- गणेश पाण्डेय
प्रिय विमलेश, उन प्रतिभाओं के साथ यह दिक्कत अक्सर होती, जिन्हें धारा के विरुद्ध चलने की बीमारी होती है। धारा के संग बहने वाली प्रतिभाएँ सुख की नींद सोती हैं और यश के सूर्योदय में जागती हैं। जैसे मुहावरा है कि कुछ लोग मुँह में सोने का चम्मच लेकर पैदा होते हैं, उसी तरह कहते हैं कि कुछ लोग अपने भाग्य में लट्ठ लेकर पैदा होते हैं। आज हिंदी के अधिकांश लेखक, जिनमें उच्चशिक्षा संस्थानों के शिक्षक भी शामिल हैं, धारा के साथ सुखपूर्वक जीवन जीते हैं। तनिक-सा यश, तनिक-सा पुरस्कार और तनिक-सी चर्चा का सुख, उनके जीवन का उद्देश्य है, उनकी रचना का ध्येय है। ऐसे लेखक मर जाने बाद कुछ भी नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं, ये जीते जी अपना श्राद्ध करके जाना चाहते हैं। साहित्यिक श्राद्ध का आशय पंडिज्जी वाला कर्मकांड नहीं है, दूसरा कर्मकांड है, साफ-साफ बता दूँ कि यह कर्मकांड अपने ऊपर किताब लिखवाने और पत्रिकाओं का अंक निकलवाने का है। हमारे बीच के कई लोग ऐसा खूब करते हैं। चाहे किसी पंडिज्जी पर किताब संपादित करनी हो चाहे किसी बाऊसाहब पर। एक आलोचक ने तो यहाँ से साठ का होने पर बाकायदा एक पत्रिका का अंक ही निकलवाया, एक ने अपने काम पर एकाधिक किताब छपवाया। सबके नाम हैं, पर मेरा उद्देश्य किसी को अपमानित करना नहीं है, सिर्फ प्रवृत्ति को बताना भर है। कहना यह कि ये लोग बहुत डरे हुए लोग होते हैं और ऐसे लोगों के साथ सिर्फ और सिर्फ डरे हुए लोग होते हैं, सब यहाँ देखा हुआ है। ऐसे ही लोग उच्चशिक्षा संस्थानों में भी होते हैं। इसीलिए उच्चशिक्षा संस्थानों को प्रतिभाओं की कब्रगाह कहा जाता है।
कोई चाहे तो यहाँ से लेकर देश के अनेक हिस्सों का उदाहरण सामने रखकर सीधे किसी कवि का नाम लेकर कह सकता है कि अमुक जी भी प्रोफेसर रह चुके हैं और अच्छे कवि कैसे हैं ? तो मैं विनम्रतापूर्वक कहूँगा कि भाई अच्छे कवि तो लाखों में हैं, यह पूछिए कि बड़े कवि हैं ? मैं अपनी समझ के आधार पर आज जब राजधानी के प्रथम पंक्ति के तीन कवियों को देखता हूँ तो उन्हें बड़े कवि के रूप में नहीं देख पाता हूँ। हाँ अच्छे और मजे हुए कवि हो सकते हैं। बड़े कवि मुझे इनसे पहले की पीढ़ी में दिखते हैं। यह उल्लेख सिर्फ इसलिए कि कह सकूँ कि कवि का जीवन जितना बड़ा होता है, उसमें टकराने का भाव जितना होता, उससे वह कवि बड़ी कविता की दीवार फाँद पाता है। जीवन में कोमलता और पग-पग पर समर्पण जितना अधिक होगा, कविता ओज से उतनी ही दूर होगी। यह ओज कवि स्वभाव का जब अंग हो जाता है, तब उसकी कविता में ठीक से भिनता है। कहीं-कहीं तो मुहावरे में झलकता है। वीरगाथाओं का ओज मुझे सच्चा ओज नहीं लगता। जैसे दिहाड़ी पर ओजप्रदर्शन किया गया हो। जीवन का खुरदुरापन अच्छी कविता के लिए जरूरी है। जाहिर है कि मँजी हुई कविता के लिए जरूरी नहीं है। मँजी हुई कविता तो अतिशय अभ्यास और बाहर की कविताओं की नकल से खूब बन सकती है।
असल में विमलेश , कहना यह है कि अपनी संस्था के माहौल से दुखी होकर दूसरी जगह जाने के लिए हड़बड़ी में नहीं सोचना चाहिए। जाना ही चाहते हो तो ऐसी जगह जाओ, जहाँ कुछ कर सको। यह सब कहने के लिए भूमिका जरूरी है, इसीलिए कुछ संकेत किया है। इशारा यह कि आज का समय उन प्रतिभाओं के लिए बहुत बुरा समय है जो अपनी गर्दन तनी हुई रखना चाहते हैं, उन प्रतिभाओं के लिए यह समय बहुत अच्छा है जो गर्दन ही नहीं कमर भी झुकाने की कला में पारंगत हैं, क्या पता ये पहले से सीखकर ही आते हों कविता की दुनिया में। आज साहित्य से जुड़े जितने भी संस्थान हैं, सब बीमार हैं। क्यों कोई अच्छा लिखकर फलाना-फलाना जी का जूता साफ करे ? इस संपादक, उस अध्यक्ष या उस आलोचक का चरणामृत पिये ? क्या दावे के साथ आज कोई प्रकाशक या संपादक कह सकता है कि अपने समय की सभी अच्छी कृतियों को छापा है ? जिस भाषा के साहित्य में लेखकों को प्रकाशकों की पतलून साफ करनी पड़े, उस भाषा के लेखक सीना फुलाकर की चलने के योग्य हैं ?
लेखक ही नहीं, उच्चशिक्षा संस्थानों के अधिकांश प्राध्यापक भी अपने विभागाध्यक्षों की पतलून साफ करने से मना नहीं कर पाते हैं। सीधे-सीधे कड़े ढंग से यह कहने का आशय यह है कि पढ़ने और पढ़ाने का पेशा भी उतना ही गंदा है जितना दूसरे पेशे। तनिक भी यहाँ कम नहीं है। बड़े-बड़े मार्क्सवादी भी वही करते हैं जो मोदी की पार्टी के समर्थक करते हैं। मेरा एक छोटा उपन्यास ही है-‘अथ ऊदल कथा’, जिसका नायक ऊदल ढ़ँूढ़ता ही रह जाता है, उसे लड़ाई में साथ देने के लिए बड़े भाई के रूप में कोई आल्हा नहीं मिलता है। सब के सब रणछोड़दास मिलते हैं। या सत्ता के गैंग में शामिल लोग मिलते हैं। ‘गुरू सीरीज’ की कविता तो पढ़ने और पढ़ाने की दुनिया का दस्तावेज है ही। असली दस्तावेज है, कोई नकली दस्तावेज नहीं। इससे पहले कि तुम्हें अपनी एक कविता ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़वाऊ, यह बताना जरूरी समझता हूँ कि तीन बार स्कूटर से गिरा हूँ और अगर हेलमेट नहीं रहा होता तो आज बात नहीं कर रहा होता। जाहिर है कि दफ्तर के हिंदी पुत्रों से मिला तनाव ही था, जिसकी वजह से तीन बार जाने का दुर्योग बना। तब से आज तक तनाव अहर्निश। अब गाड़ी चलाता हूँ। कुछ बचे रहने के लिए। यह सब कहता नहीं, लेकिन इसलिए कह रहा हूँ कि यह न समझो कि लेखक हो तो पढ़ने-पढ़ाने की दुनिया में हिंदी के बुरे लोग हार लेकर स्वागत करेंगे। ऐसे ही बुरे लोग साहित्य की सत्ता को भी प्रिय होते हैं, ये बुरे लोग इसलिए साहित्य की सत्ता को प्रिय होते हैं कि इनकी जुबान पर कोई अप्रिय शब्द आ ही नहीं सकता है, ये किसी भी सत्ता को यह नहीं कह सकते कि सत्ता जी आपकी धोती या पाजामें में छेद है। कहना भी हुआ कभी तो कहेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! तो प्रियवर कहना यह कि यह कहने वाले कहीं भी रहेगे तो सुखपूर्वक रहेंगे जो कह सकेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! जो यह कहेंगे कि यह डिजाइन नहीं छेद है मान्यवर, उनके सिर हर जगह दीवारों से टकराते रहेंगे। मैं तो अक्सर लड़कियों को मना करता हूँ कि तुम कविता मत लिखो, लिखना है तो आलोचना लिखो। कविता और कहानी दोनों क्षेत्र आज लड़कियों के लिए बहुत असुरक्षित हैं। ऐसा इसलिए कि आज संपादक, आलोचक, प्रकाशक, सब संदेह के घेरे में हैं। बहरहाल यह दूसरी बात है इस पर फिर कभी। यहाँ सिर्फ इतना ही कि उच्चशिक्षा संस्थानों में हिंदी की दुनिया संदेह के घेरे में नहीं, बल्कि सीधे-सीधे अँधेरे में है। शेषफिर, लो ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़ो-
प्रिय विमलेश, उन प्रतिभाओं के साथ यह दिक्कत अक्सर होती, जिन्हें धारा के विरुद्ध चलने की बीमारी होती है। धारा के संग बहने वाली प्रतिभाएँ सुख की नींद सोती हैं और यश के सूर्योदय में जागती हैं। जैसे मुहावरा है कि कुछ लोग मुँह में सोने का चम्मच लेकर पैदा होते हैं, उसी तरह कहते हैं कि कुछ लोग अपने भाग्य में लट्ठ लेकर पैदा होते हैं। आज हिंदी के अधिकांश लेखक, जिनमें उच्चशिक्षा संस्थानों के शिक्षक भी शामिल हैं, धारा के साथ सुखपूर्वक जीवन जीते हैं। तनिक-सा यश, तनिक-सा पुरस्कार और तनिक-सी चर्चा का सुख, उनके जीवन का उद्देश्य है, उनकी रचना का ध्येय है। ऐसे लेखक मर जाने बाद कुछ भी नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं, ये जीते जी अपना श्राद्ध करके जाना चाहते हैं। साहित्यिक श्राद्ध का आशय पंडिज्जी वाला कर्मकांड नहीं है, दूसरा कर्मकांड है, साफ-साफ बता दूँ कि यह कर्मकांड अपने ऊपर किताब लिखवाने और पत्रिकाओं का अंक निकलवाने का है। हमारे बीच के कई लोग ऐसा खूब करते हैं। चाहे किसी पंडिज्जी पर किताब संपादित करनी हो चाहे किसी बाऊसाहब पर। एक आलोचक ने तो यहाँ से साठ का होने पर बाकायदा एक पत्रिका का अंक ही निकलवाया, एक ने अपने काम पर एकाधिक किताब छपवाया। सबके नाम हैं, पर मेरा उद्देश्य किसी को अपमानित करना नहीं है, सिर्फ प्रवृत्ति को बताना भर है। कहना यह कि ये लोग बहुत डरे हुए लोग होते हैं और ऐसे लोगों के साथ सिर्फ और सिर्फ डरे हुए लोग होते हैं, सब यहाँ देखा हुआ है। ऐसे ही लोग उच्चशिक्षा संस्थानों में भी होते हैं। इसीलिए उच्चशिक्षा संस्थानों को प्रतिभाओं की कब्रगाह कहा जाता है।
कोई चाहे तो यहाँ से लेकर देश के अनेक हिस्सों का उदाहरण सामने रखकर सीधे किसी कवि का नाम लेकर कह सकता है कि अमुक जी भी प्रोफेसर रह चुके हैं और अच्छे कवि कैसे हैं ? तो मैं विनम्रतापूर्वक कहूँगा कि भाई अच्छे कवि तो लाखों में हैं, यह पूछिए कि बड़े कवि हैं ? मैं अपनी समझ के आधार पर आज जब राजधानी के प्रथम पंक्ति के तीन कवियों को देखता हूँ तो उन्हें बड़े कवि के रूप में नहीं देख पाता हूँ। हाँ अच्छे और मजे हुए कवि हो सकते हैं। बड़े कवि मुझे इनसे पहले की पीढ़ी में दिखते हैं। यह उल्लेख सिर्फ इसलिए कि कह सकूँ कि कवि का जीवन जितना बड़ा होता है, उसमें टकराने का भाव जितना होता, उससे वह कवि बड़ी कविता की दीवार फाँद पाता है। जीवन में कोमलता और पग-पग पर समर्पण जितना अधिक होगा, कविता ओज से उतनी ही दूर होगी। यह ओज कवि स्वभाव का जब अंग हो जाता है, तब उसकी कविता में ठीक से भिनता है। कहीं-कहीं तो मुहावरे में झलकता है। वीरगाथाओं का ओज मुझे सच्चा ओज नहीं लगता। जैसे दिहाड़ी पर ओजप्रदर्शन किया गया हो। जीवन का खुरदुरापन अच्छी कविता के लिए जरूरी है। जाहिर है कि मँजी हुई कविता के लिए जरूरी नहीं है। मँजी हुई कविता तो अतिशय अभ्यास और बाहर की कविताओं की नकल से खूब बन सकती है।
असल में विमलेश , कहना यह है कि अपनी संस्था के माहौल से दुखी होकर दूसरी जगह जाने के लिए हड़बड़ी में नहीं सोचना चाहिए। जाना ही चाहते हो तो ऐसी जगह जाओ, जहाँ कुछ कर सको। यह सब कहने के लिए भूमिका जरूरी है, इसीलिए कुछ संकेत किया है। इशारा यह कि आज का समय उन प्रतिभाओं के लिए बहुत बुरा समय है जो अपनी गर्दन तनी हुई रखना चाहते हैं, उन प्रतिभाओं के लिए यह समय बहुत अच्छा है जो गर्दन ही नहीं कमर भी झुकाने की कला में पारंगत हैं, क्या पता ये पहले से सीखकर ही आते हों कविता की दुनिया में। आज साहित्य से जुड़े जितने भी संस्थान हैं, सब बीमार हैं। क्यों कोई अच्छा लिखकर फलाना-फलाना जी का जूता साफ करे ? इस संपादक, उस अध्यक्ष या उस आलोचक का चरणामृत पिये ? क्या दावे के साथ आज कोई प्रकाशक या संपादक कह सकता है कि अपने समय की सभी अच्छी कृतियों को छापा है ? जिस भाषा के साहित्य में लेखकों को प्रकाशकों की पतलून साफ करनी पड़े, उस भाषा के लेखक सीना फुलाकर की चलने के योग्य हैं ?
लेखक ही नहीं, उच्चशिक्षा संस्थानों के अधिकांश प्राध्यापक भी अपने विभागाध्यक्षों की पतलून साफ करने से मना नहीं कर पाते हैं। सीधे-सीधे कड़े ढंग से यह कहने का आशय यह है कि पढ़ने और पढ़ाने का पेशा भी उतना ही गंदा है जितना दूसरे पेशे। तनिक भी यहाँ कम नहीं है। बड़े-बड़े मार्क्सवादी भी वही करते हैं जो मोदी की पार्टी के समर्थक करते हैं। मेरा एक छोटा उपन्यास ही है-‘अथ ऊदल कथा’, जिसका नायक ऊदल ढ़ँूढ़ता ही रह जाता है, उसे लड़ाई में साथ देने के लिए बड़े भाई के रूप में कोई आल्हा नहीं मिलता है। सब के सब रणछोड़दास मिलते हैं। या सत्ता के गैंग में शामिल लोग मिलते हैं। ‘गुरू सीरीज’ की कविता तो पढ़ने और पढ़ाने की दुनिया का दस्तावेज है ही। असली दस्तावेज है, कोई नकली दस्तावेज नहीं। इससे पहले कि तुम्हें अपनी एक कविता ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़वाऊ, यह बताना जरूरी समझता हूँ कि तीन बार स्कूटर से गिरा हूँ और अगर हेलमेट नहीं रहा होता तो आज बात नहीं कर रहा होता। जाहिर है कि दफ्तर के हिंदी पुत्रों से मिला तनाव ही था, जिसकी वजह से तीन बार जाने का दुर्योग बना। तब से आज तक तनाव अहर्निश। अब गाड़ी चलाता हूँ। कुछ बचे रहने के लिए। यह सब कहता नहीं, लेकिन इसलिए कह रहा हूँ कि यह न समझो कि लेखक हो तो पढ़ने-पढ़ाने की दुनिया में हिंदी के बुरे लोग हार लेकर स्वागत करेंगे। ऐसे ही बुरे लोग साहित्य की सत्ता को भी प्रिय होते हैं, ये बुरे लोग इसलिए साहित्य की सत्ता को प्रिय होते हैं कि इनकी जुबान पर कोई अप्रिय शब्द आ ही नहीं सकता है, ये किसी भी सत्ता को यह नहीं कह सकते कि सत्ता जी आपकी धोती या पाजामें में छेद है। कहना भी हुआ कभी तो कहेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! तो प्रियवर कहना यह कि यह कहने वाले कहीं भी रहेगे तो सुखपूर्वक रहेंगे जो कह सकेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! जो यह कहेंगे कि यह डिजाइन नहीं छेद है मान्यवर, उनके सिर हर जगह दीवारों से टकराते रहेंगे। मैं तो अक्सर लड़कियों को मना करता हूँ कि तुम कविता मत लिखो, लिखना है तो आलोचना लिखो। कविता और कहानी दोनों क्षेत्र आज लड़कियों के लिए बहुत असुरक्षित हैं। ऐसा इसलिए कि आज संपादक, आलोचक, प्रकाशक, सब संदेह के घेरे में हैं। बहरहाल यह दूसरी बात है इस पर फिर कभी। यहाँ सिर्फ इतना ही कि उच्चशिक्षा संस्थानों में हिंदी की दुनिया संदेह के घेरे में नहीं, बल्कि सीधे-सीधे अँधेरे में है। शेषफिर, लो ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़ो-
एक वीर ने उन्हें तब घूरा
जब वे सच की तरह कुछ बोल रहे थे ।
एक वीर ने उन्हें तब टोका
जब वे किसी की चमचम खाए जा रहे थे ।
एक वीर ने उन्हें तब फटकारा
जब वे किसी मोढ़े की परिक्रमा कर रहे थे ।
असल में
एक वीर ने दम कर रखा था
उनकी उस अक्षुण्ण नाक में
जिसे तख़्ते-ताउस की हर गंध
एक जैसी प्यारी थी ।
एक दिन वे एकजुट हुए
क्योंकि एकता का पुष्ट वैचारिक आधार उनके सामने था ।
पाठ्यक्रम समिति की उस बैठक में
लिया उन्होंने निर्णय
कि ‘सच्ची वीरता’ को
जीवन से निकाल दिया जाय ।
सच्ची वीरता’ = अध्यापक पूर्ण सिंह का महत्त्वपूर्ण निबंध ।