकम बन्दूकें
सब जैसे
गोरखनाथ मंदिर के खिचड़ी मेले में
खिलौने की दुकानों के सजावटी सामान
यह तो बाद में अख़बार वालों ने बताया
न काठ की पुलिस थी न पत्थर की
और न सर्कस की पुलिस
बल्कि
सूबे के सरगना की कोई मुलायम पुलिस थी
जो गुलाब जामुन से भी अधिक मुलायम थी
ख़ास
मोहर्रम के जुलूस में शामिल नौजवानों के लिए
तबादला, लाइनहाज़िरी और मुअत्तली के डर से
ऐसे मौक़े पर
थर-थर कांपते जिसके हाथ
झूठ-मूठ का
एक हवाई फायर तक नहीं कर सकते थे
हे तत्त्वदर्शी बाबा
यह पुलिस थी तो मज़ाक़ क्या था
जो भी था अच्छा था कि बुरा
जिस वक़्त मारा गया
जनता का राजकुमार
मौके़ पर
न कोई अपने पर फ़िदा लेखक पहुँचा
न घरों, दफ़्तरों और सभागारों में
दुबक कर बैठा रहने वाला
कोई बुद्धिजीवी
न दिल्ली से कोई वायुयानी मार्क्सवादी पहुँचा
न मुंबई से उड़नखटोले में बैठकर
उड़नेवाला समाजवादी
आखि़र पहुँचा कौन
छोटी-सी बात हो चाहे बड़ी घटना
ऐसे हर मौके़ पर
रात-बिरात
घंटी बजते ही उठकर
चाहे नींद में पहुँचने के लिए
बदनाम आपका बच्चा - छोटा बाबा
आज की तारीख़ में
ऐसे किसी भी नाजु़क मौके़ पर
इस छोटे-से बाबा का
आसपास कहीं भी
अपने हिस्से की जनता के बीच पहुंचना
आंधी का पहुँचना है
और कुशासन के खि़लाफ
आग की लपटों का बेकाबू हो जाना
यह तो बाद में
अख़बारवालों ने बताया
कि जिस वक़्त यह सारा कांड हो रहा था
ज़िले का नौजवान आला अफ़सर
किसी भारतप्रसिद्ध चंपी मास्टर से
अपने बंगले में चंपी करा रहा था
न तो उसके पास
जनता के किसी लेखक के लिए वक़्त था
और न जनता के बीच
जनता का लाडला बनकर जाने की चाहत
पुलिस के आला अफसर की दशा
इतनी बदतर थी
कि जनता की घड़कन नापने का
उसका हर आला टूटा-फूटा था
और पुलिस का हर आला अफ़सर
सूबे के राजा का
एक अदना कांस्टेबिल बनकर
लट्टू की तरह नाच रहा था
किया वह जो नहीं करना था
वह नहीं किया जो करना था
आला अफ़सरों को
करना था राजकुमार के हत्यारों को
फ़ौरन गिरिफ़्तार
कहाँ लगा दिया आनन-फानन में
कई थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू
और अगले दिन
कर लिया उसे गिरिफ़्तार
जो न चोर था न डाकू न क़ातिल
बस कुसूर यह था कि ऊँची आवाज़ में
हत्यारों की गिरिफ्तारी की मांग कर रहा था
और कर्फ्यू मुक्त गोलघर में
श्रद्धांजलि सभा में शामिल होने जा रहा था

राजनीति के पण्डित
और तिजारती सदमे में थे बाबा
वे चाहकर भी और देखकर भी
कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि आखि़र
यह हो क्या रहा है
एक छोटे - से बाबा पर
फ़िदा कैसे हो रहा है
इस अंचल का
और उसके पक्ष का बच्चा - बच्चा
क्या वयस्क और क्या बुजुर्ग
क्या औरत और क्या मर्द
जो जानते थे उन्हें पता था
कैसे दौड़ता रहा एक छोटा-सा बाबा
आँधी-पानी और अंगारों के बीच
दिन रात
क़सबा - क़सबा,  गाँव - गाँव
एक - एक घर
जिसे और जहाँ ज़रूरत थी उसकी
पहुँचा उसके पास तुरत
और जब अफ़सरों ने उसे
ले जाना चाहा गिरिफ़्तार करके
जेल
तो धर्मशाला बाज़ार से ज़िला जेल तक
पुलिस से ज़्यादा और पुलिस पर भारी थी
उसके चाहने वालों की भीड़
क्या बच्चे क्या बड़े
सबके हाथ में पत्थर
गु़स्सा और चीख़
पुलिस की लारी घिर चुकी थी ऐसे
जैसे उसकी जनता के अथाह जल में
कोई खिलौना
                                                   
कोई लारी के पहिए की हवा निकाल रहा था
कोई लारी के आगे लेटकर सीना फुला रहा था
कोई ऐसे ही कहीं मुक्का मार रहा था
कोई रास्ते में जाम लगा रहा था
सबकी आँखों में उतर आया था ख़ून और आँसू
रह-रह कर उठती थी पुकार -
जोगी  मत जा  मत जा  मत जा
इस नौजवान जोगी के पास
अपनी जनता का दिल था
और पुलिस के पास थीं लाठियाँ
आँसू गैस के गोले
और बन्दूकें
पुलिस तो पुलिस थी
हार कर भी जीतने का कानून था
उसके पास
सो कर दिया एक छोटे से बाबा को
दो मिनट में जेल के अन्दर

बाबा
हे सबसे बड़े बाबा
यह छोटा बाबा
आपका बच्चा है कि जनता का
जोगी है कि कोई नन्हा जादूगर
इस वक़्त
यह कितना नाथपंथी है कितना ठाकुर
कितना अपनी जनता का है कितना आपका
यह आपका क्या है और क्या नहीं
आप जानें
मैं तो बस इतना जानूं
आज की तारीख़ में
आपका यह जो भी है अच्छा या बुरा
अपनी जनता का लाडला है
अपनी जनता की उम्मीद है
जनता के आँसू
और जनता की आग

पूर्वांचल में
आग ही आग
रेल के डिब्बों और रोडवेज की बसों से
उठती ऊँची-ऊँची बेक़ाबू लपटें
दुकानों और गुमटियों में आग लगाकर
हू-हू करते दौड़ते - भागते लड़के
गोरखपुर, बस्ती, सिद्धार्थनगर, देवरिया
महराजगंज, पडरौना - कुशीनगर हो
चाहे बहराइच, बनारस और कानपुर
हर जगह विरोध की आग
रेलसेवाएँ ठप और बसें बेबस
जगह-जगह हिंसक झड़पें
और कई जगह कर्फ्यू

बाबा
हे स्वतंत्र बाबा
कर्फ्यू देखा है आपने
कर्फ्यू के बारे में सुना है कभी कुछ
कि आखि़र
यह कैसी घरबन्दी है
मरता है कोई बदनसीब
तो अस्पताल का मुँह देखे बिना
मर जाए
छूटता है कहीं किसी का कोई
बेहद ज़रूरी काम
तो छूट जाए
जैसे छूट जाती है कोई गाड़ी
किसी का इन्तज़ार किये बगैर
किसी ग़रीब का
दूध के लिए रोता हुआ बच्चा
रह जाए अंगूठा चूसकर
कुछ दिन और
रूठती है किसी की नन्ही परी
तो रूठ जाए या फिर
सब्जी नहीं है तो क्या हुआ
बचा रह गया हो मर्तबान में
जरा-सा अचार चाहे मसाला
तो चाटकर
काम चलाए
टलता है अचानक
किसी का शुभमुहूर्त
तो टल जाए
चाहे लग्न-मण्डप
बदल जाए                                                    
किसी का कोई ख़ास
फंस गया है कहीं दूर अगर
डर - डर कर
किसी तरह काट ले
मुसीबत के दिन बनकर आयी
सबसे काली और सर्द
रात

बाबा
आखि़र
क्या है कर्फ्यू
कोई रामबाण है
उपद्रव को रोकने का कानून है
कि शहर के स्पंदन और नसों को
बंद कर देने का कानून
कहाँ हैं कानून छाँटने वाले
निकालें खोपड़ी से प्रकाश
और डालें -
कर्फ्यू
जनभावनाओं को चोट पहुँचाने का कानून
है कि नहीं
प्रशासन की नाकामी को छिपाने का कानून
है कि नहीं
दूसरों के किये की सजा
भोली-भाली जनता को भुगतने का कानून
है कि नहीं
यह कानून अंग्रेजों के ज़माने का कानून
है कि नहीं

बाबा
कानून की आत्मा के बारे में
आप ही बतायें -
यह कानून ऐसे हालात पैदा करने वाले
आला अफ़सरों और वज़ीरों को
जेल में डालने के लिए
क्यों नहीं है
ऐसे अफ़सरों और कानून के रखवालों को
पैर की जूती बनाये रखने वाले
सूबे के सरगनाओं को तुरत
सलाखों के पीछे करने के लिए
क्यों नहीं है
बाबा
कर्फ्यू से कभी कुछ ठीक हुआ है कहीं
आज तक जारी हैं दंगे
यह कैसी बदकिस्मती है बाबा
कि अपने ही घर में
अपने ही शहर और मुल्क में
अपने ही लोगों पर
अमन के लिए बंदूक का कानून
यह कैसी आज़ादी है बाबा
तलब करो गांधीबाबा को
संविधान के निर्माता को करो
एस एम एस
फोन मिलाओ राष्ट्राध्यक्ष को
क्यों इतना संवेदनहीन हो गया है तंत्र
सूबे का राजा क्यों हो गया है इतना
सत्तालोलुप
गांधी के रघुपति राघव राजा राम वाले
स्वाधीन भारत में
हिन्दू होना अपराध क्यो हो गया है

बाबा
उस बच्चे का क्या गुनाह था
दो छोटे-छोटे बच्चों का अब्बा होना गुनाह था
कि ख़राब से ख़राब मोटरसाइकिल
पाँच रुपये में ठीक कर देना गुनाह था
कि उसका बोदा होना गुनाह था
राशिद का क्या गुनाह था बाबा
कर्फ्यू में ढील के दौरान
राशन के लिए थैला लेकर निकलना
गुनाह था
कि राजकुमार का क़ातिल न होना गुनाह था
कि असली या किसी झूठमूठ के राजकुमार को
न जानना गुनाह था
वह तो महज़
अपनी बीवी के चेहरे की उदासी को जानता था
और रोते हुए बच्चों की सूरत पहचानता था
बहुत हुआ तो याद करने पर
ठीक की गयी मोटरसाइकिलों में से कुछ को
पहचान सकता था
इसके सिवा
उसकी न किसी भले से जान-पहचान थी
न किसी बुरे से
फिर क्यों उसे पकड़ कर
और बंधे के पास ले जाकर
कट्टे से धायं - धायं दाग दिया गया
आखि़र
क्या गुनाह था बाबा राशिद का
कि वह थैले में राशन की जगह
अपनी लाश लेकर घर लौटा
हे बाबा
राशिद के मारे जाने की वजह क्या थी
पूछते हैं आपके पड़ोसी मुसलमान
इस देश में
सिर्फ एक मुसलमान होना
उसके मारे जाने की वजह क्यों थी
हे बाबा
हिन्दू का हिन्दू होना
और मुसलमान का मुसलमान होना
क्यों अलग-अलग होना है
धरती और आकाश के लिए
जल और वायु के लिए
अन्न और जीवन के लिए
ईश्वर और खुदा के लिए
और अपने शहर और देश के लिए
क्यों नहीं एक होना है
किसके हाथ में है सबको बांटने की माया
किसकी वजह से जलने लगता है
यह शहर
यह सब
ऐसे ही नहीं हो गया था बाबा
कहानी लंबी थी और मोड़ कई
क़त्ल का पहला कांड
छब्बीस जनवरी को
अचानक नहीं हो गया था
चार जनवरी को पहले
सद्दाम को फांसी देने का विरोध करते हुए
अमेरिकी शहरों की जगह
गोरखपुर के गोलघर में
हिन्दुओं की दुकानों में की गयी
तोड़फोड़
तेइस जनवरी को खूनीपुर में
वसंत पंचमी के दिन
सम्मत गाड़ने के विवाद में
अंततः
पुरानी जगह से तीन फुट हटना पड़ा
हिंदुओं को
अगले दिन छोटेकाज़ीपुर में
मन्दिर से लौट रही एक महिला के साथ
                                                  
छेड़खानी करते हुए अन्य मज़हब के युवा     
उसके हाते तक पहुँच गए
और शिकायतों की झड़ी के बावजूद
एक बार फिर नहीं पहुँची वक्त पर
पुलिस
यह कैसी पुलिस है बाबा
जिसके पास वर्दी तो एक है पर चेहरे अनेक
जिसका कारनामा है -
अंग्रेजीराज से  कांग्रेसीराज तक
कांग्रेसीराज से गैर कांग्रेसीराज तक
गैर कांग्रेसीराज से माफियाराज तक
सत्ता की आँख की डोलती हुई पुतली देखकर
कभी अंधा तो कभी बहरा
कभी बेजु़बान तो कभी वहशी हो जाना
चुन-चुन कर हिन्दू को
तो कभी मुसलमान को सताना
यह कैसी सत्तानुकूलित पुलिस है
बाबा

यह कैसी सत्ता है
और कैसा है राज
जब जल रहा है पूरा पूर्वांचल
पुलिस और नौजवानों की झड़प से
फूट रही हैं जगह - जगह चिंगारियाँ
सूबे का राजा
और उसके दोस्त - अहबाब
वालीवुड की तारिकाओं के संग
लगा रहे हैं ठुमके
और अख़बारवालों से कर रहे हैं
लगातार ग़लतबयानी
बाबा
ये कैसे राजा हैं
किस ज़माने के राजा हैं
राजा हैं कि बहुरूपिये
खाते हैं कुछ बताते हैं कुछ
खाई हींग कपूर बषाणैं
जिनके लिए एक ही समय में
हिन्दू होना साम्प्रदायिक होना है
और मुसलमान होना असाम्प्रदायिक
ये राजा
कहते हैं कुछ  करते हैं कुछ
कहणि सुहेली  रहणि दुहेली
कहणि रहणि बिन थोथी
इनके लिए
हिन्दू न तो हिन्दू है
और मुसलमान  न मुसलमान
सब
किसी वोट प्रजाति के प्राणी हैं

बाबा
तब कैसी थी दुनिया
कैसे थे यहाँ के लोग-बाग
ऐसी ही थी राजनीति की दुनिया
स्वार्थ ऐसे ही निर्लज्ज था
क्रूरता ऐसे ही असीम
सब ऐसे ही थे
जैसे ये हैं
और इनके दल हैं
ऐसे ही लूट लेते थे साधारण जन को
कभी स्वप्न तो कभी भय दिखाकर
ऐसे ही पहले के गैंग-शैंग करते थे
पाँच-पाँच सौ और हजार-हजार के
गांधी छाप नोटों की मोटी-मोटी गड्डी
और आक़ाओं की कुर्सी की मजबूती के लिए
क़त्ल दर क़त्ल
ऐसे ही
एक - एक साड़ी
एक - एक पाउच
और दो-दो रुपये में
खरीद लेते थे
ईमान
ऐसे ही जला देते थे अपने आज के लिए
सजातीय और सधर्मा जन-समूह का कल
ऐसे ही रुपया उस समय का भगवान था
ऐसे ही सबको क़र्ज़खोर बनाने के लिए
किये जाते थे सरकारी उपक्रम
और उत्सव
                                                    
बाबा
कैसा था उस वक़्त
माननीयों की समझ का संसार
जैसे आज -
इनकी बुनियादी समझ ही यही है
कि इनके अलावा किसी के पास
कोई समझ नहीं है
देश में और इस शहर में
जितने भी बैंक हैं बड़े-बड़े
सब इनके सामने खड़े हैं
शीश झुकाकर
इनका
छोटे से छोटा वोट बैंक
बड़े से बड़े बैंक से बड़ा है
और ख़तरनाक
ऐसा कोई बैंक
पहले कभी देखा है बाबा
किसी को वोट-सोट दिया है
इनके चक्कर में पड़े हैं कभी
आपके ज़माने की माया से
कितनी ज़हरीली है आज की वोट माया
कितनी चतुर है बाबा यह
देखिए, तो -
गणतंत्र के जीवन जल में
कैसे डँसती है सबको
मारौ मारौ
स्रपनी निरमल जल पैठी

बाबा
यह कैसा वक़्त है
आसमान से बरस रही है बुराई
और धरती से फूट रही है
हिंसा
क्या आपका पूर्वांचल
क्या देश
जब - जब
एक मज़हब के लोगों के वोट बैंक को
मज़बूत करने की कोशिश हुई
दूसरे धर्म के लोगों के वोट बैंक में
संख्या के अनुपात में भारी वृद्धि हुई
बाबा
साँप - सीढ़ी
और मौत के कुएँ के खेल में
बदल गया है
वोट बैंक का खेल
इस खेल में
आदमी के मारे जाने की वजह
आदमी होना नहीं
अमीर और ग़रीब होना भी नहीं
किसी का हिन्दू होना है
तो किसी का मुसलमान होना
किसी का अगड़ी जाति का होना है
किसी का पिछड़ी जाति का होना
और किसी का दलित होना
बाबा
ऐसे ही खेल - खेल में
कीट-पतंग की तरह मरना
वह मरना क्यों नहीं -
मरौ वे जोगी मरौ मरण है मीठा
तिस मरणी मरौ
जिस मरणी गोरष मरि दीठा
क्या हो गया है इस पूर्वांचल को
इस देश को
जीवन से चुरा लिया है जैसे किसी ने
उसका संगीत
और प्रकृति से उसके बोल

हे बाबा
कैसा टेढ़ा-मेढ़ा वक़्त है
और कैसा है यह शहर
यह गोरखपुर शहर आपका है
और आपका नहीं है
आज की तारीख़ में
सूबे के किसी राजा की जागीर है
उसी की पुलिस है उसी का अफ़सर
शहर का मौसम
इस शहर का मौसम नहीं रह गया है
क्या हो गया है प्रकृति को
कैसे कुम्हला गया है वक़्त की आँच में
इस शहर का वसंत
कैसा था कैसा हो गया है
किसका है यह वसंत
भटक गया है शायद
किसी बात से नाराज़ हो गया है शायद
कि डर गया है किसी अमानुष से
यह जो वसंत है
सरसो के पीले-पीले फूलों का वसंत है
कि खेतों में नौजवानों को दौड़ा-दौड़ाकर
उल्टा-सीधा चलते हुए
पुलिस के डण्डों का वसंत
कि अमराइयों में फुनगियों पर चढ़कर
थर-थर कांपता हुआ वसंत है
कि नई-नई कोंपलों में छिपकर बैठा हुआ
कि कोयलों के कंठ में भयभीत
मौन वसंत
हे बाबा
यह कैसा वसंत है
क्या
वसंत के अग्रदूत निराला का
उदग्र वसंत है
कि सुभद्रा कुमारी चौहान का
वीरों का वसंत
कि चौरीचौरा कांड में शामिल
किसानों का वसंत है
कि सूबे की सत्ता की क्रूरता के खि़लाफ
आग की नई-नई लपटों का वसंत
यह वसंत
आकर चला जाने वाला वसंत है
कि शहर की याद में
ठहर जाने वाला वसंत
यह वसंत
हवा में अमन का राग गाने वालों का वसंत है
कि धरती के कागज़ पर
पूरब की आग लिखने वालों का वसंत
बाबा
राति गई अधराति गई
बालक एक पुकारै
है कोई नगर मैं सूरा
बालक का दुःख निवारै
आपसे न पूछूँ तो और किसे याद करूँ
कौन इस शहर में आपसे बड़ा है
सबसे बड़े कवि आप
सबसे छोटा मैं
आप जैसे सबद
कहाँ मेरे पास
कहाँ आपके सबद
तीक्ष्ण ज्ञान-खड्ग -
सबद हमारा षरतर षांडा
और कहाँ मेरे नन्हे-नन्हे
बैयाँ - बैयाँ चलते शब्द
आप तो सब जानते हैं बाबा
कि मैं कितना अज्ञानी हूँ -
शास्त्र और लोक से अनभिज्ञ
कविता के कछार का ग़रीब बेटा
जिसकी कविता की टूटी-फूटी इबारत
इस अंचल के अपढ़ लोगों के
माथे की शिकन के बीच कहीं
खो गयी है
और
मैं कितना अशांत हूँ
आज की तारीख में
सुस्ताना चाहता हूँ क्षण भर
अपने बाबा के सबद की छांव में
जिन्होंने कहा -
हबकि न बोलिबा
ठबकि न चालिबा
धीरै धरिबा
पांव।


(तीसरे कविता संग्रह ‘‘जापानी बुखार’’ से)




गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

नई सदी की काव्यालोचना की मुश्किलें

- गणेश पाण्डेय -

मित्रो! आप सब हमारे समय की काव्यालोचना की मुश्किलों के बारे में मुझसे बेहतर जानते होंगे। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। संदेह तो मुझे कहीं भी नहीं है, आप पर भी नहीं है, आप को कहीं हो तो मैं कह नहीं सकता। अपने समय की काव्यालोचना के बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है, मैं सिर्फ यह कह सकता हूँ और कहने की कोशिश कर रहा हूँ। हमारे समय की काव्यालोचना दरअसल काव्यालोचना है ही नहीं, बल्कि कुछ और है। यह जो कुछ और है, इसके बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है। यह बात मैं फिर से कह देना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि अब आप मुझसे कहना चाह रहे हैं कि मैं फिर अपनी उस बात को कहने में इतनी देर क्यों लगा रहा हूँ जो संदेह से परे है। असल में मित्रो, संदेह मुझे नहीं है पर उन्हें तो है। उन्हें जो संदेहवादी कवि या संदेहवादी क्रांतिकारी कवि हैं। उन्हें संदेह है कि जब तक कोई अच्छा या बुरा या धंधेबाज या महाखराब आलोचक उनकी कविता पर उनके जीवित रहते उन्हें प्रमोट करने के लिए दो शब्द कह नहीं देता, तब तक उनकी कविता और वे अमरता की सीढ़ी पर चढ़ नहीं सकते। मैं नहीं जानता, पर क्या पता संदेहवादी कवियों और संदेहवादी क्रांतिकारी कवियों को पता हो कि कबीर, सूर, तुलसी, जायसी वगैरह बहुत से कवियों को प्रमोट करने के लिए अनेक नामी-गिरामी आलोचक भक्तिकाल मेे भी रहे होंगे, शायद उन्हें यह भी पता हो कि निराला और मुक्तिबोध को भी इन्हीं या किन्हीं आलोचकों ने प्रमोट किया होगा, अन्यथा वे भी हिंदी के हजारों कवियों की तरह गुप्तकवि बन कर रह गये होते और कोई उन्हें जानने वाला नहीं होता। इसीलिए संदेहवादी मित्रकवि चाहते होगे कि जीवनकाल में ही प्रमोट हो लिया जाय नहीं तो बाद में गुप्तकवि या महागुप्तकवि बनने का खतरा बना रहेगा। असल में मित्रों हमारे समय के हिंदी के ये मित्रकवि पैदा ही अमर होने के लिए हुए हैं, कोई और बड़ा-छोटा काम करने के लिए नहीं। ये जनमुक्ति के गीत के बीच-बीच में अपनी अमरता की टेक सुनाने के लिए पैदा हुए हैं। ये अपने समय के उपेक्षित और पीड़ित जन और प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिए नहीं बल्कि कविता की दुनिया में अपनी अक्षुण्ण यशाकांक्षा के लिए पैदा हुए हैं। ये यह भी नहीं जानते कि यशाकांक्षा कविता का प्रयोजन उनके लिए है जिनके लिए कविता प्रतिपक्ष की आवाज नहीं है, जिनके लिए कविता प्रतिरोध का पर्याय नहीं है, जिनके लिए कविता स्वाधीनता और मुक्ति का वाहक नहीं है, बल्कि जिनके लिए कविता सिर्फ और सिर्फ मौज-मस्ती की चीज है। किसी बड़े संपादक या आलोचक की महफिल में कवि या कवयित्री के अश्लील नाच-गाने के बाद संपादक और आलोचक के मुँह या आँखों या देह के किसी भी हिस्से से निकलने वाली वाह-वाह नहीं है कविता। कविता क्या है और कविता क्या नहीं है, इस पर अन्यत्र कह चुका हूँ। यहाँ तो कहना यह है कि वाह-वाह नहीं है आलोचना। आज की वाह-वाह वादी आलोचना ही नई सदी की आलोचना की सबसे बड़ी मुश्किल है। क्या-क्या नहीं ढ़ूँढ लाते हैं आज के काव्यालोचक। औसत से भी कम कविता के लिए दिल्ली और गोरखपुर के बड़े और छोटे मशहूर आलोचक तारीफों के बीस-बीस किलोमीटर लंबे पुल बाँधते हैं तो दूसरी ओर यूपी और दिल्ली के युवा आलोचक बाहर के नामीगिरामी लेखकों और कवियों के उद्धरणों को ठँूस-ठूँस कर भूसे का बोरा बना देते हैं। आप ही बतलाइए कि आलोचना के नाम पर की जा रही यह कबूतरबाजी और कतरनबाजी ही आलोचना है ? अभी-अभी पैदा हुआ कवि दो मिनट में आलोचक की कृपा से किसी लेख या भाषण में महाकवि बन जाने के लिए सौभाग्यशाली है। उसे कबीर, तुलसी, निराला, मुक्तिबोध की तरह लंबे समय तक किसी तनाव में रहने या आत्मसंघर्ष की जरूरत नहीं है। एक आलोचक के हस्ताक्षर से उसे सारे तनावों से चुटकियों में मुक्ति मिल जाती है। नई सदी की चौखट पर पैर लटका कर बैठे हुए आलोचक कविता के स्वर्ग का टिकट बेचने वाले पोप बने बैठे हैं। कोई मार्टिन लूथर है जो स्वर्ग के टिकटों के गट्ठर को फाड़ कर चिंदी-चिंदी कर सके ? मैं आलोचक नहीं हूँ जो आलोचक हैं वे बेहतर बता सकते हैं कि आचार्य शुक्ल ने कविता के स्वर्ग के कितने टिकट बेचे हैं ? कितने नवजात कवियों को महाकवि बनाया है ? कितने नचनिये-पदनिये कवियों को लोककवि कहा है ? बहरहाल न आचार्य रहे और न काव्यालोचना के वैसे आचार-विचार रहे। अब तो आलोचक साहित्य का पथ निर्माता नहीं, सीधे पी.डब्ल्यू.डी. का माफिया ठेकेदार हो गया है। पथ ही नहीं कविता के देश को लूटना जिसके एजेंडे पर है। कविता बिटिया की लाज लुटती है तो लुट जाये। उसके ही हाथों यह सब होता है तो हो जाये। अच्छी कविता किसी की बेटी होती है, किसी की माँ होती है तो किसी की हीर होती है। अच्छी कविता किसी दुखीजन का बाम होती है। किसी की लाठी होती है। किसी का हाथ होती है। किसी की आँख होती है। और भी न जाने क्या-क्या होती है अच्छी कविता। ऐसे ही अच्छी आलोचना भी किसी की आँख होती है तो किसी का दिल और किसी-किसी के लिए तो पथप्रदर्शक और देवता होती है। पर इन सबसे बड़ी बात यह कि अच्छी आलोचना सच की बेटी होती है, झूठ का दलाल नहीं होती है। सच का रखवाला होता है अच्छा आलोचक। जो आलोचक अपने मित्र और हेली-मेली की कविता की अतिरंजित प्रशंसा करता है वह दरअसल अपने मित्र का ही सबसे बड़ा शत्रु होता है, फिर तो ऐसा आदमी कविता का कितना मित्र होगा ? इधर औसत कविताओं की बाढ़ का समय है। कविता के नाम पर ठस गद्य का अतरल संसार कविता विरोधी तो होता ही है, संवेदना विरोधी भी होता है। ऐसा गद्य इकहरे यथार्थ की नुमाइश लगाता है, कविता का आकाश नहीं रचता है। कविता के देश में हमें ले जाने की सामर्थ्य नहीं रखता है। जब तक हम कविता की नसों में संवेदना की तरलता का संचार नहीं करते, कविता का द्वार नहीं खुलता। कविता का फाटक खोलने के लिए किसी अलीबाबा की जरूरत नहीं होती है, बल्कि जिस चाबी की जरूरत होती है, उसे काव्यविवेक कहते हैं। काव्यविवेक अर्थात काव्य और अकाव्य में भेद करने की रचनात्मक शक्ति। जैसे कविता के फाटक को खोलने के लिए काव्यविवेक की जरूरत होती है, उसी तरह आलोचना की आँखों को धुलने के लिए जिस निर्मल और शीतल जल की जरूरत होती है, उसे आलोचक का ईमान कहते हैं। यह ईमान ही रोशनी है। यह ईमान ही आलोचना का देवता है।
     आज की आलोचना की तीसरी मुश्किल है आलोचना के ईमान के लोचनों का असमय बंद हो जाना। ईमान का बेईमान हो जाना। एक आलोचक का ईमान की दुनिया में सरेआम खुदकुशी कर लेना। एक अच्छा आलोचक अपनी लिखने की मेज पर सिर्फ और सिर्फ काव्यसत्य का मित्र होता है, ठीक उसी तरह जैसे एक न्यायाधीश अपनी न्यायपीठ पर सिर्फ और सिर्फ सच का दोस्त होता है। लेकिन जैसे न्याय मिल पाने में कई बाधाएँ आती हैं, कहीं-कहीं तो न्यायाधीश पर भी सुप्रीमकोर्ट ने टिप्पणियाँ की हैं। उसी तरह आलोचना के न्यायालय में भी आलोचक कुछ ज्यादे ही न्याय के रास्ते की रुकावट बनते हैं। कहना चाहिए कि न्याय को अन्याय से ढ़कने की कोशिश करते हैं। ऐसे बुरे वक्त में आलोचना की आलोचना की बात कितनी खतरनाक है मानस जी, आप मुझसे बेहतर समझ सकते हैं। आलोचना पर उंगली उठाने वाले की उंगली नहीं तोड़ी जाती है मानस जी, सीधे गला उड़ा दिया जाता है। हालाकि किसी गंदे से गंदे आलोचक में यह शक्ति नहीं होती है कि वह किसी अच्छी रचना की हत्या कर सके। वह एक संपादक के रूप में सिर्फ यह कर सकता है कि पूर्वांचल में पचास हजार से भी ज्यादे शिशुओं का जीवन छीन लेने वाली महामारी जापानी बुखार पर लिखी हुई कविता अपनी पत्रिका में न छापे, बल्कि कंडोम पर लिखी हुई कविता छापे। लेकिन कोई आलोचक साहित्य की सत्ता के मद में चाहे जितना पूंछ उठाकर घूम ले लेकिन देखने वाले साफ-साफ देखते हैं कि उसकी कौन-सी चीज खुली रह जाती है। उदय की एक कविता की याद यहाँ आ रही है। दिल्ली हो या गोरखपुर या कोई और शहर, एक नहीं कई उदय हैं जो आलोचकों की नाइंसाफी के शिकार हुए हैं। मैं यहाँ किसी का नाम नहीं लेना चाहता था, उदय से मेरा कोई संबंध भी नहीं है और न कभी कोई मुलाकात है, पर उस कविता की याद आ गयी जिसमें एक सिंह जब अपनी पूँछ उठा कर अकड़ के साथ चलता है तो उसकी कोई चीज खुली रह जाती है। किस्से हजारों हैं आलोचकों की धंधई के। एक ऐसे वक्त में जब आलोचना सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाले साहित्य के नम्बर एक धंधे के रूप में फल-फूल रही हो और कवि और आलोचक दोनों उससे तृप्त हों, तो फिर कुछ भी कहना और साहित्य के पत्थर पर अपना सिर पटकना कितनी समझदारी की बात है ? समझदारी की बात हो या न हो पर जिन्हें ऐसा कुछ कहने और सोचने की आदत है वे कहाँ जायेंगे ? वे तो सच कहने की कोशिश अंत तक करेंगे ही। कोई उनकी बात सुने या न सुने। क्या कोई कही हुई बात सिर्फ अपने समय के लोगों के लिए होती है ? उसे बाद में सुनने के रास्ते बंद हो जाते हैं क्या ? क्या फिर कभी हिंदी साहित्य के सच्चे सपूत पैदा ही नहीं होंगे ?
    नई सदी की आलोचना में ऐसे ही अंत तक चलता रहेगा, मैं नहीं मानता। आलोचक भी बदलेंगे और आलोचना भी। ऐसे ही नहीं चलेगा सब। झूठ और फरेब से चलने वाला आलोचना का नामी-बेनामी कारोबार एक दिन बंद हो जायेगा। क्योंकि कोई मशहूर से मशहूर आलोचक कितना जियेगा, कितना उछल-कूद करेगा आलोचना के नाम पर। एक न एक दिन आलोचना की जी.टी.रोड की बुरी स्त्री मरेगी और कोई सती उठ खड़ी होगी उसी राख से आलोचना को बचाने के लिए। मैं जाहिर है कि सारी चिंता काव्यालोचना को लेकर व्यक्त कर रहा हूँ। खासतौर से सिर्फ और सिर्फ अपने समय की आलोचना को ध्यान में रख कर अपनी बात कह रहा हूँ। नई सदी के दूसरे दशक में हम जिस आलोचना को देख रहे हैं, वह पाठकों और सीधे-सादे लेखकों का भरोसा खो चुकी है। विश्वसनीयता का संकट ही आज की आलोचना का चौथा सबसे बड़ा संकट है। आज पाठक रचना तो पढ़ता नहीं फिर आलोचना क्या खाक पढ़ेगा ? आज की कविताएँ कितने बड़े पाठक समुदाय के बीच जाती है ? आज कितने पाठक हैं नई सदी की कविता के ? नई सदी में कविताएँ वही पढ़ते हैं जो कविताएँ लिखते हैं। उसमें भी कुछ पाठक तो ऐसे भी हैं कि ऊपर-ऊपर से देख कर लिफाफा देख कर खत का मजमून भांप लेते हैं की तर्ज पर जान लेते हैं कि अन्दर क्या है और छोड़ देते हैं। अच्छी आलोचना का काम क्या पाठकों की अभिरुचि का परिष्कार करना नहीं होता है ? जब आलोचना अपने दायित्व से च्युत हो जाती है तो वह आलोचना तो बहुत दूर की चीज है, आलू-चना जैसा मूल्य भी नहीं पाती है। आलोचना जब खराब कविता को प्रमोट करती है तो कविता से पाठकों में विरक्ति का भाव पैदा होता है। कवि को देख कर उबकाई आती है। अच्छी आलोचना तब अच्छी आलोचना कहलाती है, जब वह अच्छी कविता को प्रमोट करती है। अच्छी कविता को प्रमोट करने वाली आलोचना और आलोचक ही समादृत होता है। तभी एक आलोचना मूल्यवान होती है और एक आलोचक पाठकों का भरोसा जीतता है। आचार्य शुक्ल ने खराब कवियों को प्रमोट किया होता तो उन्हें आज सम्मानपूर्वक याद नहीं किया जाता। आज के नामी-गिरामी बहुत ज्यादे मशहूर आलोचक की तरह सचमुच की लेंड़ी की तरह लेंड़ी भर कवियों को प्रमोट किया होता तो भी आज उन्हें कोई नहीं पूछता। ये लेंड़ियों वाले आलोचक भी बाद में याद नहीं किये जायेंगे। कह सकते हैं कि एक भी लेंड़ी इन्हें पूछेगी नहीं।
       नई सदी के आलोचक भी लेंड़ियों की तरह ही हैं। जब आलोचना कुछ का कुछ कहने लगेगी। आम को इमली और औरत को मर्द बताने लगेगी तो आलोचक कितना छोटा हो जायेगा, कहने की बात नहीं। आप सब अच्दी तरह जानते होंगे ऐसे आलोचकों की कारस्तानी। काव्यालोचना के संकुचन की कुछ अन्दरूनी वजहें हैं, जिन्हें बता देने का वक्त आ गया है। ये अन्दरूरी वजहें नई सदी की आलोचना की पाँचवीं बड़ी वजह है। आज के युवा आलोचक उस कवि को देखते ही घूँघट काढ़ लेते हैं जो किसी विश्वविद्यालय में ऐसे क्रम में होता है जो विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर न बैठ सके और जिसकी अपने विभाग के हिंदी के शत्रुओं से बीसियों वर्षाें से ठनी हो, जो अपने अध्यक्षों को उनकी साहित्यिक हैसियत बताता चलता हो या कुछ न कह कर भी स्वाभिमान पूर्वक रहता हो। युवा आलोचक ऐसे खतरनाक कवि से इसलिए दूर रहना पसंद करते हैं कि उस विभाग के दिग्गज कहीं नाराज हो गये तो उस विभाग में प्रोफेसर बनने की संभावनाएँ खत्म हो जायेंगी। इतना ही नहीं अनेक आलोचक ऐसे हैं जो चयन समितियों भी रहते हैं, इसलिए युवा आलोचक उनके सामने कुछ भी डटकर बोलने में डरते हैं। आशय यह कि कैरियरवाद ने हिंदी आलोचना का काम तमाम करने की कोशिश की है। मुझे बीस-बाइस साल पहले बस्ती में अपने सरकारी आवास में शिवमूर्ति की कही बात आज शिद्दत से याद आती है कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग लेखकों के लिए कत्लगाह हैं। नई सदी के हिंदी विभागों की दशा आज तब से बहुत ज्यादे खराब है। आज तो लेखकों का ही नहीं बल्कि बाकायदा साहित्य का कसाईबाड़ा है। आलोचना जाहिर है कि विश्वविद्यालयों के आचार्यों की आत्मजा भी है और परिणीता भी। इसलिए कह सकते हैं कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग आलोचना का मायका और ससुराल दोनों हैं। जैसे कभी-कभी जीवन में ऐसा होता है कि मायके और ससुराल में कोई बड़ा-बुजुर्ग जिंदा नहीं रहता है तो सब बड़ा सूना-सूना -सा लगता है। नई सदी की आलोचना का परिसर बड़ा सूना-सूना -सा लग रहा है। यह सूनापन जितना हिंदी विभागों के परिसर में है उतना ही उससे बाहर के परिसर में भी। युवा आलोचकों की एक जमात हिंदी विभागों से बाहर भी है। कोई आकाशवाणी में है, कोई दूरसंचार विभाग में तो कोई बैंक या रेल या किसी और विभाग में। पर एक बात इनमें जो सामान्य रूप से एक है, वह यह कि ये विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में न होने के बावजूद निडरता के मामले में एक जैसे कमजोर हैं। एक आलोचक में मर्मग्राहिणी प्रज्ञा, तीक्ष्ण अन्वीक्षण बुद्धि और विस्तृत अध्ययन का होना लाजिमी तो माना गया, पर पहले के बड़े आलोचकों ने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन आलोचक ईमान की पीठ पर बैठ कर आलोचना लिखेगा, नहीं तो वे यह भी जोड़ते कि एक आलोचक में इन तीनों के साथ चौथी और सबसे जरूरी चीज जिसे होना चाहिए वह है सच कहने का साहस। दुर्भाग्य यह कि सचमुच के बड़े आलोचक चले गये। आज के झूठमूठ के बड़े आलोचकों ने युवा आलोचकों से कहा ही नहीं कि निडरता अच्छी आलोचना की पहली शर्त है। आलोचना की मेज पर बैठो तो भूल जाओ कि किसने क्या फतवा जारी किया है। किसने किस लेखक को प्रमोट किया है और किसका नाम नहीं लिया है। सब दूसरों का कहा ही करोगे तो तुम्हारी बुद्धि क्या सिर्फ घास चरने के काम आयेगी ? क्या होगा तुम्हारी मर्मग्राहिणी प्रज्ञा क्या ? तुम्हारी तीक्ष्ण अन्वीक्षण बुद्धि शर्मिन्दा नहीं होगी ? तुम्हारा विस्तृत अध्ययन किस काम आयेगा, तुम्हारे अज्ञान को प्रकट करने के काम आयेगा ? क्यों नहीं तुम आलोचना के उस भ्रष्टाचार का भांडा फोड़ते, जिसके लिए तुम्हें साहित्य का देश टकटकी लगाये देख रहा है ? वक्त तुम्हारा फोटो खींच रहा है। कहाँ खड़े हो तुम ? किस महाबली के चरणों में अपनी मुक्ति की तलाश कर रहे हो ? कहीं तुम आलोचना के साथ-साथ अपनी भाषा, अपने देश के साहित्य और अपने लोगों के साथ छल तो नहीं कर रहे हो ? आज की तारीख में यह सवाल नश्तर की तरह चुभता है कि क्या नई सदी में हिंदी की आलोचना एक खूबसूरत छल है ? जिसके जाल में सबको फंसना है। नहीं, यह बात एक हद तक तो सच है लेकिन सौफीसदी सच नहीं है। क्यों कि ऐसा होता तो आलोचना के छल के इस जाल को तोड़ने की कोशिशें इस तरह तीव्र नहीं होतीं। यह जरूर है कि हमारे सामने आलोचकों की जो जमात है, उसमें जो हैं होकर भी नहीं हैं। जो नहीं हैं उनकी जरूरत है। साहित्य में नये की निरंतरता अबाध है। उसे कोई रोक नहीं सकता। कोई महाबली कोई मुंशी कोई मीडियाकर। एक न एक दिन नये पत्ते आते हैं और छा जाते हैं। नये पत्ते आयेंगे और छा जायेंगे। एक दिन नई सदी में आलोचना की नई आमद की किलकारियों से आलोचना का घर फिर से भासमान होगा और काव्यालोचना की मुश्किलों के अंत की जोरदार शुरुआत देख कर यहाँ से जाने का सुयोग हमें जरूर मिलेगा। मित्रो ! यह सुयोग ही हमारी साहित्यिक मुक्ति होगी।
                                                                                                                        




                                                                                   
                                                                             गणेश पाण्डेय  Ganesh Pandey  

रविवार, 24 जुलाई 2011

आलोचना की दास परंपरा


                                           
                                                                          - गणेश पाण्डेय
                  बात कहीं से भी शुरू की जा सकती है। छायावाद से भी कि छायावाद आधुनिक हिंदी कविता की सबसे ऊँची मंजिल है। लेकिन जरूरी नहीं कि इस बात से या किसी बात से सब सहमत हो। क्योंकि यह एक ऐसा समय है जब हिंदी के अनेक स्वनामधन्य आचार्य अपने काव्य विवेक से अधिक अपने समय के नामी-गिरामी आलोचकों के काव्यविवेक या किसी अन्य आग्रह पर अधिक भरोसा करते हैं। भरोसा ही नही बाकायदा उनकी पूजा करते हैं। हो सकता है कि ऐसे काव्यालोचक कहें कि प्रगतिवाद सबसे उंची मंजिल है। पर मेरे देखेने में अच्छाइयों के बावजूद प्रगतिवाद आधुनिक कविता की सबसे ऊँची मंजिल नहीं है। मैं ही नहीं और भी कई लोग ऐसा ही अनुभव करते हैं। पर हो सकता है कि ग्लोकोमा की वजह से मैं इससे अधिक देख न पा रहा होऊँ। असल में हिंदी साहित्य में यह भ्रम जोरों पर है कि सूरदास तो सिर्फ कविता में होते हैं और वह भी आज के जमाने में सिर्फ लच्छीपुर खास में होते हैं, आलोचना में हरगिज-हरगिज नहीं होते हैं। जबकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि हिंदी साहित्य के मौजूदा परिदृश्य पर आलोचना में सूरदासों की भरमार है। सूरदास ही नहीं बल्कि इनमें गजब-गजब के दास होते हैं। कोई अपने समय की आलोचना के शिखर पुरुष के श्रीचरणों के परम आनंद में डूबा हुआ डूबादास होता है तो कोई अपने बाहुबल और साहित्य के छलबल से विश्वभ्रमण पर निकला संसारी दास। कोई नया-नया दासानुदास। कोई एक नहीं। अनेक दासानुदास। बाकायदा आलोचना की सुदीर्घ दास परंपरा मौजूद है। ये कब कहां कैसे क्या करते हैं, यह सब बताने की बात नहीं है। बस इतना समझ लीजिए कि ये किसी नयी बात से या किसी बात को नयी तरह से देखने से डायबिटीज के मरीजों की तरह सख्त परहेज करते हैं। ऐसे आलोचक या आचार्य कविता की विकास यात्रा को किस दृष्टि से देखते हैं, यह दुर्भाग्यवश किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हो सकता है। आधुनिक हिंदी कविता के पाठ्यक्रम में छायावाद ही नहीं छायावादोŸार कविता का भी विशिष्ट स्थान है। लेकिन जैसा कि कहा गया कि छायावाद आधुनिक कविता का शिखर है, तो इसके पुष्ट आधार हैं। छायावादी कविता द्विवेदीयुग की कविता की तरह टेढ़ामेढ़ा लड्डू नहीं है। बल्कि संुदर, स्वादिष्ट और सुपाच्य, कविता का नायाब प्रसाद है। कविता की उर्वर और श्रेष्ठ कल्पना का असीम आकाश ही नहीं है बल्कि अनुभव का अद्वितीय लोक है। कवि अपने पूरे वुजूद के साथ कविता का सहचर और भोक्ता है। एक ऐसी काव्यभूमि है जहां प्रकृति सिर्फ नई ही नहीं होती है बल्कि कुछ और भी बन जाती है, एक जीती जागती और प्रेयसि जैसी प्रिय स्त्री। छायावाद में स्त्री बिल्कुल नये रूप में सामने आती है। स्त्री की चिंता भी कहीं ज्यादा ईमानदार है। एक और राम की शक्तिपूजा में सीता की मुक्ति की चिंता है तो दूसरी ओर देवी जैसी रचना में अति साधारण और हाशिये की स्त्री के जीवन और सरोकारों की चिंता। विधवा स्त्री की भी चिंता कवि को उसी तरह विकल करती है। प्रायः कवियों ने नयी स्त्री को देखने की कोशिश की है। इन कवियों की स्त्री एक ओर देवि, सहचरि, मां है तो दूसरी ओर इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी विधवा और पत्थर तोड़ती मजदूरनी भी। निराला कविता को जब परिवेश की पुकार कहते हैं तो उनके सामने जाहिर है कि छायावाद की कविता होती है। आचार्य शुक्ल ने छायावाद को जब चित्रभाषा शैली कहने  साथ-साथ उसे बाहर से आया बतलाया तो उनके इस आग्रह को स्वीकार करने में जिन कारणों से दिक्कत हुई, स्पष्ट है। रहस्यवाद छायावादी कविता का एक छोटा-सा अंश है पूरा छायावाद नहीं। इस तरह का रहस्यवादी छायावाद पहले रवींद्रनाथ की कविताओं में फिर वहां से हिंदी में आया, इसे भी स्वीकार करने में मुश्किल हुई। यदि इसे ही छायावाद मान लेंगे तो फिर स्वाधीनता संधर्ष जैसे साहित्य के वृहत्तर उद्देश्य का क्या होगा ? क्या उससे बड़ा कविता का सरोकर कहा जायेगा - बीसवीं सदी और अब नयी सदी में - छायावाद का रहस्यवादी सरोकार ? यह ठीक है कि छायावादी कविता का पाट जिन दो छोरों से बनता है, उसमें एक ओर विराट का साक्षात्कार है तो दूसरी ओर लघुता के प्रति दृष्टिपात ही नहीं बल्कि उनके और विशेषरूप से देश के लिए संघर्ष चेतना की प्रतिष्ठा है। कविता का शाश्वत परिसर तो है ही। जाहिर है कि कविता की सलिला जिन दो पाटों के बीच बहती है उनमें एक है प्रकृति और दूसरा है अपने समय के समाज का परिदृश्य। छायावाद में प्रकृति पहलीबार जीती-जागती और किसी सुंदर और सौम्य स्त्री की तरह बहुत नयी-नयी और बेहद आत्मीय और अंतरंग लगती है। आगे कुछ कवियों के यहां तो अल्हड़ और नितांत अपनी लगती है। कविता में निजता का तत्व कविता का विरोधी नहीं है। बल्कि कविता को और विश्वसनीय और तरल बनाने वाला तत्व है। यह तरलता ही कविता को पठनीयता और सम्प्रेषणीयता जैसे आलोचनात्मक प्रश्नों से मुक्त करती है। वैयक्तिकता और सामाजिकता के प्रश्न छायावादी कविता को अशक्त नहीं करते हैं, बल्कि ताकत देते हैं। निराला लिखते है- ‘मैंने मैं शैली अपनायी’ और दूसरी ओर कहते हैं कि ‘कविता परिवेश की पुकार है’। जाहिर है कि परिवेश केवल प्रकृति का आंगन नहीं है। उसके भीतर आसपास का सब शामिल है। आसपास का ही नहीं, बल्कि हमारी चेतना के भीतर जो कुछ भी अंट सकता है, सब शामिल है। क्या समाज और क्या देश। क्या यहां और क्या वहां। क्या इस पार और क्या उस पार। छायावादी कविता की श्रेष्ठता का आधार उसके कवियों का महत्वपूर्ण अवदान है। कोई भी काव्यांदोलन, काव्यांदोलन ही नहीं बल्कि कोई भी साहित्यिक आंदोलन अपने आग्रहों और अपनी वैचारिकी से महत्वपूर्ण नहीं होता है, बल्कि उसे उससे जुड़े लेखकों के कद और योगदान के आधार पर याद किया जाता है। कभी-कभी बिना किसी घोषित काव्यांदोलन के एक कालखण्ड विशेष के भीतर के लेखकों में आप से आप अपने समय और परिवेश की पुकार के आधार पर मिलती-जुलती काव्य प्रवृत्तियां दिखने लगती हैं। सच बात तो यह कि कोई सजग कवि जब कविता रच रहा होता है तो उस समय वह पुलिस की परेड नहीं कर रहा होता है। उसकी अपनी काव्यदृष्टि बहुत-सी चीजों को तय करती है। उदाहरण के लिए कह सकते हैं कि इसीलिए हिंदी के सारे मार्क्सवादी कवि मुक्तिबोध से छोटे हैं। छोटा या बड़ा होना किसी सीमित अर्थ में लेने से कभी-कभी अनर्थ भी हो जाता है। छायावादी कविता के बड़े होने के अपने पुष्ट अकाट्य आधार हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि बाद की कविता अवांछित या महत्वहीन है। छायावादोŸार कविता एक अर्थ में छायावादी कविता का ही विकास है। द्विवेदीयुग की कविता की प्रतिक्रिया में छायावाद के लिए स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का स्वागत जैसा सूक्ष्म के विरुद्ध स्थूल जैसी कोई चीज नहीं। न तो उसकी भयंकर प्रतिक्रिया में अलग से कविता की दृष्टि से कोई क्रांतिकारी चीज है। इंकिलाब है तो कथ्य के स्तर पर पहले के जन सरोकारों के स्वर की तीव्रता तक सीमित है। हिंदी के प्रिय विद्यार्थियों और भविष्य के कर्णधारों से विनती है कि वे छायावादोŸार कविता को आधुनिक हिंदी कविता के विकासक्रम में अगले और एक छोटे पड़ाव लेकिन महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखने की कृपा करें। इसे एक ऐसे पड़ाव के रूप में लें कि जहाँ कविता के पाठकों को गला तर करने के लिए एक छोटा-सा कुआँ है, एक छोटी-सी रस्सी है और एक छोटा-सा घड़ा है। थोड़ी-सी मौज है थोड़ी-सी मस्ती है। प्यास का थोड़ा-सा दीवानापन है। यों तो एक अध्यापक रूप मेे अपने विद्यार्थियों से कहना हो तो कहेंगे कि छायावाद के बाद हिंदी कविता मोटेतौर पर जिन दो रास्तों पर आगे बढ़ती है, उनमें पहला रास्ता प्रगतिवाद कहलाता है जिसे कुछ लोग अज्ञानवश बंद गली का आखिरी मकान भी कहते हैं। दूसरा रास्ता प्रयोगवाद कहलाता है जिसे वही कुछ लोग बंद गली के आखिरी मकान के बगल से दाहिने निकला हुआ रास्ता कहते हैं। वे यह भी कहते हैं कि जब प्रगतिवाद में कविता के तत्वों की बहुत अनदेखी होने लगी तो कुछ कवियों ने कविता के पक्ष में और एक अर्थ में कुछ कवियों ने जनता के पक्ष में खड़ी होने वाली कविता के पक्ष में खड़े होने की कोशिश की। पर आगे बढ़ने से पहले छायावादोŸार या उŸार छायावाद जैसी छतरी के नीचे मौजूद कुछ ताकतवर कवियों की कविता पर भी गौर करना जरूरी होगा। ये सीधे और उन अर्थों में प्रगतिवादी तो नहीं कहलाये पर जिनकी रचनाओं में जनपक्षधरता के स्वर मौजूद हैं। लेकिन ऐसे भी कवि हैं जो समाज के वृहŸार दुख को दूर करने या सामाजिक सौहार्द के शर्तिया इलाज के लिए मयखाने में बैठना ज्यादा जरूरी समझते हैं। आधुनिकता की वैचाारिकी से इस मयखाने का रिश्ता या मय की ताजपोशी समझना औरों के लिए भले ही मुश्किल चीज हो पर हिंदी आलोचकों के लिए अतिसरल है। मधु तो छायावाद में भी है पर शाला का निर्माण तो छायावादोŸार या कहें कि छायावाद से थोड़ा आगे और प्रगतिवाद से थोड़ा पहले के मील के पत्थर के पास जन अरण्य में ही संभव होता है। निराला की कविताओं में सामान्यजन की प्रतिष्ठा और उनके पक्ष में डटकर खड़े होने का जैसा जज्बा मौजूद है, बाद की कविताओं में संधर्ष के दृश्य उनसे अलग नहीं बल्कि उनके स्वर के आलाप हैं। आशय यह नहीं कि छायावादोŸार कवियों का उपक्रम कहीं से कम है या नगण्य है। कहना चाहिए कि नगण्य और वंचितों की चिंता का स्वर उनके यहाँ तीव्र है। प्रगतिवाद के कवियों में कथ्य की सबलता और स्वर की तीव्रता ने जाहिर है कि कविता के तत्वों की अनदेखी की तो कविता के तत्वों की मजबूती के लिए प्रयोगवाद से जुड़े कवियों को आगे आना पड़ा। उनमें भी अज्ञेय तो जैसे आगे की कविता का सारा कील-कांटा जानते थे सो उन्हें सबसे आगे रहने के लिए प्रयोगवाद एक अवसर था। हालाकि वे वादी कहलाने के पक्ष में नहीं थे। पर जिन्हें उन्हें वादी कहना था, उन्होंने वादी कहा। तार सप्तक का प्रकाशन सचमुच गौरतलब है। सप्तक के कवियों के बारे में दिलचस्प यह कि ये कवि विचारधारा के स्तर पर एक नहीं थे। उनमें फर्क था। दूसरी बात यह कि ये कवि युवा थे पर कविदृष्टि वयस्क थी। तीसरी बात यह कि इस संकलन में शामिल कवियों की कविताएं, उन कवियों की सर्वोत्तम कविताएं नहीं थीं। सर्वोत्तम क्या प्रतिनिधि कविताएं भी नहीं थीं। इसके बावजूद संकलन के कवियों और उनकी कविताओं ने नई राह के अन्वेषण को संभव किया। यही इस संकलन का शायद उद्देश्य भी था। तार सप्तक के बाद दूसरा सप्तक फिर तीसरा सप्तक आया। सप्तकों ने और जो भी किया हो, कविता को नई कविता का एक खुला आसमान दिया। कहने को तो अज्ञेय चौथा सप्तक भी लेकर आये पर वह चौथा ही बनकर रह गया। सात तो दूर एक भी तार ठीक से बज नहीं पाया। जबकि तीसरे सप्तक तक के कवियों में कई कवि ऐसे हुए जिन्हांेने अपने समय की कविता को तो प्रभावित किया ही है बाद की कविता को भी प्रभावित किया है। कविता की यात्रा हो या साहित्य की किसी भी विधा की विकास यात्रा,  कम प्रतिभा के ऐसे कवियों की भरमार रहती है जो किसी भी तरह उछल-कूद करके अमर हो जाने के लिए विकल रहते हैं। आलोचक या संपादक को खुश करने के लिए कुछ भी करने को तो तैयार रहते ही हैं, कविता या रचना की हत्या करने तक के काम को करने में तनिक भी दुखी नहीं होते। कविता मरती है तो मर जायें, बस ये अमर हो जायें। कविता की सुफरफास्ट रेलगाड़ी के दरवाजे पर हैंडिल को कस कर पकड़कर या बिना टिकट बर्थ पर लेटकर सफर करने वाले ऐसे कातिलों को आज भी देखा जा सकता है। साहित्य में कई आंदोलन ऐसे मीडियाकर अमर होने की आकांक्षा में चलाते हैं। कई संपादक अपनी पत्रिका या खुद को संपादक के रूप में स्थापित करने के लिए भी ऐसे प्रायोजित आंदोलन खड़ा करते रहते हैं। पर बिना अच्छी रचना के कोई भी आंदोलन जीवित नहीं रहता है। कईबार अपने समय की कविता या कवियों को चर्चित करने या अंधेरे में रखने में प्रतिष्ठित आलोचक भी कम बेईमानी या कम बड़ी चूक नहीं करते हैं। कुछ वक्त पहले एक नामचीन आलोचक ने  एक इंटरव्यू में कहा था कि फणीश्वरनाथ रेणु के महत्व को समझने में देर हुई। शायद यह आधा सच है। यह सच है कि उन्होंने रेणु के महत्व को देर से स्वीकार किया। पर यह सच नहीं लगता कि हमारे समय का कोई नामचीन आलोचक रेणु जैसे लेखक के महत्व को देर से समझ पायेगा। यह सिर्फ एक उदाहरण है। हिंदी आलोचना में आज कई ऐसे आलोचक हैं जो अपने समय की कविता और आलोचना को इसी तरह कलंकित करते हैं। दुर्भाग्य यह कि हमारे समय की युवा आलोचना कभी अपने पैरों पर खड़ी ही नहीं हुई। लेकिन सौभाग्य से हिंदी कविता की निर्मल आत्मा कभी भी ऐसी कुचेष्टाओं से मलिन हुई ही नहीं। शुरू में ही ंिहदी कविता की नींव इतनी मजबूत बनी कि कोई आलोचक या दंद-फंद में लगा हुआ कवि  अपनी दबंगई या बुरी नजर से उसे हिलाना तो दूर, छू भी नहीं सकता है। कविता की आत्मा के पास पहुंचते ही अपात्र सूर्य जैसे ताप में राख हो जाता है। लेकिन कई बार एक पूरा का पूरा दौर ही आंख पर पट्टी बांध लेता है। किसी महाजन की जगह किसी महादुर्जन के फतवे को ही अपने समय का सत्य समझ लेता है। पर जब समय का सारा पानी बह जाता है तो रेत की तरह सच सामने होता है। अपने समय के सब चर्चित भुला दिये गये होते हैं। याद रहते हैं वे जिनकी कविताओं में कुछ होता है। कभी-कभी कुछ वाले भी अपने समय में अपनी हैसियत से अधिक पा जाते हैं।
नई कविता और नई कहानी दोनों आधुनिक काल का महत्वपूर्ण पड़ाव है। कविता में नई कविता के बाद कुछ पानी के बुलबुले जैसे काव्यांदोलन भी आते हैं। पर कविता के एक समृद्ध और मजबूत देश में अकविता के लिए कितनी गुंजाइश हो सकती है। सो आये और गये की तरह कविता और कहानी में ऐसे आंदोलन कहने के लिए आये और चले गये। साठ के बाद कविता के मिजाज में जो परिवर्तन दिखता है, वह अचानक और किसी एक कवि के प्रादुर्भाव से नहीं होता है। यह सोचना नासमझी होगी कि एक धूमिल के आने से साठ के बाद की कविता चमकी। वह एक ऐसा कालखण्ड था जब देश की परिस्थितियों में काफी कुछ नाउम्मीदी और विकलता और विश्वास का संकट युवा लेखकों को मथ रहा था। बाहर और भीतर काफी कुछ टूट रहा था। नई कविता के कई कवियों में अपने समय के दंश और उसकी तीव्रता का अनुभव मौजूद है। जहां तक राजनीतिक कविता का प्रश्न है, यह कहने में संकोच नहीं कि मुक्तिबोध के बाद रधुवीर सहाय ध्यान खींचते हैं। साठोत्तरी कविता में जिसे मोहभंग की कविता भी कहा गया, राजनीति और खासतौर से लोकतंत्र और समाजवाद को लेकर कविता में बहुत बोलने वाली मुहावरेबाज कविता का एक दौर आता है। जिसमें कविता की भाषा को धरना-प्रदर्शन में चीखने वाली भाषा में बदलने की छटपटाहट दिखती है। धूमिल के लिए एक नामचीन आलोचक इतने व्यग्र होते हैं, शायद उतना कभी अपने बच्चों के लिए भी विकल नहीं हुए होंगे। धूमिल एक प्रतिभाशाली कवि हैं। इसमें कुछ खास बुरा नहीं है किसी पत्रिका में उन्हें किस तरह और उनकी कविता को कैसे करके छापा गया होगा। संपादक एक अभिभावक की तरह होता है। नये रचनाकार को अपने बच्चे की तरह सजाता और संवारता है। लेकिन किसी संपादक या  आलोचक को दूसरे बच्चे दिखें ही नहीं, यह बुरा है। साठोत्तरी कविता में धूमिल के अलावा लीलाधर जगूड़ी और देवेंद्र कुमार जैसे कवि भी शामिल हैं। पटना के युवा लेखक सम्मेलन में धूमिल ने जिस देवेंद्र कुमार की काव्य भाषा को अपनी काव्यभाषा से बेहतर बताया था, दुर्भाग्य यह कि हम पूर्वांचल में धूमिल को तो पढ़ाते हैं पर देवेंद्र कुमार की कविता को नहीं। ऐसा क्यों ? क्या इसलिए कि देवेंद्र कुमार न तो श्रीवास्तव थे न तिवारी ? या कि तिवारियों और श्रीवास्तवों की कविता से पहले किसी अन्य जाति में जन्म लेने वाले कवि की कविता पूर्वांचल में पढ़ाने में कोई साहित्यिक या नैतिक बाधा है ? या विश्वविद्यालयों के आचार्य कभी अपने कूपों से बाहर निकलेंगे ही नहीं ? आखिर ये आचार्य अपने कूपों से बाहर कब निकलेंगे ? या.... जब ये आचार्य चले जायेंगे और नये आचार्य आयेंगे, जो कूपों में नहीं बल्कि कविता के खुले परिसर में बैठेंगे, तब देवेंद्र कुमार ही नहीं देवेंद्र कुमार की कविता के भी बाद के जो सच्चे सपूत होंगे, उनकी कविता पढ़ाएंगे। जब हमारा समय बीत जायेगा और हम बीत जायेंगे तो शायद कुछ और लोग आयेंगे जो आज की दरिद्र युवा आलोचना को समृद्ध, ताकतवर और भरोसेमंद बनाएंगे। तब तक शायद न नामचीन आलोचक रहेंगे और न उनका डर। आज की मुश्किल यह कि हर शहर में एक-दो नामचीन रहते हैं। जो लेखक अपने समय के नामचीनों से डर कर लिखते हैं। जाहिर है कि वे लिखते नहीं हैं, बल्कि कुछ और करते हैं। आठवें दशक की कविता और उसके बाद की कविता की अपनी मुश्किलें हैं। अच्छे कवियों को निरंतर तनाव में रहना पड़ता है। कम अच्छे कवियों को साहित्य की अनेक अकादमियाँ रेवड़ी की तरह पुरस्कार बाँटती हैं। नवें दशक की कविता हो या अंतिम दशक की कविता और या नई सदी की कविता, इस पूरे दौर की कविता को एक अदद आलोचक की दरकार है जो सच को फटकार कर कह सके और राजधानी की ओर मुंह करके फटकार सके। लेकिन फटकारेगा कौन ? फटकारेगा वह जिसके पास एक टका ही सही, उसका अपना हो। अंत में कहना चाहूंगा कि फटकारने वाले आलोचक का प्रादुर्भाव नहीं होता है तो न सही। अच्छी कविता में आत्मरक्षा का गुण अनिवार्य रूप से होता है। अच्छी कविता किसी आलोचक का मुंह नहीं देखती। एक आलोचक को ही अच्छा आलोचक बनने के लिए अच्छी कविता के पास जाना पड़ता है। मैं यह मान नहीं सकता कि तुलसीदास आचार्य शुक्ल के पास गये थे। अच्छा कवि आलोचक के पास नहीं जाता है। आचार्य शुक्ल ही तुलसीदास और सूरदास और जायसी के पास गये थे। फिर आज के कवि क्यों दौड़-दौड़ कर राजधानी जाते हैं ? हिंदी कविता की यात्रा से जो लोग परिचित हैं जानते होगे कि अच्छी कविता राजधानी से दूर रहती है। कविता अपना जासूस आप होती है। किसी भी दौर की कविता हो, छायावाद की कविता हो या छायावादोत्तर कविता या उसके बाद की कविता अपनी खूबियों और खामियों को छुपाकर रख नहीं सकती है। इसे आप कविता की देवी का वरदान कहें या शाप, पर यह है और सौ फीसदी है।
- गणेश पाण्डेय, संपादक-‘यात्रा’ साहित्यिक पत्रिका।













मंगलवार, 10 मई 2011

जापानी बुख़ार

 - गणेश पाण्डेय   
  
हे बाबा
किसका है यह
जो अभी - अभी था
और इस क्षण नहीं है
जिसके मुखड़े के बिल्कुल पास
बिलख रहे हैं परिजन और स्वजन
राहुल - राहुल कह कर

किसका है यह नन्हा - सा
राजकुमार
जिसे अपनी छाती से लगाये
चूमती जा रही है बेतहाशा
एक लुटी-लुटी - सी बदहवास युवा स्त्री
जिसकी पथराई आँखों से झर रहे हैं
आँसू
झर-झर-झर

कौन है यह
अटूट विलाप करती हुई
अभागी कोमलांगी
जिसे अड़ोस - पड़ोस की बुजुर्ग औरतें
चुप करा रही हैं -
यशोधरा - यशोधरा कह कर
यह किसकी यशोधरा है बाबा
किसका है राहुल यह
तुमसे क्या नाता है

पिपरहवा के किसी सिधई अहीर
और गनवरिया के किसी बुधई कोंहार से
इस कालकथा का क्या रिश्ता है
कितने राहुल हैं बाबा
कितनी यशोधरा

ढाई हजार साल बाद
यह कैसी पटकथा लिख रहा है
काल
कपिलवस्तु के एक - एक गाँव में
कपिलवस्तु के बाहर गाँव - गाँव में
फूस की झोपड़ियों
और खपरैल के कच्चे - पक्के मकानों में
इक्कीसवीं सदी के एक - एक राहुल को
चुन - चुन कर
कैसे डँस लेता है काल
मच्छर का रूप धर कर

क्या पहले भी मच्छर के काटने से
मर जाते थे कपिलवस्तु के लोग
क्या पहले भी धान के सबसे अच्छे खेतों में
छिपे रहते थे जहरीले मच्छर
और देखते ही फूल जैसे बच्चों को
डँस लेते थे ऐसे ही
जापानी बुख़ार - जापानी बुख़ार
कह - कह कर

हमारे पुरखों के  पुरखों के  पुरखे
शालवन और पीपल के पेड़ वाले
बाबा
आज भी जिस जापान में बजता है
तुम्हारे नाम का डंका
सीधे वहीं से फाट पड़ी है यह महामारी
तीर्थों के तीर्थ बुद्ध प्रदेश में
पूर्वी उत्तर प्रदेश में

शोक में डूबी हुई है
यह विदीर्ण धरती
जहाँ - जहाँ पड़े हैं
तुम्हारे चरणकमल
श्रावस्ती हो या मगध
कपिलवस्तु हो या कोसल
लुम्बिनी हो या कुशीनारा
या हो सारनाथ
हर जगह है तुम्हारा राहुल
अनाथ

आमी हो या राप्ती
सरयू हो या गंगा या कोई और
जिन - जिन नदियों ने छुए हैं
तुम्हारे पांव
डबडब हैं यशोधरा के आँसुओं की बाढ़ से
देखो तो कैसे कम पड़ गया है
तुम्हारी करुणा का पाट
तुम्हीं बताओ बाबा
क्या
मेरी माँ यशोधरा
मेरी चाची यशोधरा
मेरी बुआ यशोधरा
मेरी दादी
मेरी परदादी की परदादी
यशोधरा के असमाप्त रुदन से
जीवित हैं इस अंचल की नदियाँ

क्यों नहीं सूख जाती हैं ये नदियाँ
क्यों नहीं खत्म हो जाता है
राहुल की चिन्ता न करने वाला
राजपाट
क्यों नहीं हो जाता सिंहासन को
जापानी बुखार

बोलो बाबा
कुछ तो बोलो
हे मेरे अच्छे बाबा कुछ तो नया बोलो
यशोधरा के महादुख पर रोशनी डालो
आलोकित करो पथ

क्या गोरखपुर क्या देवरिया
और क्या महराजगंज
क्या सिद्धार्थनगर
क्या अड़ोस - पड़ोस के जनपद
क्या पडोस के बिहार के गांव-गिरांव
और क्या नेपाल बार्डर - अन्दर
हर जगह पसरा हुआ है
मौत का सन्नाटा
और डर
घर - घर में कर गया है घर

किसी
नई - नई हुई माँ से
उसे रह-रह कर पुकारती हुई
उसकी नटखट पुकार को
छीन लेना
सहसा
किसी
पिता की डबडब आँख से
उसके चाँद-तारे को
अलग कर देना
किसी मासूम तितली से
एक झटके में
उसके पंख नोच लेना
और गेंदा और गुलाब से
उसकी पंखुड़ियों को लूटकर
मसल देना
किसी कविता का अंत है
कि जीवन की अवांछित विपदा
कि सभ्यता का कोई अनिवार्य शोकगीत
बोलो बाबा

क्या है यह
जपानी बुखार है तो यहां क्यों है
क्यों पसंद है इसे सबसे अधिक
इसके फंदेनुमा पंजे में
गिरई मछली की तरह तड़प-तड़प कर
शांत हो जाने वाले
इस अंचल के विपन्न , हतभाग्य
और दुधमुंहे

यह कोई बुखार है
बुखार है तो उतरता क्यों नहीं
महामारी है महामारी
नई महामारी
सबसे ज्यादा नये पौधों को
धरती से विलग करने वाली
मौत की तेज आंधी है
बुझाये हैं जिसने
इस अंचल के
हजारों नन्हे कुलदीप

कहां हैं मर्द सब
बेबस
और विलाप करती हुई मांओं की गोद
शिशु शवों से पाट देने वाला
हत्यारा जापानी बुखार
बचा हुआ है कैसे अबतक
कहां है पुलिस
और कहां है सेना
क्यों नहीं करती इसे गिरिफ्तार
जिंदा या मुर्दा
कोई विपक्ष है
है तो क्यों नहीं मांगता
जीने के अधिकार की गारंटी
कोई सरकार है कहीं
है तो कहां है

आये हाईकमान
कोई भारी-भरकम मंत्री-संत्री
कोई राजधानी का पत्रकार आये
और
टीवी पर जिंदगी की दो बूंद देने वाले
महानायक को पकड़कर लाये
कोई तो बतलाये-
जापान में एटमबम से
कितने शिशुओं की आंखें हुईं बंद
वर्ल्ड टेªड सेंटर पर हुए हमले में
मारे गये कितने अमेरिकी
आखिर कितना है अभी यहां कम

आने से कतराता है
सरकार का मुखिया
करता है वक्त का इंतजार
और हिसाब-किताब
अस्पतालों और सेहत का महकमा
पता नहीं किस अहमक के जिम्मे है
क्या शहर और क्या देहात
क्या धान के खेत
और क्या गड्ढे का पानी
किस सूअर
और किस मच्छर की बात करें
हर कोनें-अंतरे में बठी हुई है मौत
सफेद लिबास में

एक कहता है
हेलीकाप्टर में बैठकर
अपने नुकीले नाखूनों वाले पंजे से
छिड़केंगे दवा
गांव-खेत , ताल-पोखर
चल चुकी है राजधानी से
दवा लगी मच्छरदानियों की भारी खेप
हर मुश्किल में आपके साथ है
एक खानदानी पंजा

दूसरा
पहले शंख बजाता है फिर गाल-
बुखार जापानी हो या पाकिस्तानी
मार भगायेंगे
मर्ज कैसा भी हो
काफी है छूमंतर होने के लिए
कमल की पंखुड़ियों से बनी
एक गोली

तीसरा आता है बाद में
रहता है सरकार में मगन
कहता है कुछ करता है कुछ
मिनट-मिनट पर सोचता है
नफा-नुकसान
क्या खूब फबती है
उसकी दस लाख की गाड़ी पर
हरे और लाल रंग के मखमल जैसे
छोटे से झण्डे में कढ़ी हुई
सुनहली साइकिल
जिसके पास खड़ा होकर
किसी पुराने दर्द भरे गाने की तरह
कहता है-
जो हुआ उसके लिए बेहद अफसोस है
टीके और दवा का करते हैं इंतजाम
लीजिए फौरन से पेश्तर
ले आया हूं आठ करोड़
बस पकड़े रहें
साइकिल की मूठ

आते हैं एक से बढ़कर एक
हाथी नहीं आता
मुमकिन है कभी आये हाथी
गिरते-पड़ते
चाहे हाथी के हौदे पर आये
कोई गुस्सैल
चिंघाड़ते हुए-
नहीं-नहीं , यह नहीं जापानी बुखार
न इंसेफेलाइटिस न मस्तिष्क ज्वर
यह तो है सीधे-सीधे
मनुवादी बुखार
कमजोर तबके पर है जिसकी ज्यादे मार

कोई नहीं आता ऐसा
कोई वैद्य कोई डाक्टर
कोई लेखक कोई कलावंत
जीवन का कोई इंजीनियर
कोई पथ-प्रदर्शक
कोई माई का लाल
माई से कहने-
घबड़ाओ नहीं माई
लो
मेरी त्वचा की रूमाल से
पोंछ लो अपने आंसू
हर पंजे से बचायेंगे
बचायेंगे कमल से
साइकिल से बचायेंगे
बचायेंगे हाथी से
शर्तिया बचायेंगे माई
इस भगोड़े जापानी बुखार से
सूअर से बचायेंगे
बचायेंगे मच्छर से
सबसे बचायेंगे
माई ।

(तीसरे कविता संग्रह ‘‘जापानी बुखार’’ से)

















                            

रविवार, 1 मई 2011

गणेश पाण्डेय की गुरु सीरीज

गुरु-1/ 
जब मुझे गुरु ने डसा

न रोया
न दर्द हुआ, न कोई निशान
न रक्त बहा, न सफेद हुआ
जब मुझे गुरु ने डसा।
इस तरह
मैं पहली परीक्षा पास हुआ।

गुरु-2/ 
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया

मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ
न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर
सब कुछ सामान्य था मेरे लिए
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
और बनाया किसी खुशामदी को अपना
प्रधान शिष्य।
बस इतना हुआ मुझसे
कि मैं बहुत जोर से हँसा।

गुरु-3/ 
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा

चलो अच्छा हुआ
न मुद्रा, न वस्त्र, न अन्न
न अँगूठा, न कलेजा, न गर्दन
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
मैं खुश हुआ।
सहसा लिया मुझसे सभाकक्ष में
मेरे गुरु ने दिया हुआ शब्द।

गुरु-4/ 
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा

कोई पत्ता नहीं खड़का
मंद-मंद मुस्काते रहे पवन
आसमान के कारिंदों ने
लंबी छुट्टी पर भेज दिया मेघों को
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा।
अद्भुत यह, कि
पृथ्वी पर भी नहीं आयी कोई खरोंच।

गुरु-5/ 
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम

गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।

गुरु-6/ 
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान

सुंदर केश थे गुरु जी के
चौड़ा ललाट, आँखें भारी
लंबी नाक, रक्ताभ अधर
उस पर गज भर की जुबान।
गजब का प्रभामण्डल था
कद-काठी, चाल-ढ़ाल
सब दुरुस्त।
जो छिप कर देखा किसी दिन
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान।

गुरु - 7/ 
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं

कैसे हो सकता था
कि जो गुरु के गण थे, नागफनी थे
जड़ थे कितने कार्यकुशल थे।
आगे रहते थे, निकट थे इतने
जैसे स्वर्ण कुण्डल, त्योंरियाँ, हाथ।
क्या खतरा था उन्हें मुझसे
तनिक भी दक्ष नहीं था मैं
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं।
क्यों रोकते थे वे मुझे कुछ कहने से
जरूर हुई होगी कोई असुविधा
इसी तरह वैशम्पायन के गुरुकुल में
याज्ञवल्क्य से।

गुरु-8/ 
खूब मिले गुरु भाई

खूब मिले गुरु भाई
सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल
कुछ भी हो जाने के लिए
मेरे विरुद्ध।
बात सिर्फ इतनी-सी थी
कि मैं कवि था भरा हुआ
कि टूट रहा था मुझसे
कोई नियम
कि लिखना चाहता था मैं
नियम के लिए नियम।

गुरु-9/ 
खीजे गुरु

पहला बाण
जो मारा मुख पर
आंख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।

गुरु-10 / 
सद्गुरु का पता

अच्छा लगता था पाठशाला में
कबीर को पढ़ते हुए
अच्छा लगता था जीवन में
कबीर को ढूँढ़ते हुए
अच्छा लगता था सपने में
कबीर से पूछते हुए
सद्गुरु का पता।


(पहले कविता संग्रह ‘ अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)



                                                                                                                                                                                         

रविवार, 17 अप्रैल 2011

कैसे बनेगा बिना छेद वाला जनलोकपाल बिल

                
          
            गणेश पाण्डेय :  संपादक ‘यात्रा’
हाँ भाई डर तो मुझे भी लग रहा है। और भी बहुत से लोगों को इसी तरह का डर लग रहा होगा। वे आयेंगे और वे आ चुके होंगे अन्ना हजारे के आसपास। पैर बनकर, हाथ बनकर, आँख बनकर, जुबान बनकर पृथ्वी के सबसे सच्चे साथी बनकर। वे इस जनांदोलन का भी वही हश्र करेंगे। जैसा हश्र उनके पूर्ववर्तियों ने ऐसे ओदोलनों का हश्र किया है। लेकिन दुर्घटनाओं के अंदेशे में जैसे जहाज उड़ना बंद नहीं कर देते। जैसे रेल का सफर जारी रहता है। वैसे ही ऐसे आंदोलन भी चलते रहेंगे। क्यों कि इनका चलते रहना ही किसी समाज के जीवित रहने का प्रमाण है। एक पत्रकार को या एक लेखक को खुद को जिंदा रखने में उतना ही पश्रिम करना पड़ता है, जितना किसी जनांदोलन के नायक को अपने आंदोलन को जिंदा रखने के लिए या एक मंजिल तक पहुँचाने के लिए करना पड़ता है। क्या सचमुच जनलोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी में जितनी जन प्रतिभाएँ शामिल हैं, उनमें कुछ सौ करोड़ से भी अधिक सम्पत्ति की स्वामी अर्थात अरबपति हैं अथवा करोड़पति हैं ? क्या से सामाजिक कार्यकर्ता हैं ? तो फिर ये भी बताइये कि रामू सिद्धार्थ जैसे हजारों युवा लोग सामाजिक कार्यकर्ता हैं कि नहीं ? मैं जान भी गया हूँ कि आप का जवाब क्या है और मैं आपके जवाब से सौ फीसदी सहमत भी हूँ। खतरा कई ओर से है। जो अन्ना के आसपास हैं उनसे भी और जो अन्ना के सामने हैं उनसे भी। अभी कुछ ही दिन पहले कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल जी ने अन्ना हजारे से जिरह के अंदाज में जानना चाहा कि जन लोकपाल बिल जनता की मदद कैसे करेगा ? आप पूछ रहे हैं कि अगर एक गरीब बच्चे के पास पढ़ने का साधन नहीं है तो जन लोकपाल विधेयक कैसे उसकी सहायता करेगा। अगर उसे स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है तो वह एक राजनेता को पुकारेगा। लोकपाल विधेयक उसकी मदद कैसे करेगा। सिब्बल जी मंत्री हैं और कानून के जानकार भी, सो हो सकता है कि वे ऐसा सोच रहे हों कि जनता की नजर में यह लोकपाल बिल कोई जादू की छड़ी जैसी चीज है। तभी तो वे प्रश्न कर रहे हैं और कह रहे हैं कि इससे कुछ खास नहीं होने वाला है। अन्ना हजारे ने उचित ही कहा है कि आप ऐसा सोच रहे हैं तो आपको उस कमेटी से हट जाना चाहिए। अन्ना जी चाहे जितनी उचित बात कर रहे हों लेकिन किसी को किसी समिति से हटने के लिए कहना लोकतांत्रिक नहीं है बल्कि स्वस्थ बहस करना देश को सच बताना लोकतांत्रिक है। मंत्री जी को भी अपनी बात कहने का हक है। वैसे अन्ना जी भी यह बात अच्छी तरह समझ रहे होंगे कि जन लोकपाल बिल कोई रामबाण नहीं है। सिर्फ एक बाण है और उसका एक निश्चित लक्ष्य है। वह निशाना विकास नहीं है बल्कि सŸाा केंद्रित भष्टाचार है। मंत्री जी कुछ और जानते होंगे। फिलहाल साधारण जनता इतना ही समझ रही है। जनता जानती है कि देश के राजनीतिक स्वास्थ्य में भ्रष्टाचार की वजह से दिक्कत पैदा हो गयी है। भ्रष्टाचार को पैर की ओर से नहीं मारा जा सकता है। बल्कि भ्रष्टाचार को मारने की बुनियादी शर्त ही यह है कि उसे सिर की ओर से मारा जाय। अर्थात ऊपर से खत्म किया जाय। अन्ना हजारे और जनता यही चाह रही है और इसी विधि से भ्रष्टाचार का नाश देखना चाह रही है। अन्ना जी जो बोल रहे हैं वह उनका अपना नहीं है। जनता के शब्द हैं और जनता की आवाज है। इतना ही नहीं बल्कि यह कि अन्ना के मुख से समय बोल रहा है। हमारा समय। समय-समय पर जन आंदोलन ऐसे ही होते रहते हैं। आजादी के बाद जेपी का आंदोलन इससे व्यापक था। उस आंदोलन के नतीजे और अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे। उस आंदोलन ने भारतीय राजनीति के भविष्य को प्रभावित नहीं किया। आंदोलन से जुड़े लोगों में से कुछ ने तो भ्रष्टाचार का कीर्तिमान बनाया। अन्ना के साथ भी ऐसा हो सकता है। एक छोटी सी बात  बहुत से लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि कमेटी में पिता-पुत्र को रखने की विवश का कोई औचित्य है तो क्या है ?  यदि दोनों के सहयोग के बिना यह कार्य असंभव था अर्थात देश में बाकी सारी प्रतिभाओं का लोप हो गया था तो भी पिता-पुत्र को साथ रखने का निर्णय वयस्क नहीं प्रतीत होता है। एक ही घर के लोग संचार के हिमालय पर बैठकर जब चाहते आपस में परामर्श कर सकते थे। यदि पाँच लोगों में वह एक ही सबसे अपरिहार्य हैं तो बाकी लोगों का उस समिति में रहने का क्या औचित्य है। शेष अयोग्य ही हैं तो वहाँ क्यों हैं। यह सब जन उभार को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं कह रहा हूँ। बल्कि जन आंदोलन की चूकों की ओर ध्यान खींच रहा हूँ। बहरहाल मैं बात कर रहा था मंत्री जी की आलोचना को लेकर। मैं भी यही समझ रहा हूँ कि जन लोकपाल बिल से बिजली नहीं मिलेगी। पढ़ाई और दवाई का इंतजाम नहीं होगा। संसद और विधानसभाओं में दागी छवि के लोगों को जाने से रोक नहीं पायेगा। भारतीय राजनीति में धनबल और बाहुबल के विषधर के बिल को नष्ट नहीं कर पायेगा। वगैरह। लेकिन यह जानता हूँ कि बिना छेद वाला कोई संपूर्ण जनलोकपाल बिल बन गया तो उसके दूरगामी परिणाम होंगे। लेकिन मित्रो यह जुगाड़ का देश है। आप कोई भी सख्त कानून बना दीजिए राजनेता उसमें छेद पैदा कर देंगे। जहाँ नेता जी लोग खुद कानून बनाने बैठेंगे तो अपने खिलाफ कितना सख्त कानून बनाएंगे यह आसानी से अनुभव किया जा सकता है। क्या जन लोकपाल बिल में कुछ सख्त होने और होते हुए दिखने जा रहा है ? लेकिन आशंकाओं के प्रेत से चिपक कर बैठ जाएंगे तो आगे का रास्ता कैसे तय करेंगे ? यह ठीक कि जेपी इस देश की राजनीति को पवित्र नहीं बना पाये। अन्ना के बहाने शायद पवित्रता की कुछ बँूदे राजनति के विकृत मुख में आ जायँ और भारतीय राजनीति नैतिक और सामाजिक रूप से अधिक जवाबदेह हो जाय। न भी हो तो ऐसी कोशिश करते रहने से हम उस शुचिता की उम्मीद को तो जिन्दा कर सकते हैं जिसे राजनीति ने मार डाला है। क्या जन लोकपाल बिल रामबाण है, इस प्रश्न के जवाब को ढ़ूढ़ते हुए यह ध्यान देने की जरूरत है कि यह रामबाण हो या न हो पर यह सौ फीसदी सच है कि ऐसी कोशिशें भारतीय राजनीति को निर्मल बनाने के लिए एकबार ही नहीं बल्कि जब-जब मुश्किलें आयेंगी हजार बार रामबाण सिद्ध होंगी। जाहिर है कि आगे का रास्ता इन्हीं कोशिशों से होकर जाता है। अंत में मंत्री जी की बात से यह बात कि ठीक है कि जन लोकपाल बिल जादू की छड़ी नहीं है तो फिर मंत्री जी को क्या यह नहीं बताना चाहिए था कि जादू की छड़ी आखिर है कहाँ ? किस राजनेता या किस दल के पास है ? सŸाापक्ष के पास है कि विपक्ष के पास ?
गणेश पाण्डेय: संपादक-यात्रा, साहित्यिक पत्रिका