मंगलवार, 8 नवंबर 2016

सलाम वालेकुम

- गणेश पाण्डेय

सब साहिबान को सलाम
जो मुझे छोड़ने आये थे सिवान तक
उन भाइयों को सलाम जो अड्डे तक आये थे
मेरी छोटी-छोटी चीजों को लेकर।

उन चच्चा को खासतौर से सलाम
जिन्होंने मेरा टिकट कटाया था
और कुछ छुट्टे दिये थे वक्त पर काम आने के लिए।

बचपन के उन साथियों को सलाम
जिन्होंने हाथ हिलाया था
और जिन्होंने हाथ नहीं हिलाया था।

अम्मी को सलाम
जिन्होंने ऐन वक्त पर गर्म लोटे से
मेरा पाजामा इस्त्री किया था और जल गयी थी
जिनकी कोई उँगली।

आपा को सलाम
जिनके पुअे मीठे थे खूब और काफी थे
उस कहकशाँ तक पहुँचे मेरा सलाम
जो मुझे कुछ दे न सकी थी
खिड़की की दरार से सलाम के सिवा।

उस याद को सलाम
जिसने जिन्दा किया मुझे कई बार
उस वतन को सलाम
जो मुझे छोड़कर भी मुझसे छूट नहीं पाया।

रास्ते की तमाम जगहों और उन लोगो को सलाम
जिन्होंने बैठने के लिए जगह दी
और जिन्होंने दुश्वारियाँ खड़ी कीं
उस वक्त को सलाम
जिसने मुझे मार-मार कर सिखाया यहाँ
किसी आदमी को रिश्तों से नहीं
उसकी फितरत से जानो।

ऐ जिन्दगी तुझे सलाम
जो किसी काम के वास्ते तूने चुना
किसी गरीब को। 

(‘जल में’ से)






शनिवार, 5 नवंबर 2016

साहित्य के इस राज्य में

- गणेश पाण्डेय

साहित्य के इस राज्य में 
दूध और दही की नदियां अनगिनत 
सुदर्शन पुरुष और सुंदर स्त्रियाँ असंख्य
वृद्ध, अधेड़, युवा और किशोरों की जगमग दुनिया का ओर-छोर नहीं 
कोई कभी रोता नहीं कोई कभी सोता नहीं 
सब हृष्ट-पुष्ट कोई रोग-शोक नहीं 
ऐसा स्वास्थ्य ऐसा मेल-मिलाप ऐसी संगत ऐसी लय 
किसी अन्य राज्य में नहीं 
कोई निराश नहीं 
जिधर देखिए सुंदर आशा ही आशा 
भव्य मंचों की असमाप्त श्रृंखला 
स्वर्णजड़ित पत्र-पत्रिकाएँ 
देवतुल्य सुपाद्य संपादक प्रवर 
आगे-पीछे परियों का मेला 
और यशःप्रार्थी कवियों के नतशीश 
जय-जयकार जय-जयकार 
भारतीय संस्कृति से भी ऊंची हिन्दी की साहित्य संस्कृति 
सब देवता सब सद्पुरुष 
सब उजले-धुले सुवासित पाद्य असुवासित अतिप्रकाशित रत्नजड़ित मुकुटधारी 
हिन्दी साहित्य के इस राज्य में 
कहने को भी एक दशानन नहीं 
सब स्वयंराम थे 
सबके पास विद्या-कला-साहित्य का मणिकांचन योग था 
दर्प के हिमालय से निकलती तीव्रवेगमयी हहराती विचारधारा थी सबके पास 
सब कवि थे सब कथाकार सब नखदंतहीन सुंदर आलोचक थे 
एक से एक बली-महाबली-महामहाबली 
धज ऐसी कि रावण भी लज्जित हो 
कर्म ऐसे कि इतिहास में न अँटें 
सब था इनके पास 
तीनों लोक का ऐश्वर्य था 
सुंदर सुखशय्या प्रीतिकर भोजन और अनेक प्रकार के रसपान 
अप्सराएँ इंद्रलोक से ज्यादा 
सबकी बारी थी छोटे-बड़े सिंहासनो पर बैठने की 
सब उसी प्रतीक्षा में अनन्तकाल से एक पैर पर खड़े थे 
एक पैर से चलते थे एक पैर पर खाते थे एक पैर से पीते थे एक पैर से आँख मारते थे
एक पैर से अप्सराएँ स्वागत करती थीं एक पैर से मनुहार 
ये लेखक इस सदी के इस राज्य के पूर्णकालिक एकपैरीय लेखक थे 
इन लेखकों के पास ढंग से जरा-सा खड़ा हो पाने के लिए 
दूसरा पैर था ही नहीं 
कोई कहता 
सबके एक-एक पैर ताजमहल बनाने वालों की तरह काटकर प्रधान आलोचक ने रख लिए 
कोई कहता कि सबके एक-एक पैर अफसर-कवि ने किसी संग्रहालय में चुनवा दिया 
कोई कहता कि सुंदर कविताएं लिखने वाले एक कृशकाय कवि ने सबके एक-एक पैर
अस्पतालों में सस्ते में बेचकर अकेले सारी असली महुआ वाली कच्ची एक पैर से पी लिया 
कोई कहता उपप्रधान आलोचक ने अपने और दूसरे लेखक संगठनों के साथ मिलकर 
गांव पर भूसे के मंडीले में सारे एक पैरों को रखवा दिया कि वक्त पर सिर्फ उनके काम आये 
जितने मुँह उससे अधिक बातें 
छोटे सुकुल कसम खाकर कहते थे कि इस दौर के सारे लेखक पैदाइशी तौर पर एक पैरीय थे।









बुधवार, 2 नवंबर 2016

यह न पूछें कि मैं क्यों लिखता हूं

- गणेश पाण्डेय

नवनीत जी, यह न पूछें कि मैं क्यों लिखता हूँ ? ‘सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी/ एक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है।’-दुष्यंत के एक शेर से शुरू करता हूँ। आप ने पूछा ही है तो कुछ तो कहूँगा। इसकी एक नहीं दो नहीं, कई वजहें हैं। पहली बात तो यह कि मेरी कुंडली में कवि होना लिखा था। दूसरी बात यह कि अपने भीतर का सब कहना बहुत जरूरी था, मैं उसके बगैर रह ही नहीं सकता था। तीसरी बात यह कि मुझे बंगाली जी मिल गये। चौथी बात कि मुझे हिन्दी के कापुरुषों से रोज लड़ना था। पाँचवी बात कि हिंदी के ये चोट्टे मुझे गुप्त कवि बना कर रखना चाहते थे। छठी बात यह कि यहाँ के एक डॉन ने हिंदी के राक्षसों की एक टीम बना ली थी और जिसे अक्सर मेरे खिलाफ प्रमोट करते रहते थे। अपने कंधे पर बैठाकर घूमते थे। सातवीं बात यह कि मैं हिंदी का मर्द था, मैदान छोड़कर भाग नहीं सकता था। आठवीं, नौवीं, दसवीं, न जाने कितनी वजहें। मैं समाज को शर्तिया बदल देने के लिए नहीं लिखता था, क्यों कि सिर्फ कविताएँ समाज को बदल देंगी, यह नहीं मानता था। हाँ, अलबत्ता इसलिए लिखता था कि यह दुनिया बदल जाय, सुंदर हो जाय, इस भाव से लिखता था। प्रतिरोध की चिंगारी को नित सुलगाते हुए यह जानता था कि दुनिया को कवि नहीं, कार्यकर्ता बदलते हैं, जनता क्रांति करती है, वह जनता जो ढं़ग से साहित्य पढ़ना भी नहीं जानती। इसीलिए खुद को कवि कम और कविता का कार्यकर्ता अधिक समझता था। यह भी जानता था कि हमारे समय के अधिकांश कवि डरपोक हैं, इसलिए कविता और दुनिया का सच एक साथ कहने के लिए लिखता था। नाम की लालसा बचपन में रही होगी, पर जब बालिग हुआ और साहित्य में कदम-कदम पर गंदगी के दर्शन हुए तो कविता का सफाई कर्मचारी बनना ज्यादा रास आया। यह सब जानते हैं कि नाम और इनाम के लिए मैं हरगिज-हरगिज नहीं लिखता और न कभी नाम और इनाम की इच्छा से प्रेरित होकर कोई काम करूँगा। लिखने के साथ पत्रिका निकालने की वजह भी साहित्य में हस्तक्षेप करना भी एक बड़ी वजह थी और है। आपने देखा है कि अब तक मैंने साहित्य के सच को फटकार कर कहा है। जब अपने भीतर के स्वार्थ को आदमी मार देता है तो वह पृथ्वी का सबसे निडर बन जाता है। आप जानते हैं कि मैं साहित्य के किसी भी डॉन-फान से नहीं डरता, हाँ डॉन-फान ही मुझसे डरने लगें तो दूसरी बात है।
साहित्य मेरे लिए सच का मंदिर है जो समाज को सुंदर बनाने के लिए स्वप्नों की दीवार और मेहराब पर टिका हुआ है। इस मंदिर में जब गंदगी फैलाने वालों को देखता हूँ तो आगबबूला हो जाता हूँ। साहित्य मेरे लिए मनुष्य की शक्ति का स्रोत है, विवेक और साहस का स्रोत है, मनुष्य की वृत्तियों और संवेदनाओं को परिष्कृत करने का स्रोत है। साहित्य मनुष्य की आत्मा के पीने के पानी का निर्मल झरना है। मुझे इस पानी के धंधे से शिकायत है। मिनरल वाटर जो बाजार में बिकता है, उससे भी शिकायत है तो इस स्तर पर कि सरकारें अगर देश में पीने का शुद्ध पानी नहीं मुहैया करा सकीं तो यह उनकी और इस पूँजीवादी निजाम की विफलता है। साहित्य के जिस पानी की बात कर रहा था, उस पवित्र झरने-आप चाहें तो नदी कह लें-में देश की साहित्य अकादमियों, विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों, प्रकाशन उद्योग, हिन्दी के नामी और इनामी डाकू-बदमाशों ने अपनी गंदगी का पनाला डाल रखा है। आप ही बताएँ कि इस देश और हिन्दी की दुनिया में एक लेखक अच्छा लिखे भी और अपनी किताबें छपवाने के लिए प्रकाशकों के दरबार में अपवना शीश झुकाए, ऐसा क्यों ? क्या यह हिन्दी साहित्य की बड़ी गंदगी नहीं है ? एक लेखक अच्छा लिखे और आलोचकों के चरणरज लेने के लिए साष्टांग प्रणाम करे, यह साहित्य की गंदगी नहीं है ? क्या तुलसीदास या मलिक मुहममद जायसी या सूरदास, रामचंद्र शुक्ल के पास चापलूसी करने के लिए आए थे ? कबीरदास, हजारी प्रसाद द्विवेदी के पास बनारस का पान लेकर पहुँचे थे ? निराला जी ने रामविलास जी का पैर दबाया था क्या ? फिर आज का आलोचक यह अपेक्षा क्यों करता है कि लेखक उसके चरणरज को अपने माथे से लगाए और अपनी पीठ पर उसको सवारी कराए ? आप ही बताएँ कि यह हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी गंदगी है कि नहीं ? आखिर नागार्जुन को यह क्यों कहना पड़ा - 
“अगर कीर्ति का फल चखना है
आलोचक को खुश रखना है“
त्रिलोचन को कहना पड़ा -  
“आलोचक है नया पुरोहित उसे खिलाओ
सकल कवि यशःप्रार्थी देकर मिलो मिलाओ।“
आलोचक पुलिस के सिपाही की तरह दो-दो रुपये के लिए कविता के ट्रकों को बीच सड़क पर रोक दे रहा है। बिना दो रुपये लिए जाने ही नहीं देता। यह तो कोई गणेश पाण्डेय की तरह कविता के ट्रक का उजड्ड ड्राइवर हो या बैलगाड़ी का मस्त गाड़ीवान तो बैरियर-सैरियर को तोड़-ताड़कर चल देगा। बाकी लोगों की तो जान साँसत में है। आपसे एक राज की बात बताता हूँ कि मैं तो सीधा-सादा एक छोटा-मोटा कवि था और हूँ, मैं आलोचना में आया ही हिंदी के बेईमान आलोचकों की बेईमानी के खिलाफ। कुछ आलोचक जरूर ऐसे हैं जिनमें गदगी कम है। कुछ में तो गंदगी बिल्कुल कम मिलेगी, लेकिन साहस की कमी तो हर जगह एक जैसी है। एक आलोचक को डरते देखा कि हाय अमुक का नाम लूँगा तो अमुक नाराज हो जाएंगे, अमुक मेरी बेटी को हिंदी विभाग में नियुक्त नहीं होने देंगे। एक आलोचक को देखा कि अमुक का नाम लूँगा तो अमुक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में मेरी नियुक्ति की संभावना खत्म हो जाएगी, एक को डरते देखा कि अमुक की प्रशंसा करूँगा तो अमुक अलेखक और हिंदी का छुटभैया डॉन नाराज हो जाएगा। लंबी कहानी है भाई डरपोंक आलोचकों की। आलोचक तो आलोचक, नामी-गिरामी कवि भी बहुत डरपोंक दिखे। एक बड़े भारी कवि रहते हैं राजधानी में और पूरब के महाकवि समझे जाते है, वे भी डरते रहे कि हाय इस कवि से दूर रहो, मेरे चेले-चापड़, मेरे संगी-साथी नाराज हो जाएंगे, अलेखकों के साथ रह लेना ठीक, हिंदी के हरामजादों के साथ दारू पी लेना ठीक मगर इस फटीचर कवि से दूर रहो। कहा न, कहानी लंबी है।ं सार यह कि हिंदी की गंदगी को साफ करने के लिए कलम की धार को तेज किया। भीतर के स्वार्थ को नाम-यश की आकांक्षा को मार डाला, इन्हीं हाथों से किया है खून, लीजिए देखिए, तब कहीं जाकर सच कहना और सच के लिए लड़ना सीखा है। मेरे लिए साहित्य की कोई विधा हो फर्क नहीं पड़ता, दर्द अगर सच्चा है तो आप गद्य में ही नहीं कविता में भी जीवन का संग्राम लिख सकते हैं। अब एक कविता आपको न दिखाऊँ, यह कैसे हो सकता है-कविता का शीर्षक है-कम कविता के दिन थे-
कुछ करने के दिन न थे
कविता के लिए मरने के दिन न थे
जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।
रोशनी का काम उनके जिम्मे न था
जिनके पास कुछ ढँका-छिपा न था।
गजब का मंजर था सामने
टुटही हरमुनिया थी
वक्त-बेवक्त राग जैजैवन्ती गवैया थे
वही झाँझ-करताल वही बजवैया थे
बड़े-बड़े घुटरुन चलवैया थे
कुछ थे जो 
बाहरी जहाजों पर कूद-कूद चढ़वैया थे
कई तो अपने ऊपर ग्रंथ छपवैया थे।
रटन्त विद्या के दिन थे
एक कविता दौर के अन्तिम दिन थे
दृश्य उन्हीं का था 
जिनके जीवन में कोई संग्राम न था
जीवन छोटा था
कम कविता के दिन थे
फिर भी कुछ पागल थे बचे हुए
जिनके हौसले थे कि कम न थे।

(‘जल में’ से)
यह कविता अपने समय की कविता और कवियों का पोस्टमार्टम है। इसे देने की वजह यह कि आप जान सकें कि एक खराब कविता और खराब कविता को दुरुस्त करने वाली कविता में क्या फर्क है ? एक वजह यह भी है कि आप जान सकें कि यह समय कविता के लिए कितना मुश्किल समय है। इस मुश्किल समय में जाहिर है कि मैं कोई आसान काम कैसे कर सकता था। आसान काम तो वह था जो ऊपर दिख रहा है कि एक पागल को छोड़कर बाकी लोग जिसे कर रहे थे। आप चाहे जितना बुरा मानें, लेकिन ‘‘मुश्किल काम’’ नाम ही एक कविता और यहाँ देना चाहूँगा, ताकि जान जान सकें कि कौन आसान काम कर रहा था और कौन मुश्किल काम-

यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ जाता था वह अक्सर धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे जो मेरे साथ तो थे
पर किसी के गुलाम न थे। 
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अति प्राचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इंकार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-
‘पीना और शैतान के संग ?’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
(‘जल में’ से) 
दरअसल यह वह फर्क है जो मेरे जैसे कविता के मामूली कार्यकर्ता और हमारे समय के नामी-इनामी कवियों के बीच है। मैं यह नहीं कहता कि मैंने अचछी कविताएँ लिखी हैं, पर यह कहता हूँ कि मेरी कविताओं में मेरे जीवन का खुरदारापन भरपूर है। आप इस खुरदुरेपन को कोई भी नाम दे सकते हैं। आप ‘मर्दाना’ के अर्थ को लिंग से जोड़कर देखने की जगह शक्ति के चेहरे के रूप में देखें तो कह सकते हैं कि मैंने एक अर्थ में मर्दाना कविताएँ और गद्य लिखने की कोशिश की है। मेरा मानना है कि एक छोटे से छोटा कवि भी अपने भीतर सबसे निचले तल में पक्का घर बना कर रहने वाली नाम और इनाम की कमजोरियों को दूर कर ले तो वह भी अपने समय की कविता की सच्ची राह पर चल सकने का कमाल कर सकता है , जिस पर मैंने बस अभी पहला डग ही रखा है। 
कहना जरूरी हे कि साहित्य की भ्रष्ट सत्ताओं के सामने आत्मसमर्पण करने वाले लेखक साहित्य के कीट-पतंग तो हो सकते हैं, हिंदी के सच्चे लेखक नहीं। जाहिर है कि सिर्फ आत्मसंघर्ष ही लेखक के महत्व को जानने की पहली और सबसे बड़ी कसौटी है। एक लेखक जब हिंदी के किसी माफिया के सामने अपनी गर्दन झुकाता है तो सिर्फ़ उसकी गर्दन नहीं झुकती है, उसकी आत्मा झुक जाती है, उसका काव्यविवेक धूल धूसरित हो जाता है, उसकी आलोचना के लोचन मोतियाबिंद हो जाता है, वह अपने समय के झूठ-मूठ के महाजनों का पिछलग्गू बनकर लेखक के स्वाभिमान की हत्या करता है। ऐसे झुंड में भेड़-बकरियों की तरह जीना सबसे नहीं हो पाता है भाई। ऐसे लोगों को राजधानी के साहित्य का राजपथ मुबारक, मुझे अपनी स्वाधीन कुटिया भली। दरअसल साहित्य दृष्टि, विचार, मूल्य, संवेदना और स्वप्न का घर है, जब एक दुर्बल लेखक उसे नाम और इनाम का कारखाना समझ लेता है तो वह साहित्य में जीवन का नहीं मृत्यु का वरण करता है। मेरे लिए साहित्य आत्मा का फाँसीघर नहीं है। मेरे लिए कविता एक अर्थ में मनुष्य का पुनर्जीवन, जिस नये जीवन में हम अपने जीवन में हुई टूट-फूट को ठीक करने की कोशिश करते हैं। यह काम कविता के प्रति सच्चे समर्पण है। जब लेखक का ध्यान कुछ और पाने और जल्दी से पा जाने की ओर होगा तो वह अपने इस दायित्व से विमुख हो जाएगा।

मेरे लिए तनिक सुविधाजनक यह कि आपने यह पूछा है कि मैं क्यों लिखता हूँ, यह नहीं पूछा है कि जो लिखता हूँ, वह क्यों लिखता हूँ ? नही ंतो मुझे सच बताना पड़ता। सच यह कि जैसे और जो-जो और सब लिखते हैं, उस तरह और वह मैं नहीं लिखता हूँ। इसलिए कि मैं न तो फर्जी क्रांति का बिजूका बनना चाहता हूँ और न अपने समय के साहित्य की मुख्यधारा में बह जाना चाहता हूँ। एक लेखक खुद को समय के अँधेरे से नहीं बचाएगा तो दुनिया को सुंदर बनाने का स्वप्न क्या खाक देखेगा ? इस देश को फासीवादी ताकतों से मुक्त कराने का स्वांग करने वालों करी सच्चाई उस वक्त उनके पतलून से बाहर आ जाती है, जब वे साहित्य की भ्रष्ट और क्रूर सत्ता के सामने घुटने टेकते हैं। नाम और इनाम को छोड़िये, कुछ कार्यक्रमों बुलाये जाने के बहुत मामूली स्वार्थ में हिंदी के तमाम छुटभैयों को फिसड्डी महाप्रभुओं के सामने साष्टांग लेटकर प्रणाम की मुद्रा में देखता हूँ तो लगता है कि हम हिंदी के सचमुच के नर्क में तो नहीं आ गये हैं ? देखिए यह देखना बहुत आसान है कि सामने बैठा लेखक किस कोटि का है ? आप उसकी एक रचना को छुएँ या उसके मुखारबिंद से दो शब्द झरने दे ंतो पता चल जाएगा कि इस बंदे की असली जाति क्या है ? जैसे फर्जी भक्ति होती है, उसी तरह फर्जी सांप्रदायिकता विरोध होता है, उसी तरह पूँजीवाद का फर्जी विरोध होता है, ठीक वैसे ही सामंतवाद का फर्जी विरोध दिखता है। आखिर नाम और इनाम सामंती मूल्य है या नहीं ? भक्तिकाल की बड़ी कविता में नाम और इनाम की आकांक्षा है या मुक्ति की ? गौर से देखिए तो वह मुक्ति भी आध्यात्मिक मुक्ति के भीतर सामाजिक मुक्ति की बड़ी और जनाकांक्षा की अभिव्यक्ति है। मैं जो लिखता हूँ, वह इन्हीं फर्जी लेखकों की गंदगी साफ करने का साबुन है। झाग भले ही कम देता हो , पर मैल बहुत अच्छी तरह काटता है, यहाँ तक कि पतलून तो पतलून, चमड़ी भी बाजदफा कट जाती है। यह कहना गलत है कि मैं चमड़ी काटने के लिए लिखता हूँ, पतलून साफ करने के लिए नहीं। काफी पहले आलोचकों और आलोचना पर लिखे गये एक मामूली पर जिसे हमारे समय के दूसरे नंबर के एक आलोचक ने हिंदी आलोचना की अब तक की सबसे बड़ी लफंगई कहा था, उसका बड़ा विरोध हुआ कि उसमें लेखकों की चमड़ी काटी गयी है, जबकि मैंने तो सिर्फ मैल साफ करने की कोशिश की थी। आखिर उस लेख में जिस आलोचना में जिस जातिवाद पर प्रहार था, आलोचना में जिस मुंशीगीरी पर चोट थी, लेखिकाओं के साथ संपादक और आलोचक जो शोषण और नाइंसाफी कर रहे थे,, साहित्य के तमाम अँधेरों में दियासलाई जलाने की कोशिश की गयी थी, वह सब क्या था ? मेरा मानना है कि आलोचना की धंधई ही हिंदी की दुर्दशा की सबसे बड़ी वजह है। इसीलिए हिंदी के बेटे का फर्ज निभाता हूँ। जो जरूरी है, वह लिखना जरूरी है। सांप्रदायिकता के विरोध को न तो बारबार रिपीट करना जरूरी है और न सिर्फ किसी एक संगठन का नाम लेना जरूरी है, कहो तो ऐसे कि वह जितनी अपनी समय में हो उतना ही आने वाले समय में ? आज जो संगठन दिख रहे हैं, कल उसी तरह के दूसरे संगठन दूसरे नाम से आ सकते हैं। यह मेरा मानना है, मैं इस सोच के साथ सांप्रदायिकता का विरोध करता हूँ अपने लेखन में। ‘ओ ईश्वर’ लिखता हूँ, ‘गाय का जीवन’ लिखता हूँ तो ‘सबद एक पूछिबा’ भी लिखता हूँ। जो लिखता हूँ, वह इस तरह लिखता हूँ कि चेहरा खुला रहे और पाठक उसे पहचान ले। कविता लिखता हूँ, भाषण लिखने से बचता हूँ। पैर में पाजामा पहनता हूँ, बालों में कंघा करता हूँ अर्थात गद्य में गद्य लिखता हूँ और कविता में कविता। मैं लिखता हूँ तो अपनी तरह लिखता हूँ। अपने अँगूठे का निशान लगाता हूँ। किसी नामी-इनामी कवि का फर्जी दस्तखत अपनी कविता में नहीं करता हूँ। मैं लिखता हूँ तो सौ फीसदी मैं लिखता हूँ। मैं लिखता हूँ क्यों कि मैं लिखे बगैर रह नहीं सकता। लिखना छोड़ दूँगा और अपनी तरह लिखना छोड़ दूँगा तो मर जाऊँगा। जीने के लिए लिखता हूँ। अमर होने के लिए नहीं लिखता हूँ। कविता पर मर-मिटने के लिए लिखता हूँ। ऊपर कह चुका हूँ- कविता के लिए मरने के दिन न थे/जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।’ फिर भी कवि स्वभाव का क्या करूँ। कुत्ते के स्वभाव में चमड़ा प्रेम है तो सहृदय का स्वभाव है अच्छी कविता पर रीझना। यहाँ मुझे कोई डरके मारे पूछे न पूछे कोई फर्क नहीं पड़ता। लगें रहें सब यहाँ के साहित्य के डॉन और उनके गैंग के छुटभैयों के पीछे-पीछे, धुलते रहें उनकी धोती और करते रहें उनकी पूजा, न पूछें मुझे जैसे बंगाली जी को नहीं पूछते, सच्ची कविता को नहीं पूछते। कोई फर्क नहीं पड़ता। आप जैसे मित्र बहुत हैं, पूछते रहें, बहुत है। दरअसल मैं हिंदी के धंधेबाजों के लिए नहीं, हिंदी के बेटों के लिए लिखता हूँ।