-गणेश पाण्डेय
घर: एक /
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है
कहां हो तुम
उजाले में हो कि किसी अंधेरे में
बोलो अकेले में हो
कि किन्हीं अपनों के बीच
कि यादों के किसी तहखाने में
बंदी
किसी छत के नीचे हो
कि खुले आसमान में
पृथ्वी के किस कोने में हो
इस वक्त
कितनी तेज है धूप
और हवा कितनी गर्म
जहां भी हो
कैसी हो
किसी घर में हो
सुकून का घर है
कि घर है
कोई खिड़की है घर में
जिसके आसपास हो
जो दिख जाय
यह अटाला कहीं से
तो देख लो
काम भर का है यहां भी सब
इस अटाले पर
बस
एक मैं हूं
जो किसी काम का नहीं हूं
चाय की पत्ती है
तो चीनी नहीं है मेरे पास
चीनी है तो माचिस नहीं
माचिस है
तो उसमे अब आग कहां
तुम्हारे पास आग है
ऐसे ही बदल जाती हैं चीजें
बदलने के लिए ही होती हैं चीजें
इस दुनिया को देखो
कितनी बदल गयी है
जहां होना था चैन का घर
लग गया है वहां मुश्किलों का कारखाना
रोज सुबह
एक थका हुआ आदमी निकलता है घर से
और
शाम को थोड़ा और थका हुआ
लौटता है बाहर से
अब कोई नहीं देखता चाव से
मेरी अधलिखी कविता
किसे फुरसत है कि देखे
क्या पक रहा है
क्या रिस रहा है
मेरे भीतर
किससे कहूं कि आओ बैठो
घड़ीभर
मेरे इर्द-गिर्द
जंजीर की झंकार सुनो
देह के हर हिस्से से उठती हुई
पुकार सुनो
ये देह और देह का मूल
सब हुआ है थककर चूर
कैसी हो तुम
किस हाल में हो
किसी सितार का कीमती तार हो
खुश होे
कि मेरी तरह हो
सांस है कि टूटती नहीं
और लेना उससे भी कठिन
भला अब कौन आएगा
आखिरी वक्त में
इस भीड़ भरे एकांत में
मेरा पुरजा-पुरजा जोड़ने
कैसा आदमी हूं
बावला नहीं हूं तो और क्या हूं
अपने को खत्म करते हुए
सोचता हूं जिन्दगी के बारे में
अपनी कविता का अन्त जानते हुए -
इस कबाड़ के ढ़ेर पर
एक फेंका हुआ सितार हूं बस
और
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है ।
घर: दो /
कितना अच्छा होता जो प्रेम होता
अच्छा होता
जो मेरा घर
हरी-हरी और कोमल पत्तियों के बीच
खिले हुए फूलों की गंध
और पके हुए फलों के बिल्कुल पास
चोंच भर की दूरी पर होता ं
किसी दरख्त पर
एक-एक तिनका जोड़कर
और
नादान आदमियों की नजर बचाकर
सुरुचि से बनाया गया
सबसे छोटा
घर
अच्छा होता
जो पक्षियों के बीच होता
मनुष्यों के शब्द
और सभ्यता की कैद से मुक्त होता
प्रेम और जीवन के संगीत में
जितना चाहता डूबता
न किसी से घृणा
न कोई दंभ
न कोई लूट
न पीढ़ियों के लिए कुछ
न कोई दिखावा
न कोई टंटा
न कोई रोना
न किसी से अप्रेम
न किसी पर क्रूरता
न किसी से छल
न असत्य का आग्रह
न किसी के संग बुरा होता
जो किसी का साथ होता
मन से मन का साथ होता
साथ में जो होता
दोनों के साथ होता
साथ रहते तो रहते
न रहते तो न रहते
न मारकाट होती
न मनमुटाव होता
कितना अच्छा होता
जो प्रेम होता
संघर्ष जीवन का होता
जैसे रहते भूधर और वटवृक्ष
जैसे छोटे-छोटे पौधे
और कीट-पतंग
प्रचंड धूप में
अटूट बारिश में
और भयंकर आंधी-तूफान में
जिंदा रहते
घर रहते नहीं रहते
घर के मुहताज नहीं रहते
हौसलेे
और कोशिश से फिर बनता धर
एक नहीं हजार बनता
रुपया रहता नहीं रहता
रुपये का क्या गम रहता
हम रहते
और घर रहता
न कोई कर रहता
न कोई डर रहता
न कोई अफसर
न कोई कागज-पत्तर
बस हम रहते
सरोसामान रहता नहीं रहता
जीवन साथ रहता
मेरे मन के मीत तुम क्या रहते
तोता होते कि मैना रहते
छोड़ो भी अब
जब होते तब होते
और
उस घर का क्या
जो बन नहीं सका
जब उसमे रहते तब रहते
अनुभव की उस दुनिया में
जिस दुनिया में
और
जैसे घरों में रहते हैं हम
कैसे रहते हैं
किसी से कह नहीं सकते
और चुप रह नहीं सकते ।
घर: तीन /
यह घर शायद वह घर नहीं है
जिस घर में रहते थे हम
यह शायद वह घर नहीं है
कहां है वह घर
और
कहां है उस घर का लाडला
जो दिन में मेरे पैरों से
और अंधेरी रातों में
मेरे सीने से चिपका रहता था
कहां खो गया है
बहती नाक और खुले बाल वाला
नंग-धड़ंग मेरा छोटा बाबा
मुझे ढूंढ़ता हुआ
कहां छिप गया है
किस कमरे में
किस पर्दे के पीछे
कि मां की ओट में है
नटखट
यह कौन है जो तन कर खड़ा है
किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ
बेटा है कि पूरा मर्द
भुजाओं सेे
पैरों से
और छाती से
फट पड़ने को बेचैन
आखिर क्या चाहिए मुझसे
किसका बेटा है यह
जो छीन लेना चाहता है मुझसे
सारा रुपया
मेरा बेटा है तो भूल कैसे गया
मांगता था कैसे हजार मिट्ठी देकर
एक आइसक्रीम
एक टाफी और थोड़ी-सी भुजिया
मांग क्यों नहीं लेता उसी तरह
मुझसे मेरा जीवन
किसका है यह जीवन
यह घर
कहां छूट गयी हैं
मेरी उंगलियों में फंसी हुईं
बड़ी की नन्ही-नन्ही कोमल उंगलियां
उन उंगलियों में फंसा पिता
कहां छूट गया है
किसी को खबर न हुई
हौले-हौले हिलते-डुलते
नन्ही पंखुड़ी जैसे होंठों को
पृथ्वी पर सबसे पहले छुआ
और सुदीप्त माथा चूमा
पहलीबार
जिनसे
मेरे उन होंठों को क्या हो गया है
कापते हैं थर-थर
यह कैसा डर है
यह कैसा घर है
छोटी की छोटी-छोटी
एक-एक इच्छा की खातिर
कैसे दौड़ता रहा एक पिता
अपनी दोनों हथेलियों पर लेकर
अपना दिल और कलेजा
अपना सबकुछ
जो था पहुंच में सब हाजिर करता रहा
क्या इसलिए कि एक दिन
अपनी बड़ी-बडी आंखों से करेगी़
पिता पर कोप
कहां चला गया वह घर
मुझसे रूठकर
जिसमें पिता पिता था
अपनी भूमिका में
पृथ्वी का सबसे दयनीय प्राणी न था
और वह घर
जीवन के उत्सव में तल्लीन
एक हंसमुख घर था
यह घर शायद वह घर नहीं है
कोई और घर है
पता नहीं किसका है यह घर ।
घर: चार /
जो उसके पास हुआ मुझसे बड़ा दुख
इस घर से
जो निकलना ही हुआ
तो किधर ले चलेंगे मुझे
मेरे कदम
कहीं तो रुकेंगे
कोई ठिकाना देखकर
किस घर के सामनेे रुकेंगे
ये पैर
अब इस उम्र में
किस अधेड़ स्त्री को होगा भला
मेरी कातर पुकार का इन्तजार
फिर मिली कोई चोट
तो मर नहीं जाउंगा
डर कर
फिर मुड़ेंगे किधर मेरे पैर
किस दिशा में ढूढ़ेंगे
कोई रास्ता
किस बस्ती में पहुंच कर
किस स्त्री के कंधे पर रखूंगा सिर
क्या करूंगा जो उसके पास हुआ
मुझसे बड़ा दुख
दो दुखीजन मिल कर
बना सकते हैं क्या
एक छोटा-सा
सुखी घर ।
घर: पांच /
कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कैसे निकलूं इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नींद
एक स्त्री की तीस बरस लंबी नींद
नींद भी जैसे किसी नींद में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नींद में हो
बस एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नींद
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नींद में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूं उसके जीवन से
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूं कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह
नींद में
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूं
बताकर जाना चाहता हूं
कि जा रहा हूं
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूं कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूं
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे
कि जा रहा हूं।
घर: छः /
उठो यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊंगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूंगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूंगा हौले से
जागो यशोधरा
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताजा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है
उठो यशोधरा
तुम्हारा राहुल सो रहा है
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊं तुम्हें
तुम्हीं बताओ यशोधरा
किस गुरु के पास जाऊं
किस स्त्री से पूछूं
युगों से
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मंत्र
किससे कहूं कि देखो
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी हैे
और मुझ जैसे
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से
क्या करूं
इस यशोधरा का
जिसे
मेरे जैसा एक साधारण आदमी
बहुत चाह कर भी
जगा नहीं पा रहा है
और
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।
घर: सात /
बहुत उदास हूं आज की रात
किससे कहूं
कि मुझे बताये
अभी कितने फेरे लेने होंगे वापस
जीवन की किसी उलझी हुई गांठ को
सुलझाने के लिए
जो खो गया है
उसे दुबारा पाने के लिए
कहां हो मेरे प्यार
देखो
जिस छोटे-से घर को बनाने में
कभी शामिल थे कई बड़े-बुजुर्ग
आज कोई नहीं है उनमें से
कितना अकेला हूं
हजार छेदों वाले इस जहाज को
बचाने के काम में
जहाज का चूहा होता
तो कितना सुखी होता
मेरी मुश्किल यह है कि आदमी हूं
कितना मुश्किल होता है कभी
किसी-किसी आदमी के लिए
एक धागा तोड़ पाना
किसी तितली से
उसके पंख अलग करना
किसी स्त्री के सिंदूर की चमक
मद्धिम करना
और अपने में मगन
एक दुनिया को छोड़कर
दूसरी दुनिया बसाना
कोई नहीं है इस वक्त
मेरे पास
कभी न खत्म होने वाली
इस रात के सिवा
बहुत उदास हूं आज की रात
यह रात
मेरे जीवन की सबसे लंबी रात है
कैसे संभालूं खुद को
मुश्किल में हूं
एक ओर स्मृतियों का अधीर समुद्ऱ है
दूसरी तरफ दर्द का घर
कुछ नहीं बोलते पक्षीगण
कि जाऊं किधर
पत्तियां भूल गयी हैं हिलना-डुलना
चुप है पवन
बाहर
कहीं से नहीं आती कोई आवाज
बहुत बेचैन हूं आज की रात
किससे कहूं
कि अब इस रात से बाहर जाना
और इसके भीतर जिंदा रहना
मेरे वश में नहीं।
( चौथे संग्रह ‘परिणीता’ से )
घर: एक /
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है
कहां हो तुम
उजाले में हो कि किसी अंधेरे में
बोलो अकेले में हो
कि किन्हीं अपनों के बीच
कि यादों के किसी तहखाने में
बंदी
किसी छत के नीचे हो
कि खुले आसमान में
पृथ्वी के किस कोने में हो
इस वक्त
कितनी तेज है धूप
और हवा कितनी गर्म
जहां भी हो
कैसी हो
किसी घर में हो
सुकून का घर है
कि घर है
कोई खिड़की है घर में
जिसके आसपास हो
जो दिख जाय
यह अटाला कहीं से
तो देख लो
काम भर का है यहां भी सब
इस अटाले पर
बस
एक मैं हूं
जो किसी काम का नहीं हूं
चाय की पत्ती है
तो चीनी नहीं है मेरे पास
चीनी है तो माचिस नहीं
माचिस है
तो उसमे अब आग कहां
तुम्हारे पास आग है
ऐसे ही बदल जाती हैं चीजें
बदलने के लिए ही होती हैं चीजें
इस दुनिया को देखो
कितनी बदल गयी है
जहां होना था चैन का घर
लग गया है वहां मुश्किलों का कारखाना
रोज सुबह
एक थका हुआ आदमी निकलता है घर से
और
शाम को थोड़ा और थका हुआ
लौटता है बाहर से
अब कोई नहीं देखता चाव से
मेरी अधलिखी कविता
किसे फुरसत है कि देखे
क्या पक रहा है
क्या रिस रहा है
मेरे भीतर
किससे कहूं कि आओ बैठो
घड़ीभर
मेरे इर्द-गिर्द
जंजीर की झंकार सुनो
देह के हर हिस्से से उठती हुई
पुकार सुनो
ये देह और देह का मूल
सब हुआ है थककर चूर
कैसी हो तुम
किस हाल में हो
किसी सितार का कीमती तार हो
खुश होे
कि मेरी तरह हो
सांस है कि टूटती नहीं
और लेना उससे भी कठिन
भला अब कौन आएगा
आखिरी वक्त में
इस भीड़ भरे एकांत में
मेरा पुरजा-पुरजा जोड़ने
कैसा आदमी हूं
बावला नहीं हूं तो और क्या हूं
अपने को खत्म करते हुए
सोचता हूं जिन्दगी के बारे में
अपनी कविता का अन्त जानते हुए -
इस कबाड़ के ढ़ेर पर
एक फेंका हुआ सितार हूं बस
और
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है ।
घर: दो /
कितना अच्छा होता जो प्रेम होता
अच्छा होता
जो मेरा घर
हरी-हरी और कोमल पत्तियों के बीच
खिले हुए फूलों की गंध
और पके हुए फलों के बिल्कुल पास
चोंच भर की दूरी पर होता ं
किसी दरख्त पर
एक-एक तिनका जोड़कर
और
नादान आदमियों की नजर बचाकर
सुरुचि से बनाया गया
सबसे छोटा
घर
अच्छा होता
जो पक्षियों के बीच होता
मनुष्यों के शब्द
और सभ्यता की कैद से मुक्त होता
प्रेम और जीवन के संगीत में
जितना चाहता डूबता
न किसी से घृणा
न कोई दंभ
न कोई लूट
न पीढ़ियों के लिए कुछ
न कोई दिखावा
न कोई टंटा
न कोई रोना
न किसी से अप्रेम
न किसी पर क्रूरता
न किसी से छल
न असत्य का आग्रह
न किसी के संग बुरा होता
जो किसी का साथ होता
मन से मन का साथ होता
साथ में जो होता
दोनों के साथ होता
साथ रहते तो रहते
न रहते तो न रहते
न मारकाट होती
न मनमुटाव होता
कितना अच्छा होता
जो प्रेम होता
संघर्ष जीवन का होता
जैसे रहते भूधर और वटवृक्ष
जैसे छोटे-छोटे पौधे
और कीट-पतंग
प्रचंड धूप में
अटूट बारिश में
और भयंकर आंधी-तूफान में
जिंदा रहते
घर रहते नहीं रहते
घर के मुहताज नहीं रहते
हौसलेे
और कोशिश से फिर बनता धर
एक नहीं हजार बनता
रुपया रहता नहीं रहता
रुपये का क्या गम रहता
हम रहते
और घर रहता
न कोई कर रहता
न कोई डर रहता
न कोई अफसर
न कोई कागज-पत्तर
बस हम रहते
सरोसामान रहता नहीं रहता
जीवन साथ रहता
मेरे मन के मीत तुम क्या रहते
तोता होते कि मैना रहते
छोड़ो भी अब
जब होते तब होते
और
उस घर का क्या
जो बन नहीं सका
जब उसमे रहते तब रहते
अनुभव की उस दुनिया में
जिस दुनिया में
और
जैसे घरों में रहते हैं हम
कैसे रहते हैं
किसी से कह नहीं सकते
और चुप रह नहीं सकते ।
घर: तीन /
यह घर शायद वह घर नहीं है
जिस घर में रहते थे हम
यह शायद वह घर नहीं है
कहां है वह घर
और
कहां है उस घर का लाडला
जो दिन में मेरे पैरों से
और अंधेरी रातों में
मेरे सीने से चिपका रहता था
कहां खो गया है
बहती नाक और खुले बाल वाला
नंग-धड़ंग मेरा छोटा बाबा
मुझे ढूंढ़ता हुआ
कहां छिप गया है
किस कमरे में
किस पर्दे के पीछे
कि मां की ओट में है
नटखट
यह कौन है जो तन कर खड़ा है
किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ
बेटा है कि पूरा मर्द
भुजाओं सेे
पैरों से
और छाती से
फट पड़ने को बेचैन
आखिर क्या चाहिए मुझसे
किसका बेटा है यह
जो छीन लेना चाहता है मुझसे
सारा रुपया
मेरा बेटा है तो भूल कैसे गया
मांगता था कैसे हजार मिट्ठी देकर
एक आइसक्रीम
एक टाफी और थोड़ी-सी भुजिया
मांग क्यों नहीं लेता उसी तरह
मुझसे मेरा जीवन
किसका है यह जीवन
यह घर
कहां छूट गयी हैं
मेरी उंगलियों में फंसी हुईं
बड़ी की नन्ही-नन्ही कोमल उंगलियां
उन उंगलियों में फंसा पिता
कहां छूट गया है
किसी को खबर न हुई
हौले-हौले हिलते-डुलते
नन्ही पंखुड़ी जैसे होंठों को
पृथ्वी पर सबसे पहले छुआ
और सुदीप्त माथा चूमा
पहलीबार
जिनसे
मेरे उन होंठों को क्या हो गया है
कापते हैं थर-थर
यह कैसा डर है
यह कैसा घर है
छोटी की छोटी-छोटी
एक-एक इच्छा की खातिर
कैसे दौड़ता रहा एक पिता
अपनी दोनों हथेलियों पर लेकर
अपना दिल और कलेजा
अपना सबकुछ
जो था पहुंच में सब हाजिर करता रहा
क्या इसलिए कि एक दिन
अपनी बड़ी-बडी आंखों से करेगी़
पिता पर कोप
कहां चला गया वह घर
मुझसे रूठकर
जिसमें पिता पिता था
अपनी भूमिका में
पृथ्वी का सबसे दयनीय प्राणी न था
और वह घर
जीवन के उत्सव में तल्लीन
एक हंसमुख घर था
यह घर शायद वह घर नहीं है
कोई और घर है
पता नहीं किसका है यह घर ।
घर: चार /
जो उसके पास हुआ मुझसे बड़ा दुख
इस घर से
जो निकलना ही हुआ
तो किधर ले चलेंगे मुझे
मेरे कदम
कहीं तो रुकेंगे
कोई ठिकाना देखकर
किस घर के सामनेे रुकेंगे
ये पैर
अब इस उम्र में
किस अधेड़ स्त्री को होगा भला
मेरी कातर पुकार का इन्तजार
फिर मिली कोई चोट
तो मर नहीं जाउंगा
डर कर
फिर मुड़ेंगे किधर मेरे पैर
किस दिशा में ढूढ़ेंगे
कोई रास्ता
किस बस्ती में पहुंच कर
किस स्त्री के कंधे पर रखूंगा सिर
क्या करूंगा जो उसके पास हुआ
मुझसे बड़ा दुख
दो दुखीजन मिल कर
बना सकते हैं क्या
एक छोटा-सा
सुखी घर ।
घर: पांच /
कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कैसे निकलूं इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नींद
एक स्त्री की तीस बरस लंबी नींद
नींद भी जैसे किसी नींद में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नींद में हो
बस एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नींद
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नींद में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूं उसके जीवन से
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूं कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह
नींद में
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूं
बताकर जाना चाहता हूं
कि जा रहा हूं
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूं कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूं
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे
कि जा रहा हूं।
घर: छः /
उठो यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊंगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूंगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूंगा हौले से
जागो यशोधरा
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताजा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है
उठो यशोधरा
तुम्हारा राहुल सो रहा है
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊं तुम्हें
तुम्हीं बताओ यशोधरा
किस गुरु के पास जाऊं
किस स्त्री से पूछूं
युगों से
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मंत्र
किससे कहूं कि देखो
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी हैे
और मुझ जैसे
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से
क्या करूं
इस यशोधरा का
जिसे
मेरे जैसा एक साधारण आदमी
बहुत चाह कर भी
जगा नहीं पा रहा है
और
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।
घर: सात /
बहुत उदास हूं आज की रात
किससे कहूं
कि मुझे बताये
अभी कितने फेरे लेने होंगे वापस
जीवन की किसी उलझी हुई गांठ को
सुलझाने के लिए
जो खो गया है
उसे दुबारा पाने के लिए
कहां हो मेरे प्यार
देखो
जिस छोटे-से घर को बनाने में
कभी शामिल थे कई बड़े-बुजुर्ग
आज कोई नहीं है उनमें से
कितना अकेला हूं
हजार छेदों वाले इस जहाज को
बचाने के काम में
जहाज का चूहा होता
तो कितना सुखी होता
मेरी मुश्किल यह है कि आदमी हूं
कितना मुश्किल होता है कभी
किसी-किसी आदमी के लिए
एक धागा तोड़ पाना
किसी तितली से
उसके पंख अलग करना
किसी स्त्री के सिंदूर की चमक
मद्धिम करना
और अपने में मगन
एक दुनिया को छोड़कर
दूसरी दुनिया बसाना
कोई नहीं है इस वक्त
मेरे पास
कभी न खत्म होने वाली
इस रात के सिवा
बहुत उदास हूं आज की रात
यह रात
मेरे जीवन की सबसे लंबी रात है
कैसे संभालूं खुद को
मुश्किल में हूं
एक ओर स्मृतियों का अधीर समुद्ऱ है
दूसरी तरफ दर्द का घर
कुछ नहीं बोलते पक्षीगण
कि जाऊं किधर
पत्तियां भूल गयी हैं हिलना-डुलना
चुप है पवन
बाहर
कहीं से नहीं आती कोई आवाज
बहुत बेचैन हूं आज की रात
किससे कहूं
कि अब इस रात से बाहर जाना
और इसके भीतर जिंदा रहना
मेरे वश में नहीं।
( चौथे संग्रह ‘परिणीता’ से )
आपकी घर शृंखला की सभी कविताएँ पढ़ीं। पढ़ना अच्छा लगा। मनों के भीतर बसा घर हर किसी के लिए अलग रूपाकार होता है; प्रतिक्षण बदलता भी है, छीजता भी और गहराता भी।
जवाब देंहटाएंये पंक्तियाँ प्रिय लगीं -
इस दुनिया को देखो
कितनी बदल गयी है
जहां होना था चैन का घर
लग गया है वहां मुश्किलों का कारखाना
रोज सुबह
एक थका हुआ आदमी निकलता है घर से
और
शाम को थोड़ा और थका हुआ
लौटता है बाहर से
अब कोई नहीं देखता चाव से
मेरी अधलिखी कविता
किसे फुरसत है कि देखे
क्या पक रहा है
क्या रिस रहा है
मेरे भीतर
किससे कहूं कि आओ बैठो
घड़ीभर
बधाई और शुभकामनाएँ।
सभी कविताये बहुत अच्छी लगी घर को ऐसे अलग-अलग रूपों में खुलते और शब्दमान होते महसूसना बहुत अच्छा लगा ....
जवाब देंहटाएं..भयंकर आंधी तूफ़ान में
जिन्दा रहते
घर रहते नहीं रहते
घर के मुहताज नहीं रहते ...
सभी कवितायें बहुत ध्यान से पढ़ी , क्या कहूँ !!
जवाब देंहटाएंअंतर्मन को छू गयीं |
' किसे फुरसत है कि देखे
क्या पक रहा है
क्या रिस रहा है
मेरे भीतर
किससे कहूँ कि आओ बैठो
घड़ीभर
मेरे इर्द -गिर्द '
बेहद सहज, सरल और कहन में कई तरह की अर्थ छवियां लिए इन कविताओं से गुजरना बहुत आत्मीय अनुभव रहा। प्रणाम।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसर! बहुत ही खूबसूरत कविता....... 'घर'शब्द स्वंय में बहुत ही सुकुनप्रदायी शब्द है...पर एक समय आता है जब यही घर काटने को दौड़ता है । पहली कविता में उस विडम्बना का चित्रण है जब 'एक थका हुआ आदमी निकलता है घर से/ और/ शाम को थोड़ा उससे भी थका हुआ लौटता है बाहर से' तब वही घर घर नही रह जाता ।उस समय हमारी अतृप्त इच्छाएं एक आदर्श और पुरसकून घर की तलाश में भटकते हुए हताशा में बदल जाती है- 'उस घर का क्या/जो बन नही सका'। तीसरे पार्ट में वर्तमान की उस त्रासदी को दिखाया गया है जब सारी भौतिकवादी सुख-सुविधाएं भरी होने के बावजूद भी पीछे लौट कर पुरानी सुखद स्मृतियों और अनुभूतियों को याद करता है 'कैसे दौड़ता रहा एक पिता/अपनी दोनो हथेलियों पर लेकर/अपना दिल और कलेजा/सब कुछ' पर नियति-चक्र और त्रासदी लाती है 'यह कौन है जो तन कर खड़ा है/किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ' तब व्यक्ति जिन्दा रहने की कोशिश में बार-बार मरता है और वही पुराना घर किसी और का घर लगने लगता है । फिर वह नए घर की दिशा में सोचता है जहाँ प्रेम हो, वह घर घर हो पर वह विश्वास नही पैदा कर पाता जो प्रथम बार उसके अन्दर हिलोरे मार रहा था । उसे सर्वत्र दुख ही नजर आता है फिर काफी अन्तर्द्वन्द्व के बाद उपाय निकालता है 'दो दुखी जन मिलकर/बना सकते है क्या/एक छोटा सा/सुखी घर'।
कविता का पाचवां अंक उस भारतीय व्यक्ति का अन्तर्द्वन्द्व है जो तमाम तरह के पारिवारिक,सामाजिक और सांस्कृतिक बंधनो से बंधे होने के कारण अपने परिवार,अपनी पत्नी से अलग नही हो पाता..वह सोचता है 'कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर/....मै चाहता हूँ कि वह मुझे जाता हुआ देखे'। फिर व्यक्ति उसी पुरानी,बोझिल परन्तु अपनी जिन्दगी में ही कुछ ढ़ूढ़ने का प्रयास करता है 'उठो यशोधरा तुम्हारा राहुल सो रहा है/तुम्हारा घर सो रहा है/तुम्हारासंसार सो रहा है/तुम्हारा प्यार सो रहा है'। इस द्वन्द्व में वह त्रिशंकू की भाति लटका हुआ अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य है । तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद भविष्य और वर्तमान के दुख एवं सामाजिक मर्यादाओं के बंधनों के बीच वह प्रेम को बचा पाना में असमर्थ हो जाता है । वह बिल्कुल बेबस हो जाता है परन्तु अंततः इस प्रकार सोचता है कि 'कितना मुश्किल होता है कभी/किसी-किसी आदमी के लिए/धागा तोड़ पाना'।यह धागा ही कविता की रीढ़ है जो व्यक्ति,परिवार एवं समाज को कहीं न कहीं बांधे हुए है । यह है भारतीय संस्कृति में रचा-बसा जनमानस; जो तमाम विसंगतियों के बाद भी पारंपरिक वैवाहिक सम्बंधों को जीने के लिए विवश है । परन्तु इस विवशता में भी कुछ ऐसा है जो हमे परिवार से जोड़े रखता है । यह जुड़ाव भी उस टूटन से अच्छा है जिससे सामाजिक अराजकता फैलती हो, जिससे हमारा युवा वर्ग दिग्भ्रमित होता हो ।
आज जब घर सबसे ज्यादा खतरे में पड़ गये है .इस आजाद मुल्क में लोग बेघर रह रहे हैं ,आपकी घर पर लिखी कवितायें तसल्ली देती है .देखा जाय तो अब घर के नाम भी बदल गये है उसे आधुनिक भाषा में फ्लेट .अपार्टमेंट .कोठी विला कहने का रिवाज है .यह अच्छा है हमारी कविताओं और सोच में घर बचे हुये हैं .वे तब तक बचे हुये है जब तक कवि और उसके शब्द बचे हुये हैं
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