tag:blogger.com,1999:blog-62436644974200213892024-03-13T16:29:47.416+05:30Ganesh Pandey : गणेश पाण्डेयGanesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.comBlogger200125tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-72749848533648297162023-05-12T17:05:00.009+05:302023-06-21T17:02:21.733+05:30तीस कविताएँ<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में पीएम</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>सपने में देखा लोकतंत्र जनता के कंधों पर नहीं</b></div><div><b>माफ़ियाओं के बाहुबल पर टिका हुआ है मैं इस</b></div><div><b>डर से किसी बलात्कारी के खि़लाफ़ कड़ी कार्रवाई </b></div><div><b>नहीं कर पा रहा हूँ कि चार सीटें कम पड़ जाएंगी</b></div><div><b>और मैं पचासवीं बार पीएम नहीं बन पाऊँगा</b></div><div><b>लानत है मुझ गणेश पाण्डेय पर मैं अपने ही मुँह पर </b></div><div><b>पचास बार थूकता हूँ तुम हिन्दी में ही रहते गधे</b></div><div><b>सौ पुरस्कार लेते कोई तुम पर कभी नहीं थूकता</b></div><div><b>क्या ज़रूरत थी तुम्हें देश का प्रधानमंत्री बनने की</b></div><div><b>हिन्दी साहित्य सम्मेलन का नहीं बन पा रहे थे!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>नींद खुल गयी</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>सपने में मैंने ख़ुद को </b></div><div><b>एक हिन्दू माफ़िया के रूप में पाया</b></div><div><b>कई हिन्दू लड़कियों के साथ बहुत बुरा किया </b></div><div><b>हिन्दुओं का क़त्ल और अपहरण कराया</b></div><div><b>पचास हज़ार करोड़ से अधिक की सम्पत्ति बनायी</b></div><div><b>कुछ दान दिए कुछ ग़रीबों की शादी करायी</b></div><div><b>मदद करने से सुल्ताना डाकू जैसी ख्याति पायी</b></div><div><b>लेकिन किसी ने भी मुझे डाकू वग़ैरा नहीं कहा</b></div><div><b>माननीय सांसद जी माननीय विधायक जी कहा </b></div><div><b>सहसा ज़िन्दाबाद के नारों के बीच नींद खुल गयी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में पुलिस </b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>ये लो सपने में पुलिस भी आ गयी वही वाली </b></div><div><b>कोरोना के दिनों की देवदूत जैसी छवि वाली</b></div><div><b>बड़े-बड़े माफ़ियों को यूँ मिट्टी में मिलाने वाली</b></div><div><b>ये क्या वर्दी तो वही थी चेहरा काला क्यों था</b></div><div><b>लेकिन उसके पंजे में माफ़िया की गर्दन नहीं </b></div><div><b>जंतर-मंतर पर धरनारत बेटियों के बाल थे</b></div><div><b>भारतमाता जैसी सुंदर इन बेटियों की आँख में</b></div><div><b>ओलंपिक पदक की चमक नहीं आँसू ही आँसू थे</b></div><div><b>पुलिस इनके आँसू नहीं पोछ रही थी किसी ने</b></div><div><b>उसकी ममता का अपहरण कर लिया था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुर्गे पर कविता</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>सपने में पुलिस मुझे खींचकर थाने ले गयी</b></div><div><b>सिपाही ने फिर नायब ने फिर थानेदार ने पूछा</b></div><div><b>तूने गृहमंत्रालय की अनुमति के बिना कविता </b></div><div><b>कैसे लिखी किसके कहने पर लिखी आखि़र</b></div><div><b>कौन-सी पार्टी का बंदा है सरकार के खि़लाफ़</b></div><div><b>कविता लिखना तेरा धंधा है तू कबी ही तो है</b></div><div><b>कि सुप्रीम कोर्ट से बड्डी कोई चीज़ है बता नहीं </b></div><div><b>तो अभी तुझे मुर्गा बनाता हूँ कुकड़ू-कू कराता हूँ</b></div><div><b>मुर्गे पर कविता लिखवाता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>असली सरकार </b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>सपने में एक सरकार क्रीम-पावडर लगाकर </b></div><div><b>बनी-ठनी घूमती दिखी तो आखि़र पूछ ही बैठा</b></div><div><b>इतने साल से सरकारे हैं रोज़गार दिला पायीं </b></div><div><b>सबके जान-माल की हिफाज़त क्या कर पायीं</b></div><div><b>बच्चियों और महिलाओं की इज़्ज़त बचा पायीं</b></div><div><b>इस देश को सोने की चिड़िया बनाना तो छोड़ो</b></div><div><b>न्याय की नन्ही चिड़िया की जान क्या बचा पायीं</b></div><div><b>ये कौन लोग हैं जो सरकार का चीरहरण करते हैं</b></div><div><b>सरकारें चुपाई मारकर बैठी रहती हैं यही लोग </b></div><div><b>असली सरकार हैं?</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में न्याय </b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>सपने में न्यायाधीश मिले </b></div><div><b>श्रीमन् कहा जाता है कि आप सर्वोच्च हैं</b></div><div><b>आपका कहा पत्थर की लकीर है अकाट्य है</b></div><div><b>अमिट है अजर है अमर है देववाणी है</b></div><div><b>आपका कार्यालय न्याय का मंदिर है जहाँ</b></div><div><b>निर्बल और डाकू सब सिर झुकाते हैं</b></div><div><b>फिर आपके होने के बावजूद देश में अपराध </b></div><div><b>और अत्याचार कम क्यों नहीं हो रहा हैं</b></div><div><b>चमत्कार यह नहीं कि यह सब हो रहा है बल्कि </b></div><div><b>यह कि आप में हमारा भरोसा आज भी है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में अरे भाई मिले</b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>सपने में मुझे प्रलेसी जलेसी जसमी मिले</b></div><div><b>कोई मुझे मेला घुमाने नहीं ले जा रहा था</b></div><div><b>कोई मेरी कमर में हाथ तक नहीं डाल रहा था</b></div><div><b>कोई मेरी नथ तक नहीं उतार रहा था सब मुझे</b></div><div><b>अंग्रेजी में हिन्दी बोलने वाली गोरी मेम नहीं</b></div><div><b>हिन्दी कविता की कुरूप फूहड़ मुँहफट बदबूदार </b></div><div><b>कुमारी गणेश पाण्डेय समझ रहे थे अरे भाई </b></div><div><b>सच ही तो बोल रहा था कविता में </b></div><div><b>झूठ बोलने के लिए तो पूरी दुनिया पड़ी थी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में शेषन मिले</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>सपने में टी एन शेषन मिले</b></div><div><b>मुझे बहुत परेशान हाल और ठगा-सा जान पूछा</b></div><div><b>क्या हुआ कवि जी चेहरा क्यों उतरा हुआ है</b></div><div><b>मैंने कहा भाई आज मतदान केंद्र से लौटा हूँ</b></div><div><b>पिछले कई सालों की तरह आज भी मैं न किसी</b></div><div><b>प्रत्याशी का नाम पढ़ पा रहा था न चुनाव-चिह्न </b></div><div><b>पहचान पा रहा था सब गड्डमड्ड हो जा रहा था</b></div><div><b>क्या समझूँ मेरी नज़र कमज़ोर हो गयी है </b></div><div><b>या भारत का लोकतंत्र धुँधला हो गया है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में इनामचंद </b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>सपने में कविवर पंडित इनामचंद मेरे घर आये</b></div><div><b>बोले पंडित ईमानचंद सुना है आजकल बीमार हो</b></div><div><b>सपने में भी देश और कविता की चिंता करते हो</b></div><div><b>मुझे इतने इनाम मिलने के बाद अब न देश की</b></div><div><b>न साहित्य की चिंता है अगर कोई चिंता है भी</b></div><div><b>तो यह कि अमर होने के बाद मैं स्वर्ग में रहूँगा</b></div><div><b>और भक्तिकाल के अपुरस्कृत कवि बेचारे नर्क में</b></div><div><b>मैं स्वस्थ हो चुका था डपटा अबे इनामचंदिए </b></div><div><b>साहित्य और अकादमी की तो मार ही चुका है </b></div><div><b>देश की भी मारेगा क्या।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में हिन्दू</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>सपने में एक हिन्दू मिला बोला ओय गणेशिये</b></div><div><b>एक हिन्दू होकर हिन्दू की बुराई करना छोड़ दे</b></div><div><b>मैंने कहा तू हिन्दू स्त्री से बलात्कार करना छोड़ दे</b></div><div><b>हिन्दू से दहेज लेना छोड़ दे ज़मीन हड़पना छोड़ दे</b></div><div><b>हिन्दू होकर हिन्दू की जान लेना तो छोड़ दे</b></div><div><b>मैंने कहा देख मैं हिन्दू और मुसलमान दोनों की</b></div><div><b>बुराई करता हूँ किसी एक की नहीं तू केवल </b></div><div><b>मुसलमान की बुराई करना छोड़ दे करना है</b></div><div><b>तो सभी माफ़ियाओं की बुराई कर।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में भगवान</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>मैंने पूछा कि आपके रामराज्य में यही होता है</b></div><div><b>कि लड़कियाँ पटरी पर धरना देती हैं तो उन्हें</b></div><div><b>पुलिस मारती-पीटती है गाली देती है धमकाती है</b></div><div><b>उनसे उम्मीद की जाती है कि आपके दल के</b></div><div><b>बाहुबलियों से लड़कियाँ दबकर रहें अपनी इज़्ज़त </b></div><div><b>लुटने दें और उफ़ तक न करें क्योंकि बाहुबली</b></div><div><b>आपकी सरकार उलट-पलट देगा फिर आप</b></div><div><b>काहे के भगवान इससे तो अच्छा था कि आप</b></div><div><b>किसी देश के पीएम बन जाते। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में भविष्य </b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>सपने में सो रहा था थोड़ी देर के लिए जाग गया</b></div><div><b>किसी बेटी ने पूछा तुम सचमुच के पीएम होते </b></div><div><b>तुम्हारे परिवार की बेटी के साथ बुरा हुआ होता</b></div><div><b>तो बुरा करने वाले बड़े से बड़े महाबली के साथ</b></div><div><b>क्या करते तब भी गुणा-भाग करते मुँह सिल लेते </b></div><div><b>आँख मूँद लेते ध्यानमग्न होकर योग करने लगते</b></div><div><b>विश्व रंगमंच पर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे होते </b></div><div><b>और मैं फिर सपने में चला गया जहाँ मेरे पास कोई </b></div><div><b>प्रश्न नहीं था अपने उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य का </b></div><div><b>एक मानचित्र था उसे देख रहा था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बेटियों के आँसू</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>सपने में कोई लड़का अपनी बहनों के लिए</b></div><div><b>माइक के सामने रो रहा है-राजनीति के पहलवानो </b></div><div><b>जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी बेटियों की इज़्ज़त</b></div><div><b>सत्तामद के क्रूर बुलडोज़र से मत रौंदो बुरा होगा</b></div><div><b>उनमें तुम्हारी भी बेटियाँ हो सकती थीं बशर्तें वे</b></div><div><b>पहरे में नहीं रहतीं पहलवान होतीं लड़ रही होतीं</b></div><div><b>लड़कियों की इज़्ज़त का सौदा मत करो मत करो</b></div><div><b>उनसे राजनीति का यह गंदा खेल मत खेलो</b></div><div><b>देश की बेटियों के आँसू तुम्हारे खेल को</b></div><div><b>आज नहीं तो कल हार में बदल देंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>देश को जिताने वाली लड़कियाँ</b></div><div><b>---------------------------------</b></div><div><b>सपने में एक क्रूर सत्ता थी</b></div><div><b>जिसने देश को जिताने वाली लड़कियों को हराने </b></div><div><b>और राजनीति के दाग़ी खिलाड़ी को जिताने का</b></div><div><b>बीड़ा उठाया था कोई उसे हरा नहीं सकता था</b></div><div><b>न पुलिस न न्यायालय न कोई और अलबत्ता</b></div><div><b>लड़कियाँ हार कर भी हार नहीं मान रही थीं</b></div><div><b>क्रूर सत्ता बौराई हुई थी उनका खाना-पीना-सोना</b></div><div><b>साँसे तक हराम कर देना चाहती थी फिर भी</b></div><div><b>सत्ता जितनी क्रूर थी लड़कियाँ उससे कहीं</b></div><div><b>ज़्यादा मज़बूत थीं क्योंकि देश उनके साथ था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में सरस्वती</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>सपने में माँ सरस्वती आयीं</b></div><div><b>पहले कान उमेठीं फिर ख़ूब कसके डाँटीं</b></div><div><b>रे मूर्ख तू कविता लिखता है तो कविता में</b></div><div><b>देश-दुनिया की हर बेटी तेरी बेटी होती है</b></div><div><b>दो दिन के लिए पीएम क्या हुआ दूसरों की</b></div><div><b>बेटियों को अपनी बेटियाँ नहीं समझता है </b></div><div><b>देश भर के गुंडे-बदमाशों को सगा समझता है</b></div><div><b>तुझे शाप देती हूँ सात जन्मों तक पीएम रहेगा</b></div><div><b>लेकिन परिवार का सुख नहीं पाएगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में भी नहीं</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>सपने में मैं सिर्फ़ सपना ही नहीं देखता</b></div><div><b>सोचता भी हूँ आँख देखने का काम करती है</b></div><div><b>और दिमाग़ अपना काम करता है जैसे</b></div><div><b>सपने में पीएम बना हुआ दिख रहा हूँ चाहे हूँ नहीं</b></div><div><b>लेकिन दिमाग़ चाह रहा है कि इस बेवक़ूफ़ी से</b></div><div><b>बाहर निकलूँ कविता की अपनी दुनिया में </b></div><div><b>एक सच्चे कवि के लिए राजनीति परदेस है</b></div><div><b>जिसकी क्रूरता के बारे में कड़ी टिप्पणी कर सकता हूँ</b></div><div><b>लेकिन जब साहित्य का सोना-चाँदी नहीं ले सकता</b></div><div><b>तो उस क्रूर जीवन को कैसे जी सकता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में ओलंपिक मेडल </b></div><div><b>----------------------------</b></div><div><b>सपने में बेटियाँ रोये जा रही थीं ताऊ तूने</b></div><div><b>हमें इस खेल में क्यों डाला जहाँ भेड़िए रहते हैं</b></div><div><b>आईपीएस बनाते तो एनकाउंटर कर सकती थीं</b></div><div><b>ओलंपिक मेडल का क्या करें एक दिन चमका </b></div><div><b>पीएम-सीएम ने एक दिन पूछा फिर नहीं पूछा</b></div><div><b>सोना-चाँदी लाने वाली बेटियाँ सड़क पर क्यों हैं</b></div><div><b>बुझ गये मेडल को हाथ में लेकर रोये जा रही थीं</b></div><div><b>पीएम से कह दे ताऊ ऐसे मेडल से क्या फ़ायदा</b></div><div><b>कोई बाहुबली किसी भी मेडल को क़ानून को</b></div><div><b>बेटियों की इज़्ज़त को कुचल सकता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में बाबा</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>सपने में जंतर-मंतर पर</b></div><div><b>चश्मावाले एक बाबा आये लाठी लिए</b></div><div><b>बोले लड़कियो डटी रहो क्रूर सत्ता से लड़ना ही</b></div><div><b>तुम्हारी सबसे बड़ी जीत है अहिंसा की जीत है</b></div><div><b>तुम्हारे साहस की जीत है सबकी नैतिक जीत है</b></div><div><b>देश की जीत है आधी आबादी की पूरी जीत है</b></div><div><b>किसी क्रूर सत्ता के सामने खड़ा होने की हिम्मत </b></div><div><b>न करना उससे न लड़ना सबसे बड़ी हार है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में हरी पत्तियाँ</b></div><div><b>-------------------------</b></div><div><b>सपने में एक नीम के पेड़ के नीचे सुस्ता रहा था</b></div><div><b>छाया की सीमा से सटे बाहर एक वनस्पति दिखी</b></div><div><b>उसमें नन्ही कोमल और हरी चार पत्तियाँ दिखीं</b></div><div><b>उनके ऊपर प्रचंड सूर्य का अति भीषण ताप था</b></div><div><b>मैंने कहा बेटियो बूढ़ा हूँ फिर भी थोड़ी देर तुम्हें</b></div><div><b>अपनी दोनों हथेलियाँ बढ़ाकर पूरा ढाँप सकता हूँ</b></div><div><b>पत्तियों ने शीश नवाकर आभार जताते हुए कहा</b></div><div><b>ठीक है ताऊ हम कुम्हलाएंगी नहीं आशीष का छाता</b></div><div><b>हमें कभी हमारे संघर्ष से डिगने नहीं देगा सामने</b></div><div><b>उत्पाती सूर्य हो बलात्कारी हो चाहे क्रूर सत्ता हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में कविता</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>सपने में जंतर-मंतर पर जब अप्रैल-मई में देश की</b></div><div><b>पहलवान बेटियाँ चालीस डिग्री में धरना दे रहीं थीं</b></div><div><b>हिंदी के कुछ कवि फ़रवरी पर कविता लिख रहे थे</b></div><div><b>संपादक अपने समय की गर्म हवाओं की कविता नहीं </b></div><div><b>उतान हो-होकर फ़रवरी की कविता छापे जा रहे थे</b></div><div><b>हिन्दी के आलोचकों की मति इतनी मारी गयी थी</b></div><div><b>कि वे ख़ुद को आचार्य शुक्ल तो समझ ही रहे थे</b></div><div><b>अप्रैल-मई को फ़रवरी और आज की हिन्दी कविता को </b></div><div><b>अंग्रेज़ी का उपनिवेश समझ रहे थे</b></div><div><b>पाठक तो ख़ैर कुछ समझ ही नहीं रहे थे।</b></div><div><br /></div><div><div><b><br /></b></div><div><div><b>सपने में हे राम </b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>सपने में जब हे राम आये तो मैंने उनसे कहा </b></div><div><b>धरती पर कभी आपके नाम पर लोकतंत्र को </b></div><div><b>नया किया गया तो कभी संसद की इमारत </b></div><div><b>बदलकर तो कभी धरनारत बेटियों को</b></div><div><b>घसीट-घसीटकर बसों में ठूँस ठूँसकर </b></div><div><b>उनके तम्बू-कनात उखाड़कर </b></div><div><b>इस तरह एक अच्छे-ख़ासे लोकतंत्र को </b></div><div><b>नया करने के नाम पर दुनिया में बार-बार </b></div><div><b>ज़लील किया गया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कृपालु सरकार </b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>सपने भगवान आये तो उन्होंने कहा</b></div><div><b>तुम्हारे देश में एक नयी इमारत बनायी गयी है</b></div><div><b>जिसे लोकतंत्र का ताजमहल कह सकते हो</b></div><div><b>फ़र्क़ इतना है कि इस ताजमहल को</b></div><div><b>देश से दगा करने वालों माफ़ियाओं और</b></div><div><b>स्त्रियों के साथ यौन-दुर्व्यवहार करने वालों के</b></div><div><b>लिए ख़ासतौर से बनाया गया है निश्चय ही </b></div><div><b>बहुत कृपालु और न्यायप्रिय सरकार होगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में शाहजहाँ</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>सपने में ये लो मैं शाहजहाँ बन गया था</b></div><div><b>अपनी बेग़म सियासत जान के लिए मुल्क में</b></div><div><b>दिनरात जहाज से दौड़ता ही रहता था </b></div><div><b>मुल्क की बेहतरी के लिए क्या काम करता था</b></div><div><b>दो रुपये का पेट्रोल दो हज़ार में बेचता था</b></div><div><b>अपने दरबार में छँटे हुए बदकार माफियाओं को</b></div><div><b>ख़ासतौर से रखता था जिससे लगे कि किसी</b></div><div><b>नयी सदी के बादशाह सलामत का दरबार है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><div><b><br /></b></div><div><b>विचित्र देश </b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>सपने में एक दिन विचित्र देश में चला गया</b></div><div><b>वहाँ कोई देवेन्द्र कुमार नाम के सच्चे कवि थे</b></div><div><b>बेचारे किसी को प्रोफ़ेसर नहीं बना सकते थे </b></div><div><b>सो उनका आलोचक प्रोफ़ेसर बनाने वाले</b></div><div><b>फिसड्डी कवि पर पोथे पर पोथा लिखने लगा</b></div><div><b>बहुत ख़राब जगह थी नाम-इनाम की जल्दी में</b></div><div><b>सारे लेखक नंग-धड़ंग मंच पर चढ़ जाते थे</b></div><div><b>बेटियों के साथ दुर्व्यवहार होता था कविगण </b></div><div><b>ग़ुस्सा नहीं होते थे जुलूस नहीं निकालते थे</b></div><div><b>कवयित्रियाँ बड़े मन से स्वेटर बुनतीं रहतीं थीं।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div><div><b>काग़ज़ की तलवार </b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>सपने में कबीर आये कोंचकर कहा ओये</b></div><div><b>तू सपने में भी कैसे जागता रहता है और </b></div><div><b>बाक़ी कवि जागते हुए सो कैसे रहे हैं मैंने कहा</b></div><div><b>जी इसमें नयी बात नहीं वे अक्सर यही करते हैं</b></div><div><b>नयी बात यह कि वे राष्ट्रवाद के पत्थर को</b></div><div><b>पुरस्कारवाद की काग़ज़ की तलवार से</b></div><div><b>काटना चाह रहे हैं कबीर ने माथा पकड़ लिया</b></div><div><b>बोले अहमक़ो क्या ग़ज़ब करते हो काश </b></div><div><b>तुम सब सही रास्ते से पैदा हुए होते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में नया ताजमहल </b></div><div><b>------------------------------</b></div><div><b>आगे सपने में देखा कि बेग़म सियासत जान </b></div><div><b>मरणासन्न थीं और मैं उनके लिए नये ज़माने का</b></div><div><b>ताजमहल बनवाना चाहता था बनवाया भी ख़ूब </b></div><div><b>और हैरानी की बात यह कि मैंने कारीगरों के</b></div><div><b>हाथ नहीं कटवाये यह मेरी आखिरी भूल थी</b></div><div><b>नया ताजमहल पहले से शानदार था फ़र्क़ यह </b></div><div><b>कि वहाँ सब जा सकते थे यहाँ सिर्फ़ बदकार</b></div><div><b>साहिर लुधियानवी जैसे तमाम लोग हरग़िज </b></div><div><b>न जा सकते थे और न यह कह सकते थे कि </b></div><div><b>हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>चमड़ा</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>सपने में बहुत उदास था</b></div><div><b>राजनीति और साहित्य के भविष्य को लेकर </b></div><div><b>बहुत निराश था सुबक-सुबककर रो रहा था</b></div><div><b>देश में बेटियों के साथ कुछ भी हो जा रहा था</b></div><div><b>नये-नये बाबा हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए </b></div><div><b>जन्म लेते ही जा रहे थे और हिन्दी के लेखक </b></div><div><b>ससुरे पुरस्कार का चमड़ा खा रहे थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पुरस्कारवालियाँ</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>सपने में मैं हिन्दी की पुरस्कारवालियों को </b></div><div><b>जगह-जगह कोनें-अतरे में इस-उस अख़बार में</b></div><div><b>ढूँढ रहा था कि पहलवान बेटियों के पक्ष में</b></div><div><b>उनका कोई बयान दिखे पुरस्कार लौटाती दिखें</b></div><div><b>ऐसा कुछ नहीं दिखा वे निश्चय ही किसी जगह </b></div><div><b>बैठकर अतिगंभीर स्त्री-विमर्श में तल्लीन होंगी</b></div><div><b>देश में क्या हो रहा है उन्हें पता ही नहीं होगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ख़ूब लड़ीं मर्दानी</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>सपने में देखा कि वे लड़कियाँ</b></div><div><b>जो लड़ाई में सबसे आगे थीं लोहे की देवी थीं</b></div><div><b>भले वह प्रधानमंत्री-गृहमंत्री की बेटी नहीं थीं</b></div><div><b>लेकिन देश की बेटी वही थीं वही थीं वही थीं</b></div><div><b>देश बेचारा एक कोने में खड़ा सुबक रहा था</b></div><div><b>लोकतंत्र और क़ानून को कुछ हत्यारों ने मुर्गा </b></div><div><b>बनाया हुआ था आधा जिबह भी हो चुका था</b></div><div><b>जितना बड़ा राजनेता उतना ही मुँह काला था</b></div><div><b>लड़कियाँ डरी नहीं अंत तक ख़ूब लड़ीं मर्दानी</b></div><div><b>दुष्कर्मी की छाती को चीर डालना चाहती थीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तानाशाही</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>सपने में लोहिया आये थे ख़फ़ा हो रहे थे</b></div><div><b>बोले ओह लोकतंत्र का क्या से क्या हो गया है</b></div><div><b>मैंने कहा जी-जी जापानी बुख़ार पहले हुआ था</b></div><div><b>अब रोना इस बात का है कि कोरोना हो गया है</b></div><div><b>सरकार कहती है कि हमारा सांसद आग मूतेगा</b></div><div><b>जनता की बेटी की छाती छुएगा पेट छुएगा और </b></div><div><b>बेटियाँ धरना-प्रदर्शन कुछ नहीं कर सकती हैं </b></div><div><b>सरकार कहती है अंधे क़ानून पर भरोसा करो</b></div><div><b>सत्तानुकूलित पुलिस पर भरोसा करो मुझे</b></div><div><b>रोता देख वे भी तानाशाही है कहकर रोने लगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHeFvkgds9ldUjlJlxxOyELBPUj6GDk-x_qa3kLddw2COWKhuMFiFkCmxzBT81_o7isT5z-Y6LcmeN_SCyIz4poRI_DHHasEmpc9HmVhWofuxIy0WD2XhYaMeh4v95P496oiVHjZzsZI0NMDQfo4Fin0dOKzJRVTyKCHC4rfZAcaVXMDdk0fh3NXNVZw/s1947/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><b><img border="0" data-original-height="1947" data-original-width="1944" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHeFvkgds9ldUjlJlxxOyELBPUj6GDk-x_qa3kLddw2COWKhuMFiFkCmxzBT81_o7isT5z-Y6LcmeN_SCyIz4poRI_DHHasEmpc9HmVhWofuxIy0WD2XhYaMeh4v95P496oiVHjZzsZI0NMDQfo4Fin0dOKzJRVTyKCHC4rfZAcaVXMDdk0fh3NXNVZw/w200-h200/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" width="200" /></b></a></div><b><br /></b><div><br /></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-3191221103052410382023-04-22T10:58:00.002+05:302023-04-22T10:59:15.995+05:30 आपा के नाम ख़त तथा अन्य कविताएँ<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div><b>इब्राहीम भाई </b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>खेत थोड़े से थे लेकिन उसका काम </b></div><div><b>इब्राहीम भाई जैसे शख़्स देखते थे </b></div><div><b>मुसलमान होकर भी इसलिए देखते थे</b></div><div><b>कि गाँव-जवार में उनकी जोड़ का</b></div><div><b>कोई ईमान वाला नहीं था कोई हिन्दू</b></div><div><b>उतना अच्छा रहा होता तो हमारे लिए </b></div><div><b>खेती को लेकर इब्राहीम भाई की हर बात </b></div><div><b>पत्थर की लकीर क्यों होती</b></div><div><b>बाबूजी जाते समय क्यों कहते</b></div><div><b>इब्राहीम भाई को भाई समझना।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ईदी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>काफ़ी समय से एसी की सर्विसिंग का काम </b></div><div><b>अफ़रोज़ भाई देखते हैं आज आख़रि जुमा था</b></div><div><b>मैंने कहा था कि ईद के बाद करा दीजिएगा</b></div><div><b>नातिन आयी है जानकर उन्होंने दो नौजवान </b></div><div><b>मिस्त्रियों को थोड़ी देर में भेज दिया</b></div><div><b>सर्विसिंग के बाद जब वे नौजवान जाने लगे तो</b></div><div><b>मज़दूरी के बाद ईदी कहकर कुछ रुपये दिए</b></div><div><b>ईदी के नाम पर उनकी आँखों में जो चमक</b></div><div><b>और चेहरे पर जो ख़ुशी आयी अनमोल थी</b></div><div><b>अनमोल थी अनमोल थी। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>चच्ची</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>किशोर जीवन से ईद पर</b></div><div><b>चच्ची के हाथ की सेवइयाँ खाता रहा</b></div><div><b>दूसरे दिनों में भी चच्ची के हाथ का </b></div><div><b>हम कुछ भी खा लेते थे उनकी बेटी मुझे</b></div><div><b>भाई समझती थी और उसके भाई को मैं भाई</b></div><div><b>वह था भी भाईचारे के काबिल </b></div><div><b>हिन्दुओं के साथ होली खेलता था साथ रहता था</b></div><div><b>उसके पिता कम्युनिस्ट थे यह उसके वुजूद में था</b></div><div><b>चच्ची अब नहीं हैं वह आज भी है उसी तरह</b></div><div><b>अब वहाँ कम जा पाता हूँ कम मिल पाता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रोजन चच्चा</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>रोजन किन्नर थे</b></div><div><b>रोजन को हम चच्चा कहते थे उनकी झोपड़ी</b></div><div><b>हमारे घर से थोड़ी दूर पर थी जब मिलते</b></div><div><b>पूछते का हो बेटा हम कहते ठीक है चच्चा</b></div><div><b>कभी दुकान पर चाय पी रहे होते तो पूछते</b></div><div><b>चाय पी बो हम कहते बाद में चच्चा</b></div><div><b>जब हमारे हाथ पैर में मोच आ जाए</b></div><div><b>चच्चा घर आकर मालिश से ठीक कर देते</b></div><div><b>हमें बुख़ार हो तो वेदनानिग्रह रस दे जाते</b></div><div><b>वे किन्नर नहीं हम बच्चों के चच्चा थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आपा के नाम ख़त</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>आपा </b></div><div><b>अस्सलाम अलैकुम</b></div><div><b>नर्सिंगहोम से मैं भी अपनी बेटी को लेकर आ गया हूं</b></div><div><b>आप भी इक़रा को लेकर बख़ैरियत घर पहुंच चुकी होंगी</b></div><div><b>इक़रा भी मुझे अपनी बेटी जैसी प्यारी लगी</b></div><div><b>अब कैसी है</b></div><div><b>आपा </b></div><div><b>हमारे पास पैसे थे </b></div><div><b>हम बच्चों के लिए बेहतर कर सकते थे</b></div><div><b>जिनके पास पैसे नहीं थे</b></div><div><b>कोई सरकार उनके लिए ऐसा नहीं करती</b></div><div><b>हिन्दू-मुसलमान के नाम पर मुफ़्त में ऐसा इलाज नहीं होता</b></div><div><b>ठीक है कि डाक्टर हेली-मेली थे पांच हज़ार छोड़ दिया</b></div><div><b>वर्ना हिन्दू चाहे मुसलमान होने पर</b></div><div><b>एक कप चाय तो मुफ़्त मिलती नहीं</b></div><div><b>आपा </b></div><div><b>आप कितनी अच्छी हैं</b></div><div><b>आपने इक़रा के लिए थर्मस में रखा दूध</b></div><div><b>आधी रात में मेरी बिटिया के लिए पेश किया</b></div><div><b>शुक्रिया</b></div><div><b>आपा</b></div><div><b>मेरी कोई दिदिया होती तो बिल्कुल आप जैसी होती</b></div><div><b>क्या पता पिछले जनम में मैं आपका भाईजान रहा होऊं</b></div><div><b>हो सकता है कि आप मेरी दिदिया रही हों</b></div><div><b>आपा </b></div><div><b>सच कहूं तो मैं</b></div><div><b>मज़हब की किताब कम पढ़ता हूं</b></div><div><b>ज़िन्दगी की ज़्यादा</b></div><div><b>मुझे </b></div><div><b>ज़्यादा पता नहीं </b></div><div><b>कि मज़हब की किताबें पहले पैदा हुईं या इंसान</b></div><div><b>कुछ-कुछ तो पता है </b></div><div><b>कि ज़िन्दगी की किताब ही </b></div><div><b>धरती की सबसे पुरानी और सबसे प्यारी किताब है</b></div><div><b>आपा</b></div><div><b>आज आप यह ख़त खोलेंगी तो हैरान होंगी</b></div><div><b>खुश भी बहुत होंगी वालेकुम अस्सलाम कहेंगी</b></div><div><b>शुक्रिया कहना जरूरी था बस</b></div><div><b>भाईजान को भी शुक्रिया जरूर कहिएगा</b></div><div><b>पहला निवाला मुंह में लेने से पहले पूछने के लिए</b></div><div><b>आपा अख़ीर में</b></div><div><b>बड़ों के लिए दुआएं </b></div><div><b>बच्चों के लिए बहुत-बहुत प्यार</b></div><div><b>और आप दोनों के लिए तहेदिल से प्यार</b></div><div><b>इक़रा के निक़ाह में </b></div><div><b>इंशाअल्लाह हम ज़रूर शामिल होंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सलाम </b></div><div><b>-----</b></div><div><b>सब साहिबान को सलाम</b></div><div><b>जो मुझे छोड़ने आए थे सिवान तक</b></div><div><b>उन भाइयों को सलाम जो अड्डे तक आए थे</b></div><div><b>मेरी छोटी-छोटी चीज़ों को लेकर ।</b></div><div><b>उन चच्चा को ख़ासतौर से सलाम</b></div><div><b>जिन्होंने मेरा टिकट कटाया था</b></div><div><b>और कुछ छुट्टे दिए थे वक़्त पर काम आने के लिए।</b></div><div><b>बचपन के उन साथियों को सलाम</b></div><div><b>जिन्होंने हाथ हिलाया था</b></div><div><b>और जिन्होंने हाथ नहीं हिलाया था ।</b></div><div><b>अम्मी को सलाम</b></div><div><b>जिन्होंने ऐन वक़्त पर गर्म लोटे से</b></div><div><b>मेरा पाजामा इस्त्री किया था और जल गई थी</b></div><div><b>जिनकी कोई उँगली ।</b></div><div><b>आपा को सलाम</b></div><div><b>जिनके पुए मीठे थे ख़ूब और काफ़ी थे</b></div><div><b>उस कहकशाँ तक पहुँचे मेरा सलाम</b></div><div><b>जो मुझे कुछ दे न सकी थी</b></div><div><b>खिड़की की दरार से सलाम के सिवा ।</b></div><div><b>उस याद को सलाम</b></div><div><b>जिसने ज़िन्दा किया मुझे कई बार</b></div><div><b>उस वतन को सलाम</b></div><div><b>जो मुझे छोड़कर भी मुझसे छूट नहीं पाया ।</b></div><div><b>रास्ते की तमाम जगहों और उन लोंगो को सलाम</b></div><div><b>जिन्होंने बैठने के लिए जगह दी</b></div><div><b>और जिन्होंने दुश्वारियाँ खड़ी कीं</b></div><div><b>उस वक़्त को सलाम</b></div><div><b>जिसने मुझे मार-मार कर सिखाया यहाँ</b></div><div><b>किसी आदमी को रिश्तों से नहीं</b></div><div><b>उसकी फ़ितरत से जानो ।</b></div><div><b>ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम</b></div><div><b>जो किसी काम के वास्ते तूने चुना</b></div><div><b>किसी ग़रीब को ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_EES40PDXizub2IAsN9es2_9nFxuPyRQuW48VvL-qBibYJ2BnlyDukse2exnrw17j4ggxAClJoEcrZDsdcyUZo-uRiae3r9bo24gVurdkMaWleXcTfKzTYnEMRVmkAxbvNmuFeoeJStd9QQAWJ4L6kugYBwc6zJ9hee1NwsVz4o8QoRm7b3QF9jGwXQ/s1468/95875217_2870750759673755_8210938409988915200_o.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><b><img border="0" data-original-height="1468" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_EES40PDXizub2IAsN9es2_9nFxuPyRQuW48VvL-qBibYJ2BnlyDukse2exnrw17j4ggxAClJoEcrZDsdcyUZo-uRiae3r9bo24gVurdkMaWleXcTfKzTYnEMRVmkAxbvNmuFeoeJStd9QQAWJ4L6kugYBwc6zJ9hee1NwsVz4o8QoRm7b3QF9jGwXQ/s320/95875217_2870750759673755_8210938409988915200_o.jpg" width="235" /></b></a></div><b><br /></b><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-77988729833110865162023-04-17T11:56:00.004+05:302023-04-18T12:11:34.979+05:30 महापंडित तथा अन्य छोटी कविताएँ<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>प्रेम कविता</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>कोई कवि किसी के प्रेम में मर-मिटता है</b></div><div><b>प्रेम में चोट खाने के बाद घनानंद बन जाता है</b></div><div><b>प्रेम कविताओं का अंबार लगाने लगता है</b></div><div><b>हिन्दी का आज कवि अमरप्रेम नहीं करता है</b></div><div><b>उसके लिए स्त्री पहली दूसरी तीसरी कविता है</b></div><div><b>वह प्रेम करने के लिए प्रेम नहीं करता है</b></div><div><b>केवल संबंघ बनाने के लिए प्रेम करता है</b></div><div><b>जैसे कविता पुरस्कार के लिए लिखता है</b></div><div><b>उसकी सारी प्रेम कविताएँ फ़र्ज़ी हैं</b></div><div><b>स्त्रियों को रिझाने के लिए लिखी गयी हैं।</b></div><div><br /></div><div><b><br /></b></div><div><b>रुपया</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>कोई देश से प्रेम करने लगता है</b></div><div><b>कोई क्रांति के स्वप्न से प्रेम करने लगता है</b></div><div><b>कोई किसी खेल से प्रेम करने लगता है</b></div><div><b>कोई किताबों के प्रेम में कीड़ा बन जाता</b></div><div><b>कोई रुपये के प्रेम में अंधा हो जाता है</b></div><div><b>उसी को खाता है उसी को पीता है </b></div><div><b>उसी के लिए हत्या करता है सबको सताता है</b></div><div><b>मनुष्यता की सबसे निचली सीढ़ी से </b></div><div><b>और नीचे और नीचे लुढ़कता जाता है</b></div><div><b>आग लगे इस रुपये में।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लोकतंत्र का मज़ाक़</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>कोई बंदूक से प्यार करने लगता है</b></div><div><b>बंदूक के रास्ते पर चलता जाता है</b></div><div><b>चारो तरफ़ ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ पैदा करता है</b></div><div><b>गुनाहों की एक लंबी फ़ेहरिस्त के बाद </b></div><div><b>राजनीति का सितारा बन जाता है</b></div><div><b>अपने आक़ाओं के बहुत काम आता है</b></div><div><b>पैसा लूटते-लूटते वोट लूटने लगता है</b></div><div><div><b>बंदूक की नोंक पर बैठकर गोली की तरह </b></div><div><b>सीधे संसद में पहुँच जाता है लोकतंत्र का </b></div><div><b>इससे बड़ा मज़ाक़ क्या हो सकता है।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><b><br /></b></div><div><b>संविधान के कारीगर</b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>भारतीय राजनीति </b></div><div><b>और अपराध का अशुभ-विवाह </b></div><div><b>किस दुष्चरित्र पंडित ने कराया पकड़ो उसे</b></div><div><b>बारात में कौन-कौन सी पार्टियाँ शामिल थीं</b></div><div><b>और किन गधों ने बैंड-बाजा बजाया</b></div><div><b>संगीन आपराधिक मामलों का आरोपी</b></div><div><b>माननीय जनप्रतिनिधि कैसे बन सकता है</b></div><div><b>अब तक संविधान के कारीगरों ने आखि़र </b></div><div><b>इस चोर दरवाज़े को बंद क्यों नहीं किया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>गोली और फूल</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>माफ़िया की बंदूकें </b></div><div><b>जगह-जगह गोली उगलें</b></div><div><b>और पुलिस की बंदूकें फूल बरसायें</b></div><div><b>जेलें अपराधियों के लिए सैरगाह हो जाएँ</b></div><div><b>न्यायालय बीसियों साल फ़ैसला न दे पाये</b></div><div><b>जेलों से संगठित अपराध चलाने की छूट हो</b></div><div><b>ऐसा कोई राजनेता सोच कैसे सकता है</b></div><div><b>कोई राजनेता पुलिस से बंदूकें वापस लेकर</b></div><div><b>उन्हें मज़ाक कैसे बना सकता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उलट-पलट </b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>एक सरकार में</b></div><div><b>कुछ माफ़िया निशाने पर होते हैं</b></div><div><b>शेष सरकार के प्यारे होते हैं</b></div><div><b>दूसरे सरकार में उलट होता है</b></div><div><b>सरकारो उलट-पलट का यह खेल</b></div><div><b>कब बंद करोगो आओगे तो फिर </b></div><div><b>उलट-पलट का खेल खेलोगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दो दुनिया</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>शहर एक है दुनिया दो है</b></div><div><b>एक रोशनी की छोटी दुनिया है</b></div><div><b>दूसरी अँधेरे की बड़ी दुनिया है</b></div><div><b>अँधेरे की दुनिया को देखने के लिए</b></div><div><b>उसमें जीना पड़ता है धँसना पड़ता है</b></div><div><b>अँधेरे से लड़ने के लिए ख़ुद</b></div><div><b>हाथ-पैर चलाना पड़ता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>चाहत</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>यह शहर है </b></div><div><b>कि देश है कि दुनिया</b></div><div><b>जहाँ दो ज़िन्दगियाँ हैं अँधेरे और उजाले की</b></div><div><b>एक में गोदाम मेवे और रुपयों से भरे हुए हैं</b></div><div><b>खाने के लिए पूरे छप्पन भोग सजे हुए हैं</b></div><div><b>दूसरे में पतली दाल ठंडी बाटी और लाल मिर्च</b></div><div><b>कमीज़ की जेब ज़रूर फटी हुई हैं सीना दुरुस्त </b></div><div><b>फेफड़े मज़बूत हैं और अँधेरे से निकलने </b></div><div><b>और दुनिया को उलट-पलट देने की</b></div><div><b>चाहत कम नहीं हुई है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तीसरी ज़िन्दगी</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>एक तीसरी ज़िन्दगी है मैं उन्हें जानता हूँ</b></div><div><b>वे क्यों सोचते हैं कि इस सबसे बड़े शहर में </b></div><div><b>उनके बच्चों के थ्री बीएचके फ्लैट हो जाएँ और </b></div><div><b>पैकेज चालीस से बढ़कर एक करोड़ हो जाए</b></div><div><b>अपार्टमेंट के सामने लाल दोंगर वालों की दशा</b></div><div><b>कुछ-कुछ सुधर जाए लेकिन कितनी सुधर जाए</b></div><div><b>जो बाई काम के लिए आती है उसके बच्चे</b></div><div><b>और उनके नाती-पोते एक जैसे हो जाएँ</b></div><div><b>वे ऐसा कुछ क्यों नहीं सोच पाते हैं क्या है </b></div><div><b>जो उनमें कम है कैसा भय है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>महापंडित </b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>आप लेखक हैं संगठन के महासचिव हैं</b></div><div><b>आप इतनी बड़ी पत्रिका के संपादक हैं</b></div><div><b>साहित्य से अधिक राजनीति के महापंडित हैं</b></div><div><b>केवल उस एक दल का नाम बता दीजिए जो</b></div><div><b>राजनीति और अपराध के अशुभ-विवाह के खि़लाफ़ है</b></div><div><b>राजनीति और भ्रष्टाचार के अशुभ-विवाह के खि़लाफ़ है</b></div><div><b>राजनीति और धर्म के अशुभ-विवाह के </b><b>खि़लाफ़ </b><b>है</b></div><div><b>राजनीति और जाति के अशुभ-विवाह के </b><b>खि़लाफ़</b><b> है</b></div><div><b>आपकी एक आँख फूटी क्यों है आधा क्यों देखते हैं</b></div><div><b>फासीवादी को देखते हैं बाक़ी को नहीं देखते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>विकल्प </b></div><div><b>----------</b></div><div><b>रेल गाड़ी से उतारकर </b></div><div><b>सवारियों को टैक्सी में बैठाने के लिए </b></div><div><b>क्या यह ज़रूरी नहीं है कि आप पहले</b></div><div><b>देख तो लें कि टैक्सी के चारो पहिए</b></div><div><b>सलामत हैं या नहीं आगे चलकर आप</b></div><div><b>बैलगाड़ी में बैठने के लिए तो नहीं कहेंगे</b></div><div><b>साफ़-साफ़ पहले ही बता दीजिए। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पैर</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>हम सिर्फ़ कह सकते हैं आगे बढ़िए</b></div><div><b>दूसरी बार कह सकते हैं तीसरी बार भी</b></div><div><b>इसके बाद भी वह पैर नहीं हिलाता</b></div><div><b>तो यह उसकी मर्ज़ी है वहीं पड़ा रहे</b></div><div><b>हम उसके पैर नहीं बदल सकते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglI2Uh77_bAgJgwQFTGLOlZKDUaddaGz96zMK_rveepr8afs57R4kez6CauY08K71sraWgG1xoQM9a7WQwpjDjxq0Hw7N7o-OYZNtYYLvCkP0fPgg_wQwKg6G1JtTGilSRfWRUxeW27LVeEQcPZCLYmmA1dM_YOhrb5hwS1yKW12SYdrhymMfYJAI_YA/s1947/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1947" data-original-width="1944" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglI2Uh77_bAgJgwQFTGLOlZKDUaddaGz96zMK_rveepr8afs57R4kez6CauY08K71sraWgG1xoQM9a7WQwpjDjxq0Hw7N7o-OYZNtYYLvCkP0fPgg_wQwKg6G1JtTGilSRfWRUxeW27LVeEQcPZCLYmmA1dM_YOhrb5hwS1yKW12SYdrhymMfYJAI_YA/w200-h200/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" width="200" /></a></div><br /><div><br /></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-9048848731533723352023-04-12T19:57:00.001+05:302023-04-12T19:57:19.966+05:30 ख़ुदा-वंद-ए-करीम तथा अन्य छोटी कविताएँ<div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ऐ ख़ुदा</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>कैसा बुरा समय आया है</b></div><div><b>कोई ज़लज़ला तो नहीं आने वाला है</b></div><div><b>गोरख कबीर प्रेमचंद फ़िराक़ देवेंद्र कुमार </b></div><div><b>और कुछ-कुछ मेरे इस शहर में ज़माने से </b></div><div><b>पालकी ढोने वालों की पालकी ढोने वाले </b></div><div><b>ऊँची आवाज़ में ईमान की बात करने लगे हैं</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा हिन्दी को इस झूठ से महफ़ूज़ रखना।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बदचलनी</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा हिन्दी को </b></div><div><b>फ़ेसबुक की इस बदचलनी से बचाना </b></div><div><b>कि एक ही शख़्स चोर और सिपाही दोनों को </b></div><div><b>चाहकर भी एक साथ लाइक न कर सके</b></div><div><b>ख़ुदाया ऐसे लोगों की शक़्लें बिल्कुल </b></div><div><b>शातिर चोरों जैसी बना देना।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह मोढ़ा</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>वह शख़्स जिसके पास ख़ुद की कुर्सी नहीं है</b></div><div><b>ख़ुद की भाषा और ख़ुद का मुहावरा नहीं है</b></div><div><b>जो एक टुटहे मोढ़े पर बैठकर लगातार </b></div><div><b>अदब और इंसाफ़ पर भाषण दे रहा है</b></div><div><b>ख़ुद को बेदाग़ और बेकसूर दिखा रहा है</b></div><div><b>वह मोढ़ा मेरा है जिसे वह अपना बता रहा है</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा मेरे मोढ़े को सलामत रखना।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दसदुआरी</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा हिन्दी में</b></div><div><b>ऐसी छोटी मशीनें ज़रूर बना देना</b></div><div><b>कि दूसरे शहर का लेखक वहीं से</b></div><div><b>जान सके कि मेरे शहर में कौन लेखक </b></div><div><b>दसदुआरी है और कौन अपने ठीहे पर </b></div><div><b>जमा हुआ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जन्नत-नशीं</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा दिल्ली की पूँछ पकड़कर </b></div><div><b>मेरे सिर पर बैठने की ख़्वाहिश करने वाले</b></div><div><b>लेखकों को लेखकों की उस बिरादरी में </b></div><div><b>रत्नजड़ित सिंहासन देना जहाँ सुबह-शाम </b></div><div><b>गधे कविता लिखते हों और चूहे आलोचना</b></div><div><b>जहाँ छोटे से छोटे कवि का संग्रह </b></div><div><b>एक साथ पच्चीस भाषाओं में छपता हो</b></div><div><b>अनुवाद होना जहाँ बड़ा काम समझा जाता हो</b></div><div><b>बराएमेहरबानी उनके बाड़े के मुँह पर सूअर नहीं</b></div><div><b>हिन्दी के जन्नत-नशीं लिख देना।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ग़ैबी ताक़त </b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>बहुत बुरा बखत है</b></div><div><b>बुरे लोगों से अच्छाई से पेश आना चाहो तो</b></div><div><b>वे रास्ते में ही अच्छाई की इज़्ज़त लूट लेते हैं</b></div><div><b>वे अच्छा लेखक होने का ढोंग तो कर सकते हैं</b></div><div><b>किसी सचमुच के अच्छे लेखक को सेकेंड का</b></div><div><b>हज़ारवाँ हिस्सा भी बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा ऐसे दुष्टों से निपटने के लिए थोड़ी-सी</b></div><div><b>ग़ैबी ताक़त मुझे भी अता फ़रमा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो करूँ</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा</b></div><div><b>मैं बहुत शुक्रगुजार हूँ</b></div><div><b>मुझमें इतनी ताक़त तो बख़्शी कि</b></div><div><b>ज़रा-सी ठोकर से जैसे ही लड़खड़ाने को होऊँ</b></div><div><b>तुरत संभल जाऊँ और फिर जो करूँ </b></div><div><b>किसी के मान में न आऊँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ख़ुदा-वंद-ए-करीम </b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>ख़ुदा-वंद-ए-करीम मैंने तो </b></div><div><b>तेरे हुक़्म की तामील करते हुए बुरे लेखकों से</b></div><div><b>अच्छाई से पेश आने की बारहा कोशिश की</b></div><div><b>मेरे सिर पर बार-बार पेशाब तो उन्होंने की</b></div><div><b>उनके घमंड को चकनाचूर करने के लिए </b></div><div><b>मुझे इसी तरह तेज़ाबी कविताएँ</b></div><div><b>और विस्फोट गद्य लिखने दे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दुष्ट लेखक</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा मुझे माफ़ करना </b></div><div><b>मैंने तुझे उर्दू अल्फ़ाज़ों में याद किया</b></div><div><b>संस्कृतनिष्ठ तत्सम में याद करता</b></div><div><b>तो बीस बार ओ प्रभु कहते ही कवि नहीं</b></div><div><b>साम्प्रदायिक हिन्दू कह दिया जाता</b></div><div><b>हालाँकि मेरे लिए हिन्दी और उर्दू सगी बहनें हैं</b></div><div><b>एक के घर में जो पकता है दूसरे भी चखते हैं</b></div><div><b>दूसरे घर में जगह कम पड़ती है तो हिन्दी</b></div><div><b>अपनी दोनों बाहें फैला देती है लेकिन </b></div><div><b>ये हिन्दी के दुष्ट लेखक कुछ सीखते ही नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इजाज़त </b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>ऐ ख़ुदा</b></div><div><b>तू मुझे माफ़ कर आज की तारीख़ में</b></div><div><b>यहाँ किसी भी बेईमान अंपादक-संपादक में</b></div><div><b>मेरे लिखे को छापने की क़ुव्वत नहीं है</b></div><div><b>इसलिए इन कविताओं को अपने ब्लॉग में</b></div><div><b>छापने की इजाज़त दे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVX5w_Davwan0P1ycxFRW1HTlaciMIZWXS4Xt3_Ecqo8G1fxbhgTM7Ruh724-rvYW83f5jBHRxKV2HQzf5E-tMVrWZyUasqJ8BBZ2VDqX3uhVwjtKDTpG7Wm1hRNxh7JDmc3WjRm_odjIajJv1mNhwzwdDVzC1uZu4EthwzBBe6c2wb1JrbLFgimMs_Q/s808/DSC_0002.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="808" data-original-width="461" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVX5w_Davwan0P1ycxFRW1HTlaciMIZWXS4Xt3_Ecqo8G1fxbhgTM7Ruh724-rvYW83f5jBHRxKV2HQzf5E-tMVrWZyUasqJ8BBZ2VDqX3uhVwjtKDTpG7Wm1hRNxh7JDmc3WjRm_odjIajJv1mNhwzwdDVzC1uZu4EthwzBBe6c2wb1JrbLFgimMs_Q/s320/DSC_0002.JPG" width="183" /></a></div><br /><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-83543659691933477892023-04-01T19:50:00.005+05:302023-04-01T20:15:23.120+05:30 ये औरतें तथा अन्य छोटी कविताएँ<div style="text-align: left;"><br /></div><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><br /></div><div><b><br /></b></div><div><b>ये औरतें</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>काश ये औरतें </b></div><div><b>इस तरह भगदड़ में मारी नहीं जातीं</b></div><div><b>आटे के एक थैले के लिए लिए जान नहीं देतीं </b></div><div><b>अपने बच्चों और अपने मुल्क की बेहतरी के लिए </b></div><div><b>धार्मिक कट्टरता और दशशतगर्दों से</b></div><div><b>लड़ते-लड़ते मारी जातीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हुकूमत </b></div><div><b>---------</b></div><div><b>पड़ोस में बच्चे किस कदर रो रहे हैं</b></div><div><b>उनकी माएँ छातियाँ पीटे जा रही हैं</b></div><div><b>बाप बेचारा बेबस है करे तो क्या करे</b></div><div><b>देख रहा है निज़ाम से कह भी रहा है </b></div><div><b>पड़ोस से मदद मिल सकती है माँगो</b></div><div><b>हुकूमत मुँह में दही जमाये बैठी है</b></div><div><b>काश अवाम गेहूँ की तरह हुकूमत को </b></div><div><b>पीसकर आटा बना पाती।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कश्मीर का झुनझुना</b></div><div><b>-----------------------</b></div><div><b>अवाम की बेवकूफियाँ मिसाल हैं</b></div><div><b>उसने न्यूक्लियर बम को चुना आटे को नहीं</b></div><div><b>दहशतगर्दी को चुना चौतरफा तरक्की को नहीं</b></div><div><b>माहिरा खान को चुना हबीब जालिब को नहीं</b></div><div><b>जम्हूरियत को फौज ने जब चाहा पैरों से रौंदा</b></div><div><b>आधी-अधूरी जम्हूरियत किसी काम न आयी</b></div><div><b>अवाम को इंडिया के ख़लिफ जिसने भड़काया</b></div><div><b>कश्मीर का झुनझुना थमाया उसे पीएम बनाया</b></div><div><b>बदले में आज दो जून की रोटी भी नसीब नहीं</b></div><div><b>काश उसके पास रोटी का ख़ुदा होता। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ख़ुदा सो रहा है</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>ख़ुदा कुछ देख नहीं रहा है देखता तो</b></div><div><b>रोटी के लिए लंबी-लंबी लाइनें लगतीं</b></div><div><b>क्या बीबियाँ पुलिस के हाथों पिटतीं</b></div><div><b>क्या भगदड़ में बंदो की जानें जातीं</b></div><div><b>क्या अमीर लोग देशी घी से चुपड़ी </b></div><div><b>मिस्सी रोटियाँ खाते और बेचारे ग़रीब </b></div><div><b>मारे-मारे फिरते भूखों रहते यक़ीनन</b></div><div><b>ख़ुदा सो रहा है ख़ुदा जागता कम है</b></div><div><b>सोता बहुत ज़्यादा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने में</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>कल रात सपने में बम नहीं</b></div><div><b>लड़ाकू विमान से रोटियाँ बरसा रहा था </b></div><div><b>डर नहीं पड़ोस में प्यार लुटा रहा था</b></div><div><b>बच्चों और औरतों के चेहरे पर </b></div><div><b>मुस्कान ला रहा था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर आइएगा</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>मैंने सपने में जिन-जिन बच्चों को</b></div><div><b>रोटियाँ खिलायीं मुझे उनकी अम्मियों ने कहा</b></div><div><b>शुक्रिया भाईजान फिर आइएगा ऐसे ही</b></div><div><b>हमारे मुल्क में दोस्ती का फरिश्ता बनकर</b></div><div><b>इंसानियत की मिसाल बनकर </b></div><div><b>बँटवारे पर सवाल बनकर।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सपने</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>नींद खुली </b></div><div><b>तो रात के सपने याद आये थोड़ा डर गया</b></div><div><b>मुझे क्या हो गया था अपनी सरकार से पूछे बिना</b></div><div><b>पड़ोस में रोटी गिराने जैसे कई ख़तरनाक सपने </b></div><div><b>ताबड़तोड़ देख गया मुझे तो क़ानून भी पता नहीं</b></div><div><b>ग़ैर-इरादतन सपने देखने का क्या दण्ड है</b></div><div><b>और इरादतन का क्या दो साल या चार साल </b></div><div><b>भलाई करने का क्या है बुराई करने का क्या</b></div><div><b>आप से आप जो सपने आते गये देखता गया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दंगे</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>दंगे तो</b></div><div><b>हमारे और हमारे बच्चों के लिए मुसीबत हैं</b></div><div><b>ख़ून हमारा बहेगा और गाल आपके सुर्ख़ होंगे</b></div><div><b>घर हमारा जलेगा और महल आपके सजेंगे</b></div><div><b>आपका क्या आपकी तो चाँदी ही चाँदी होगी</b></div><div><b>हम जिस जगह दफ़्न होंगे आपकी फसल </b></div><div><b>वहीं हमारी छाती पर लहलहाएगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>विचारों की फेरी</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>भगत सिंह के प्यारे उनके विचारों को</b></div><div><b>उनके स्वप्न को लोगों तक ले जाते हैं</b></div><div><b>आज़ादी की लड़ाई के दिनों में प्यारे-प्यारे </b></div><div><b>बच्चों की प्रभातफेरी की तरह आज सड़कों पर</b></div><div><b>भगत सिंह के विचारों की फेरी निकालते हैं</b></div><div><b>आते-जाते लोग कभी देखते हैं कभी नहीं</b></div><div><b>ठहरकर कुछ तो सोचेंगे शर्मिंदा भी होंगे</b></div><div><b>जिस दिन पैम्फलेट पढ़ेंगे बुदबुदाएंगे </b></div><div><b>कैसा जीवन जिया!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><div><b>चाँद और चितचोर </b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>मेरा चाँद तो तुम हो</b></div><div><b>चाँद को देखता हूँ तो चाँद को नहीं</b></div><div><b>उसमें तुम्हें देखता हूँ मेरी चितचोर</b></div><div><b>तुम्हारा श्वेत-कमल-मुख</b></div><div><b>तुम्हारी स्मिति तुम्हारी चितवन</b></div><div><b>तुम्हारा चिरयौवन तुम्हारा प्रेम</b></div><div><b>तुम्हारी कांति तुम्हारी दीप्ति सब देखता हूँ</b></div><div><b>इसीलिए रोज़ उस टूटने-फूटने वाले </b></div><div><b>खिलौने जैसे चाँद से भी कभी-कभार </b></div><div><b>झूठ-मूठ का प्यार कर लेता होऊँगा</b></div><div><b>वर्ना उस चाँद में कंकड़-पत्थर </b></div><div><b>और अँधेरे के सिवा रक्खा क्या है।</b></div></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div> </div><div><b> मेरा चाँद तो तुम हो</b></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVWzK-yi4w48z1R5XcrLGqxgpp4F8ALkzCEDx5dfI-hcaMfJF4P52_fp5ErRNV6bZPhbmpWPC6LeXINvHSjOs3B4pcfCDGqyInCmFKh6umxR9ZaD2rLcktySGsULkxq2Vd99xltBJPqS2XQyOGRhB9IJFuFDCQxM9uav1vxpx2iX0vgVW-8wpX9u6B/s1152/336185010_526562339436773_4915844298126367826_n.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1152" data-original-width="1068" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVWzK-yi4w48z1R5XcrLGqxgpp4F8ALkzCEDx5dfI-hcaMfJF4P52_fp5ErRNV6bZPhbmpWPC6LeXINvHSjOs3B4pcfCDGqyInCmFKh6umxR9ZaD2rLcktySGsULkxq2Vd99xltBJPqS2XQyOGRhB9IJFuFDCQxM9uav1vxpx2iX0vgVW-8wpX9u6B/s320/336185010_526562339436773_4915844298126367826_n.jpg" width="297" /></a></div><br /><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-3837720200945927962023-03-29T11:24:00.003+05:302023-03-29T11:24:42.497+05:30 चार भतार तथा अन्य कविताएँ<div style="text-align: left;"><b>-गणेश पाण्डेय</b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div><b>चार भतार </b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>राजनीतिक दल अब पहले जैसे नहीं रहे </b></div><div><b>जब से इतिहास और मूल्यों का अंत हुआ </b></div><div><b>इन्हें पीछे के कुछ नाम तो याद रहे काम नहीं </b></div><div><b>ये अब दल नहीं दुकान चलाते हैं मुनाफ़ा कमाते हैं </b></div><div><b>सरकार बनाने के लिए जान देते हैं देश के लिए नहीं </b></div><div><b>आज़ादी के दीवानों ने प्राण न्यौछावर किया</b></div><div><b>इन्होंने घोटाला किया मुजरिम से प्यार किया</b></div><div><b>कौन-सी पार्टी है जो सती-सावित्री है </b></div><div><b>जिसने चार भतार नहीं किया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>करिश्माई गोली</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>बाहुबली की गोली</b></div><div><b>सिर्फ़ देह में ही नहीं क़ानून की किताब में</b></div><div><b>अदालत की दीवार में भी छेद कर सकती है </b></div><div><b>उसे उसकी करिश्माई गोली सालोंसाल </b></div><div><b>फाँसी के फंदे से बचा सकती है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माननीय </b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>बाहुबली </b></div><div><b>गोली से रुपया लाता है रुपये से टिकट लाता है</b></div><div><b>उसका सारा जनाधार उसकी गोली में होता है</b></div><div><b>इस तरह एक अपराधी माननीय कहलाता है</b></div><div><b>और लोकतंत्र के मुँह पर कालिख पोतता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बाहुबली की हँसी</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>बाहुबली हँसता </b></div><div><b>तो उसकी पूरी देह हँसती है</b></div><div><b>गैंग का हर बदमाश हँसता है </b></div><div><b>बाहुबली गाली देते हुए हँसता है</b></div><div><b>तो गोली मारते हुए भी हँसता है</b></div><div><b>पुलिस को देखकर हँसता है</b></div><div><b>अदालत को देखकर हँसता है</b></div><div><b>जब देखो जहाँ देखो हँसता है</b></div><div><b>ओह किसी की हँसी भी कितना</b></div><div><b>डर पैदा कर सकती है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सुल्ताना डाकू</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>कमज़ोर बादशाह जब</b></div><div><b>न्याय का तराजू उठा नहीं पाता है</b></div><div><b>तख़्त पर बैठे-बैठे सू-सू कर मारता है</b></div><div><b>तो ग़रीब-गुरबा हर लुटेरे में</b></div><div><b>परोपकारी सुल्ताना डाकू </b></div><div><b>देखने लगता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो कवि जन का है</b></div><div><b>-----------------------</b></div><div><b>जो कवि </b></div><div><b>जितना गोरा है चिकना है सजीला है</b></div><div><b>उसके पुट्ठे पर राजा की उतनी ही छाप है</b></div><div><b>जितना सुरीला है तीखे नैन-नक़्श वाला है</b></div><div><b>उसके गले में अशर्फ़ियों की उतनी ही माला है</b></div><div><b>जो कवि जन का है बेसुरा है बदसूरत है</b></div><div><b>बहुत खुरदुरा है उम्रक़ैद भुगत रहा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijPk5zO7XLT7pSJZOBZ45a1RCj4vIJdwKALxg1DarDZd8XT85HDIyhWVXBcOeGHoOXif4QM_Ka7qQybC3cBsrGYaVTTXMJvhVFT-RoaHR5jA2o1BPZrPvvM5F9zEdTBSYwNoGq3Qnxu-4MbNjqqS0AY11I66jfKPfPu4RM_tsF6V4d-pfEKKbp6OuX/s960/308096_359395350809321_1096262164_n%5B1%5D.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijPk5zO7XLT7pSJZOBZ45a1RCj4vIJdwKALxg1DarDZd8XT85HDIyhWVXBcOeGHoOXif4QM_Ka7qQybC3cBsrGYaVTTXMJvhVFT-RoaHR5jA2o1BPZrPvvM5F9zEdTBSYwNoGq3Qnxu-4MbNjqqS0AY11I66jfKPfPu4RM_tsF6V4d-pfEKKbp6OuX/w150-h200/308096_359395350809321_1096262164_n%5B1%5D.jpg" width="150" /></a></div><br /><b><br /></b></div><div><br /></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-13774552001293682412023-03-28T08:04:00.001+05:302023-03-28T09:02:46.729+05:30 एनकाउंटर स्पेशलिस्ट तथा अन्य छोटी कविताएँ<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div><b>बाहुबली का डर</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>बाहुबली का क़ाफ़िला चलता है </b></div><div><b>तो धरती काँपती है आसमान डर जाता है </b></div><div><b>क़ानून की मोटी-मोटी किताबें पत्थर हो जाती हैं</b></div><div><b>राजनेताओं की कुर्सी ज़ोर से हिलने लगती है </b></div><div><b>वह भगवान के खि़़लाफ़ चुनाव लड़ सकता है </b></div><div><b>वह किसी से भी नहीं डरता डर उससे डरता है</b></div><div><b>कोई है जिससे वह थोड़ा-बहुत डर सकता है </b></div><div><b>तो वह निश्चय ही किसी मज़बूत राज्य का </b></div><div><b>कोई मामूली एनकाउंटर स्पेशलिस्ट हो सकता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बंदूक और गोली</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>बाहुबली की बंदूकों में</b></div><div><b>हज़ारों जान क़ैद होती है</b></div><div><b>और उसकी जान</b></div><div><b>एनकाउंटर स्पेशलिस्ट </b></div><div><b>की एक गोली में।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अंधा कौन है</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>सड़कें समय से बन सकती हैं</b></div><div><b>फोरलेन सिक्सलेन हो सकता है</b></div><div><b>छत्तीस सेटेलाइट साथ जा सकता है </b></div><div><b>बैलगाड़ी युग पीछे जा सकता है</b></div><div><b>डॉक्टर जज प्रधानमंत्री वग़ैरा</b></div><div><b>समय से हुआ जा सकता है</b></div><div><b>समयबद्ध वेतनमान दिया जा सकता है</b></div><div><b>तो सभी तरह के मुक़दमों का फ़ैसला </b></div><div><b>समय से क्यों नहीं हो सकता है</b></div><div><b>कोई देखता क्यों नहीं अंधा कौन है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>नशा</b></div><div><b>------</b></div><div><b>बाहुबली </b></div><div><b>यह भूल जाता है कि वह अमर नहीं है</b></div><div><b>सिर्फ़ उसकी बंदूक में गोली नहीं है</b></div><div><b>दूसरे बाहुबली के पास उससे अधिक है</b></div><div><b>बंदूक का नशा राजनीति के नशे से </b></div><div><b>ज़्यादा तेज़ होता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ताक़त </b></div><div><b>--------</b></div><div><b>बाहुबली बंदूक की ताक़त से</b></div><div><b>राजनीति की ताक़त हासिल करता है </b></div><div><b>कितना कमज़ोर है हमारा लोकतंत्र </b></div><div><b>न ग़रीबी दूर हुई न हिंसा</b></div><div><b>संविधान का सबसे अधिक सम्मान</b></div><div><b>उन्हीं ग़रीबों ने किया जिनके लिए</b></div><div><b>संविधान ने सबसे कम किया</b></div><div><b>बुराई को जड़ से दूर करने की ताक़त</b></div><div><b>किस राजनीतिक दल में है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बेमेल विवाह</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>बाहुबल और राजनीति के</b></div><div><b>बेमेल विवाह पर रोक </b></div><div><b>किस भी दल के एजेंडे में </b></div><div><b>न था न है न होगा</b></div><div><b>किसी की भी सरकार रही हो</b></div><div><b>बैंड-बाजा-बारात और लेन-देन</b></div><div><b>जारी है लोकतंत्र का खेला जारी है</b></div><div><b>यह समय जनता पर कितना भारी है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क़ानून की दुहाई</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>बाहुबली के हाथ बहुत से बहुत लंबे होते हैं</b></div><div><b>बीसियों शार्प शूटर उसके ख़ास हाथ होते हैं</b></div><div><b>जिन हाथों से वह किसी को भी उड़ा देता है</b></div><div><b>डर से कांपते हीरे-जचाहरात घर में आते है</b></div><div><b>और राज्य के हाथ अक्सर बँधे होते हैं </b></div><div><b>एनकाउंटर स्पेशलिस्ट उसके हाथ तो होते हैं</b></div><div><b>जो कभी-कभार खुलते हैं और जब उसमें </b></div><div><b>बाहुबली की गर्दन फँस जाती है तो उसके</b></div><div><b>कुनबे के लोग औरत-मर्द हाय-तौबा मचाते हैं</b></div><div><b>गोली से उड़ा दिए गए क़ानून की दुहाई देते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>विफलता</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>जनता क़ानून से अधिक </b></div><div><b>एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पर</b></div><div><b>भरोसा करने लगे तो यह क़ानून की नहीं </b></div><div><b>लोकतंत्र की विफलता है और इस विफलता पर </b></div><div><b>कोई भी राजनेता न रोता है न बोलता है</b></div><div><b>दुष्ट लेखक के बारे में पूछिए मत वह तो </b></div><div><b>सिर्फ़ अपने नाम-इनाम के लिए सोचता है</b></div><div><b>इस लोकतंत्र में वही सबसे अधिक गंदा है</b></div><div><b>यह हमारे समय के साहित्य की विफलता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एनकाउंटर स्पेशलिस्ट</b></div><div><b>-----------------------</b></div><div><b>साहित्य में अपराध </b></div><div><b>बढ़ते-बढ़ते जब इतना अधिक बढ़ गया</b></div><div><b>कि हर लेखक के पुट्ठे पर मठाधीश का ठप्पा</b></div><div><b>अनिवार्य हो गया तो मैं न चाहते हुए भी</b></div><div><b>फूलों तितलियों नदियों पर्वतों बादलों खेत-खलिहानों</b></div><div><b>प्रेमी-प्रेमिकाओं और स्त्रीदेह की काव्यभूमि को</b></div><div><b>तजकर कब हिन्दी साहित्य का</b></div><div><b>एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बन गया पता ही नहीं चला</b></div><div><b>लोगों ने ही मुझे बताया कि मेरे हाथ में उन्हें अब</b></div><div><b>क़लम की जगह पिस्तौल अच्छी लगती है</b></div><div><b>मैं अपने लोगों को निराश कैसे कर सकता था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ठोकना</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>साहित्य को</b></div><div><b>राजनीति से अच्छा करना था</b></div><div><b>और लेखकों को राजनेताओं से अच्छा होना था</b></div><div><b>लेकिन हुआ क्या मैं और क्या कर सकता था</b></div><div><b>उनकी तरह लौंडानाच कैसे कर सकता था</b></div><div><b>फिर मैंने वही किया जो मेरी आत्मा ने कहा</b></div><div><b>एक-एक को ठोकना शुरू कर दिया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ऐसी कविता</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>दाल में सब्जी में </b></div><div><b>नमक बहुत तेज़ हो जाने पर</b></div><div><b>बाबूजी नाराज़ हो जाते थे थाली खिसका देते थे</b></div><div><b>बाबूजी तुलसी और कबीर की कविता पढ़ लेते थे </b></div><div><b>केशव कवि का कभी नाम नहीं लेते थे</b></div><div><b>ऐसे ही बाबूजी की तरह किसी भी कविता में कला</b></div><div><b>अधिक हो जाने पर काफ़ी लोगों के लिए </b></div><div><b>वह कविता नहीं रह जाती है बुझौवल हो जाती है</b></div><div><b>ऐसी कविता लिखने से और पढ़ने से क्या फ़ायदा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता में कला</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>आँखों में काजल जितनी</b></div><div><b>सिर्फ़ होठों पर लाली जितनी</b></div><div><b>बच्चे के चेहरे पर ख़ुशी जितनी</b></div><div><b>फूल में सुगंध और फल में मिठास जितनी</b></div><div><b>लाठी में मज़बूती और बंदूक में गोली जितनी</b></div><div><b>इससे तनिक भी अधिक कविता में कला</b></div><div><b>किसी पाठक को नहीं चाहिए पाठक को </b></div><div><b>रामचंद्र शुक्ल क्यों समझते हो गधो</b></div><div><b>उसकी आँख में धूल क्यों झोंकते हो</b></div><div><b>पीतल को सोना बनाओगे तो थूर दूंगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सजावटी कविता</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>ज़रूरी कविता में</b></div><div><b>ज़रूरी कथ्य और ज़रूरतभर कला</b></div><div><b>और आसानी से समझने वाली भाषा चाहिए </b></div><div><b>कविता अपने समय के लोगों के लिए </b></div><div><b>उनके जीवन के लिए उनके अधिकारों के लिए </b></div><div><b>अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती है</b></div><div><b>और अपने पाठकों के हाथ थाम नहीं सकती है</b></div><div><b>तो कला की थूनी पर बोगनवेलिया जैसी</b></div><div><b>सजावटी कविता किस काम की है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पहले की पीढ़ी</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>मेरी पीढ़ी से पहले</b></div><div><b>कैसे कवि थे कैसे आलोचक </b></div><div><b>जिन्होंने बच्चों को अपने पैरों पर</b></div><div><b>खड़ा होना नहीं सिखाया</b></div><div><b>पालकी ढोना सिखाया नाचना सिखाया</b></div><div><b>झुकना सिखाया लड़ना नहीं सिखाया</b></div><div><b>बहादुर बनना नहीं सिखाया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>स्वतंत्रता का उपहार </b></div><div><b>--------‐------------</b></div><div><b>बाद के ज़रूरी</b></div><div><b>कवियों की ज़िम्मेदारियाँ बड़ी होती हैं</b></div><div><b>बाद की पीढियों को कुछ देकर जाना होता है</b></div><div><b>वे उन्हें हारी हुई लड़ाई देकर कैसे जा सकते हैं</b></div><div><b>वे उन्हें दीन-हीन विपन्न बनाकर नहीं जा सकते</b></div><div><b>अख़ीर में हिंदी के दुश्मनों को ठोकना होता है </b></div><div><b>वे अपने बच्चों को साहित्य की स्वतंत्रता का</b></div><div><b>उपहार देकर जाना चाहते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>चींटी के जैसे पैर</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>हिन्दी में</b></div><div><b>यह पहले भी हुआ है</b></div><div><b>ईमानदार के चींटी के जैसे पैर</b></div><div><b>बेईमान के हाथी के जैसे पैरों को</b></div><div><b>कुचल देते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सोना</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>कवियो </b></div><div><b>कहीं भी सो जाना</b></div><div><b>चारपाई पर चाहे ज़मीन पर</b></div><div><b>किसी भी तरफ़ पैर कर लेना</b></div><div><b>बस दिल्ली की तरफ़</b></div><div><b>सिर करके मत सोना</b></div><div><b>इससे बड़ा अशुभ </b></div><div><b>कविता की दुनिया में दूसरा नहीं</b></div><div><b>बोले तो</b></div><div><b>अकाल-मृत्यु योग है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सेना</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>साहित्य के </b></div><div><b>अँधेरे के ख़लिफ़</b></div><div><b>यह ज़बरदस्त लड़ाई </b></div><div><b>कोई एक न रहे तो भी रुकेगी नहीं </b></div><div><b>देखते-देखते एक पूरी सेना </b></div><div><b>खड़ी हो गयी है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>गद्दीनशीन कवियो</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>सींगवाला कवि हैं</b></div><div><b>नहीं-नहीं बुलडोज़र वाला कवि है</b></div><div><b>नहीं-नहीं हिंदी का पागल कवि है</b></div><div><b>बेईमानी से बने कविता के महल को</b></div><div><b>ज़मींदोज़ कर देता है</b></div><div><b>एकदम से संभलकर रहियो</b></div><div><b>तमग़ावाले गद्दीनशीन कवियो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मशीन </b></div><div><b>--------</b></div><div><b>तुम्हारे पास साहित्य में </b></div><div><b>अँधेरा फैलाने की मशीन है</b></div><div><b>तो हमारे पास उस मशीन को </b></div><div><b>उड़ा देने की मशीन है देखते नहीं </b></div><div><b>उसी जगह पर हम मारेंगे जहाँ से</b></div><div><b>तुम अँधेरा फैलाते हो सोच लो</b></div><div><b>फिर कुछ नहीं कर पाओगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता पढ़ने से</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>किसी महान कवि के घर में</b></div><div><b>कविता पढ़ने से कोई कवि</b></div><div><b>महान कवि नहीं हो जाता है</b></div><div><b>इन मूर्खों को कौन समझाये</b></div><div><b>कि उस घर की चौखट को चूमने</b></div><div><b>उसकी दीवारों को चिपककर छूने</b></div><div><b>और लौटते समय उस घर को </b></div><div><b>शीश नवाकर प्रणाम करने से </b></div><div><b>सिर ऊँचा होता है।</b></div><div><br /></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8shGcZc-KTbhZp-VPw57E-HUuwQz3ooaQmMdWVPFJS5O5LT-rgAThMRIU3VqNUhnbwIMniAYgoC6R2mK1YNST8uu_AnSecwezmtkx2KKwklXJUgiFqQFXn88QLikMiU9RLcbVrLVWiLqQBarolbeXMeAJY2LQyZ-L6UbmTozdrk9BcvjYohkOIboN/s1947/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1947" data-original-width="1944" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8shGcZc-KTbhZp-VPw57E-HUuwQz3ooaQmMdWVPFJS5O5LT-rgAThMRIU3VqNUhnbwIMniAYgoC6R2mK1YNST8uu_AnSecwezmtkx2KKwklXJUgiFqQFXn88QLikMiU9RLcbVrLVWiLqQBarolbeXMeAJY2LQyZ-L6UbmTozdrk9BcvjYohkOIboN/w200-h200/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" width="200" /></a></div><br /><div><br /></div><div><br /></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-15052565020683268042022-12-08T19:56:00.001+05:302022-12-08T19:56:32.597+05:30एक अप्रसिद्ध खंडहर <div style="text-align: left;"><div><b>- गणेश पाण्डेय </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं कोई प्रसिद्ध खंडहर नही हूँ</b></div><div><b>मेरा ज़िक्र कहीं नहीं मिलेगा</b></div><div><b>न किसी किताब में न किंवदंती में</b></div><div><b>किसी नक़्शे में मैं नहीं दिखूँगा</b></div><div><b>मुझे देखने कभी कोई यायावर </b></div><div><b>नही आएगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>न मुझ पर कविताएँ लिखी जाएंगी</b></div><div><b>न चित्रकार मेरी अनुकृति बनाएंगे</b></div><div><b>दूर-दूर तक फैली तेज़ धूप में </b></div><div><b>बित्ताभर छाँह की उम्मीद लिए</b></div><div><b>कुछ बकरियाँ आ सकती हैं</b></div><div><b>कुछ मेमने अपने झुंड से बिछड़कर</b></div><div><b>आ सकते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरे खुरदुरे और टूटे-फूटे पैरों के पास </b></div><div><b>बची हुई है थोड़ी-सी हरी घास </b></div><div><b>हवा अब भी मुझे छूकर गुज़रती है</b></div><div><b>बारिश अब भी मेरे चेहरे को</b></div><div><b>धोती-पोंछती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बादलों की ओट में छिपकर सूरज</b></div><div><b>अब भी मुझे देखता है कभी-कभी</b></div><div><b>मेरा उद्धार करने के लिए </b></div><div><b>कोई ईश्वर आये न आये</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>2</b></div><div><b>उस वक़्त देखा होता हमें</b></div><div><b>हमारे पास कितनी चहल-पहल थी</b></div><div><b>हमारे पैर कितने मज़बूत थे</b></div><div><b>हमारी बाँहें कितनी फैली हुई थीं</b></div><div><b>कितने आँधी-तूफ़ानों को चीरकर खड़े थे</b></div><div><b>हम तनकर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अब तो खंडहर हैं हम </b></div><div><b>एक-दूसरे के पास बैठकर देखते हैं </b></div><div><b>दोपहर का सन्नाटा गिनते हैं दिन</b></div><div><b>और सुनते रहते हैं भीतर से आती</b></div><div><b>भाँय-भाँय की आवाज़</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>3</b></div><div><b>कभी लगता</b></div><div><b>साँसे उखड़ रही हैं </b></div><div><b>नाक में ज़बरदस्त जकड़न है</b></div><div><b>शायद किसी दुश्मन का काम है</b></div><div><b>हम दुश्मन से दो-दो हाथ करते</b></div><div><b>हम अपनी साँसों को पकड़कर बैठ जाते</b></div><div><b>हमें अपनी घरती से उखाड़कर </b></div><div><b>पाताल में कोई भेज नहीं पाता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>4</b></div><div><b>मेरी पीठ के पीछे सुनसान जान</b></div><div><b>और मुझे अनुपस्थित मानकर</b></div><div><b>सचमुच के भूत-प्रेत लुटेरे हत्यारे</b></div><div><b>गुप्त योजनाएँ बनाते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अंत में</b></div><div><b>वे मेरी नींव में सोने की ईंट </b></div><div><b>होने और किसी दिन खोदकर </b></div><div><b>निकाल ले जाने की बात पर हो-हो हँसते </b></div><div><b>और इस तरह एक बदनसीब खंडहर का </b></div><div><b>मज़ाक़ उड़ाते हुए निकल जाते</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वे उन्हीं जगहों पर जाते</b></div><div><b>जहाँ अशरफ़ियों की बारिश होती</b></div><div><b>बिना टिकट चलने की सुविधा होती</b></div><div><b>फूल-मालाओं से लाद दिया जाता</b></div><div><b>अख़बारों में सभी कापुरुषों की </b></div><div><b>भूरि-भूरि प्रशंसा होती</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे तो याद भी नहीं</b></div><div><b>आखि़री बार मेरी फ़ोटो कब छपी थी</b></div><div><b>मेरे बारे में कभी कुछ कहा भी गया था</b></div><div><b>या नहीं </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>5</b></div><div><b>अब मैं हूँ</b></div><div><b>मेरी दोस्त है मेरी तरह अनाम खंडहर </b></div><div><b>सात जन्मों का साथ है हमारा</b></div><div><b>हमारे हाथों की गर्मी ने हमें ज़िंदा रखा है</b></div><div><b>मुश्किल समय की बर्फ़ में</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>शायद हमें ही पूरी तरह बुरे समय में</b></div><div><b>न गलना आया न बुझना</b></div><div><b>न मुँह छिपाना न ज़मींदोज़ होना</b></div><div><b>देखो तो अभी बची हुई हैं</b></div><div><b>छाती की हड्डियाँ और उनमें</b></div><div><b>थोड़ी-सी हरकत थोड़ी-सी चिंगारी</b></div><div><b>शायद तब तक बची रहें जब तक </b></div><div><b>आ नहीं जाते हमारे लंबे संघर्ष के</b></div><div><b>सच्चे उत्तराधिकारी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlRKBnltNqQqRJdg7cB28yU4gYOTCGqmAVinqS41vqoEyp_iRzt_ANctCZDWPNcSptjvsRB4rtu6_KkGcHifTsXklxBEJy7SYEGIwyMDPP1HwPPOv4XWjxjUM2PQfC7839uQO-nA3-tbb0uxaaIquYHGKOV5kDJ6gXSxLegsI-OZK3P241MHyaRRJ5AQ/s1947/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1947" data-original-width="1944" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlRKBnltNqQqRJdg7cB28yU4gYOTCGqmAVinqS41vqoEyp_iRzt_ANctCZDWPNcSptjvsRB4rtu6_KkGcHifTsXklxBEJy7SYEGIwyMDPP1HwPPOv4XWjxjUM2PQfC7839uQO-nA3-tbb0uxaaIquYHGKOV5kDJ6gXSxLegsI-OZK3P241MHyaRRJ5AQ/w200-h200/66390733_2026617560775447_9214037638401490944_n.jpg" width="200" /></a></div><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-62219984628549532382022-09-28T20:32:00.003+05:302022-09-28T21:19:45.553+05:30 साहित्य में राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने के गुर<p style="text-align: justify;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></p><p style="text-align: justify;"><b>राजकिशोर जी अच्छा लिखते थे, साफ़-साफ़ लिखते थे, दो-टूक कहते थे, इसलिए एक लेखक के रूप में प्रिय थे, संपादक के रूप में आकर्षित करते थे। देवेंद्र कुमार बंगाली का गीत ’सुनती हो तुम रूबी/एक नाव फिर डूबी’ रविवार में छापा था। तब से उनके साहित्य-विवेक से परिचित रहा हूँ।</b></p><p style="text-align: justify;"><b> एक बार ’यात्रा’ में छोटे सुकुल का कालम पढ़कर राजकिशोर जी ने फोन किया और पूछा कि “कविता की जान लेने के सौ तरीके“ किताब कहां से छपी है, इसके लेखक कौन हैं? मुझे अच्छा यह लगा कि राजकिशोर जी जैसे जुझारू पत्रकार-लेखक की मेधा कैसे एक शीर्षक के भीतर की चिंगारी को तुरत ग्रहण कर लेती है। शायद कालम पढ़कर फौरन फोन किया था। मैंने बताया कि इस शीर्षक का अभी केवल जिक्रभर है, न किताब छपी है, न लिखी गयी है। अब जबकि राजकिशोर जी हमारे बीच नहीं हैं, तो सोचता हूँ कि “ कविता की जान लेने के सौ तरीके “ किताब लिख ही दूँ। पहले से कुछ योजनाएँ हैं, उन्हें पूरा करने के बाद, चाहे उन्हीं में राजकिशोर जी को याद करते हुए लिखूँ।</b></p><p style="text-align: justify;"><b> यह कहने में न कोई संकोच है, न भय कि हमारे समय में अब कोई दूसरा राजकिशोर नहीं है। वैसा साहित्य-विवेक आज के पत्रकारों और संपादकों में नहीं है। न आज के सितारे पत्रकार राजकिशोर जी के पासंग बराबर हैं, न साहित्य-संपादक। राजकिशोर जी एक ओर सरोकारों के प्रति समर्पित पत्रकार थे, तो दूसरी ओर साहित्य के प्रति उनका अनुराग सच्चा था। आज कितने पत्रकार ऐसे हैं, जिनमें कविता की जान लेने के सौ तरीके जानने की भूख हो और वह भी छोटे शहर के लेखकों से जुड़ा हो। आज के दिल्ली के कुछ स्वनामधन्य और कुछ ज्यादा ही मशहूर संपादकों ने अपनी मंडलियां बनायी हुई हैं, जब उन्हें कभी छठे-छमासे साहित्य-वाहित्य पर बात करके मनोरंजन करने की इच्छा होती है, तो उन्हीं दो-चार की मंडलियों में से किसी लेखक-अलेखक से बात करके, हिन्दी साहित्य की चौहद्दी दिल्ली में बैठे-बैठे तय करते हैं। ऐसे पत्रकार, लेखक, संपादक भी कविता की जान लेते हैं, कहानी और उपन्यास की ऐसी-तैसी करते हैं। आज किस संपादक को कविता की सुनियोजित हत्या के बारे में पता है? संपादक नचनियाँ कवियों पर फिदा है, उसके पास जाए, उसके दफ़्तर में मत्था टेके, उसके गुण गाये। </b></p><p style="text-align: justify;"><b> दिल्ली आज साहित्य-संपादक विहीन है। किसी भी संपादक में कविता को पहचानने की तमीज नहीं है। प्रकाशकों के संपादकीय विभाग कमउम्र और कम साहित्य-विवेक के युवाओं के हवाले है। प्रकाशक साहित्य समझता नहीं है, पुरस्कार देखकर, चर्चा और जगह-जगह कवि-लेखक की उपस्थित से उसे पहचानता है या फिर उसका युवा संपादकीय विभाग जो समझा दे, जिस कृति को महान या कूड़ा या खतरनाक कह दे, वही समझ लेता है। मैं पचास की उम्र तक दिल्ली नहीं गया और बेटे और भतीजों की उम्र की पीढ़ी दिल्ली पहुँच कर संपादन के हिमालय पर विराजमान है और हम जैसों का, जो दिल्ली की परिक्रमा स्वभाववश नहीं कर पाते हैं, का भाग्य बना-बिगाड़ रही है।</b></p><p style="text-align: justify;"><b> राजकिशोर जी 2003 में मुझे राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने की तैयारी करने के लिए कह रहे थे। उनके पत्र का मजमून हैः</b></p><p style="text-align: justify;"><b>“प्रिय गणेश जी,</b></p><p style="text-align: justify;"><b>आपका उपन्यास, कवितासंग्रह के साथ, बहुत पहले ही मिल गया था।</b></p><p style="text-align: justify;"><b>’अथ ऊदल कथा’ तो तुरंत पढ़ गया, कविताएँ बाद में पढ़ीं। अपने गजब का उपन्यास लिखा है क्या रवानगी है। विषय पर क्या पकड़ है। मेरा खयाल है, भारत के प्रत्येक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से ऐसा उपन्यास निकल सकता है, बशर्ते कि आप जैसा लिखने वाला हो। आपकी कविताओं ने भी काफी आकर्षित किया। अब आपको राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने की तैयारी करनी चाहिए। शुभकामनाओं के साथ आपका</b></p><p style="text-align: justify;"><b>राजकिशोर </b></p><p style="text-align: justify;"><b>24.10.03’’</b></p><p style="text-align: justify;"><b>और कहाँ आज के हिन्दी के साहित्य संपादक समझ ही नहीं पाते हैं। उन्हें दिल्ली में और दिल्ली के प्रकाशन गृहों में रहने का इतना अहंकार हो गया है कि वे ख़ुद को महावीर प्रसाद द्विवेदी समझते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि उनकी ज़िंदगी से दिल्ली या उनका प्रकाशन गृह हटा दिया जाय, तो मुहल्ले के संपादक जी हो जाएंगे। लिखा कुछ नहीं, काम कुछ नहीं, सिर्फ़ धंधई किया।</b></p><p style="text-align: justify;"><b> राज किशोर जी ने 2003 में जब राष्ट्रीय स्तर पर आने की तैयारी करने की बात की थी तो जाहिर है कि उस समय राष्ट्रीय स्तर पर जाने का रास्ता सिर्फ़ वही था जिस पर आज भी अधिकांश लेखक चलते हैं। लेखक संगठन, मठ, साहित्य अकादमी, भारत भवन आदि संगठनों और संस्थाओं और मठाधीशों की कृपा से ही तब राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित होना संभव होता था। राजकिशोर जी की मंशा यह नहीं रही होगी कि मैं स्वाभिमान च्युत होकर ऐसा कुछ करूँ और अपनी इज्ज़त लुटा दूँ, बल्कि उन्होंने चाहा होगा कि मुख्यधारा में जो क्रम बना हुआ है ऊपर सीढ़ी पर चढ़ने का, उन पर चढ़ते हुए ऊपर आ जाऊँ। तब दूसरे विकल्प नहीं थे। शायद उन्हें आभास नहीं रहा होगा हर किसी के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाता है और कम से कम मेरे लिए तो यह संभव नहीं था इसलिए मैंने अपनी जगह पर ही खूँटा गाड़ लिया और खुद को यहीं से राष्ट्रीय परिदृश्य पर उपग्रह (असल में बहुत से लोगों के लिए बुरे ग्रह ) की तरह प्रक्षेपित कर दिया। मैंने चर्चा की जगह लेखन के जरिए राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचने का रास्ता चुना, समर्पण की जगह विद्रोह का रास्ता चुना और पहुँचा भी। आज बहुत सारे बेईमान लेखक अगर मुझे एक साथ नापसंद करते हैं और मुझसे दूर भागते हैं और मेरा विरोध करते हैं तो जाहिर है कि यह मेरी शक्ति का प्रमाण है और यही राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदगी का प्रमाण भी है। बाद में या बहुत बाद में भी उन्होंने राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने की बात नहीं की। शायद इसीलिए कि मैं जहाँ पहुँचा, वह राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं था, तो और क्या था। नाम-इनाम से ही राष्ट्रीय परिदृश्य पर पहुँचना नहीं होता है। आपकी क़लम की शक्ति, आपकी उपस्थित की हनक दूर तक पहुँच जाय, बुरे लेखक भयभीत हो जाएँ, यह सब राष्ट्रीय परिदृश्य पर पहुँचना नहीं है, तो और क्या है? आज कोई यह समझता है कि भारी-भरकम पुरस्कार हथियाना, बड़े प्रकाशन गृहों से छपना या प्रकाशन-माफिया </b><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; text-align: left; white-space: pre-wrap;"><b>मुन्ना</b> </span><b>भाई</b><b> की कृपा से ही संभव है, तो उनसे कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है, वे उसी के पात्र हैं। और हाँ, ये कथित बड़े पुरस्कार भी छोटे लेखक या रद्दी किताब पर क्यों? ये बड़े प्रकाशन औसत कविता लिखने वालों को क्यों छापते हैं, अपने समय में ज़बरदस्त लिखने वाले की कविता क्यों नहीं? ये आग छापने की हिम्मत क्यों नहीं रखते, फिर काहे के बड़े प्रकाशन गृह और काहे का प्रकाशन-डॉन </b><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; text-align: left; white-space: pre-wrap;"><b>मुन्ना </b></span><b>भाऽऽई! आज जो अनेक भाऽऽई लोग दिखते हैं, 2003 में जब राजकिशोर जी ’अथ ऊदल कथा’ को गजब का बता रहे थे, तब क्या कर रहे थे? शायद बीए, एमए में रहे होंगे।</b></p><p style="text-align: justify;"><b> बहरहाल राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने के लिए फेसबुक, ब्लॉग आदि जैसे माध्यम और दूसरे प्रकाशन से छपी किताबें कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मैंने एक लंबी लड़ाई की है, सब पता है। इसीलिए जवाब तलब करने के लिए भी कुछ करते रहना और कहते रहना पड़ता है। बुरे लोगों ने ही अच्छे लोगों को छेड़ने या तंग करने का ठेका नहीं ले रखा है, अच्छे लोगों में भी कोई बुरे लोगों को छेड़ने और तंग करने वाला हो सकता है। होना ही चाहिए। </b></p><p style="text-align: justify;"><b> राजकिशोर जी को याद करने का आशय आज के पत्रकारों और संपादकों का ध्यान आकर्षित करना है कि राजकिशोर जी के साहित्य-विवेक के आईने में खुद को देखें कि वे कहाँ खड़े हैं!</b></p><p style="text-align: justify;"><b><br /></b></p><p style="text-align: justify;"><b><br /></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2KQnnVfjxu_g_T2YvYzBzPu_rjyZ1yeRAgr3UFdcJYT74Nf6XUTahzjFxtTSmsNU-C0Tw0nu6cIbqC-v6F-LHa7OpFEbQZSFSHj7c4ADtjG8vhZqMVtx_daLR2VQz2YVZXP8R_c0fDD3c-xcFnxXcKHrQURILPPVkww-TcogAiKEhXV4dB9_5qqjwpg/s960/308096_359395350809321_1096262164_n%5B1%5D.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2KQnnVfjxu_g_T2YvYzBzPu_rjyZ1yeRAgr3UFdcJYT74Nf6XUTahzjFxtTSmsNU-C0Tw0nu6cIbqC-v6F-LHa7OpFEbQZSFSHj7c4ADtjG8vhZqMVtx_daLR2VQz2YVZXP8R_c0fDD3c-xcFnxXcKHrQURILPPVkww-TcogAiKEhXV4dB9_5qqjwpg/s320/308096_359395350809321_1096262164_n%5B1%5D.jpg" width="240" /></a></div><br /><p style="text-align: justify;"><br /></p><div style="text-align: justify;"><br /></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-37193536566409905842022-08-11T12:06:00.001+05:302023-03-21T19:44:47.193+05:30रातनामा<div style="text-align: left;"><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><br /></div><div><div><b>एक शख़्स </b></div><div><b>अपनी रात की तस्वीरों का </b></div><div><b>बंडल काँख में दबाये</b></div><div><b>घूमता रहता है सारी-सारी रात</b></div><div><b>रात के घने और काले से भी काले</b></div><div><b>अँधेरे में</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कौन है </b></div><div><b>यह शख़्स</b></div><div><b>जो भटक रहा है </b></div><div><b>ख़ामोश परिंदे की तरह</b></div><div><b>बिजली के नंगे तारों पर</b></div><div><b>लुढ़क रहा है सड़कों पर</b></div><div><b>खाली बोतलों की तरह </b></div><div><b>कौन है यह शख़्स जो गिर रहा है </b></div><div><b>सड़कों के किनारे नालों में</b></div><div><b>आसमान से गिरते हुए अँधेरे की तरह</b></div><div><b>छपाक-छपाक </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अँधेरे में यह कौन खड़ा है</b></div><div><b>किसी तन्हा और बेबस सच की तरह </b></div><div><b>अधपके बालों और मूँछो वाला शख़्स</b></div><div><b>या अंधेरे में भटकने वाला</b></div><div><b>कोई संन्यासी है जो निकल पड़ा है</b></div><div><b>जीवन और जगत के सत्य की खोज में</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इससे बात करना मुश्किल है</b></div><div><b>इसकी रात की तस्वीरों में जितने शब्द हैं</b></div><div><b>उतने ही बिम्ब हैं दर्द की कूची से बने</b></div><div><b>अँधेरे और उजाले की कोख से पैदा</b></div><div><b>शायद इसने मोबाइल से खींचा है</b></div><div><b>शायद किसी कैमरे से खींचा है</b></div><div><b>शायद रात के </b></div><div><b>शहर के और निज़ाम के</b></div><div><b>गुंडों से बचने के लिए</b></div><div><b>ओवरकोट की बटन में लगे</b></div><div><b>या कहीं और छिपाकर रखे गये</b></div><div><b>जासूसी कैमरे से खींचा है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहीं ऐसा तो नहीं</b></div><div><b>कि यह मेरा भ्रम हो यह आदमी</b></div><div><b>एक आम आदमी नहीं</b></div><div><b>बल्कि तीनों लोक की ख़बर रखने वाला</b></div><div><b>कोई सरकारी जासूस हो</b></div><div><b>इसका हैट कितना तिरछा है</b></div><div><b>दायीं तरफ़ पूरा झुका हुआ</b></div><div><b>आखि़र अँधेरे में भी काले चश्मे का</b></div><div><b>राज़ क्या है कुछ तो है</b></div><div><b>ग़लतफ़हमी तो नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहीं ऐसा तो नहीं</b></div><div><b>कि यह शख़्स एक ही वक़्त में</b></div><div><b>कई आदमी हो</b></div><div><b>क्या पता यह आदमी सिर्फ़ एक</b></div><div><b>आम आदमी हो</b></div><div><b>और अपने शहर में अपनी जगह</b></div><div><b>अपने लिए एक पनाह एक ठिकाना</b></div><div><b>ढूँढ रहा हो अपनी पीठ सीधी करने के लिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कैसा बावला है</b></div><div><b>अँधेरी रात की इस काली बारिश में</b></div><div><b>खड़े-खड़े भीगने से बचने के लिए</b></div><div><b>पीपल के दरख्त के नीचे </b></div><div><b>शिवाले के दरवाज़े पर भूखे पेट</b></div><div><b>पेट से पैर सटाकर सो रहे कुत्ते साँड़</b></div><div><b>और भिखारियों के बीच अपने लिए</b></div><div><b>खड़े होने की जगह बना सकता है</b></div><div><b>रिक्शे का छाता उठाकर उसके नीचे</b></div><div><b>छिप सकता है अलबत्ता छिपकर</b></div><div><b>अँधेरे से भाग नहीं सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>शायद यह शख़्स</b></div><div><b>दिन का लाडला नहीं रात का वारिस है</b></div><div><b>यह कई पुश्तों से इसे ऐसे ही मिली है</b></div><div><b>न यह इस रात से भाग सकता है</b></div><div><b>न यह रात इसे अपनी बाहों से</b></div><div><b>आज़ाद कर सकती है</b></div><div><b>यह रात दर्द की हद से ज़्यादा लंबी है</b></div><div><b>और रात का आसमान </b></div><div><b>जितना लंबा है उससे ज़्यादा काला</b></div><div><b>वृक्ष और वनस्पतियाँ सब काली हैं</b></div><div><b>हैंडपम्प काला है उसका जल काला है</b></div><div><b>हवाएँ काली हैं फुसफुसाहटें काली हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो शख़्स अभी-अभी इधर से गुज़रा है </b></div><div><b>चुपचाप रात का हालचाल लेते हुए</b></div><div><b>सिर से पैर तक काला है इतना काला है</b></div><div><b>कि मेरे लिए इसे पहचानना मुश्किल है</b></div><div><b>ऐसा तो नहीं कि मुझे सिर्फ़ रात नहीं </b></div><div><b>रात की हर चीज़ हर बात</b></div><div><b>काली नज़र आ रही है</b></div><div><b>गलियों की सड़कें किनारे की बेंच</b></div><div><b>सीढ़ियाँ कारें सब काली नज़र आ रही हैं</b></div><div><b>कार के अन्दर स्टेयरिंग पकड़कर बैठा शख़्स </b></div><div><b>ख़ुद अँधेरा बैठा हुआ नज़र आ रहा है</b></div><div><b>पीछे थककर चूर लेटी हुई स्त्री</b></div><div><b>काले बालों में लिपटी हुई कोई चीज़</b></div><div><b>नज़र आ रही है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे क्यों लग रहा है कि अभी</b></div><div><b>अँधेरा इंजन स्टार्ट करेगा</b></div><div><b>और अँधेरी गलियों को गोली की तरह</b></div><div><b>चीरता हुआ मेन रोड पर आ जाएगा</b></div><div><b>नीम रोशनी की बारिश में</b></div><div><b>फुटपाथ पर सोये हुए</b></div><div><b>देश के नागरिकों को कुचलता हुआ</b></div><div><b>दूसरे मोहल्ले में दूसरे शहर में</b></div><div><b>निकल जाएगा निकल चुका होगा</b></div><div><b>जब नागरिक </b></div><div><b>किसी लोकतंत्र के फुटपाथ पर</b></div><div><b>ऐसे ही गहरी नींद में होते हैं</b></div><div><b>तो अँधेरे की कोई गाड़ी उन्हें</b></div><div><b>कुचलकर निकल जाती है</b></div><div><b>और कुछ दूर खड़ी पुलिस की तरह</b></div><div><b>किसी को पता भी नहीं चलता</b></div><div><b>प्रधानमंत्री को नींद में</b></div><div><b>अपनी कुर्सी और देश का तो कुछ</b></div><div><b>पता नहीं होता है</b></div><div><b>नागरिकों और लोकतंत्र के अँधेरे का</b></div><div><b>क्या पता होगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अभी-अभी</b></div><div><b>फ्लाईओवर से जो गाड़ी गुज़री है</b></div><div><b>सुनसान रास्ते पर सन्नाटे </b></div><div><b>और स्ट्रीट लाइट के बीच</b></div><div><b>उसमें एक नवधनाढ्य जोड़ा है</b></div><div><b>पीछे की सीट पर बेसुध</b></div><div><b>उसे पता ही नहीं</b></div><div><b>कि देश सो रहा है या जाग रहा है</b></div><div><b>लोग जी रहे हैं या मर रहे हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पीछे जो गाड़ी आ रही है</b></div><div><b>उसमें एक लेखक और लेखिका हैं</b></div><div><b>किसी उत्सव से लौट रहे हैं</b></div><div><b>खिलखिलाते हुए </b></div><div><b>अपनी अश्लील हँसी</b></div><div><b>और क्षुद्र एषणाओं के साथ</b></div><div><b>अभी वह गाड़ी</b></div><div><b>फुटपाथ पर सोये हुए इस देश के </b></div><div><b>भविष्य को कुचलते हुए </b></div><div><b>आगे निकल जाएगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रात के दो बज रहे हैं</b></div><div><b>सब सो रहे हैं पूरा देश सो रहा है</b></div><div><b>रात जाग रही है </b></div><div><b>और अपना काम कर रही है</b></div><div><b>यह शख़्स जो ओवरकोट पहनकर</b></div><div><b>पागलों की तरह फ़ोटो खींच रहा है</b></div><div><b>वह भी अपना काम कर रहा है</b></div><div><b>बता रहा है रात में सोना ही नहीं</b></div><div><b>जागना भी एक काम है</b></div><div><b>आँख मूँदना ही नहीं देखना भी काम है</b></div><div><b>रात की फ़ाइल में सबूत के तौर पर </b></div><div><b>फ़ोटो खींचना भी एक काम है</b></div><div><b>हर कोनें-अँतरे में </b></div><div><b>अँधेरे और उजाले के बीच</b></div><div><b>छोटी से छोटी लड़ाई को देखना भी</b></div><div><b>रात के रज़िस्टर में दर्ज़ करना भी </b></div><div><b>एक काम है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अँधेरे से</b></div><div><b>लड़ते हुए एक गमले में </b></div><div><b>रात की तनहाई में खिले ताज़ा फूल को</b></div><div><b>मन की गहराईयों से चूमना </b></div><div><b>और प्यार करना भी</b></div><div><b>एक ज़रूरी काम है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेकिन</b></div><div><b>काली रात की झाड़ियों के ऊपर </b></div><div><b>जैसे थकी-माँदी श्रमशील बलिष्ठ</b></div><div><b>स्त्री की आँख लगी ही हो</b></div><div><b>और कोई पीली रोशनी</b></div><div><b>उसे ग़लत तरीक़े से छू रही हो</b></div><div><b>यह एक निहायत बेजा काम है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह कैसी हिंसक रात है</b></div><div><b>गोली भी चलती है तो आवाज़ नहीं होती</b></div><div><b>किसी को भी कहीं से पकड़कर</b></div><div><b>मारा जा सकता है </b></div><div><b>किसी की भी आबरू कहीं भी</b></div><div><b>लूटी जा सकती है</b></div><div><b>यह कैसा नशे में धुत निज़ाम है</b></div><div><b>लोगों को ख़ुशहाली और ज़िन्दगी नहीं</b></div><div><b>प्रतिबंधित ड्रग्स बाँट रहा है</b></div><div><b>धर्म बाँट रहा है जाति बाँट रहा है</b></div><div><b>हिंसा बाँट रहा है</b></div><div><b>जो पीने से इंकार करता है </b></div><div><b>उसे गिरफ़्तार करता है</b></div><div><b>जिसे गिरफ़्तार करता है</b></div><div><b>उसे फिर ग़िरफ़्तार करता है</b></div><div><b>यह कोई देश है कि अनियंत्रिक ट्रक</b></div><div><b>जिसके नीचे आने के लिए पुरुष</b></div><div><b>स्त्रियाँ बच्चे सब अभिशप्त हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह एक पागल रात है</b></div><div><b>इस रात का ज़िक्र इस देश के दस्तूर में</b></div><div><b>कहीं नहीं है हो भी तो मैं नहीं मानता</b></div><div><b>कोई कुछ बोलता नहीं है </b></div><div><b>उम्मीद की मज़बूत हड्डियों को</b></div><div><b>तड़तड़ तोड़ती हुई नाउम्मीद रात है</b></div><div><b>यह रात अपने आगोश में आने वाले</b></div><div><b>श्रमिकों को नया जीवन देने वाली </b></div><div><b>रात नहीं है यह रात तो रात ही नहीं है</b></div><div><b>व्यवस्था की अविद्या माया है छल है </b></div><div><b>मुर्दों में जान फूँकने वाली रात नहीं है</b></div><div><b>ज़िन्दा लोगों को मुर्दा बनाने वाली रात है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह रात नहीं निज़ाम का खिलौना है</b></div><div><b>राजा का ओढ़ना-बिछौना है</b></div><div><b>तख़्त है ताज है</b></div><div><b>और उस शख़्स की काँख में </b></div><div><b>रात का रजिस्टर है जिसमें</b></div><div><b>उसके श्वेत-श्याम अनुभव हैं</b></div><div><b>घटनाओं-दुर्घटनाओं का ब्योरा है</b></div><div><b>छिप-छिपकर फ़ोटो खींचने वाले</b></div><div><b>उस आम आदमी के लिए रात क्या है</b></div><div><b>देश क्या है दस्तूर क्या है विचार क्या है</b></div><div><b>उसके जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। </b></div></div><div><br /></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpyOKnbqDqPef3Su-d4WYaEK8BNV3sZ83YY6A1QZ7WkHFwf3_xMQRrui9OYKY6GRwRm0rdFalwxYbJIqR0TpxGZN2W7_6XZoBW664FH1NVYo37wl_SawtQbQ7scH0uVV_xOyb4hyYpp1A3MIDCwBexMjJygS69OYeD2hraImmLyktN6BY-oZef6UtYPA/s808/DSC_0002.JPG" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="808" data-original-width="461" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpyOKnbqDqPef3Su-d4WYaEK8BNV3sZ83YY6A1QZ7WkHFwf3_xMQRrui9OYKY6GRwRm0rdFalwxYbJIqR0TpxGZN2W7_6XZoBW664FH1NVYo37wl_SawtQbQ7scH0uVV_xOyb4hyYpp1A3MIDCwBexMjJygS69OYeD2hraImmLyktN6BY-oZef6UtYPA/s320/DSC_0002.JPG" width="183" /></a></div><br /><b><br /></b></div><div><br /></div></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-48777970668143648262022-03-15T19:46:00.032+05:302022-07-08T20:22:22.514+05:30 तीन सौ इक्कीस छोटी कविताएँ<div style="text-align: left;"><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>1</b></div><div><b>मिट्टी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>हम </b></div><div><b>जिस मिट्टी में </b></div><div><b>लोटकर बड़े होते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह </b></div><div><b>हमारी आत्मा से </b></div><div><b>कभी नहीं झड़ती।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>2</b></div><div><b>बाबा</b></div><div><b>------</b></div><div><b>बहुत से भी </b></div><div><b>बहुत कम लेखक होंगे </b></div><div><b>जिन्हें साहित्य में कभी </b></div><div><b>कृपा बरसाने वाले </b></div><div><b>किसी बाबा की ज़रूरत </b></div><div><b>नहीं हुई होगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>3</b></div><div><b>बड़ा बाज़ार</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>साहित्य को </b></div><div><b>बड़ा बाज़ार बनाया किसने</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी जी उन्हीं दो-चार लोगों ने</b></div><div><b>जिनकी आप पूजा करते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>4</b></div><div><b>जो कवि जन का है</b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>जो कवि</b></div><div><b>जितना गोरा है</b></div><div><b>चिकना है सजीला है</b></div><div><b>उसके पुट्ठे पर राजा की</b></div><div><b>उतनी ही छाप है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो कवि</b></div><div><b>जितना सुरीला है</b></div><div><b>तीखे नैन-नक्श वाला है</b></div><div><b>उसके गले में अशर्फियों की</b></div><div><b>उतनी ही बड़ी माला है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो कवि </b></div><div><b>जन का है </b></div><div><b>बेसुरा है बदसूरत है</b></div><div><b>बहुत खुरदुरा है</b></div><div><b>उम्रक़ैद भुगत रहा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>5</b></div><div><b>जीवन</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जहाँ</b></div><div><b>जीवन ज्यादा होता है</b></div><div><b>हम वहाँ रुकते ही कम हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>असल में</b></div><div><b>जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं</b></div><div><b>चमकती हुई चीज़ों के पीछे</b></div><div><b>तेज़ दौड़ना शुरू कर देते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जीवन तो कहीं पीछे से</b></div><div><b>हमें मद्धिम आवाज में </b></div><div><b>पुकारता रह जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>6</b></div><div><b>समकालीन कवि</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>जब हम </b></div><div><b>साहित्य में लड़ रहे थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तब वे किसी उत्सव में</b></div><div><b>काव्यपाठ कर रहे थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहने के लिए वे भी</b></div><div><b>समकालीन कवि थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>7</b></div><div><b>नया मुहावरा</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>साहित्य में</b></div><div><b>लड़ोगे-भिड़ोगे</b></div><div><b>तो होगे ख़राब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुंडी झुकाकर</b></div><div><b>लिखोगे-पढ़ोगे</b></div><div><b>तो होगे नवाब।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>8</b></div><div><b>काम</b></div><div><b>------</b></div><div><b>जिसका जो काम है</b></div><div><b>उसे वही करना चाहिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जैसे हर शख़्स</b></div><div><b>ख़ुशामदी नहीं हो सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह हर शख़्स</b></div><div><b>बाग़ावत नहीं कर सकता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>9</b></div><div><b>अहमक़</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>ओह ये अहमक़ </b></div><div><b>आख़िर समझेंगे कब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साहित्य को जश्न नहीं</b></div><div><b>ईमान की ज़रूरत है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>10</b></div><div><b>गालियाँ</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>कविता के पितामह ने </b></div><div><b>बिगाड़ा है मुझे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सारी गालियाँ</b></div><div><b>उन्हीं से सीखी हैं मैंने</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरा क्या करोगे भद्रजनो</b></div><div><b>जाओ कबीर से निपटो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>11</b></div><div><b>आज़माइश</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>इतना </b></div><div><b>टूटना भी ज़रूरी था</b></div><div><b>ख़ुद को आज़माने के लिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक हाथ टूट जाने दिया</b></div><div><b>फिर दूसरे हाथ से</b></div><div><b>लड़ाई की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>12</b></div><div><b>आ संग बैठ</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>तू भी </b></div><div><b>कवि है मैं भी कवि हूँ</b></div><div><b>मान क्यों नहीं लेता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब पीढ़ी एक है तो तुझे </b></div><div><b>ऊँचा पीढ़ा क्यों चाहिए</b></div><div><b>आ संग बैठ चटाई पर।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>13</b></div><div><b>कविता का मजनूँ</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>जिस कवि को</b></div><div><b>हज़ार कविताएँ लिखने के बाद</b></div><div><b>एक भी खरोंच नहीं आयी</b></div><div><b>एक ढेला न लगा सिर पर</b></div><div><b>ज़रा-सा ख़ून न बहा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कितना सुखी </b></div><div><b>सात्विक और अपने मठ का</b></div><div><b>निश्चय ही प्रधानकवि हुआ</b></div><div><b>गुणीजनो क्या वह </b></div><div><b>कविता का मजनूँ हुआ!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>14</b></div><div><b>दुरूह</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>जिस कविता में </b></div><div><b>कथ्य की रूह </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साफ़-साफ़</b></div><div><b>एकदम दिख जाय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह दुरूह नहीं है </b></div><div><b>नहीं है नहीं है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>15</b></div><div><b>दलाल</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>जो अलेखक हो</b></div><div><b>जुगाड़ का चैंपियन हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>छपने-छपाने इनाम दिलाने</b></div><div><b>मशहूर कराने में माहिर हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और देशभर के लेखकों को</b></div><div><b>मिनटों में मुर्गा बनाता हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>16</b></div><div><b>ब्रह्म</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>जिसने तबीअत से</b></div><div><b>पुरस्कार को सूँघ लिया</b></div><div><b>ब्रह्म को पा लिया </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जिसे नसीब नहीं हुआ</b></div><div><b>वह बेचारा हर जन्म में </b></div><div><b>हिन्दी का लेखक हुआ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>17</b></div><div><b>दिल्ली</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>हाशिए के लेखक</b></div><div><b>मेरे दोस्त हैं मेरी ताक़त हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरी तरह दिल्ली के</b></div><div><b>पॉवरहाउस से दूर रहते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दिल्ली उन्हें भी मेरे साथ</b></div><div><b>मिटाने के लिए विकल है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>18</b></div><div><b>भिड़ंत</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>तुम अपनी </b></div><div><b>अशरफ़ी दिखाओ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं अपना</b></div><div><b>ईमान दिखाता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>19</b></div><div><b>मार्क्सवादी</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>हिन्दी के मार्क्सवादी</b></div><div><b>चाहते हैं देश के पूँजीपतियों का</b></div><div><b>नाश हो नाश हो नाश हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और वे राजधानी में खुलेआम</b></div><div><b>हिन्दी के पूँजीपतियों का तलवा</b></div><div><b>चाटते हैं चाटते हैं चाटते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>20</b></div><div><b>लगा पीटेगा</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>यह कविता इससे पहले</b></div><div><b>लिखी क्यों नहीं गयी थी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आलोचक ने कहा तो लगा</b></div><div><b>पहले के कवियों को पीटेगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>थोड़ा डरा सोचा कि यह ख़ुद</b></div><div><b>पहले क्यों नहीं पैदा हुआ!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>21</b></div><div><b>महानता</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>भाड़ में जाए </b></div><div><b>आपकी महानता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो था सब </b></div><div><b>कह नहीं दिया तो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>22</b></div><div><b>धरती पर</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>धरती पर कोई फूल </b></div><div><b>अधखिला रह न जाए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई बात ज़रूरी हो</b></div><div><b>तो कहे बिना रह न जाए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>23</b></div><div><b>नानी की नानी</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>नानी कब याद आती हैं</b></div><div><b>जी, कठिन बात कहनी हो तब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और जब बहुत कठिन बात </b></div><div><b>कहनी हो तो तब, वत्स</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी गुरु जी, तब</b></div><div><b>नानी की नानी याद आती हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>24</b></div><div><b>नहीं देखा</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मंच की रोशनी में</b></div><div><b>फुदकते हुए चूहों को</b></div><div><b>कभी शेर में बदलते</b></div><div><b>नहीं देखा नहीं देखा</b></div><div><b>चूहों ने भी नहीं देखा </b></div><div><b>नहीं देखा नहीं देखा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>25</b></div><div><b>ये</b></div><div><b>---</b></div><div><b>मेरा ख़याल है ये अभी</b></div><div><b>गंदा खाने तक जाएंगे</b></div><div><b>आख़िर इन्हीं के समय में</b></div><div><b>पुरस्कार युग आया है</b></div><div><b>कर लेने दो खा लेने दो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>26</b></div><div><b>अधिकतम</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>लेखकों, संपादकों, आलोचकों ने</b></div><div><b>कभी कृति के न्यूतम समर्थन मूल्य की बात </b></div><div><b>की ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इन्होंने हमेशा गोलबंद होकर</b></div><div><b>अधिकतम समर्थन मूल्य के लिए</b></div><div><b>राजधानी को घेरा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>27</b></div><div><b>कनकौआ</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>इधर के </b></div><div><b>किन-किन लेखकों के पास </b></div><div><b>कोई जुनूनी काम है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क्या पता</b></div><div><b>कनकौआ उड़ाना ही आज का</b></div><div><b>बड़ा काम हो!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>28</b></div><div><b>वहाँ</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>अच्छा हुआ</b></div><div><b>मैं वहाँ बहुत कम जाना गया </b></div><div><b>जहाँ थोड़े से आदमी रहते थे </b></div><div><b>और चूहे बहुत ज़्यादा ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>29</b></div><div><b>सुधार</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>गुप्त जी मानते थे</b></div><div><b>कि राम के चरित के सहारे</b></div><div><b>कोई भी कवि बन सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आज हैरान होते हिन्दी के इन</b></div><div><b>दुश्चरित्र कवियों को देखकर</b></div><div><b>अपने लिखे में सुधार करते</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई भी दुश्चरित्र कवि हो जाय</b></div><div><b>यह सहज संभाव्य है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>30</b></div><div><b>मज़बूत कवि</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>जैसे </b></div><div><b>बच्चे को देखकर</b></div><div><b>तंदुरुस्ती जान लेते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह</b></div><div><b>मज़बूत कवि को</b></div><div><b>दूर से पहचान लेते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>31</b></div><div><b>शायद</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में विचारों की कमी नहीं है</b></div><div><b>बस काम करना बंद कर दिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी में आदर्शों की कमी नहीं है</b></div><div><b>बस काम करना बंद कर दिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिंदी में महान लेखक कम नहीं हैं</b></div><div><b>इन लेखकों ने रास्ता बदल लिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेखक की दुनिया बदल गयी है</b></div><div><b>शायद पुरस्कार-राशि बढ़ गयी है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>32</b></div><div><b>सर्वेंट क्वार्टर</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>यह बच्चा</b></div><div><b>जब दिल्ली में लेखक बना है</b></div><div><b>वहीं पला-बढ़ा है तो जाएगा कहाँ</b></div><div><b>अमेरिका इंग्लैंड वग़ैरा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह तो अंतरराष्ट्रीय साहित्य के</b></div><div><b>सर्वेंट क्वार्टर में पैदा हुआ है</b></div><div><b>देश की नसों में मेरा ख़ून बनकर</b></div><div><b>कैसे दौड़ेगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>33</b></div><div><b>आ बेटा</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>बच्चा लेखक है </b></div><div><b>सारे अंग छोटे और कोमल होंगे</b></div><div><b>मूते भी तो मुझ तक कैसे पहुँचेगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे ही जाना होगा दिल्ली</b></div><div><b>दुलार करने आ बेटा सिर पर </b></div><div><b>कर ले मन की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>34</b></div><div><b>लीला</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मान्यवर आप लेखक हैं</b></div><div><b>और साहित्य के संघर्ष में नहीं हैं</b></div><div><b>तो आपकी भाषा चमकती हुई</b></div><div><b>स्निग्ध कोमल वग़ैरा तो होगी ही</b></div><div><b>आपकी उँगलियाँ अभी भी</b></div><div><b>स्वेटर बुनने की अभ्यस्त होंगी</b></div><div><b>काश मैं भी मूलतः स्त्री होता</b></div><div><b>मेरी हथेलियाँ खुरदुरी न होतीं</b></div><div><b>मैं गणेश नहीं लीला होता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>35</b></div><div><b>डण्डा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>वे</b></div><div><b>साहित्यपति थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उन्होंने कहा -</b></div><div><b>झण्डा लेकर चलो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैंने कहा -</b></div><div><b>डण्डा लेकर चलो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>36</b></div><div><b>लज्जा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>माइक के सामने</b></div><div><b>अख़बार के बयान में</b></div><div><b>कविता लिखते हुए </b></div><div><b>टेढ़ी हो गयी है कवि की रीढ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जहाँ झगड़ना था मीठा बोला </b></div><div><b>जहाँ तनकर खड़ा होना था झुका</b></div><div><b>जहाँ उदाहरण प्रस्तुत करना था </b></div><div><b>छिपकर जिया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>उसे सुख-शांति दीजिए न दीजिए</b></div><div><b>थोडी-सी लज्जा जरूर दीजिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>37</b></div><div><b>अकड़</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>आप हो तो ठीक है</b></div><div><b>न हो तो भी</b></div><div><b>पर हिन्दी में ऐसा वक़्त </b></div><div><b>ज़रूर आये</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब पाठक ही पाठक हों</b></div><div><b>और पाठक के पास इतना बल हो</b></div><div><b>कि कवि और आलोचक की</b></div><div><b>अकड़ तोड़कर उसकी जेब में</b></div><div><b>डाल दें।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>38</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>निरीह कवि</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>आये ज़रूर आये</b></div><div><b>हिन्दी में ऐसा भी वक़्त </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब आलोचक अपनी अकड़</b></div><div><b>निरीह कवि के सामने नहीं</b></div><div><b>साहित्य की सत्ता के सामने</b></div><div><b>दिखाए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>39</b></div><div><b>दिल्ली भी</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>साहित्य में</b></div><div><b>दिल्ली भी है</b></div><div><b>दिल्ली ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सुनता कौन है</b></div><div><b>देशभर के लेखक</b></div><div><b>बहरे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>40</b></div><div><b>ज्ञानी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में</b></div><div><b>इतने ज्ञानी आ गए हैं </b></div><div><b>कि पूछो मत</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ज्ञान की आंधी में</b></div><div><b>कविता की नाव </b></div><div><b>अब डूबी तब डूबी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>41</b></div><div><b>टैटू</b></div><div><b>------</b></div><div><b>नक़लची कवि</b></div><div><b>असली कवियों को</b></div><div><b>कविता पढ़ा रहे हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हँस रहे हैं चूतड़ मटका रहे हैं</b></div><div><b>उसी पर कविता का टैटू</b></div><div><b>बनवा रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>42</b></div><div><b>नोट कर लें</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>एक बात नोट कर लें</b></div><div><b>मैं किसी का पालतू</b></div><div><b>कवि नहीं हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह भी नोट कर लें</b></div><div><b>मेरा कोई पालतू</b></div><div><b>आलोचक नहीं है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर भी </b></div><div><b>कविता की पृथ्वी का</b></div><div><b>एक कण मैं भी हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>नोटबुक में </b></div><div><b>जगह न बची हो तो</b></div><div><b>जिल्द पर नोट कर लें।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>43</b></div><div><b>क़सम</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>उन्होंने</b></div><div><b>मुझे बर्बाद करने की</b></div><div><b>ज़बरदस्त क़सम खायी थी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जानकर</b></div><div><b>बहुत अफ़सोस हुआ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उनकी </b></div><div><b>अच्छी-ख़ासी क़सम </b></div><div><b>बर्बाद हो गयी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>44</b></div><div><b>बुरी बात</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>ग़ुस्सा चाहे जितना हो </b></div><div><b>किसी वाजिब बात के लिए हो</b></div><div><b>तो अच्छी बात है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ख़ुद कुछ न कर पाएँ और</b></div><div><b>ग़ुस्सा करने वाले पर खीझ हो</b></div><div><b>तो बहुत छोटी बात है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और अगर साहित्य में </b></div><div><b>ऐसी छोटी बात हो तो</b></div><div><b>बहुत बुरी बात है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>45</b></div><div><b>पत्थर हूँ</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>हाँ पत्थर हूँ</b></div><div><b>बहुत से बहुत सख़्त</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और तुम ठहरे </b></div><div><b>चलते-फिरते आदमजात</b></div><div><b>मान क्यों नहीं लेते</b></div><div><b>मेरे ऊपर सिर्फ़ प्यार से </b></div><div><b>बैठ सकते हो</b></div><div><b>दो घड़ी सुस्ता सकते हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे</b></div><div><b>अपनी राह का</b></div><div><b>पत्थर समझकर</b></div><div><b>ठोकर से हटाना चाहोगे</b></div><div><b>तो ज़ख़्मी हो जाओगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>46</b></div><div><b>पोतड़े</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>बादशाहों का</b></div><div><b>कुछ साफ़ नहीं किया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो उनके बच्चों के</b></div><div><b>पोतड़े कैसे साफ़ करूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जाओ मुझे तुमसे भी</b></div><div><b>कुछ नहीं चाहिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>47</b></div><div><b>चरणरज</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>वह </b></div><div><b>कल तक बड़ों का</b></div><div><b>चरणरज लेता था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और</b></div><div><b>आजकल छोटों का</b></div><div><b>चरणरज लेता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>48</b></div><div><b>जीना</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मित्र अब न कहो</b></div><div><b>बरस अठारह क्षत्रिय जीवे </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेखक बेचारा किसी मठ में</b></div><div><b>एक बार खड़ा नहीं हो पाता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>49</b></div><div><b>गया नहीं</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>राजधानी कोई शहर नहीं</b></div><div><b>एक बुलडोज़र है बुलडोज़र</b></div><div><b>जहाँ चूहा भी ऐंठकर चलता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अच्छा हुआ कि मैं गया नहीं</b></div><div><b>बुलडोज़र से लड़ तो जाता</b></div><div><b>चूहे से कैसे लड़ता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>50</b></div><div><b>इसीलिए</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>हिन्दी के लेखक हैं</b></div><div><b>उन्हें पता ही नहीं है</b></div><div><b>कि वे कर क्या रहे हैं </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इसीलिए</b></div><div><b>जिधर सब जा रहे हैं</b></div><div><b>उसी तरफ़ जा रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>51</b></div><div><b>परंपरा</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जैसे </b></div><div><b>बड़ी कविता की </b></div><div><b>परंपरा होती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह </b></div><div><b>ज़रूरी कविता की </b></div><div><b>परंपरा होती है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>52</b></div><div><b>नक़ली कविता</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>इधर हिन्दी कविता में ख़ूब</b></div><div><b>झूठमूठ की चीज़ें मिल जाएंगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कवि के जीवन से विरत</b></div><div><b>नक़ली कविता यहीं संभव है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>53</b></div><div><b>ठग</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>आज की तारीख़ में </b></div><div><b>किसी कवि को कविता में </b></div><div><b>बारीक बुनावट करते देखो</b></div><div><b>चाहे मामूली कविता को</b></div><div><b>ख़ूब चिकना करते देखो</b></div><div><b>तो समझ जाओ कि वह </b></div><div><b>कवि नहीं कविता का ठग है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>54</b></div><div><b>जुनूनी काम</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>मित्र से पूछा</b></div><div><b>इधर के किसी कवि को</b></div><div><b>कविता में जुनूनी काम</b></div><div><b>करते देखा है</b></div><div><b>मित्र ने कहा कुछ नहीं</b></div><div><b>बस मेरी तरफ़ देखते रहे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>55</b></div><div><b>ये लेखक</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>अंग्रेज़ों से </b></div><div><b>ग़लती हो गयी</b></div><div><b>बड़ी ग़लती हो गयी</b></div><div><b>वे सौ साल बाद आये होते</b></div><div><b>तो आज के हिन्दी के ये लेखक </b></div><div><b>आज़ादी की लड़ाई होने ही नहीं देते!</b></div><div><b>आख़िर साहित्यिक मुक्ति के लिए</b></div><div><b>लड़ाई कहाँ की!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>56</b></div><div><b>कविता की शक्ति</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>आज का आलोचक ख़ुद</b></div><div><b>अपने दिमाग़ की खिड़कियाँ खोले </b></div><div><b>आँखों के जाले ख़ुद साफ़ करे</b></div><div><b>मज़बूत कविता की खोज करे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं अपनी कविता की शक्ति से</b></div><div><b>घोड़े को शेर में बदल सकता हूँ</b></div><div><b>गधे आलोचकों को घोड़ा बनाना </b></div><div><b>मेरा काम नहीं है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>57</b></div><div><b>मास्टर</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>वे सब आलोचक कहाँ थे</b></div><div><b>वे तो हिन्दी के मास्टर थे</b></div><div><b>जितना पढ़ा पढ़ाया</b></div><div><b>उतना ही लिखा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी का मास्टर होकर भी</b></div><div><b>मैं आजीवन कार्यकर्ता ही रहा</b></div><div><b>कविता का मास्टर बनने का </b></div><div><b>कभी सोचा ही नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>58</b></div><div><b>आदर्श</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>मैंने कहा </b></div><div><b>तू मेरे गाँव का है</b></div><div><b>बच्चा संपादक है तो क्या हुआ</b></div><div><b>मेरी तरह बहादुर-शहादुर बन</b></div><div><b>चल मर्दाना कविताएँ छाप</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह </b></div><div><b>तनिक भी नहीं बदला</b></div><div><b>देशभर के नचनिया कवि </b></div><div><b>उसके आदर्श थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>59</b></div><div><b>चाटना </b></div><div><b>---------</b></div><div><b>ईमान नहीं है</b></div><div><b>तो विचारधारा कुछ नहीं है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सिर्फ़ चाटने </b></div><div><b>और चाटते रहने की चीज़ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>60</b></div><div><b>आत्मसंघर्ष</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>आप छत्तीस साल के युवा हैं</b></div><div><b>लेकिन लिख कितने साल से रहे हैं</b></div><div><b>आत्मसंघर्ष की उम्र कितनी है</b></div><div><b>कभी किया भी है या नहीं</b></div><div><b>लेखक के जीवन में चिंगारी </b></div><div><b>सिर्फ़ किताबों से पैदा होती तो </b></div><div><b>दुनिया में रोशनी ही रोशनी होती</b></div><div><b>मेरे बच्चे जीवन में रगड़ से</b></div><div><b>पैदा होती है असल रोशनी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>61</b></div><div><b>लेखक-प्रकाशक</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>मानता हूँ </b></div><div><b>अच्छा रिश्ता होता है</b></div><div><b>लेखक और प्रकाशक के बीच</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेकिन एक सच्चा लेखक</b></div><div><b>किसी प्रकाशक के लिए </b></div><div><b>पैदा नहीं होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसे तो अपने लोग </b></div><div><b>और अपनी भाषा के लिए</b></div><div><b>जीना-मरना होता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>62</b></div><div><b>खड़ी कविताएँ</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>वह ढिलपुक संपादक</b></div><div><b>मुझे पसंद नहीं करता</b></div><div><b>क्योंकि मैं खड़ी कविताएँ</b></div><div><b>लिखता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और वह</b></div><div><b>लेटी हुई कविताओं का</b></div><div><b>सोलह शृंगार करके</b></div><div><b>छापता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>63</b></div><div><b>दोहराव</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>कविता का उद्देश्य बड़ा है</b></div><div><b>और कवि भी जुनूनी है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो अलग-अलग ढंग से </b></div><div><b>कोई बात कहना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दोहराव नहीं असाधारण</b></div><div><b>चोट की निरंतर है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>64</b></div><div><b>अंतिम बल्लेबाज़</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>मेरे एक मित्र </b></div><div><b>बड़े मज़ाक़िया हैं</b></div><div><b>मुझे अपनी पीढ़ी का </b></div><div><b>अंतिम बल्लेबाज़ कहते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहते हैं</b></div><div><b>बाक़ी सस्ते में निपट गये</b></div><div><b>कविता में सारे चौके छक्के</b></div><div><b>अब मुझे ही लगाने हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>65</b></div><div><b>दोस्ती</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>लेखक का साथ</b></div><div><b>लेखक के चरित्र का </b></div><div><b>जासूस होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बता देता है कि यह लेखक</b></div><div><b>किस तरह के साहित्य के</b></div><div><b>गिरोह में शामिल है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर आप हुआ करें कुछ भी</b></div><div><b>गणेश पाण्डेय की दोस्ती के</b></div><div><b>क़ाबिल नहीं रह जाते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>66</b></div><div><b>निजी विचार</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>साहित्य </b></div><div><b>मनुष्यता का अभियान है</b></div><div><b>और कविता उस अभियान की बेटी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आज के कवियों </b></div><div><b>और आलोचकों के बारे में</b></div><div><b>मेरा निजी विचार यह कि ये दोनों </b></div><div><b>कविता के सीरियल रेपिस्ट हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>67</b></div><div><b>पाठक</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>आज की कविता का </b></div><div><b>कोई पाठक बहुत हुआ तो</b></div><div><b>खेत कोड़ने जितना श्रम कर देगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता की आत्मा तक</b></div><div><b>पहुँचने के लिए मौत के कुएँ में</b></div><div><b>मोटरसाइकिल नहीं चलाएगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>68</b></div><div><b>कवि</b></div><div><b>------</b></div><div><b>कवि का काम है</b></div><div><b>पाठक की तरफ़ हाथ बढ़ाना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>किसी दरबार में मुजरा करना </b></div><div><b>किसी क़ीमत पर नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>68</b></div><div><b>ख़रगोश</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>हिन्दी के एक</b></div><div><b>कछुए की क्या हैसियत है</b></div><div><b>कोई उसे देखता ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कछुआ अक्सर फर्राटे से</b></div><div><b>दौड़ते हुए लेखकों को देखता है</b></div><div><b>और सोचता रहता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ये हृष्टपुष्ट ख़रगोश </b></div><div><b>थकेंगे तो नहीं बेचारे अधबीच में</b></div><div><b>सो तो नहीं जाएंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>70</b></div><div><b>स्त्रीमुक्ति</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>कविता में </b></div><div><b>प्रेम से आगे का</b></div><div><b>सब हो गया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अर्थात कविता में</b></div><div><b>स्त्रीमुक्ति का काम</b></div><div><b>पूरा हो गया था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>71</b></div><div><b>अहंकार</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>राजधानी की माया </b></div><div><b>विचित्र है कि मठ का </b></div><div><b>नन्हा-सा चूहा भी ख़ुद को</b></div><div><b>मठाधीश समझता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>न मुझे सलाम करता है </b></div><div><b>न मुझसे छापने के लिए </b></div><div><b>कविताएँ माँगता है ताऊ हूँ</b></div><div><b>फिर भी अहंकार देखो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>72</b></div><div><b>सीढ़ी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में कुछ लेखक</b></div><div><b>लेखक कम होते हैं </b></div><div><b>सीढ़ी अधिक</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>किसी से बताना मत </b></div><div><b>कि ये सीढ़ी लेखक</b></div><div><b>दिल्ली में अधिक होते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>73</b></div><div><b>नंगा कीजिए</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>कोई लेखक</b></div><div><b>नाम-इनाम का विरोध करता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो ख़ुद को ईमानदार लेखक</b></div><div><b>क्यों नहीं समझ सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क्या वह बाक़ी लेखकों की तरह है</b></div><div><b>है तो उसे नंगा कीजिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>74</b></div><div><b>फ़ाइल</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>कवि जी बहुत हुआ</b></div><div><b>पुरानी फ़ाइलें जमा करना</b></div><div><b>मुंशी जी का काम है</b></div><div><b>आपका नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आपकी ड्यूटी</b></div><div><b>नयी फ़ाइल बनाने की है</b></div><div><b>ज़रूरी फ़ाइल बनाने की है</b></div><div><b>झट से आगे बढ़ाने की है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>75</b></div><div><b>कारख़ाना</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>कुछ लेखक</b></div><div><b>लिखने का कारख़ाना होते हैं</b></div><div><b>उनके कारख़ाने में सोचने का </b></div><div><b>पुर्ज़ा नहीं लगा होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कभी जान ही नहीं पाते</b></div><div><b>कि इतना फ़ालतू सामान</b></div><div><b>क्यों तैयार किया क्या होगा</b></div><div><b>बस लिखते हैं लिखते जाते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>76</b></div><div><b>तुम</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>तुम्हें लगता है कि वह ग़लत है</b></div><div><b>सीने में बर्छी जैसी चुभती हैं</b></div><div><b>उसकी बातें और कविताएँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम वैसा कर भी नहीं सकते</b></div><div><b>और वैसा करते हुए उसे</b></div><div><b>देखना भी चाहते हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>77</b></div><div><b>बुरा</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>बुरा लगता है</b></div><div><b>बहुत बुरा लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब हिन्दी का चोट्टा</b></div><div><b>मर्यादित भाषा का</b></div><div><b>पाठ पढ़ाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी करता है</b></div><div><b>मुँह तोड़ दूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>78</b></div><div><b>विशेषाधिकार</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>वह चरित्रहीन होकर भी</b></div><div><b>क्रांति की बात कर सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सिर्फ़ हिन्दी के लेखक को</b></div><div><b>यह विशेषाधिकार है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>79</b></div><div><b>आन बाट</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>लेखको</b></div><div><b>मरे हुए तो हो ही</b></div><div><b>जब भी जाओगे ऊपर</b></div><div><b>बाबा कबीर गेट पर बैठे मिलेंगे</b></div><div><b>हाथ में जलता हुआ चैला लिए</b></div><div><b>पूछेंगे मरे हुए क्यों पैदा हुए थे</b></div><div><b>कहोगे जी आन बाट से आया</b></div><div><b>शायद दागे जाने से बच जाओ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>80</b></div><div><b>अजीब बात</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>झूठ बोलता हुआ</b></div><div><b>इस देश का हर आदमी</b></div><div><b>हिन्दी का कवि लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कितनी अजीब बात है</b></div><div><b>झूठ बोलने वाला अब</b></div><div><b>राजनेता नहीं लगता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>81</b></div><div><b>लड़वैया</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>अगर तुम</b></div><div><b>पहले के लड़वैया की</b></div><div><b>इज़्ज़त नहीं करते</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो तुम </b></div><div><b>कवि वग़ैरा हो सकते हो</b></div><div><b>लड़वैया नहीं हो सकते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>82</b></div><div><b>तर्क के जूते</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>मुझे एक दो नहीं</b></div><div><b>सौ जूते चाहिए थे</b></div><div><b>मेरा दिमाग़ खराब था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरा दुर्भाग्य देखिए</b></div><div><b>हिन्दी में किसी के पास</b></div><div><b>तर्क के जूते ही नहीं थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>83</b></div><div><b>जमात</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>मैं उस जमात को</b></div><div><b>वक़्त पर छोड़ नहीं आया होता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो पूरी ज़िन्दगी</b></div><div><b>चिलम सुलगाता रह गया होता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>84</b></div><div><b>मेरे सामने</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>यह तो कोई बेईमान </b></div><div><b>आलोचक ही कह सकता है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आलोचना की आलोचना </b></div><div><b>बुरा काम है आलोचना नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं चाहता हूँ कि मेरे सामने</b></div><div><b>मेरे लिखे की धज्जियाँ उड़ाएँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>85</b></div><div><b>दोस्त</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>वह मेरा दोस्त था</b></div><div><b>और दोस्त जैसा नहीं था</b></div><div><b>मेरे दुश्मनों से डरता था</b></div><div><b>उसने न कभी दुश्मन बनाये</b></div><div><b>न किसी से कोई लड़ाई की</b></div><div><b>वह मेरा दोस्त कैसे हो सकता था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>86</b></div><div><b>गिनतीकार</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>गिनतीकार</b></div><div><b>आलोचकों ने</b></div><div><b>रोज़-रोज़ कविगणना </b></div><div><b>और श्रेणीबद्धता से</b></div><div><b>माठा नहीं कर रखा होता</b></div><div><b>तो मैं भला उनके ख़िलाफ़</b></div><div><b>सख़्त कार्रवाई क्यों करता</b></div><div><b>कि छोटे सुकुल समेत </b></div><div><b>फाट पड़ता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>87</b></div><div><b>मार दो</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>कविता </b></div><div><b>जब हिन्दी के शोहदों के सामने </b></div><div><b>भय से थरथर काँप रही है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक डरा हुआ आलोचक</b></div><div><b>जो ख़ुद की हिफ़ाज़त </b></div><div><b>नहीं कर सकता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिंदी कविता की </b></div><div><b>आबरू </b><b>ख़ाक बचाएगा </b></div><div><b>सबसे पहले </b><b>उसे मार दो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>88</b></div><div><b>नाराज़ कवि</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>नाराज़ कवि के हाथ में</b></div><div><b>सोना-चांदी फूल-पत्ती वग़ैरा नहीं</b></div><div><b>मामूली पत्थर है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता के सभासदो देखो तो</b></div><div><b>उसने तुम्हारे राजा के महल के</b></div><div><b>काँच पर कैसे दे मारा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>89</b></div><div><b>बाग़ी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>बीस साल पहले सोचा </b></div><div><b>नहीं था यह सब करूँगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उड़िए मत आप जानते हैं</b></div><div><b>बीस साल बाद क्या होगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बीस साल में हिन्दी में एक</b></div><div><b>नया बाग़ी पैदा हो जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>90</b></div><div><b>आत्मा</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>किसी को</b></div><div><b>अपशब्दों की बौछार से</b></div><div><b>लज्जित करना चाहोगे तो</b></div><div><b>वह सिर्फ़ नाराज़ होगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और</b></div><div><b>उसकी आँख में</b></div><div><b>आँख डालकर तर्क करोगे</b></div><div><b>तो उसकी आत्मा लज्जित होगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>91</b></div><div><b>बेचैनी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>न सबद लिखता हूँ</b></div><div><b>न रमैनी लिखता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता का </b></div><div><b>छोटा-मोटा कार्यकर्ता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साखी जैसी बस</b></div><div><b>अपनी बेचैनी लिखता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>92</b></div><div><b>कर्ज़</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>जिस</b></div><div><b>आलोचक की आलोचना में</b></div><div><b>ईमान का छंद नहीं होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वही</b></div><div><b>प्राय: कविता में छंद के लिए</b></div><div><b>आठ-आठ आँसू रोता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>असल में</b></div><div><b>उसे कुछ कवियों से लिया गया</b></div><div><b>पुराना कर्ज़ चुकाना होता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>93</b></div><div><b>मैं</b></div><div><b>---</b></div><div><b>मैं जब</b></div><div><b>कविता में </b></div><div><b>मैं लिखता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो </b></div><div><b>पुरस्कार का नहीं</b></div><div><b>हिन्दी का मैं लिखता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>94</b></div><div><b>भरोसा</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>उसके हाथ में डायरी थी</b></div><div><b>उसमें कई नंबर और पते थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरे पास सिर्फ़ दो हाथ थे</b></div><div><b>मुझे उन्हीं पर भरोसा करना था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>95</b></div><div><b>पंडिज्जी</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>पंडिज्जी की कोठी थी</b></div><div><b>मेरे पास थी मड़ई थी इसीलिए </b></div><div><b>वे मुझे पड़ोसी मानते नहीं थे</b></div><div><b>मैं हिन्दी की ज़मीन में रोज़</b></div><div><b>कुआँ खोदता रोज़ पानी पीता</b></div><div><b>एक-एक ईंट जोड़कर जब मैंने </b></div><div><b>हिन्दी की मीनार खड़ी कर दी</b></div><div><b>तो वे रातों में छिप-छिपकर</b></div><div><b>उसे देखते थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>96</b></div><div><b>ईमान</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में</b></div><div><b>पहले भी हुआ है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ईमान के</b></div><div><b>चींटी जैसे पैर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बेईमानी के हाथी को</b></div><div><b>कुचल सकते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>97</b></div><div><b>अशुभ योग</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>कवियो कहीं भी सो जाना</b></div><div><b>चारपाई पर चाहे ज़मीन पर</b></div><div><b>किसी भी तरफ़ पैर कर लेना</b></div><div><b>भूलकर भी दिल्ली की दिशा में</b></div><div><b>सिर करके मत सोना</b></div><div><b>बोले तो अशुभ योग है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>98</b></div><div><b>दुर्दशा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मेरे पुरखे</b></div><div><b>प्राचीन कवि गोरखनाथ होते तो</b></div><div><b>हिन्दी की दुर्दशा पर चुप नहीं रहते</b></div><div><b>अलबत्ता इस शहर के बाक़ी कवि</b></div><div><b>उनके होने पर भी चुप रहते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>99</b></div><div><b>वैशाखनंदन</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>मूर्ख लेखक को</b></div><div><b>गधा या लेंड़ी वग़ैरा</b></div><div><b>कैसे कह सकते थे </b></div><div><b>पवित्र भाषा हिन्दी में </b></div><div><b>छोत भी तो नहीं कह सकते थे </b></div><div><b>चुगद पहले कहा जा चुका था </b></div><div><b>इसलिए गधा कहा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>100</b></div><div><b>दण्ड</b></div><div><b>------</b></div><div><b>मैंने जिन </b></div><div><b>लेखकों के रहस्य खोले</b></div><div><b>और उनके अतिसौंदर्यप्रसाधनयुक्त</b></div><div><b>मुखमंडल पर कालिख पोती</b></div><div><b>मुझे उनसे दण्ड मिलना</b></div><div><b>स्वाभाविक था</b></div><div><b>उन्होंने मुझे सर्वसम्मति से</b></div><div><b>जातिबहिष्कृत किया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>101</b></div><div><b>अपकीर्ति</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मेरे समय में</b></div><div><b>हिन्दी के समुद्र में मंथन हुआ</b></div><div><b>तो कुछ को पाँच टके का सिक्का</b></div><div><b>कुछ को हज़ार का कुछ को </b></div><div><b>लाख का आभूषण</b></div><div><b>कुछ को हीरे से सुसज्जित मुकुट</b></div><div><b>मेरे हिस्से में विलक्षण वस्तु आयी</b></div><div><b>अपकीर्ति का बहुमूल्य चमड़ा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>102</b></div><div><b>मिशन</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>यह धंधे का समय है</b></div><div><b>क्या साहित्य क्या पत्रकारिता</b></div><div><b>क्या धर्म क्या राजनीति क्या शिक्षा</b></div><div><b>मिशन का नाम लेंगे तो सीधे</b></div><div><b>सूली पर चढ़ा दिए जाएंगे</b></div><div><b>जैसे मुझे साहित्य में</b></div><div><b>सूली पर चढ़ा दिया गया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>103</b></div><div><b>सरल रेखा</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>सरल रेखा </b></div><div><b>सबको अच्छी लगती है</b></div><div><b>चुपचाप मुंडी झुकाये चलते जाने में</b></div><div><b>कोई मुश्किल भी नहीं होती है</b></div><div><b>कोई दर्द नहीं कोई शर्म नहीं</b></div><div><b>जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलना </b></div><div><b>हिन्दी के लेखकों के लिए भी</b></div><div><b>सरल नहीं होता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>104</b></div><div><b>बड़का कबी</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>कुछ कबी तौ </b></div><div><b>बिल्कुल्लै मज़ेदार कबीता लिखि रहै हैं</b></div><div><b>गजबै करत हैं पुरान कोल्हू है बैल नवा</b></div><div><b>न कौनो चीरा-टाका न कौनो दर्द-सर्द</b></div><div><b>पेटौ ठीक से फूला नाहीं नौ महीना</b></div><div><b>एक मिनट में कबीता-फबीता होइगै</b></div><div><b>दाँत चियारि-चियारि खेलावत हैं</b></div><div><b>ज़मीदारन कै पैर दबावा टोटका आज़मावा</b></div><div><b>डिल्ली पहुँचि कै बड़का कबी होइगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>105</b></div><div><b>भैंस</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>साहित्य </b></div><div><b>कोई भैंस नहीं है </b></div><div><b>जिसे कोई इनाम की लाठी से </b></div><div><b>हाँक सकता है!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>106</b></div><div><b>तू </b></div><div><b>--</b></div><div><b>तू किताब पढ़</b></div><div><b>मैं जिन्दगी को पढ़ता हूँ</b></div><div><b>तू ज्ञान के शिखर चूम</b></div><div><b>मैं गिरे हुए को उठाता हूँ</b></div><div><b>तू इनाम ले</b></div><div><b>मैं खुद को मिटाता हूँ</b></div><div><b>तू अकादमी जा </b></div><div><b>मैं उस पर थूकता हूँ</b></div><div><b>तू दिल्ली जा</b></div><div><b>मैं टिकट फाड़ता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>107</b></div><div><b>बच्चों की प्रतीक्षा</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>जब</b></div><div><b>बच्चे बहुत छोटे थे</b></div><div><b>नौकरी पर जाते समय</b></div><div><b>हाथ पकड़कर झूल जाते थे</b></div><div><b>पीठ पर चढ़ जाते थे</b></div><div><b>पैरों से लिपट जाते थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अब</b></div><div><b>मैं रिटायर हो गया हूं</b></div><div><b>बच्चे बाहर काम पर हैं</b></div><div><b>मेरे पैर मेरे कंधे मेरी बाहें सब </b></div><div><b>घर पर बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>108</b></div><div><b>कितने दिन रह गये हैं</b></div><div><b>-------------------------</b></div><div><b>होली में</b></div><div><b>कितने दिन रह गये हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पूछता हूं पत्नी से, कहती हैं</b></div><div><b>रोज एक ही बात पूछते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>चुप हो जाता हूं दूर से</b></div><div><b>चुपचाप कैलेंडर देखता हूं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मोबाइल में ढूंढता हूं</b></div><div><b>होली की तिथि दिन गिनता हूं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रिटायर हो गया हूं न, बच्चे आएंगे</b></div><div><b>तो फिर काम पर लग जाऊंगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>109</b></div><div><b>बच्चे आ गये हैं</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई चिड़िया पीछे से</b></div><div><b>सिर पर पंख फड़फड़ाती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई तितली </b></div><div><b>चुपके से कंधे पर बैठ जाती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई हिरन </b></div><div><b>सामने से कुलांचे भरता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई शावक टीवी पर </b></div><div><b>धूप में बाघिन के मुंह चूमता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई शख्स</b></div><div><b>दरवाजे की कुंडी खटखटाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई जहाज</b></div><div><b>हवाई अड्डे पर उतरता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई पीछे से</b></div><div><b>मुझसे जोर से लिपट जाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हजार बातें हैं पता चल जाता है</b></div><div><b>बच्चे आ गये हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>110</b></div><div><b>देखना</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>उस रात प्रीतिभोज में </b></div><div><b>उसके साथ एक बच्चा था</b></div><div><b>बड़ा प्यारा था</b></div><div><b>खरगोश की तरह</b></div><div><b>देखता था सबको</b></div><div><b>मुझे भी ।</b></div><div><b>और उसने भी मुझे देखा था</b></div><div><b>जैसे नहीं देखा था</b></div><div><b>मैंने देखा था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>111</b></div><div><b>उठा है मेरा हाथ</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>मैं जहाँ हूँ</b></div><div><b>खड़ा हूँ अपनी जगह </b></div><div><b>उठा है मेरा हाथ ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रुको पवन</b></div><div><b>मेरे हिस्से की हवा कहाँ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बताओ सूर्य </b></div><div><b>किसे दिया है मेरा प्रकाश ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहाँ हो वरुण</b></div><div><b>कब से प्यासी है मेरी आत्मा ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सुनो विश्वकर्मा</b></div><div><b>मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए </b></div><div><b>मुझे जाना है संसद कोड़ने ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>112</b></div><div><b>उनका कोश</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>सबके काम आते थे </b></div><div><b>सबसे काम लेते थे </b></div><div><b>बड़े काम-काजी थे। </b></div><div><b>हर जगह थी उनकी पूछ । </b></div><div><b>असल में, उनके कोश में अकरणीय कुछ था ही नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>113</b></div><div><b>गौरैया</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>इतने बड़े आसमान में </b></div><div><b>मेरी नन्ही गौरैया</b></div><div><b>जिसके हर हिस्से में </b></div><div><b>हजार इच्छाएँ </b></div><div><b>आसमान से बड़ी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>114</b></div><div><b>मेरा बेटा</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>मेरा बेटा</b></div><div><b>कंधे पर बैठा हुआ </b></div><div><b>भरता है किलकारियाँ</b></div><div><b>दिखाता है आसमान को</b></div><div><b>ठेंगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>115</b></div><div><b>क्यों नहीं करते</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>इस पिद्दी को तो देखो </b></div><div><b>कितनी देर से कर रहा है </b></div><div><b>इतने बड़े देश के साथ </b></div><div><b>हँसी-ठट्ठा।</b></div><div><b>कहाँ हैं लोग </b></div><div><b>क्यों नहीं करते</b></div><div><b>इसका मुँह बंद।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>116</b></div><div><b>हिंदी की चींटी</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>मेरा क्या</b></div><div><b>मैं हिंदी की चींटी</b></div><div><b>चले गये सब हिंदीपति</b></div><div><b>योद्धा बड़े-बड़े</b></div><div><b>कुछ अप्रिय कुछ मीठा लेकर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उस पथ पर</b></div><div><b>मैं चींटी हिंदी की मतवाली</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क्यों छेड़े कोई मुझको</b></div><div><b>कोई हाथी कोई घोड़ा</b></div><div><b>चाहे कोई और।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>117</b></div><div><b>एक भिण्डी</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>यह जो छूट गयी थी </b></div><div><b>थैले में अपने समूह से </b></div><div><b>अभी-अभी अच्छी-भली थी</b></div><div><b>अभी-अभी रूठ गयी थी </b></div><div><b>एक भिण्डी ही तो थी </b></div><div><b>और एक भिण्डी की आबरू भी क्या </b></div><div><b>मुँह फेरते ही मर गयी थी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>118</b></div><div><b>याद रहे पर</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>ये लो पहले हाथ </b></div><div><b>फिर काटो दोनों पैर</b></div><div><b>गर्दन काटो</b></div><div><b>बोटी-बोटी कर दो</b></div><div><b>मेरी देह।</b></div><div><b>कहीं फेंक दो</b></div><div><b>कहीं झोंक दो</b></div><div><b>याद रहे पर</b></div><div><b>लपट उठेगी ऊँची-ऊँची</b></div><div><b>हर हिस्से से।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>119</b></div><div><b>प्रतिबंध</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>बच्चे समझाते हैं, पिताजी </b></div><div><b>किसी भी प्रकार का संसार हो</b></div><div><b>चूतियों से भरा हुआ है</b></div><div><b>साहित्य का भी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आप ख़ून न जलाएँ</b></div><div><b>चाहें तो उनका मुँह न देखें जाने दें</b></div><div><b>उनकी मूर्खता के उत्पादन पर</b></div><div><b>प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>120</b></div><div><b>भगवान की ग़लती</b></div><div><b>-----------------------</b></div><div><b>भगवान </b></div><div><b>जब अच्छे और बुरे लोगों को</b></div><div><b>धरती पर भेज रहे थे तो उनसे</b></div><div><b>सिर्फ़ एक ग़लती हुई</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दूध से धुले लोगों को </b></div><div><b>साहित्य में भेज दिया</b></div><div><b>और कीचड़ में सने लोगों को </b></div><div><b>राजनीति में</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इस प्रकार भगवान से </b></div><div><b>एक ऐतिहासिक भूल हुई।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>121</b></div><div><b>पत्रकार</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>पत्रकार </b></div><div><b>जो किसी से नहीं डरता</b></div><div><b>साहित्य के परिसर में जाते ही </b></div><div><b>दोनों आँखें मूँद लेता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और घुटनों के बल बैठ जाता है</b></div><div><b>फिर तो उसे साहित्य में सब </b></div><div><b>हरा-हरा दिखने लगता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>122</b></div><div><b>लक्ष्मी ने कराया</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>इक्कीसवीं सदी की हिन्दी</b></div><div><b>इतना बदल गयी थी कि </b></div><div><b>पूछिए मत</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लोग सरस्वती की जगह </b></div><div><b>अवा की पूजा कर रहे थे</b></div><div><b>रहस्य यह कि यह सब </b></div><div><b>लक्ष्मी ने कराया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>123</b></div><div><b>हैं</b></div><div><b>--</b></div><div><b>हम चार जमादार</b></div><div><b>जल्दी-जल्दी हाथ चलायें</b></div><div><b>रोज़ सड़क बुहारें मैला ढोयें</b></div><div><b>काहे से कि हमारी नौकरी</b></div><div><b>पक्की है</b></div><div><b>हम कोई हिन्दी के राजा रानी</b></div><div><b>युवराज राजकुमारी थोड़े हैं </b></div><div><b>आज हैं कल नहीं हैं</b></div><div><b>हम जो हैं, हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>124</b></div><div><b>पहुँचे हुए लोग</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>जो लोग </b></div><div><b>हिन्दी की दिल्ली जाते हैं</b></div><div><b>उससे आगे कहाँ जाते होंगे</b></div><div><b>देश-विदेश में कहीं तो </b></div><div><b>पहुँचते होंगे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और जो दिल्ली में बस गये हैं</b></div><div><b>वे लोग कहाँ तक पहुँचे होंगे</b></div><div><b>वे लोग निश्चय ही निश्चय ही</b></div><div><b>बहुत पहुँचे हुए लोग होंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>125</b></div><div><b>सोच</b></div><div><b>------</b></div><div><b>बाक़ी दुनिया गोरी हो जाए</b></div><div><b>हिन्दी के लेखक का जीवन</b></div><div><b>काला का काला रह जाए</b></div><div><b>यह हिन्दी के लेखक की</b></div><div><b>सोच है और वह दुनिया को</b></div><div><b>बदल तो सकता है लेकिन</b></div><div><b>अपनी सोच नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>126</b></div><div><b>दिलचस्पी</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>उनकी दिलचस्पी</b></div><div><b>उच्चकोटि की वैचारिक</b></div><div><b>बहस में थी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बहस करने वाले के</b></div><div><b>निम्नकोटि के जीवन में नहीं</b></div><div><b>वे हिन्दी के मार्क्सवादी थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>127</b></div><div><b>मिलना</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>जाकर मिलना</b></div><div><b>अच्छा नहीं लगता था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वे लोग यहीं आये</b></div><div><b>मिलकर अच्छा लगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>128</b></div><div><b>पहुँचना</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>बड़ी नौका में बैठकर</b></div><div><b>वे पहुँचे कितनी दूर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं तो डोंगी में बैठकर</b></div><div><b>पहुँच गया अपने गाँव।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>129</b></div><div><b>लड़ाई</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी के लिए</b></div><div><b>कोई लड़ाई लड़ी है</b></div><div><b>तुम्हारी महान दिल्ली के </b></div><div><b>नीले कुर्ते वाले हँसमुख भगवान ने</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जाओ ससुरो</b></div><div><b>कीर्तन करो ढोल बजाओ</b></div><div><b>हारमोनियम पर उँगलियाँ नचाओ</b></div><div><b>लो लो चरणामृत लो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>130</b></div><div><b>जो वरिष्ठ हैं</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>जो वरिष्ठ हैं</b></div><div><b>उन्हें कुछ तो कहना चाहिए</b></div><div><b>यही कि छोटे ठीक नहीं कर रहे हो</b></div><div><b>हिन्दी में सबको गाली देते फिरते हो</b></div><div><b>किसी भी बड़े को उघार कर देते हो</b></div><div><b>और जो लिखते हो वह तो एकदम से</b></div><div><b>कविता हइये नहीं क्या करते हो</b></div><div><b>झट्ट से नया लेख लिखकर मुँह पर</b></div><div><b>दे मारना चाहिए कविता क्या है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>131</b></div><div><b>आगे से</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>प्रतिरोध का नाटक </b></div><div><b>बहुत हुआ दम है तो साहित्य में </b></div><div><b>प्रतिरोध का बिगुल बजाओ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>राजनीति में</b></div><div><b>पीछे से लड़ाई करने की जगह </b></div><div><b>साहित्य में आगे से लड़ाई करो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>132</b></div><div><b>ओ वरिष्ठो</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मेरे पास</b></div><div><b>न पालकी है न हाथी न घोड़ा</b></div><div><b>गधे भी सब तुम्हारे पास हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरे पास हिन्दी की एक</b></div><div><b>पुरानी-धुरानी पुरखों की छोड़ी</b></div><div><b>साइकिल है जिसपर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हुमचकर बैठता हूँ </b></div><div><b>और घंटी टुनटुनाते हुए निकल पड़ता हूँ</b></div><div><b>रात-बिरात ड्यूटी पर।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>133</b></div><div><b>मिशन</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>कविता क्या है</b></div><div><b>न धंधा है न प्रतिरोध की नौटंकी</b></div><div><b>मिशन है मिशन</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता कबीर की लुकाठी है</b></div><div><b>जो फूँके घर नाम-इनाम का</b></div><div><b>चले हमारे साथ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>134</b></div><div><b>टिकाऊ</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>जिनकी </b></div><div><b>कविता में</b></div><div><b>दिल्ली की छाप नहीं है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उनकी </b></div><div><b>कविता बिकाऊ नहीं</b></div><div><b>टिकाऊ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>135</b></div><div><b>कमबख़्त</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>अच्छी </b></div><div><b>कविताएँ वक़्त लेती हैं</b></div><div><b>अच्छे पाठकों तक पहुँचने</b></div><div><b>और दुश्मनों के दिलों में</b></div><div><b>घर बनाने में</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तीस साल लगे</b></div><div><b>अब तो मेरे दुश्मन भी छिपकर</b></div><div><b>मेरी कविताएँ देखते हैं पढ़ते हैं </b></div><div><b>और कहते हैं कमबख़्त </b></div><div><b>लिखता ख़ूब है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>136</b></div><div><b>चर्चाबाज़</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>कृति का सच </b></div><div><b>फटकार कर कहना </b></div><div><b>इस प्रशंसा-समय में विरल है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इधर नये चर्चाबाज़ आ गये हैं</b></div><div><b>औसत की भूरि-भूरि प्रशंसा </b></div><div><b>उनका साहित्यिक व्यवसाय है। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>137</b></div><div><b>स्कूल</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जिस कवि को देखिए</b></div><div><b>बस देखते रह जाइए</b></div><div><b>कोई अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल का है</b></div><div><b>कोई दिल्ली के किसी स्कूल का </b></div><div><b>कोई भोपाल स्कूल का है</b></div><div><b>कोई किसी हेढ़ा स्कूल का </b></div><div><b>कोई किसी कान्वेंट स्कूल का है</b></div><div><b>कोई किसी प्राइमरी स्कूल का </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>138</b></div><div><b>कोहिनूर</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>उस कवि को देखिए</b></div><div><b>क्या सिल्क का कुर्ता है</b></div><div><b>क्या जींस झाड़ा है</b></div><div><b>धोती वाले </b></div><div><b>नचनिया को देखिए ज़रा</b></div><div><b>हिन्दुस्तान का नक्शा बनाया है</b></div><div><b>मंच पर माइक से चिपक कर</b></div><div><b>बहुत से बहुत तेज़ रोशनी में</b></div><div><b>चमकता है कि जैसे कोहिनूर।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>139</b></div><div><b>अभागा समय</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>किसी भी </b></div><div><b>कवि को देखिए</b></div><div><b>कैसा भागा जा रहा है</b></div><div><b>जहाँ-तहाँ जिस-तिस</b></div><div><b>आलोचक की दुकान पर</b></div><div><b>सोना मढ़ाने हीरा जड़ाने</b></div><div><b>कैसा अभागा समय है</b></div><div><b>कोई लोहे का कवि</b></div><div><b>बनना ही नहीं चाहता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>140</b></div><div><b>जाना</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में कम मूर्खताएं नहीं हैं</b></div><div><b>मुहल्ला-स्तर का हिन्दी कवि </b></div><div><b>कीड़े-मकोड़े की तरह चुपचाप जाता है</b></div><div><b>किसी इनामी कवि की मृत्यु पर </b></div><div><b>कुत्ते-बिल्ली तक विलाप करते हैं</b></div><div><b>साला ढिढोरा पीटते हुए क्यों जाता है</b></div><div><b>पाठक या जिल्दसाज वगैरा की मौत का</b></div><div><b>किसी को पता तक नहीं चलता</b></div><div><b>कवि कहाँ मरता है मरता तो आदमी है</b></div><div><b>फिर आदमी की तरह क्यों नहीं जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>141</b></div><div><b>हाँ</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>सुबह-सुबह</b></div><div><b>अख़बार पढ़ते हुए </b></div><div><b>श्रीमती जी ने कहा- </b></div><div><b>शीर्षकवि जी का निधन हो गया है </b></div><div><b>मैंने कहा - हाँ</b></div><div><b>उन्होंने पूछा - अब क्या होगा</b></div><div><b>मैंने फिर कहा - हां, सब अनाथ हो गये।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>142</b></div><div><b>शिखर कवि</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>उस कवि के यहाँ भयानक शब्द भी</b></div><div><b>मुस्कराते हुए सलज्ज आता है</b></div><div><b>शायद इसीलिए वह अपने समय में</b></div><div><b>अपने कुल में शिखर कवि कहलाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>143</b></div><div><b>वास्तव में गुरु</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>गुरु</b></div><div><b>वास्तव में गुरु थे </b></div><div><b>वाह क्या प्रभामंडल था</b></div><div><b>क्या नहीं था गुरु के पास</b></div><div><b>गौरवर्ण चंदनयुक्त ललाट सुदीर्घ नेत्र</b></div><div><b>मंत्रमुग्ध करने वाली वाणी से </b></div><div><b>शब्द-पुष्प और आशीष की वर्षा</b></div><div><b>गुरुमंत्र प्रवचन और साधना के लिए</b></div><div><b>उनके पास साफ़-सुथरी चटाई नहीं थी</b></div><div><b>आँख मूँदकर गुहथरी में भी बैठ जाते थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>144</b></div><div><b>पूँछ और शिखा</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>मैं गुरु का लांछित शिष्य था</b></div><div><b>उनकी दृष्टि में गुरुद्रोही भी था</b></div><div><b>कुत्ता भी था मेरे पास पूँछ भी थी</b></div><div><b>मैं हिन्दी की जिस कुर्सी स्टूल </b></div><div><b>चटाई चाहे ज़मीन पर बैठता था</b></div><div><b>पहले उस जगह को अपनी पूँछ से</b></div><div><b>दो-तीन बार साफ़ कर लेता था</b></div><div><b>जितनी बड़ी मेरे पास पूँछ थी</b></div><div><b>उतनी ही बड़ी गुरु के पास शिखा थी</b></div><div><b>शिखा पाण्डित्य-प्रदर्शन की वस्तु थी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>145</b></div><div><b>गुरु का शाप</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>वास्तविक पिता की जगह</b></div><div><b>किसी अन्य को वास्तविक पिता </b></div><div><b>बनाकर लेखक नहीं बना हूँ</b></div><div><b>यही कहा था </b></div><div><b>गुरु ने मुझे अपनी पादुका से </b></div><div><b>जीभर पीटा और यह कहते हुए </b></div><div><b>आश्रम से बाहर फेंक दिया-</b></div><div><b>नीच तूने साहित्य के </b></div><div><b>पवित्र आश्रम को भ्रष्ट कर दिया</b></div><div><b>जा तुझे शाप देता हूँ यश न मिले।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>146</b></div><div><b>हिंस्रपशु</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>इन्हें पीटो खूब पीटो </b></div><div><b>हंटर से पीटो कविता की देवी</b></div><div><b>चाहे चूतड़ पर भाला घोंप दो</b></div><div><b>शायद तुम्हारे प्रहार से</b></div><div><b>हिन्दी के हिंस्रपशु मनुष्य बन सकें।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>147</b></div><div><b>पिपिहरी</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>क्या यह समय सिर्फ़</b></div><div><b>सुंदर और कोमल कविताओं के लिए है</b></div><div><b>या परमसुंदरी कवि बनने के लिए है </b></div><div><b>या कवि का काम चकित करना रह गया है</b></div><div><b>बिगुल बजाने की जगह ये कवि </b></div><div><b>कैसी पिपिहरी बजा रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>148</b></div><div><b>ख़राब बात</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>हिन्दू होना चाहे </b></div><div><b>मुसलमान होना अच्छी बात है</b></div><div><b>अलबत्ता ज़्यादा हिन्दू होना</b></div><div><b>चाहे ज्यादा मुसलमान होना</b></div><div><b>ख़राब बात है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>149</b></div><div><b>रिश्ता</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जो ज़रा-सा भी बहादुर नहीं </b></div><div><b>हिन्दी में वह मेरा दोस्त नहीं</b></div><div><b>जो तनिक भी ईमानवाला नहीं</b></div><div><b>हरगिज़-हरगिज़ मेरा सगावाला नहीं</b></div><div><b>और जो लँगोट का ही पक्का नहीं</b></div><div><b>वह आगे से पीछे से कहीं से भी</b></div><div><b>कभी भी क़तई मेरा दुश्मन नहीं</b></div><div><b>रिश्ते में कोई ग़ैर-बराबरी नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>150</b></div><div><b>मान्यता</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>कोई स्कूल हूँ कारखाना हूँ</b></div><div><b>कंकड़-पत्थर हूँ बंजर भूमि हूँ</b></div><div><b>काठ का कवि हूँ आदमी नहीं हूँ</b></div><div><b>कविता का कैसा कलिकाल है</b></div><div><b>कवि न होऊँ उत्पाद कहाऊँ</b></div><div><b>जिसे आलोचना की सरकार से</b></div><div><b>मान्यता चाहिए ही चाहिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>151</b></div><div><b>भीष्म</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>क्षमा गुरु भीष्म क्षमा आख़िर</b></div><div><b>आपका दुर्योधन नहीं बन पाया</b></div><div><b>दु:शासन नहीं बन पाया</b></div><div><b>आपको ख़ुश नहीं कर पाया</b></div><div><b>हिन्दी का महाभारत अलग है</b></div><div><b>इस अर्जुन को आपका आशीर्वाद</b></div><div><b>नहीं चाहिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>152</b></div><div><b>लघु गुरु</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>लघु को गुरु होने में</b></div><div><b>पूरा जीवन लग जाता है</b></div><div><b>गुरु को लघु होने में एक पल</b></div><div><b>हिन्दी की दुनिया भी ऐसी ही है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>153</b></div><div><b>जीना</b></div><div><b>------</b></div><div><b>कुछ लोग लोमड़ी की तरह </b></div><div><b>जीते हैं</b></div><div><b>कुछ शाकाहारी गिलहरी की तरह</b></div><div><b>कुछ गधे की तरह ज़माने भर की</b></div><div><b>गंद लादे हुए जीते है</b></div><div><b>कुछ शेर की तरह अकड़ के साथ </b></div><div><b>कभी हार न मानने के लिए जीते हैं</b></div><div><b>कुछ लोग पत्थर-पानी की तरह</b></div><div><b>कुछ ज़हरीली गैस की तरह जीते हैं</b></div><div><b>तो कुछ ऑक्सीजन की तरह जीते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>154</b></div><div><b>घमंड</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>एक शेर के</b></div><div><b>दो चूहों को क्रमशः</b></div><div><b>अपना गॉडफादर बनाने से</b></div><div><b>इन्कार करने की कार्रवाई को</b></div><div><b>हिन्दी के तेरह प्रोफ़ेसरों ने </b></div><div><b>न सिर्फ़ घमंड कहा </b></div><div><b>बाक़ायदा तेरह सौ लेखकों को</b></div><div><b>इसे घमंड समझने के लिए </b></div><div><b>भ्रमित भी किया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>155</b></div><div><b>साबुन</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>फ़र्ज़ी प्रतिरोध फ़र्ज़ी नायक</b></div><div><b>फ़र्ज़ी लेखक की धुलाई के लिए</b></div><div><b>एक टिकिया गणेशछाप साबुन </b></div><div><b>काफ़ी है काफ़ी है काफ़ी है</b></div><div><b>बस आप बट्टी का सारा गाझ </b></div><div><b>आँख नाक कान में घुसेड़ दें </b></div><div><b>आत्मा की सारी मैल मिनटों में</b></div><div><b>बाहर आ जाएगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>156</b></div><div><b>तोड़</b></div><div><b>------</b></div><div><b>मुक्तिबोध के मुहावरे में कहूँ तो</b></div><div><b>हिन्दी कविता के परिसर में</b></div><div><b>जो तुम्हारे लिए विष है</b></div><div><b>मेरे लिए वही अन्न है</b></div><div><b>तुम्हारी दृष्टि में मेरी कविताएँ </b></div><div><b>विष हैं विष हैं तीव्रविष हैं</b></div><div><b>यह सिर्फ़ तुम्हारे लिए विष हैं</b></div><div><b>क्योंकि कि ये तुम्हारी आत्मा में</b></div><div><b>संचित विष का तोड़ हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>157</b></div><div><b>ऐतिहासिक विदाई</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>राजनीति और साहित्य से</b></div><div><b>आदर्शों की विदाई कब शुरू हुई</b></div><div><b>और पूरी कब हुई पूरी प्रक्रिया</b></div><div><b>कुछ याद है आपको आचार्यप्रवर </b></div><div><b>विचारप्रमुख साहित्य-राजन!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>158</b></div><div><b>नस्लें</b></div><div><b>------</b></div><div><b>महान विचार भी</b></div><div><b>आदर्शों की शवयात्रा में </b></div><div><b>मूर्च्छित हो जाते हैं </b></div><div><b>वे भी समय की आग में </b></div><div><b>ख़ाक हो गये तो सदियाँ </b></div><div><b>ढूँढती रह जाएंगी उन्हें</b></div><div><b>हमारी नस्लें बचेंगी कैसे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>159</b></div><div><b>भय </b></div><div><b>-----</b></div><div><b>इतना भय मृत्युदण्ड में भी न होगा</b></div><div><b>जितना आज हिन्दी के लेखकों में है</b></div><div><b>मर्जी का लिखना बोलना छींकना तो दूर</b></div><div><b>धारा के विरुद्ध ये लघुशंका भी </b></div><div><b>नहीं कर सकते हैं</b></div><div><b>हैरानी की बात यह</b></div><div><b>कि जनमुक्ति और विचार का भार </b></div><div><b>इस देश में इन्हीं के पास है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>160</b></div><div><b>बेमेल</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मेरे राजनीतिक </b></div><div><b>और साहित्यिक विचार </b></div><div><b>अपने समय के लेखकों से</b></div><div><b>मेल नहीं खाते हैं उन्हें भय है </b></div><div><b>कि वे विचार की जगह </b></div><div><b>विवेक चुनेंगे तो उनकी </b></div><div><b>कविताएँ मर जाएंगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>161</b></div><div><b>जी लिया</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>एक</b></div><div><b>लंबा सार्थक संघर्षपूर्ण</b></div><div><b>साहित्यिक जीवन जी लिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता और आलोचना में</b></div><div><b>वह सब कर दिया है जिसे</b></div><div><b>मैं कर सकता था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>162</b></div><div><b>बाँगड़ू</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>ये हिन्दी वाले बिना कुछ लिखे </b></div><div><b>दो कौड़ी का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान</b></div><div><b>कहाँ से झटक लाते हैं</b></div><div><b>कभी मारीशस से कभी नेपाल से</b></div><div><b>कैसे-कैसे बाँगड़ू फैले हैं दुनिया में।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>163</b></div><div><b>गुमनाम</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>जितना जाना गया</b></div><div><b>उतना भी नहीं होना चाहिए था</b></div><div><b>अच्छा होता कि मैं गुमनाम रहता</b></div><div><b>कोई मुझे जानता पहचानता नहीं</b></div><div><b>मेरा टूटा-फूटा जो भी काम है</b></div><div><b>बाद में काम आने के लिए</b></div><div><b>किसी कोने में पड़ा रहता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>164</b></div><div><b>चाँद</b></div><div><b>------</b></div><div><b>हताशा के </b></div><div><b>आकाश में</b></div><div><b>आशा का चाँद</b></div><div><b>फिर निकलता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>165</b></div><div><b>सूर्य</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>अस्त होना है</b></div><div><b>तो हो जाओ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जानता हूँ कल </b></div><div><b>फिर उगोगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>166</b></div><div><b>डंठल</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>डंठल </b></div><div><b>जब तक </b></div><div><b>सूखेगा नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फूल </b></div><div><b>खिलते रहेंगे </b></div><div><b>खिलते रहेंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>167</b></div><div><b>संकल्प</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>बूढ़ी हड्डियों में </b></div><div><b>जब तक जान है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी के काम</b></div><div><b>आते रहेंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>168</b></div><div><b>जन-संग्राम</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>यह लुहार यह बूढ़ा बढ़ई</b></div><div><b>जब और बूढ़ा हो जाएगा </b></div><div><b>सेहत की दिक्कतें और बढ़ जाएंगी</b></div><div><b>तब भी हिन्दी - दुर्दशा न देखी जाएगी</b></div><div><b>यह लड़ाई कभी रुकेगी नहीं</b></div><div><b>हिन्दी के लिए मर-मिटने वाले पागल</b></div><div><b>और आएंगे अपनी बंदूकें लेकर</b></div><div><b>नाम-इनाम और मुजरे की नहीं</b></div><div><b>हिन्दी को जन-संग्राम की भाषा बनाएंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>169</b></div><div><b>नाचना</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>न अकादमी में नाचा</b></div><div><b>न कभी भारत भवन में</b></div><div><b>मुझे नाचना ही नहीं आता था</b></div><div><b>देवी सरस्वती ने भी कभी </b></div><div><b>न नाचने के लिए कहा </b></div><div><b>न नाचना सिखाया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>170</b></div><div><b>सुख</b></div><div><b>------</b></div><div><b>लेखक </b></div><div><b>होकर भी</b></div><div><b>देख लिया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेकिन</b></div><div><b>मनुष्य होने का </b></div><div><b>सुख दुर्लभ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>171</b></div><div><b>सत्य</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>अपने समय में</b></div><div><b>मिथ्या है मिथ्या है</b></div><div><b>लेखक की प्रसिद्ध</b></div><div><b>सत्य है</b></div><div><b>लेखक का संघर्ष।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>172</b></div><div><b>सीमा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मुझे</b></div><div><b>अपने समय के</b></div><div><b>शेर जँचे नहीं दोहे हें हें हें</b></div><div><b>इसलिए हुईं छोटी कविताएँ</b></div><div><b>इसे मेरी सीमा समझें श्रीमान।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>173</b></div><div><b>उपजीवी कविताएँ</b></div><div><b>-----------------------</b></div><div><b>शुरू में ही हिन्दी के महाभारत में</b></div><div><b>इस क़दर फँस गया कि इतिहास </b></div><div><b>और मिथकों में मैं गया ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वे अघाये और अपने समय की सीधी लड़ाई से भागे हुए लोग थे </b></div><div><b>जो उस तरफ़ गये</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक से एक उपजीवी कविताएँ लिखीं</b></div><div><b>युद्धों के प्रभावशाली वर्णन किए</b></div><div><b>यश द्रव्य मुकुट सब हासिल किया</b></div><div><b>बस जीवन में कोई लड़ाई नहीं की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>174</b></div><div><b>पुकार</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>कोई-कोई पुकार</b></div><div><b>संसार की विरल पुकार होती है</b></div><div><b>कोई महागायक भी अपने कंठ में</b></div><div><b>उसे उतार नहीं सकता है</b></div><div><b>जैसे किसी बहुत छोटे बच्चे की</b></div><div><b>अपनी आत्मा की आवाज़ में</b></div><div><b>सीने से चिपककर की गयी</b></div><div><b>कोई अद्भुत धीमी पुकार -</b></div><div><b>नाना!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>175</b></div><div><b>चाँद की छत</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>बहुत छोटे बच्चों के लिए</b></div><div><b>दादा-दादी नाना नानी की गोदी</b></div><div><b>चाँद की छत है जहाँ से वे</b></div><div><b>पूरी दुनिया देख लेते हैं</b></div><div><b>पा लेते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>176</b></div><div><b>बिस्कुट की प्रतीक्षा</b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>बहुत छोटे बच्चे</b></div><div><b>बिस्कुट कभी अकेले नहीं खाते</b></div><div><b>मेरी अद्विका पहले नाना के मुँह में</b></div><div><b>देती है बिस्कुट फिर थोड़ा-सा</b></div><div><b>अपने नन्हें दाँतो से काटती है</b></div><div><b>उसके बाद फिर मेरे मुँह में देती है</b></div><div><b>कई बार एक ही बिस्कुट </b></div><div><b>हमारे दाँतों के बीच एक साथ </b></div><div><b>काटे जाने की प्रतीक्षा में होता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>177</b></div><div><b>नाना उड़</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>रोज़ खेलती है मेरी बच्ची</b></div><div><b>नाना उड़ नाना उड़ नाना उड़</b></div><div><b>कभी सममुच का उड़ जाऊँगा</b></div><div><b>तो क्या करेगी मेरी बच्ची मेरी जान</b></div><div><b>कहाँ-कहाँ ढूँढेगी भला मुझे</b></div><div><b>पर्दे के पीछे कंबल में तकिए के नीचे</b></div><div><b>लॉन में फूलों पर बैठी तितलियों से</b></div><div><b>पूछेगी तुमने मेरे नाना को देखा है</b></div><div><b>और सुबक-सुबककर रोयेगी</b></div><div><b>फिर कहाँ मिल पाऊँगा उड़ पाऊँगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>178</b></div><div><b>आम</b></div><div><b>------</b></div><div><b>जब इसे लगाया था</b></div><div><b>सोचा था जल्दी फल आ जाएंगे</b></div><div><b>बच्चे खाएंगे बच्चों के बच्चे खाएंगे</b></div><div><b>बच्चे आते हैं खाते हैं मैं नहीं खाता</b></div><div><b>फिर भी जुड़ा जाती है</b></div><div><b>मेरी आत्मा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>179</b></div><div><b>मेरे बच्चो</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मेरे बच्चो</b></div><div><b>मुझे ख़ूब-ख़ूब लिखना था</b></div><div><b>अश्रु स्वेद और असीम स्मित</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे अंगारा लिखने के लिए</b></div><div><b>हिन्दी के हरामज़ादों ने</b></div><div><b>विवश किया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>180</b></div><div><b>कोड़े</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>मैं भी कविता की उर्वर धरा पर</b></div><div><b>फूल और फलदार वृक्ष लगा सकता था</b></div><div><b>लेकिन मेरे समय के लेखकों को </b></div><div><b>न मेरा फूल पच रहा था न फल</b></div><div><b>ऐसे में मैंने अपने समय के</b></div><div><b>साहित्य का सच </b></div><div><b>फटकारकर कहा और कोड़े बरसाये।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>181</b></div><div><b>सलाम-वलाम</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>मैंने</b></div><div><b>शुरू में ही यह तय कर लिया था</b></div><div><b>उन लोगों को सलाम तो करूँगा</b></div><div><b>लेकिन कभी झुककर नहीं करूँगा</b></div><div><b>और यह भी कि उन लोगों के पास</b></div><div><b>मैं नहीं जाऊँगा मेरा नाम जाएगा</b></div><div><b>मेरा कारनामा जाएगा </b></div><div><b>इसलिए आज तक</b></div><div><b>उस शहर में उन लोगों के पास</b></div><div><b>सलाम-वलाम करने गया ही नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>182</b></div><div><b>कबीर का कुत्ता</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>बहुत कम पढ़ना हुआ </b></div><div><b>ढाई आखर से आगे गया ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अपने समय में कभी सिर्फ़</b></div><div><b>दाएँ बाजू की गंदगी को नहीं देखा</b></div><div><b>एकतरफ़ा जुलूस नहीं निकाला</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बाएँ बाजू की टूटी-फूटी हड्डियों पर भी</b></div><div><b>थोड़ा-बहुत कच्चा प्लास्टर लगाया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कबीर का कुत्ता और क्या कर पाता </b></div><div><b>कबीर होते तो चैले से दागकर</b></div><div><b>ठीक कर देते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>183</b></div><div><b>डर</b></div><div><b>----</b></div><div><b>वे राजनीति में</b></div><div><b>गैंगस्टर के ख़िलाफ़ हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वे धर्म में </b></div><div><b>गैंगस्टर के ख़िलाफ़ हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वे साहित्य में</b></div><div><b>गैंगस्टर के ख़िलाफ़ नहीं हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी में गैंग और गैंगस्टर के बिना</b></div><div><b>वे ज़िंदा क्यों नहीं रह सकते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>किस मिट्टी के बने हैं</b></div><div><b>किस गधे का डर है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>184</b></div><div><b>कालिदास</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>कवि ने अपनी दोनों ज़ेब में</b></div><div><b>ठूँसकर रख लिया है रुपया</b></div><div><b>और तमगा</b></div><div><b>फेंक दिया है चिंदी-चिंदी करके</b></div><div><b>प्रेम और प्राणोत्सर्ग की कहानियाँ</b></div><div><b>वह इन दिनों प्रेम से भी ज़्यादा </b></div><div><b>बिकने वाली चीज़ें लिख रहा है</b></div><div><b>अपने समय का </b></div><div><b>ज़रूरी हिन्दी कवि नहीं </b></div><div><b>कालिदास बन रहा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>185</b></div><div><b>संग्रह</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>होता यही है</b></div><div><b>कि अच्छी कविताएँ</b></div><div><b>अपना घर ख़ुद बना लेती हैं</b></div><div><b>संग्रह छपे न छपे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>186</b></div><div><b>मौलिक</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>कविता में</b></div><div><b>मौलिक हुए बिना</b></div><div><b>सामने बिखरे जीवन का</b></div><div><b>मूल्यवान</b></div><div><b>समेटा नहीं जा सकता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>187</b></div><div><b>कुछ कवि</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>जिसे प्रेम करते हैं</b></div><div><b>सीधे उसके हृदय में उतर जाते हैं</b></div><div><b>फिर कविता में किसी </b></div><div><b>प्रेमिका के हृदय तक पहुँचने का पथ </b></div><div><b>कुछ कवि कंटकाकीर्ण क्यों रखते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>188</b></div><div><b>आसान सवाल</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>कविता गणित नहीं है</b></div><div><b>ऐसा होता तो सारे गणितज्ञ</b></div><div><b>महाकवि होते वैसे गणित में भी </b></div><div><b>तो आसान सवाल पूछे जाते हैं</b></div><div><b>फिर कविता के गणित में</b></div><div><b>ऐसा क्यों नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>189</b></div><div><b>होंगे बड़े कवि</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>पाठक को विवश न करें कि वह </b></div><div><b>कविता के मर्म तक पहुंचने के लिए</b></div><div><b>बहुमूल्य और हज़ार पहरे में रखे</b></div><div><b>हीरे को चुराने जैसी योजना बनाये</b></div><div><b>होंगे बड़े कवि अपने घर के होंगे</b></div><div><b>मेरे जैसे साधारण पाठक के </b></div><div><b>काम के नहीं हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>190</b></div><div><b>बूढ़े</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>हम बूढ़े</b></div><div><b>अपने बच्चों के </b></div><div><b>बच्चों की चिंता करते हैं</b></div><div><b>नाती-नातिन पोती-पोते के लिए</b></div><div><b>जान देते हैं</b></div><div><b>और ये परम स्वार्थी बूढ़े लेखक</b></div><div><b>नये और बाद में पैदा होने वाले</b></div><div><b>पाठकों की रत्तीभर परवाह </b></div><div><b>नहीं करते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>191</b></div><div><b>साथ</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>व्यभिचारियों के साथ रहकर</b></div><div><b>जैसे साधु नहीं बन सकते हैं</b></div><div><b>उसी तरह </b></div><div><b>बुरे संपादकों के साथ रहकर</b></div><div><b>अच्छा लेखक नहीं हो सकते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>192</b></div><div><b>ताज़ा ख़बर</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>आज की </b></div><div><b>ताज़ा ख़बर</b></div><div><b>कुछ युवा संपादकों ने</b></div><div><b>एक सौ बानबे बुज़ुर्ग लेखकों को</b></div><div><b>बंधक बना लिया है </b></div><div><b>और समाचार लिखे जाने तक</b></div><div><b>बुज़ुर्ग लेखक संपादकों के हाते में</b></div><div><b>उनके साथ हँसी-ठट्ठा कर रहे थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>193</b></div><div><b>मेरी लड़ाई</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>रहूँ</b></div><div><b>न रहूँ</b></div><div><b>मेरी लड़ाई</b></div><div><b>रह जाएगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>194</b></div><div><b>ड्यूटी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>क्या नहीं किया</b></div><div><b>इसे ठोका उसे ठोका</b></div><div><b>जिनके लिए ठोका</b></div><div><b>उन्होंने कभी मुझे</b></div><div><b>पूछा तक नहीं</b></div><div><b>फिर भी मैंने</b></div><div><b>अपनी ड्यूटी की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>195</b></div><div><b>खिलाड़ी</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>उन्होंने साहित्य को </b></div><div><b>खेल का मैदान बना लिया था</b></div><div><b>फुटबॉल क्रिकेट वग़ैरा खेलते रहते थे</b></div><div><b>उस मैदान में कभी कोई </b></div><div><b>साहित्य-सत्ता विरोधी जनसभा </b></div><div><b>धरना प्रदर्शन करते ही नहीं थे</b></div><div><b>राज़ की बात यह ये कि वे मूलतः</b></div><div><b>हिन्दी के शतरंज के खिलाड़ी थे</b></div><div><b>मैंने उन लोगों के मैदान में जाना </b></div><div><b>छोड़ दिया तो छोड़ ही दिया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>196</b></div><div><b>भारतीय वृद्ध</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>पहले के जीवन में</b></div><div><b>पत्नी का जीवन मिल गया</b></div><div><b>जैसे-जैसे बच्चे हुए बड़े हुए</b></div><div><b>उनके बच्चे हुए मेरा जीवन </b></div><div><b>उनका हुआ मैं अपना नहीं</b></div><div><b>उनका जीवन जी रहा हूँ</b></div><div><b>एक साधारण भारतीय </b></div><div><b>वृद्ध का यही जीवन है </b></div><div><b>उसका अपना जीवन </b></div><div><b>कहाँ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>197</b></div><div><b>ज्ञान की दुकान</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>पान की दुकान की तरह</b></div><div><b>जगह-जगह ज्ञान की दुकान थी</b></div><div><b>छोटी से छोटी दुकान पर भी</b></div><div><b>सौ ख़रीदार मौज़ूद थे</b></div><div><b>हर जगह पान की पीक की तरह</b></div><div><b>ज्ञान की पीक थी</b></div><div><b>हिन्दी पट्टी में ईमान की </b></div><div><b>कोई दुकान ही नहीं थी</b></div><div><b>यहाँ तक कि फुटपाथ पर भी</b></div><div><b>कोई उसे पूछने वाला नहीं था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>198</b></div><div><b>ईमान का ठिकाना</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>मैंने ज्ञान से कहा</b></div><div><b>कुछ समय रुक क्यों नहीं जाते</b></div><div><b>अभी मेरा दिमाग़ ख़ाली नहीं है</b></div><div><b>उसमें कोई और रहता है</b></div><div><b>शायद इस जनम में ख़ाली न हो</b></div><div><b>क्या हुआ अगले जनम में आना</b></div><div><b>तुम्हें भी दूँगा मौक़ा</b></div><div><b>इस जनम में मेरा दिमाग़</b></div><div><b>ज़मानेभर से उपेक्षित बेचारे</b></div><div><b>ईमान का ठिकाना है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>199</b></div><div><b>बधाई</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>पुरस्कार पर</b></div><div><b>बधाई देने वालों को</b></div><div><b>ज़बरदस्त बधाई की</b></div><div><b>ज़रूरत है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>200</b></div><div><b>कवि मुँहबाय</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>कवि मुँहबाय</b></div><div><b>थैलीशाह कवि के शामियाने में</b></div><div><b>सिंगार-पटार करके नाचने-गाने </b></div><div><b>पहुँच जाय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जैसे आय </b></div><div><b>माल्या-मोदी के</b></div><div><b>हिन्दी के मुँहबाय कवियों के </b></div><div><b>अच्छे दिन आय!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>201</b></div><div><b>अच्छे विचार</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>हे अच्छे विचार</b></div><div><b>कुछ तो कम है</b></div><div><b>नहीं तो यह अँधेरा </b></div><div><b>छँटता कैसे नहीं!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लालटेन की बत्ती </b></div><div><b>दोमुँही तो नहीं है</b></div><div><b>चिमनी के भीतर </b></div><div><b>कैसी कालिख है!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>202</b></div><div><b>दुम</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>कुत्ते की दुम तो</b></div><div><b>पहले भी थी लेकिन</b></div><div><b>मुहावरे के रूप में</b></div><div><b>इसका चलन</b></div><div><b>हिन्दी के लेखकों में </b></div><div><b>दुम निकलने के बाद</b></div><div><b>हुआ होगा!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>203</b></div><div><b>वीरता</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>वीरता को </b></div><div><b>स्वीकार करना</b></div><div><b>वीरता का ही</b></div><div><b>एक प्रकार है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>204</b></div><div><b>चलता हुआ</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>मैं वहाँ </b></div><div><b>कृत्रिम प्रकाश में</b></div><div><b>पालथी मारकर</b></div><div><b>बैठा हुआ नहीं मिलूँगा</b></div><div><b>दूर अँधेरे में किसी उम्मीद में</b></div><div><b>चलता चला जाता हुआ </b></div><div><b>मिलूँगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>205</b></div><div><b>आज</b></div><div><b>------</b></div><div><b>आज</b></div><div><b>हिन्दी की दुनिया</b></div><div><b>दुनिया में सबसे बुरी</b></div><div><b>दुनिया है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>206</b></div><div><b>रोटी वाले हाथ</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>रोटी बनाना </b></div><div><b>कविता बनाने से बड़ा काम है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता नहीं जिस हाथ से सुंदर</b></div><div><b>रोटी बनती है उसे चूमना चाहिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>207</b></div><div><b>मूर्खता का इंजन</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>आज साहित्य की रेलगाड़ी में</b></div><div><b>तर्क का पहिया नहीं लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसमें इंजन तक लोहे का नहीं</b></div><div><b>शुद्ध मूर्खता का लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>किसी भी लेखक से पूछो कहेगा</b></div><div><b>साहित्य में सब अच्छा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>208</b></div><div><b>मौसेरे भाई</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>मास्कवादी</b></div><div><b>या मार्क्सवादी</b></div><div><b>क्या लिखना और बोलना</b></div><div><b>ज़्यादा सही है</b></div><div><b>ऐसा तो नहीं कि हिन्दी में</b></div><div><b>आज की तारीख़ में दोनों </b></div><div><b>मौसेरे भाई हों।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>209</b></div><div><b>सुंदर</b></div><div><b>------</b></div><div><b>हर कोई</b></div><div><b>अपने हिसाब से </b></div><div><b>सजता-सँवरता है</b></div><div><b>हिन्दी में एक मैं हूँ</b></div><div><b>जिसे सुंदर दिखने का </b></div><div><b>कोई शौक़ ही नहीं है</b></div><div><b>कितनी अजीब बात है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>210</b></div><div><b>जूता</b></div><div><b>------</b></div><div><b>जूते पर हज़ारों</b></div><div><b>कविताएँ लिखी गयीं हैं</b></div><div><b>हिन्दी में उन कवियों ने लिखीं</b></div><div><b>जिनके पास अपना जूता था ही नहीं</b></div><div><b>इसीलिए मैंने कविता और आलोचना में</b></div><div><b>हिन्दी के हरामज़ादों पर अपना जूता </b></div><div><b>फेंककर मारने का काम किया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>211</b></div><div><b>लौंडे</b></div><div><b>------</b></div><div><b>जल में </b></div><div><b>नाम था दूसरे संग्रह का</b></div><div><b>उन्हीं दिनों हिन्दी विभाग में</b></div><div><b>हाथ मिलाते हुए मुझसे बोले</b></div><div><b>इलाहाबाद के सत्यप्रकाश -</b></div><div><b>जल में रहकर मगर से बैर!</b></div><div><b>उनके लौंडे और उनके भी लौंडे</b></div><div><b>सुना है दिल्ली में चौड़ा होकर </b></div><div><b>चलते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>212</b></div><div><b>फुटनोट</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>हिन्दी के </b></div><div><b>फुटनोटी आलोचक</b></div><div><b>प्रायः हिन्दी के फुटपाथ पर</b></div><div><b>नक़ली नोट छापते मिले </b></div><div><b>जाने दिया पूछता तो क्या बताते</b></div><div><b>रामचंद्र शुक्ल की आलोचना की</b></div><div><b>इमारत में फुटनोट की कुल </b></div><div><b>कितनी ईंटें हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>213</b></div><div><b>बीचधारा</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>बीचधारा में जो डूबता है</b></div><div><b>बचता नहीं डूब ही जाता है</b></div><div><b>दुनिया में कहीं भी देख लो</b></div><div><b>हिन्दी की नदी तो सामने है </b></div><div><b>देख लो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>214</b></div><div><b>वीर</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>किसी पेड़ से नहीं टपकते</b></div><div><b>आलोचक के मुख से नहीं</b></div><div><b>माँ की कोख से पैदा होते हैं</b></div><div><b>वीरता मठों में बँटती भी नहीं</b></div><div><b>इसीलिए हिन्दी की दुनिया में</b></div><div><b>वीर बहुत कम पैदा होते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>215</b></div><div><b>चीकट लेखक</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>सब </b></div><div><b>कोरस गाते थे</b></div><div><b>सब संगतकार थे</b></div><div><b>जीवन में नायक जैसा</b></div><div><b>कुछ भी नहीं था फिर भी</b></div><div><b>प्रतिरोध की टोपी पहनकर</b></div><div><b>बच्चों के घर-घरौंदे की तरह</b></div><div><b>प्रतिरोध-प्रतिरोध खेलते थे</b></div><div><b>असल में हिन्दी के चीकट</b></div><div><b>लेखक थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>216</b></div><div><b>सिपाही</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>सिपाही</b></div><div><b>एक होता है लेकिन </b></div><div><b>उसके सीने पर ज़ख़्म </b></div><div><b>हज़ार होते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>217</b></div><div><b>गोबर गणेशो</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>पुरस्कार के पहले भी </b></div><div><b>हिन्दी साहित्य था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पुरस्कार न रहने पर भी</b></div><div><b>हिन्दी साहित्य रहेगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मरेगा नहीं गोबर गणेशो </b></div><div><b>यह बात समझते क्यों नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बालविवाह सतीप्रथा ख़त्म हुई</b></div><div><b>रीतिकाल भी यह भी होगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>218</b></div><div><div class="kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>गोरखपुर</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>---------</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>चाँदी के </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>वरक़ में लिपटा हुआ</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>एक आम-सा शहर है </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>गोरखपुर।</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b><br /></b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>219</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b style="font-family: inherit;">अब यहाँ</b></div></div><div class="cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql o9v6fnle ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>---------</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>न गोरख मिलेंगे न कबीर </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>न निराला न मुक्तिबोध</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>न नेहरू न लोहिया</b></div></div><div class="cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql o9v6fnle ii04i59q" style="background-color: white; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>ज़ाहिर है </b></div><div dir="auto" style="color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>अब यहाँ मिलेंगे तो</b></div><div dir="auto" style="color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>यही सब टूटे-फूटे लोग।</b></div><div dir="auto" style="color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></div><div dir="auto" style="color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>220</b></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>यक़ीनन
----------
ईमान की आवाज़ से
सिर्फ़ डपटभर दो तो
यक़ीनन एक अच्छी
कविता हो जाएगी।</b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>221
कायर
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हिन्दी का लेखक
इतना कायर हो सकता है
मैंने तो इन्हें ख़ूब
उलट-पलट कर देखा है
लेकिन आने वाली पीढ़ियाँ
कभी यक़ीन नहीं करेंगी।</b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>222
ये
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ये राजनेताओं को
ख़ूब बुरा-भला कह सकते थे
हिन्दी के मठाधीशों के सामने
झुक जाते थे लेट जाते थे।</b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>223
आईना
-------
यहाँ
बड़े-बड़े फ़र्जी ज्ञान पेलो
कविताओं के बड़े-बड़े महल बनाओ
ख़बरदार छोटे से छोटा
आईना भूलकर भी मत बनाना
जिसमें लोगों को उनकी सूरत दिखे
जैसा कि आमतौर पर होता है
ज़रा-सा भी कमज़ोर हुए
तो मार दिए जाओगे।
<br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>224
मैंने तो
-------
ज़रूर आपने
कविताएँ लिखी होंगी
मैंने तो अपने वक़्त का
आईना बनाया है।</b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>225
टूटा-फूटा
----------
मैं लेखक नहीं
अपने वक़्त का टूटा-फूटा
आईना हूँ
इतना भी
टूटा-फूटा नहीं हूँ जिसमें
आप ख़ुद को देख न सकें।</b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>226
जगह
-------
मेरी जगह कोई नहीं ले सकता है
आप चाहें तो आपकी जगह भी
कोई नहीं ले सकता है
इसके लिए आपको मुझसे
दोस्ती करनी होगी।</b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>227
उन्होंने
--------
चलो माना मैंने
कुछ किया ही नहीं
सब उन्होंने किया
मगर किया क्या।
<br /></b></span></span></div><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>228
</b></span></span></div></div></div><div><b>लाउडस्पीकर</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>वे सब अक्सर</b></div><div><b>कहते हैं मुझसे हटाओ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हटाओ हटाओ अपना</b></div><div><b>लाउडस्पीकर हटाओ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>229</b></div><div><div class="kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>मत दागना</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>-----------</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>ये हिन्दी का नहीं </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>कांग्रेस, सपा, बसपा, माकपा, भाकपा</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>वग़ैरा का काम कर रहे हैं</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>हे बाबा कबीर इनके चूतड़ पर</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>जलते हुए चैले से मत दागना</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>ये जानते ही नहीं कि हिन्दी का काम </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>राहुल अखिलेश योगी वग़ैरा नहीं करेंगे</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>ओ हिन्दी के वैशाखनंदनो हम हैं हम</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>जो लड़ेंगे अंत तक हिंदी की लड़ाई।</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b><br /></b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>230</b></div></div><div class="cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql o9v6fnle ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>कविता का घर</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>---------------</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>फाउंडेशन बाबा ने</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>बुलडोज़र की पीठपर</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>हाथ रख दिया है</b></div></div><div class="cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql o9v6fnle ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>देर किस बात की</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>जल्दी करो ढहाओ </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>कविता का घर</b></div></div><div class="cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql o9v6fnle ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>बाबा </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>ख़ुश होगा पैसा देगा </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>टॉफी देगा माइक देगा।</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b style="font-family: inherit;"><br /></b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b style="font-family: inherit;">231</b></div></div><div class="cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql o9v6fnle ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>नक़ली</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>---------</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>लेखक है</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>अपनी लड़ाई नहीं लड़ेगा</b></div></div><div class="cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql o9v6fnle ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>कमबख़्त</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>नक़ली लड़ाई लड़ेगा।</b></div></div></div><div><b><br /></b></div><div><b>232</b></div><div><b>प्रदर्शन</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>लेखक लोग</b></div><div><b>रोज़ अपनी नयी कमीज़ </b></div><div><b>लहराते हैं दिखाते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरे पास तो सिर्फ़</b></div><div><b>एक लाल लँगोट है शीलवश</b></div><div><b>उसे दिखा नहीं सकता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>233</b></div><div><b>पैदल</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>उस लेखक के पास </b></div><div><b>जहाज है हेलीकॉप्टर है</b></div><div><b>और उसके पास रेलगाड़ी</b></div><div><b>और उसके पास कार</b></div><div><b>उसके पास स्कूटर है</b></div><div><b>उसके पास साईकिल</b></div><div><b>लेकिन मैं तो पैदल हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>234</b></div><div><div><b>सीकरी</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>कितनी</b></div><div><b>बदल गयी है</b></div><div><b>सीकरी </b></div><div><b>ये लो</b></div><div><b>कुंभनदास को</b></div><div><b>नहीं जानती।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>235</b></div><div><b>ख़ैर नहीं</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>जब सारे बेईमान </b></div><div><b>ईमानदारों की भाषा में</b></div><div><b>बात करने लगें</b></div><div><b>तो समझ लो</b></div><div><b>कि हिन्दी की बिल्कुल </b></div><div><b>ख़ैर नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>236</b></div><div><b>वापसी</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>आप किसी शहर से</b></div><div><b>जहाज रेल बस वग़ैरा से</b></div><div><b>हज़ार बार लौट सकते हैं</b></div><div><b>साहित्य की दिल्ली से </b></div><div><b>एक बार भी लौट नहीं सकते हैं</b></div><div><b>दिल्ली सबसे पहले लेखक के</b></div><div><b>पैर काटती है, फिर गर्दन</b></div><div><b>अंत में आत्मा को कुचल देती है</b></div><div><b>इस तरह वापसी के सारे रास्ते</b></div><div><b>बंद कर देती है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>237</b></div><div><b>राख में</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>समय की राख में आग</b></div><div><b>तब तक दबी रहती है जब तक</b></div><div><b>उसे कुरेदकर दहकाने वाले बच्चे </b></div><div><b>आ नहीं जाते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>238</b></div><div><b>चिड़ियाघर </b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>यह </b></div><div><b>कोई शहर है</b></div><div><b>या</b></div><div><b>हिंदी का </b></div><div><b>चिड़ियाघर।</b></div><div><br /></div><div><b>239</b></div><div><b>फ़ौजी कवि</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>लड़ाई भी</b></div><div><b>और लिखाई भी</b></div><div><b>सिंगल पसली के</b></div><div><b>बंदे किया कैसे</b></div><div><b>क्या नाम है इस </b></div><div><b>फ़ौजी कवि का।</b></div><div><br /></div><div><b>240</b></div><div><b>ग़ज़ब</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>ये लो</b></div><div><b>साहस की बात </b></div><div><b>कायर करता है</b></div><div><b>अकेलेपन पर भाषण </b></div><div><b>पालकी ढोने वाला लेखक </b></div><div><b>देता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>241</b></div><div><b>सीढ़ी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>सातवें माले पर</b></div><div><b>कोई लेखक कूदकर</b></div><div><b>नहीं चढ़ सकता</b></div><div><b>सीढ़ी की ज़रूरत </b></div><div><b>पड़ेगी पड़ेगी</b></div><div><b>क्यों नहीं पड़ेगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>242</b></div><div><b>चरणस्पर्शी कवि</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>वह कवि पहले</b></div><div><b>मेरा चरणस्पर्श करता था</b></div><div><b>मैं सम्मानपूर्वक नमस्कार </b></div><div><b>कहता था</b></div><div><b>अब वह बच्चों के पैर छूता है</b></div><div><b>ज़रूर वे आशीष देते होंगे</b></div><div><b>चाचा जी प्रणाम हरगिज़ </b></div><div><b>नहीं कहते होंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>243</b></div><div><b>मेरे बारे में</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>जब जाने लगूँगा मेरे दुश्मन </b></div><div><b>मेरे बारे में इतना तो कहेंगे</b></div><div><b>चाहे मुँह घुमाकर धीरे से कहें</b></div><div><b>कहे बिना रह नहीं पाएंगे-</b></div><div><b>पागल कवि था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>244</b></div><div><b>वजह</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>चतुर कवियो </b></div><div><b>आसपास पता करो</b></div><div><b>ख़ुद से दस बार पूछो</b></div><div><b>अपने समय का </b></div><div><b>पागल कवि होना</b></div><div><b>कोई क्यों चाहेगा</b></div><div><b>कोई तो वजह होगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>245</b></div><div><b>इत्तिला</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>आम लेखकों को</b></div><div><b>ज़रूरी इत्तिला दी जाती है</b></div><div><b>मठ की गद्दी पर कूदकर </b></div><div><b>उनके पोते बैठ गये हैं।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><b>246</b></div><div><b>महान कविता</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>संपादक-प्रकाशक-आलोचक</b></div><div><b>समझते हैं कि महान कविता की</b></div><div><b>पूँछ पकड़कर ही महान कविता</b></div><div><b>लिखी जाती है</b></div><div><b>इन्हें माफ़ करना पाठको</b></div><div><b>ये नहीं जानते कि अपने समय के</b></div><div><b>राक्षसों के तलुवे चाटकर नहीं</b></div><div><b>टेंटुआ पकड़कर महान कविता</b></div><div><b>लिखी जाती है।</b></div><div><br /></div><div><b>247</b></div><div><b>ननिहाल</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>बच्चे</b></div><div><b>जब वापस लौट जाते हैं</b></div><div><b>अपने-अपने नीड़ों में तो</b></div><div><b>इतने बड़े आकाश के नीचे</b></div><div><b>ननिहाल बेचारा कितना</b></div><div><b>गुमसुम उदास और अकेला</b></div><div><b>हो जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>248</b></div><div><div><b>महाराज </b></div><div><b>----------</b></div><div><b>हिन्दू </b></div><div><b>जीत गया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी </b></div><div><b>हार गयी।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><b>249</b></div><div><b>मनुष्य</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>राजपाट धरा रह जाएगा</b></div><div><b>सारा विज्ञान और विचार</b></div><div><b>किसी काम नहीं आएगा</b></div><div><b>दुनियाभर के धर्माचार्यों</b></div><div><b>दार्शनिकों - लेखकों से</b></div><div><b>कुछ भी नहीं हो पाएगा </b></div><div><b>जब मनुष्य के भीतर का</b></div><div><b>मनुष्य ही मर जाएगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>250</b></div><div><div><b>सीवर</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>इस </b></div><div><b>ज़िन्दगी में </b></div><div><b>हिंदी के सीवर में </b></div><div><b>फँस गया</b></div><div><b>बाहर की ज़िन्दगी </b></div><div><b>देखी ही नहीं।</b></div><div><br /></div><div><div><b>251</b></div><div><b>किरकिरी</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मैं अपने समय के </b></div><div><b>साहित्य के आसमान में</b></div><div><b>चमकता हुआ सितारा नहीं हूँ</b></div><div><b>मैं तो बस कवियों आलोचकों</b></div><div><b>और संपादकों की आँख की</b></div><div><b>किरकिरी हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>252</b></div><div><b>गाय</b></div><div><b>------</b></div><div><b>हिंदी का कवि </b></div><div><b>अल्ला मियाँ की नहीं</b></div><div><b>संपादक और आलोचक की </b></div><div><b>गाय है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>253</b></div><div><b>अब वही</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>जो किसी </b></div><div><b>संपादक और आलोचक पर </b></div><div><b>ग़ुस्सा नहीं होते अब वही </b></div><div><b>कवि होते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>254</b></div><div><b>महत्वपूर्ण </b></div><div><b>------------</b></div><div><b>जिसके </b></div><div><b>पुट्ठे पर किसी </b></div><div><b>मठ की छाप है</b></div><div><b>वही अपने समय का</b></div><div><b>महत्वपूर्ण कवि है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>255</b></div><div><b>साठ</b></div><div><b>------</b></div><div><b>साठ </b></div><div><b>पार करने के बाद </b></div><div><b>कोई कवि न अपनी </b></div><div><b>चाल बदल सकता है</b></div><div><b>न चाल-चलन।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>256</b></div><div><div><b>कोई कुछ </b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मैंने </b></div><div><b>साहित्य में </b></div><div><b>कहाँ-कहाँ नीचता की </b></div><div><b>किस-किस दरबार में नाचा</b></div><div><b>कितने समझौते किए </b></div><div><b>कितने गॉडफ़ादर बनाये</b></div><div><b>आख़रि कोई कुछ </b></div><div><b>बताता क्यों नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>257</b></div><div><b>साहस</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>हृदय में</b></div><div><b>साहस नहीं है</b></div><div><b>तो उसमें और बच्चों के</b></div><div><b>खिलौने में कोई फ़र्क़ नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>258</b></div><div><b>सुखी लेखक</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>जिन्हें </b></div><div><b>मुक्तिबोध की तरह</b></div><div><b>ज़जीरों में बँधे </b></div><div><b>ईमान की फ़िक्र नहीं</b></div><div><b>कितने सुखी हैं </b></div><div><b>ऐसे लेखक। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>259</b></div><div><b>टिकट </b></div><div><b>--------</b></div><div><b>ऊपर</b></div><div><b>साहित्य के स्वर्ग में</b></div><div><b>जाने के लिए कोई टिकट </b></div><div><b>दिखाना पड़ता है क्या</b></div><div><b>कहाँ मिलता है!</b></div></div><div><b><br /></b></div><div><b>260</b></div><div><b>भाग जाएंगे</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>बहुत कमज़ोर हैं</b></div><div><b>हिन्दी के लेखक</b></div><div><b>आईना दिखाओगे</b></div><div><b>तो भाग जाएंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>261</b></div><div><b>टेढ़ा</b></div><div><b>------</b></div><div><b>सोचता हूँ</b></div><div><b>उन लोगों की आँख </b></div><div><b>दुरुस्त कर दूँ</b></div><div><b>जिन्हें</b></div><div><b>मेरा मुँह अक्सर </b></div><div><b>टेढ़ा दिखता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>262</b></div><div><b>चुप्पी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>अब तो कोई </b></div><div><b>मुझ पर हँसता नहीं</b></div><div><b>पिद्दी और गोबर गणेश भी</b></div><div><b>नहीं कहता है</b></div><div><b>सब मुझे देखते ही</b></div><div><b>एक चुप हज़ार चुप हो जाते हैं</b></div><div><b>ज़्यादातर तो पीछे की ओर </b></div><div><b>भाग जाते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>263</b></div><div><div><b>अपनी शक़्ल </b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>ओह</b></div><div><b>हद दर्ज़े का बदतमीज़ लेखक है</b></div><div><b>कहता है कि इतना लिख जाऊँगा </b></div><div><b>कि मेरे समकालीन लेखको सालो </b></div><div><b>उसमें अपनी शक़्ल देख-देखकर</b></div><div><b>भौंकोगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>264</b></div><div><b>धावक</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>ये धावक</b></div><div><b>हिन्दी के लेखक हैं</b></div><div><b>बहुत तेज़ दौड़ रहे हैं</b></div><div><b>इन्हें पता नहीं है कि आगे</b></div><div><b>किसकी दीवार है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>265</b></div><div><b>बर्छी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>मेरी</b></div><div><b>एक-एक कविताएँ</b></div><div><b>बेईमान लेखकों के दिल में</b></div><div><b>बर्छी की तरह</b></div><div><b>चुभेंगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>266</b></div><div><b>मोढ़ा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मेरा मोढ़ा</b></div><div><b>मुझे नहीं लौटाया तो </b></div><div><b>बेईमान लेखको उसके पाये तोड़कर </b></div><div><b>तुम्हारी जींस के पिछले पॉकेट में</b></div><div><b>डाल दूँगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>267</b></div><div><b>शरीफ़ लेखक </b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>बहुत </b></div><div><b>शरीफ़ लेखक हैं</b></div><div><b>शायद मेरे शहर के हैं</b></div><div><b>शायद आपके शहर के हैं</b></div><div><b>अभी-अभी किसी अन्य को</b></div><div><b>अपना पिता बनाकर </b></div><div><b>लौट रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>268</b></div><div><div><b>मेरा प्रिय </b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>जो मेरा प्रिय हो</b></div><div><b>समय को जानता हो</b></div><div><b>थोड़ा-सा ईमान हो</b></div><div><b>लिखने का शऊर हो</b></div><div><b>मशहूर हो न हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>269</b></div><div><b>आलोचक-संपादक </b></div><div><b>-----------------------</b></div><div><b>आरबीआई ने बताया</b></div><div><b>कितने प्रतिशत नक़ली नोट</b></div><div><b>बाज़ार में हैं</b></div><div><b>आलोचक-संपादक </b></div><div><b>क्या बताएँ वे तो हिन्दी में पूरा</b></div><div><b>साहित्य ही नक़ली चला रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>270</b></div><div><b>बेचारा मौलिक </b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>मौलिक को देखते ही</b></div><div><b>उस पर जीभर थूकेगा</b></div><div><b>नहीं मिटा तो उसे </b></div><div><b>जूतों से पीटेगा</b></div><div><b>फिर भी बचा रह गया तो</b></div><div><b>बेचारे मौलिक के ख़ून से</b></div><div><b>हिंदी का लेखक अपने हाथ</b></div><div><b>रंगेगा</b></div><div><b>फिर उसी हाथ से </b></div><div><b>किताब लिखेगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>271</b></div><div><b>क़ीमत</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>बाबा कबीर ने</b></div><div><b>रात सपने में बताया</b></div><div><b>बच्चा, हिन्दी का लेखक </b></div><div><b>आज पतुरिया बन गया है</b></div><div><b>उसकी क़ीमत ज़्यादा नहीं</b></div><div><b>दो कौड़ी का पुरस्कार है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>272</b></div><div><b>साहस</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>दुर्दिन में जब </b></div><div><b>सबका साहस चुक जाता है</b></div><div><b>सब सिर झुकाये उदास बैठे होते हैं</b></div><div><b>सहसा देखते हैं</b></div><div><b>कोई बच्चा आता है</b></div><div><b>कूदता-फाँदता हुआ कहीं से</b></div><div><b>और समुद्र में ज़ोर से फेंकता है</b></div><div><b>एक कंकड़</b></div><div><b>और हँस पड़ता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>273</b></div><div><b>डर</b></div><div><b>----</b></div><div><b>कितने </b></div><div><b>कमज़ोर होते हैं वे लेखक </b></div><div><b>अपनी कमज़ोरियों की वजह से</b></div><div><b>जिस ईमानदार लेखक से डर जाते हैं</b></div><div><b>उससे कभी तर्क नहीं कर पाते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>274</b></div><div><b>चाबी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>हिन्दी लेखक के </b></div><div><b>दिमाग़ का ताला </b></div><div><b>सिर्फ़ पुरस्कार की </b></div><div><b>चाबी से खुलता है!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>275</b></div><div><b>हम साला</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>बाहर वाले</b></div><div><b>हमारे ज़िक्र के बिना</b></div><div><b>हमारे बाप-दादों के ज़िक्र के बिना</b></div><div><b>अपनी बात अच्छे से कह लेते हैं</b></div><div><b>हम साला</b></div><div><b>इतने ग़रीब लेखक क्यों हैं </b></div><div><b>कि उनकी शान में कसीदा पढ़े बिना </b></div><div><b>अपनी बात रख ही नहीं पाते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>276</b></div><div><b>सलीक़ा</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>किसी लेखक को</b></div><div><b>सिर पर बैठायें तो</b></div><div><b>बहुत सलीक़े से</b></div><div><b>आपका पैर दूसरे</b></div><div><b>लेखक के सिर पर</b></div><div><b>न पड़ने पाये।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>277</b></div><div><b>गौरव</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>कोई मुहल्ले का</b></div><div><b>चाहे इंटरनेशनल पुरस्कार नहीं</b></div><div><b>हिंदी भाषा के लिए सचमुच </b></div><div><b>गौरव का दिन वह होगा</b></div><div><b>जब लेखक पिता के अतिरिक्त </b></div><div><b>अन्य को वास्तविक पिता बनाना</b></div><div><b>बंद कर देगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>278</b></div><div><b>आता रहूँगा </b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>जब-जब</b></div><div><b>साहित्य के धर्म की हानि होगी</b></div><div><b>अपना चक्र लेकर मैं यहाँ</b></div><div><b>आता रहूँगा आता रहूँगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>279</b></div><div><b>आम</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>निराला </b></div><div><b>द्विवेदी जी से मिलने के लिए </b></div><div><b>जाते समय आम लेकर गये थे</b></div><div><b>ओह हिन्दी साहित्य का</b></div><div><b>वह अमूल्य और अविस्मरणीय आम </b></div><div><b>किसी संपादक से </b></div><div><b>मिलने के लिए जाना ही हो तो शायद</b></div><div><b>मुझे भी वही आम लेकर जाना चाहिए </b></div><div><b>क्या आज की तारीख़ में दिल्ली में</b></div><div><b>एकाध महावीर प्रसाद द्विवेदी होंगे!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>280</b></div><div><b>पागलपन </b></div><div><b>------------</b></div><div><b>अपने घर में </b></div><div><b>बच्चा पैदा होने पर भी </b></div><div><b>हिन्दी का लेखक इतना बावला </b></div><div><b>नहीं होता है </b></div><div><b>जितना किसी को </b></div><div><b>पुरस्कार मिल जाने पर होता है</b></div><div><b>क्या है पुरस्कार </b></div><div><b>कोई भूत-प्रेत-चुड़ैल</b></div><div><b>कोई अफ़ीम-गाँजा-भाँग क्या है</b></div><div><b>पागलपन की कोई बीमारी है क्या।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>281</b></div><div><b>इतिहासकार </b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>श्रीमान जी इतिहास तो </b></div><div><b>इतिहासकार की पूँछ है</b></div><div><b>पूँछ को जितना चाहे </b></div><div><b>बड़ी-छोटी या दायें-बायें </b></div><div><b>कर ले!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>282</b></div><div><b>कितना निराला</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>पाँडे जी,</b></div><div><b>अब तक आप कितना परसेंट </b></div><div><b>निराला हो गये होंगे </b></div><div><b>सुकुल जी, सेर भर का तो </b></div><div><b>सौ जनम में नहीं हो पाऊँगा</b></div><div><b>हाँ ज़्यादा नहीं, आधा छटाक </b></div><div><b>हो गया होऊँगा</b></div><div><b>बस कोई दो तोले का </b></div><div><b>महावीर प्रसाद द्विवेदी </b></div><div><b>मिल जाय।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>283</b></div><div><b>नौकाविहार</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>साहित्य में अधिकारी</b></div><div><b>नौकाविहार करने के लिए आते हैं</b></div><div><b>हिन्दी के वास्ते</b></div><div><b>जान देने के लिए थोड़े आते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>284</b></div><div><b>मेरे बाद </b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>मैं रहूँगा भी तो कब तक</b></div><div><b>दस साल बीस साल और कितना</b></div><div><b>मेरे बाद कौन लड़ेगा</b></div><div><b>हिन्दी के अँधेरे के </b><span style="font-family: Kruti Dev 010;"><b>खि़लाफ़ </b></span></div><div><b>यह लड़ाई </b></div><div><b>कोई तो होगा मेरी तरह</b></div><div><b>फिर आएगा कोई पागल।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>285</b></div><div><b>दोस्त </b></div><div><b>-------</b></div><div><b>जो </b></div><div><b>अंत तक</b></div><div><b>साथ रहे</b></div><div><b>सिर्फ़</b></div><div><b>वही दोस्त है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>286</b></div><div><div><b>ज़ालिम </b></div><div><b>---------</b></div><div><b>हिन्दी के हत्यारों की फ़ौज से</b></div><div><b>तीस-पैंतीस साल से अकेले </b></div><div><b>लड़ते-लड़ते मैं मर गया होता</b></div><div><b>तो मेरे बच्चों का क्या होता</b></div><div><b>ओह कितनी ज़ालिम है</b></div><div><b>हिन्दी के फ़ासिस्टों की</b></div><div><b>यह दुनिया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>287</b></div><div><b>इल्म</b></div><div><b>------</b></div><div><b>अँग्रेजीदाँ थे बहुत घमंड था</b></div><div><b>ज्ञान को तलवार की तरह </b></div><div><b>बात-बात पर चमकाते रहते थे </b></div><div><b>कितना भी कहो हाथ जोड़कर कहो</b></div><div><b>म्यान में रखते ही नहीं थे</b></div><div><b>मेरे पास पुरखों से विरासत में मिला</b></div><div><b>साहित्य के ईमान का मोटा सोटा था</b></div><div><b>पुरखों ने उसे ख़ूब तेल पिलाया था</b></div><div><b>उनके बारामंड पर दे दना दन दे मारा</b></div><div><b>असल में उन्हें ईमान की ताक़त का </b></div><div><b>ज़रा-भी इल्म नहीं था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>288</b></div><div><b>या</b></div><div><b>----</b></div><div><b>मेरी छोटी कविताएँ क्या हैं</b></div><div><b>बिजली का नंगा तार हैं या </b></div><div><b>ब्लेड की धार वग़ैरा या</b></div><div><b>बच्चों की फुलझड़ी या</b></div><div><b>कोई खिलौना या </b></div><div><b>हिन्दी का महाभारत या गीता</b></div><div><b>या हिंदी के कापुरुषों का इतिहास </b></div><div><b>फ़ैसला कौन करेगा </b></div><div><b>हिन्दी का कोई सद्पुरुष </b></div><div><b>या आलोचना का कोई विदूषक। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>289</b></div><div><b>विद्रोही</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>विद्रोही माँ के पेट से नहीं</b></div><div><b>साहित्य-समय की कोख से </b></div><div><b>पैदा होते हैं</b></div><div><b>अप्रत्याशित ठोकरें उन्हें</b></div><div><b>चट्टान बना देती हैं </b></div><div><b>षड्यंत्र उनमें आग भर देता है</b></div><div><b>धोखे ज्वालामुखी को </b></div><div><b>सक्रिय कर देते हैं</b></div><div><b>फिर वह अँधेरे के पहाड़ को</b></div><div><b>ढहाने के काम में लग जाते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>290</b></div><div><b>भक्त</b></div><div><b>------</b></div><div><b>लक्ष्मीभक्त तो</b></div><div><b>बेईमान थे ही</b></div><div><b>सरस्वतीभक्त भी</b></div><div><b>कम बेईमान नहीं थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>291</b></div><div><b>न्याय </b></div><div><b>------</b></div><div><b>प्रकृति </b></div><div><b>जिसके साथ </b></div><div><b>न्याय नहीं कर पाती है</b></div><div><b>मनुष्य को </b></div><div><b>उसके साथ </b></div><div><b>न्याय करना होता है। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>292</b></div><div><b>कविता में</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>कविता छोटी हो या लंबी</b></div><div><b>उसमें सिर्फ़ कर्णफूल नथ </b></div><div><b>माँगटीका करधन वग़ैरा ही नहीं</b></div><div><b>हथेलियों का खुरदरापन </b></div><div><b>और एडियों की बिवाई भी </b></div><div><b>दिखनी चाहिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>293</b></div><div><b>सफ़ाई </b></div><div><b>--------</b></div><div><b>साहित्य में</b></div><div><b>बातें सिर्फ़ हवा-हवाई न हों</b></div><div><b>उसके तीर्थों में गंदगी है</b></div><div><b>तो सफ़ाई हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>294</b></div><div><b>कविता को</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>अच्छी </b></div><div><b>कविता को</b></div><div><b>बुरे वक़्त की</b></div><div><b>धूल से बचाएँ।</b></div></div><div><b><br /></b></div><div><b>295</b></div><div><b>दुश्मन </b></div><div><b>--------</b></div><div><b>दानेदार </b></div><div><b>दुश्मन भी</b></div><div><b>होता है</b></div><div><b>दुश्मन ही।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>296</b></div><div><b>जान</b></div><div><b>------</b></div><div><b>कितना </b></div><div><b>बड़ा पागल था</b></div><div><b>उस हिन्दी के लिए </b></div><div><b>अपनी जान दे रहा था</b></div><div><b>जिसके किसी भी लेखक को</b></div><div><b>न मेरी जान की फ़िक़ थी</b></div><div><b>न मेरे बच्चों की</b></div><div><b>फिर भी हिन्दी के लिए </b></div><div><b>लड़ाई की पूरी की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>297</b></div><div><b>आला अफ़सर</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>किसी</b></div><div><b>आला अफ़सर के लिए साहित्य </b></div><div><b>लाल फीते में बँधी एक फ़ाइल है</b></div><div><b>जिसका काम वह दो मिनट में</b></div><div><b>तमाम कर </b><b>स</b><b>क</b><b>ता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेकिन </b></div><div><b>मेरे जैसे किसी ग़रीब के लिए </b></div><div><b>पूरी ज़िन्दगी है हुज़ूर।</b></div></div><div><br /></div><div><div><b>298</b></div><div><b>कलियुग </b></div><div><b>----------</b></div><div><b>पुरस्कारयुग ही</b></div><div><b>हिन्दी साहित्य का</b></div><div><b>कलियुग है</b></div><div><b>आप जानते ही हैं</b></div><div><b>कलियुग में क्या-क्या</b></div><div><b>होता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>229</b></div><div><b>रंडी आलोचक </b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>इसी</b></div><div><b>साहित्य-समय में</b></div><div><b>मुझे रंडी आलोचक के</b></div><div><b>दिव्य-दर्शन हुए </b></div><div><b>किसी भी कवि को उसने</b></div><div><b>महान से कम कहा ही नहीं</b></div><div><b>जिस पर क़लम उठायी</b></div><div><b>ग़ज़ब का नाच नाचा</b></div><div><b>कवि जवारी या बहुत हेलीमेली</b></div><div><b>सजातीय हुआ तो नंगा नाचा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>300</b></div><div><div><b>विकास </b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>शहर के मुख्यमार्गों </b></div><div><b>और चौक-चौराहों पर</b></div><div><b>विकास की चाँदनी फैली हुई है</b></div><div><b>राजा की जयकार हो रही है</b></div><div><b>उसका मुख कमल की तरह</b></div><div><b>खिला हुआ है</b></div><div><b>बस बेचारी</b></div><div><b>हमारी गलियाँ और नालियाँ</b></div><div><b>बहुत उदास हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>301</b></div><div><b>महान</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>गाली देने से</b></div><div><b>ईश्वर छोटा हो जाता है</b></div><div><b>ज़रा-ज़रा-सी बात पर </b></div><div><b>उसका अपमान हो जाता है</b></div><div><b>तो फिर वह </b></div><div><b>भला महान कैसे हुआ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>302</b></div><div><b>साला</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी का लेखक </b></div><div><b>हिन्दी के लिए नहीं</b></div><div><b>मरा जाता है</b></div><div><b>वह तो साला</b></div><div><b>पुरस्कार के लिए </b></div><div><b>मरा जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>303</b></div><div><b>गाँडू</b></div><div><b>------</b></div><div><b>लेखक साला माला</b></div><div><b>कबीर की जपता है</b></div><div><b>और कर्म </b></div><div><b>गाँडू के करता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>304</b></div><div><b>दिल्ली स्कूल </b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>दिल्ली स्कूल के कवि</b></div><div><b>बूढ़े हों या युवा सब</b></div><div><b>कविता लिखते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>घुमाव गोलाई चिकनाई से</b></div><div><b>पता चल जाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और हमारे जैसे तमाम </b></div><div><b>अपढ़ लोग सजावटी</b></div><div><b>कविता नहीं लिख पाते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जीवन लिखते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>305</b></div><div><b>चुनौती</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>वे मुझे</b></div><div><b>मशहूर होने नहीं देना चाहते थे</b></div><div><b>और मैं मशहूर होना नहीं चाहता था</b></div><div><b>मैं तो सिर्फ़ उनके आक़ाओं को</b></div><div><b>चुनौती देते रहना चाहता था।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><div><b>306</b></div><div><b>हिन्दीवालो</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>हिन्दीवालो करा लो</b></div><div><b>कान की मैल साफ़ करा लो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जिन्हें पुरस्कार की चाह नहीं</b></div><div><b>न कभी लेते हैं न कोशिश करते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वे भी कवि होते हैं कबीर </b></div><div><b>सूर तुलसी जायसी से पूछ लो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दूर मत जाओ </b></div><div><b>छोटे सुकुल से पूछ लो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>307</b></div><div><div><b>तू </b></div><div><b>--</b></div><div><b>तू दुनियाभर की किताबें पढ़</b></div><div><b>मैं ज़िन्दगी को पढ़ता हूं</b></div><div><b>तू ज्ञान के ऊँचे-ऊँचे शिखर चूम</b></div><div><b>मैं ईमान के कण को चूमता हूँ</b></div><div><b>तू दूसरे को गिराने में लग</b></div><div><b>मैं गिरे हुए को उठाता हूँ</b></div><div><b>तू दरबारों में नाच-गा इनाम ले</b></div><div><b>मैं ख़ुद को मिटाता हूँ</b></div><div><b>तू जहाज पकड़ अकादमी जा</b></div><div><b>मैं टिकट फाड़ता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>308</b></div><div><b>हम कहतै रहिजात हैं</b></div><div><b>--------------------------</b></div><div><b>पूछौ न बहुतै बड़ा कबी है</b></div><div><b>जेका देखौ ओकरे पाछे-पाछे घूमत है</b></div><div><b>चाह-समोसा पत्तल-सत्तल चाटत है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अकादमी-सकादमी कै दरवाजा पर</b></div><div><b>मुँह उठाइ कै झाँकत है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हम कहतै रहिजात हैं याद करौ </b></div><div><b>बाबा तुलसी सूर अउर जायसी कै</b></div><div><b>कबीरौ कै याद कइलेव ससुर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>काहै नाक कटावत हौ कुछ तौ सोचौ</b></div><div><b>माई दादा कै मुँह पर कालिख पोतत हौ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>309</b></div><div><b>पेशाब </b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जो दिल्ली नहीं जाएंगे</b></div><div><b>साहित्य में मारे जाएंगे</b></div><div><b>इस घटिया मुहावरे पर</b></div><div><b>मैं गणेश पाण्डेय </b></div><div><b>वल्द श्याम सुन्दर पाण्डेय </b></div><div><b>साकिन पुराना ज़िला बस्ती</b></div><div><b>नया ज़िला सिद्धार्थनगर </b></div><div><b>एकमुश्त पेशाब करता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>310</b></div><div><b>सच्ची कहानियाँ</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>मेरे होने से आज कुछ नहीं बदलेगा</b></div><div><b>न लेखकों की बदनीयती न बदकिरदार </b></div><div><b>लेकिन हर दौर में कोई पागल होता है </b></div><div><b>जो आने वाले बच्चों के लिए सुनाता है</b></div><div><b>अपने वक़्त के लोगों की </b></div><div><b>सच्ची कहानियाँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>311</b></div><div><b>फ़िराक़</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>सुनते हो</b></div><div><b>मेरे बुज़ुर्ग दोस्तो अब इस उम्र में </b></div><div><b>लौंडों की फ़िराक़ में रहना छोड़ दो</b></div><div><b>अपनी अदबी आक़िबत</b></div><div><b>सुधार लो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>312</b></div><div><b>पर्दा</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>साहित्य कोई भैंस नहीं है </b></div><div><b>जिसे कोई गधा इनाम की लाठी से </b></div><div><b>हाँक सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बस किसी वक़्त में कोई कवि</b></div><div><b>चाहे कोई आलोचक या संपादक</b></div><div><b>उस पर थोड़े समय के लिए </b></div><div><b>पर्दा डाल सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उतना ही </b><b>सच </b><b>यह भी है कि कोई </b></div><div><b>सिरफिरा लेखक फ़ौरन उस पर्दे को</b></div><div><b>चर्र-चर्र फाड़ सकता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>313</b></div><div><b>चरणपादुका </b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>साठ पार करने के बाद भी</b></div><div><b>कविता पाठ के नाम पर जिनकी </b></div><div><b>लपलपाती हुई जिह्वा से </b></div><div><b>लार टपकने लगती है ऐसे</b></div><div><b>कवियों को चरणपादुका से </b></div><div><b>किसी शुभमुहूर्त में पीट देने में </b></div><div><b>बक़ौल छोटे सुकुल</b></div><div><b>कोई दोष नहीं है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>314</b></div><div><b>स्त्रैणता-वंचित </b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>भेंट-अँकवार</b></div><div><b>कंधे पर सिर रखकर रोना-धोना</b></div><div><b>नेग-आशीष लेना-देना</b></div><div><b>महिलाओं से ज़्यादा पुरुष लेखकों ने</b></div><div><b>किया और ख़ूब किया</b></div><div><b>दिल्ली भोपाल बनारस कहाँ-कहाँ नहीं</b></div><div><b>सब सब जगह गये एक मैं ही रह गया</b></div><div><b>अपने ठीहे पर सात जन्मों से अभागा</b></div><div><b>स्त्रैणता-वंचित लेखक। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>315</b></div><div><b>ट्रेन से </b><b>धक्का</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>जैसे गाँधी को</b></div><div><b>पीटरमैरिट्जबर्ग में धक्का देकर</b></div><div><b>ट्रेन से उतार दिया गया था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे भी हिन्दी के नस्ली लेखकों ने</b></div><div><b>दिल्ली जाने वाली </b><b>ट्रेन </b><b>से</b></div><div><b>गोरखपुर में धक्का देकर </b></div><div><b>उतार दिया था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर मैं कहीं नहीं गया जहाँ भी गया </b></div><div><b>मेरा नाम गया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>316</b></div><div><b>नींद</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>नींद आये तो</b></div><div><b>साहित्य के अँधेरे में आये</b></div><div><b>आहिस्ता-आहिस्ता</b></div><div><b>पुरखों को याद करते हुए </b></div><div><b>सो जाऊँ।</b></div></div><div><b><br /></b></div><div><b>317</b></div><div><b>तौहीन </b></div><div><b>--------</b></div><div><b>आप</b></div><div><b>सर्वशक्तिमान हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आपके बंदे</b></div><div><b>आपके लिए लड़ाई करें</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह तो सरासर आपकी</b></div><div><b>तौहीन है।</b></div></div><div><b><br /></b></div><div><b>318</b></div><div><b>दूसरा भगवान </b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>चिकित्सक को ही नहीं</b></div><div><b>लेखक को भी मनुष्य का </b></div><div><b>दूसरा भगवान होना चाहिए था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेखक को मनुष्य की </b></div><div><b>आत्मा की टूट-फूट का </b></div><div><b>चिकित्सक होना चाहिए था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पर हिंदी का लेखक तो बेचारा</b></div><div><b>उसी दिन मर गया जिस दिन </b></div><div><b>उसने अपनी आत्मा बेच दी।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div style="font-weight: bold;"><b>319</b></div><div style="font-weight: bold;"><b>गॉडफ़ादर</b></div></div><div><b>-------------</b></div><div><b>गॉड को फ़ादर</b></div><div><b>बनाना ठीक था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेकिन किसी लेखक को</b></div><div><b>गॉडफ़ादर बनाना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हरगिज़-हरगिज़</b></div><div><b>ठीक नहीं </b><b>था</b><b>।</b></div></div><div><b><br /></b></div><div><b>320</b></div><div><b>फूल की छड़ी</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>जिन्होंने</b></div><div><b>कविता के लिए </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फूल की छड़ी भी</b></div><div><b>हाथ में नहीं ली</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता क्या है</b></div><div><b>बताते फिरते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>321</b></div></div><div><b>वैराग्य</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>मन का क्या है कभी भी </b></div><div><b>कहीं भी किसी भी बात पर </b></div><div><b>उचट सकता है जैसे इन दिनों </b></div><div><b>हिन्दी के इस श्मशान में</b></div><div><b>वैराग्य हो गया </b><b>है </b><b>।</b></div><div><b><br /></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgY0L0uj90PPNE10rpbU-K1BCDt8btH2gcWPlb1EhInrRIg8dpsQBAvHU9ywHJBKhHbevrXoi33KpZHQuFch0WV_L0pz6Rk8LH4i-_zzzlZ6v0D_WV6hASrzFgS51r9U742NjQCAbAwQvKoU0E3h78c-GGuLKNN-3Nxx9UxdG5PJqe9X5Af7Jms6Qj1=s960" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><b><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgY0L0uj90PPNE10rpbU-K1BCDt8btH2gcWPlb1EhInrRIg8dpsQBAvHU9ywHJBKhHbevrXoi33KpZHQuFch0WV_L0pz6Rk8LH4i-_zzzlZ6v0D_WV6hASrzFgS51r9U742NjQCAbAwQvKoU0E3h78c-GGuLKNN-3Nxx9UxdG5PJqe9X5Af7Jms6Qj1=s320" width="240" /></b></a></div><b><br /></b><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-58278368040835980912022-01-11T19:40:00.007+05:302022-01-12T09:03:07.144+05:30एक सौ बीस छोटी कविताएँ<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>1</b></div><div><b>मिट्टी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>हम </b></div><div><b>जिस मिट्टी में </b></div><div><b>लोटकर बड़े होते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह </b></div><div><b>हमारी आत्मा से </b></div><div><b>कभी नहीं झड़ती।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>2</b></div><div><b>बाबा</b></div><div><b>------</b></div><div><b>बहुत से भी </b></div><div><b>बहुत कम लेखक होंगे </b></div><div><b>जिन्हें साहित्य में कभी </b></div><div><b>कृपा बरसाने वाले </b></div><div><b>किसी बाबा की ज़रूरत </b></div><div><b>नहीं हुई होगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>3</b></div><div><b>बड़ा बाजार</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>साहित्य को </b></div><div><b>बड़ा बाजार बनाया किसने</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी जी उन्हीं दो-चार लोगों ने</b></div><div><b>जिनकी आप पूजा करते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>4</b></div><div><b>जो कवि जन का है</b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>जो कवि</b></div><div><b>जितना गोरा है</b></div><div><b>चिकना है सजीला है</b></div><div><b>उसके पुट्ठे पर राजा की</b></div><div><b>उतनी ही छाप है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो कवि</b></div><div><b>जितना सुरीला है</b></div><div><b>तीखे नैन-नक्श वाला है</b></div><div><b>उसके गले में अशर्फियों की</b></div><div><b>उतनी ही बड़ी माला है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो कवि </b></div><div><b>जन का है </b></div><div><b>बेसुरा है बदसूरत है</b></div><div><b>बहुत खुरदुरा है</b></div><div><b>उम्रक़ैद भुगत रहा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>5</b></div><div><b>जीवन</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जहाँ</b></div><div><b>जीवन ज्यादा होता है</b></div><div><b>हम वहाँ रुकते ही कम हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>असल में</b></div><div><b>जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं</b></div><div><b>चमकती हुई चीज़ों के पीछे</b></div><div><b>तेज़ दौड़ना शुरू कर देते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जीवन तो कहीं पीछे से</b></div><div><b>हमें मद्धिम आवाज में </b></div><div><b>पुकारता रह जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>6</b></div><div><b>समकालीन कवि</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>जब हम </b></div><div><b>साहित्य में लड़ रहे थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तब वे किसी उत्सव में</b></div><div><b>काव्यपाठ कर रहे थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहने के लिए वे भी</b></div><div><b>समकालीन कवि थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>7</b></div><div><b>नया मुहावरा</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>साहित्य में</b></div><div><b>लड़ोगे-भिड़ोगे</b></div><div><b>तो होगे ख़राब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुंडी झुकाकर</b></div><div><b>लिखोगे-पढ़ोगे</b></div><div><b>तो होगे नवाब।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>8</b></div><div><b>काम</b></div><div><b>------</b></div><div><b>जिसका जो काम है</b></div><div><b>उसे वही करना चाहिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जैसे हर शख़्स</b></div><div><b>ख़ुशामदी नहीं हो सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह हर शख़्स</b></div><div><b>बाग़ावत नहीं कर सकता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>9</b></div><div><b>अहमक़</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>ओह ये अहमक़ </b></div><div><b>आख़िर समझेंगे कब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साहित्य को जश्न नहीं</b></div><div><b>ईमान की ज़रूरत है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>10</b></div><div><b>गालियाँ</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>कविता के पितामह ने </b></div><div><b>बिगाड़ा है मुझे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सारी गालियाँ</b></div><div><b>उन्हीं से सीखी हैं मैंने</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरा क्या करोगे भद्रजनो</b></div><div><b>जाओ कबीर से निपटो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>11</b></div><div><b>आज़माइश</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>इतना </b></div><div><b>टूटना भी ज़रूरी था</b></div><div><b>ख़ुद को आज़माने के लिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक हाथ टूट जाने दिया</b></div><div><b>फिर दूसरे हाथ से</b></div><div><b>लड़ाई की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>12</b></div><div><b>आ संग बैठ</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>तू भी </b></div><div><b>कवि है मैं भी कवि हूँ</b></div><div><b>मान क्यों नहीं लेता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब पीढ़ी एक है तो तुझे </b></div><div><b>ऊँचा पीढ़ा क्यों चाहिए</b></div><div><b>आ संग बैठ चटाई पर।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>13</b></div><div><b>कविता का मजनूँ</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>जिस कवि को</b></div><div><b>हज़ार कविताएँ लिखने के बाद</b></div><div><b>एक भी खरोंच नहीं आयी</b></div><div><b>एक ढेला न लगा सिर पर</b></div><div><b>ज़रा-सा ख़ून न बहा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कितना सुखी </b></div><div><b>सात्विक और अपने मठ का</b></div><div><b>निश्चय ही प्रधानकवि हुआ</b></div><div><b>गुणीजनो क्या वह </b></div><div><b>कविता का मजनूँ हुआ!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>14</b></div><div><b>दुरूह</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>जिस कविता में </b></div><div><b>कथ्य की रूह </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साफ़-साफ़</b></div><div><b>एकदम दिख जाय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह दुरूह नहीं है </b></div><div><b>नहीं है नहीं है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>15</b></div><div><b>दलाल</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>जो अलेखक हो</b></div><div><b>जुगाड़ का चैंपियन हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>छपने-छपाने इनाम दिलाने</b></div><div><b>मशहूर कराने में माहिर हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और देशभर के लेखकों को</b></div><div><b>मिनटों में मुर्गा बनाता हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>16</b></div><div><b>ब्रह्म</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>जिसने तबीअत से</b></div><div><b>पुरस्कार को सूँघ लिया</b></div><div><b>ब्रह्म को पा लिया </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जिसे नसीब नहीं हुआ</b></div><div><b>वह बेचारा हर जन्म में </b></div><div><b>हिन्दी का लेखक हुआ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>17</b></div><div><b>दिल्ली</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>हाशिए के लेखक</b></div><div><b>मेरे दोस्त हैं मेरी ताक़त हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरी तरह दिल्ली के</b></div><div><b>पॉवरहाउस से दूर रहते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दिल्ली उन्हें भी मेरे साथ</b></div><div><b>मिटाने के लिए विकल है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>18</b></div><div><b>भिड़ंत</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>तुम अपनी </b></div><div><b>अशरफ़ी दिखाओ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं अपना</b></div><div><b>ईमान दिखाता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>19</b></div><div><b>मार्क्सवादी</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>हिन्दी के मार्क्सवादी</b></div><div><b>चाहते हैं देश के पूँजीपतियों का</b></div><div><b>नाश हो नाश हो नाश हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और वे राजधानी में खुलेआम</b></div><div><b>हिन्दी के पूँजीपतियों का तलवा</b></div><div><b>चाटते हैं चाटते हैं चाटते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>20</b></div><div><b>लगा पीटेगा</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>यह कविता इससे पहले</b></div><div><b>लिखी क्यों नहीं गयी थी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आलोचक ने कहा तो लगा</b></div><div><b>पहले के कवियों को पीटेगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>थोड़ा डरा सोचा कि यह ख़ुद</b></div><div><b>पहले क्यों नहीं पैदा हुआ!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>21</b></div><div><b>महानता</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>भाड़ में जाए </b></div><div><b>आपकी महानता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो था सब </b></div><div><b>कह नहीं दिया तो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>22</b></div><div><b>धरती पर</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>धरती पर कोई फूल </b></div><div><b>अधखिला रह न जाए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई बात ज़रूरी हो</b></div><div><b>तो कहे बिना रह न जाए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>23</b></div><div><b>नानी की नानी</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>नानी कब याद आती हैं</b></div><div><b>जी, कठिन बात कहनी हो तब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और जब बहुत कठिन बात </b></div><div><b>कहनी हो तो तब, वत्स</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी गुरु जी, तब</b></div><div><b>नानी की नानी याद आती हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>24</b></div><div><b>नहीं देखा</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मंच की रोशनी में</b></div><div><b>फुदकते हुए चूहों को</b></div><div><b>कभी शेर में बदलते</b></div><div><b>नहीं देखा नहीं देखा</b></div><div><b>चूहों ने भी नहीं देखा </b></div><div><b>नहीं देखा नहीं देखा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>25</b></div><div><b>ये</b></div><div><b>---</b></div><div><b>मेरा ख़याल है ये अभी</b></div><div><b>गंदा खाने तक जाएंगे</b></div><div><b>आख़िर इन्हीं के समय में</b></div><div><b>पुरस्कार युग आया है</b></div><div><b>कर लेने दो खा लेने दो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>26</b></div><div><b>अधिकतम</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>लेखकों, संपादकों, आलोचकों ने</b></div><div><b>कभी कृति के न्यूतम समर्थन मूल्य की </b></div><div><b>बात </b><b>की ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इन्होंने हमेशा गोलबंद होकर</b></div><div><b>अधिकतम समर्थन मूल्य के लिए</b></div><div><b>राजधानी को घेरा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>27</b></div><div><b>कनकौआ</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>इधर के </b></div><div><b>किन-किन लेखकों के पास </b></div><div><b>कोई जुनूनी काम है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क्या पता</b></div><div><b>कनकौआ उड़ाना ही आज का</b></div><div><b>बड़ा काम हो!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>28</b></div><div><b>वहाँ</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>अच्छा हुआ</b></div><div><b>मैं वहाँ बहुत कम जाना गया </b></div><div><b>जहाँ थोड़े से आदमी रहते थे </b></div><div><b>और चूहे बहुत ज़्यादा ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>29</b></div><div><b>सुधार</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>गुप्त जी मानते थे</b></div><div><b>कि राम के चरित के सहारे</b></div><div><b>कोई भी कवि बन सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आज हैरान होते हिन्दी के इन</b></div><div><b>दुश्चरित्र कवियों को देखकर</b></div><div><b>अपने लिखे में सुधार करते</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई भी दुश्चरित्र कवि हो जाय</b></div><div><b>यह सहज संभाव्य है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>30</b></div><div><b>मज़बूत कवि</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>जैसे </b></div><div><b>बच्चे को देखकर</b></div><div><b>तंदुरुस्ती जान लेते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह</b></div><div><b>मज़बूत कवि को</b></div><div><b>दूर से पहचान लेते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>31</b></div><div><b>शायद</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में विचारों की कमी नहीं है</b></div><div><b>बस काम करना बंद कर दिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी में आदर्शों की कमी नहीं है</b></div><div><b>बस काम करना बंद कर दिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिंदी में महान लेखक कम नहीं हैं</b></div><div><b>इन लेखकों ने रास्ता बदल लिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेखक की दुनिया बदल गयी है</b></div><div><b>शायद पुरस्कार-राशि बढ़ गयी है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>32</b></div><div><b>सर्वेंट क्वार्टर</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>यह बच्चा</b></div><div><b>जब दिल्ली में लेखक बना है</b></div><div><b>वहीं पला-बढ़ा है तो जाएगा कहाँ</b></div><div><b>अमेरिका इंग्लैंड वग़ैरा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह तो अंतरराष्ट्रीय साहित्य के</b></div><div><b>सर्वेंट क्वार्टर में पैदा हुआ है</b></div><div><b>देश की नसों में मेरा ख़ून बनकर</b></div><div><b>कैसे दौड़ेगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>33</b></div><div><b>आ बेटा</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>बच्चा लेखक है </b></div><div><b>सारे अंग छोटे और कोमल होंगे</b></div><div><b>मूते भी तो मुझ तक कैसे पहुँचेगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे ही जाना होगा दिल्ली</b></div><div><b>दुलार करने आ बेटा सिर पर </b></div><div><b>कर ले मन की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>34</b></div><div><b>लीला</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मान्यवर आप लेखक हैं</b></div><div><b>और साहित्य के संघर्ष में नहीं हैं</b></div><div><b>तो आपकी भाषा चमकती हुई</b></div><div><b>स्निग्ध कोमल वग़ैरा तो होगी ही</b></div><div><b>आपकी उँगलियाँ अभी भी</b></div><div><b>स्वेटर बुनने की अभ्यस्त होंगी</b></div><div><b>काश मैं भी मूलतः स्त्री होता</b></div><div><b>मेरी हथेलियाँ खुरदुरी न होतीं</b></div><div><b>मैं गणेश नहीं लीला होता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>35</b></div><div><b>डण्डा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>वे</b></div><div><b>साहित्यपति थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उन्होंने कहा -</b></div><div><b>झण्डा लेकर चलो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैंने कहा -</b></div><div><b>डण्डा लेकर चलो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>36</b></div><div><b>लज्जा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>माइक के सामने</b></div><div><b>अख़बार के बयान में</b></div><div><b>कविता लिखते हुए </b></div><div><b>टेढ़ी हो गयी है कवि की रीढ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जहाँ झगड़ना था मीठा बोला </b></div><div><b>जहाँ तनकर खड़ा होना था झुका</b></div><div><b>जहाँ उदाहरण प्रस्तुत करना था </b></div><div><b>छिपकर जिया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>उसे सुख-शांति दीजिए न दीजिए</b></div><div><b>थोडी-सी लज्जा जरूर दीजिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>37</b></div><div><b>अकड़</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>आप हो तो ठीक है</b></div><div><b>न हो तो भी</b></div><div><b>पर हिन्दी में ऐसा वक़्त </b></div><div><b>ज़रूर आये</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब पाठक ही पाठक हों</b></div><div><b>और पाठक के पास इतना बल हो</b></div><div><b>कि कवि और आलोचक की</b></div><div><b>अकड़ तोड़कर उसकी जेब में</b></div><div><b>डाल दें।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>38</b></div><div><b>निरीह कवि</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>आये ज़रूर आये</b></div><div><b>हिन्दी में ऐसा भी वक़्त </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब आलोचक अपनी अकड़</b></div><div><b>निरीह कवि के सामने नहीं</b></div><div><b>साहित्य की सत्ता के सामने</b></div><div><b>दिखाए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>39</b></div><div><b>दिल्ली भी</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>साहित्य में</b></div><div><b>दिल्ली भी है</b></div><div><b>दिल्ली ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सुनता कौन है</b></div><div><b>देशभर के लेखक</b></div><div><b>बहरे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>40</b></div><div><b>ज्ञानी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में</b></div><div><b>इतने ज्ञानी आ गए हैं </b></div><div><b>कि पूछो मत</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ज्ञान की आंधी में</b></div><div><b>कविता की नाव </b></div><div><b>अब डूबी तब डूबी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>41</b></div><div><b>टैटू</b></div><div><b>------</b></div><div><b>नक़लची कवि</b></div><div><b>असली कवियों को</b></div><div><b>कविता पढ़ा रहे हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हँस रहे हैं चूतड़ मटका रहे हैं</b></div><div><b>उसी पर कविता का टैटू</b></div><div><b>बनवा रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>42</b></div><div><b>नोट कर लें</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>एक बात नोट कर लें</b></div><div><b>मैं किसी का पालतू</b></div><div><b>कवि नहीं हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह भी नोट कर लें</b></div><div><b>मेरा कोई पालतू</b></div><div><b>आलोचक नहीं है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर भी </b></div><div><b>कविता की पृथ्वी का</b></div><div><b>एक कण मैं भी हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>नोटबुक में </b></div><div><b>जगह न बची हो तो</b></div><div><b>जिल्द पर नोट कर लें।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>43</b></div><div><b>क़सम</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>उन्होंने</b></div><div><b>मुझे बर्बाद करने की</b></div><div><b>ज़बरदस्त क़सम खायी थी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जानकर</b></div><div><b>बहुत अफ़सोस हुआ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उनकी </b></div><div><b>अच्छी-ख़ासी क़सम </b></div><div><b>बर्बाद हो गयी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>44</b></div><div><b>बुरी बात</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>ग़ुस्सा चाहे जितना हो </b></div><div><b>किसी वाजिब बात के लिए हो</b></div><div><b>तो अच्छी बात है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ख़ुद कुछ न कर पाएँ और</b></div><div><b>ग़ुस्सा करने वाले पर खीझ हो</b></div><div><b>तो बहुत छोटी बात है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और अगर साहित्य में </b></div><div><b>ऐसी छोटी बात हो तो</b></div><div><b>बहुत बुरी बात है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>45</b></div><div><b>पत्थर हूँ</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>हाँ पत्थर हूँ</b></div><div><b>बहुत से बहुत सख़्त</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और तुम ठहरे </b></div><div><b>चलते-फिरते आदमजात</b></div><div><b>मान क्यों नहीं लेते</b></div><div><b>मेरे ऊपर सिर्फ़ प्यार से </b></div><div><b>बैठ सकते हो</b></div><div><b>दो घड़ी सुस्ता सकते हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे</b></div><div><b>अपनी राह का</b></div><div><b>पत्थर समझकर</b></div><div><b>ठोकर से हटाना चाहोगे</b></div><div><b>तो ज़ख़्मी हो जाओगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>46</b></div><div><b>पोतड़े</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>बादशाहों का</b></div><div><b>कुछ साफ़ नहीं किया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो उनके बच्चों के</b></div><div><b>पोतड़े कैसे साफ़ करूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जाओ मुझे तुमसे भी</b></div><div><b>कुछ नहीं चाहिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>47</b></div><div><b>चरणरज</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>वह </b></div><div><b>कल तक बड़ों का</b></div><div><b>चरणरज लेता था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और</b></div><div><b>आजकल छोटों का</b></div><div><b>चरणरज लेता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>48</b></div><div><b>जीना</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मित्र अब न कहो</b></div><div><b>बरस अठारह क्षत्रिय जीवे </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेखक बेचारा किसी मठ में</b></div><div><b>एक बार खड़ा नहीं हो पाता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>49</b></div><div><b>गया नहीं</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>राजधानी कोई शहर नहीं</b></div><div><b>एक बुलडोज़र है बुलडोज़र</b></div><div><b>जहाँ चूहा भी ऐंठकर चलता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अच्छा हुआ कि मैं गया नहीं</b></div><div><b>बुलडोज़र से लड़ तो जाता</b></div><div><b>चूहे से कैसे लड़ता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>50</b></div><div><b>इसीलिए</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>हिन्दी के लेखक हैं</b></div><div><b>उन्हें पता ही नहीं है</b></div><div><b>कि वे कर क्या रहे हैं </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इसीलिए</b></div><div><b>जिधर सब जा रहे हैं</b></div><div><b>उसी तरफ़ जा रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>51</b></div><div><b>परंपरा</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जैसे </b></div><div><b>बड़ी कविता की </b></div><div><b>परंपरा होती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह </b></div><div><b>ज़रूरी कविता की </b></div><div><b>परंपरा होती है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>52</b></div><div><b>नक़ली कविता</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>इधर हिन्दी कविता में ख़ूब</b></div><div><b>झूठमूठ की चीज़ें मिल जाएंगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कवि के जीवन से विरत</b></div><div><b>नक़ली कविता यहीं संभव है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>53</b></div><div><b>ठग</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>आज की तारीख़ में </b></div><div><b>किसी कवि को कविता में </b></div><div><b>बारीक बुनावट करते देखो</b></div><div><b>चाहे मामूली कविता को</b></div><div><b>ख़ूब चिकना करते देखो</b></div><div><b>तो समझ जाओ कि वह </b></div><div><b>कवि नहीं कविता का ठग है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>54</b></div><div><b>जुनूनी काम</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>मित्र से पूछा</b></div><div><b>इधर के किसी कवि को</b></div><div><b>कविता में जुनूनी काम</b></div><div><b>करते देखा है</b></div><div><b>मित्र ने कहा कुछ नहीं</b></div><div><b>बस मेरी तरफ़ देखते रहे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>55</b></div><div><b>ये लेखक</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>अंग्रेज़ों से </b></div><div><b>ग़लती हो गयी</b></div><div><b>बड़ी ग़लती हो गयी</b></div><div><b>वे सौ साल बाद आये होते</b></div><div><b>तो आज के हिन्दी के ये लेखक </b></div><div><b>आज़ादी की लड़ाई होने ही नहीं देते!</b></div><div><b>आख़िर साहित्यिक मुक्ति के लिए</b></div><div><b>लड़ाई कहाँ की!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>56</b></div><div><b>कविता की शक्ति</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>आज का आलोचक ख़ुद</b></div><div><b>अपने दिमाग़ की खिड़कियाँ खोले </b></div><div><b>आँखों के जाले ख़ुद साफ़ करे</b></div><div><b>मज़बूत कविता की खोज करे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं अपनी कविता की शक्ति से</b></div><div><b>घोड़े को शेर में बदल सकता हूँ</b></div><div><b>गधे आलोचकों को घोड़ा बनाना </b></div><div><b>मेरा काम नहीं है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>57</b></div><div><b>मास्टर</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>वे सब आलोचक कहाँ थे</b></div><div><b>वे तो हिन्दी के मास्टर थे</b></div><div><b>जितना पढ़ा पढ़ाया</b></div><div><b>उतना ही लिखा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी का मास्टर होकर भी</b></div><div><b>मैं आजीवन कार्यकर्ता ही रहा</b></div><div><b>कविता का मास्टर बनने का </b></div><div><b>कभी सोचा ही नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>58</b></div><div><b>आदर्श</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>मैंने कहा </b></div><div><b>तू मेरे गाँव का है</b></div><div><b>बच्चा संपादक है तो क्या हुआ</b></div><div><b>मेरी तरह बहादुर-शहादुर बन</b></div><div><b>चल मर्दाना कविताएँ छाप</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह </b></div><div><b>तनिक भी नहीं बदला</b></div><div><b>देशभर के नचनिया कवि </b></div><div><b>उसके आदर्श थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>59</b></div><div><b>चाटना </b></div><div><b>---------</b></div><div><b>ईमान नहीं है</b></div><div><b>तो विचारधारा कुछ नहीं है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सिर्फ़ चाटने </b></div><div><b>और चाटते रहने की चीज़ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>60</b></div><div><b>आत्मसंघर्ष</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>आप छत्तीस साल के युवा हैं</b></div><div><b>लेकिन लिख कितने साल से रहे हैं</b></div><div><b>आत्मसंघर्ष की उम्र कितनी है</b></div><div><b>कभी किया भी है या नहीं</b></div><div><b>लेखक के जीवन में चिंगारी </b></div><div><b>सिर्फ़ किताबों से पैदा होती तो </b></div><div><b>दुनिया में रोशनी ही रोशनी होती</b></div><div><b>मेरे बच्चे जीवन में रगड़ से</b></div><div><b>पैदा होती है असल रोशनी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>61</b></div><div><b>लेखक-प्रकाशक</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>मानता हूँ </b></div><div><b>अच्छा रिश्ता होता है</b></div><div><b>लेखक और प्रकाशक के बीच</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेकिन एक सच्चा लेखक</b></div><div><b>किसी प्रकाशक के लिए </b></div><div><b>पैदा नहीं होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसे तो अपने लोग </b></div><div><b>और अपनी भाषा के लिए</b></div><div><b>जीना-मरना होता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>62</b></div><div><b>खड़ी कविताएँ</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>वह ढिलपुक संपादक</b></div><div><b>मुझे पसंद नहीं करता</b></div><div><b>क्योंकि मैं खड़ी कविताएँ</b></div><div><b>लिखता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और वह</b></div><div><b>लेटी हुई कविताओं का</b></div><div><b>सोलह शृंगार करके</b></div><div><b>छापता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>63</b></div><div><b>दोहराव</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>कविता का उद्देश्य बड़ा है</b></div><div><b>और कवि भी जुनूनी है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो अलग-अलग ढंग से </b></div><div><b>कोई बात कहना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दोहराव नहीं असाधारण</b></div><div><b>चोट की निरंतर है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>64</b></div><div><b>अंतिम बल्लेबाज़</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>मेरे एक मित्र </b></div><div><b>बड़े मज़ाक़िया हैं</b></div><div><b>मुझे अपनी पीढ़ी का </b></div><div><b>अंतिम बल्लेबाज़ कहते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहते हैं</b></div><div><b>बाक़ी सस्ते में निपट गये</b></div><div><b>कविता में सारे चौके छक्के</b></div><div><b>अब मुझे ही लगाने हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>65</b></div><div><b>दोस्ती</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>लेखक का साथ</b></div><div><b>लेखक के चरित्र का </b></div><div><b>जासूस होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बता देता है कि यह लेखक</b></div><div><b>किस तरह के साहित्य के</b></div><div><b>गिरोह में शामिल है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर आप हुआ करें कुछ भी</b></div><div><b>गणेश पाण्डेय की दोस्ती के</b></div><div><b>क़ाबिल नहीं रह जाते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>66</b></div><div><b>निजी विचार</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>साहित्य </b></div><div><b>मनुष्यता का अभियान है</b></div><div><b>और कविता उस अभियान की बेटी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आज के कवियों </b></div><div><b>और आलोचकों के बारे में</b></div><div><b>मेरा निजी विचार यह कि ये दोनों </b></div><div><b>कविता के सीरियल रेपिस्ट हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>67</b></div><div><b>पाठक</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>आज की कविता का </b></div><div><b>कोई पाठक बहुत हुआ तो</b></div><div><b>खेत कोड़ने जितना श्रम कर देगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता की आत्मा तक</b></div><div><b>पहुँचने के लिए मौत के कुएँ में</b></div><div><b>मोटरसाइकिल नहीं चलाएगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>68</b></div><div><b>कवि</b></div><div><b>------</b></div><div><b>कवि का काम है</b></div><div><b>पाठक की तरफ़ हाथ बढ़ाना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>किसी दरबार में मुजरा करना </b></div><div><b>किसी क़ीमत पर नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>68</b></div><div><b>ख़रगोश</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>हिन्दी के एक</b></div><div><b>कछुए की क्या हैसियत है</b></div><div><b>कोई उसे देखता ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कछुआ अक्सर फर्राटे से</b></div><div><b>दौड़ते हुए लेखकों को देखता है</b></div><div><b>और सोचता रहता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ये हृष्टपुष्ट ख़रगोश </b></div><div><b>थकेंगे तो नहीं बेचारे अधबीच में</b></div><div><b>सो तो नहीं जाएंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>70</b></div><div><b>स्त्रीमुक्ति</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>कविता में </b></div><div><b>प्रेम से आगे का</b></div><div><b>सब हो गया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अर्थात कविता में</b></div><div><b>स्त्रीमुक्ति का काम</b></div><div><b>पूरा हो गया था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>71</b></div><div><b>अहंकार</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>राजधानी की माया </b></div><div><b>विचित्र है कि मठ का </b></div><div><b>नन्हा-सा चूहा भी ख़ुद को</b></div><div><b>मठाधीश समझता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>न मुझे सलाम करता है </b></div><div><b>न मुझसे छापने के लिए </b></div><div><b>कविताएँ माँगता है ताऊ हूँ</b></div><div><b>फिर भी अहंकार देखो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>72</b></div><div><b>सीढ़ी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में कुछ लेखक</b></div><div><b>लेखक कम होते हैं </b></div><div><b>सीढ़ी अधिक</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>किसी से बताना मत </b></div><div><b>कि ये सीढ़ी लेखक</b></div><div><b>दिल्ली में अधिक होते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>73</b></div><div><b>नंगा कीजिए</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>कोई लेखक</b></div><div><b>नाम-इनाम का विरोध करता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो ख़ुद को ईमानदार लेखक</b></div><div><b>क्यों नहीं समझ सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क्या वह बाक़ी लेखकों की तरह है</b></div><div><b>है तो उसे नंगा कीजिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>74</b></div><div><b>फ़ाइल</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>कवि जी बहुत हुआ</b></div><div><b>पुरानी फ़ाइलें जमा करना</b></div><div><b>मुंशी जी का काम है</b></div><div><b>आपका नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आपकी ड्यूटी</b></div><div><b>नयी फ़ाइल बनाने की है</b></div><div><b>ज़रूरी फ़ाइल बनाने की है</b></div><div><b>झट से आगे बढ़ाने की है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>75</b></div><div><b>कारख़ाना</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>कुछ लेखक</b></div><div><b>लिखने का कारख़ाना होते हैं</b></div><div><b>उनके कारख़ाने में सोचने का </b></div><div><b>पुर्ज़ा नहीं लगा होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कभी जान ही नहीं पाते</b></div><div><b>कि इतना फ़ालतू सामान</b></div><div><b>क्यों तैयार किया क्या होगा</b></div><div><b>बस लिखते हैं लिखते जाते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>76</b></div><div><b>तुम</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>तुम्हें लगता है कि वह ग़लत है</b></div><div><b>सीने में बर्छी जैसी चुभती हैं</b></div><div><b>उसकी बातें और कविताएँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम वैसा कर भी नहीं सकते</b></div><div><b>और वैसा करते हुए उसे</b></div><div><b>देखना भी चाहते हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>77</b></div><div><b>बुरा</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>बुरा लगता है</b></div><div><b>बहुत बुरा लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब हिन्दी का चोट्टा</b></div><div><b>मर्यादित भाषा का</b></div><div><b>पाठ पढ़ाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी करता है</b></div><div><b>मुँह तोड़ दूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>78</b></div><div><b>विशेषाधिकार</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>वह चरित्रहीन होकर भी</b></div><div><b>क्रांति की बात कर सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सिर्फ़ हिन्दी के लेखक को</b></div><div><b>यह विशेषाधिकार है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>79 </b></div><div>आन बाट</div><div>------------</div><div>लेखको</div><div>मरे हुए तो हो ही</div><div>जब भी जाओगे ऊपर</div><div>बाबा कबीर गेट पर बैठे मिलेंगे</div><div>हाथ में जलता हुआ चैला लिए</div><div>पूछेंगे मरे हुए क्यों पैदा हुए थे</div><div>झूठ बोलोगे तो फँस जाओगे</div><div>सच कहोगे आन बाट से आया</div><div>तो शायद दागे जाने से बच जाओगे।</div><div><b><br /></b></div><div><b>80</b></div><div><b>अजीब बात</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>झूठ बोलता हुआ</b></div><div><b>इस देश का हर आदमी</b></div><div><b>हिन्दी का कवि लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कितनी अजीब बात है</b></div><div><b>झूठ बोलने वाला अब</b></div><div><b>राजनेता नहीं लगता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>81</b></div><div><b>लड़वैया</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>अगर तुम</b></div><div><b>पहले के लड़वैया की</b></div><div><b>इज़्ज़त नहीं करते</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो तुम </b></div><div><b>कवि वग़ैरा हो सकते हो</b></div><div><b>लड़वैया नहीं हो सकते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>82</b></div><div><b>तर्क के जूते</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>मुझे एक दो नहीं</b></div><div><b>सौ जूते चाहिए थे</b></div><div><b>मेरा दिमाग़ खराब था</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरा दुर्भाग्य देखिए</b></div><div><b>हिन्दी में किसी के पास</b></div><div><b>तर्क के जूते ही नहीं थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>83</b></div><div><b>जमात</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>मैं उस जमात को</b></div><div><b>वक़्त पर छोड़ नहीं आया होता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो पूरी ज़िन्दगी</b></div><div><b>चिलम सुलगाता रह गया होता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>84</b></div><div><b>मेरे सामने</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>यह तो कोई बेईमान </b></div><div><b>आलोचक ही कह सकता है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आलोचना की आलोचना </b></div><div><b>बुरा काम है आलोचना नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं चाहता हूँ कि मेरे सामने</b></div><div><b>मेरे लिखे की धज्जियाँ उड़ाएँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>85</b></div><div><b>नया बाग़ी</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>बीस साल पहले सोचा </b></div><div><b>नहीं था यह सब करूँगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उड़िए मत आप जानते हैं</b></div><div><b>बीस साल बाद क्या होगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बीस साल में हिन्दी में</b></div><div><b>नया बाग़ी पैदा हो जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>86</b></div><div><b>नाराज़ कवि</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>नाराज़ कवि के हाथ में</b></div><div><b>सोना-चांदी फूल-पत्ती वग़ैरा नहीं</b></div><div><b>मामूली पत्थर है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता के सभासदो देखो तो</b></div><div><b>उसने तुम्हारे राजा के महल के</b></div><div><b>काँच पर कैसे दे मारा है दनादन।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>87</b></div><div><b>दोस्त</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>वह मेरा दोस्त था</b></div><div><b>और दोस्त जैसा नहीं था</b></div><div><b>मेरे दुश्मनों से डरता था</b></div><div><b>उसने न कभी दुश्मन बनाये</b></div><div><b>न किसी से कोई लड़ाई की</b></div><div><b>वह मेरा दोस्त कैसे हो सकता था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>88</b></div><div><b>गिनतीकार</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>गिनतीकार</b></div><div><b>आलोचकों ने</b></div><div><b>रोज़-रोज़ कविगणना </b></div><div><b>और श्रेणीबद्धता से</b></div><div><b>माठा नहीं कर रखा होता</b></div><div><b>तो मैं भला उनके ख़िलाफ़</b></div><div><b>सख़्त कार्रवाई क्यों करता</b></div><div><b>कि छोटे सुकुल समेत </b></div><div><b>फाट पड़ता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>89</b></div><div><b>मार दो</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>कविता </b></div><div><b>जब हिन्दी के शोहदों के सामने </b></div><div><b>भय से थरथर काँप रही है</b></div><div><b>एक डरा हुआ आलोचक</b></div><div><b>जो ख़ुद की हिफ़ाज़त नहीं सकता</b></div><div><b>हिंदी कविता की आबरू</b></div><div><b>ख़ाक बचाएगा सबसे पहले </b></div><div><b>उसे मार दो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>90</b></div><div><b>नाराज़ कवि</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>नाराज़ कवि के हाथ में</b></div><div><b>सोना-चांदी फूल-पत्ती वग़ैरा नहीं</b></div><div><b>मामूली पत्थर है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता के सभासदो देखो तो</b></div><div><b>उसने तुम्हारे राजा के महल के</b></div><div><b>काँच पर कैसे दे मारा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>91</b></div><div><b>आत्मा</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>किसी को</b></div><div><b>अपशब्दों की बौछार से</b></div><div><b>लज्जित करना चाहोगे तो</b></div><div><b>वह सिर्फ़ नाराज़ होगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और</b></div><div><b>उसकी आँख में</b></div><div><b>आँख डालकर तर्क करोगे</b></div><div><b>तो उसकी आत्मा लज्जित होगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>92</b></div><div><b>बेचैनी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>न सबद लिखता हूँ</b></div><div><b>न रमैनी लिखता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कविता का </b></div><div><b>छोटा-मोटा कार्यकर्ता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साखी जैसी बस</b></div><div><b>अपनी बेचैनी लिखता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>93</b></div><div><b>कर्ज़</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>जिस</b></div><div><b>आलोचक की आलोचना में</b></div><div><b>ईमान का छंद नहीं होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वही</b></div><div><b>प्राय: कविता में छंद के लिए</b></div><div><b>आठ-आठ आँसू रोता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>असल में</b></div><div><b>उसे कुछ कवियों से लिया गया</b></div><div><b>पुराना कर्ज़ चुकाना होता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>94</b></div><div><b>मैं</b></div><div><b>---</b></div><div><b>मैं जब</b></div><div><b>कविता में </b></div><div><b>मैं लिखता हूँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तो </b></div><div><b>पुरस्कार का नहीं</b></div><div><b>हिन्दी का मैं लिखता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>95</b></div><div><b>भरोसा</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>उसके हाथ में डायरी थी</b></div><div><b>उसमें कई नंबर और पते थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरे पास सिर्फ़ दो हाथ थे</b></div><div><b>मुझे उन्हीं पर भरोसा करना था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>96</b></div><div><b>पंडिज्जी</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>पंडिज्जी की कोठी थी</b></div><div><b>मेरे पास थी मड़ई थी इसीलिए </b></div><div><b>वे मुझे पड़ोसी मानते नहीं थे</b></div><div><b>मैं हिन्दी की ज़मीन में रोज़</b></div><div><b>कुआँ खोदता रोज़ पानी पीता</b></div><div><b>एक-एक ईंट जोड़कर जब मैंने </b></div><div><b>हिन्दी की मीनार खड़ी कर दी</b></div><div><b>तो वे रातों में छिप-छिपकर</b></div><div><b>उसे देखते थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>97</b></div><div><b>ईमान</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में</b></div><div><b>पहले भी हुआ है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ईमान के</b></div><div><b>चींटी जैसे पैर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बेईमानी के हाथी को</b></div><div><b>कुचल सकते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>98</b></div><div><b>अशुभ योग</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>कवियो कहीं भी सो जाना</b></div><div><b>चारपाई पर चाहे ज़मीन पर</b></div><div><b>किसी भी तरफ़ पैर कर लेना</b></div><div><b>भूलकर भी दिल्ली की दिशा में</b></div><div><b>सिर करके मत सोना</b></div><div><b>बोले तो अशुभ योग है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>99</b></div><div><b>दुर्दशा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मेरे पुरखे</b></div><div><b>प्राचीन कवि गोरखनाथ होते तो</b></div><div><b>हिन्दी की दुर्दशा पर चुप नहीं रहते</b></div><div><b>अलबत्ता इस शहर के बाक़ी कवि</b></div><div><b>उनके होने पर भी चुप रहते।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>100</b></div><div><b>वैशाखनंदन</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>मूर्ख लेखक को</b></div><div><b>गधा या लेंड़ी वग़ैरा</b></div><div><b>कैसे कह सकते थे </b></div><div><b>पवित्र भाषा हिन्दी में </b></div><div><b>छोत भी तो नहीं कह सकते थे </b></div><div><b>चुगद पहले कहा जा चुका था </b></div><div><b>इसलिए गधा कहा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>101</b></div><div><b>दण्ड</b></div><div><b>------</b></div><div><b>मैंने जिन </b></div><div><b>लेखकों के रहस्य खोले</b></div><div><b>और उनके अतिसौंदर्यप्रसाधनयुक्त</b></div><div><b>मुखमंडल पर कालिख पोती</b></div><div><b>मुझे उनसे दण्ड मिलना</b></div><div><b>स्वाभाविक था</b></div><div><b>उन्होंने मुझे सर्वसम्मति से</b></div><div><b>जातिबहिष्कृत किया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>102</b></div><div><b>अपकीर्ति</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मेरे समय में</b></div><div><b>हिन्दी के समुद्र में मंथन हुआ</b></div><div><b>तो कुछ को पाँच टके का सिक्का</b></div><div><b>कुछ को हज़ार का कुछ को </b></div><div><b>लाख का आभूषण</b></div><div><b>कुछ को हीरे से सुसज्जित मुकुट</b></div><div><b>मेरे हिस्से में विलक्षण वस्तु आयी</b></div><div><b>अपकीर्ति का बहुमूल्य चमड़ा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>103</b></div><div><b>मिशन</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>यह धंधे का समय है</b></div><div><b>क्या साहित्य क्या पत्रकारिता</b></div><div><b>क्या धर्म क्या राजनीति क्या शिक्षा</b></div><div><b>मिशन का नाम लेंगे तो सीधे</b></div><div><b>सूली पर चढ़ा दिए जाएंगे</b></div><div><b>जैसे मुझे साहित्य में</b></div><div><b>सूली पर चढ़ा दिया गया।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>104</b></div><div><b>सरल रेखा</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>सरल रेखा </b></div><div><b>सबको अच्छी लगती है</b></div><div><b>चुपचाप मुंडी झुकाये चलते जाने में</b></div><div><b>कोई मुश्किल भी नहीं होती है</b></div><div><b>कोई दर्द नहीं कोई शर्म नहीं</b></div><div><b>जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलना </b></div><div><b>हिन्दी के लेखकों के लिए भी</b></div><div><b>सरल नहीं होता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>105</b></div><div><b>बड़का कबी</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>कुछ कबी तौ </b></div><div><b>बिल्कुल्लै मज़ेदार कबीता लिखि रहै हैं</b></div><div><b>गजबै करत हैं पुरान कोल्हू है बैल नवा</b></div><div><b>न कौनो चीरा-टाका न कौनो दर्द-सर्द</b></div><div><b>पेटौ ठीक से फूला नाहीं नौ महीना</b></div><div><b>एक मिनट में कबीता-फबीता होइगै</b></div><div><b>दाँत चियारि-चियारि खेलावत हैं</b></div><div><b>ज़मीदारन कै पैर दबावा टोटका आज़मावा</b></div><div><b>डिल्ली पहुँचि कै बड़का कबी होइगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>106</b></div><div><b>भैंस</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>साहित्य </b></div><div><b>कोई भैंस नहीं है </b></div><div><b>जिसे कोई इनाम की लाठी से </b></div><div><b>हाँक सकता है!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>107</b></div><div><b>तू </b></div><div><b>--</b></div><div><b>तू किताब पढ़</b></div><div><b>मैं जिन्दगी को पढ़ता हूँ</b></div><div><b>तू ज्ञान के शिखर चूम</b></div><div><b>मैं गिरे हुए को उठाता हूँ</b></div><div><b>तू इनाम ले</b></div><div><b>मैं खुद को मिटाता हूँ</b></div><div><b>तू अकादमी जा </b></div><div><b>मैं उस पर थूकता हूँ</b></div><div><b>तू दिल्ली जा</b></div><div><b>मैं टिकट फाड़ता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>108</b></div><div><b>बच्चों की प्रतीक्षा</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>जब</b></div><div><b>बच्चे बहुत छोटे थे</b></div><div><b>नौकरी पर जाते समय</b></div><div><b>हाथ पकड़कर झूल जाते थे</b></div><div><b>पीठ पर चढ़ जाते थे</b></div><div><b>पैरों से लिपट जाते थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अब</b></div><div><b>मैं रिटायर हो गया हूं</b></div><div><b>बच्चे बाहर काम पर हैं</b></div><div><b>मेरे पैर मेरे कंधे मेरी बाहें सब </b></div><div><b>घर पर बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>109</b></div><div><b>कितने दिन रह गये हैं</b></div><div><b>-------------------------</b></div><div><b>होली में</b></div><div><b>कितने दिन रह गये हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पूछता हूं पत्नी से, कहती हैं</b></div><div><b>रोज एक ही बात पूछते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>चुप हो जाता हूं दूर से</b></div><div><b>चुपचाप कैलेंडर देखता हूं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मोबाइल में ढूंढता हूं</b></div><div><b>होली की तिथि दिन गिनता हूं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रिटायर हो गया हूं न, बच्चे आएंगे</b></div><div><b>तो फिर काम पर लग जाऊंगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>110</b></div><div><b>बच्चे आ गये हैं</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई चिड़िया पीछे से</b></div><div><b>सिर पर पंख फड़फड़ाती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई तितली </b></div><div><b>चुपके से कंधे पर बैठ जाती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई हिरन </b></div><div><b>सामने से कुलांचे भरता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई शावक टीवी पर </b></div><div><b>धूप में बाघिन के मुंह चूमता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई शख्स</b></div><div><b>दरवाजे की कुंडी खटखटाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई जहाज</b></div><div><b>हवाई अड्डे पर उतरता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई पीछे से</b></div><div><b>मुझसे जोर से लिपट जाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हजार बातें हैं पता चल जाता है</b></div><div><b>बच्चे आ गये हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>111</b></div><div><b>देखना</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>उस रात प्रीतिभोज में </b></div><div><b>उसके साथ एक बच्चा था</b></div><div><b>बड़ा प्यारा था</b></div><div><b>खरगोश की तरह</b></div><div><b>देखता था सबको</b></div><div><b>मुझे भी ।</b></div><div><b>और उसने भी मुझे देखा था</b></div><div><b>जैसे नहीं देखा था</b></div><div><b>मैंने देखा था।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>112</b></div><div><b>उठा है मेरा हाथ</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>मैं जहाँ हूँ</b></div><div><b>खड़ा हूँ अपनी जगह </b></div><div><b>उठा है मेरा हाथ ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रुको पवन</b></div><div><b>मेरे हिस्से की हवा कहाँ है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बताओ सूर्य </b></div><div><b>किसे दिया है मेरा प्रकाश ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहाँ हो वरुण</b></div><div><b>कब से प्यासी है मेरी आत्मा ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सुनो विश्वकर्मा</b></div><div><b>मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए </b></div><div><b>मुझे जाना है संसद कोड़ने ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>113</b></div><div><b>उनका कोश</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>सबके काम आते थे </b></div><div><b>सबसे काम लेते थे </b></div><div><b>बड़े काम-काजी थे। </b></div><div><b>हर जगह थी उनकी पूछ । </b></div><div><b>असल में, उनके कोश में </b></div><div><b>अकरणीय कुछ था ही नहीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>114</b></div><div><b>गौरैया</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>इतने बड़े आसमान में </b></div><div><b>मेरी नन्ही गौरैया</b></div><div><b>जिसके हर हिस्से में </b></div><div><b>हजार इच्छाएँ </b></div><div><b>आसमान से बड़ी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>115</b></div><div><b>मेरा बेटा</b></div><div><b>-----------</b></div><div><b>मेरा बेटा</b></div><div><b>कंधे पर बैठा हुआ </b></div><div><b>भरता है किलकारियाँ</b></div><div><b>दिखाता है आसमान को</b></div><div><b>ठेंगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>116</b></div><div><b>क्यों नहीं करते</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>इस पिद्दी को तो देखो </b></div><div><b>कितनी देर से कर रहा है </b></div><div><b>इतने बड़े देश के साथ </b></div><div><b>हँसी-ठट्ठा।</b></div><div><b>कहाँ हैं लोग </b></div><div><b>क्यों नहीं करते</b></div><div><b>इसका मुँह बंद।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>117</b></div><div><b>हिंदी की चींटी</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>मेरा क्या</b></div><div><b>मैं हिंदी की चींटी</b></div><div><b>चले गये सब हिंदीपति</b></div><div><b>योद्धा बड़े-बड़े</b></div><div><b>कुछ अप्रिय कुछ मीठा लेकर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उस पथ पर</b></div><div><b>मैं चींटी हिंदी की मतवाली</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क्यों छेड़े कोई मुझको</b></div><div><b>कोई हाथी कोई घोड़ा</b></div><div><b>चाहे कोई और।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>118</b></div><div><b>एक भिण्डी</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>यह जो छूट गयी थी </b></div><div><b>थैले में अपने समूह से </b></div><div><b>अभी-अभी अच्छी-भली थी</b></div><div><b>अभी-अभी रूठ गयी थी </b></div><div><b>एक भिण्डी ही तो थी </b></div><div><b>और एक भिण्डी की आबरू भी क्या </b></div><div><b>मुँह फेरते ही मर गयी थी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>119</b></div><div><b>याद रहे पर</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>ये लो पहले हाथ </b></div><div><b>फिर काटो दोनों पैर</b></div><div><b>गर्दन काटो</b></div><div><b>बोटी-बोटी कर दो</b></div><div><b>मेरी देह।</b></div><div><b>कहीं फेंक दो</b></div><div><b>कहीं झोंक दो</b></div><div><b>याद रहे पर</b></div><div><b>लपट उठेगी ऊँची-ऊँची</b></div><div><b>हर हिस्से से।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>120</b></div><div><b>प्रतिबंध</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>बच्चे समझाते हैं, पिताजी </b></div><div><b>किसी भी प्रकार का संसार हो</b></div><div><b>चूतियों से भरा हुआ है</b></div><div><b>साहित्य का भी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आप ख़ून न जलाएँ</b></div><div><b>चाहें तो उनका मुँह न देखें जाने दें</b></div><div><b>आप उनकी ईश्वर प्रदत्त अलौकिक </b></div><div><b>मूर्खता की नवीन प्रस्तुतियों पर</b></div><div><b>चाहकर भी प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b> </b><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhImaWsEiE-LoT5KFhmU2DrGP4WBif6dPLr_xc01PLcxQPnNzHxWhnxf4HRvWrDogigbkzh3fG13vyiE1SAucEaFFNXVFIDICHcw_59Z0LieCwmlSiVrSztcwR3d04xUXkPmmee63utrtIuZlQGZ2ZHuSOQ1epNsNqKjbxws28MX5AGUnaePGd-mheu=s808" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><b><img border="0" data-original-height="808" data-original-width="461" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhImaWsEiE-LoT5KFhmU2DrGP4WBif6dPLr_xc01PLcxQPnNzHxWhnxf4HRvWrDogigbkzh3fG13vyiE1SAucEaFFNXVFIDICHcw_59Z0LieCwmlSiVrSztcwR3d04xUXkPmmee63utrtIuZlQGZ2ZHuSOQ1epNsNqKjbxws28MX5AGUnaePGd-mheu=s320" width="183" /></b></a></div><b><br /> </b></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-3740282437429318062022-01-05T14:10:00.001+05:302022-01-05T16:04:13.144+05:30इकतालीस छोटी कविताएँ<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div>(जैसे युद्ध सिर्फ़ मिसाइलों से नहीं होता, कई छोटे हथियारों और एके दो सौ तीन वग़ैरा की भी ज़रूरत पड़ती है, उसी तरह इधर तमाम लंबी कविताओं के बाद छोटी कविताओं की झड़ी लग गयी है। कहना और आभार स्वीकार करना ज़रूरी है कि कविमित्र योगेंद्र कृष्णा जी ने मेरी तमाम छोटी कविताओं के पोस्टर बनाये हैं। साहित्य के इस संघर्ष में उनकी संलग्नता प्रीतिकर है।)</div><div><br /></div><div><b>1</b></div><div><b>मिट्टी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>हम </b></div><div><b>जिस मिट्टी में </b></div><div><b>लोटकर बड़़े होते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह </b></div><div><b>हमारी आत्मा से </b></div><div><b>कभी नहीं झड़ती।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>2</b></div><div><b>बाबा</b></div><div><b>------</b></div><div><b>बहुत से भी </b></div><div><b>बहुत कम लेखक होंगे </b></div><div><b>जिन्हें साहित्य में कभी </b></div><div><b>कृपा बरसाने वाले </b></div><div><b>किसी बाबा की ज़रूरत </b></div><div><b>नहीं हुई होगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>3</b></div><div><b>बड़ा बाजार</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>साहित्य को </b></div><div><b>बड़ा बाजार बनाया किसने</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी जी उन्हीं दो-चार लोगों ने</b></div><div><b>जिनकी आप पूजा करते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>4</b></div><div><b>जो कवि जन का है</b></div><div><b>------------------------</b></div><div><b>जो कवि</b></div><div><b>जितना गोरा है</b></div><div><b>चिकना है सजीला है</b></div><div><b>उसके पुट्ठे पर राजा की</b></div><div><b>उतनी ही छाप है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो कवि</b></div><div><b>जितना सुरीला है</b></div><div><b>तीखे नैन-नक्श वाला है</b></div><div><b>उसके गले में अशर्फियों की</b></div><div><b>उतनी ही बड़ी माला है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो कवि </b></div><div><b>जन का है </b></div><div><b>बेसुरा है बदसूरत है</b></div><div><b>बहुत खुरदुरा है</b></div><div><b>उम्रक़ैद भुगत रहा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>5</b></div><div><b>जीवन</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>जहाँ</b></div><div><b>जीवन ज्यादा होता है</b></div><div><b>हम वहाँ रुकते ही कम हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>असल में</b></div><div><b>जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं</b></div><div><b>चमकती हुई चीज़ों के पीछे</b></div><div><b>तेज़ दौड़ना शुरू कर देते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जीवन तो कहीं पीछे से</b></div><div><b>हमें मद्धिम आवाज में </b></div><div><b>पुकारता रह जाता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>6</b></div><div><b>समकालीन कवि</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b>जब हम </b></div><div><b>साहित्य में लड़ रहे थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तब वे किसी उत्सव में</b></div><div><b>काव्यपाठ कर रहे थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कहने के लिए वे भी</b></div><div><b>समकालीन कवि थे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>7</b></div><div><b>नया मुहावरा</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>साहित्य में</b></div><div><b>लड़ोगे-भिड़ोगे</b></div><div><b>तो होगे ख़राब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुंडी झुकाकर</b></div><div><b>लिखोगे-पढ़ोगे</b></div><div><b>तो होगे नवाब।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>8</b></div><div><b>काम</b></div><div><b>------</b></div><div><b>जिसका जो काम है</b></div><div><b>उसे वही करना चाहिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जैसे हर शख़्स</b></div><div><b>ख़ुशामदी नहीं हो सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह हर शख़्स</b></div><div><b>बाग़ावत नहीं कर सकता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>9</b></div><div><b>अहमक़</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>ओह ये अहमक़ </b></div><div><b>आख़िर समझेंगे कब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साहित्य को जश्न नहीं</b></div><div><b>ईमान की ज़रूरत है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>10</b></div><div><b>गालियाँ</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>कविता के पितामह ने </b></div><div><b>बिगाड़ा है मुझे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सारी गालियाँ</b></div><div><b>उन्हीं से सीखी हैं मैंने</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरा क्या करोगे भद्रजनो</b></div><div><b>जाओ कबीर से निपटो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>11</b></div><div><b>आज़माइश</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>इतना </b></div><div><b>टूटना भी ज़रूरी था</b></div><div><b>ख़ुद को आज़माने के लिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक हाथ टूट जाने दिया</b></div><div><b>फिर दूसरे हाथ से</b></div><div><b>लड़ाई की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>12</b></div><div><b>आ संग बैठ</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>तू भी </b></div><div><b>कवि है मैं भी कवि हूँ</b></div><div><b>मान क्यों नहीं लेता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब पीढ़ी एक है तो तुझे </b></div><div><b>ऊँचा पीढ़ा क्यों चाहिए</b></div><div><b>आ संग बैठ चटाई पर।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>13</b></div><div><b>कविता का मजनूँ</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>जिस कवि को</b></div><div><b>हज़ार कविताएँ लिखने के बाद</b></div><div><b>एक भी खरोंच नहीं आयी</b></div><div><b>एक ढेला न लगा सिर पर</b></div><div><b>ज़रा-सा ख़ून न बहा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कितना सुखी </b></div><div><b>सात्विक और अपने मठ का</b></div><div><b>निश्चय ही प्रधानकवि हुआ</b></div><div><b>गुणीजनो क्या वह </b></div><div><b>कविता का मजनूँ हुआ!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>14</b></div><div><b>दुरूह</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>जिस कविता में </b></div><div><b>कथ्य की रूह </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>साफ़-साफ़</b></div><div><b>एकदम दिख जाय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह दुरूह नहीं है </b></div><div><b>नहीं है नहीं है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>15</b></div><div><b>दलाल</b></div><div><b>---------</b></div><div><b>जो अलेखक हो</b></div><div><b>जुगाड़ का चैंपियन हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>छपने-छपाने इनाम दिलाने</b></div><div><b>मशहूर कराने में माहिर हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और देशभर के लेखकों को</b></div><div><b>मिनटों में मुर्गा बनाता हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>16</b></div><div><b>ब्रह्म</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>जिसने तबीअत से</b></div><div><b>पुरस्कार को सूँघ लिया</b></div><div><b>ब्रह्म को पा लिया </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जिसे नसीब नहीं हुआ</b></div><div><b>वह बेचारा हर जन्म में </b></div><div><b>हिन्दी का लेखक हुआ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>17</b></div><div><b>दिल्ली</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>हाशिए के लेखक</b></div><div><b>मेरे दोस्त हैं मेरी ताक़त हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरी तरह दिल्ली के</b></div><div><b>पॉवरहाउस से दूर रहते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दिल्ली उन्हें भी मेरे साथ</b></div><div><b>मिटाने के लिए विकल है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>18</b></div><div><b>भिड़ंत</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>तुम अपनी </b></div><div><b>अशरफ़ी दिखाओ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं अपना</b></div><div><b>ईमान दिखाता हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>19</b></div><div><b>मार्क्सवादी</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>हिन्दी के मार्क्सवादी</b></div><div><b>चाहते हैं देश के पूँजीपतियों का</b></div><div><b>नाश हो नाश हो नाश हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और वे राजधानी में खुलेआम</b></div><div><b>हिन्दी के पूँजीपतियों का तलवा</b></div><div><b>चाटते हैं चाटते हैं चाटते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>20</b></div><div><b>लगा पीटेगा</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>यह कविता इससे पहले</b></div><div><b>लिखी क्यों नहीं गयी थी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आलोचक ने कहा तो लगा</b></div><div><b>पहले के कवियों को पीटेगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>थोड़ा डरा सोचा कि यह ख़ुद</b></div><div><b>पहले क्यों नहीं पैदा हुआ!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>21</b></div><div><b>महानता</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>भाड़ में जाए </b></div><div><b>आपकी महानता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो था सब </b></div><div><b>कह नहीं दिया तो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>22</b></div><div><b>धरती पर</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>धरती पर कोई फूल </b></div><div><b>अधखिला रह न जाए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई बात ज़रूरी हो</b></div><div><b>तो कहे बिना रह न जाए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>23</b></div><div><b>नानी की नानी</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b>नानी कब याद आती हैं</b></div><div><b>जी, कठिन बात कहनी हो तब</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>और जब बहुत कठिन बात </b></div><div><b>कहनी हो तो तब, वत्स</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जी गुरु जी, तब</b></div><div><b>नानी की नानी याद आती हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>24</b></div><div><b>नहीं देखा</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>मंच की रोशनी में</b></div><div><b>फुदकते हुए चूहों को</b></div><div><b>कभी शेर में बदलते</b></div><div><b>नहीं देखा नहीं देखा</b></div><div><b>चूहों ने भी नहीं देखा </b></div><div><b>नहीं देखा नहीं देखा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>25</b></div><div><b>ये</b></div><div><b>---</b></div><div><b>मेरा ख़याल है ये अभी</b></div><div><b>गंदा खाने तक जाएंगे</b></div><div><b>आख़िर इन्हीं के समय में</b></div><div><b>पुरस्कार युग आया है</b></div><div><b>कर लेने दो खा लेने दो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>26</b></div><div><b>अधिकतम</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>लेखकों, संपादकों, आलोचकों ने</b></div><div><b>कभी कृति के न्यूतम समर्थन मूल्य की बात की ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इन्होंने हमेशा गोलबंद होकर</b></div><div><b>अधिकतम समर्थन मूल्य के लिए</b></div><div><b>राजधानी को घेरा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>27</b></div><div><b>कनकौआ</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>इधर के </b></div><div><b>किन-किन लेखकों के पास </b></div><div><b>कोई जुनूनी काम है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>क्या पता</b></div><div><b>कनकौआ उड़ाना ही आज का</b></div><div><b>बड़ा काम हो!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>28</b></div><div><b>वहाँ</b></div><div><b>-----</b></div><div><b>अच्छा हुआ</b></div><div><b>मैं वहाँ बहुत कम जाना गया </b></div><div><b>जहाँ थोड़े से आदमी रहते थे </b></div><div><b>और चूहे बहुत ज़्यादा ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>29</b></div><div><b>सुधार</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>गुप्त जी मानते थे</b></div><div><b>कि राम के चरित के सहारे</b></div><div><b>कोई भी कवि बन सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आज हैरान होते हिन्दी के इन</b></div><div><b>दुश्चरित्र कवियों को देखकर</b></div><div><b>अपने लिखे में सुधार करते</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई भी दुश्चरित्र कवि हो जाय</b></div><div><b>यह सहज संभाव्य है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>30</b></div><div><b>मज़बूत कवि</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>जैसे </b></div><div><b>बच्चे को देखकर</b></div><div><b>तंदुरुस्ती जान लेते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसी तरह</b></div><div><b>मज़बूत कवि को</b></div><div><b>दूर से पहचान लेते हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>31</b></div><div><b>शायद</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में विचारों की कमी नहीं है</b></div><div><b>बस काम करना बंद कर दिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिन्दी में आदर्शों की कमी नहीं है</b></div><div><b>बस काम करना बंद कर दिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिंदी में महान लेखक कम नहीं हैं</b></div><div><b>इन लेखकों ने रास्ता बदल लिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>लेखक की दुनिया बदल गयी है</b></div><div><b>शायद पुरस्कार-राशि बढ़ गयी है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>32</b></div><div><b>सर्वेंट क्वार्टर</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>यह बच्चा</b></div><div><b>जब दिल्ली में लेखक बना है</b></div><div><b>वहीं पला-बढ़ा है तो जाएगा कहाँ</b></div><div><b>अमेरिका इंग्लैंड वग़ैरा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह तो अंतरराष्ट्रीय साहित्य के</b></div><div><b>सर्वेंट क्वार्टर में पैदा हुआ है</b></div><div><b>देश की नसों में मेरा ख़ून बनकर</b></div><div><b>कैसे दौड़ेगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>33</b></div><div><b>आ बेटा</b></div><div><b>----------</b></div><div><b>बच्चा लेखक है </b></div><div><b>सारे अंग छोटे और कोमल होंगे</b></div><div><b>मूते भी तो मुझ तक कैसे पहुँचेगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मुझे ही जाना होगा दिल्ली</b></div><div><b>दुलार करने आ बेटा सिर पर </b></div><div><b>कर ले मन की।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>34</b></div><div><b>लीला</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>मान्यवर आप लेखक हैं</b></div><div><b>और साहित्य के संघर्ष में नहीं हैं</b></div><div><b>तो आपकी भाषा चमकती हुई</b></div><div><b>स्निग्ध कोमल वग़ैरा तो होगी ही</b></div><div><b>आपकी उँगलियाँ अभी भी</b></div><div><b>स्वेटर बुनने की अभ्यस्त होंगी</b></div><div><b>काश मैं भी मूलतः स्त्री होता</b></div><div><b>मेरी हथेलियाँ खुरदुरी न होतीं</b></div><div><b>मैं गणेश नहीं लीला होता।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>35</b></div><div><b>डण्डा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>वे</b></div><div><b>साहित्यपति थे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उन्होंने कहा -</b></div><div><b>झण्डा लेकर चलो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैंने कहा -</b></div><div><b>डण्डा लेकर चलो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>36</b></div><div><b>लज्जा</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>माइक के सामने</b></div><div><b>अख़बार के बयान में</b></div><div><b>कविता लिखते हुए </b></div><div><b>टेढ़ी हो गयी है कवि की रीढ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जहाँ झगड़ना था मीठा बोला </b></div><div><b>जहाँ तनकर खड़ा होना था झुका</b></div><div><b>जहाँ उदाहरण प्रस्तुत करना था </b></div><div><b>छिपकर जिया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>उसे सुख-शांति दीजिए न दीजिए</b></div><div><b>थोडी-सी लज्जा जरूर दीजिए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>37</b></div><div><b>अकड़</b></div><div><b>--------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>आप हो तो ठीक है</b></div><div><b>न हो तो भी</b></div><div><b>पर हिन्दी में ऐसा वक़्त </b></div><div><b>ज़रूर आये</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब पाठक ही पाठक हों</b></div><div><b>और पाठक के पास इतना बल हो</b></div><div><b>कि कवि और आलोचक की</b></div><div><b>अकड़ तोड़कर उसकी जेब में</b></div><div><b>डाल दें।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>38</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>निरीह कवि</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>हे प्रभु</b></div><div><b>आये ज़रूर आये</b></div><div><b>हिन्दी में ऐसा भी वक़्त </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब आलोचक अपनी अकड़</b></div><div><b>निरीह कवि के सामने नहीं</b></div><div><b>साहित्य की सत्ता के सामने</b></div><div><b>दिखाए।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>39</b></div><div><b>दिल्ली भी</b></div><div><b>------------</b></div><div><b>साहित्य में</b></div><div><b>दिल्ली भी है</b></div><div><b>दिल्ली ही नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सुनता कौन है</b></div><div><b>देशभर के लेखक</b></div><div><b>बहरे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>40</b></div><div><b>ज्ञानी</b></div><div><b>-------</b></div><div><b>हिन्दी में</b></div><div><b>इतने ज्ञानी आ गए हैं </b></div><div><b>कि पूछो मत</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ज्ञान की आंधी में</b></div><div><b>कविता की नाव </b></div><div><b>अब डूबी तब डूबी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>41</b></div><div><b>टैटू</b></div><div><b>------</b></div><div><b>नक़लची कवि</b></div><div><b>असली कवियों को</b></div><div><b>कविता पढ़ा रहे हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हँस रहे हैं चूतड़ मटका रहे हैं</b></div><div><b>उसी पर कविता का टैटू</b></div><div><b>बनवा रहे हैं।</b></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhRYl7kwSRnkoU5jfx-6DvJF4iE3lr_ZJe60H6MGIDDpn-FyoJCYuNHRehFBSRCoCIZ-nc68DNoNR5LwmAmFgh-m5nENvL8oyWLBjazZqTQrIbsdaZd7FS-ysRtuK5y_0mda8VA7tehbxe5_OkjGIUiehTSJocn71h_cFXrFlhgIGD89XC043AY3YHx=s960" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhRYl7kwSRnkoU5jfx-6DvJF4iE3lr_ZJe60H6MGIDDpn-FyoJCYuNHRehFBSRCoCIZ-nc68DNoNR5LwmAmFgh-m5nENvL8oyWLBjazZqTQrIbsdaZd7FS-ysRtuK5y_0mda8VA7tehbxe5_OkjGIUiehTSJocn71h_cFXrFlhgIGD89XC043AY3YHx=s320" width="240" /></a></div><br /><div><br /></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-87695827636676912862021-08-24T12:43:00.015+05:302021-09-18T06:27:00.101+05:30अफ़ग़ान सीरीज़<div style="text-align: left;"><div><b><br /></b></div><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><div><br /></div><div><b>1</b></div><div><b>ख़ुदा करे मेवे की बारिश हो</b></div><div><b>--------------------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यहाँ </b></div><div><b>गाजर का हलवा बना हुआ है</b></div><div><b>क्या रंगत है वाह क्या ख़ुशबू है</b></div><div><b>ओह कितना मीठा है कितने मेवे हैं</b></div><div><b>सब ख़ालिस अफ़ग़ानिस्तान के हैं</b></div><div><b>बच्चे कटोरी भर-भरकर खा रहे हैं </b></div><div><b>खाते-खाते खेल रहे हैं गा रहे हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यहाँ बारिश हो रही है </b></div><div><b>सारे खेत-खलिहान बहुत उम्मीद से हैं</b></div><div><b>देशभर में तनख़्वाह </b></div><div><b>और मँहगाई भत्ते में इज़ाफ़ा हो रहा है</b></div><div><b>लोग बच्चों की पढ़ाई के लिए </b></div><div><b>शादी-ब्याह के लिए </b></div><div><b>कपड़े और गहने ख़रीदने के लिए</b></div><div><b>बैंक से ख़ूब रुपये निकाल रहे हैं</b></div><div><b>कुछ लोग अगले चुनाव की तैयारी में हैं</b></div><div><b>ज़ोर-शोर से कमर कस रहे हैं</b></div><div><b>कोई किसी को हटाने की बात कर रहा है</b></div><div><b>कोई किसी को लाने की बात कर रहा है</b></div><div><b>बड़ी से बड़ी ग़रीबी को भूलकर</b></div><div><b>किस तरह महिलाएँ गीत गाते हुए</b></div><div><b>मतदान करती हैं</b></div><div><b>कितना सुख है यहाँ</b></div><div><b>किसी भी मंत्री चाहे प्रधानमंत्री को</b></div><div><b>कुछ भी कह सकते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दुनिया में</b></div><div><b>सभी देशों में ऐसी ही बारिश होती है</b></div><div><b>या इससे कम या बिल्कुल कम होती है</b></div><div><b>इस समय पड़ोस के देशों में</b></div><div><b>कैसी बारिश हो रही होगी</b></div><div><b>बादल किस तरह गरज रहे होंगे</b></div><div><b>बिजली किस तरह चमक रही होगी</b></div><div><b>कैसी बिजलियाँ गिर रही होंगी</b></div><div><b>वहाँ के लोगों पर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वहाँ के बच्चों ने खाना खा लिया होगा</b></div><div><b>रोटी मिल गयी होगी मेवे पास में होंगे</b></div><div><b>दुधमुँहे बच्चों की माँओं की छातियों से</b></div><div><b>दूध उतर रहा होगा या नहीं </b></div><div><b>बाज़ार खुले होंगे या नहीं</b></div><div><b>सामान मिल रहे होंगे या नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ख़ुशहाली की बारिश हो रही होगी </b></div><div><b>या बदहाली की बारिश हो रही होगी</b></div><div><b>आफ़त की बिजलियाँ गिर रही होंगी</b></div><div><b>या प्रभु की नेमत बरस रही होगी</b></div><div><b>तानाशाही की बारिश हो रही होगी</b></div><div><b>या लोकतंत्र की बारिश हो रही होगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यहाँ उम्मीद की बारिश हो रही है</b></div><div><b>ख़ुदा करे कि हर जगह यहाँ की तरह</b></div><div><b>उम्मीद की बारिश हो</b></div><div><b>दूध-दही और मेवे की बारिश हो।</b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div><div><b>2</b></div><div><b>अफ़ग़ानिस्तान</b></div><div><b>------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिंदुस्तान में बच्चे</b></div><div><b>बेख़ौफ़ राखी मना रहे हैं जैसे </b></div><div><b>ईद और बाक़ी त्योहार मनाते हैं</b></div><div><b>सुबह से ही चिड़िया की तरह</b></div><div><b>चह-चह कर रहे हैं बच्चे</b></div><div><b>ऊब-चूभ हो रहे हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अफ़ग़ानिस्तान में </b></div><div><b>आज कितनी बंदूकें बच्चों में</b></div><div><b>ख़ौफ़ पैदा करने के काम पर लगी होंगी</b></div><div><b>कितने निर्दयी निकले होंगे सड़कों पर</b></div><div><b>कितनी मासूम बेटियों को </b></div><div><b>खिड़की की दरार से सूँघ रहे होंगे</b></div><div><b>दिन के उजाले में उनकी आँखों में</b></div><div><b>रात का अँधेरा पैदा कर रहे होंगे</b></div><div><b>पंखुड़ी जैसी उनकी कोमल नींद</b></div><div><b>अपने बूटों से रौंद रहे होंगे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आज</b></div><div><b>अफ़ग़ानिस्तान के निहत्थे भाई </b></div><div><b>अपने और अपनी बहनों के सामने</b></div><div><b>आतंक के इस पहाड़ का सामना </b></div><div><b>किस तरह कर रहे होंगे</b></div><div><b>कुछ तो खदबदा रहा होगा उनके भीतर</b></div><div><b>किस सोच में होंगी वहाँ की बहनें</b></div><div><b>शायद यह कि बंदूक का सामना</b></div><div><b>किस चीज़ से करना है</b></div><div><b>शायद यह कि जीना है तो किस तरह</b></div><div><b>और मरना है तो किस तरह</b></div><div><b>ओह माँएँ जी कैसे रही होंगी</b></div><div><b>उनके वालिद की दाढ़ी कितनी बार</b></div><div><b>माथे के पसीने से भीग चुकी होगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पाकिस्तान में भी</b></div><div><b>भाई रहते होंगे बहनें भी रहती होंगी</b></div><div><b>बेटियों के माँ-बाप रहते ही रहते होंगे</b></div><div><b>ये लोग क्या सोच रहे होंगे</b></div><div><b>पड़ोस की आग के बारे में </b></div><div><b>कहाँ तक उट्ठेंगी लपटें कहाँ तक जाएंगी</b></div><div><b>कुछ तो सोच रहे होंगे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जैसे हम </b></div><div><b>अफ़ग़ानिस्तान की आग में</b></div><div><b>धिक रहे हैं और सोच रहे हैं।</b></div><div><br /></div><div><b>3</b></div><div><b>ख़ूबसूरत दुनिया</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><div><b>बचपन </b></div><div><b>सबसे सुंदर देश होता है</b></div><div><b>प्यारे-प्यारे न्यारे-न्यारे</b></div><div><b>बच्चों का निराला देश होता है</b></div><div><b>जो इस छोर से उस छोर तक</b></div><div><b>पूरी दुनिया में फैला होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बच्चा</b></div><div><b>कहीं का हो</b></div><div><b>पाकिस्तान का हो</b></div><div><b>चाहे अफ़ग़ानिस्तान का हो </b></div><div><b>चाहे हिंदुस्तान का बच्चा हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दुनिया का हर बच्चा </b></div><div><b>जहाँ कहीं भी जिस समय होता है</b></div><div><b>सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार का </b></div><div><b>राजदूत होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई भी </b></div><div><b>बच्चा हो किसी का हो</b></div><div><b>दुनिया में सबका बच्चा होता है</b></div><div><b>उसका हँसना सबका हँसना होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक बच्चा </b></div><div><b>किसी कोने में उदास होता है</b></div><div><b>तो दूसरा बच्चा आप से आप</b></div><div><b>उदास हो जाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अफ़ग़ानिस्तान में </b></div><div><b>कोई बच्चा किवाड़ के पीछे </b></div><div><b>सुबुक-सुबुककर रोता है</b></div><div><b>तो हूबहू हिंदुस्तान में भी कोई बच्चा </b></div><div><b>रोता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दुनिया का कोई भी बच्चा </b></div><div><b>न कभी उदास होना चाहता है </b></div><div><b>न रोना चाहता है सीने से चिपक पर</b></div><div><b>वह तो सबको ख़ूब-ख़ूब </b></div><div><b>प्यार करना चाहता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>वह तो </b></div><div><b>बड़े से बड़े हत्यारे में भी साधु ढूँढता है </b></div><div><b>दुनिया के सबसे बुरे आदमी में भी </b></div><div><b>अपना प्यार ढूँढता है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ओह </b></div><div><b>कैसे कोई निर्दयी </b></div><div><b>अपनी माँ से लाड़ करते हुए</b></div><div><b>एक हँसते हुए बच्चे को रुला सकता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जगह-जगह</b></div><div><b>बारूद के ढेर पर बैठा हुआ </b></div><div><b>कोई चौधरी इस ख़ूबसूरत दुनिया को </b></div><div><b>बर्बाद करना चाहता है।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><b>4</b></div><div><b>बंदूक </b></div><div><b>-------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बंदूक</b></div><div><b>बनाने वालों के पास</b></div><div><b>आँखें नहीं थीं नहीं तो </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बंदूक में </b></div><div><b>बच्चों को देखने वाली </b></div><div><b>आँखें ज़रूर बनाते।</b></div><div><br /></div><div><b>5</b></div><div><b>दहशतगर्द</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दहशत फैलाने वाले</b></div><div><b>माँ की कोख से नहीं पैदा होते</b></div><div><b>सीधे आसमान से फाट पड़ते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ये तो कभी </b></div><div><b>बच्चे होते ही नहीं हैं</b></div><div><b>किसी की उँगली पकड़कर </b></div><div><b>चलते ही नहीं हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अपनी उँगलियों से</b></div><div><b>कभी किसी फूल को चाहे किसी </b></div><div><b>तितली को छुआ ही नहीं होता है</b></div><div><b>किसी कंचे से खेला ही नहीं होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अपनी </b></div><div><b>नन्ही उँगलियों से कभी</b></div><div><b>माँ के होठों को छुआ नहीं होता है</b></div><div><b>माँ के पयोधरों का अमृत </b></div><div><b>पिया नहीं होता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>शायद </b></div><div><b>ये इंसानों की बस्ती में नहीं</b></div><div><b>किसी जंगल में पैदा होते हैं</b></div><div><b>शायद बंदूक की नली से पैदा होते हैं</b></div><div><b>शायद कारतूस के खोखे से </b></div><div><b>पैदा होते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>शायद </b></div><div><b>सीधे ट्रिगर पर</b></div><div><b>आधा-अधूरा पैदा होते हैं</b></div><div><b>सिर्फ़ इनकी उँगलियाँ पैदा होती हैं</b></div><div><b>बिना दिल और दिमाग़ के वहीं</b></div><div><b>जवान होती हैं और जवानी में</b></div><div><b>मर जाती हैं।</b></div><div><br /></div><div><b>6</b></div><div><b>बच्चों की उँगलियाँ</b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बच्चे</b></div><div><b>गुलाब के फूल और काँटे को</b></div><div><b>एक जैसी ललक से छूते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बच्चे</b></div><div><b>सुख़र् आग और सफ़ेद बर्फ़ को</b></div><div><b>एक जैसी उत्सुकता से छूते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बच्चे</b></div><div><b>माउथऑर्गन और बंदूक को</b></div><div><b>एक जैसी निडरता से छूते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बच्चे</b></div><div><b>मनुष्य पशु और पक्षी को</b></div><div><b>एक जैसे रिश्ते में बँधकर छूते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बच्चे</b></div><div><b>अपनी सबसे अच्छी उँगलियों से </b></div><div><b>दुनिया की हर चीज़ प्यार से छूते हैं।</b></div><div><br /></div><div><div><b>7</b></div><div><b>अफ़ग़ानी लोग</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ये कैसी </b></div><div><b>कोमलांगी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने</b></div><div><b>अपने बच्चों के लिए अपने देश के लिए</b></div><div><b>देह से चिपकी कोमलता की पंखुड़ियों को </b></div><div><b>नोचकर फेंक दिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बंदूकों से नहीं डर रही हैं</b></div><div><b>इन्हें टैंक नहीं डरा पा रहा है</b></div><div><b>न इन्हें तालिबान का ख़ौफ है</b></div><div><b>न पाकिस्तान की फ़ौज का</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>दुनिया वालों देखो</b></div><div><b>फूल जैसे बच्चों की सोने जैसी माँओं ने</b></div><div><b>ख़ुद को लोहे जैसा बना लिया है</b></div><div><b>इनके कंठ में लोहे जैसे इरादों की आवाज़ है</b></div><div><b>इनके हाथों की तख़्तियाँ कैसे चीख़ रही हैं</b></div><div><b>काबुल की सड़कों पर दूसरी जगहों पर</b></div><div><b>हर स्त्री पंजशीर बन गयी है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मारो उसे मारो</b></div><div><b>जीभर मारो कोड़े से मारो</b></div><div><b>उसे भून दो गोलियों से वह नहीं लड़ेगी</b></div><div><b>तो कौन लड़ेगा उसके बच्चों के लिए</b></div><div><b>उसे लड़ना ही होगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इन स्त्रियों के बड़े-बड़े बच्चे</b></div><div><b>और सहोदर अपनी मातृभूमि के लिए</b></div><div><b>दुनियाभर में फैल चुके हें प्रदर्शन कर रहे हैं</b></div><div><b>हाथों में तख्तियाँ लिए चीख़ रहे हैं</b></div><div><b>अपने देश को बचाने की अपील कर रहें हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक हँसता-खेलता हुआ देश</b></div><div><b>किस तरह अचानक दुनिया का सबसे दुखी </b></div><div><b>और दुश्चिंताओं वाला देश बन गया है</b></div><div><b>अफ़ग़ानी लोंगों को चैन कहाँ नींद कहाँ</b></div><div><b>भूखे-प्यासे बस यही सोचते होंगे</b></div><div><b>कैसे कुछ लोगों ने हमारे समय को</b></div><div><b>एक बर्बर समय में बदल दिया है</b></div><div><b>इस बर्बरता के खि़लाफ़ कुछ सोच रहे होंगे।</b></div><div style="font-weight: bold;"><br /></div></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimUaGMjx-AVRll81WuxwFrWTJB5TOufFh9SAeDssq1NH-gVVBPw4pOa9wneqmhqFrYLFEdOXmAUwnBL2qheGQC9yyh7za-xIBqIgvR_NlJJ3rELxNuj5yDxZRhjfq9LEXrcC_8ZekuUdA/s285/1780809_536103879838782_1692164051_n.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="262" data-original-width="285" height="184" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimUaGMjx-AVRll81WuxwFrWTJB5TOufFh9SAeDssq1NH-gVVBPw4pOa9wneqmhqFrYLFEdOXmAUwnBL2qheGQC9yyh7za-xIBqIgvR_NlJJ3rELxNuj5yDxZRhjfq9LEXrcC_8ZekuUdA/w200-h184/1780809_536103879838782_1692164051_n.jpg" width="200" /></a></div><br /><div><br /></div></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-6954164074734991532021-06-27T16:49:00.000+05:302021-06-27T16:49:02.923+05:30 स्त्री सीरीज़<div style="text-align: left;"><b>-गणेश पाण्डेय</b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div><b>1</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>भारतीय सास</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो औरत</b></div><div><b>औरत नहीं होती है सास होती है</b></div><div><b>सास रहते हुए भी वह औरत चाहे तो </b></div><div><b>उसके भीतर एक औरत ज़िदा रह सकती है</b></div><div><b>ऐसा होता तो कितना अच्छा होता </b></div><div><b>संसार की सारी औरतों का मन </b></div><div><b>कितना सुंदर होता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>औरत तो औरत होती है</b></div><div><b>माँ भी होती है सास भी होती है</b></div><div><b>जब कोई औरत कम औरत होती है</b></div><div><b>तो माँ भी कम होती है और सास भी<span style="white-space: pre;"> </span></b></div><div><b>कठोर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माँ जन्म देती है</b></div><div><b>सास बहू को जन्म नहीं देती है</b></div><div><b>लेकिन सास अच्छी हो तो बहू को</b></div><div><b>सिर्फ़ अपना बेटा ही नहीं नित आशीष</b></div><div><b>अपनी गोद और अपना आँचल भी</b></div><div><b>ज़रूर देती है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कम औरत </b></div><div><b>जब कठकरेजी सास होती है</b></div><div><b>तो बहू की हारी-बीमारी में</b></div><div><b>उसके लिए आए दूध और फल</b></div><div><b>तीन चौथाई आँखों से ओझल कर देती है</b></div><div><b>बेटे के सामने आदर्श सास बनकर</b></div><div><b>बहू के लिए सेब काटकर ले जाती है </b></div><div><b>बेटे के बाहर जाने पर पूछती भी नहीं</b></div><div><b>बहू जी रही हो कि मर रही हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ओह सासें भी</b></div><div><b>तरह-तरह की होती हैं</b></div><div><b>कुछ तो मोरनी जैसी होती हैं</b></div><div><b>नाचती रहती हैं नाचती रहती हैं</b></div><div><b>बहुओं के सिर पर</b></div><div><b>कुछ फ़िल्म की हीरोइनों की तरह</b></div><div><b>हरदम बनी-ठनी रहती हैं गोया बहू के संग</b></div><div><b>सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेना हो</b></div><div><b>कुछ तो बिल्कुल सौत की तरह होती हैं</b></div><div><b>पत्लू से बाँधकर रखना चाहती हैं बेटे को</b></div><div><b>बहू को उसके साथ अकेले</b></div><div><b>कहीं जाने ही नहीं देतीं</b></div><div><b>और चला जाए तो दम पर दम</b></div><div><b>फोन करती रहती हैं</b></div><div><b>इंग्लिश मीडियम की सास हो </b></div><div><b>चाहे हिंदी मीडियम की </b></div><div><b>चाहे अँगूठा ही क्यों न लगाती हो</b></div><div><b>जिसे ख़ुद पर ज़रा -सा भी भरोसा नहीं होता है</b></div><div><b>चाहती है कि बेटे पर वर्चस्व कम न होने पाए</b></div><div><b>बहू के रंग में कुछ तो भंग पड़ जाए</b></div><div><b>ऐसी सासें प्रेम और प्रेमविवाह</b></div><div><b>दोनों की पैदाइशी शत्रु होती हैं</b></div><div><b>निन्यानबे फ़ीसद </b></div><div><b>प्रेमविवाह की विफलता का मुकुट</b></div><div><b>इन्हीं के सिर पर सजता है</b></div><div><b>वैसे भारतीय सासों में</b></div><div><b>अंग्रेज़ी और हिंदी मीडियम की सासों को भी</b></div><div><b>भोजपुरी और अवधी में आते देर नहीं लगती है</b></div><div><b>जैसे हिंदी का सारा व्यंग्य बाण</b></div><div><b>इन्हीं के मुखारविंद से पैदा हुआ हो</b></div><div><b>इन्हें बेटे का घर बसे रहने में नहीं</b></div><div><b>बहू का घर उजड़ने में ख़ुशी होती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>भारतीय सासों के जंगल में टीवी पर</b></div><div><b>अशक्त सासों के पीटे जाने की ख़बरें</b></div><div><b>अब बिल्कुल विचलित नहीं करतीं</b></div><div><b>लगता है कि ज़रूर इसने कभी</b></div><div><b>अपनी बहू को ख़ूब सताया होगा</b></div><div><b>असल में इस देश में </b></div><div><b>सासों की क्रूरता का लंबा इतिहास है</b></div><div><b>लोकगीतों और लोककथाओं में ही नहीं</b></div><div><b>हमारे समय में भी ऐसी सासें</b></div><div><b>अपनी-अपनी पारी खेल रही हैं</b></div><div><b>और अपने माँ-बाप से दूर बेटियाँ</b></div><div><b>पिस रही हैं रो रही हैं</b></div><div><b>रोज़ डर रही हैं</b></div><div><b>और ऐसी बदनसीब बेटियों के माँ-बाप</b></div><div><b>फोन की घंटी से भयभीत हो जाते हैं</b></div><div><b>राम जाने आज क्या किया होगा</b></div><div><b>डायन ने मेरी बच्ची के साथ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उफ़</b></div><div><b>वह औरत </b></div><div><b>जो तनिक भी औरत नहीं है</b></div><div><b>न सिर्फ़ भारत की बल्कि</b></div><div><b>पृथ्वी की सबसे भयानक सास है</b></div><div><b>वह ज़रा-सा भी औरत होती</b></div><div><b>तो अपनी बहू को बेटी न भी समझती</b></div><div><b>तो कम से कम अपनी बहू तो </b></div><div><b>समझती ही समझती</b></div><div><b>इस तरह किसी विदीर्णहृदय </b></div><div><b>सुदूर निरुपाय पिता की बेटी को </b></div><div><b>दासी न समझती वह भी समझ लेती</b></div><div><b>तो भी स्त्री तो समझती</b></div><div><b>अपने चरणों की धूल न समझती</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ऐसी बहुओं के जीवन में</b></div><div><b>तिरस्कार के सिवा कुछ नहीं होता है</b></div><div><b>न प्यार न सुख न साज-सिंगार </b></div><div><b>जिनके पति कान के कच्चे होते हैं</b></div><div><b>और जिनके लिए माँ की हर बात</b></div><div><b>पत्थर की लकीर होती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सभी बेटे ऐसे नहीं होते हैं</b></div><div><b>तमाम बेटे माँ-बाप की भी आलोचना</b></div><div><b>ख़ूब करते हैं उनसे बहस करते हैं</b></div><div><b>उनकी कमियाँ बताते हैं</b></div><div><b>जिनके पति ऐसे नहीं होते हैं</b></div><div><b>जिनके पिता प्रभावशाली नहीं होते हैं</b></div><div><b>और जो कमज़ोर घरों से आती हैं</b></div><div><b>उन बहुओं का भाग्य ऐसी ज़ालिम सासें</b></div><div><b>अपने बाएँ पैर के अँगूठे से लिखती हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>2</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>राग दौहित्री</b></div><div><b>-------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सद्यःप्रसूता</b></div><div><b>बेटी के कंधे पर </b></div><div><b>उसकी नवजात आत्मजा</b></div><div><b>कोमलांगी अति गौरांगी</b></div><div><b>जैसे शस्यधरा के कंधे पर </b></div><div><b>नयी-नयी बनी नन्ही पृथ्वी</b></div><div><b>यह सब देखना </b></div><div><b>सबको नसीब नहीं होता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बोलती हुई पृथ्वी की आँखों से</b></div><div><b>निःशब्द सुनते चले जाना</b></div><div><b>ब्रह्मांड के अख़ीर तक</b></div><div><b>और फिर वापस लौट आना</b></div><div><b>बोलती हुई आँख की पुतली में</b></div><div><b>उसी में समा जाना</b></div><div><b>नाना नाना नाना</b></div><div><b>और कोई शब्द नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उसकी एक नन्ही पंखुड़ी जैसी</b></div><div><b>स्मिति में ग़ुम हो जाना क्या होता है</b></div><div><b>सब कहाँ जान पाते हैं कहाँ छू पाते हैं </b></div><div><b>अपने जीवन में इतना कुछ</b></div><div><b>इसके आगे निस्सार है </b></div><div><b>प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का पद</b></div><div><b>चाहो तो प्रधानमंत्री जी से पूछ लो </b></div><div><b>चाहे मुख्यमंत्री जी से पूछ लो</b></div><div><b>ईश्वर जिससे प्रसन्न होते हैं </b></div><div><b>उसे यह नयी दुनिया दिखाते हैं</b></div><div><b>उसे सचमुच का मनुष्य बना देते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बाक़ी आज की राजनीति क्या है</b></div><div><b>और साहित्य तो कुछ है ही नहीं</b></div><div><b>जो है सब एक गोरखधंधा है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरे लिए आज</b></div><div><b>मेरी बेटी की बेटी सबकुछ है</b></div><div><b>मेरी बेटी की आकृति है छवि है</b></div><div><b>उसकी रूह है उसकी आवाज़ है</b></div><div><b>मेरे कानों में मेरी आँखों में</b></div><div><b>मेरे घर के हर हिस्से में</b></div><div><b>आँगन में छत पर अहर्निश </b></div><div><b>बजती हुई यह नन्ही-सी </b></div><div><b>मद्धिम-सी प्यारी-सी आवाज़ </b></div><div><b>मेरे जीवन के पुराने संतूर पर </b></div><div><b>नई सुबह का एक राग है</b></div><div><b>राग दौहित्री।</b></div><div><br /></div><div><b><br /></b></div><div><b>3</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>---------</b></div><div><b>मायका</b></div><div><b>--------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बेटी </b></div><div><b>आज मायके में आयी है</b></div><div><b>माँ को उसकी नवासी सौंपकर</b></div><div><b>तीसरे पहर से सो रही है जैसे</b></div><div><b>युगों की नींद लेकर आयी हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रात हो गयी है </b></div><div><b>ज़्यादा रात हो गयी है</b></div><div><b>पिता को न भूख लगती है न प्यास</b></div><div><b>बेटी जागेगी तो पहले उससे करेंगे बात</b></div><div><b>फिर उसी के साथ खाएंगे कौर-दो कौर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>भाई चुप है </b></div><div><b>कुछ नहीं बोलता है</b></div><div><b>पिता व्यथित हैं कुछ नहीं कहते</b></div><div><b>जैसे उनके हृदय पर मद्धिम-मद्धिम</b></div><div><b>आरी जैसी कोई चीज़ चल रही हो</b></div><div><b>बेटी बिना मिले सोने चली गयी है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माँ</b></div><div><b>नवासी को बैठक में लाती है</b></div><div><b>नाना की गोद में रख देती है</b></div><div><b>नवासी नाना को देख मुस्काती है</b></div><div><b>नाना उसे देख जी उठते हैं।</b></div><div><br /></div><div><b>4</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>दहेज में हिमालय </b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माँओ</b></div><div><b>तुम्हारी बेटियाँ</b></div><div><b>डलिया-मौनी बनाना न सीखें</b></div><div><b>चादर और तकिए पर कढ़ाई न सीखें</b></div><div><b>अनेक प्रकार के व्यंजन बनाना न सीखें</b></div><div><b>भरतनाट्यम चाहे सुमधुर गायन न सीखें</b></div><div><b>तो तनिक भी अफ़सोस मत करना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माँओ</b></div><div><b>अपनी बेटियों को विदा करने से पहले</b></div><div><b>उन्हें बहुत पौष्टिक चीज़े खिलाना</b></div><div><b>जितना दूध बेटे को देना उससे ज़्यादा उन्हें</b></div><div><b>उनके हाथ-पाँव हाकी की तरह ख़ूब</b></div><div><b>मज़बूत करना सिर्फ़ खेलने के लिए नहीं</b></div><div><b>बड़ी से बड़ी मुसीबत से पार पाने के लिए </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माँओ</b></div><div><b>तुम्हारी बेटियाँ</b></div><div><b>सजने-सँवरने में मन न लगाएं</b></div><div><b>क्रीम-पावडर होंठ लाली न लगाएँ</b></div><div><b>तो उन्हें सुंदर दिखने का ज्ञान</b></div><div><b>मत देने बैठ जाना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माँओ</b></div><div><b>तुम्हारी बेटियाँ</b></div><div><b>पढ़ने में मन लगाएँ तो उनकी</b></div><div><b>चुटिया कसके ज़रूर खींचना</b></div><div><b>गदेली से उनके गाल पूरा लाल कर देना</b></div><div><b>हेडमास्टर से अधिक सख़्ती करना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>माँओ</b></div><div><b>दहेज जुटाने में अक़्ल से काम लेना</b></div><div><b>ऐसी चीज़ें देना जिसे आग जला न सके</b></div><div><b>पानी गला न सके चोर चुरा न सके</b></div><div><b>और शत्रु जिस पर विजय न पा सके</b></div><div><b>प्रतिभा और योग्यता का ऐसा हिमालय</b></div><div><b>बेटियों के ससुराल को भेंट करना</b></div><div><b>जिसे वे तोड़ न सकें।</b></div><div><br /></div><div><b>5</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>----------</b></div><div><b>कारागृह</b></div><div><b>----------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बिटिया</b></div><div><b>आदमियों के इस जंगल में</b></div><div><b>अकेले जीना चाहे बच्चे को पालना</b></div><div><b>थोड़ा मुश्किल ज़रूर है</b></div><div><b>नामुमकिन नहीं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम्हारा पति </b></div><div><b>तुम्हें महत्वहीन समझे</b></div><div><b>घर को सिर्फ़ अपना समझे तुम्हारा नहीं</b></div><div><b>सारे फ़ैसले ख़ुद करे तुम्हें पूछे तक नहीं</b></div><div><b>तुम्हारा पैसा तुमसे छीन ले</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम्हारा शौहर कहे</b></div><div><b>कि सास-ससुर से पूछे बिना</b></div><div><b>तुम अपने मायके नहीं जा सकती</b></div><div><b>तो समझ लो कि तुम एक जेल में हो</b></div><div><b>तुम्हारा पति प्रेमी नहीं एक जेलर है</b></div><div><b>और तुम उम्रक़ैद की सज़ा भुगत रही हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बिटिया</b></div><div><b>भगवान न करे </b></div><div><b>कि ऐसा कुछ किसी के जीवन में घटे</b></div><div><b>लेकिन ऐसा कुछ हो ही तो डरना मत</b></div><div><b>अपने माँ-बाप से एक-एक बात करना</b></div><div><b>भाई से कहना ये सब तुम्हारे साथ होंगे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बिटिया</b></div><div><b>इस सामाजिक कारागृह के </b></div><div><b>सींखचों को तोड़ना ही होगा</b></div><div><b>ऊँची चहारदीवारी को ढहाना ही होगा</b></div><div><b>तुम्हें बाहर खुली हवा में साँस लेना होगा</b></div><div><b>तुम्हें जीना होगा बिटिया अपने लिए</b></div><div><b>अपने बच्चों के लिए।</b></div><div><br /></div><div><b>6</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>---------------</b></div><div><b>बहू का तराना</b></div><div><b>---------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सास जी सास जी </b></div><div><b>ऐसा ना सोचें आप जी </b></div><div><b>केवल लड़कों के होते हैं </b></div><div><b>माँ-बाप जी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सास जी सास जी</b></div><div><b>लड़कियों के भी होते हैं माँ-बाप जी </b></div><div><b>ऐसा नहीं समझेंगी तो फूँक दूँगी </b></div><div><b>सास जी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सास जी सास जी</b></div><div><b>पैर से मसलने की सासगीरी छोड़कर</b></div><div><b>माँ बन जाएंगी तो भला करेंगे</b></div><div><b>राम जी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सास जी सास जी</b></div><div><b>आप भी बहू थीं यह भूल जाएंगी</b></div><div><b>तो चक्कू मारूँगी हँसिए से काटूँगी</b></div><div><b>सास जी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सास जी सास जी</b></div><div><b>पढ़-लिखकर दिमाग़ में गोबर भर लेंगी </b></div><div><b>तो सबके सामने इज़्ज़त उतार दूँगी </b></div><div><b>सास जी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सास जी सास जी</b></div><div><b>रूल नहीं करेंगी डायन नहीं बनेंगी </b></div><div><b>राम भजेंगी तो पूजा करूँगी आपकी</b></div><div><b>सास जी।</b></div><div><br /></div><div><b>7</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>---------------------</b></div><div><b>यहाँ सब तुम्हारा है</b></div><div><b>--------------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हे बेटी</b></div><div><b>ससुराल में</b></div><div><b>कोई बड़ा-बुज़ुर्ग</b></div><div><b>कुछ समझाए चाहे सिखाए</b></div><div><b>तो उसे सिर माथे लगाना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई ऐसा </b></div><div><b>आदरणीय बुज़ुर्ग</b></div><div><b>अकारण डाँटने-फटकारने लगे </b></div><div><b>चाहे बात-बात पर अपमानित करे</b></div><div><b>चाहे नीचा दिखाए चाहे ताने दे</b></div><div><b>किसी बेजा चीज़ के लिए</b></div><div><b>मज़बूर करे</b></div><div><b>तो उसका आदर-फादर करना</b></div><div><b>छोड़-छाड़कर पहली ट्रेन से</b></div><div><b>चाहे पहली जहाज से उड़कर</b></div><div><b>अपने घर लौट आना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यहाँ </b></div><div><b>तुम्हारा घोंसला </b></div><div><b>उसका एक-एक तिनका</b></div><div><b>बिल्कुल वैसे का वैसा है</b></div><div><b>तुम्हारा कमरा </b></div><div><b>तुम्हारी आलमारी</b></div><div><b>तुम्हारी मेज़ तुम्हारी किताबें</b></div><div><b>तुम्हारा गुलदस्ता तुम्हारी पेंटिंग</b></div><div><b>सब जस का तस हैं</b></div><div><b>तुम्हारी माँ तुम्हारी बहन</b></div><div><b>तुम्हारे पिता और भाई का</b></div><div><b>दिल कलेजा कंधा और बाहें</b></div><div><b>सब वही हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यहाँ क्या है जो तुम्हारा नहीं है</b></div><div><b>धरती और आसमान</b></div><div><b>सब तुम्हारा है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>8</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b>बहादुर बेटियो</b></div><div><b>-----------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कोई ऐसा मिले</b></div><div><b>जो तुम्हारे बच्चे का बुरा चाहे</b></div><div><b>तो उसे पहले प्यार से समझाना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर भी नुक़सान पहुँचाना चाहे</b></div><div><b>तुम्हारे बच्चे को सुई चुभोना चाहे</b></div><div><b>तो तुम भी चाकू निकाल लेना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर भी न माने दुष्ट</b></div><div><b>तुम्हारे बच्चे पर चाकू चलाना चाहे</b></div><div><b>तो तुम तलवार निकाल लेना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>फिर भी न माने</b></div><div><b>तो जान की बाज़ी लगा देना</b></div><div><b>उस राक्षस को चीरफाड़ देना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ओ पृथ्वी की बहादुर बेटियो</b></div><div><b>संसार उदाहरणों से भरा पड़ा है</b></div><div><b>माँएँ कैसे बाघ से लड़ जाती हैं।</b></div><div><br /></div><div><b>9</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>पिता की सीख</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैंने </b></div><div><b>अपने समय के कई सूर्य को </b></div><div><b>असमय ढलते हूए देखा है बेटी</b></div><div><b>उन्हें बादलों में घिरते हुए देखा है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरी बेटी एक से एक तप्तसूर्य को </b></div><div><b>चंद्रमा होते जग को शीतल करते देखा है</b></div><div><b>बेटी मैंने विशाल पर्वत के सीने से </b></div><div><b>मीठे पानी का सोता फूटते हुए देखा है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैंने लोहे को </b></div><div><b>मोम की तरह पिघलते हुए देखा है बेटी</b></div><div><b>मैंने निष्ठुर सास को भी माँ की तरह</b></div><div><b>अपनी बहू को कलेजे से चिपकाकर </b></div><div><b>आँचल की छाँव देते हुए देखा है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मेरी बेटी </b></div><div><b>समय और परिस्थितियों के थपेड़े </b></div><div><b>बड़े-बड़े ग्रंथों से भी बड़ी सीख देते हैं</b></div><div><b>कई बार सास के भीतर का डर </b></div><div><b>उसे सख़्त बनाता है और डर का क्या है </b></div><div><b>जितनी जल्दी घर बनाता है उसी तरह</b></div><div><b>दबे पाँव वापस अपने देश लौट जाता है</b></div><div><b>मेरी बेटी लगता है थोड़ा वक़्त लगता है</b></div><div><b>समय बदलता है मन बदलता है।</b></div><div><br /></div><div><b>10</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>------</b></div><div><b>सुख</b></div><div><b>------</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बेटी </b></div><div><b>तुम्हारी कलाई में </b></div><div><b>यह सुनहला कंगन</b></div><div><b>बहुत अच्छा लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम्हारे सुंदर गले में </b></div><div><b>यह बड़ा-सा मंगलसूत्र</b></div><div><b>और भी अच्छा लगता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम्हारी आँखों की अपूर्व चमक</b></div><div><b>दमकते हुए ललाट पर सुर्ख़ बिंदी</b></div><div><b>और लाल-लाल होंठों पर लाल मुस्कान</b></div><div><b>बहुत अच्छी लगती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम्हारी गोद में बेटी</b></div><div><b>खिल-खिल करती दौहित्री की</b></div><div><b>किलकारी सबसे अच्छी लगती है</b></div><div><b>सृष्टि की सबसे सुंदर कलाकारी लगती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक साधारण </b></div><div><b>भारतीय पिता के लिए </b></div><div><b>इस सुख से ज़्यादा अच्छा </b></div><div><b>और क्या हो सकता है।</b></div><div><br /></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8SwCHgMyt3YQblvkSJIWBOFfx-Lw3G8xMjvW2ByH-GjjEMBN2CNJeyOBYqxgZ4K4e_cz0nR6j7RWQmi_8CFjROhh2IoTnsJzbEnJw8O1RsOtqSIpnsoEg1EMzF3JNEBmvssLjbhwylp8S/s960/308096_359395350809321_1096262164_n%255B1%255D.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8SwCHgMyt3YQblvkSJIWBOFfx-Lw3G8xMjvW2ByH-GjjEMBN2CNJeyOBYqxgZ4K4e_cz0nR6j7RWQmi_8CFjROhh2IoTnsJzbEnJw8O1RsOtqSIpnsoEg1EMzF3JNEBmvssLjbhwylp8S/w150-h200/308096_359395350809321_1096262164_n%255B1%255D.jpg" width="150" /></a></div><br /><div><br /></div><div><br /></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-42176308506133373792021-05-23T11:47:00.003+05:302021-05-24T10:30:22.170+05:30आवारा सरकार<div style="text-align: left;"><div><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>(1)</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जनता</b></div><div><b>सरकार बनाती ज़रूर थी</b></div><div><b>बनाए बिना मानती नहीं थी</b></div><div><b>लेकिन</b></div><div><b>बन जाने के बाद वह सरकार </b></div><div><b>जनता की क्यों नहीं रह पाती थी</b></div><div><b>आखि़र</b></div><div><b>वह कौन बीच में आ जाता था</b></div><div><b>जिसके साथ सरकार हर बार भाग जाती थी</b></div><div><b>बेचारी</b></div><div><b>जनता हाथ मलती रह जाती थी</b></div><div><b>दिन-रात बच्चों के बारे में सोच-सोच कर</b></div><div><b>हलकान होती रहती थी</b></div><div><b>गऊ जैसी सीधी-सादी जनता कर भी क्या सकती थी</b></div><div><b>जो जिधर कहे अपनी सरकार ढूँढने चली जाती थी</b></div><div><b>किसी माई के थान पर किसी पीर-मुर्शिद के पास कहीं भी</b></div><div><b>और थक-हार कर वापस अपनी बस्ती में लौट आती थी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>(2)</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जनता </b></div><div><b>कोई एक थोड़े थी</b></div><div><b>कई शक्लों और कद-काठी में बँटी हुई थी</b></div><div><b>पहले का मुँह सबसे बड़ा था हिंदू था</b></div><div><b>दूसरा मुसलमान था तीसरा सिख था</b></div><div><b>चौथा ईसाई था पाँचवाँ घमंजा था</b></div><div><b>और इनकी सरकारें आवारा थीं</b></div><div><b>तरह-तरह के लिबास पहनती थीं</b></div><div><b>इत्र लगाती थीं गहने गढ़ाती थीं</b></div><div><b>किसी के भी साथ कभी भी भाग जाती थीं</b></div><div><b>कभी हिंदू की सरकार भाग जाती थी</b></div><div><b>तो कभी मुसलमान की कभी किसी की</b></div><div><b>सरकार मुँह अँधेरे भी भागती थी</b></div><div><b>तो कभी दिन दहाड़े भी भागती थी</b></div><div><b>जब सरकार भाग जाती थी</b></div><div><b>तो जनता के मुँहों से हवाईयाँ उड़ जाती थीं</b></div><div><b>जैसे यह सब</b></div><div><b>उसके साथ पहली बार हो रहा हो</b></div><div><b>जबकि उसके साथ हर बार यही होता था </b></div><div><b>पहले से उसके राजनीतिक भाग्य में लिखा होता था</b></div><div><b>सरकार भागेगी तो कुछ दिन जनता रोये-धोयेगी</b></div><div><b>और जगह-जगह सरकार को ढूँढने के बाद </b></div><div><b>अंत में रपट लिखाने थाने पर जाएगी।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>(3) </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इतना बड्डा</b></div><div><b>हुजूम देखकर </b></div><div><b>थानेदार की भौंहें फड़कने लगी थीं</b></div><div><b>कड़क आवाज़ में पूछा क्या माज़रा है,</b></div><div><b>हिंदू ने कहा हुज़ूर मेरी वाली भाग गयी </b></div><div><b>मुसलमान ने कहा मेरी वाली भाग गयी </b></div><div><b>फिर औरों ने भी कहा मेरी वाली भाग गयी</b></div><div><b>थानेदार ने झल्लाकर कहा -</b></div><div><b>अबे कुल कितनी भैंसें भाग गयीं</b></div><div><b>सबकी भैंसे एक साथ भागीं या भगायी गयीं</b></div><div><b>- नहीं, नहीं थानेदार साहब</b></div><div><b>भैंस नहीं हमारी सरकारें भाग जाती हैं</b></div><div><b>उनके भागने-भगाने की रपट दर्ज़ करो</b></div><div><b>थानेदार ने रोबीली आवाज़ से हड़काया -</b></div><div><b>क्या मैं तुम्हें पागल दिखता हूँ</b></div><div><b>अरे गधो सरकारें भी कहीं भागती हैं</b></div><div><b>हा हा हा हो हो हो</b></div><div><b>भागो यहाँ से तुम सब</b></div><div><b>भाँग खाकर आये या गाँजा पीकर</b></div><div><b>ऐसी सरकारें बनाते ही क्यों हो</b></div><div><b>जो किसी भी अड्डे-बड्डे के संग भाग जाएँ। </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>(4)</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>पुरानी-धुरानी</b></div><div><b>हवेली उदास थी </b></div><div><b>कनीज़ की कनीज़ दिखती </b></div><div><b>कनीज़ चमेली उदास थी</b></div><div><b>फटेहाल नवाब साहब उदास थे </b></div><div><b>तबलची उदास थे गवैये उदास थे</b></div><div><b>नचनिये-पदनिये उदास थे मतलब</b></div><div><b>हिंदी के कबी-सबी अम्पादक-संपादक</b></div><div><b>और अफ़सानानिगार वगैरह सारे</b></div><div><b>इनामी-सुनामी सब उदास थे</b></div><div><b>चाँदनी रात और सुरमई शाम</b></div><div><b>और सुर्ख़ आफ़ताब सब उदास थे</b></div><div><b>राजनीति की इस उदासी पर लिखी जा रही</b></div><div><b>कविताएँ उदास थीं कहानियाँ उदास थीं</b></div><div><b>दिन उदास था उजाला उदास था</b></div><div><b>चाय का प्याला और रसरंजन का गिलास</b></div><div><b>सब उदास था </b></div><div><b>बहत्तर साल से ढहती हुई हवेली उदास थी</b></div><div><b>यहाँ तक कि उदासी भी उदास थी</b></div><div><b>हम सबकी बेग़म सरकार </b></div><div><b>किसी साहूकार के साथ भाग गयी थीं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>(5)</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जिन सरकारों को </b></div><div><b>जनता के साथ घर बसाकर रहना नहीं आता</b></div><div><b>तो बनती ही क्यों हैं इंकार क्यों नहीं कर देतीं</b></div><div><b>शुरू में ही कह क्यों नहीं देतीं</b></div><div><b>कि हमें मुँह दिखाई में चंद्रहार चाहिए </b></div><div><b>हमें रहने के लिए सोने के लिए</b></div><div><b>अच्छे से अच्छा सोने का महल चाहिए</b></div><div><b>नये ज़माने का एंटीलिया-फेंटीलिया से भी शानदार चाहिए </b></div><div><b>दूल्हा तो सबसे अमीर चाहिए खानदान आला चाहिए</b></div><div><b>किसी चिरकुट निरहुआ घिरहुआ के साथ</b></div><div><b>उसकी टप-टप चूती झोपड़ी में नहीं रहना है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>(6)</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यही वक़्त था सही वक़्त था</b></div><div><b>जब पुलिस की नाकामी के बाद</b></div><div><b>जासूस तिरलोकचन को लाया गया</b></div><div><b>जासूस ने अपना हैट उतारा</b></div><div><b>सिर खुजलाया आँखे मिचकाया</b></div><div><b>और बताया-</b></div><div><b>इसी सरकारी बंगले से </b></div><div><b>इसी वजीर की कोठी फाँदकर</b></div><div><b>इसी चोर रास्ते से इसी सुरंग से</b></div><div><b>इसी आँख में पट्टी बंधी हुई </b></div><div><b>किताब से मुँह छिपाकर </b></div><div><b>सरकारें भागती रहती हैं</b></div><div><b>जासूस तिरलोकचन ने</b></div><div><b>ऐलान किया था कि उन्होंने </b></div><div><b>भागी हुई सरकारों के बारे में</b></div><div><b>सब पता कर लिया है</b></div><div><b>कौन हैं जो ऐसी मनचली सरकारों को</b></div><div><b>भगाकर ले जाते हैं और ऐश करते हैं</b></div><div><b>ऐसे लोगों के खि़लाफ़ सारे सबूत हैं</b></div><div><b>सारे गवाह हैं मुकम्मल तैयारी है</b></div><div><b>हम इन्हें गिरफ़्तार कर सकते हैं</b></div><div><b>हम इन्हें हमेशा के लिए</b></div><div><b>सलाखों के पीछे डाल सकते हैं</b></div><div><b>जासूस तिरलोकचन ने</b></div><div><b>जनता की ओर देखा अपना हैट उतारा</b></div><div><b>पीठ पर हाथ ले जाकर सिर झुकाया</b></div><div><b>और अतिविनम्रता से कहा- </b></div><div><b>बस एक बार ढंग से </b></div><div><b>जनता का साथ देने वाली</b></div><div><b>सरकार आ जाय।<br /></b></div></div><div><br /></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjA8aKBUzugoM2H76dmOsm5CvFT0Tnd4S9GxQl2rVwHAX9NlFzJoBrv-u5fKLTE3_OmTa_zkI8F8bA6yT3YQxQ3nTc5SHSRUyXGUxILg2CuKYk9J9HZ1U8bQvHzklVK2swcGGunXPH4D_ok/s1116/IMG-20150628-WA0005.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1116" data-original-width="718" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjA8aKBUzugoM2H76dmOsm5CvFT0Tnd4S9GxQl2rVwHAX9NlFzJoBrv-u5fKLTE3_OmTa_zkI8F8bA6yT3YQxQ3nTc5SHSRUyXGUxILg2CuKYk9J9HZ1U8bQvHzklVK2swcGGunXPH4D_ok/w129-h200/IMG-20150628-WA0005.jpg" width="129" /></a></div><br /><div><br /></div></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-72434335389183138162021-05-09T21:11:00.009+05:302021-06-28T10:24:53.286+05:30समय सीरीज़<div style="text-align: left;"><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: left;"><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>1</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>समय </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सब बीत जाता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>लेकिन कोई समय ऐसा भी होता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>नहीं दिखता है </b><b>जिसका बीतना </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पहाड़ की तरह </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>ठहरा हुआ एक समय है </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोई समय है सिर्फ़ तारीख़ बदलती है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>किसी के </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जीवन का पहिया रुक जा रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>किसी का थर-थर काँप रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इतना बुरा समय कभी नहीं देखा था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>किसी घर का एक हरा-भरा स्वस्थ वृक्ष </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>किसी रोगी के छींक भर देने से </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>खड़े-खड़े दो दिन में सूख जा रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बुज़ुर्ग बेचारे </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>भय से धराशायी हो जा रहे हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>उनकी नींद भी जैसे नींद की पनाह में हो</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह जीना भी मरने की तरह है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोई मुँह पर ज़रा-सा खाँस भर दे </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>तो बड़े-बड़े बाऊ साहब की सिट्टी-पिट्टी </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>गुम हो जा रही है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक उत्साही युवक</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बड़े मान से अपने शुभ-विवाह का </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>निमंत्रण-पत्र बाँटकर आ रहा है और वह</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>दो दिन बाद शोक में बदल जा रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक युवा पिता </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सारे एहतियात के बावजूद</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बहुत डरा हुआ घर से निकलता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और उसी तरह डरा हुआ घर लौटता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>स्नान करने कपड़े बदलने के बाद भी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अपनी लाड़ली को गोद में उठाकर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>चूमने से डरता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बड़े तो समझ रहे हैं </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कि यह सब उनके साथ हो क्या रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं कि समय </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>उनके साथ कर क्या रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हे समय </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बहुत कर ली मनमानी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अब अपना डोला बढ़ाओ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जाओ किसी और ग्रह पर डेरा डालो</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मैं कहता हूँ हटो दफ़ा हो जाओ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>खाली करो हमारे बच्चों की पृथ्वी।</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>2</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>ओह</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>फूलों में ख़ौफ़ है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हवाओं में निकल आए हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>ज़हरीले डंक </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पंखुड़ियों तक में </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पैदा हो गया है जानलेवा ख़ौफ़</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>ख़ुद को अलग कर लिया है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>दूसरे से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>फूल सदमे में हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मंदिर में मंडप में गुलदस्ते में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यहाँ तक कि प्रेम का संदेश लेकर भी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जाने से मना कर दिया है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह कैसा समय है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसे देखते ही कुम्हला जाता है </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>फूल का मुख </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>काँपने लगती है उसकी रूह</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>ताकती रहती हैं आँखें बगीचे में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोई आए और मोड़ दे </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>समय का रथ।</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>3</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>किस लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>ट्रंप के जाने के लिए या फिर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मोदी के रह जाने के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>क्या यह समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इतना छोटा है इतना तुच्छ है कि</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>किसी राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री के</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>आने-जाने के लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>दुनिया का क्रूरतम समय है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जो लाखों फ़ौज़ियों के मारे जाने के लिए नहीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>असंख्य निर्दाष लोगों के मारे जाने के लिए </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>याद किया जाएगा </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>दोष राजा का था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और मारे गए अपनी हड्डियों से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अपनी मांस-मज्जा से अपने हाथों से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अपनी आँखों से और उनमें बसे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>स्वप्न से सिंहासन बनाने वाले</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जब मर रहे थे जन</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>असहाय असमय समूह में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>राजा अपने महल में मगन था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>चक्रवर्ती राजा बनने के स्वप्न देख रहा था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>राजा को प्रजा के स्वप्न न दिखायी देते थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न उसकी चीख़ें सुनायी देती थीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>वह अभी-अभी लौटा था आखेट से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>तमाम हिरनों-हिरनियों और उनके शावकों का</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>शिकार करके</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बाहर </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हर शहर, हर गाँव-गली में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मौत का सन्नाटा पसरा हुआ था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>घरों के भीतर से सिसकियाँ </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और चूड़ियों के तोड़े जाने की आवाज़</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बाहर आ रही थी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह समय </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>धरती और आकाश को एक कर देने वाले</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इस रुदन के लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कि राजा और दरबारियों की अद्भुत</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जुगलबंदी के लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>राजा बूढ़ा था </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>चाहे उसके केश और लंबी दाढ़ी पर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सृष्टि की सारी चांदनी उतर आयी थी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>लेकिन उसका</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>माउथऑर्गन बजाने का अंदाज़ वही था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह समय </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>आखि़र किस लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न प्रेम के लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न फूलों के खिलने के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न हवा के चलने के लिए </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न नदी के बहने के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न राजा के पसीजने के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न प्रजा का भाग्य बदलने के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>प्रजा के दुर्भाग्य के लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>परिजनों-स्वजनों के </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>असमय वियोग के लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>शवों के अनगिनत रह जाने और शव हो जाने के </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>भय के लिए याद किया जाएगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह समय </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हिंदुत्व के उभार के लिए नहीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए नहीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोरोना से हार के लिए याद किया जाएगा।</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>4</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>गोरखपुर में बारिश हो रही है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोलकाता में भी बारिश हो रही होगी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हैदराबाद भी भीग रहा होगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>चेन्नई की सड़कों पर जल का रेला होगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>क्या देश क्या परदेश हर जगह</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सबका मौसम एक है सबकी मुश्किल एक है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>देश और दुनिया में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>घड़ी की सुइयाँ अलग-अलग हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कैलेंडर के पन्ने अलग-अलग हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कहीं भी किसी का भी समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अलग नहीं है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बारिश एक जैसी हो रही है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बादल एक जैसे गरज रहे हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बिजली एक जैसी कड़क रही है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सब एक जैसे सहमे हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सब एक जैसे बिलख रहे हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सब एक जैसे चुप हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सब जगह</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक पिता है एक माँ है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक भाई है एक पत्नी है </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक जैसे बच्चे हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जीवन में कोई भी बुनियादी चीज़</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अलग नहीं है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अच्छा समय सबको</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक जैसा हँसाता है गोद में उठाता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>होंठों पर एक जैसी मुस्कान जड़ देता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सब एक जैसे प्रेम करते हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक-दूसरे की क़द्र करते हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक दूसरे का ख़याल रखते हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अच्छा समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बहुत अच्छा होता है बहुत कोमल होता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बुरा समय उसे छूभर दे तो मुरझा जाता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जैसे आज दुनिया के सारे अच्छे समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>असमय झर गये हैं डाल से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>धूल-धूसरित हो गये हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>किसी बाग़ में किसी मैदान में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोई रामलीला नहीं हो रही है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक सचमुच का रावण-समय </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पृथ्वी की मुँडेर पर पैर रखकर </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अट्टहास कर रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और इसके दर्प को चूर-चूर करने के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोई राम नहीं है कोई युद्ध नहीं है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोई धर्म किसी काम का नहीं है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हर जगह एक अकेला मनुष्य है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अपने लोगों के लिए हाय-हाय करता</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इधर-उधर भागता चीख़ता-पुकारता</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>समय के पैरों में अपना शीश</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पटक-पटक कर फोड़ता</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इस काल से जूझता</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मारा-मारा फिरता हुआ कोई कवि</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कितनी लंबी कविताएँ लिखेगा</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और उन कविताओं में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>काल के काल की कामना में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मंत्र का जाप करेगा।</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>5</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>वह भी एक समय था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जब अंग्रेज़ी दवाएँ मिलना तो दूर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>तेतरी बाज़ार में दिखती तक नहीं थीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कोई साठ साल पहले आज की तरह</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बाज़ार कहाँ थे बस ग्रामसभाएँ थीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिला परिषद का एक आयुर्वेदिक</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अस्पताल था मेरे घर से दूर था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसका चूरन बच्चों में बहुत मशहूर था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इसीलिए कंपाउंडर अनिवार्य रूप से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सभी बच्चों के चाचा थे और हम </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इसीलिए चूरन लेने जाते थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>वह एक आयुर्वेदिक समय था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जूड़ीताप हो</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>चाहे साधारण ज्वर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>माँ दो घर छोड़कर पंसारी की दुकान से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>वेदना निग्रह रस की पुड़िया लेकर आती</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कहती फाँक लो और उसके बाद </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पानी की घूँट के साथ जादुई दवा भीतर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और थोड़ी देर में बुख़ार बाहर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>वह भी एक समय था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जब चाहता था कि बुख़ार आए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>तो बुआ आए ख़ूब सारा मुनक्का लेकर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और मैं खाता जाऊँ खाता जाऊँ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कभी-कभी शरीर पर कुछ दाने निकलने पर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कभी माँ बुआ मिलकर शीतला माता के गीत गातीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>नीम की पत्तियों का गुच्छा फिरातीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>प्राइमरी स्कूल में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>चेचक का टीका लगाने वालों को</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>चाचा नहीं कहते थे छपहार कहते थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>उसे देखते भी नहीं थे आना सुनते ही</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बस्ता छोड़कर भाग लेते थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कई दिन स्कूल नहीं जाते थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>छपहार भी चकमा देकर आते थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और हम बच्चों को एक बड़ी बीमारी से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इस तरह बचाते थे कि हमारी दुनिया</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>आखि़र चेचक के विषाणु से बच गयी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक यह समय है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हमारी दुनिया थर-थर काँप रही है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सर्दी-बुख़ार-खाँसी से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>कहाँ हो माँ कहाँ हो बुआ और बाबूजी </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>आओ देखो </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पृथ्वी का सबसे उन्नत चिकित्साविज्ञान</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>आज तुम्हारी संततियों और उनकी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>संततियों को आश्वस्त नहीं कर पा रहा है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बहुत बड़े-बड़े चिकित्सा संस्थान हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिनकी कल्पना आप सबने नहीं की होगी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और ये सब नाकाफ़ी हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हम बच्चे थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>लेकिन उस वक़्त भी </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मुश्किलें कम नहीं रही होंगी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जमोगा माई का नाम सुना था</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिससे अनगिनत नन्हें दीप जन्म लेते ही बुझ जाते थे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>रोती-बिलखती-सुबकती रह जाती थीं नयी-नयी माँएँ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>टिटनेस की सुई भी आयी </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मनुष्य ने विजय पायी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>रोग और मनुष्य का यह संघर्ष अनंत है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>विषाणु और मनुष्य की जिजीविषा में</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हमेशा मनुष्य की जीत हुई है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और होती रहेगी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह संघर्ष लंबा हो सकता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मनुष्य की कोशिश कभी कम नहीं होगी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हमारे पुरखों ने भी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इसी तरह डर कर लड़ कर और बच कर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हमें बचाया है हम भी अपनी संततियों को</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>उनकी संततियों को बचाएंगे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हमारी उदासी हमारा रोना</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>थोड़े दिनों की बात है सब दूर हो जाएगा </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पृथ्वी की हरी-भरी छाती पर हलचल होगी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>फुटबॉल हॉकी क्रिकेट कबड्डी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और आइस-पाइस खेलते हुए हमारे बच्चे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इस दुनिया को फिर से </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जीवन के शोर से भर देंगे हम देखेंगे</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हम ज़रूर देखेंगे।</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>6</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह नीम का नहीं समय का पेड़ है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसकी डाल में अब झूले नहीं पड़ते</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सखियाँ जिस पर झूलती नहीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>भाभियाँ कजरी नहीं पातीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसकी सींक से बुज़ुर्ग अब </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>नहीं निकालते दाँतों में फँसे दुख</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसकी छड़ी से कोई पिता अपने पुत्र को</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मारता नहीं स्कूल जाने के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह मेरे बाबा का नाना का लगाया हुआ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>नीम का पेड़ नहीं है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसकी छाया में जुड़ाते रहे हम</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसके नीचे रातों में चौन से</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सोते रहे हम</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सुबह उठते ही जिसकी निंबोलियाँ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>बीनते रहे हम</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह समय का पेड़ है नीम का नहीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न यह दातून के काम का है न छाया के</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न किसी राहगीर के सुस्ताने के काम का</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सब इससे दूर भागते हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न कोई प्रेमिका </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इसके तने से टिककर खड़ी होती है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न कोई प्रेमी इसकी सख़्त छाल पर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अपना और अपनी प्रेमिका का </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>नाम लिखता है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>इस पेड़ पर</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>न चिड़ियों की चहचहाहट है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>और न परिंदों का घोंसला</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>यह पृथ्वी का एक अभिशप्त पेड़ है</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जिसकी पत्तियों से प्राणवायु नहीं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>झर-झर-झर माहुर झरता है।</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>7</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हे समय माता</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>शीश नवाता हूँ प्रसाद चढ़ाता हूँ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>नारियल फोड़ता हूँ टीका लगाता हूँ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>रक्षासूत्र बंधवाता हूँ </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>धागा बाँधता हूँ </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पृथ्वी के एक-एक जन के जीवन की रक्षा के लिए </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक-एक पुष्प की हँसी एक-एक मुस्कान</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अच्छे-बुरे आस्तिक अर्द्ध आस्तिक नास्तिक </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>सबके लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>समय के इस प्रहार की धार को</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मोड़ दो माता अपने बच्चों के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>समय से लड़ जाओ समय माता</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हे समय माता भला समय</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>आप से बाहर कहाँ जा सकते हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>एक बार उन्हें टोक दो रोक दो</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>उनकी बाँह पकड़ कर </b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>पीछे खींच लो</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b><br /></b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हे समय माता</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>जैसे पूर्वांचल की माताएँ</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अपने बच्चों की छोटी-छोटी खुशियों के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>हलवा-पूड़ी की कड़ाही चढ़ाती हैं</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>मैं भी पृथ्वी के सभी बच्चों की रक्षा के लिए</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>नया समय आने पर कोरोना पर लिखी</b></div><div style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt;"><b>अपनी लंबी कविताओं की कड़ाही चढ़ाऊँगा माँ।</b></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8SwCHgMyt3YQblvkSJIWBOFfx-Lw3G8xMjvW2ByH-GjjEMBN2CNJeyOBYqxgZ4K4e_cz0nR6j7RWQmi_8CFjROhh2IoTnsJzbEnJw8O1RsOtqSIpnsoEg1EMzF3JNEBmvssLjbhwylp8S/s960/308096_359395350809321_1096262164_n%255B1%255D.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8SwCHgMyt3YQblvkSJIWBOFfx-Lw3G8xMjvW2ByH-GjjEMBN2CNJeyOBYqxgZ4K4e_cz0nR6j7RWQmi_8CFjROhh2IoTnsJzbEnJw8O1RsOtqSIpnsoEg1EMzF3JNEBmvssLjbhwylp8S/w150-h200/308096_359395350809321_1096262164_n%255B1%255D.jpg" width="150" /></a></div><br /><div><br /></div></div></div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-29959075118311979212021-03-06T15:22:00.001+05:302021-03-07T14:28:10.849+05:30 एक बूढ़े की प्रेमकथा<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बुढ़ापे में</b></div><div><b>जब-जब थाली धुलता हूँ</b></div><div><b>तो देखता रहता हूँ उसमें</b></div><div><b>प्रियतमा का झिलमिल मुख</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>आटा गूँथता हूँ</b></div><div><b>तो लगता है किसी </b></div><div><b>कमनीय देह को छू रहा हूँ</b></div><div><b>किसी की हथेलियाँ</b></div><div><b>मेरी हथेलियों से खेल रही हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>रोटी बेलता हूँ</b></div><div><b>तो लोई बनाने से बेलने</b></div><div><b>और तवे पर रखने तक</b></div><div><b>किसी की चूड़ियाँ संग-संग</b></div><div><b>बजती हैं बजती रहती हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>गर्म तवा</b></div><div><b>उँगलियों से छूभर जाए</b></div><div><b>तो लगता है कि किसी के</b></div><div><b>तप्त होंठ हैं</b></div><div><b>बेध्यानी में प्रायः छू जाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सब्जी काटता हूँ</b></div><div><b>तो अक्सर चाकू की धार से</b></div><div><b>छू जाती हैं उँगलियाँ</b></div><div><b>लगता है किसी की आँखों को</b></div><div><b>छू लिया है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जब </b></div><div><b>रोटी और सब्जी</b></div><div><b>लेकर खाने बैठता हूँ</b></div><div><b>तो झर-झर बहने लगती हैं </b></div><div><b>दो बूढ़ी आँखें</b></div><div><b>तुम्हे सामने देखकर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ऐसा क्यों होता है</b></div><div><b>मेरी परिणीता मेरी मीता</b></div><div><b>मेरी कुसुमलता </b></div><div><b>चाहे जीवन में </b></div><div><b>लाख बेकदरी की हो</b></div><div><b>अब तुम्हारे बिना एक पल</b></div><div><b>रहा नहीं जाता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कब आओगी</b></div><div><b>अब जब भी आओगी</b></div><div><b>बर्तन मैं धुलूँगा रोटी मैं बनाऊँगा</b></div><div><b>तुम्हारी वेणी चाँदनी के फूलों से</b></div><div><b>मैं सजाऊँगा।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMErPMgWP4hF0abh_vhfVVer0I_p3XxMdKIblQ04BGqg_Y4MwDS_q1m_F_CGjYeQtXjxLWR4S2OR_8SmbkHwgLFAspbLVGbZJ9yQB86D9pHR-ovV7quZIlNetp7vzvmal8NOxAw5tJAJcE/s808/DSC_0002.JPG" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="808" data-original-width="461" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMErPMgWP4hF0abh_vhfVVer0I_p3XxMdKIblQ04BGqg_Y4MwDS_q1m_F_CGjYeQtXjxLWR4S2OR_8SmbkHwgLFAspbLVGbZJ9yQB86D9pHR-ovV7quZIlNetp7vzvmal8NOxAw5tJAJcE/s320/DSC_0002.JPG" /></a></div><br /><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-47806643256892434802021-01-29T22:49:00.003+05:302021-01-29T22:49:29.457+05:30सोने की चिड़िया तथा अन्य कविताएं<div style="text-align: left;"><div><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सोने की चिड़िया</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>यह </b></div><div><b>इस देश की विशेषता है</b></div><div><b>इसे बुरे लोगों ने ही अच्छा बनाया है</b></div><div><b>अंग्रेजों ने कितना विकास किया</b></div><div><b>रेल छापाखाना टेलीफोन स्कूल कालेज</b></div><div><b>ओह तमाम नयी-नयी चीज़ें लेकर आए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उन बुरे लोगों के जाने के बाद</b></div><div><b>दूसरे लोग आए जो हमारे अपने थे</b></div><div><b>उनसे किसी भी मामले में कम न थे</b></div><div><b>बड़े-बड़े कल-कारखाने </b></div><div><b>चौड़ी-चौड़ी सड़कें तमाम हवाईअड्डे</b></div><div><b>जमींदारी ख़त्म खेतों की हदबंदी</b></div><div><b>रुपया कमाने की कोई पाबंदी नहीं</b></div><div><b>और राममंदिर का ताला भी खुलवाया</b></div><div><b>ढहाने वालों ने गुम्बद भी ढ़हाया</b></div><div><b>हमारे अपने लोगों ने कितनी सुंदरता से</b></div><div><b>सरकार चलाया और किस सरकार ने</b></div><div><b>दंगा और क़त्लेआम नहीं कराया</b></div><div><b>विकास तो अंग्रेजों से कम नहीं हुआ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>राजनीति में बुरे लोग नहीं होते</b></div><div><b>तो लोगों को न तन ढकने के लिए </b></div><div><b>एक जोड़ा वस्त्र मिलता</b></div><div><b>न जीने के लिए मुट्ठीभर अन्न</b></div><div><b>यह सब इसी देश में संभव है </b></div><div><b>कि बुरे लोगों से जनता किस तरह</b></div><div><b>अच्छा काम कराती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बुरे लोग ही</b></div><div><b>इस देश को आगे और अच्छा बनाएंगे</b></div><div><b>बस इस सरकार के जाने की देर है</b></div><div><b>आने वाले प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री</b></div><div><b>इस देश और प्रदेश को </b></div><div><b>सोने की चिड़िया बनाने के लिए</b></div><div><b>जादू की छड़ी लेकर तैयार बैठे हैं</b></div><div><b>वह सोने की चिड़िया </b></div><div><b>कितनी ऊँचाई पर उड़ेगी</b></div><div><b>जनता के हाथ आएगी या नहीं</b></div><div><b>यह सब एक मामूली कवि</b></div><div><b>कैसे बता सकता है!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>------</b></div><div><b>पेशा</b></div><div><b>------</b></div><div><b>जैसे </b></div><div><b>दाएँ हाथ का अपना पेशा है</b></div><div><b>उसी तरह बाएँ हाथ का भी अपना पेशा है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>राजनीति करने वाले ही नहीं</b></div><div><b>साहित्य में अनीति करने वाले भी</b></div><div><b>इसी पेशे में हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>------</b></div><div><b>पार्टी</b></div><div><b>------</b></div><div><b>ओह </b></div><div><b>सिर्फ़ अमुक पार्टी बुरी है</b></div><div><b>चरित्रहीन है क्रूर है हत्यारी है</b></div><div><b>तो इसे इसके चुनने वालों समेत </b></div><div><b>ले जाओ जंगल में छोड़ आओ</b></div><div><b>जाओ जल्दी करो मैं मना नहीं करता</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अमुक पार्टी ही</b></div><div><b>सच्चरित्र है पवित्र है परोपकारी है </b></div><div><b>जनतारिणी है मोक्षदायिनी है</b></div><div><b>ईश्वर की गोद से उतरी पार्टी है तो इसे</b></div><div><b>अगले चुनाव में सरकार में लाने के लिए </b></div><div><b>रूठे हुए लोगों को जंगल से बुलाओ</b></div><div><b>गला फाड़- फाड़कर पुकारो-चिल्लाओ</b></div><div><b>उन्हें मनाओ न मानें </b></div><div><b>तो उनकी मर्जी की पार्टी बनाओ</b></div><div><b>मैं भर्ती होने के लिए तैयार बैठा हूँ।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>राजनीतिक रोटियाँ</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>किसी वयस्क लोकतंत्र में</b></div><div><b>कोई आंदोलन हो प्रदर्शन हो अनशन हो </b></div><div><b>उसमें पूरी शुचिता तो होती ही होगी</b></div><div><b>भला किसी जन आन्दोलन में राजनीतिक पार्टियां </b></div><div><b>अपनी रोटी क्यों सेंकना चाहेंगी</b></div><div><b>अपने महान भारत में तो</b></div><div><b>बिल्कुल नहीं!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>अकाट्य सत्य</b></div><div><b>----------------</b></div><div><b>नहीं-नहीं </b></div><div><b>न्याय मूल्य सिद्धांत आदर्श वगैरह की </b></div><div><b>बात करने वाले बेईमान नहीं हो सकते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>यह हमारे समय का अकाट्य सत्य है</b></div><div><b>क्यों साहित्य-प्रवर विचार-श्रेष्ठ आचार्य</b></div><div><b>बोलो शिष्यो बोलो </b></div><div><b>बोलो अनुकरणकर्ताओ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अलबत्ता हाँ-हाँ पक्का</b></div><div><b>बेईमान तो इन पर शक करने वाले होंगे</b></div><div><b>क्यों साहित्य-राजन!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>वैचारिक शत्रुता</b></div><div><b>-------------------</b></div><div><b>शत्रुता</b></div><div><b>और राजनीतिक विवेक में</b></div><div><b>क्या फ़र्क है जानते हो वत्स</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>विवेक </b></div><div><b>किसी भी व्यक्ति और दल के</b></div><div><b>गुण-दोष की बिना किसी भेदभाव के</b></div><div><b>पहचान करता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>इन्हें देखो </b></div><div><b>शूकर नहीं हमारे समय के लेखक हैं</b></div><div><b>वैचारिक शत्रुता में कर क्या रहे हैं</b></div><div><b>शत्रु के नाश के लिए गंदा खा रहे हैं।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b><br /></b></div><div><b>.........................................................................</b></div><div><b>ऐतिहासिक विदाई</b></div><div><b>----------------------</b></div><div><b>राजनीति</b></div><div><b>और साहित्य से</b></div><div><b>आदर्शों की विदाई</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कब से शुरू हुई</b></div><div><b>और कब पूरी हुई</b></div><div><b>प्रक्रिया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>कुछ याद है आपको</b></div><div><b>आचार्यप्रवर विचारप्रमुख</b></div><div><b>साहित्य-राजन!</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>-------------</b></div><div><b>हमारे बच्चे</b></div><div><b>--------------</b></div><div><b>महान विचार भी</b></div><div><b>आदर्शों की शवयात्रा में</b></div><div><b>अपने कंधे सौंप चुके हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अब ये</b></div><div><b>अपने हथियार </b></div><div><b>और अपने विचारों का बोझ</b></div><div><b>रखेंगे कहाँ</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>बेचारे विचार</b></div><div><b>धूल में मिल जाएंगे</b></div><div><b>ऐसे खो जाएंगे कि फिर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सदियाँ ढूँढती रह जाएंगी</b></div><div><b>हमारी पीढियां हमारी नस्लें</b></div><div><b>ओह हमारे बच्चे कैसे जिएंगे।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>-----</b></div><div><b>भय </b></div><div><b>-----</b></div><div><b>ओह</b></div><div><b>इतना भय तो</b></div><div><b>मृत्युदण्ड में भी नहीं होता होगा</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जितना</b></div><div><b>आज हिन्दी के लेखकों में है</b></div><div><b>वे अपनी मर्जी का लघुकार्य भी</b></div><div><b>नहीं कर सकते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>अपनी मर्जी का</b></div><div><b>लिखना और बोलना तो दूर</b></div><div><b>वे धारा के विरुद्ध छींक तक नहीं सकते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जनमुक्ति का भार</b></div><div><b>और विचार का प्रभार</b></div><div><b>इन्हीं के सिर पर है </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ये पैदा हुए ही हैं</b></div><div><b>एक सुरक्षित और जोखिममुक्त </b></div><div><b>गिरोह में रहने के लिए</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>ये देश के लिए जीने की</b></div><div><b>बात तो करते हैं लेकिन जी नहीं पाते हैं</b></div><div><b>इनके भय का नगाड़ा इनके पिछवाड़े </b></div><div><b>बजता रहता है बजता ही रहता है।</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>---------------------------------------</b></div><div><b>हाथी के पैरों से कुचल दी जाएंगी</b></div><div><b>---------------------------------------</b></div><div><b>मेरे</b></div><div><b>राजनीतिक विचार</b></div><div><b>अपने समय के लेखकों से</b></div><div><b>रत्तीभर भी मेल नहीं खाते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>शायद</b></div><div><b>उन्हें भय है कि विचार की जगह</b></div><div><b>विवेक चुनेंगे तो उनके भविष्य को</b></div><div><b>गोली मार दी जाएगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>उन्हें भय है</b></div><div><b>कि उनकी कविताएँ</b></div><div><b>अपने समय के आलोचकों के</b></div><div><b>हाथी जैसे पैरों से कुचल दी जाएंगी</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>भला ऐसे लेखकों के विचारों से</b></div><div><b>किसी स्वाधीन लेखक के विचार</b></div><div><b>कैसे मेल खा सकते हैं।</b></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8SwCHgMyt3YQblvkSJIWBOFfx-Lw3G8xMjvW2ByH-GjjEMBN2CNJeyOBYqxgZ4K4e_cz0nR6j7RWQmi_8CFjROhh2IoTnsJzbEnJw8O1RsOtqSIpnsoEg1EMzF3JNEBmvssLjbhwylp8S/s960/308096_359395350809321_1096262164_n%255B1%255D.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8SwCHgMyt3YQblvkSJIWBOFfx-Lw3G8xMjvW2ByH-GjjEMBN2CNJeyOBYqxgZ4K4e_cz0nR6j7RWQmi_8CFjROhh2IoTnsJzbEnJw8O1RsOtqSIpnsoEg1EMzF3JNEBmvssLjbhwylp8S/w150-h200/308096_359395350809321_1096262164_n%255B1%255D.jpg" width="150" /></a></div><br /><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-48112476118893888212020-11-18T15:18:00.001+05:302020-11-18T15:18:17.677+05:30दीया<div style="text-align: left;">- गणेश पाण्डेय</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div>पहला दीया</div><div>उनके लिए जो देख नहीं पाते</div><div>दूसरा उनके लिए जो दीया को दीया कह नहीं पाते</div><div>तीसरा उनके लिए जो दीया की कोई बात सुन नहीं पाते</div><div><br /></div><div>एक दीया हिंदी के उन भयभीत दोस्तों के नाम </div><div>जिन्होंने मुझे चींटी की मुंडी के बराबर दोस्ती के लायक़ नहीं समझा</div><div><br /></div><div>हिंदी के उन दुश्मनों के नाम भी कुछ दीये ठीक उनकी अक़्ल के पिछवाड़े</div><div>जिन्होंने हमेशा चूहे की पीठ पर बैठकर शेर की पूँछ मरोड़ने की ज़िद की</div><div><br /></div><div>ये दीये उन तमाम अदेख दोस्तों की नम आँखों के नाम </div><div>इस वर्ष हारी-बीमारी और हादसों में छोड़ गये जिनके प्रिय और बुज़ुर्गवार</div><div>चाहे मारे गये मोर्चे पर जिनके बेटे</div><div>पति और पिता और गाँव के गौरव</div><div><br /></div><div>पृथ्वी की समूची मिट्टी और आँसुओं से बने ये दीये</div><div>क्यों नहीं मिटा पाते हैं, सदियों से बढ़ता ही जाता अँधेरे का डर</div><div><br /></div><div>एक थरथराती हुई स्त्री के जीवन में </div><div>क्यों नहीं ला पाते हैं जरा-सा रोशनी</div><div>ये दीये क्यों नहीं जला पाते हैं </div><div>हत्यारों का मुँह उनके हाथ </div><div>और लपलपाती हुई जीभ</div><div><br /></div><div>ये दीये उम्मीद के सही, हार के नहीं</div><div>ये दीये बारूद के न सही, प्यार के सही</div><div>ये दीये क्रांति के न सही, प्रतीक सही</div><div>दोस्तो फिर भी जलाता रहूँगा </div><div>ऐसे ही ये दीये कविता के दोस्त सही</div><div>इनकी लौ में है पलभर में </div><div>हमारी आत्मा को जगाने की शक्ति </div><div><br /></div><div>देखो अरण्य के समीप </div><div>ग़रीब-गुरबा की बस्ती में जलते दीये</div><div>कैसे काटता है एक नौजवान टाँगे से जलौनी लकड़ी</div><div>कैसे इनकी रोशनी में डालती है एक माँ बच्चे के मुख में कौर</div><div><br /></div><div>कैसे कनखियों से देखती है एक युवा स्त्री </div><div>अपने पति के शरीर की मछलियों को उसकी वज्र जैसी छाती</div><div><br /></div><div>पैसे की मार से </div><div>दुखी लोगों के लिए कुछ दीये</div><div>उस बाप की ड्योढ़ी पर एक दीया </div><div>जिसे बेटियों की फीस की चिंता है</div><div><br /></div><div>जलायें न जलायें </div><div>चाहे बड़े शौक से भाड़ में जायें</div><div>उन आलोचकों के लिए भी कविता के छोटी जाति के कुम्हारों के बनाये कुछ दीये</div><div>जिनके घर मुफ़्त पहुँचायी गयी हैं गाड़ियों में भरकर बिजली की विदेशी झालरें</div><div><br /></div><div>विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, अख़बारों, पत्रिकाओं, प्रकाशकों </div><div>और हिन्दी के बाक़ी दफ़्तरों में </div><div>एक-एक दीया ज़बरदस्त</div><div><br /></div><div>हिन्दी की उन्नति के नाम पर </div><div>उसकी किडनी बेचकर मलाई काटने वाले </div><div>हज़ारों हरामज़ादों के लिए भी</div><div><br /></div><div>हिन्दी के जालसाज़ों के छल में </div><div>फँसे हुए बच्चों के लिखने की मेज पर</div><div>जीवनभर जलने वाला कविता का </div><div>यह दीया ख़ास</div><div><br /></div><div>हिन्दी बोलने वाले </div><div>विपन्न बच्चों के लिए उम्मीद का एक दीया</div><div>इस साल वे भी बने कलक्टर चाहे कमाएं दो पैसा</div><div><br /></div><div>हिन्दी बोलने वाले बच्चे पैदा करने वाली माँ के बिना चप्पल के पैरों के पास</div><div>मेरी, तेरी, उसकी, सबकी गुज़र गयी </div><div>माँ की ज़िदा याद के पैरों के पास</div><div>चाँदी की पायल की जगह </div><div>एक ग़रीब कवि की ओर से </div><div>मिट्टी का यह दीया।</div><div><br /></div><div><br /></div><div> </div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2uhXKczFrXRG9psGbtECqkNgd_e98ItqhbyrTdac-Pm7UXnRMx1FC9jv_tAFuBa_z_OsWM75DfISRhloAY7GMawbvRUsuOrgWGgxVmVtohysQOBrdBeSBtYWLXkyypNXiLUGSgE5zWaM/s808/DSC_0002.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="808" data-original-width="461" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2uhXKczFrXRG9psGbtECqkNgd_e98ItqhbyrTdac-Pm7UXnRMx1FC9jv_tAFuBa_z_OsWM75DfISRhloAY7GMawbvRUsuOrgWGgxVmVtohysQOBrdBeSBtYWLXkyypNXiLUGSgE5zWaM/s320/DSC_0002.JPG" /></a></div><br /></div><div><br /></div><div> - गणेश पाण्डेय</div>Ganesh Pandey http://www.blogger.com/profile/05090936293629861528noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-1290420700964940482020-09-28T09:56:00.004+05:302021-09-19T10:02:18.437+05:30खलनायक<div style="text-align: left;"><b>- गणेश पाण्डेय</b></div><div style="text-align: left;"><div><b><br /></b></div><div><b>प्रिय छेदी</b></div><div><b>इस देश को तुम्हारे जैसे</b></div><div><b>खलनायकों की ज़रूरत है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हालाँकि यूपी के</b></div><div><b>सुल्ताना डाकू की कहानी में</b></div><div><b>काफ़ी कुछ झोल है</b></div><div><b>लेकिन तुम्हारी कहानी तो</b></div><div><b>जीती-जागती हक़ीक़त है</b></div><div><b>तुम कोई लुटेरे नहीं हो</b></div><div><b>कि लूट के माल से भलाई करो</b></div><div><b>पसीना बहाते हो नक़ली हीरो से</b></div><div><b>मार खाते हो फिर पैसा कमाते हो</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुम भी चाहते तो एक कानी-कौड़ी</b></div><div><b>ग़रीब-गुरबा और ज़रूरतमंद पर </b></div><div><b>अपने ही मुल्क़ में </b></div><div><b>सबसे परेशानहाल</b></div><div><b>लोगों पर ख़र्च नहीं करते</b></div><div><b>सदी का महाखलनायक बनकर</b></div><div><b>अपनी आरामगाह में मुँह छिपाकर</b></div><div><b>सो रहे होते अपनी रातों की नींद</b></div><div><b>और दिन का सुकून बर्बाद नहीं करते</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं तुम्हारे बारे में</b></div><div><b>और कुछ नहीं जानता</b></div><div><b>सिवाय इसके कि फ़र्श से अर्श पर</b></div><div><b>पहुँचने की कहानी तुम्हारी है</b></div><div><b>इस कहानी में ख़ास बात यह </b></div><div><b>कि एक खलनायक की देह में</b></div><div><b>किसी हातिमताई की रूह </b></div><div><b>आ जाती है और खलनायक से </b></div><div><b>नायकों जैसे काम कराती है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>एक खलनायक की सख़्त देह में</b></div><div><b>एक-एक हिस्से से तड़प उठती है</b></div><div><b>अपने लोगों के लिए झुक जाती है</b></div><div><b>आँखें डबडब हो जाती हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हाथ आगे बढ़ जाते हैं</b></div><div><b>पैर उसी ओर चल पड़ते हैं</b></div><div><b>जिधर लोग सिर्फ़ अपने पैरों पर</b></div><div><b>खड़े हैं बैठे हैं बच्चों को लाद रखा है</b></div><div><b>पत्नी सटकर खड़ी है </b></div><div><b>टूटी-फूटी चीज़ों की पोटली</b></div><div><b>पैरों के सुख-दुख पूछ रही है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>प्रिय छेदी</b></div><div><b>छेदी सिंह तुमने शेर की तरह</b></div><div><b>छलांग लगाई है आसमान में</b></div><div><b>किसी फ़िल्मी चमत्कार की तरह</b></div><div><b>रेल के डिब्बों में बसों में जहाज से</b></div><div><b>अपने देशवासियों को भेज रहे हो</b></div><div><b>मुश्किलों की सबसे लंबी घड़ी में</b></div><div><b>अपने घर</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>छेदी मैं नहीं जानता</b></div><div><b>कि तुमने सबसे कमज़ोर और उपेक्षित</b></div><div><b>लोगों में किसे देखा भारतमाता को देखा</b></div><div><b>कि अपनी माता और पिता </b></div><div><b>और बीवी-बच्चों को देखा</b></div><div><b>कुछ तो तुमने अलग देखा</b></div><div><b>जो तुम्हारे समुदाय के लोगों ने नहीं देखा</b></div><div><b>तुम भी चाहते तो प्रधानमंत्री कोष में</b></div><div><b>कुछ करोड़ डालकर चैन की नींद सोते</b></div><div><b>तुमने अपनी नींदें क्यों ख़राब कीं</b></div><div><b>अपने बच्चों का वक़्त और प्यार</b></div><div><b>दूसरों के बच्चों को क्यों दिया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>छेदी तुम्हारा पर्दे का नाम है</b></div><div><b>हालाँकि जीवन में तुमने आसमान में</b></div><div><b>छेद करने जैसा बड़ा काम किया है</b></div><div><b>पर्दे से जो कमाया मज़बूर लोगों पर</b></div><div><b>लुटाया सुल्ताना डाकू की तरह</b></div><div><b>हातिमताई जैसा कारनामा किया</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>तुमने अपने देश </b></div><div><b>और अपनी मिट्टी के कर्ज़ का</b></div><div><b>मूलधन ही नहीं सूद भी लौटाया</b></div><div><b>मैं नहीं जानता कि तुम्हारे नाम में</b></div><div><b>यह सूद क्यों लगा हुआ है </b></div><div><b>और तुम्हारा नाम सोनू जैसा </b></div><div><b>बहुत प्यारा और घरेलू क्यों है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>मैं मुंबई में </b></div><div><b>लंबे समय से रहने वाले</b></div><div><b>हिंदी के कवियों की तरह रहता</b></div><div><b>तो कब को कोरोना पर अपनी</b></div><div><b>लंबी कविताओं के साथ तुम पर भी </b></div><div><b>एक लंबी कविता लिख चुका होता</b></div><div><b>सोनू सूद</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हिंदी में</b></div><div><b>फ़िल्मी हीरोइनों पर </b></div><div><b>कविता लिखने का रिवाज़ है</b></div><div><b>मधुबाला से लेकर वहीदा रहमान तक</b></div><div><b>और वहीदा से माधुरी तक पर रीझकर</b></div><div><b>लिखते हुए कवियों और कथाकारों ने</b></div><div><b>अपनी क़लमें तोड़ दीं</b></div><div><b>ये पर्दे की चमक-दमक पर मुग्ध थे</b></div><div><b>मैं हिंदी के पर्दे और आसमान का नहीं</b></div><div><b>ज़मीन का आदमी हूँ मेरे बच्चे</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जानते हो</b></div><div><b>छेदी नहीं-नहीं सोनू नहीं-नहीं दोनों</b></div><div><b>हिंदी में फ़िल्म वालों को सितारा कहते हैं</b></div><div><b>लेकिन सितारे </b></div><div><b>सिर्फ़ आकाश पर नहीं होते</b></div><div><b>धरती पर भी होते हैं मिट्टी में लोटते हैं</b></div><div><b>लोकल ट्रेन में सफ़र करते हैं</b></div><div><b>अपनी लोकल आत्मा को</b></div><div><b>कभी नहीं बदलते हैं </b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सितारों की दुनियाँ विचित्र है</b></div><div><b>पर्दे का खलनायक जीवन में</b></div><div><b>नायक हो सकता है</b></div><div><b>और नायक खलनायक</b></div><div><b>आए दिन ख़ुलासे होते हैं</b></div><div><b>मासूम और सुंदर नायिकाएं </b></div><div><b>खलनायिका निकलती हैं</b></div><div><b>और अर्थपूर्ण फ़िल्म बनाने वाले चरित्रहीन</b></div><div><b>जब तक इनका सच सामने नहीं आता</b></div><div><b>इनका नायकत्व और महानायकत्व</b></div><div><b>चेहरे पर मेकअप की तरह सजा रहता है</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>सोनू </b></div><div><b>चाहे पर्दे पर ऐसे ही आजीवन </b></div><div><b>बड़े से बड़ा खलनायक बने रहना</b></div><div><b>जीवन में चाहे जितनी मुश्किल आए</b></div><div><b>चाहे जितने कमज़ोर क्षण आएं</b></div><div><b>अपने खलनायक को पर्दे से बाहर</b></div><div><b>न निकलने देना नहीं तो मेरी यह कविता</b></div><div><b>बहुत रोएगी इसके शब्द टूट-फूट जाएंगे</b></div><div><b>ऐसे ही जीवन में नायक बने रहना</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जो सितारे</b></div><div><b>पैदा धरती पर होते हैं</b></div><div><b>और रहते हैं आसमानों में</b></div><div><b>ज़मीन के लोग उन्हें कभी भी</b></div><div><b>अपना नहीं समझते हैं</b></div><div><b>उनके बीवी-बच्चों को कभी इस तरह</b></div><div><b>दिल से दुआएं नहीं देते हैं</b></div><div><b>प्यार नहीं करते हैं</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>हाँ </b></div><div><b>क्रिकेट के कुछ</b></div><div><b>भगवान की तरह</b></div><div><b>फ़िल्मों के भी कुछ </b></div><div><b>नौटंकी भगवान होते हैं</b></div><div><b>ये अपनी मिट्टी अपने देश के कर्ज़ का</b></div><div><b>न मूलधन चुका पाते हैं न सूद</b></div><div><b>सब तुम्हारी तरह कहाँ हो पाते हैं</b></div><div><b>सोनू सूद।</b></div><div><b><br /></b></div><div><br /></div></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="808" data-original-width="461" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMErPMgWP4hF0abh_vhfVVer0I_p3XxMdKIblQ04BGqg_Y4MwDS_q1m_F_CGjYeQtXjxLWR4S2OR_8SmbkHwgLFAspbLVGbZJ9yQB86D9pHR-ovV7quZIlNetp7vzvmal8NOxAw5tJAJcE/w114-h200/DSC_0002.JPG" width="114" /></b></div>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-49206662872141428322020-09-28T09:34:00.001+05:302020-09-28T09:34:11.616+05:30पत्र<p> प्रियवर गणेश पांडे जी,</p><p>कुशल से होंगे। हालांकि यह कहना भी अब मात्र एक औपचारिक मुहावरा बनकर रह गया है। जो भी व्यथित और जरा भी संवेदनशील है, वह बाहर से भले ही सकुशल दिखे, मन से तो हमेशा बेचैन और द्वंद्वग्रस्त ही रहता है। स्थितियां ही कुछ ऐसी हैं। जो दुनियादार हैं, वे स्थितियों में खुद को ढालकर अपने मन को समझा लेते हैं, अवसर के मुताबिक राह पकड़ लेते हैं। लेकिन जो स्थितियों की भयावहता, अमानवीयता, असहिष्णुता के बारे में सोचे बिना नहीं रह पाते-प्रायः उनकी नियति होती है - अकेलापन।</p><p>आपको वर्षों से लिखते-पढ़ते देख रहा हूं। इधर थोड़ा-बहुत ह्वाट्सएप, फेसबुक जैसे माध्यमों से थोड़ी-बहुत वाकफियत हो गयी है। फेसबुक पर भी आपकी चिंताओं से परिचित होता रहता हूं। आपकी चिंताओं में अपने को भी शामिल पाता हूं। अपने-अपने अकेलेपन के अंधेरे में, यह शामिल-पन का भाव कभी-कभी उम्मीद के जुगनुओं की तरह जग-मगा उठता है। कुछ साथी - कहीं भी हों, कितनी भी दूर- पर हैं तो, जो अब भी सोचने और महसूस करने की क्षमता बचाकर रखे हुए हैं। यह भी हम-आप जैसों के रचनात्मक सहारे के लिए कम बड़ी बात नहीं है।</p><p>आपने 2 अक्टूबर वाली पोस्ट में लिखा-‘ साहित्य में अंधेरा फैलाने वाले, आज गांधी पर प्रकाश डालेंगे!‘ यह विडम्बना यों तो मात्र साहित्य की नहीं, राजनीति-समाज-चिंतन वगैरह सभी क्षेत्रों की है, लेकिन आपने साहित्य का उल्लेख किया तो इसका मर्म मैं समझ सकता हूं। निराला ने ‘सरोज-स्मृति‘ में लिखा- ‘ मैं कवि हूं, पाया है प्रकाश! ‘ यह कोई व्यक्तिगत दंभ नहीं था। यह कवि होने या साहित्यकार होने की सबसे सारगर्भित परिभाषा थी। कवि होना गहरे अर्थो में ‘प्रकाश प्राप्त‘ होना है। प्रेमचंद ने भी राजनीति से नहीं, साहित्य से ही ज्यादा आशा की थी-‘साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है।‘ लेकिन आज ‘प्रकाश‘ और ‘मशाल‘ जैसे शब्दों को हमारे तथाकथित कवि और साहित्यकार ही अर्थहीन करते जा रहे हैं। राजनीति ने तो पहले ही इन शब्छों को मात्र चुनाव-चिह्न जैसा कुछ बनाकर रख दिया है। राजनीति में तो अंधेरा ही सर्वत्र अट्टहास कर रहा है। इस अट्टहास को ही प्रकाश की तरह बिखेरा जा रहा है। इस अट्टहास की चकाचौंध में प्रकाश का इतना भ्रम है कि आंखें चौंधियां जाती हैं। देखने की क्षमता ही जाती रहती है। और आपने इस विडम्बना की ओर ठीक ही इशारा किया है, गांधी के हवाले से। जिनको कुछ नहीं दिखता, वे ही सबकुछ देख लेने की डींग हांकते हैं। अंधता इतनी दंभी कि गांधी जैसा पुरुष-जो खुद अपनी आंखों से देखने पर विश्वास करता था, जिसने सत्य का प्रकाश पाने के लिए ‘सत्य का प्रयोग‘ करने की ठानी थी- उस पर अंधता प्रकाश डालने का दावा करती है।</p><p>मैंने कभी लिखा था,‘साहित्य एक प्रकार का रचनात्मक हठ है कि मनुष्य को सबसे पहले और सबसे आखिर तक सिर्फ मनुष्य के रूप में ही पहचाना जाए, न फरिश्ते के रूप में, न राक्षस के रूप में, न देवता के रूप में, न सिर्फ साधु या शैतान के रूप में।‘</p><p>गांधी को क्या मनुष्य के रूप में सचमुच हम अभी तक पहचान सके हैं? हमने मूर्तियां बना दीं, न्यायालयों और सरकारी दफ्तरों में उनके फोटो टांग दिए। इन सब रूपों में आज गांधी आज कितने दयनीय हो उठे हैं कि उन्हीं की फोटो के नीचे बैठे अधिकारीगण कैसे-कैसे स्वार्थ-लिप्सा भरे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं।</p><p>गांधी को इस दयनीयता से क्या सिर्फ उन पर कविताएं लिखकर उबारा जा सकता है? है कोई ‘प्रकाश प्राप्त‘ कवि जो उनकी इस दयनीयता को सवमुच देख सके? महसूस कर सके? गांधी का अनुसरण करने-कराने का उपदेश देने वाले हर क्षेत्र में हैं। साहित्य में भी। पर गांधी बेचारे ऐसे अनुसरणकर्ताओं से बचने के लिए छिपते-छिपाते, टाट वाले बोरे में अपना चेहरा ढके चुपचाप मुकित्बोध की कविता में चले गए हैं।</p><p>सच पूछिए तो अब ‘अनुसरण‘ या ‘अनुयायी‘ जैसे शब्द पाखंड का पर्याय हो गए हैं। कोई किसी का अनुसरण नहीं करना करना चाहता है, सिर्फ अपने-आपके सिवा। अब अनुयायी होना नहीं, पिछलग्गू होना फिर भी कुछ अर्थवान शब्द है। पिछलग्गू ऐसे व्यक्तियों का, जो लाभ पहुंचाने की स्थिति में हों। थोड़ी ख्याति मिल जाए, पुरस्कार या उपाधि मिल जाय-बस इतना ही अभीष्ट है। आज के लेखक की महत्वाकांक्षाएं भी बड़ी क्षुद्र हैं। वह अपनी क्षुद्रता में अमर होना चाहता है।</p><p>ऐसी अमरता को हम-आप क्यों चाहें? क्योंकि हमारे लिए तो यह जीते जी मर जाने के समान है। ऐसे में तो अच्छा है, कबीर की तरह रहें-मेरो मन लागा ठाठ फकीरी में! हम साहित्य के फकीर बने रह सकें, यही कामना हमारे लिए ठीक है।</p><p>अभी इतना ही।</p><p>हां, इतना और कि ज्यादा शिकायती होने में वक्त जाया न करें। हर स्थिति में जितना रचनात्मक हो सकें, रहें।</p><p>आपकी सक्रियता और सार्थक चिंताओं में आपका सहभागी-</p><p>राजेंद्र कुमार</p><p><br /></p><p>नोट : इलाहाबाद से वरिष्ठ लेखक राजेंद्र कुमार जी का पत्र</p><p><br /></p><p><br /></p>Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-32360001488834605682020-07-13T10:47:00.000+05:302020-07-13T10:47:06.062+05:30आलोचकनामा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>- गणेश पाण्डेय</b><br />
<b><br /></b>
<b>1</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>हमारे समय का पुराना घाघ आलोचक है</b><br />
<b>इसके सुनहले फ्रेम के चश्मे पर मत जाइए</b><br />
<b>इसके भोले-भाले चेहरे पर मत जाइए</b><br />
<b>इसकी दुर्घटनाग्रस्त टूटी-फूटी आत्मा देखिए</b><br />
<b>उसे न देख पा रहे हों तो इसे ज़रा ग़ौर से देखिए</b><br />
<b>कैसे इसके रंग-बिरंगे कपड़े हैं देखिए</b><br />
<b>लालछींट का कुर्ता देखिए जैसे ख़ून के दाग़ हों</b><br />
<b>ओह बेढंगा पाजामा देखिए</b><br />
<b>कितना ढीला-ढाला है जैसे शहर का नाला है</b><br />
<b>थोड़ा नज़दीक से देखिए कुर्ता उठाकर देखिए</b><br />
<b>अरे इस नाशुकरे के पास तो ईमान का नाड़ा ही नहीं है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>2</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>कैसी शक़्ल है इसकी गर्दन बिल्कुल शुतुरमुर्ग जैसी </b><br />
<b>जिसे उठाकर और ऊपर और उसके ऊपर मुँह करके</b><br />
<b>उफ़ कैसे ज़ोर-जोर से थूकता है बारबार कोई नाम लेकर</b><br />
<b>और अपनी जगह से टस से मस नहीं होता है</b><br />
<b>एक बार भी सोचता नहीं कि सब उस पर ही पड़ता है</b><br />
<b>ओह कितना नशा है इसे अपने आलोचक होने पर</b><br />
<b>बेशर्मी देखिए पिटाई को प्रशंसा समझता है</b><br />
<b>जैसे नागार्जुन उसे धंधा करने का लाइसेंस दे गये हों -</b><br />
<b>अगर कीर्ति का फल चखना है आलोचक को ख़ुश रखना है</b><br />
<b>ओह कैसे शान से खोल रखा है उसने अपने शहर में</b><br />
<b>शुद्ध देशी घी का कीर्ति लड्डू भण्डार</b><br />
<b>उसने अपने कीर्ति लड्डू भण्डार के बाहर </b><br />
<b>पुरोहिताई का अलग से एक स्टाल लगाकर </b><br />
<b>कवि के गर्भाधान से लेकर </b><br />
<b>अंत्येष्टि तक के सोलह संस्कारों के लिए</b><br />
<b>बाकायदा रेटलिस्ट टांग दिया है</b><br />
<b>आज्ञा से त्रिलोचन और साथ में यह लिखकर -</b><br />
<b>आलोचक है नया पुरोहित उसे खिलाओ</b><br />
<b>सकल कवि-यशःप्रार्थी, देकर मिलो मिलाओ</b><br />
<b>और सचमुच ऐसे मुग्ध कवियों का मेला लगा हुआ है</b><br />
<b>इस चोट्टे की दुकान के सामने।</b><br />
<b><br /></b>
<b>3</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>बड़ा पढ़ाकू है जी पट्ठे ने ख़ूब पढ़ रखा है</b><br />
<b>सोलह दर्जा पढ़ने के बाद सोलह दर्जा और पढ़ रखा है</b><br />
<b>कुल बत्तीस दर्जा पढ़ रखा है शायद उससे भी ज़्यादा</b><br />
<b>न न न सिर नहीं पैर धंसाकर पढ़ा है सिर से हो नहीं पाता</b><br />
<b>जितना पढ़ रखा है उससे एक इंच भी इधर-उधर नहीं होता है</b><br />
<b>असल में पट्ठे के दिमाग़ में दिमाग़ की जगह</b><br />
<b>आलमारियों पर किताब की तरह किताबें जमा हैं</b><br />
<b>सो दिमाग़़ में दिमाग़़ रखने के लिए जगह ही नहीं बची है</b><br />
<b>इसलिए कोई बीसेक साल से ख़ुद से कुछ सोचता ही नहीं है</b><br />
<b>बस आप समझ लें कि बंदा हिंदी का आलोचक-सालोचक नहीं </b><br />
<b>हमारे समय की आलोचना की सिलाई कढ़ाई का कोई कारीगर है</b><br />
<b>दिमाग़ बंदकर और आंख मूंदकर धड़ल्ले से आलोचना कर रहा है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>4</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>आलोचक क्या है पूरा रंगरेज़ है</b><br />
<b>आलोचना करता नहीं बस काग़ज़ रंगता है</b><br />
<b>फूल-पत्ती नदी-नाले गाँव-साँव बनाता है</b><br />
<b>उसके लिए यही कविता का लोक और जीवन है</b><br />
<b>उसके लोकजीवन में </b><br />
<b>न किसान आंदोलन है न मज़दूर</b><br />
<b>पट्ठे को यह भी नहीं पता कि लोकजीवन में</b><br />
<b>महामारी की छाया भी है मलेरिया भी है </b><br />
<b>जापानी बुख़ार भी है कोरोना भी है</b><br />
<b>पोलियो भी है कालाजार भी है</b><br />
<b>इतनी छोटी सी बात जानता नहीं आलोचक बनता है </b><br />
<b>चरणरज लेने वालों को कवि समझता है महाकवि समझता है</b><br />
<b>जबकि ख़ुद दिल्ली के मठाधीशों के सामने</b><br />
<b>साष्टांग लेटकर चरणरज लेता है</b><br />
<b>जिस आलोचक का विकास केंचुए की तरह होगा </b><br />
<b>वह हिंदी का आलोचक कैसे हो सकता है नहीं हो सकता है</b><br />
<b>ज़रूर यह आलोचना का संदिग्धकाल है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>5</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>जिधर सब लोग जमा होते हैं उसी ओर भागता है</b><br />
<b>और वहीं उसी भीड़ में घुसकर तमाशा देखता रहता है</b><br />
<b>चाहे जो हो जाए चाहे सिर पर कुछ भी पड़ जाएं हज़ार</b><br />
<b>कोई कुछ भी कह ले बंदा हटने का नाम नहीं लेता है</b><br />
<b>उसका अपने आप से वादा है आलोचक का तमगा लिए बिना</b><br />
<b>ऐसी जगहों से हटना नहीं है</b><br />
<b>उसे मंच पर चढ़ना ही चढ़ना है पर्चा पढ़ना ही पढ़ना है</b><br />
<b>माइक पकड़कर मंच पर झूमना ही झूमना ही है</b><br />
<b>इस तरह आलोचक होना ही होना है</b><br />
<b>और अनंतकाल तक आलोचक बने रहना है</b><br />
<b>असल में वह इस बात को मान ही नहीं सकता है</b><br />
<b>कि आलोचक बनने के लिए भी ठोस वजह का होना ज़रूरी है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>6</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>इसीलिए चिरकुट बना फिरता है मारा-मारा जगह-जगह</b><br />
<b>साहित्य के महाजनों और उप महाजनों के पीछे-पीछे</b><br />
<b>इसकी गठरी उसकी गठरी चोर-उचक्कों तक का सामान ढोता है</b><br />
<b>बंदे को कोई भला आदमी कुछ कह दे तो उस पर खौंखियाता है </b><br />
<b>असल में उसके पास </b><br />
<b>अपना कुछ ढोने के लिए है ही नहीं</b><br />
<b>आलोचना में दूस़रे का ढोना ही एक प्रकार से उसकी जीविका है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>7</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>बड़ा ज़बर आलोचक है किसी को कुछ समझता ही नहीं है</b><br />
<b>ख़ुद को कवियों का मालिक बनता है सब उसके हिसाब से उठें-बैठें</b><br />
<b>जैसा कहे कविता लिखें माठा कर रखा है समझिए</b><br />
<b>कि कोई चूहा शेर के पास जाकर उसके कान में कह रहा हो</b><br />
<b>खड़े हो जाओ और फटाफट अपनी कविता दिखाओ</b><br />
<b>वह तो कहिए कि इस सदी में है निराला बाल-बाल बच गये</b><br />
<b>पिछली सदी में रहा होता तो निराला को छड़ी से कोंचकर जगाता</b><br />
<b>और कहता कविता दिखाओ यह अलग बात है कि निराला </b><br />
<b>जागते बाद में पहले उसे जूते से लाल कर देते फिर कहते </b><br />
<b>’हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र’ लिखता हूं तो तेरे बाप क्या जाता है बे</b><br />
<b>अबे सुन बे गुलाब लिखता हूं तो अबे तेरा क्या जाता है</b><br />
<b>आलोचक नाम का यह जीव उस समय क्या करता </b><br />
<b>या निराला इसे क्या करके लौटाते अनुमान का विषय है</b><br />
<b>फ़िलहाल तो पट्ठा कहता फिर रहा है</b><br />
<b>कि आज की कविता में वसंत का अग्रदूत वही होगा </b><br />
<b>जो दिल्ली दरबार की गोद में पला-बढ़ा होगा</b><br />
<b>बाहर सुदूर प्रकृति की गोद में</b><br />
<b>धूल-मिट्टी में लोटने और आँधी-पानी में बड़े होने वाले कवि </b><br />
<b>वसंत के अग्रदूत क्या झँटुही कवि भी नहीं हो सकते हैं</b><br />
<b>मैं पूछता हूं कि अबे कवियों का सुपरवाइजर</b><br />
<b>तुझे बनाया किसने है पहले उसे बुला</b><br />
<b>उसको जीभर कर दुरुस्त कर लूं</b><br />
<b>फिर तुझे बताता हूं उलटा लटकाकर डंडा करता हूं</b><br />
<b>अब आप लोग ही बताएं कि ऐसे </b><br />
<b>नामाकूल आलोचक के साथ क्या-क्या किया जाय </b><br />
<b>जिसे यह नहीं पता कि रामविलास शर्मा को आखि़र</b><br />
<b>निराला की साहित्य साधना लिखते समय</b><br />
<b>भाग एक लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी</b><br />
<b>कविता के साथ कवि का जीवन देखना क्यों ज़रूरी है</b><br />
<b>सच तो यह कि आलोचक का जीवन भी</b><br />
<b>उसके मूल्यांकन के लिए देखना उतना ही ज़रूरी है</b><br />
<b>यह न समझें कि हरामज़ादे आलोचकों को बर्दाश्त करना </b><br />
<b>कविता की मजबूरी है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>8</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>ये वाला और ये मेरी पीढ़ी का है</b><br />
<b>कहता है कि मैंने अपनी ख़राब कविताओं से</b><br />
<b>हिंदी कविता का इकलौता रजिस्टर भर दिया है</b><br />
<b>और अच्छी कविताओं को लिखने के लिए जगह नहीं बची है</b><br />
<b>अब कहाँ जाएंगे भला अच्छी कविता लिखने वाले कवि</b><br />
<b>अरे भाई माना कि मैंने रजिस्टर भर दिया है</b><br />
<b>अभी तुम्हारी पूरी कमीज पूरा पतलून</b><br />
<b>तुम्हारी ओढ़ने और बिछाने की चादर तुम्हारा तकिया </b><br />
<b>तुम्हारी रूमाल और तुम्हारे आँगन का आसमान</b><br />
<b>तुम्हारी दीवारें और छत और पानी की टंकी</b><br />
<b>और तुम्हारे शरीर के कुछ हिस्से भी तो</b><br />
<b>अनलिखे बचे हैं अभी</b><br />
<b>वहाँ मेरी ख़राब कविता न सही</b><br />
<b>अपने प्रिय कवियों से हज़ारों</b><br />
<b>अच्छी कविताएं तो लिखवा ही सकते हो</b><br />
<b>अरे आलोचना के मुंशियों अच्छी कविता वह है ही नहीं</b><br />
<b>जिसके लिखे जाने में कोई बाधा खड़ी हो सकती हो</b><br />
<b>पहाड़ तोड़कर नदियों को पाटकर</b><br />
<b>यहाँ तक कि मर्द कवि की अपनी छाती पर</b><br />
<b>फूल की पंखुड़ियों पर तितलियों के परों पर</b><br />
<b>कहीं भी कभी भी जो कविता लिख दी जाय</b><br />
<b>वही अच्छी कविता है</b><br />
<b>अच्छी कविता भीख में काग़ज़ माँगकर नहीं लिखी जाती है</b><br />
<b>अच्छी कविता दरेरा देकर लिखी जाती है</b><br />
<b>जैसे मैं लिखता हूं ख़राब कविताएँ।</b><br />
<b><br /></b>
<b>9</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>मैं इसको और उसको और उन सबको अच्छी तरह</b><br />
<b>आगे से भी पीछे से भी ऊपर से भी नीचे से भी जानता हूं</b><br />
<b>किस-किस की पांच फुट तीन इंच की कद-काठी में</b><br />
<b>किस-किस मठाधीश और किस-किस उपमठाधीश </b><br />
<b>और उनके झाड़ू-पोछा करने वाले तक का</b><br />
<b>ठप्पा कहाँ-कहाँ छपा हुआ है</b><br />
<b>साफ़-साफ़ लिखा हुआ है पुट्ठे पर बाजू पर</b><br />
<b>ललाट पर गाल पर वगैरह</b><br />
<b>कि यह आलोचक किस-किस </b><br />
<b>बाऊ साहब और पंडिज्जी जी की गाय है</b><br />
<b>इस गाय में अलबत्ता एक भारी नुक़्स यह है </b><br />
<b>कि उनके लिए मरकही गाय है जिनके पुट्ठे पर</b><br />
<b>बाऊ साहब और पंडिज्जी की छाप नहीं है</b><br />
<b>इन आलोचकों को गाय ही होना था</b><br />
<b>तो अल्ला मियाँ की गाय नहीं हो सकते थे।</b><br />
<b><br /></b>
<b>10</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>किसी तरह छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा करता है </b><br />
<b>रोज़़ एक-दो तो पुस्तक समीक्षा कर लेता है</b><br />
<b>अक्सर किसी किताब का लोकार्पण है तो आगे बढ़कर</b><br />
<b>ख़ुद ही कहकर आलेख-वालेख लिखकर पढ़ देता है</b><br />
<b>आजकल फेसबुक पर टिप्पणियों से भी पट्ठा</b><br />
<b>कुछ न कुछ कमा लेता है </b><br />
<b>बस घर चला लेता है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>11</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>अपने शहर के और बाहर के भी</b><br />
<b>महारथियों के रथ खींचता है रथियों के भी रथ खींचता है</b><br />
<b>जिनके पास रथ नहीं है उनकी पालकी ढोता है </b><br />
<b>उतनी ही निष्ठा उतने ही समर्पण के साथ</b><br />
<b>अब तो रथ खींचने और पालकी ढोने में</b><br />
<b>इतना प्रवीण हो गया है कि यह सब </b><br />
<b>किये बिना उसे नींद नहीं आती है</b><br />
<b>उसे रोज़ एक रथ या पालकी चाहिए</b><br />
<b>महाजन नहीं तो महाजन के पीछे का रथ</b><br />
<b>दिल्ली की नहीं तो अपने शहर की पालकी</b><br />
<b>रथ खींचने वालों का रथ</b><br />
<b>पालकी ढोने वालों की पालकी</b><br />
<b>ज़रूर से ज़रूर चाहिए उसे रोज़</b><br />
<b>एक रथ चाहे पालकी कुछ भी</b><br />
<b>यहां तक कि आदमी तो आदमी उसे</b><br />
<b>चूहे के रथ चाहे पालकी से भी </b><br />
<b>सुकून और चैन मिल जाता है</b><br />
<b>उसे उम्मीद है ऐसे ही हिंदी आलोचना में</b><br />
<b>उसे एक दिन मोक्ष भी मिल जाएगा।</b><br />
<b><br /></b>
<b>12</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>हिंदी के सफल लेखकों के साथ</b><br />
<b>अपनी डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है</b><br />
<b>इस तरह सफल आलोचक कहलाता है</b><br />
<b>आलोचना के शेयर मार्केट का पक्का</b><br />
<b>दलाल है दलाल </b><br />
<b>कवियों के नाम उछालता है भाव बढ़ाता है</b><br />
<b>हिंदी का आलोचक है वक़्त मौक़ा देखकर चलता है</b><br />
<b>कवि युवा है तो आगे-आगे चलता है</b><br />
<b>कवि बुज़ुर्ग है तो पीछे-पीछे चलता है</b><br />
<b>कह सकते हैं कि है तो आदमी पर</b><br />
<b>बुद्धि और कारनामे हैं किसी लोमड़ी की।</b><br />
<b><br /></b>
<b>13</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>अरे यह वाला तो रचनावलीबाज़ है</b><br />
<b>और यह वाला लेखक पर केंद्रित किताबबाज़ है</b><br />
<b>अरे यह बंदा तो एक नंबर का अकादमीबाज़ है</b><br />
<b>और यह जुल्फ़ रंगके और लहराके निकलने वाला </b><br />
<b>पक्का तिकड़मबाज़ है</b><br />
<b>संपादक-प्रकाशक का ख़ुशामदबाज़ है </b><br />
<b>आज की आलोचना का मशहूर दग़ाबाज़ है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>14</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का आलोचक है</b><br />
<b>देखो तो इसका घमंड इसके पतलून से चू रहा है</b><br />
<b>मिडिलस्कूल के हेडमास्टर की तरह</b><br />
<b>लेखकों से उठक-बैठक कराना चाहता है</b><br />
<b>ख़ुद कुछ किया नहीं दूसरों से सब कराना चाहता है</b><br />
<b>कहता है रामचरित मानस लिखो</b><br />
<b>तुलसीदास बनो कबीर बनो जायसी बनो</b><br />
<b>जैसी कविता लिखी जा रही है वैसी कविता मत लिखो</b><br />
<b>उपदेश और नीति की चौपाई लिखो</b><br />
<b>किसी कवि-आलोचक का चीरहरण मत करो</b><br />
<b>इन कुकर्मियों को छुट्टा साँड़ की तरह</b><br />
<b>ऊधम करने दो</b><br />
<b>बस कविता में राम भजो सीताराम भजो</b><br />
<b>राधाकृष्ण भजो चाहे सीधे </b><br />
<b>बिहारी की तरह मकरध्वज घोलो</b><br />
<b>कुछ भी करो लेकिन कविता में</b><br />
<b>दुष्ट कवियों और आलोचकों की सर्जरी मत करो</b><br />
<b>हिंदी का आज का नक़ली आलोचक</b><br />
<b>सबको सीख देता फिरता है कि कैसी कविता लिखो</b><br />
<b>भू-अभिलेख निरीक्षक और लेखपाल की तरह</b><br />
<b>पैमाइश करके बताना चाहता है</b><br />
<b>कि आज सभी कवि लोग</b><br />
<b>उसकी बतायी जमीन पर कविता लिखें</b><br />
<b>पट्ठे को पता नहीं है कविता की परंपरा</b><br />
<b>और आलोचक बना जगह-जगह फिरता है</b><br />
<b>रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी को बताया था</b><br />
<b>कि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को</b><br />
<b>फिर तुम क्यों बावले हुए जा रहे हो</b><br />
<b>निराला ने छंद तुमसे पूछकर तोड़ा था</b><br />
<b>कि कुकुरमुत्ता झींगूर डटकर बोला</b><br />
<b>या गर्म पकौड़ी तुमसे पूछकर लिखा था</b><br />
<b>मुक्तिबोध को तुमने बताया था</b><br />
<b>कि मार्क्सवाद में ईमानवाद को</b><br />
<b>कैसे मिलाएं</b><br />
<b>छोटे केदार ने </b><br />
<b>परमानंद से पूछकर लिखा था</b><br />
<b>औरों की नहीं जानता स्वयंभू आलोचक</b><br />
<b>मैं वही लिखूंगा जो अब तक </b><br />
<b>नहीं लिखा गया है या कम लिखा गया है</b><br />
<b>गाँंठ में बाँध लो चाहे चुटिया में</b><br />
<b>चाहे हाफपैंट की जेब </b><br />
<b>या पीटी शू के सफेद मोजे में </b><br />
<b>छिपाकर रख लो मेरी बात</b><br />
<b>तुम मेरे आलोचक नहीं हो सकते हो</b><br />
<b>मेरा आलोचक </b><br />
<b>अभी दूध पी रहा है बादाम खा रहा है</b><br />
<b>अखाड़े में अपनी देह पर मिट्टी मल रहा है</b><br />
<b>पसीना-पसीना ख़ूब दण्ड पेल रहा है</b><br />
<b>आएगा ज़रूर आएगा आलोचना का सोटा लेकर</b><br />
<b>बहुत बाद में आते हैं</b><br />
<b>ऐसे निडर ईमानदार और मज़़बूत आलोचक</b><br />
<b>तुम हमारे समय की कविता की आलोचना के</b><br />
<b>लिपिक हो सकते हो चाहे मुंशी जी हो सकते हो</b><br />
<b>हरगिज़-हरगिज़ आलोचक नहीं हो सकते हो।</b><br />
<b><br /></b>
<b>(लंबी कविता : 5.7.20)</b><br />
<b><br /></b>
<b><br /></b>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b><br /></b>
<b><br /></b>
<b><br /></b>
<b><br /></b>
<br /></div>
Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-51837555163623945202020-07-02T14:46:00.001+05:302020-07-02T14:46:28.819+05:30 दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास तथा अन्य कविताएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>- गणेश पाण्डेय</b><br />
<b><br /></b>
<b>---------------------------------</b><br />
<b>दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास</b><br />
<b>---------------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>कितने भले</b><br />
<b>और सीधे सादे लोग हैं</b><br />
<b>कहते हैं जिसके पास प्रतिभा है</b><br />
<b>छंद है त्रिष्टुप है अनुष्टुप है पदलालित्य है</b><br />
<b>हिंदी उर्दू फ़ारसी कविता की समझ है </b><br />
<b>वही आज का श्रेष्ठ कवि है</b><br />
<b><br /></b>
<b>ओह </b><br />
<b>निश्चय ही </b><br />
<b>निश्चय ही निश्चय ही</b><br />
<b>जिसके पास इतनी विपुल राशि है</b><br />
<b>आज की तारीख़ में उसके</b><br />
<b>दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास </b><br />
<b>होने पर तनिक भी संदेह नहीं है</b><br />
<b>नहीं है नहीं है</b><br />
<b><br /></b>
<b>कारयित्री प्रतिभा का </b><br />
<b>यह रहस्य जानकर मेरी छोटी बुद्धि </b><br />
<b>भ्रष्ट हो गयी है गहरे सदमे में है</b><br />
<b>शायद उसे दिल का दौरा पड़ गया है</b><br />
<b>यह एक कवि की पहचान है</b><br />
<b>कि कविता का हुदहुद तूफ़ान है</b><br />
<b>अरे भाई </b><br />
<b>कबीरदास के पास प्रतिभा का</b><br />
<b>इतना बड़ा ज़लज़ला था</b><br />
<b>हिंदी की दुनिया में </b><br />
<b>कवि होने के लिए</b><br />
<b>कविता का ईमान काफ़ी क्यों नहीं है</b><br />
<b>फटकार कर </b><br />
<b>सच कहना काफ़ी क्यों नहीं है</b><br />
<b>और जिसके पास ईमान नहीं है</b><br />
<b>वह कवि क्यों है </b><br />
<b>कविता का लिपिक क्यों नहीं है</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैं पूछता हूं कि </b><br />
<b>अभी पिछले दिनों एक धूमिल कवि था </b><br />
<b>इस लिहाज़ से धूमिल था कवि नहीं था</b><br />
<b>चुटकीभर प्रतिभा से कंठ में कैसे बसा</b><br />
<b>और वह जो कविता </b><br />
<b>और आलोचना के हरामज़ादों से</b><br />
<b>अपनी कविता और आलोचना में</b><br />
<b>ईमान का डंडा लेकर तीस साल से</b><br />
<b>अकेले लड़ रहा है लहूलुहान है</b><br />
<b>क्या है</b><br />
<b><br /></b>
<b>कवि होने के लिए</b><br />
<b>प्रतिभा के नाम पर किसी रटन्त विद्या</b><br />
<b>या छंद के पहाड़े की क्या ज़रूरत है</b><br />
<b>कवि होने के लिए </b><br />
<b>सिर्फ़ चुटकीभर ईमान काफ़ी क्यों नहीं है</b><br />
<b>कवि वह है जो इतना तो आज़ाद हो ही</b><br />
<b>कि जिसके पुट्ठे पर किसी की छाप न हो</b><br />
<b>जो कविता के पाठकों का सगा हो</b><br />
<b>जिसने कभी </b><br />
<b>उन्हें कविता के चमत्कार से ठगा न हो</b><br />
<b>उनके लिए जिया हो मरा हो</b><br />
<b>हिंदी के हरामज़ादों से लड़ा हो</b><br />
<b>और हिंदी के मर्दों से मुँह न चुराया हो।</b><br />
<b><br /></b>
<b>-----------------------</b><br />
<b>पियक्कड़ आलोचक</b><br />
<b>-----------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>कमअक़्ल </b><br />
<b>आलोचक को</b><br />
<b>एक-दो बार में आप </b><br />
<b>थोड़ा-बहुत समझा सकते हैं</b><br />
<b><br /></b>
<b>लेकन</b><br />
<b>छलछंदी आलोचक को </b><br />
<b>हरगिज़ नहीं बिल्कुल नहीं</b><br />
<b>वह तो टस से मस नहीं होगा</b><br />
<b><br /></b>
<b>आलोचना के </b><br />
<b>गटर में गिरकर</b><br />
<b>वहीं से चिल्लाता रहेगा</b><br />
<b>अरे कोई लाओ रे एक पैग</b><br />
<b>छंद की व्हिस्की लाओ रे</b><br />
<b><br /></b>
<b>पियक्कड़</b><br />
<b>आलोचक को छंद की मदिरा से</b><br />
<b>दूर नहीं कर सकते मर जाएगा</b><br />
<b>उसका कुनबा बिखर जाएगा</b><br />
<b>उसे कोई डर नहीं है</b><br />
<b>कोई शर्म नहीं</b><br />
<b><br /></b>
<b>उसकी आलोचना की कार</b><br />
<b>लड़ती है तो जल्द लड़ जाए</b><br />
<b>उसे कैंसर होता है तो हो जाए</b><br />
<b>लीवर सिरोसिस चाहे</b><br />
<b>एनीमिया डिमेंशिया</b><br />
<b>हृदयरोग कुछ भी हो जाए</b><br />
<b><br /></b>
<b>हे ईश्वर </b><br />
<b>फिर भी इतना करना</b><br />
<b>कि बेचारा छलछंदी आलोचक</b><br />
<b>अपने जीवनकाल में आज</b><br />
<b>छंद की अनिवार्यता पर</b><br />
<b>एक अमर अकाट्य अद्वितीय</b><br />
<b>और ’कविता का चाँद और </b><br />
<b>आलोचना का मंगल’ से सुंदर</b><br />
<b>लेख लिख जाए।</b><br />
<span style="font-size: x-small;"><b><br /></b></span>
<span style="font-size: x-small;"><b>(वैधानिक चेतावनी : युवा आलोचकों को ’छंद की अनिवार्यता’ की शराब पीने से बचना चाहिए।)</b></span><br />
<b><br /></b>
<b>-----</b><br />
<b>कर्ज़</b><br />
<b>-----</b><br />
<b><br /></b>
<b>जिस</b><br />
<b>आलोचक की आलोचना में</b><br />
<b>ईमान का छंद नहीं होता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>वही</b><br />
<b>प्रायः कविता में छंद के लिए</b><br />
<b>आठ-आठ आँसू रोता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>क्योंकि</b><br />
<b>उसे कुछ कवियों से लिया गया</b><br />
<b>पुराना कर्ज़ चुकाना होता है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>------------------------</b><br />
<b>कवि की ऐंठी हुई ऐंठ</b><br />
<b>------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>आप </b><br />
<b>आप हैं तो आप हैं</b><br />
<b>ये ये हैं तो ये हैं हां हैं</b><br />
<b>वो वो हैं तो वो हैं हा हैं</b><br />
<b>मैं मैं हूं तो मैं हूं हां हूं</b><br />
<b>फिर भी आप समझते हैं</b><br />
<b>कि आज की कविता में</b><br />
<b>आप ही आप हैं ओह</b><br />
<b>कितने बड़े बेवकूफ़ हैं</b><br />
<b>आप</b><br />
<b><br /></b>
<b>आप की माया है</b><br />
<b>जहाँ उम्मीद नहीं होती</b><br />
<b>वहाँ भी दिख जाते हैं आप</b><br />
<b>कोई भी शहर कोई भी क़स्बा</b><br />
<b>किसी भी गाँव में पहाड़ पर</b><br />
<b>बस आप ही आप होते हैं</b><br />
<b>हर जगह आप</b><br />
<b><br /></b>
<b>अपने समय की कविता में</b><br />
<b>दो नहीं दो सौ कवि होते हैं</b><br />
<b>और आप सोचते हैं कि बस</b><br />
<b>आप ही आप हैं बाक़ी सब</b><br />
<b>हवा हैं च्यूंटे हैं आक्थू हैं</b><br />
<b>वाह कितने बड़े वाले आप हैं</b><br />
<b>यह नहीं पता कि लंबे वक़्त की </b><br />
<b>छननी से छनते हैं नाम</b><br />
<b>कितने बेसब्र हैं आप</b><br />
<b>अभी तो मौज़ूद हैं</b><br />
<b>आपके बाप।</b><br />
<b><br /></b>
<b>---------------------------------</b><br />
<b>डरे हुए आलोचक को मार दो</b><br />
<b>---------------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>नाम-इनाम की लूटमार में</b><br />
<b>कविता का असली रखवाला </b><br />
<b>आलोचक को होना चाहिए था</b><br />
<b>चाहे इसकी शुरुआत </b><br />
<b>उसने ही की थी</b><br />
<b><br /></b>
<b>लेकिन आज जबकि </b><br />
<b>कविता थरथर कांप रही है</b><br />
<b>एक डरा हुआ आलोचक</b><br />
<b>जो ख़ुद की हिफ़ाज़त </b><br />
<b>कर नहीं सकता</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी कविता की आबरू</b><br />
<b>ख़ाक बचाएगा सबसे पहले </b><br />
<b>उसे मार दो </b><br />
<b><br /></b>
<b>फिर सोचो दूर खड़े</b><br />
<b>कविता के भाइयो और बहनो</b><br />
<b>अगरचे तुम भी इस लूटमार में</b><br />
<b>शामिल नहीं हो।</b><br />
<b><br /></b>
<b>-----</b><br />
<b>हुनर</b><br />
<b>-----</b><br />
<b><br /></b>
<b>कवि का हुनर</b><br />
<b>कविता से पाठक को</b><br />
<b>कसके जोड़ने के लिए होता है</b><br />
<b>फ़ासला पैदा करने के लिए नहीं</b><br />
<b><br /></b>
<b>और</b><br />
<b>कवि का हुनर क़तई</b><br />
<b>महाकवि की कुर्सी पर बैठकर</b><br />
<b>इतराने के लिए नहीं होता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>मेरे पास </b><br />
<b>आलोचना की एक ऐसी मशीन है</b><br />
<b>जिससे ऐंठे हुए कवियों के हुनर को</b><br />
<b>तोड़-ताड़ कर मुफ़्त में ठीक करता हूं।</b><br />
<b><br /></b>
<b>-------------</b><br />
<b>गिनतीकार</b><br />
<b>-------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>अरे भाई</b><br />
<b>सुनो-सुनो मैं तो</b><br />
<b>किसी कविता दशक में</b><br />
<b>पैदा ही नहीं हुआ</b><br />
<b>बक़ौल गिनतीकार</b><br />
<b><br /></b>
<b>चलो अच्छा हुआ</b><br />
<b>मैं तो अपने हमज़ाद</b><br />
<b>छोटे सुकल समेत फाट पड़ा</b><br />
<b>पांच फीट आठ इंच डैरेक्ट </b><br />
<b>आधुनिककाल में</b><br />
<b><br /></b>
<b>गिनतीकारो ने</b><br />
<b>रोज़-रोज़ कविगणना से</b><br />
<b>माठा नहीं कर रखा होता</b><br />
<b>तो मैं उनके ख़लिफ़ भला</b><br />
<b>ऐसी सख़्त कार्रवाई क्यों करता।</b><br />
<b><br /></b>
<b>------------------------------------</b><br />
<b>आलोचक दोस्त से दिल की बात</b><br />
<b>-------------------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>मेरे प्यारे आलोचक दोस्त </b><br />
<b>हम कबीर और गौतम बुद्ध</b><br />
<b>छात्रावास में रहते थे </b><br />
<b>रोज़ मिलते थे</b><br />
<b>नहीं मिल पाते थे तो हमारा</b><br />
<b>खाना हज़म नहीं होता था</b><br />
<b>हम दो बार एक बार रोज़ </b><br />
<b>मिलते ही मिलते थे</b><br />
<b>जैसे कल की बात हो</b><br />
<b><br /></b>
<b>अब कितना कुछ बदल गया है</b><br />
<b>वक़्त रास्ते और प्राथमिकताएं</b><br />
<b>सब कितनी आसानी से हुआ</b><br />
<b>मैं शायद ज़्यादा बदल गया</b><br />
<b>कवि के साथ आलोचक भी</b><br />
<b>हो गया मैं होना नहीं चाहता था</b><br />
<b>तुमने रोका भी नहीं हो गया</b><br />
<b><br /></b>
<b>असली दुनिया में</b><br />
<b>बहुत मारें पड़ीं तो दिल हिल गया</b><br />
<b>तुमने रोका नहीं आभासी दुनिया में</b><br />
<b>आ गया काफ़ी पहले</b><br />
<b>वक़्त लगा तुम भी इस नयी दुनिया में </b><br />
<b>खिंचे चले आये किसी आकर्षण में</b><br />
<b>मेरा क्या मैं तो मज़बूरी में आया</b><br />
<b><br /></b>
<b>हम </b><br />
<b>यहां भी साथ-साथ हैं</b><br />
<b>फेसबुक का हॉस्टल आसपास है </b><br />
<b>लेकिन यहां कम दिखते हो</b><br />
<b>दिखते भी हो अगरचे कभी</b><br />
<b>तो मेरी दीवार की तरफ़</b><br />
<b>कोई काम निकालकर </b><br />
<b>अब आते भी नहीं हो आओ तो</b><br />
<b>मेरी दीवार पर कुछ भी करो</b><br />
<b>बुरा नहीं मानूंगा</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुम </b><br />
<b>इस दुनिया में </b><br />
<b>किसी और काम से </b><br />
<b>क्यों नहीं आते हो कुछ तो बड़ा </b><br />
<b>कर रहे होगे शायद</b><br />
<b>कविता का इतिहास लिख रहे होगे</b><br />
<b>चाहे किसी की रचनावली </b><br />
<b>संपादित कर रहे होगे</b><br />
<b>लेख तो दो दिन में हो जाता होगा</b><br />
<b>कुछ कवियों को बड़ा कवि बना रहे होगे</b><br />
<b>ज़रूर कुछ ख़ास है तभी यहां</b><br />
<b>बहुत नाप-तौल कर आते हो</b><br />
<b>दो मिनट में लौट जाते हो</b><br />
<b><br /></b>
<b>किसी बड़े लेखक की पुण्यतिथि पर </b><br />
<b>चाहे उसकी जयंती पर आते हो </b><br />
<b>ज़्यादातर लेखकों के निधन पर ही</b><br />
<b>श्रद्धांजलि देने के लिए आते हो</b><br />
<b>मतलब बहुत ग़लत समय पर </b><br />
<b>आते हो मित्र</b><br />
<b>मुझे तुमसे बहुत डर लगने लगा है</b><br />
<b>इस तरह तो आशंका की तरह </b><br />
<b>यहां पहले कभी नहीं आते थे</b><br />
<b>कुछ माह पहले मेरी दीवार पर</b><br />
<b>आते थे कुछ पल के लिए</b><br />
<b>तो मित्र की तरह </b><br />
<b><br /></b>
<b>इस </b><br />
<b>आभासी दुनिया में </b><br />
<b>कभी-कभार दोस्तों से मिलने के लिए </b><br />
<b>निकला करो जैसे पहले निकलते थे</b><br />
<b>चाय के लिए कविता सुनने के लिए</b><br />
<b>देखो आज कैसी कविता लिखी है</b><br />
<b>छंद के छलछंद के ख़लिफ़ लिखी है</b><br />
<b>ख़ुद तुलसीदास आए आशीष देने</b><br />
<b>और प्यार देते हुए कहा </b><br />
<b>कविता और आलोचना के रावण से</b><br />
<b>लड़ना ज़रूरी है</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुम </b><br />
<b>मेरी कविताओं को </b><br />
<b>अब भी प्यार करते हो</b><br />
<b>किसी माफ़िया का डर भी होगा</b><br />
<b>तो भी मेरी कविताओं को ज़रूर</b><br />
<b>दिल ही दिल में प्यार करते होगे।</b><br />
<b><br /></b>
<b>-----</b><br />
<b>तर्क</b><br />
<b>-----</b><br />
<b><br /></b>
<b>किसी को</b><br />
<b>अपशब्दों की बौछार से</b><br />
<b>लज्जित करना चाहोगे तो</b><br />
<b>वह सिर्फ़ नाराज़ होगा</b><br />
<b><br /></b>
<b>और</b><br />
<b>उसकी आँख में</b><br />
<b>आँख डालकर तर्क करोगे</b><br />
<b>तो उसकी आत्मा लज्जित होगी</b><br />
<b><br /></b>
<b>बशर्ते </b><br />
<b>उसने अपने हाथों</b><br />
<b>अपनी आत्मा का गला</b><br />
<b>घोंट न दिया हो</b><br />
<b><br /></b>
<b>----------------</b><br />
<b>मज़दूर क्रांति</b><br />
<b>----------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>मज़दूर </b><br />
<b>सिर से पैर तक मज़दूर होता है</b><br />
<b>न किसी का भाई होता है न बेटा न पिता </b><br />
<b>न पति न प्रेमी न नागरिक न मतदाता</b><br />
<b>न मनुष्य</b><br />
<b><br /></b>
<b>मज़दूर </b><br />
<b>जैसा कोई और नहीं होता है</b><br />
<b>सिर्फ़ मज़दूर जैसा ही मज़दूर होता है</b><br />
<b>मज़दूर दुनिया का चाहे इस देश का</b><br />
<b>अद्वितीय प्राणी होता है</b><br />
<b>उसका दुख अद्वितीय होता है</b><br />
<b>उसका पसीना उसका आंसू</b><br />
<b>सब अद्वितीय होता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>मज़दूर</b><br />
<b>प्रगतिशील कविता का</b><br />
<b>प्रमुख विषय होता है कसौटी होता है</b><br />
<b>कवि जी की दृष्टि में वही प्राणी होता है</b><br />
<b>शेष पृथ्वी पर चाहे देश में मृतात्माएं हैं</b><br />
<b>सचल पाषाण प्रतिमाएं हैं </b><br />
<b>उन्हें न दर्द होता है</b><br />
<b>न उन्हें छाला पड़ता है न आंसू बहता है</b><br />
<b>न बीमार होते हैं न भूख से मरते हैं</b><br />
<b>न कवि जी की सहानुभूति पाते हैं</b><br />
<b><br /></b>
<b>आज़ादी के बाद से ही</b><br />
<b>सिर्फ़ राजनेताओं ने ही नहीं</b><br />
<b>कवियों ने भी भरपूर कोशिश की</b><br />
<b>कि देश के ग़रीब अमीर न होने पाएं</b><br />
<b>और मज़दूर मिल मालिक</b><br />
<b>यथास्थिति बनी रहे</b><br />
<b>कविता में रोना-धोना होता रहे</b><br />
<b>मज़दूरों को काम के लिए</b><br />
<b>दूर-दूर तक जाना पड़े</b><br />
<b>मुसीबत में पैदल आना पड़े</b><br />
<b>और कवि जी को कविता लिखना पड़े</b><br />
<b>और ऐसी करुणा विगलित कविताओं से </b><br />
<b>वाहवाही के पहाड़ उठाना पड़े</b><br />
<b><br /></b>
<b>हो न हो</b><br />
<b>यह दशक मज़दूर कविता के नाम रहेगा</b><br />
<b>आज के कवियों आलोचकों और</b><br />
<b>संपादकों के बहुत काम का रहेगा</b><br />
<b>दशक की बेवकूफ़ी में फंसे कवियों के लिए</b><br />
<b>मज़दूर दशक इस दशक की कविता का</b><br />
<b>नाम रहेगा</b><br />
<b><br /></b>
<b>यह भी </b><br />
<b>हो सकता है कि मज़दूर इंडिया नाम से </b><br />
<b>धड़ाधड़ कई खंडों में संकलन आ जाएं</b><br />
<b>पत्रिकाओं में लाइव पर दीवार पर</b><br />
<b>चर्चा की बाढ़ आ जाए</b><br />
<b><br /></b>
<b>आज यशपाल होते</b><br />
<b>तो हरगिज़ करवा का व्रत नहीं लिखते</b><br />
<b>कोरोना पर भी लंबी कहानी नहीं लिखते</b><br />
<b>मज़दूर का व्रत ज़रूर लिख रहे होते</b><br />
<b>केदारनाथ अग्रवाल भी हे मेरी तुम </b><br />
<b>आज की तारीख़ में हरगिज़ नहीं लिखते</b><br />
<b>हे मज़दूर लिख रहे होते</b><br />
<b>और कविता में औचक हो रही</b><br />
<b>मज़दूर क्रांति पर</b><br />
<b>ख़ुश हो रहे होते।</b><br />
<b><br /></b>
<b>----------</b><br />
<b>शास्त्रार्थ</b><br />
<b>----------</b><br />
<b><br /></b>
<b>हे</b><br />
<b>सूथन वाले</b><br />
<b>पंडिज्जी पालागी </b><br />
<b><br /></b>
<b>ऊ पगलेटवा से</b><br />
<b>भिनसरवे से काहे</b><br />
<b>शास्त्रार्थ करत हौ</b><br />
<b><br /></b>
<b>चोर उच्चकन से</b><br />
<b>मक्कार हरामजादन से</b><br />
<b>शास्त्रार्थ करब ठीक है</b><br />
<b><br /></b>
<b>शास्त्रार्थ ज्ञानी पंडितन से </b><br />
<b>ईमानदार मनइन से करबो</b><br />
<b>कि हिंदी कै दगाबाजन से</b><br />
<b><br /></b>
<b>जौन सब</b><br />
<b>कबीर प्रेमचंद निराला</b><br />
<b>मुक्तिबोध कै बेचिखाइन</b><br />
<b><br /></b>
<b>वोन्हनन सालन से</b><br />
<b>कब तक शास्त्रार्थ करबो</b><br />
<b>ई जिनगी बरबाद करबो</b><br />
<b><br /></b>
<b>हम पूछित है पंडिज्जी </b><br />
<b>एन्हनन कै कौने जनम में</b><br />
<b>डंडा करबो।</b><br />
<b><br /></b>
<b>------</b><br />
<b>पापी</b><br />
<b>------</b><br />
<b><br /></b>
<b>पहुंचभर जाता</b><br />
<b>साहित्य की काशी</b><br />
<b><br /></b>
<b>किसी भी घाट पर</b><br />
<b>डुबकी लगा लेता</b><br />
<b><br /></b>
<b>बहती हुई गंगा में </b><br />
<b>मैं भी हाथ धो लेता</b><br />
<b><br /></b>
<b>तो कोई बंदा आज</b><br />
<b>पापी नहीं कहता।</b><br />
<b><br /></b>
<b>------------</b><br />
<b>सोने वालो</b><br />
<b>------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>जागते </b><br />
<b>रहो</b><br />
<b><br /></b>
<b>सोन का</b><br />
<b>इनाम</b><br />
<b>लेने वालो!</b><br />
<b><br /></b>
<b>---------</b><br />
<b>कवि थे</b><br />
<b>---------</b><br />
<b><br /></b>
<b>वे सब तेज़ी से</b><br />
<b>उधर ही भाग रहे थे</b><br />
<b><br /></b>
<b>जिधर </b><br />
<b>कुछ बंट रहा था</b><br />
<b><br /></b>
<b>लॉकडाउन में</b><br />
<b>मुसीबत के मारे</b><br />
<b>मज़दूर नहीं थे</b><br />
<b><br /></b>
<b>सब के सब</b><br />
<b>हिंदी के कवि थे।</b><br />
<b><br /></b>
<b>------------------</b><br />
<b>कवि नहीं कहा</b><br />
<b>------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>पापी कहा</b><br />
<b>पागल कहा</b><br />
<b>कुंठित कहा</b><br />
<b>असफल कहा</b><br />
<b>क्या-क्या नहीं</b><br />
<b>कहा ज़माने ने</b><br />
<b><br /></b>
<b>बस एक </b><br />
<b>कवि नहीं कहा।</b><br />
<b><br /></b>
<b>------------------------------</b><br />
<b>काँटों की सेज की कविता</b><br />
<b>------------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैंने</b><br />
<b>उनकी बहुत सुंदर</b><br />
<b>और बहुत कोमल कविताओं को</b><br />
<b>बहुत-बहुत देखा </b><br />
<b><br /></b>
<b>वाह-वाह </b><br />
<b>करते-करते थक गया</b><br />
<b>उन्हें और कुछ लिखना आता ही नहीं था</b><br />
<b>इतना तो देखा और कितना देखता</b><br />
<b><br /></b>
<b>उन्होंने तो</b><br />
<b>मेरी कँटीली कविताओं को कभी</b><br />
<b>चाहे मुझे फूटी आँखों से भी नहीं देखा</b><br />
<b>फिर भी लंबे समय तक उन्हें देखता रहा</b><br />
<b><br /></b>
<b>आख़रि ऐसे</b><br />
<b>महाकवियों की ओर कब तक देखता</b><br />
<b>जिनकी कविताएं फूल जैसी हैं</b><br />
<b>और कविता की समझ पत्थर की तरह</b><br />
<b><br /></b>
<b>कोई महाकवि </b><br />
<b>यह कैसे समझ सकता है कि कविता</b><br />
<b>कभी कांटों की सेज पर नहीं सोएगी</b><br />
<b>हमेशा फूल ही पंखुड़ियों में बंद रहेगी</b><br />
<b><br /></b>
<b>कोई कवि </b><br />
<b>सोचता है कि वह जैसी कविता लिखेगा</b><br />
<b>बस वही कविता होगी बाक़ी पागलपन</b><br />
<b>तो मुझे उसके कवि होने पर संदेह है।</b><br />
<b><br /></b>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b><br /></b>
<b><br /></b>
<b><br /></b>
<div>
<br /></div>
</div>
Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6243664497420021389.post-28949980246201237602020-07-02T14:36:00.001+05:302020-07-02T14:36:07.176+05:30 बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित श्रेष्ठ कवियों का शपथग्रहण तथा अन्य कविताएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><br /></b>
<b>- गणेश पाण्डेय</b><br />
<b><br /></b>
<b>-----------------------------------------------------------------</b><br />
<b>बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित श्रेष्ठ कवियों का शपथग्रहण</b><br />
<b>-----------------------------------------------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी का कवि </b><br />
<b>बहुत अधिक परिश्रमी है</b><br />
<b>वैश्विक चिंता उसका स्थायी भाव है</b><br />
<b>कितना बोझ है हिंदी के कवि पर</b><br />
<b>क्या पता विश्व के बाक़ी कवि </b><br />
<b>लंबी छुट्टी पर हों</b><br />
<b><br /></b>
<b>जो भी हो</b><br />
<b>हिंदी का कवि इस महादेश का प्रहरी है </b><br />
<b>लोकतंत्र का सबसे सच्चा रखवाला है </b><br />
<b>संसद और जनता का शुभचिंतक है </b><br />
<b>समता और न्याय का महागायक है </b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी भाषा और साहित्य का</b><br />
<b>लाडला है राजकुमार है महाराज है</b><br />
<b>हिंदी के सारे मंच सारे पुरस्कार</b><br />
<b>सारे कवितापाठ सारे लाइव</b><br />
<b>सारे संगठन सारी अकादमियां</b><br />
<b>सारी सुंदर कविताएं</b><br />
<b>सब उसकी हैं </b><br />
<b><br /></b>
<b>बस एक कमी है</b><br />
<b>उसका नज़दीक का चश्मा टूट गया है</b><br />
<b>इस वजह से वह सतह पर</b><br />
<b>चाहे ज़मीन के नीचे हिंदी का</b><br />
<b>हाथी जैसा नुक्स भी देख नहीं पाता है</b><br />
<b>उसके लिए सत्य एक अनुमान है इसीलिए</b><br />
<b>उसे हिंदी में कुछ भी चिंताजनक नहीं दिखता है</b><br />
<b>वह सिर से पैर तक मार्क्सवादी होकर भी </b><br />
<b>हिंदी में पूर्ण रामराज्य देखता है </b><br />
<b>शेर और बकरी का शुभविवाह होते देखता है</b><br />
<b>किसी की पीठ में किसी को छुरा भोंकते नहीं देखता है</b><br />
<b>किसी को किसी का इनाम लेकर </b><br />
<b>भागते नहीं देखता है </b><br />
<b><br /></b>
<b>वह </b><br />
<b>सिद्धावस्था का कवि है</b><br />
<b>हिंदी का अंतर्यामी है उसे जो प्रिय है </b><br />
<b>जो उसके मन और आचरण में बसा है</b><br />
<b>वही उसके लिए पूर्ण सत्य है शेष असत्य है</b><br />
<b>उसने मान लिया लिया है</b><br />
<b>हिंदी का उसका संगी-साथी कोई कवि</b><br />
<b>किसी कवि की गठरी नहीं चुराता है</b><br />
<b>सारे कवि दूध के धुले हैं </b><br />
<b>कोई विश्वकविता से कुछ नहीं लेता है</b><br />
<b>उसके प्रशंसक हिंदी के सारे कवि मौलिक हैं</b><br />
<b><br /></b>
<b>उसे गर्व है</b><br />
<b>अपने आठवें दशक का कवि होने पर</b><br />
<b>हिंदी कविता की महान परंपरा में</b><br />
<b>सत्य हरिश्चंद्र की औलाद होने पर</b><br />
<b>कबीर निराला मुक्तिबोध ही नहीं</b><br />
<b>नौमीनाथ केदारनाथ आदि की भी</b><br />
<b>औलाद होने पर</b><br />
<b>उसके लिए यह विस्मय का नहीं</b><br />
<b>अपनी कविताओं के प्रति आश्वस्ति का कारक है</b><br />
<b>उसे एक साथ सबका</b><br />
<b>उत्तराधिकारी होने का गौरव प्राप्त है</b><br />
<b>हिंदी का भविष्य ऐसे हाथों में सुरक्षित है</b><br />
<b>उसने अपने अथक श्रम से</b><br />
<b>हिंदी में विश्व का सबसे स्वस्थ लोकतंत्र रचा है</b><br />
<b>अभी हाल में सबने</b><br />
<b>आठवें दशक के इन कवियों को निर्विरोध</b><br />
<b>बीसवीं शताब्दी का श्रेष्ठ कवि चुना है</b><br />
<b>बहुत थोड़े से कवि हैं </b><br />
<b>उंगलियों पर गिने जाने लायक</b><br />
<b>जो दिल्ली से बहुत दूर हैं</b><br />
<b>पागल हैं इस चुनाव को </b><br />
<b>निरस्त करने की मांग करते हैं</b><br />
<b>लेकिन नक्कारख़ाने में </b><br />
<b>चंद तूतियों की आवाज़</b><br />
<b>भला कौन सुनता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>फिर भी शपथग्रहण के रंग में</b><br />
<b>कोई भंग न पड़े इसलिए बात</b><br />
<b>काफ़ी ऊपर तक ले जायी गयी है-</b><br />
<b>हे कविता के अंतरराष्ट्रीय देवताओं</b><br />
<b>हे अनुवादप्रिय हे प्रभावप्रिय हे सत्कारप्रिय </b><br />
<b>हे अंग्रेजीप्रिय इन पागलों को देखिए </b><br />
<b>एक तो बड़ा ही ज़बरदस्त पागल है </b><br />
<b>ग़ुस्से में अपना कुर्ता-पाजामा फाड़ लेता है</b><br />
<b>उसे हिंदी कविता की परंपरा का </b><br />
<b>रत्ती भर ज्ञान नहीं है कहता है- </b><br />
<b>हिंदी की दुनिया में जो इनामी है </b><br />
<b>कवि नहीं डाकू है</b><br />
<b>हे विश्वकविता के छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं</b><br />
<b>आप ही बताएं ऐसा कैसे हो सकता है</b><br />
<b>हिंदी का कवि चोर तो हो सकता है</b><br />
<b>डाकू कैसे हो सकता है</b><br />
<b>और इन कवियों को ऊपर से</b><br />
<b>हरी झंडी भी मिल गयी है</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी के बाक़ी दशकों के</b><br />
<b>सुकवि अतिप्रसन्नतापूर्वक लकदक</b><br />
<b>बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित </b><br />
<b>श्रेष्ठ कवियों के</b><br />
<b>शपथग्रहण की भव्य तैयारियों में</b><br />
<b>जोर-शोर से लगे हुए हैं</b><br />
<b>ओह इनके पास तो नंबर एक तक</b><br />
<b>करने की फुरसत नहीं है </b><br />
<b>ऐसा उत्साह ऐसा उत्सव </b><br />
<b>क्या किसी अन्य भाषा में </b><br />
<b>संभव है</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी के इन</b><br />
<b>कनिष्ठ कवियों जैसी निष्ठा </b><br />
<b>विश्व की दूसरी भाषाओं में </b><br />
<b>विरल है विरल है विरल है।</b><br />
<b><br /></b>
<b>----------------</b><br />
<b>लाउडस्पीकर</b><br />
<b>----------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>(लोग हैं लागि कवित्त बनावत</b><br />
<b>मोहि तौ मोरे कवित्त बनावत।</b><br />
<b>याद आए अनन्य प्रेमी घनानंद)</b><br />
<b><br /></b>
<b>मुझे हिंदी में</b><br />
<b>चींटी की मुंडी के बराबर भी</b><br />
<b>मान नहीं मिला न चाहिए था</b><br />
<b>न अब चाहिए</b><br />
<b><br /></b>
<b>अकादमी तो अकादमी</b><br />
<b>अपने शहर का चाहे मुहल्ले का</b><br />
<b>कोई इनाम नहीं मिला न चाहिए था</b><br />
<b><br /></b>
<b>किसी शहर किसी संस्था</b><br />
<b>किसी सरकार किसी बेकार का</b><br />
<b>कोई तमगा मुझे नहीं मिला</b><br />
<b>न कभी चाहिए</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैं ही था </b><br />
<b>जिसे मौक़ा नहीं मिला</b><br />
<b>वक़त पर एकल काव्यपाठ का</b><br />
<b>बुड्ढों ने जगह ही नहीं खाली की</b><br />
<b>मरते दम तक पढ़ते रहे कविता</b><br />
<b><br /></b>
<b>अब पैंसठ की उम्र में</b><br />
<b>मुझे कविता पढ़ना भी नहीं है</b><br />
<b>बिना पढ़े मैंने खाली कर दी थी जगह</b><br />
<b>अपने बाद के लोगों के लिए</b><br />
<b>काफ़ी पहले</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैंने शुरू में ही</b><br />
<b>इधर-उधर देखने की जगह</b><br />
<b>ख़ुद पर भरोसा किया ख़ुदमुख़्तार बना</b><br />
<b>और मुझमें कुछ अजीब बदलाव हुए</b><br />
<b><br /></b>
<b>ख़ासतौर से</b><br />
<b>मेरे सिर पर निकल आयीं थीं</b><br />
<b>ख़ूब लंबी-लंबी बैलों जैसी कई सींगे </b><br />
<b>कोई आशीर्वाद देने के लिए डर के मारे</b><br />
<b>हाथ ही नहीं रख पा रहा था</b><br />
<b><br /></b>
<b>हिंदी में कृपा बरसाने वाले</b><br />
<b>दूर से नहीं बरसाते थे पास बुलाते थे</b><br />
<b>बिल्कुल पास झुकाते थे कृपा बरसाते थे</b><br />
<b>मुझे पास नहीं बुलाते थे</b><br />
<b>मेरे पास सींग थी</b><br />
<b><br /></b>
<b>मेरा चेहरे से नूर नहीं टपकता था</b><br />
<b>मेरे गाल गोरे नहीं थे मुस्कराता नहीं था</b><br />
<b>चट्टान की तरह सख़्त था चेहरा</b><br />
<b>सारे बड़े लोग और उनके चमचे साले</b><br />
<b>दूर से भगा देते थे</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैं क्या करता</b><br />
<b>मेरे पास न भाग्य था न सीढ़ी</b><br />
<b>मैं ख़ुद ही लंबी-लंबी छलांगे लगाने लगा</b><br />
<b>किसी के भी सिर तक कूदकर जाने लगा</b><br />
<b><br /></b>
<b>मुझे देखते ही सब चिल्लाने लगते</b><br />
<b>हटाओ-हटाओ इस देहाती-भुच्चड़ को</b><br />
<b>कोई-कोई मुझे मां-बहन की गाली देते</b><br />
<b>असल में मैं उन लोगों का कुछ भी</b><br />
<b>बिगाड़ नहीं सकता था</b><br />
<b><br /></b>
<b>न मैं गाली देता था </b><br />
<b>न उन पर डंडे बरसाता था</b><br />
<b>न ही उनका कुर्ता-पाजामा </b><br />
<b>कमीज-पतलून वगैरह फाड़ता था </b><br />
<b>जबकि ऐसा आसानी से कर सकता था</b><br />
<b><br /></b>
<b>मुझे </b><br />
<b>उन लोगों से कुछ नहीं चाहिए था</b><br />
<b>न की गयी चोरियों-डकैतियों में हिस्सा</b><br />
<b>न स्त्रियों संग दुराचरण में सहभागिता</b><br />
<b>मैं अपनी पत्नी को बहुत प्रेम करता हूं</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैं तो सिर्फ़ दूर से </b><br />
<b>लाउडस्पीकर लगाकर</b><br />
<b>साहित्य की अवनति के विरुद्ध</b><br />
<b>रोज़ बोलता था उनसे प्रश्न करता था</b><br />
<b>यह सब भी उनके लिए असह्य था</b><br />
<b>जो उनके लिए असह्य था</b><br />
<b>मेरे लिए प्रिय था और है</b><br />
<b>और रहेगा</b><br />
<b><br /></b>
<b>देखिए </b><br />
<b>क्या-क्या किया गया है मेरे साथ</b><br />
<b>हाय मेरे लाउडस्पीकर को देखिए</b><br />
<b>इसे तोड़ने-फोड़ने की कोशिश की गयी </b><br />
<b>फिर भी मैं चुप नहीं हुआ </b><br />
<b>तो मुझे हिंदी के सबसे बड़े कूड़ेदान में</b><br />
<b>ज़बरदस्ती उठाकर फेंक दिया गया है</b><br />
<b>और मैं वहीं से उनके मुंह पर </b><br />
<b>रोज़ थूकता हूं।</b><br />
<b><br /></b>
<b>------------------------</b><br />
<b>अंगरखे में सुर्ख़ गुलाब</b><br />
<b>------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>नेहरू ने </b><br />
<b>ठीक कहा था आराम हराम है</b><br />
<b>सिर उठाकर जिस शान से कहते हैं </b><br />
<b>हिंदी के ये क्रांतिकारी लेखक</b><br />
<b><br /></b>
<b>काश </b><br />
<b>उसी तरह कह पाते ये लेखक</b><br />
<b>बुलंदतर आवाज़ में इनाम हराम है</b><br />
<b>और प्रलय तक विद्यमान रहती </b><br />
<b>इनकी गूंज दिशाओं में</b><br />
<b><br /></b>
<b>और ये लेखक</b><br />
<b>हिंदी को जन-जन तक ले जाते</b><br />
<b>उसे उनके सरोकारों से जोड़ पाते</b><br />
<b>काश ये हिंदी के नेहरू बन पाते</b><br />
<b><br /></b>
<b>इनाम की जगह </b><br />
<b>अपने अंगरखे में सुर्ख़ गुलाब टांकते</b><br />
<b>हिंदी के बच्चों के चाचा कहलाते</b><br />
<b><br /></b>
<b>मुझ जैसे को</b><br />
<b>रातों में नींद कहां दिन में चैन कहां</b><br />
<b>हिंदी के बच्चों की चिंता में अब</b><br />
<b>इस जीवन में आराम कहां।</b><br />
<b><br /></b>
<b>---------------------------</b><br />
<b>कितनी अच्छी सरकार है</b><br />
<b>---------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>कितनी आज़ादी है</b><br />
<b>कोई इमरजेंसी नहीं लगायी गयी है</b><br />
<b>फ़ासिस्टों के विरोध में एक-एक कवि</b><br />
<b>हज़ार-हज़ार टन कविताएं</b><br />
<b>लिख सकता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>सरकार ने </b><br />
<b>किसी को मना नहीं किया है</b><br />
<b>कि अपना आदर्श मार्क्स को मत बनाओ</b><br />
<b>गांधी या लोहिया को बनाओ</b><br />
<b>साहित्य की काशी न जाओ </b><br />
<b>मगहर जाओ</b><br />
<b><br /></b>
<b>सरकार ने </b><br />
<b>किसी भी गिरोहबंद लेखक का नाम </b><br />
<b>किसी कालीसूची में नहीं डाला है</b><br />
<b>हिंदी का कोई लेखक नज़रबंद नहीं है</b><br />
<b>कोई भी किसी भी स्त्री को</b><br />
<b>बुरी नज़र से देख सकता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>कोई पाबंदी नहीं है</b><br />
<b>कोई भी किसी का भी चरणरज ले सकता है</b><br />
<b>किसी भी तुच्छ लेखक की पादुका</b><br />
<b>जिह्वा से स्वच्छ कर सकता है</b><br />
<b><br /></b>
<b>कितनी अच्छी सरकार है</b><br />
<b>किसी को भी दूसरे के हिस्से का पुरस्कार</b><br />
<b>मंच माइक माला छीनने की</b><br />
<b>कोई मनाही नहीं है</b><br />
<b>लेखक कुछ भी कर सकता है</b><br />
<b>कोई आचारसंहिता ही नहीं है</b><br />
<b>कोई लेखक आयोग भी नहीं है</b><br />
<b><br /></b>
<b>हमारी प्यारी सरकार ने </b><br />
<b>कविता की नकल चोरी गैंग बनाने</b><br />
<b>या साहित्यिक क़त्ल रोकने के लिए</b><br />
<b>कोई अध्यादेश नहीं पारित कराया है</b><br />
<b><br /></b>
<b>फिर भी आप कवि लोग</b><br />
<b>सरकार के लोगों को कितनी गालियां देते हैं</b><br />
<b>सरकार ने हिंदी के कवियों को</b><br />
<b>कितनी छूट दे रखी है</b><br />
<b>सभी प्रकार के व्यभिचार करने की</b><br />
<b>छूट दे रखी है</b><br />
<b><br /></b>
<b>सरकार ने</b><br />
<b>साहित्य की काशी में मोक्ष के लिए</b><br />
<b>टिकट के बिना उड़कर </b><br />
<b>जाने की अनुमति दे रखी है</b><br />
<b>लेखकों की लाइन लगी हुई है</b><br />
<b>अकादमियों के गेट खुले हुए हैं</b><br />
<b>धड़ाधड़ लेखक मशहूर हो रहा है</b><br />
<b>साहित्य की कच्ची शराब के नशे में</b><br />
<b>चूर हो रहा है</b><br />
<b><br /></b>
<b>बस सरकार </b><br />
<b>सिर्फ़ मगहर जाने वालों पर </b><br />
<b>बहुत से बहुत सख़्त है</b><br />
<b>मेरी तो हालत पस्त है</b><br />
<b>जिस पागल लेखक को </b><br />
<b>वहां जाना है पैदल ही जाए</b><br />
<b>इकतालीस डिग्री की धूप में </b><br />
<b>सिर से पैर तक पसीना बहाए</b><br />
<b>फिर कबीर का दास कहलाए।</b><br />
<b><br /></b>
<b>---------------------</b><br />
<b>कोमलांगी कवियो</b><br />
<b>---------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>एक तो हिंदी में </b><br />
<b>मेरी किस्मत पहाड़ जैसी सख़्त </b><br />
<b>और उतनी ही बेजान है</b><br />
<b><br /></b>
<b>उस पर </b><br />
<b>मेरी दीवार ज़बरदस्त कँटीली</b><br />
<b>उस पर मेरी बर्छी जैसी कविताएं </b><br />
<b>और गद्य आए दिन चस्पा होते रहते हैं</b><br />
<b><br /></b>
<b>ओह</b><br />
<b>कोमलांगी कवियों </b><br />
<b>और आलोचकों को </b><br />
<b>कितनी दिक़्क़त होती होगी</b><br />
<b>एहतियात के तौर पर तो उन्हें </b><br />
<b>सौ गज दूर से इस बघनखे लेखक को</b><br />
<b>देखना पड़ता होगा</b><br />
<b><br /></b>
<b>यह सोचकर</b><br />
<b>कि चलो हमारे समय में है साला</b><br />
<b>इस साले को भी दूर से जीभर देख लो</b><br />
<b>क्या लगता है कुछ नहीं लगता है</b><br />
<b>कुछ मां-बहन की गालियां भी देते होगे</b><br />
<b>मैं बुरा नहीं मनाता कोमलांगी लेखको</b><br />
<b><br /></b>
<b>मैं ऐसा शुरू में नहीं था</b><br />
<b>रीफ़ जैसे दस उपन्यास लिख सकता था</b><br />
<b>ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला जैसी </b><br />
<b>हज़ार से ज़्यादा कविताएं लिख सकता था</b><br />
<b>कई सौ शुद्ध शाकाहारी लेखों का </b><br />
<b>पहाड़ खड़ा कर सकता था</b><br />
<b><br /></b>
<b>ये तो हिंदी के राक्षस थे</b><br />
<b>जिन्होंने मुझे ऐसा करने नहीं दिया </b><br />
<b>चलती हुई ट्रेन के सेकेंड क्लास के डिब्बे से </b><br />
<b>मुझे पूरी तबीअत से ठोकर मारकर </b><br />
<b>बाहर कर दिया </b><br />
<b>मेरे साथ भी ऐसा होना था</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुम्हीं बताओ </b><br />
<b>कोमलांगी लेखको</b><br />
<b>मेरे पास हिंदी के इन ज़ालिमों के इशारे पर </b><br />
<b>चलती हुई ट्रेन पर पत्थर बरसाने के अलावा </b><br />
<b>और क्या विकल्प था</b><br />
<b>क्या मैं ट्रेन की पटरी पर लेट जाता</b><br />
<b>और इन ज़ालिमों की धड़धड़ाती हुई ट्रेन को</b><br />
<b>अपने ऊपर गुज़र जाने देता</b><br />
<b><br /></b>
<b>अब तो मेरा यह हाल है</b><br />
<b>कि जहां-जहां हिंदी के ज़ालिम दिखते हैं</b><br />
<b>आप से आप मेरे हाथों से जादू की तरह</b><br />
<b>तेजी से पत्थर छूटते हैं बर्छी छूटती है</b><br />
<b><br /></b>
<b>अच्छा करते हो </b><br />
<b>जालिमों के घराने से ताल्लुक रखने वाले </b><br />
<b>हिंदी के कोमलांगी लेखको</b><br />
<b>जो मेरी दीवार से दूर रहते हो</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुम्हारे लिए</b><br />
<b>बहुत अच्छा हुआ</b><br />
<b>कि तुम्हें वज्र जैसी छाती नहीं मिलीं</b><br />
<b>एक साथ दसों दिशाओं में अहर्निश</b><br />
<b>तलवार चलाने वाली बलिष्ठ </b><br />
<b>भुजाएं नहीं मिलीं</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुम्हें तो </b><br />
<b>सारे के सारे अंग अतिकोमल मिले हैं</b><br />
<b>हिंदी के विधाताओं ने हाय तुम्हें</b><br />
<b>कितनी फुरसत से गढ़ा है</b><br />
<b>तुमने वह सब सीखा जो चाहा</b><br />
<b>सारी कलाएं भी चतुराई भी</b><br />
<b><br /></b>
<b>तुमने कव्वे की तरह </b><br />
<b>जब-जब जितना सिखाया गया </b><br />
<b>उससे भी ज़्यादा होशियारी सीख ली है</b><br />
<b>अपना सिर सलामत रखना ख़ूब जानते हो</b><br />
<b>यह भी जानते हो कि जिस राह पर तुम हो</b><br />
<b>गद्दी और मुकुट सब मिलना तय है</b><br />
<b><br /></b>
<b>कुसूरवार तो मैं हूं</b><br />
<b>मैंने ही तय रास्तों पर </b><br />
<b>शुरू में ही चलना छोड़ दिया नहीं तो </b><br />
<b>तुम्हें मुझ जैसे आत्मघाती लेखक से</b><br />
<b>कभी कोई शिकायत नहीं होती।</b><br />
<b><br /></b>
<b>---------------------------</b><br />
<b>साहित्य में तीन सौ सत्तर</b><br />
<b>---------------------------</b><br />
<b><br /></b>
<b>वाजपेयी जी चाहते हैं</b><br />
<b>राजनेता प्रतिदिन दुग्धस्नान करें</b><br />
<b>पूरे शरीर पर चंदन का गाढा लेप करें</b><br />
<b>धवल वस्त्र धारण करें</b><br />
<b><br /></b>
<b>मिश्र जी जोशी जी पाण्डेय जी </b><br />
<b>बाऊ साहब लाला जी भी चाहते हैं</b><br />
<b>फ़ासिस्टों का समूल नाश कर दिया जाय</b><br />
<b>नाश न हो पाने तक पूरी मुस्तैदी के साथ</b><br />
<b>उन्हें रोज़ पटककर कचर-कचर कर</b><br />
<b>डिटर्जेंट से सुबह-शाम साफ़ किया जाय</b><br />
<b>दिन में चार बार और रात में तीन बार</b><br />
<b>गुलाबजल में नहलाया जाय</b><br />
<b><br /></b>
<b>ये लेखक लोग मिलकर</b><br />
<b>संयुक्त वक्तव्य जारी करते हैं-</b><br />
<b>चूंकि देश में समाज में कोने-अंतरे में</b><br />
<b>हर जगह बुरे लोग राजी-खुशी रहते हैं</b><br />
<b>लेखकों को भी ठीक उसी तरह </b><br />
<b>राजी-खुशी रहने दिया जाय</b><br />
<b><br /></b>
<b>यहां तक </b><br />
<b>सब ठीक चल रहा था</b><br />
<b>लेकिन जैसे इन सब लोगों ने</b><br />
<b>वक्तव्य में पुनश्च करके जोड़ा</b><br />
<b>कि उन्हें नहाने के लिए न कहा जाय</b><br />
<b>उन्हें वस्त्र पहनने के लिए न कहा जाय</b><br />
<b>उनके उच्च विचार और आदर्श जीवन</b><br />
<b>केवल उनके साहित्य में देखा जाय</b><br />
<b><br /></b>
<b>एक पागल लेखक</b><br />
<b>उछलकर उनके पास पहुंच गया</b><br />
<b>नटई पकड़कर घसीटते हुए चिल्लाया</b><br />
<b>तुम सब लेखक हो तो तुम्हारे लिए</b><br />
<b>साहित्य में अलग से कोई धारा</b><br />
<b>तीन सौ सत्तर की तरह</b><br />
<b>क्यों चाहिए क्यों।</b><br />
<b><br /></b>
<b><br /></b>
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Ganesh Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09531688790277362617noreply@blogger.com0