शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

मोढ़े की परिक्रमा

- गणेश पाण्डेय

प्रिय विमलेश, उन प्रतिभाओं के साथ यह दिक्कत अक्सर होती, जिन्हें धारा के विरुद्ध चलने की बीमारी होती है। धारा के संग बहने वाली प्रतिभाएँ सुख की नींद सोती हैं और यश के सूर्योदय में जागती हैं। जैसे मुहावरा है कि कुछ लोग मुँह में सोने का चम्मच लेकर पैदा होते हैं, उसी तरह कहते हैं कि कुछ लोग अपने भाग्य में लट्ठ लेकर पैदा होते हैं। आज हिंदी के अधिकांश लेखक, जिनमें उच्चशिक्षा संस्थानों के शिक्षक भी शामिल हैं, धारा के साथ सुखपूर्वक जीवन जीते हैं। तनिक-सा यश, तनिक-सा पुरस्कार और तनिक-सी चर्चा का सुख, उनके जीवन का उद्देश्य है, उनकी रचना का ध्येय है। ऐसे लेखक मर जाने बाद कुछ भी नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं, ये जीते जी अपना श्राद्ध करके जाना चाहते हैं। साहित्यिक श्राद्ध का आशय पंडिज्जी वाला कर्मकांड नहीं है, दूसरा कर्मकांड है, साफ-साफ बता दूँ कि यह कर्मकांड अपने ऊपर किताब लिखवाने और पत्रिकाओं का अंक निकलवाने का है। हमारे बीच के कई लोग ऐसा खूब करते हैं। चाहे किसी पंडिज्जी पर किताब संपादित करनी हो चाहे किसी बाऊसाहब पर। एक आलोचक ने तो यहाँ से साठ का होने पर बाकायदा एक पत्रिका का अंक ही निकलवाया, एक ने अपने काम पर एकाधिक किताब छपवाया। सबके नाम हैं, पर मेरा उद्देश्य किसी को अपमानित करना नहीं है, सिर्फ प्रवृत्ति को बताना भर है। कहना यह कि ये लोग बहुत डरे हुए लोग होते हैं और ऐसे लोगों के साथ सिर्फ और सिर्फ डरे हुए लोग होते हैं, सब यहाँ देखा हुआ है। ऐसे ही लोग उच्चशिक्षा संस्थानों में भी होते हैं। इसीलिए उच्चशिक्षा संस्थानों को प्रतिभाओं की कब्रगाह कहा जाता है।
        कोई चाहे तो यहाँ से लेकर देश के अनेक हिस्सों का उदाहरण सामने रखकर सीधे किसी कवि का नाम लेकर कह सकता है कि अमुक जी भी प्रोफेसर रह चुके हैं और अच्छे कवि कैसे हैं ? तो मैं विनम्रतापूर्वक कहूँगा कि भाई अच्छे कवि तो लाखों में हैं, यह पूछिए कि बड़े कवि हैं ? मैं अपनी समझ के आधार पर आज जब राजधानी के प्रथम पंक्ति के तीन कवियों को देखता हूँ तो उन्हें बड़े कवि के रूप में नहीं देख पाता हूँ। हाँ अच्छे और मजे हुए कवि हो सकते हैं। बड़े कवि मुझे इनसे पहले की पीढ़ी में दिखते हैं। यह उल्लेख सिर्फ इसलिए कि कह सकूँ कि कवि का जीवन जितना बड़ा होता है, उसमें टकराने का भाव जितना होता, उससे वह कवि बड़ी कविता की दीवार फाँद पाता है। जीवन में कोमलता और पग-पग पर समर्पण जितना अधिक होगा, कविता ओज से उतनी ही दूर होगी। यह ओज कवि स्वभाव का जब अंग हो जाता है, तब उसकी कविता में ठीक से भिनता है। कहीं-कहीं तो मुहावरे में झलकता है। वीरगाथाओं का ओज मुझे सच्चा ओज नहीं लगता। जैसे दिहाड़ी पर ओजप्रदर्शन किया गया हो। जीवन का खुरदुरापन अच्छी कविता के लिए जरूरी है। जाहिर है कि मँजी हुई कविता के लिए जरूरी नहीं है। मँजी हुई कविता तो अतिशय अभ्यास और बाहर की कविताओं की नकल से खूब बन सकती है।
          असल में विमलेश , कहना यह है कि अपनी संस्था के माहौल से दुखी होकर दूसरी जगह जाने के लिए हड़बड़ी में नहीं सोचना चाहिए। जाना ही चाहते हो तो ऐसी जगह जाओ, जहाँ कुछ कर सको। यह सब कहने के लिए भूमिका जरूरी है, इसीलिए कुछ संकेत किया है। इशारा यह कि आज का समय उन प्रतिभाओं के लिए बहुत बुरा समय है जो अपनी गर्दन तनी हुई रखना चाहते हैं, उन प्रतिभाओं के लिए यह समय बहुत अच्छा है जो गर्दन ही नहीं कमर भी झुकाने की कला में पारंगत हैं, क्या पता ये पहले से सीखकर ही आते हों कविता की दुनिया में। आज साहित्य से जुड़े जितने भी संस्थान हैं, सब बीमार हैं। क्यों कोई अच्छा लिखकर फलाना-फलाना जी का जूता साफ करे ? इस संपादक, उस अध्यक्ष या उस आलोचक का चरणामृत पिये ? क्या दावे के साथ आज कोई प्रकाशक या संपादक कह सकता है कि अपने समय की सभी अच्छी कृतियों को छापा है ? जिस भाषा के साहित्य में लेखकों को प्रकाशकों की पतलून साफ करनी पड़े, उस भाषा के लेखक सीना फुलाकर की चलने के योग्य हैं ?
         लेखक ही नहीं, उच्चशिक्षा संस्थानों के अधिकांश प्राध्यापक भी अपने विभागाध्यक्षों की पतलून साफ करने से मना नहीं कर पाते हैं। सीधे-सीधे कड़े ढंग से यह कहने का आशय यह है कि पढ़ने और पढ़ाने का पेशा भी उतना ही गंदा है जितना दूसरे पेशे। तनिक भी यहाँ कम नहीं है। बड़े-बड़े मार्क्सवादी भी वही करते हैं जो मोदी की पार्टी के समर्थक करते हैं। मेरा एक छोटा उपन्यास ही है-‘अथ ऊदल कथा’, जिसका नायक ऊदल ढ़ँूढ़ता ही रह जाता है, उसे लड़ाई में साथ देने के लिए बड़े भाई के रूप में कोई आल्हा नहीं मिलता है। सब के सब रणछोड़दास मिलते हैं। या सत्ता के गैंग में शामिल लोग मिलते हैं। ‘गुरू सीरीज’ की कविता तो पढ़ने और पढ़ाने की दुनिया का दस्तावेज है ही। असली दस्तावेज है, कोई नकली दस्तावेज नहीं। इससे पहले कि तुम्हें अपनी एक कविता ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़वाऊ, यह बताना जरूरी समझता हूँ कि तीन बार स्कूटर से गिरा हूँ और अगर हेलमेट नहीं रहा होता तो आज बात नहीं कर रहा होता। जाहिर है कि दफ्तर के हिंदी पुत्रों से मिला तनाव ही था, जिसकी वजह से तीन बार जाने का दुर्योग बना। तब से आज तक तनाव अहर्निश। अब गाड़ी चलाता हूँ। कुछ बचे रहने के लिए। यह सब कहता नहीं, लेकिन इसलिए कह रहा हूँ कि यह न समझो कि लेखक हो तो पढ़ने-पढ़ाने की दुनिया में हिंदी के बुरे लोग हार लेकर स्वागत करेंगे। ऐसे ही बुरे लोग साहित्य की सत्ता को भी प्रिय होते हैं, ये बुरे लोग इसलिए साहित्य की सत्ता को प्रिय होते हैं कि इनकी जुबान पर कोई अप्रिय शब्द आ ही नहीं सकता है, ये किसी भी सत्ता को यह नहीं कह सकते कि सत्ता जी आपकी धोती या पाजामें में छेद है। कहना भी हुआ कभी तो कहेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! तो प्रियवर कहना यह कि यह कहने वाले कहीं भी रहेगे तो सुखपूर्वक रहेंगे जो कह सकेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! जो यह कहेंगे कि यह डिजाइन नहीं छेद है मान्यवर, उनके सिर हर जगह दीवारों से टकराते रहेंगे। मैं तो अक्सर लड़कियों को मना करता हूँ कि तुम कविता मत लिखो, लिखना है तो आलोचना लिखो। कविता और कहानी दोनों क्षेत्र आज लड़कियों के लिए बहुत असुरक्षित हैं। ऐसा इसलिए कि आज संपादक, आलोचक, प्रकाशक, सब संदेह के घेरे में हैं। बहरहाल यह दूसरी बात है इस पर फिर कभी। यहाँ सिर्फ इतना ही कि उच्चशिक्षा संस्थानों में हिंदी की दुनिया संदेह के घेरे में नहीं, बल्कि सीधे-सीधे अँधेरे में है। शेषफिर, लो ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़ो-

एक वीर ने उन्हें तब घूरा
जब वे सच की तरह कुछ बोल रहे थे ।

एक वीर ने उन्हें तब टोका
जब वे किसी की चमचम खाए जा रहे थे ।

एक वीर ने उन्हें तब फटकारा
जब वे किसी मोढ़े की परिक्रमा कर रहे थे ।

असल में
एक वीर ने दम कर रखा था
उनकी उस अक्षुण्ण नाक में
जिसे तख़्ते-ताउस की हर गंध
एक जैसी प्यारी थी ।

एक दिन वे एकजुट हुए
क्योंकि एकता का पुष्ट वैचारिक आधार उनके सामने था ।

पाठ्यक्रम समिति की उस बैठक में
लिया उन्होंने निर्णय
कि ‘सच्ची वीरता’ को
जीवन से निकाल दिया जाय ।

सच्ची वीरता’ = अध्यापक पूर्ण सिंह का महत्त्वपूर्ण निबंध ।

( दूसरे संग्रह ‘जल में’ से )

रविवार, 22 दिसंबर 2013

स्वतंत्रता क्या मनुष्य और पशु में भेद नहीं करती है ?

-गणेश पाण्डेय

        पिछले दिनों हुई एक खुदकुशी ने एफबी की दुनिया को भीतर से मथ दिया है। जिन्होंने इस दुनिया को सहसा छोड़कर जाने का फैसला किया, वे मेरे मित्र नहीं थे। मेरी मित्र सूची के कुछ मित्रों के मित्र थे। वे जो भी थे, अच्छे या बुरे, मैं उन्हें ठीक से जानता नहीं था, फिर भी उनकी खुदकुशी और उसके बाद लोगों की प्रतिक्रिया से दुखी था। कोई उन्हें निर्दोष बता रहा था तो कोई कह रहा था कि खुदकुशी दोषमुक्त होने की गारंटी नहीं। आज की दुनिया बहुत खुल गयी है, शायद इतनी कि जरा-जरा-सी बात पर भी विरोध का स्वर मुखर हो जाता है। यह अच्छी बात है। स्वागतयोग्य, पर इस खुलेपन की क्या हर बात स्वागतयोग्य है ?  
       पता नहीं क्यों, मुझे लगता है कि इधर कुछ खुलापन अधिक ही खुल गया है। लगता है कि अतिआधुनिकता का कोई नया क्षितिज यौन स्वाधीनता के रूप में हमारे समय में नये विचारसूर्य की तरह उदित हुआ है। जैसे कई हजार साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति में ऐसी कोई चीज कभी थी ही नहीं और यह पहली बार हो रहा है। हो सकता है कि सचमुच इसमें कुछ बहुत नया हो। मनुष्यों की यौन स्वतंत्रता और पशुओं की यौन स्वतंत्रता में क्या अच्छा और क्या बुरा है, यह मेरे अध्ययन का विषय कभी नहीं रहा है। कविता में भी मैंने कभी बिहारियों की कविता को पसंद नहीं किया है, आज के हिंदी के राजधानी के एकाधिक डॉनों में से एक कवि चाहे बिहारी के नाती ही क्यों न हों, उनकी कविता को भी स्त्रीदेह के शब्दानुवाद की वजह से पसंद नहीं करता। खैर, यह और बात है। यहाँ खुदकुशी वाले व्यक्ति के उभयपक्ष की सहमति वाले तर्क को फर्श पर रखकर देखना चाहता हूँ। आखिर पुरुष क्यों विवाहेतर संबंध के लिए अधिक व्यग्र रहता है ? इस रिश्ते के लिए हमारे यहाँ विवाह जैसी संस्था क्यों बनी ? आजकल, कभी-कभार लिव-इन रिलेशन जैसी बातें क्यों सामने आ रही हैं ? यदि यह कोई बहुत तार्किक, स्वास्थ्यवर्धक और उच्च मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाली चीज है तो इसे ही क्यों न विवाह की जगह अनिवार्य बनाने का कानून बना दिया जाय ? यदि बुद्धिजीवी बंधुओं को लगता है कि इससे समाज एक कदम और आगे जाएगा, तो उसे आगे क्यों नहीं ले जाना चाहिए ? क्या अपवाद को समाज की मुख्यधारा मान लेना चाहिए ?
       अगर पितृसत्तात्मक समाज को मातृसत्तात्मक बनाना जरूरी है तो उसे बनाने की दिशा में कानूनी पहल क्यों नहीं ? पिता का नाम अभिलेखों से हटाकर माँ का नाम क्यों न दर्ज किया जाय ? वह भी क्यों, पशुओं की तरह बच्चे पैदा करके दूध पीने की उम्र के बाद उन्हें छोड़कर चल देने की परंपरा क्यों नहीं शुरू की जाय ? स्वतंत्रता का यह संसार क्या कम आकर्षक होगा ? सौफीसदी स्वतंत्रता। यौन संबंध बनाइए और तुरत भूल जाइए कि कुछ हुआ है। जैसे चाट की दुकान से बाहर हो जाते हैं, जाइए मंच पर खड़े होकर आराम से भाषण दीजिए। विचार झाड़िए। अगर यौनक्रिया इतनी स्वतंत्र है, तो फिर भ्रष्टाचार करने या घूस लेने की स्वतंत्रता क्यों नहीं ? और यह स्वतंत्रता भी कोई मूल्य है या स्वभाव का अंग ? कोई कानून-वानून ? स्वतंत्रता क्या मनुष्य और पशु में भेद नहीं करती है ? आखिर पशुओं की दुनिया में कोई विचार या मूल्य का संसार है क्या ? पशुओं के संसार में सेक्स का संबंध संतानोत्पत्ति की भावना से जुड़ा है ? मनुष्यों को वस्त्र पहनने की परतंत्रता आखिर क्यों, नंग-धड़ंग रहने की स्वतंत्रता क्यों नहीं ? मनुष्य क्यों एक घर बनाए, बच्चों को पढ़ाए-लिखाये, शादी-ब्याह करे ? यह सब करने वाले बेवकूफ हैं ? इसी विधि से पढ़-लिखकर बुद्धिजीवी बनने वाले लोग, कोई और समाज बनाना चाहते हैं या स्वतंत्रता को, स्वतंत्रता के लिए प्राण देने वाले दीवानों से अधिक समझते हैं तो अपने लिए एक अलग दुनियाक्यों नहीं बना लेते ?
        बहरहाल, आज मीडिया ने ऐसे तमाम मुद्दों को सामने लाकर तमाम पीड़ित स्त्रियों को न्याय दिलाने के लिए उम्दा कोशिश भी की है। कई प्रभावशाली लोग कानून की पकड़ में आ सके तो मीडिया भी कहीं न कहीं श्रेय पाने की स्थिति में दिखती है। मीडिया का काम सिर्फ सच को जस का तस दिखा देना ही नहीं होना चाहिए और न एक पक्ष बन जाना चाहिए, बल्कि एक शिक्षक की तरह दण्ड और पुरस्कार की आँख से चीजों को देखते हुए बनते-बिगड़ते समाज को भी गौर से देखना चाहिए। देखना चाहिए कि समाज को क्या नुकसान पहुँचाने वाली बात है और क्या उसे फायदा पहुँचाने वाली बात है ? मेरे कहने का आशय यह नहीं कि दो जन विशेष परिस्थिति में जैसे विवाह संबंध टूट गया हो या अधिक उम्र के कारण एक साथी दुनिया से चला गया हो और बच्चे न हों तो अकेलेपन की स्थिति में या ऐसे ही कोई बड़ा कारण हो तो किसी हमउम्र को जीवनसाथी की तरह साथ रखने में बुराई नहीं दिखती है, लेकिन इस तरह की गतिविधि को विवाह जैसी संस्था के विकल्प के रूप में देखना या हर उम्र के लिए उचित बताना या महिमामंड़ित करना मुझे कुछ ठीक नहीं लगता।
        यह एफबी का संसार कई उम्र के लोगों का संसार है, कई समाजार्थिक और बौद्धिक स्तर के लोगों का संसार है, ऐसे लोगों का भी संसार है, जो अपने माता-पिता को कम और बाहर के विचार की दुनिया के आधुनिक या उत्तर आध्ुनिक माता-पिता को अधिक देखते हैं। कभी-कभी लगता है कि एकदम चुप रहना चाहिए। वैसे भी इस विषय पर कुछ कहना नहीं चाहता था, लेकिन किसी तरह कुछ कह गया।


मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

बुखार में अखबार

-गणेश पाण्डेय 
   
परसों रात से बुखार है, पढ़ना-पढ़ाना फिलहाल परसों तक बंद। उसके बाद चंगा हो जाने की उम्मीद है। कंप्यूटर भी छू नहीं रहा था, लेकिन कल बहुत दिनों बाद, बल्कि सच तो यह कि कई सालों बाद मेरा हॉकर आखिर जनसत्ता ले ही आया और कुछ कहने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। जनसत्ता की तारीफ में कुछ नहीं कहना है, मेरी तारीफ से न तो वह और अच्छा हो जाएगा और बुराई करने से न तो और खराब हो जाएगा। जनसत्ता के बहाने शुद्ध पूँजीसत्ता वाले ( खुल्लमखुल्ला व्यावसायिक ) अखबारों के बारे में कुछ कहना है। हालांकि जनसत्ता भी पूँजी से जुड़ा अखबार है। बात जनसत्ता से ही करूँगा कि एक लंबे समय के बाद उसे को देखकर आँखों को सुख मिला। कोई कह सकता है कि अखबार भी क्या ऐसे होते हैं कि जिन्हें देखकर आँखों को सुख मिले ? जरूर ओम थानवी से गणेश पाण्डेय के रिश्ते अच्छे होंगे, इसलिए जनसत्ता की तारीफ कर रहे हैं। मित्रो, ओम जी से मेरा  कोई  रिश्ता नहीं है। मैं जनसत्ता की तारीफ कतई नहीं कर रहा हूँ, मैं तो उन अखबारों की बुराई करना चाहता हूँ, जिन्हें देखते ही आँखों में मिर्ची लगती है। जैसे तोते को मिर्ची पसंद है, आज के पाठकों को भी आँखों में मिर्ची की तरह लगने वाले अखबार क्यों बेहद पसंद हैं ? कहीं सारे के सारे हिंदी अखबारों के पाठक तोता तो नहीं हो गये हैं ?
              मित्रो, जैसे मुहावरा है कि पेट के रास्ते दिल तक पहुँचा जाता है, उसी तरह आँखों के रास्ते भी दिमाग तक पहुँचा जाता है। कोई अखबार, समाचार, विचार और विमर्श का जो परिसर पाठक के लिए उपलब्ध कराता है या अपनी प्रस्तुति उस पर केंद्रित करता है, तो उसे देखकर अच्छा लगता है। वह कितने रंगों में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह कितना सलीके का है, इससे फर्क पड़ता है। दिनमान तो श्वेत-श्याम था, उसे उस समय के पाठक कितना महत्व देते थे ? राजनीति के बारे में तनिक भी जागरूक रहने वाले पाठक के लिए बेहद जरूरी पत्रिका थी, आज वैसी एक भी पत्रिका नहीं है। उस दौर के शोध-छात्रों और सिविल सेवा के प्रतियोगियों के लिए अनिवार्य पत्रिका थी, यह उसका अतिरिक्त गुण था। आज रंग तो हजार हैं, पर वह बात नहीं, जो उसमें थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग का महत्व भी बहुत अधिक था। अखबारों में भी तब के अखबार इस तरह नहीं हुए थे। इधर व्यावसायिकता ने विचार और संवेदना को अखबारों से दूर किया है। उत्तेजना तो मिल सकती है, संयम और विवेक संपादकों में सिरे से गायब है। जनसत्ता शुरू से ही एक खास तरह के पाठकों के बीच लोकप्रिय रहा है। जाहिर है कि ये पाठक, सामान्य पाठकों की तुलना में कुछ अधिक विचारसम्पन्न रहे हैं। तब अखबार हर कोई नहीं खरीदता था, आज मोबाइल की तरह चाय की गुमटी से लेकर हर कोई खरीद सकता हैं। जिसे देखो वही अखबार पढ़ता है, पर पढ़ता क्या है या पढ़ना क्या चाहता है ? मुहल्ले के नेताजी की फेटो देखना चाहता है या मुहल्ले के कविजी की या आलोचक जी की फोटो देखना चाहता है ? क्या वह जानता है कि जिसकी तारीफ आज के अखबार में पत्रकार ने छापी है, उसमें कोई नुक्स नहीं है ? क्या सचमुच उस व्यक्ति ने अपने क्षेत्र में ढ़ंग का कोई काम भी किया है या खबर लिखने और फोटो छापने वाले ने बेईमानी या बेवकूफी की है ? क्या अखबारों का पाठक कभी सोचता है कि जिनकी फोटो अक्सर पत्रकार छापता है या जिनके बारे में निरंतर खबरें छापता है , उनकी कोई कमी कभी क्यों नहीं छापता है ? अखबारों का प्रसार इधर खूब बढ़ा है, क्या इसलिए कि लोग बिना यह जाने अखबार पढ़ते हैं कि वे इस अखबार को क्यों पढ़ते हैं ?
              मैंने मिर्ची की तरह आँख में लगने वाले अखबारों की बात है। बताता हूँ कि क्या है जो आँखों को चुभता है ? आज के युवा पाठकों ने पहले के अखबारों को नहीं देखा है, पहले की पत्रिकाओं को नहीं देखा है, लेकिन वे आज जनसत्ता को कभी देखें तो क्या यह फर्क नहीं कर पायेंगे कि उनके शहर का अखबार सब कितना खराब छापता है ? शायद वे फर्क नहीं कर पायेंगे, उनके लिए मुश्किल होगा। हाँ, विचारसम्पन्न युवा पाठक जरूर फर्क कर सकते हैं। मेरे शहर के कई अखबार मेरी आँख में मिर्ची की तरह आँख में लगते हैं। ये अखबार ऐसे हैं जैसे कोई ऐसी दुकान हों जिसमें हवाई जहाज से लेकर सुई तक सब रखा हो या केंचुए से लेकर डायनासोर तक सब रखा हो या सब बौने ही बौने लोग हों या सब अगड़मबाइस हो। जैसे ये अखबार न हों, किराने की दुकान का पर्चा हों। चाहें तो ये सब मेरी इस बात से नाराज होकर मेरा नाम तक अपने अखबार में .....क्षमा करें, बस दो मिनट, श्रीमती जी का आदेश है कि कल से कुछ खाया नहीं है तो पहले जरा-सा गरमागरम खिचड़ी हो जाए....हाँ तो मैं कह रहा था कि चाहे कोई मेरा नाम अपने अखबार में न छापे, पर क्या इस डर से यह कहना बंद कर दूँगा कि तुम्हारा अखबार बुखार की खिचड़ी नहीं है जो फायदा करे। यह तो पाठक की रुचियों को ही नहीं, उनके विचार और विवेक तंत्र को ध्वस्त करने की चीज है। हाँ- हाँ, अफीम भी कह सकते हैं, स्थानीयता का अफीम। हाँ, वही मुहल्लेपन का अफीम। आँचलिकता बुरी चीज नहीं है, पर प्रतिमान वही बनेंगे जो आपके अँचल का श्रेष्ठ होगा, आपका अखबार उसे ही बड़ा या श्रेष्ठ बताए जो सचमुच अपने लेखन या कार्यों से बड़ा या श्रेष्ठ हो, आप हरगिज-हरगिज गधे को घोड़ा या चूहे को शेर की तरह नहीं छाप सकते, आप ऐसा करते हैं तो आप भी उतने ही बेईमान हैं, जितने राजनीति के लोग। जिन अखबारों को देखता हूँ, सब बस दो मिनट में देखकर फेंक दिये जाते हैं। बस अपने दफ्तर से जुड़ी खबरें और कुछ जरूरी सूचनाएँ। क्या एक अखबार का परिसर सिर्फ यही है ? इधर कई राष्ट्रीय अखबारों ने अपने चरित्र को क्षेत्रीय बना लिया है। अंचल विशेष की छोटी से छोटी चीजों को प्रमुखता से छापना। न छापने लायक चीजों को भी प्रमुखता से छापना।
          जिस अखबार के संपादक में इतना विवेक न हो कि वह प्रति सप्ताह संपादकीय पेज पर अपनी फोटो पैंट की मियानी तक का छापता हो, ऐसे संपादक से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। ऐसे संपादकों के स्थानीय संपादक कैसे-कैसे होंगे ? ऐसे ही संपादकों का समय है यह। ऐसे संपादक क्या छापेंगे ? सच तो यह कि इन्हीं वजहों से अब अखबार का एक-एक अक्षर चाटने वाले पाठक नहीं मिलेंगे, वे पढ़ें या संपादक जी की फोटो पैंट की मियानी तक फोटो देखें। आज की तारीख में अखबार में छपी रंगीन फोटो चाटने वाले लोग मिलेंगे। जब अखबारों में साहित्य और विचार का ढ़ंग का परिसर नहीं है, तो पढ़े ंतो क्या ? खबरें भी पहले चैनल पहुँचा देते हैं, उनका भी कोई खास आकर्षण नहीं। आखिर क्या बात है कि देरे से आने पर भी जनसत्ता आज अच्छा लगा ? इसका अर्थ यह नहीं कि आज का जनसत्ता अच्छा है या बहुत अच्छा है, मैं ऐसा कुछ भी नहीं कहूँगा, मैं बस इतना कह सकता हूँ कि रेड़ का पेड़ है। जहाँ कोई पेड़ नहीं होता है, वहाँ रेड़ का पेड़ ही बड़ा होता है। जनसत्ता में साहित्य जब मंगलेश जी देखते थे, तब भी उसकी सीमा थी। सब अच्छी कविताएँ नहीं होती थीं। आज भी जनसत्ता में काफी विमर्श ऐसा है, जो नखदंत विहीन होता है अर्थात जिनमें कोई जोखिम नहीं होता। राजनीति का सच फटकार कर कहना जैसे अखबार की नैतिकता है, उसी तरह अपने समय के साहित्य का सच कहना भी अखबार की नैतिकता है। संसद में जाने वाले दागी लोगों की ही नहीं, साहित्य और कला की अकादमियों की भी आलोचना करना एक अच्छे अखबार के लिए उतना ही जरूरी है। वह अखबार जो अपने साहित्य के परिसर के लिए जाना जाता हो, उसके लिए तो और भी जरूरी है। कहना और भी है, पर बुखार में अधिक बड़बड़ाना ठीक नहीं। अंत में यह कि मेरा बुखार तो दो दिन में ठीक हो जाएगा, पर हिन्दी के इन अखबारों और पाठकों का बुखार कब जाएगा ?














   


बुधवार, 27 नवंबर 2013

माँ नाम की किताब कभी पीछा नहीं छोड़ती...

-गणेश पाण्डेय

मित्रो, यह समय यों तो अपने आप में ही विचार और जीवन के विलक्षण द्वैत की वजह से , विचार से विश्वास के उठने का है, जिसके लिए कोई अन्य कारण ढ़ूँढने की जरूरत नहीं है, फिर भी कुछ और बातें हैं, जहाँ ध्यान आप से आप जाता है। कई बार देखने में आता है कि कट्टर मार्क्सवादी, एक समय के बाद मठ और मंदिर की शरण में चले जाते हैं। अचानक उन्हें दक्षिणपंथी संगठनों से प्रेम हो जाता है।
          बायें बाजू से प्रेम करने वाले प्रोफेसर लोग तक , पगहा तुड़ाकर दायीं ओर हरे चने के खेत में निकल जाते हैं। कई दृढ़ प्रगतिशील अपने बच्चों के शादी-ब्याह में पियरी धोती पहन कर वह सब करते हैं जो गैर मार्क्सवादी करते हैं। बड़े-बड़े वैज्ञानिक अपने मिशन की सफलता के लिए बाकायदा अनुष्ठान करते हैं। पूजा और विज्ञान के परिसर में ? बहुत से लोग रक्षा-सूत्र पहनते हैं। बहुत सारी बातें हैं। यह सब तो फिर भी कुछ कम है। बहुत से लोग गरीब होकर चोरी करते हैं, बहुत से लोग अमीर होकर चोरी करते हैं, क्या मार्क्सवादी और क्या गैर मार्क्सवादी ? बहुत से लोग दूसरे की सम्पत्ति, हिस्सा, कुर्सी, यश, पुरस्कार इत्यादि लूट लेते हैं। जहाँ अच्छे को बैठना चाहिए वहाँ बुरा बैठ जाता है। तमाम लोग विचार के आधार पर संगठन बनाते हैं और विचार से दगा करने वाले लोगों को उसमें शामिल कर लेते हैं। आयोजनों में कविता पाठ या कहानी पाठ कराते हैं।
      जल, थल और वायु सेना की तरह लेखकों की तीन-तीन सेनाओं जैसे तीन लेखक संगठनों के रहते हुए साहित्य की अकादमियों में दक्षिणपंथी कैसे पदारूढ़ हुए, कैसे सब अपने हाथ में ले लिया ? क्या कर रहे थे ये सब ? साहित्य का भाड़ झोंक रहे थे या साहित्य के दरबारों में चंपी कर रहे थे ? क्या इन नासमझों के एक बूँद पानी में या बिना पानी के ही डूब मरने के लिए काफी नहीं है ? कहने का आशय यह कि पतित कोई भी हो सकता है, बुरा होने से रोकना किसी किताब के हाथ में नहीं है। दुनिया भर में ‘पूँजी’ ही नहीं, महान धर्मों से जुड़ी बड़ी पूज्य किताबें भी हैं, पर क्या दुनिया से बुराई खत्म हो गयी ?
         एक दिन एक युवा लेखक ने मार्क्स का हवाला देते हुए कहा कि मार्क्स ने एक मजेदार बात कही थी-एक व्यक्ति के तौर पर कोई सर्वहारा उतना ही पतित हो सकता है, जितना कोई अन्य व्यक्ति और कोई पूंजीपति भी एक भला मनुष्य। सर्वहारा पतित से पतित हो सकता है, पर हम उसके साथ हैं तो इसलिए कि वह मुक्तिकामी। आज हमारे समय का बड़ा सवाल तो उन लोगों से जुड़ा है जो लोग इन आम लोगों को रास्ता दिखाने का धंधा करते हैं। जहाँ तक मैं समझ पाता हूँ, जनता के भ्रष्ट होने से समाज और व्यवस्था भ्रष्ट नहीं होती है, राजा या नायक के भ्रष्ट होने से समाज या व्यवस्था भ्रष्ट होती है। बिना राजा या नायक के बदले कोई बड़ा और सार्थक बदलाव मुश्किल है। जिस देश की राजनीति के समकालीन चरित्र और आदर्श भ्रष्ट होंगे या जिस समय के बदलाव के नायक और गायक भ्रष्ट होंगे, वहाँ जनता भी क्या भला कर सकती है ? आज ग्रामसभा के प्रधान से लेकर राजधानी के प्रधान तक सब सरकार हैं, सब नायक हैं, सब राजा हैं। जो सरकार में नहीं है या सरकार में जाने की उममीद में नहीं है, सब जनता है। यह जनता भ्रष्ट नहीं है। मैं कहता हूँ कि यह जनता भ्रष्ट नहीं है, बड़े कष्ट में है। बहुत छली गयी है। बहुत मार खायी है। इसे अपनों ने बहुत ठगा है। यह बैलगाड़ी पर बैठ कर चाहे मोटी पर सवार होकर ठगे जाने के लिए गीत गाते हुए आती-जाती है। इस जनता की लाख कमी सिर्फ यह है कि यह उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ती। अपने दुश्मन से भी अच्छे की उम्मीद करती है। जैसे हिंदी के पाठक हिंदी के गंदे से गंदे लेखक से भी उम्मीद नहीं छोड़ते। विचार, सिद्धांत, आदर्श कब कहाँ दगा देने लगें, कोई नहीं जानता। विचार, सिद्धांत, आदर्श भी नहीं जानते कि वे कब ऐसा करने लगेंगे या कौन उनसे यह गंदा काम कराने लगेगा, कौन नायक, कौन लेखक, कौन गुरु, कौन शिक्षक, कौन पत्रकार ? कई बार व्यक्तिगत जीवन में छले जाने के बाद साधारण जन तो धर्म या प्रभु की शरण में जाते ही हैं, कई प्रगतिशील जन भी छले जाने के बाद या अकेलेपन की वजह से किसी शक्ति की खोज में निकल पड़ते हैं। सच तो यह कि जनता प्रायः प्रभुओं के नाम पर छली जाती रही है। हजारों किस्से हैं। चैनल सब दिखाते हैं। सबकुछ। इसके बाद भी मनुष्य जाये तो कहाँ जाये ? आज की तारीख में जनता के कम और विशिष्टजनों तथा समाज और देश के नायकों के पतन के किस्से से यह संसार ज्यादा अटा पड़ा है। मनुष्य के सामने भव सागर को पार करने की नहीं, निराशा के इस महासागर को पार करने की समस्या है।
        दरअसल यह सब कहीं न कहीं मनुष्य के स्वभाव और चरित्र से जुड़ी बातें हैं। कई बार कोई घटना आपके जीवन में किताब से भी ज्यादा प्रभाव डालती है। आपका बचपन आपके भविष्य की किताब को लिखता है। बचपन में जो संस्कार माँ के दूध की घुट्टी के साथ भीतर जाते हैं ,कभी बाहर नहीं होते, जीवन भर साथ रहते हैं। कभी मुखर होकर तो कभी छिपकर। ऐसे उदाहरण भी हैं, जिसमें एक किशोर बहुत पहले अर्थात अपनी तरुणाई में राहुल सांकृत्यायन की दर्शन-दिग्दर्शन पढ़कर जीवन और जगत को बिल्कुल नये नजरिये से देखता है, पर जब आगे जीवन में मुश्किलें आती हैं, कोई मददगार नहीं होता है, न विचार, न लोग, तो फिर से वह अपने बचपन के संस्कारों के अरण्य में चला जाता है। भारतीय माँ नाम की किताब अपने बच्चों को शुरू से ही प्रभु के पाठ पढ़ाती है। प्रभु होते ही इसलिए हैं कि रोज रक्षा करें, रोज मुश्किलों से बचाएँ। कोई संकट और कोई विफलता न आने दें। भारतीय माँ के प्रभु कोई आइसक्रीम खिलाने के लिए थोड़े होते हैं। मैं यहाँ की बात कर रहा हूँ, कहीं और की नहीं। माँ की किताब जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती, आप उसे पलटकर देखें या नहीं, पर वह किताब आपके पीछे लगी रहती है। शायद इसीलिए कई लोग वैज्ञानिक सोच और विश्वास विकसित कर लेने के बाद भी, ‘‘व्यक्तिगत जीवन में’’ छोटे या बड़े संकट के आने पर वापस माँ की किताब के पास लौट जाते हैं। यह लोग शायद बुरे लोग नहीं होते है। क्या करें आखिर जब विचारधारा का पहाड़ सिर पर लेकर घूमने वाले लोग ही इनकी पीठ में छुरा भोकने लगें, दगा करने लगें ? ऐसे लोगों को लगता है कि प्रभु कुछ करें या न करें, कम से कम विचारधारिए प्रभुओं की तरह उनके साथ दगा तो नहीं करेंगे, पीठ में छुरा तो नहीं भोंकेंगे।

         विचार की किताब जीवन के अरण्य में अब तक हमें बचाने में किसी हद तक विफल दिखती है, लेकिन इसका आशय यह नहीं कि नुक्स विचार की किताब में है, शायद विचार की किताब पढ़ाने वालों में ही नुक्स हैं। माँ की किताब को पढ़ाने वाले की जरूरत नहीं, उसे तो बच्चा अपनी बचपन की आँख से ही बहुत अच्छे से पढ़ लेता है।






रविवार, 24 नवंबर 2013

मैं कहता हूँ, खोट आदमी नाम के कीड़े में है...

    मनुष्य जीवन कोई सरल सीधी इकहरी रेखा नहीं है। विचार का संघर्ष और जीवन का संघर्ष एक-दूसरे से जितना नाभिनालबद्ध है, उतना ही एक-दूसरे से पृथक। कहीं का व्यक्ति, समूह, समाज पूरा का पूरा स्वार्थ केंद्रित दिख सकता है। अपने स्वार्थ के लिए विरोध करने वाले को अपमानित कर सकता है, उसके संग कई तरह की क्रूरता कर सकता है। व्यक्तिगत जीवन में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए कई बार महान विचारधारा भी मदद नहीं करती। महान विचारधारा के ध्वजवाहक प्रतिरोध में खड़े व्यक्ति के साथ दगा कर सकते हैं, उसे अकेला छोड़ सकते हैं निरंकुश सत्ता के सामने। व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष और विचार को पीठ दिखाने वाले जन विचारधारा के शामियाने के नीचे क्यों जगह पाते हैं ?

      जंगल में या पिछड़े इलाकों में रहने वाले नागरिकों के लिए की जा रही न्याय और समानता की जो लड़ाई ईमान के साथ दिखती है, वैसी लड़ाई समाज और संस्थाओं में क्यों नहीं होनी चाहिए ? न्याय और समानता जैसे मूल्य सुविधासापेक्ष हैं ?  क्यों व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष से बचना प्रगतिशीलता है ? क्यों संस्थाओं में चुप रहना या बगलें झाँकना बुद्धिवादी होना है ? विचारशील होना है ? जब सत्ता के अन्याय में महान विचारधाराओं वाले बुद्धिजीवी सहायक हों तो विरोधी विचारधारा के लोगों का सहयोग लेना क्यों बुरा है ? यदि उदाहरण देकर कहूँ तो यदि किसी फासिस्ट कहे जाने वाले संगठन के लोग किसी स्थानीय सत्ता के केंद्र हों या उससे प्रमुख रूप से जुड़े हों और महान क्रांतिकारी विचारधारा के लोग भी उनके साथ हों तो प्रतिरोध में अकेले खड़े व्यक्ति को क्या करना चाहिए ?
1-प्रतिरोध की बात भूल जाना चाहिए ?
2-सत्ता और उसकी चौकड़ी के समक्ष समर्पण कर देना चाहिए ?
3-न्याय के लिए किसी भी विचारधारा चाहे फासिस्ट ही क्यों न हो, उससे जुड़े व्यक्ति या सत्ता केंद्र की मदद लेनी चाहिए ?
4-किसी शहर या संस्था में बस्तर के लिए सात आँसू रोने वाले विचारधारा से जुड़े कथित लेखक या पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता लोग स्थानीय संघर्ष से आँख मूँद लें तो क्या करना चाहिए ?
5-अपने अंचल के बच्चों और युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करने वाली संस्थाओं और सत्ता केंद्रों से टकराना चाहिए या नहीं ?
6-सब भूल-भाल कर सत्ता की खुशामद में लग जाना चाहिए और अपने जीवन को ‘‘सुखमय’’ बनाने का उपाय करना चाहिए ?
7-जरूरी सवाल यह कि कोई विचारधारा महान और बहुत अच्छी है तो सबसे पहले अपने अनुयायिओं को अच्छा क्यों नहीं बनाती है ?  विचार अच्छे हों और जीवन बुरा, यह तो ठीक नहीं ? 

       यह सब कहने का आशय यह कि मित्रो, संकट बड़ा और पेचीदा है। राजनीति में सभी दल दूसरे को बुरे से बुरा बताने में अपनी ऊर्जा राष्ट्र की महान सेवा के नाम पर खर्च करते हैं। एकबार जो आ गया, उसे हटाओ मत, वही अच्छा है या दूसरे को लाओ, वह अच्छा है, नहीं वह भी खराब है, तीसरे को लाओ....लाख टके का सवाल यह कि विकल्प जब सब खराब हों तो हम करें क्या ? कहाँ जायें ? अँधेरा बहुत है। हम अभी उतने अँधेरे में ही हैं। यह उजाला जो दिख रहा है, साँप की काली त्वचा की तरह चमकीला है और हम इस उजाले को सचमुच का उजाला समझ बैठे हैं। मैं कहता हूँ, खोट आदमी नाम के कीड़े में है, पहले उसे बदलो... पिछले दिनों अखबार में जहाँ महात्मा गांधी की फोटो छपी थी उस जगह समाज, समता, न्याय, प्रतिपक्ष, मूल्य इत्यदि से दगा करने वाले ऐसे गंदों की फोटो मत छापो, न मंच पर ऐसे गंदे लोगों को माला पहनाओ... संसद ही नहीं, साहित्य की संसद में भी दागी हैं, ऐसे गंदों को सम्मान मत दो...विचारधारा को पहले ईमान से जोड़ो, नही तो आदमी तो बाद में मरेगा, विचारधारा पहले मर जाएगी।



गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

शेरशाह सूरी से एक दिलचस्प मुलाकात

- गणेश पाण्डेय

यहाँ गोरखपुर में पहलीबार लगने वाले एक राष्ट्रीय पुस्तक मेले में सुधाकर अदीब कें उपन्यास के लोकार्पण कार्यक्रम में जाना हुआ। दिल्ली के पुस्तक मेलों में से एक भी आज तक नहीं देख पाया हूँ, पर पुस्तक मेलों के बारे में अनुभव करता हूँ कि ये साहित्य और पाठक के बीच आधुनिक पुल हैं। जैसे कभी कविता को दरबार से बाहर निकाल कर जनोन्मुख करने के लिए कविसम्मेलनों की जरूरत तीव्रता से महसूस की गयी थी, आज साहित्य को विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम और पुस्तकालयों से बाहर जनता अर्थात पाठकवर्ग के बीच ले जाने में ये पुस्तक मेले बड़ा काम कर सकते हैं। पुस्तक मेले अधिक से अधिक लगें। किताबें सस्ती हों और पाठक फिर से पहले की तरह किताबों से जुड़ें। किताबें आज भी छप रही हैं और ज्यादा छप रही हैं, पर सवाल यह कि पढ़ी कितनी जा रही हैं। कभी एक किताब को कई सौ पाठक पढ़ते थे, अब शायद कई सौ पाठकों में एक किताब पढ़ी जाती है। पाठक उसे कह रहा हूँ जो शुद्ध पाठक हैं, कवि-कथाकार आदि नहीं। आज इन्हीं मेलों के बीच कुछ शुद्ध पाठक भी आ रहे हैं, यह अच्छी बात है।
    पुस्तक मेले में लोकार्पण अब एक रिवाज है। लेखक मित्रों के उत्साह में साथ देना जरूरी होता है, लेकिन जब शामिल हों और एक अच्छी किताब आपके हाथ लग जाये तो फिर क्या पूछना। मैं सुधाकर अदीब से सिर्फ एक बार मिला हूँ। संस्थान के कबीर पर केंद्रित एक कार्यक्रम में। पहले उनका कुछ भी नहीं पढ़ा था। जानता था कि उपन्यासकार हैं। कोई उपन्यास नहीं देखा था। उपन्यास तो दो मेरे पास भी है, लेकिन उपन्यासों का आकार डर पैदा करता है। मेरे एक शिक्षक उपन्यास को राँड़ का रोना कहते रहे हैं। वे कवि हैं, कह सकते हैं। मैं ऐसा कुछ तो नहीं कहता, लेकिन इधर के कई चर्चित उपन्यासों के शुरू के बीस-बीस पेज पढ़ कर इतना अधिक डर गया कि पूछिए मत। एक नोएडा की कथाकार और एक कोलकाता की कथाकार। असल में उपन्यास की पहली शर्त ही है पठनीयता, हालाँकि यह साहित्य मात्र की शर्त है। कविता हो या कथा, पठनीयता प्रधान गुण है। कवितापना या कथारस के बिना इन विधाओं की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, पर कई संपादक और आलोचक ठस कथाभाषा वाले उपन्यासों को भी सिर पर उठा लेते हैं, यदि लिखने वाला या लिखने वाली किसी भी प्रकार का लाभ पहुँचाने की स्थिति में हो। बहरहाल ऐसे उपन्यास बेईमानी से चर्चा और पुरस्कार पा सकते हैं, पर पाठकों का प्यार नहीं।
       पाठकों का प्यार पाने के लिए उपन्यास की भाषा मे मिठास और कोमलता ही नहीं, कल्पना और खासतौर से शक्ति जरूरी है। भाषा कृति का मुखड़ा है। भाषा ही हमें खींचकर भीतर ले जाती है और प्रस्तुति का आकर्षण हमें बाँधे रहता है। सुधाकर अदीब को भी ‘शाने-तारीख’ नहीं पढ़ता तो आज की तारीख में लखनऊ का शानदार कथाकार नहीं कहता। लखनऊ को कथा साहित्य के एक केंद्र के रूप में जानते हैं। लखनऊ चाहे अब उतनी बड़ी प्रतिभाओं का शहर न हो, पर कथा में काम करने वाले कुछ अच्छे लोग वहाँ हैं, सुधाकर उनमें एक और विशिष्ट हैं। इसलिए नहीं कि मुझे याद किया है, न भी याद करते तो उनका यह  उपन्यास काफी है उन्हें बेहतर कहने के लिए। यह शहर ऐसा है, जहाँ दृश्य पर जिन्हें पीछे रहना चाहिए वे सम्मान पाते हैं, जिनके पास न तो अच्छा काम है और न साहित्य का ईमान, जो हिंदी के बेटे और सगे होते हैं और उसके लिए नित जोखिम मोल लेते हैं वे अपमान पाते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि सम्मान का भूखा हूँ, बल्कि इसलिए कह रहा हूँ कि इससे हिंदी का अपमान होता है। अक्सर यहाँ मचों पर हिंदी का चीरहरण होता है। मैं कहीं जाता भी नहीं यहाँ के कार्यक्रमों में। बहरहाल गया। मंच पर सब ठीक दिखा। सुधाकर अदीब जी की किताब में बारे में  कुछ टूटा-फूटा कहा भी। कही हुई बातें जो याद आयीं, साझा कर रहा हूँ।
              आज का समय हिंदी की दुनिया में खासतौर से कथासाहित्य में महत्वपूर्ण रचनाओं के रूप में जितना जाना जाता है, उससे कहीं ज्यादा विमर्श के रूप में जाना जाता है। आशय कि विमर्श ज्यादा, अच्छी रचना कम। उपन्यास का हाल ऐसा ही है। स्त्री और दलित विमर्श के इस स्वघोषितयुग में बल सिर्फ विचार पर है, रचना पर नहीं। कथा साहित्य के अधार पर कहना हो तो इसे कथा साहित्य का विचारकाल  कह सकते हैं, रचनाकाल नहीं। यह समय एक अच्छे उपन्यास के लिए तरसने वाला काल है। हालाँकि इस बात से काफी लोग असहमत हो सकते हैं। हुआ करें। 
    ऐतिहासिक चरित्र पर लिखा गया अदीब का उपन्यास ‘शाने तारीख’, जिसे लोकभारती ने छापा है, सबसे पहले अच्छा इसलिए लगा कि लेखक ने अपने समय के कथाफैशन से बाहर निकलने का जोखिम उठाया है। हालाँकि कई लेखक ऐसा कर रहे हैं। कुछ तो अलग तरह का काम ही करते हैं। हाँ, दिगज्जों की तुलना में अपेक्षाकृत बाद के लेखक के लिए अपने समय के प्रचलित रास्ते से अलग होना गौरतलब है। इतिहास पर लिखना खासा मुश्किल होता है। एक तो उसे रचना बनाएँ, दूसरे इतिहास को बचाये रखें। इतिहास में वर्णन मुख्य होता है, उपन्यास में चित्रण। उपन्यास में कल्पना और भाषा की विशिष्ट शक्तियों का इस्तेमाल होता है, इतिहास में इतिवृत्त और भाषा का औसत। उपन्यास में कथाक्रम और पूर्वदीप्ति तथा अन्य तकनीक रचना को इतिहास की तरह स्थिर चित्र के रूप में एक रेखीय और सपाट नहीं, उसे बहुत गतिशील और जीवंत बनाता है। इससे बड़ी बात यह कि चरित्र किसी योद्धा या राजा-बादशाह को हो तो फिर बहुत सारे प्रसंग और खासतौर से युद्ध के वर्णन की भारमार होगी ही। जहाँ तक युद्ध की जीवंतता और उत्कृष्ट चित्रण का प्रश्न है, राम की शक्तिपूजा का पहला खण्ड गजब का है। कविता का रूप जाहिर है कि कथा का रूप नहीं हो सकता है। कथा में ब्योरे कथारस को और बढ़ाते जाते हैं। इस उपन्यास में भी अनगिनत युद्धप्रसंग हैं। कहीं भी ऊब नहीं होती। लगता है कि जैसे पाठक इन युद्धों में हाथी या घोड़े पर खुद सवार है। असल में यह सब जिस मजबूत धागे से बुना जाता है, उसका नाम शेरशाह सूरी है। कभी फरीद के रूप में बालक और किशोर तो कभी शेर खाँ के रूप में युवा अफगान और कभी हिंद के बादशाह के रूपप में शेरशाह सूरी। लेखक ने चरित्र के चयन में जिस समझदारी का परिचय दिया है, वह महत्वपूर्ण है। अदीब ने एक ऐसे बादशाह को चुना जो अपनी राह खुद बनाता है। शाहराह तो बनाता ही है, उससे पहले अपने जीवन का पथ खुद बनाता है। पिता और विमाता और सौतेले भाइयों की वजह से घर से बाहर होना पड़ता है। तालीम हासिल करके और उस्ताद की सीख से कमजोर और साधारण जन के प्रति लगाव और समाज के प्रति रचनात्मक नजरिया लेकर वापस लौटता है। फिर संघर्ष और संघर्ष। एक ऐसे समाज में जहाँ परगने की जागीरदारी से सुल्तान बनने का ख्वाब और सुल्तान से बादशाह बनने की चाहत काम करती हो, वहाँ ऊँचाई तक पहुँचने के लिए होशियारी ही नहीं अक्लमंदी और इंसानियत की भी बड़ी जरूरत होती है। इंसाफ ही वह रास्ता है जो किसी शासक को लोकप्रिय और टिकाऊ बनाता है। कड़े से कड़े फैसले और आवश्यक भूप्रबंधन और राजस्व की दूसरी स्थियों का भान किसी जागीरदार को , राजा का,े बादशाह को जनप्रिय बनाते हैं। दृढ़ता और संवेदनशीलता का मणिकांचन मेल कैसे शेरशाह को कामयाब बनाता है, इसे इस उपन्यास में देख सकते हैं।
       बहुत सारे चरित्र हैं, पर सबको बाँध रखने वाला चरित्र तो नायक ही है। यह अलग बात है कि सितार के तार की तरह सब मिल कर बजते हैं और एक ऐसे बादशाह का चेहर हमारे सामने रखते हैं, जिसकी प्राथमिकता में विलास नहीं, विकास है। जनकल्याण और राज्य का सुशासन है। शेरशाह का इकबाल ऐसा कि एक कमर झुकी बुढ़िया भी अपने सिर पर जेवरों की टोकरी लेकर बेखौफ सफर कर सकती थी।  बहुत सारे विवरण और घटनाएँ हैं, जिसमें शेरशाह पलप्रतिपल अपनी बहादुरी और बुद्धिमत्ता से पाठक के दिल को जीतता रहता है। बादशाह का बेटा होता तो शायद ऐसा न होता। इसलिए ऐसे चरित्र में कुछ खास होता ही है। इसमें भी खास है। ऐसे चरित्र सिर्फ किस्से कहानियों या इतिहास के लिए नहीं होते, होते हैं प्रेरणा पाने के लिए, शक्ति पाने के लिए, पाठक को अपने जीवन की गति को तेज करने के लिए और खुद अपने जीवन की लड़ाई को जीतने का मंत्र पाने के लिए। तीन सौ से ज्यादा पन्नों में फैली कथा जीवन के एक लंबे युद्ध का सजीव चित्रण है। इस उपन्यास को इतिहास के एक मार्मिक आख्यान के रूप में देखने का मजा ही कुछ और है। इतिहास तो है ही कि कैसे ग्रैण्ड ट्रंक रोड का निर्माण होता है या दूसरे विकास कार्य होते है या कैसे सोने चाँदी और तांबे के सिक्के ढ़लते है या रुपया पहली बार चाँदी के रुपये की शक्ल में आता है या हिन्दुओं के लिए कोमल भाव, सहिष्णुता, धर्म निरपेक्षता जैसी चीज एक पाँच वक्त नमाज पढ़ने वाले धार्मिक किस्म के बादशाह की सोच में कैसे दिखती है। इन सबसे बड़ी बात शेरशाह सूरी से दिलचस्प मुलाकात न होती, अगर सुधाकर अदीब ने आज के कथाफैशन से अपने को मुक्त न किया होता। लेखक की मुक्ति ही उसकी रचना की शक्ति होती है। लेखक तब तक अच्छा नहीं लिख सकता, जब तक उसके दिमाग में आलोचक और संपादक बैठा होगा, जैसे ही लेखक पाठक को अपने सामने देखना शुरू करेगा, उसकी रचना कुछ का कुछ और हो जायेगी। सुधाकर ने यह काम किया है। पाठक को बाँधने की पूरी कोशिश अपनी प्रस्तुति में और कथाभाषा में की है। शुरू में ही जिस अंदाज में पाठक के दरवाजे पर साँकल बजाते हैं, पता चल जाता है कि कोई है, इसे देखो और इससे मिलो। सुधाकर अदीब बधाई के पात्र हैं। 


मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

किसका है यह पेंसिलबॉक्स

-गणेश पाण्डेय

जिस किसी का हो
आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स
जो मुझे अभी-अभी मिला है
पागल पहिये और पैरों केबीच।
जिस पर कुछ फूल बने हैं
कुछ तितलियाँ हैं उड़ती-सी
और कम उम्र उँगलियों की ताजा छाप है
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
जिसके भीतर साबुत है आधी पेंसिल
और व्यग्र है उसकी नोंक
किसी मानचित्र के लिए
एक दूसरी पेंसिल है जो उससे छोटी है
बची हुई है उसमें अभी थोड़ी-सी जान
और किसी का नाम लिखने की इच्छा
मिटने से बचा हुआ है एक चौथाई रबर
काफी कुछ मिटा देने की उम्मीद में
किसी तानाशाह का चेहरा
किसी पैसे वाले की तोंद।
किसका है यह
किस दुलारे का किस अभागे का
किस रानी का किस कानी का
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।

(‘जल में’ से)





शनिवार, 14 सितंबर 2013

हिंदी का भविष्य

-गणेश पाण्डेय

      हिंदी कभी देश की बेटी रही होगी। इस देश का उजास रही होगी कभी। अपने हृदय प्रदेश के ललाट पर सूरज के गोले की तरह दमकती हुई बिंदी रही होगी कभी। हमारी नसों में हमारे रक्त को दौड़ाती हुई बिजली रही होगी कभी। देश की स्वाधीनता का परचम रही होगी कभी। हाँ, लो, कहता हूँ, झाँसी की रानी भी रही होगी कभी हिंदी। सच तो यह कि हिंदी विचार और संवेदना के वाहक के रूप में शुरू से ही सामाजिक सरोकारों और लोक की अभिव्यक्ति में अपने जीवन की खोज करती रही है। अपने को अर्थ देती रही है। आघ्यात्मिक मुक्ति के साथ सामाजिक मुक्ति को भी जोड़ती रही है। सामाजिक मुक्ति की खोज में राजनीतिक मुक्ति को भी स्वर देती रही है। साहित्य के छोटेमोटे कार्यकर्ता के रूप में ही सही, खुद मैंने इस हिंदी विरोधी समय में साहित्यिक मुक्ति का स्वप्न अपने लेख ‘साहित्यिक मुक्ति का प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो’ में देखने की हिमाकत की है। इस पर यहाँ कुछ नहीं। यहाँ बात हिंदी के बारे में, तब और अब के बीच उभरते तनिक कुछ और जटिल प्रश्नों के बारे में। आज हिंदी का परिदृश्य वह नहीं है जो हिंदी के स्वर्णकाल में था। हिंदी का वह स्वर्णकाल समाज या राजनीति की किसी सत्ता ने नहीं रचा था। उसे बनाया था सीधे-सादे लोगों ने। जनता ने। जनता के भरोसे उस कारनामे को अंजाम दिया था, उस दौर के हिंदी के लेखकों और सेवियों ने। कवियों और कविता प्रेमियों ने हिंदी को उस समय जिस आसन पर बैठाया था, वह अब धराशायी हो चुका है। प्रगतिशील कह भर देने से कोई भाषा आगे नहीं बढ़ती। किसी भाषा को आगे बढ़ने के लिए एक जीवन जीना होता है। जीवन के लिए संघर्ष करना होता है। जनजीवन का प्रतिनिधि बनाना होता है। हिंदी या कोई भी भाषा पुरस्कारो से दीर्घजीवी नहीं है, हाँ पुरस्कारों और भाषा तथा साहित्य की राजनीति से मृत्युमुख जरूर हो जाती है। कहने के लिए हिंदी वही है, पर वह हिंदी नहीं है। वह हिंदी जो उम्मीद की हिंदी थी। वह हिंदी जो इस मातृभूमि की तरह हमारी मातृभाषा थी। वह हिंदी जो हमारी माँ थी। हिंदी तो आज भी है, पर किस हाल में है, यह जानने से पहले रधुवीर सहाय के समय की हिंदी को उनकी कविता ‘ हमारी हिंदी’ में देखें-

हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली

गहने गढ़ातंे जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ

वह मुटाती जाए 
पसीने से गंधाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए

      रधुवीर सहाय ने हिंदी का जो चित्र खींचा है, वह डराता है। ऐसी हिंदी जिसे देखकर और खासतौर से जिसके बारे में सोचकर डर लगे। रधुवीर सहाय पत्रकार भी थे। उनकी यह कविता सिर्फ हिंदी को ही नहीं, हिंदी पत्रकारिता को भी आईना दिखाती है, बशर्ते अखबारों से जुड़े पत्रकार-संपादक इस पर नजर डालना पसंद करें। 
       कभी हिंदी बहुत बोलने में नहीं, फटकार कर बोलने में यकीन करती थी। बहुत खानेवाली और बहुत सोनेवाली तो खैर तब थी ही नहीं। तब तो उसे देश को और समाज को जगाने का काम करना था, खुद भूखों रह कर जन की जठराग्नि का उपाय ढ़ूँढ़ने का काम करना था, सदियों की गुलामी से जनता को मुक्त कराने का काम करना था। तब लेखक भी इतने र्बइमान कहाँ थे ? जगह-जगह प्रचारिणी सभाएँ थीं। कई संस्थाएँ सामाजिक उद्देश्यों के लिए ईमान के भरोसे चल रही थीं। हिंदी के नाम पर धंधा तो बाद में चला है। हिंदी के अखबार भला आजादी के पहले ऐसे ही धंधा करते थे ? हिंदी के लेखक और पत्रकार पुरस्कारों के पीछे भागते थे ? हिंदी उस वक्त ईमान की भाषा थी। इसी भाषा में व्यापार भी होता था, पर हिंदी का व्यापार नहीं होता था। कितना फर्क आ गया है ? आज हिंदी बाजार की भाषा नहीं, खुद एक बाजार है। विज्ञापन की हिंदी देखिए। हिंदी के अखबार और हिंदी की फिल्में और हिंदी के चैनल देख लीजिए। हिंदी को कहाँ आजादी के बाद जन-जन का कंठहार बनाना था, जन के जीवन का आधार बनाना था और कहाँ आज हिंदी जनता के लिए नित्य ठगे जाने और पिछड़े रहने की भाषा है। हिंदी न इस देश की माँ है न बेटी। मुझे क्षमा करेंगे हिंदी के बेटे यह कहने के लिए कि आज अमीरों के पैरों की जूती की भी हैसियत नहीं है उसकी। पूरा देश जैसे अंग्रेजी भाषा के शराब के नशे की गिरफ्त में है, आज अभिभावक अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई से अपने बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने का स्वप्न देखते हैं। सोचने की बात है कि जो हिंदी देश की आजादी के महास्वप्न की वाहक रही है, आज युवाओं की बेहतरी के स्वप्न का माध्यम क्यों नहीं बन पा रही है ? अंग्रेजों से लड़ने वाली हिंदी आज देशी अंग्रेजों से क्यों नहीं लड़ पा रही है ? हिंदी के कई लेखक अंग्रेजी पीते रहते पर हिंदी में सोचते रहते तब भी ठीक था, यहाँ तो वे सोचते भी अंग्रेजी में है और जीते भी अंग्रेजी में है। फेसबुक पर हिंदी का राष्ट्रीय चाहे अंतरराष्ट्रीय लेखक बनने वाले अनेक लोगों को अक्सर अंग्रेजी लिखते देख सकते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि जैसे हिंदी फिल्म के कलाकार फिल्म के बाहर कैमरे पर अक्सर अंग्रेजी में बोलते हैं, उसी तरह ये लेखक भी उन्हीं की नकल करते हैं। मैं ये नहीं कहता कि आप अंग्रेजी न पढें या न बोलें, पढ़ें खूब और बोलेें भी खूब, पर जब हिंदी वाले से कुछ कहना हो तो सिर्फ हिंदी में कहें। दिक्कतें कम नहीं हैं। ये अंग्रेजीदां लेखक हिंदी में किस्सा कहानी लिखने के साथ-साथ हिंदी में विज्ञान की किताबों का सुंदर और सर्जनात्मक भाषा में अनुवाद करने में भी मदद करते तो क्या कम अच्छा होता ?
   आज हिंदी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का माध्यम क्यों नहीं है ? चिकित्सा की पढ़ाई का माध्यम क्यों नहीं है ? ऐसी दूसरी तमाम पढ़ाई का माध्यम क्यों नहीं है ? हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में विज्ञान और तकनीक इत्यादि की पढ़ाई क्यों नहीं ? हिंदी दिवस क्या इन सवालों के लिए नहीं याद किया जाना चाहिए ? राजभाषा बनने या न बनने से क्या और कितना फर्क पड़ता है ? अपनी भाषा में पढ़ाई न होने से देश की गरीब जनता पर बहुत फर्क पड़ता है। कह सकते हैं कि अब हिंदी एक अर्थ में गरीब की बेटी है । कोई भी कभी भी कहीं भी जिसे नुकसान पहुँचा सकता है, जिसके संग हिंसा कर सकता है। अमीर-उमरा तो होते ही किसलिए हैं ? हिंदी का राजपाट आज जिन हाथों में है, वे हिंदी के कितने शुभचिंतक हैं ? हिंदी के हृदय प्रदेश में हिंदी की लूट है। कितनी बेबस है बेचारी हिंदी। जब तक हिंदी लुटती रहेगी, हिंदी के जन लुटते रहेंगे।
  सच तो यह कि आज हिंदी कहीं ज्यादा राजनीति की शिकार है। हिंदी वाले ही हिंदी के साथ राजनीति कर रहे हैं। राजनीति ही नहीं, उसके साथ हिंसा भी कर रहे हैं। राजनेता ही नहीं, हमारे साहित्य के नेता भी हिंदी में वही कर रहे हैं जो राजनेता देश के साथ कर रहे हैं। भ्रष्टाचार राजनीति ही नहीं आज साहित्य का भी सबसे बड़ा और दुष्ट ग्रह है। सरकारी संस्थान तो वर्ष में एक बार हिंदी दिवस मना कर हिंदी का श्राद्ध करते हैं, पर शिक्षण संस्थाओं के हिंदी विभाग तो नित्य, बल्कि क्षण-प्रतिक्षण हिंदी का श्राद्ध करते रहते हैं। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिंदी का विद्यार्थी किस हिंदी को पढ़ रहा है ? इससे उसका भविष्य कितना सुरक्षित है ? इस पढ़ाई का उसके जीवन और जीविका के लिए क्या मोल है ? इससे उसे नौकरी मिलेगी या चरित्रवान बनेगा या उसकी संवेदना का परिष्कार होगा ? हिंदी पढ़ाने वाले अब उसके लिए आदर्श क्यों नहीं रहे ? क्या यह सवाल हिंदी दिवसों के लिए गैर जरूरी हैं ? कहाँ चूक हुई कि हिंदी आज गहन चिकित्सा कक्ष के बाहर हिंदी के चिकित्सकों की प्रतीक्षा कर रही है ? कहाँ हैं हिंदी के सब पत्रकार, क्यों नहीं खबर लिखते हैं कि हिंदी खतरे में है। 
        हिंदी खतरे में है तो इसके लिए कौन हैं जो जिम्मेदार हैं ? किसने हिंदी को इस हाल में पहुँचाया है ? हिंदी के पाठकों ने या हिंदी के लेखकों और संपादकों ने ? हिंदी की किताबों के पाठक हैं भी या सब सरकारी खरीद का धंधा है ? पाठक की चिंता क्या हिंदी की चिंता नहीं है ? आज की कविता के पाठक कहाँ हैं ? कितने कम हैं ? हैं भी या नहीं ? कहानी के पाठक हैं या कविता जैसी स्थिति है ? दरअसल आज हिंदी साहित्य में शुद्ध पाठकों का टोटा है। पाठक वे हैं जो या तो कविता-कहानी लिखते हैं या आलोचक हैं या विद्यार्थी हैं और मजबूरी में हिंदी पढ़ते हैं या दुर्भाग्य से कोई किताब उनके हाथ लग गयी है। कुछ ऐसे भी पाठक हो सकते हैं जो सचमुच साहित्य के शुद्ध पाठक हैं, पर यह सच है कि वे सिर्फ कहानी या उपन्यास छूते होंगे, कविता या आलोचना नहीं। आलोचना की पठनीयता पर पहले भी कह चुका हूँ। कविता और साहित्य की दूसरी विधाओं के सामने पठनीयता का संकट है। हिंदी की दुनिया से पाठकों को बेदखल करने में प्रकाशकों की भी कम भूमिका नहीं है। वे भी ठस गद्य की भूसाछाप किताबें छापना अधिक पसंद करते हैं। ऐसी किताबें जो अकादमिक जरूरतों के हिसाब से तैयार की गयी हों या जिसमें नमक कहीं न हो। आलोचना की किताबें तो हद दर्जे की ठस होती है। लेखक के पास अपनी कोई भाषा नहीं। कहीं कोई आकर्षण नहीं। उपन्यास के बारे में कह सकते हैं कि ज्यादातर सतही भाषा में अखबारी वृत्तांत कथानक के रूप में परोस दिया जाता है। प्रगतिशीलता के नाम पर या विचार के नाम पर उन्नत कथाभाषा की खोज न करना कथाकार की बड़ी समस्या होती है। प्रेमचंद ने ‘साहित्य का उद्देश्य’ में उन्नत कथाभाषा की वकालत की है। आज जरूरत है हिंदी को फिर से जन-जन का कंठहार बनाने की। इसके लिए लेखक को अपनी भाषा और छाप पर ध्यान देना जितना जरूरी है, उतना ही पाठक की रुचि का परिष्कार करना जरूरी है। हिंदी भले ही आज नौकरी की गारंटी वाली भाषा नहीं है। हिंदी का विकास और महत्व भले ही वोट की राजनीति में कहीं कोई मुद्दा नहीें है, लेकिन चिंता की बात सिर्फ हिंदी के लिए ही नहीं, उर्दू के लिए भी है, उसके विकास के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। कहना यह है कि आज सरकारों के लिए भाषा और साहित्य और संस्कृति दो कौड़ी की चीज है। संस्कृति मंत्रालय खोल लेने से क्या होता है ? भाषा और साहित्य का धंधा जारी है। अब राजनीति और सार्वजनिक जीवन में वह पीढ़ी नहीं है जो भाषा और साहित्य की चिंता करे। बुरा यह नहीं कि राजनीति में अब वह पीढ़ी नहीं है। बुरा यह कि आज राजनीति और साहित्य, दोनों में वह पीढ़ी नहीं है। 
     आज दृश्य पर हिंदी का राजपाट जिनके हाथों में है, वे आलोचक हैं, संपादक हैं, पुरस्कार बाँटने वाले अलेखक हैं, जिन्होंने हिंदी को जीवन और जरूरत की भाषा की जगह बैठे-ठाले की भाषा बना दिया है। जिस हिंदी को देश के विकास का रथ बनाना चाहिए था, वह खुद दरिद्र स्थिति में हैं। हिंदी के नाम पर चलने वाली संस्थाएँ और अकादमियाँ अपात्र लोगों के हाथ में पड़कर लूट-खसोट का अड्डा बन चुकी हैं। जहाँ हिंदी के सच्चे साधक नहीं, पक्के स्वार्थी, पुरस्कारकामी और अलेखक जाते हैं। हिंदी के संत भला किस सीकरी में जाते थे ? आज समाज और धर्म में ही नहीं, साहित्य में भी असंतो का ही बोलबाला है। ऐसे में हिंदी दिवस क्या और कितना कर सकते है, यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा यह कि हम क्या कर सकते हैं ? हम सच्चे संत नहीं बन सकते हैं तो कोई बात नहीं, क्या हम इतने कमजोर हैं कि साहित्य और भाषा का सच फटकार कर कह भी नहीं सकते हैं ? क्यों नहीं कह सकते हैं हम कि हिंदी को बाहर वालों ने नहीं, खास हिंदी के लोगों ने मारा है। अम्बार लगा हुआ है हिंदी की दुनिया में क्रांतिकारी विमर्शों से। कभी दलित के नाम पर तो कभी स्त्री के नाम पर। कभी क्रांति के नाम पर तो कभी गरीबों के नाम पर। सवाल यह है कि यह विमर्श कितने काम है, जब उसका पाठक उसे देखने के लिए हिंदी के परिसर में मौजूद नहीं है। उसे ही नहीं, महान संत काव्य तक से दूर है। स्त्री और दलित की चिंता जरूरी है, बहुत जरूरी है, उसे जगह मिलनी ही चाहिए, लेकिन भाई मेरे हिंदी की चिंता भी जरूरी है। हिंदी रहेगी और जन-जन का कंठहार बनेगी तभी सारे अच्छे विचार और संवेदनाएँ उस तक पहुँचेंगी। आजादी के छाछठ साल बाद भी क्या हिंदी इस देश के विकास की वाहक है ? क्या हिंदी जनता के स्वाभिमान और सम्मान की वाहक है ? क्या हिंदी सभी सरकारी और गैरसरकारी क्षेत्रों में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने का माध्यम है ? अनुवाद की दृष्टि से क्या आज भी जनता के लिए जो शब्द गढ़े जाते हैं वे संप्रेषणीय हैं ? क्या बोलचाल की सुबोध भाषा में सभी सरकारी आवेदनपत्र का प्रारूप हिंदी में सुलभ है ? क्या हिंदी में बातचीत छोटे से लेकर उच्चतर स्तर तक प्रतिष्ठा का पयार्य है ? क्या अंग्रेजी के विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित करने की कोई कामयाब कोशिश की गयी ? क्या आनेवाला वक्त अच्छा होगा ? क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि हिंदी भाषा का जादू सत्ता पर छा जाएगा ? सत्ता हिंदीमय हो जाएगी ? क्या हिंदी सिर्फ वोट माँगने की भाषा बनकर रह जाएगी ? कोई भाषा किसी समाज की सिर्फ जुबान नहीं होती दोस्तो, उसके हाथ और पैर भी होती है। समाज की आँख और दिमाग का भी काम करती है, लेकिन क्या कर सकते हैं हम, जब भाषा के जादूगर, चाहे भाषा के इंजीनियर, चाहे भाषा के सौदागर, चाहे भाषा के आचार्य सबसे भ्रष्ट के रूप में जाने जाएंगे और अपनी इस कामयाबी पर इतराएंगे। 
       कभी हिंदीसेवी पद सम्मान का प्रतीक था, वे हिंदी के लिए पूरा जीवन समर्पित कर देते थे। वे हिंदी को जीवन देते थे। आज हिंदीसेवी नहीं दिखते हैं। हिंदी के छलिया दिखते हैं। ढ़ोंगी दिखते हैं। हिंदी की इस मुश्किल घड़ी में जिन जगहों को हिंदी के जीवनरक्षक की भूमिका का निर्वाह करना था, यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज हिंदी शिक्षण से जुड़े वे उच्च शिक्षा संस्थान हिंदी के वधस्थल हैं। जब तक इन संस्थानों को हिंदी का सच्चा मंदिर नहीं बनाएंगे, जहाँ हिंदी के पुजारियों का सम्मान नहीं करेंगे, जहाँ से हिंदी के चापलूसों और धंधेबाजों को बाहर नहीं करेंगे, हिंदी जिस हाल में है, उससे बेहतर की उम्मीद बेमानी है। आज हिंदी प्रदेश मुश्किल में है। उच्चशिक्षा संस्थानों से जुड़े हिंदी विभाग सफेद हाथी हैं। आप हाथी की जगह चूहा या कुछ और भी कहना चाहें तो कह सकते हैं। सिर्फ कुछ लोगों को छोड़ दें तो दृश्य बहुत निराशाजनक है।  अधिकांश आचार्य व्यवस्था की विसंगति के संगतकार हैं। जहाँ बोलना चाहिए, अक्सर वहाँ चुप रहते हैं। ऐसे-ऐसे आचार्य हैं कि पूछिए मत, जिन्हें कहीं किसी और सरकारी या गैर सरकारी दफ्तर में इंस्पेक्टर या मुंशी होना चाहिए, आचार्य हैं। ऐसे लोग जिन्हें आचार्य होना चाहिए था किसी और सरकारी या गैर सरकारी दफ्तर में हैं। कई नाम हैं जो हिंदी के विद्यार्थियों को बेहतर दे सकते थे और उन्हें बेहतर बना सकते थे। कम से कम एक माहौल तो बना ही सकते थे। जैसे एक बैलसे खेती नहीं हो सकती, उसी तरह एकाध प्रतिभाएँ पूरे विभाग का माहौल दुरुस्त नहीं कर सकतीं। हिंदी के इस वधस्थल में रहते हुए अपने को बचा ले जाएँ तो इतना ही बहुत हैं। मैं हिंदी का कोई ज्योतिषी नहीं हूँ, फिर भी कहता हूँ कि हिंदी का भविष्य मुश्किल में है। हिंदी के बच्चे मुश्किल में हैं, हिंदी के देश में जहाँ हिंदी में पी-एच.डी. करने के बाद हमारे बच्चे पाँच हजार रुपये महीने पर काम करते हों, वहाँ हिंदी का भविष्य कैसे और किनके भरोसे बेहतर होगा ? हिंदी के बच्चे बहुत मुश्किल में हैं।
(यह लेख ‘फरगुदिया’ ब्लॉग पर भी है। ) 





गुरुवार, 29 अगस्त 2013

हँसो कि नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ

-गणेश पाण्डेय

जब मैं कहता हूँ कि काजल की इस कोठरी को ढहा दो तो जानता हूँ कि काजल की यह कोठरी किसी गरीब की मड़ई नहीं है, जिसे कोई दबंग चुटकी बजाते हुए गिरा देगा। यह भी जानता हूँ कि जब तमाम साथी इस व्यवस्था को बदलने की बात करते हैं तो उन्हें यह अच्छी तरह पता रहता है कि यह व्यवस्था एक मिनट में नहीं बदल जाएगी। उन्हें पता है कि गरीब, पिछड़े, आदिवासी की मुश्किलें हमारे जीवनकाल में खत्म नहीं होने जा रही हैं। मैं भी जानता हूँ। साथी भी जानते हैं। हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे जीवित रहते इस दुनिया से पूँजीवाद का नाश नहीं होने जा रहा है। यह भी पता है कि राजधानी में भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए चाहे लाख नहीं, करोड़ लोग जमा हो जाएँ, भ्रष्टाचार खत्म नहीं होने जा रहा है। गांधी जी फिर से आएँ, चाहे मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन तुरत या अगले कुछ सालों में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है कि उनकी जरूरत खत्म हो जाए। हम जानते हैं कि सूरज को निकलने में कोई बारह घंटे लगते हैं, रात होते ही कहाँ झट से सूरज निकल आता है। हम जानते हैं कि इस दुनिया और इस देश को जस की तस चलाने वाली ताकतें बड़े बदलाव का विरोध इसी तरह करती रहेंगी। हम यह भी जानते हैं कि बदलाव की आवाज इसी तरह गूँजती रहेगी। जहाँ तक साहित्य की बात है, यह जानता हूँ कि मैं साहित्य के इस नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ। मेरी तरह दूसरे भाई भी तूती की आवाज हैं। अलबत्ता हमारे बहुत से भाई जिन्हें बदलाव की इस लड़ाई में साथ होना चाहिए था, अलग-अलग वजहों से हमारे साथ नहीं होते हैं। फिर भी कुछ लोग क्यों पूरी दुनिया में, इस देश में, समाज और साहित्य में दीवानों की तरह बदलाव के गीत गाते रहते हैं ? क्यों गाँव-गाँव, जंगल-जंगल, शहर-शहर बदलाव के ऐसे दीवानों की आवाज सुनाई देती है ? क्यों दुनिया के असंख्य नक्कारखाने में कहीं भी कभी भी कोई तूती चुप नहीं होती है ? ऐसा इसलिए कि हम बदलाव के गीत गाये बिना साँस तक नहीं ले सकते हैं ? हमारे जिंदा रहने की शर्त ही प्रतिरोध है, असहमति है, संघर्ष है।
      जब मैं कहता हूँ कि साहित्य में भ्रष्टाचार की इमारत ढहा दो तो जानता हूँ भाई कि मेरे जीते जी यह काम नहीं होने जा रहा है। मेरे लिए जीवन भी एक कविता है। जब आप कविता लिखते हैं तो कविता में बदलाव की सुबह का इशारा क्यों करते हैं, क्या सचमुच बदलाव की सुबह हो रही होती है ? इसी तरह दोस्त, इसी तरह, काजल की कोठरी को ढहाने की बात करता हूँ। मैं जानता हँू कि साहित्य में नायकों की धोती में दाग बहुत है, इसे एक मिनट में साफ करने का कोई डिटर्जेंट पावडर मेरे पास नहीं है। फिर भी इसलिए कहता हूँ कि मेेरे जीवनकाल में नहीं, सौ - दो  सौ साल बाद सही, उसके भी  बाद सही, साहित्य से ये भ्रष्टाचार दूर हो, अन्याय दूर हो। क्या एक छोटे से छोटे लेखक के पास यह स्वप्न नहीं होना चाहिए ? बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि जब तक साहित्य, कला और संस्कृति के परिसर से अँधेरा नहीं हटेगा, समाज और राजनीति से अँधेरा रत्तीभर कम नहीं होगा। क्या दुनिया में जहाँ-जहाँ बदलाव आया है, वहाँ के लेखक साहित्य के हर तरह के काले कारमाने में जुटे थे या उनके पास साहित्य का थोड़ा-सा ईमान बाकी था ? क्या अपने देश में विचार और संस्कृति से जुड़े प्रबुद्ध और गंभीर कार्यकर्ता अपने ईमान के साथ पीड़ित जन के साथ नहीं हैं ?
    जैसे जनता का एक बड़ा हिस्सा व्यवस्था की खुरचन के प्रलोभन में फँसा रहता है, हजार तरह के डर उसके सामने होते हैं, उसी तरह कुछ लोगों को छोड़कर हिंदी के लेखकों बहुत बड़ा हिस्सा डरा हुआ रहता है। हाय, पाँच सौ की टॉफी, हाय इस अकादमी, हाय उस अकादमी, हाय इस पीठ, हाय उस पीठ का इनाम हाथ से निकल जाएगा। फिर भी जनता तो आंदोलन करती है। दफ्तर घेरती है। ये लेखक जिस जनता को बड़ी-बड़ी सीख्  देते है , उससे तनिक भी सीख नहीं लेते हैं। मैं पूछता हूँ कि यार अच्छा लिखोगे तो कौन-सा आलोचक है जो तुम्हारी अच्छी चीज छीन लेगा, उसे भूसे के मंडीले में छिपा देगा ? या उसे जमीन में गाड़ देगा ? कौन है जो तुम्हारी अच्छी रचना को बम से उड़ा देगा ? नाम तो बताओ जरा उस आलोचक का ? कौन है आज की तारीख में महाबली ? क्यों मरे जाते हो कि कोई आलोचक जरा-सा नाम ले ले ? क्यों मरे जाते हो अमुक अखबार में, अमुक पत्रिका में अपना नाम देखने के लिए ? अपमान के साथ कहीं मत छपो, अपमान के साथ किसी मंच पर मत बैठो, अपमान के साथ कोई पुरस्कार मत लो। अपनी पत्रिका निकालो, चाहे दस पेज का ही सही। अपनी किताब छपवाओ। आएगा कोई तुम्हें पढ़ने वाला। तुम्हें देखने वाला। दूसरे संग्रह की अपनी ही एक कविता ‘मुश्किल काम’ फिर याद आ रही है, ऐसा इसलिए कि इस मिजाज की हमारे समय की कोई और कविता फिलहाल मुझे याद नहीं आ रही है-

यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे
जो मेरे साथ तो थे पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-‘पीना और शैतान के संग’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।

         एक लेखक का जीवन भी पतित जीवन हुआ तो फिर उसमें और किसी दुष्कर्मी बाबा-साबा में क्या फर्क रह जाएगा ? बोलो दोस्तो ? बाबा गंदा है और तुम गंदे नहीं हो ? राजनीति और धर्म के नायक पवित्र हो जाएँ और तुम ? राजनीति में सब सेकुलर हो जाएँ और तुम इनाम के मामले में सांप्रदायिक बने रहोगे ? दुष्कर्म में लगे रहोगे ? हँसो कि मैं बेवकूफी की बात करता हूँ। हँसो कि मैं नहीं जानता, पुरस्कार ही आज बहुसंख्यक लेखक के जीवन का प्रयोजन है। हँसो कि मैं दूध में पानी की तरह कमल जाने की कला नहीं जानता। हँसो कि मैं बड़ों का सम्मान करना नहीं जानता। हँसो कि मैं गँवार हूँ। हँसो कि मैं उजड्ड हूँ। हँसो कि मैं लेखक संगठन का रास्ता नहीं जानता हूँ। हँसो कि मैं फलाना शहर की भूलभुलैया नहीं जानता हूँ। हँसो कि साठ के पास पहुँचकर भी अपने प्रदेश की राजधानी में किसी चर्चित पत्रकार के साथ युवा कवियों-लेखकों के योग्य पुरस्कार लेने वाले पचहत्तर साल के कवि के जीवन से कुछ सीख नहीं लेता। हँसो कि मेरे गले में प्रगतिशील होने का कोई पट्टा नहीं है। इस तरह के पुरस्कारों को छ़ोड़ो और देश के हिंदी के तमाम पुरस्कारों को देखकर सच-सच बताओ दोस्तो कि क्या आज तमाम पुरस्कार लेखकों को पालतू बनाने का सुनहला पट्टा नहीं है ? कौन-कौन हैं जो साहित्य में अपने ‘पुरस्कारघर’ को जुआघर की तरह नहीं चला रहे हैं ? इन्हें क्यों नही पहचान रहे हो भाई ? क्यों जानबूझकर लेखक का जीवन हार रहे हो। मैं यह कहाँ रहा हूँ कि तुम कोई सम्मान और पुरस्कार न लो, बस इतना ही तो कह रहा हूँ कि नंगा हो जाने की कीमत पर यह सब न करो। कहना तो यह चाहता हूँ कि संास्थानिक और व्यावसायिक या साहित्य की राजनीति के तहत कोई पुरस्कार मत लो। जनता का कोई स्वतःस्फूर्त पुरस्कार और सम्मान इन पुरस्कारों से हजार गुना ज्यादा तृप्ति देगा। अव्वल तो ऐसा होगा नहीं फिर भी कभी कोई ऐसा संयोग बना तो मैं तो किसी मोची भाई की कमाई का और उसके हाथ से एक नये पैसे का पुरस्कार लेकर अपने इस तुच्छ लेखक जीवन को सार्थक समझूँगा। तुम भी ऐसा क्यों नहीं चाहते ?
    दोस्तो देवेंद्र कुमार का जिक्र यहाँ जरूरी है। देवेंद्र कुमार पंडित नहीं थे, लाला नहीं थे, हरिजन थे, पर आज की तारीख में यहाँ जितने भी असली या नकली तोप हैं, उन सबसे अच्छे थे और हैं। अपनी कविता को लेकर अति संकोची थे। आत्मप्रचार से दूर रहने वाले। सिर्फ और सिर्फ कविता से प्रेम करने वाले। बात-बात पर राजधानी की परिक्रमा न करने वाले। उन्हें कभी पुरस्कारों के लिए दौड़धूप करते नहीं देखा। मैं ही नहीं, मेरा दोस्त अरविंद भी उन्हें ही बेहतर कहता है। फिर अपनी ही एक कविता का अंश, साक्ष्य के रूप में -

कई कवि देखे
कई तरह के कवि देखे
कोई मधुकर था यहाँ
कोई काला था, कोई दिलवाला
कोई परमानंद, कोई विश्वनाथ।
देवेंद्र कुमार को यहीं देखा
अपनी हीर कविता के लिए राँझा बनते।

      अपनी कविता से प्रेम करना है, अच्छी कविता से प्रेम करना है तो उन्हें मत देखो जो पुरस्कार के लिए अपनी कविता को गिरा चुके हैं। यह क्यों नहीं सोचते कि एजेंडा अच्छी कविता लिखने का है, नामी-गिरामी पुरस्कार लेने का नहीं है। क्या मुक्तिबोध को उतने पुरस्कार मिले, जितने पुरस्कार काँख में दाब कर आज दो कौड़ी के कवि यहाँ-वहाँ घूम रहे हैं ?
      दोस्तो, क्यों उस धोती वाले पंडित या बाऊ साहब के हाथ से गले का सुनहला पट्टा ले रहे हो ? या लेने के लिए कतार में हो ? मैं जानता हूँ मेरी बातें सबको अच्छी नहीं लगती हैं लेकिन यह भी जानता हूँ कि मेरी बातें उन साथियों को अच्छी लगती हैं जो साहित्य में अच्छाई का पक्ष लेते हैं। बुराई का पक्ष लेने वाले जरूर बंद कमरे में छिपकर मुझ पर हँसते होंगे। हँसो भाई खूब हँसो, हँसो कि मैं नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ।



शनिवार, 24 अगस्त 2013

दुखी रहे फिर भी कुछ पाजी

-गणेश पाण्डेय
यह सुख और दुख की दुनिया भी अजीब है, सबके लिए न दुख है और न सबके लिए सुख। साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में भी सुखी और दुखी दोनों तरह के लोग रहे हैं। आज भी जहाँ देखिए मिल जायेंगे, एक ओर हाल में निकाले गये पत्रकार  हैं तो दूसरी तरफ संपादक, निदेशक इत्यादि कुर्सियों पर बैठकर इत्र सूँघते हुए चंद सुखी लोग। साहित्य में भी कभी कोई संघर्ष न करने वाले तिकड़मी लोग हैं जो अकादमियों में मालपुआ खा रहे हैं और आज की तारीख में साहित्य में लड़ाई लड़ते हुए लगातार तनाव में रहने वाले दूसरे तरह के दुखी लोग भी हैं। साहित्य के भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रतिदिन, प्रतिक्षण लड़ने वाले लोग कम हो सकते हैं, पर हैं। जाहिर है कि ऐसे लोग सुखी लोग नहीं है।
      इस दुनिया में कई तरह के लोगों को देखने के लिए आँखें पूरी खुली रखना देखने की पहली शर्त है। मुश्किल यह भी है कि बहुत से लोग दुख और संघर्ष देखना ही नहीं चाहते हैं। जाहिर है कि जिनका पेट भरा होगा वे भूख के बारे में क्यों बात करेंगे ? बड़े तो बड़े , एक बच्चा भी अघाये हुए लोगों की भाषा और दुखीजन की भाषा में फर्क कर लेगा। आज किसी की भाषा अलग है तो इसे जाना जा सकता हैं कि ऐसा क्यों है। क्यों किसी की भाषा में इतना बारूद है, साहित्य में यह लेखक जब पैदा हुआ था तब तो ऐसा नहीं था, क्या देखा और भोगा है कि ऐसा हो गया है, किसे-किसे किस हाल में देख लिया है कि तब से गुस्से में है। कोई लेखक, कोई संपादक बताए भला! बहरहाल, अपना काम सिर्फ कहना है, अर्थ-अनर्थ करना पढ़ने वाले के जिम्मे। हाँ, तो मैं बात कर रहा था साहित्य के सुखिया और दुखिया संप्रदाय के बारे में। यह सब कहने की जरूरत क्यों आन पड़ी, इसके बारे में सिर्फ इतना ही कि सरसरी तौर पर एक मशहूर पत्रकार के स्टेटस पर यह चिंता दिखी कि भाई इस माध्यम पर लोग अपना रोना क्यों रोते हैं ? क्यों नहीं नित्य सुखीजीवन के गीत गाते हैं ? क्यों नहीं मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं ? क्यों नहीं हँसी-मजाक और हँसी-ठट्ठा करते रहते हैं ? क्यों नहीं संग्रहालयों की फोटो छापते रहते हैं, इत्यादि सुखी जीवन का व्यापार करते हैं ? क्यों नहीं इस माध्यम के लोग उनके सामने से शव, बीमार और बूढ़े आदमी चित्र हटा देते हैं, जिस तरह सिद्धार्थ के सामने से हटा दिया जाता था। ऐसा चाहने वालों की दिक्कत हर तरह के गरीबों को लेकर है, खासतौर से साहित्य के दीन-हीन, शोषित-पीड़ित की ऊँची आवाज को लेकर उनकी दिक्कत सबसे ज्यादा है। वे उन कवियों और लेखकों को पसंद करते हैं और बड़े गर्व से नाम लेते हैं , जो खुशामद के रास्ते पर चलता हो। साहित्य में लड़ने वाला, हरगिज नहीं। आलोचकों, संपादकों और अकादमियों के अधिकारियों के जूते में पालिश लगाने वाला लेखक चलेगा, इसी रास्ते से पुरस्कार पाने वाला लेखक चलेगा ही नहीं, दौड़ेगा। जाहिर है कि लूट का माल खाकर अघाये हुए लोग सुखी और स्वस्थ रहते हैं।
       पत्रकार मित्र ने अपने स्टेटस में हालाकि यह सीधे नहीं कहा है कि दुख की बातें एकदम से न कहें, उन्होंने कहा है कि कहें पर सिर्फ वही-वही हरदम न कहें। शायद उनका आशय है कि प्रकृति, सौंदर्य, कला, प्रेम, उत्सव आदि की बातें भी बढ़चढ़कर करें। जो लोग ऐसा करते हैं उनकी तारीफ करता हूँ, पर सबके लिए ऐसा कर पाना संभव होगा, यह नहीं कह सकता। भला जिस स्त्री का नवजात शिशु अस्पताल से चोरी हो जाएगा, वह जीवन भर कैसे उत्सव मना पाएगी, जिसके जवान बेटों को हत्यारे कत्ल कर देंगे, वह माँ कैसे और कितना और कब-कब उत्सव मना पाएगी ? वह माँ, नाच पाएगी, वह माँ फोटो खींच पाएगी ? वह माँ यात्रा का किस तरह आनंद ले पाएगी ? इत्यादि बातें हैं। जिनके लिए हिंदी धंधा नहीं है, हालाकि कुछ लोगों के लिए नौकरी है, पर कुछ लोगों के लिए सिर्फ नौकरी नहीं है, जीवन है। जिनके लिए साहित्य यश और इनाम का जरिया नहीं, एक ड्यूटी है, चौकीदार जैसी, वह रातों में सो कैसे सकते हैं ? मजे कैसे ले सकते हैं, उन्हें तो सुनसान रातों में सीटी बजाते, जागते रहो कहते और सड़क पर लाठी से आवाज पैदा करते हुए रहना है। आशय यह कि जिसे हिंदी की लंका के तनाव में तीन बार स्कूटर दुर्घटना में मरने के करीब का दृश्य देखना होगा भला वह हिंदी की दुनिया में बहुत अधिक उत्सवधर्मी कैसे हो पाएंगे ? हिंदी के राक्षसों का अट्टहास उन्हें कितना उत्सवधर्मी बनने देगा ? कहने का यह आशय यह नहीं कि ऐसे लोग अपने घर में भी योद्धा की मुद्रा में ही रहते होंगे, निश्चितरूप से वे वहाँ अपने बच्चों से प्यार करते होंगे, हँसते होंगे, शादी-ब्याह में नाचते भी होंगे, लेकिन इस माध्यम पर ऐसे लोग उत्सव मनाने के लिए ही नहीं रह सकते हैं। ऐसा भी होता है कि एक लेखक अपने शहर में हिंदी की लंका में बिल्कुल अलग-थलग रहता हो और जब वह इस माध्यम पर आए तो अपने दर्द और संघर्ष के साथ मौजूद हो। ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो किसी विचारधारा और समाज के दुखी लोगों से प्यार करते हों, ऐसे लोग बहुत ज्यादा आनंदवादी नहीं हो सकते हैं। दरअसल दुखी लोगों के लिए यह माध्यम समाज का कोई ललित माध्यम नहीं हो सकता है। चित्रहार नहीं हो सकता है। जो लोग इसे एक ललित माध्यम के रूप में देखते हैं, वे अपनी जगह और दृष्टि और विचारधारा के आधार पर इसे अनंतकाल तक ललित माध्यम के रूप में ले सकते हैं, पर जिसकी बात कोई और माध्यम कम सुनता हो, जिसकी बातों से साहित्य के भ्रष्ट लोगों के कान पर जूँ न रेंगता हो, वह इस माध्यम पर अपनी आवाज समानधर्मा मित्रों तक क्यों नहीं ले जाएगा ? जाहिर है कि वह कानफोड़ू आवाज में भी अपनी बात कहने की सीमा तक जा सकता है, अच्छा हो कि आप सुखवादी है, संतुष्टिवादी है, ललितवादी हैं इत्यादि तो अपनी मित्र सूची से ऐसे दुखवादियों को अलग कर दें।
     साहित्य और पत्रकारिता के सुखी लोग, दुखी लोगों को पसंद नहीं करते हैं तो न करें, लेकिन दुखी लोगों के रोने पर एतराज करेंगे तो जाहिर है कि दुखी लोग भी उनके ललितवाद पर एतराज करेंगे। सुखी लोग यह न समझें कि दुखी लोग उन रास्तों को नहीं जानते हैं, जहाँ से सारा सुख उन्हें भीख में मिलता है। दुखी लोग भीख नहीं, अपना हक चाहते हैं और उसके लिए रोते हैं, लड़ते हैं, हार जाते हैं, फिर लड़ते हैं, फिर रोते हैं और लड़ते ही रहते हैं। कबीर ने कहा है कि-
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।
कबीर का उदाहरण देने का आशय यह कि आज कबीर भी इस माध्यम पर होते तो ऐसे पत्रकार जी लोग उनसे भी कहते कि कबीरदास जी ये क्या आप रोना-धोना करते रहते हैं। ये क्या जीव-ब्रह्म करते रहते हैं, ये गरीबों और पिछड़ों की चिंता क्यों ? ये हिंदू-मुसलमान क्यों ? ये आग लगाने वाली बातें क्यों ? कुछ मीठा कीजिए कबीर दास जी। निराला होते इस माध्यम पर तो उन्हें भी डाँटते कि अरे भाई निराला ये क्या हरदम कहते रहते हो कि दुख ही जीवन की कथा रही...हिंदी के सुमनों के प्रति क्यों अनाप-शनाप कहते रहते हो, संपादक को बुरा-भला क्यों कहते रहते हो...अरे अजीब आदमी हो ये आराध्य की मूर्ति पर डंडे से चोट क्यों करते हो...ये साहित्यिक अन्याय और भ्रष्टाचार की बात क्यों करते हो भाई...क्या हुआ जो दूसरे तुम्हारे हिस्से की मलाई काट रहे हैं...इसमें रोने की कौन-सी बात है...हटाओ अपना ये रोना-धोना। कुछ अच्छी बातें करो। कुछ मस्ती करो। अरे भाई, पत्रकार जी ! आपके अज्ञेय ने भी तो कहा है कि दुख सबको माँजता है। आपको दुख माँजता नहीं है क्या ? कम माँजता है क्या ?
       दरअसल ये कहना तो चाहते होंगे आज के राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक सरोकारों के लिए लड़ने वाले तमाम लोगों से कि भाई ये क्या हर समय दुख की बातें। ये क्या हर समय शोषण-उत्पीड़न का रोना। ये क्या हर समय सोनी सोरी की चिंता, ये क्या दामिनी जैसी तमाम बेटियों के लिए रोज-रोज गुस्सा, छोड़ो ये सब, हँसो-हँसो, हँसो कि हँसने से सेहत को फायदा है, हँसो कि रोना सत्ता को पसंद नहीं है। हजार झूठ छापते हुए तमाम पत्रकार -संपादक अपनी कुर्सी पर हँसते है जोर-जोर से। कहना सिर्फ इतना है कि यह माध्यम अपनी तमाम कमियों के बावजूद वह सब सबसे साझा करता है जिसे किन्हीं कारणों तमाम पत्रकार अपने अखबार में दे नहीं सकते हैं। जहाँ तक मैं जानता हूँ देश की संसद में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में ये जितना छापते हैं, उसका एक बटा हजार भी साहित्य की अकादमियों में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में नहीं छापते हैं । असल में ये सच के देवता नहीं , सौदागर हैं। सच, उतना ही और वही सच छापते हैं जिसमें जोखिम रत्तीभर न हो। इन्हें जनता के दुख से नहीं, सत्ता के सुख से प्रेम है। जनता का दुख भी इनके लिए दुख नहीं एक वस्तु है, जिसे उचित समय और उचित दाम पर ये बेचने के लिए मजबूर होते हैं। हाय, इस दुनिया में कितने मजबूर लोग रहते हैं। जाहिर है कि ये मजबूर लोग दुख के सिपाही नहीं, सुख के चाकर हैं। खुद चुना है सुख की यह नौकरी। आखिर दुख की नौकरी चुनने वाले भी कुछ कम पाजी तो नहीं हैं।
अंत में कविता का यह अंश -

सुखी हुए वे जन
त्याग दिया जिन्होंने
क्रोध

सुखी हुए वे भी
जिन्होंने एवज में दिया
शील

वे महाशय भी सुखी हुए
साध लिया जिन्होंने
चिंता से बैरभाव

परम सुखी हुए वे मनुष्य
जो हुए नित्य
सत्तामुख

दुखी रहे फिर भी कुछ पाजी
जिनके पास हुई गर्दन
तनी हुई।











बुधवार, 31 जुलाई 2013

प्रेमचंद और हमारा समय

- गणेश पाण्डेय

     आज प्रेमचंद के स्मरण का अर्थ सिर्फ कथापितामह का परचम लहराना है या उनके साहित्यिक और जीवन मूल्यों की अनदेखी करते हुए उनकी कृतियों पर केंद्रित कोई औपचारिक लेख लिखना है तो मित्रो मैं यह काम करने से रहा। मेरे लिए साहित्य के वे पुरखे जिन्होंने अशर्फियों और इनाम इत्यादि के लिए लेखन नहीं किया है, बल्कि देश और समाज के लिए अपनी ड्यूटी पूरी की है, सचमुच श्रद्धा के केंद्र हैं। जाहिर है कि प्रेमचंद उनमें से एक हैं। आज का समय श्रद्धा के मामले में बेढ़ंगा है। बेढ़ंगा इस अर्थ में कि आज साहित्य में श्रद्धा सिर्फ पुरस्कार और प्रमोशन इत्यादि के लिए दिखती है, वह भी असली नहीं होती। काम निकलते ही श्रद्धा को श्राद्ध में बदलते देर नहीं लगती है। यों आज प्रेमचंद का नाम ले-ले कर अपने को रोशनी में लाने के लिए विकल लेखक कम नहीं हैं, पर प्रेमचंद के साहित्यक मूल्यों को जीने वाले बहुत कम मिलेंगे। उस लेखक संघ में भी कम ही मिलेंगे जिसके अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए 1936 में प्रेमचंद ने कहा था कि ‘‘प्रगतिशील लेखक संघ’, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर उसका यह स्वभाव न होता तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अन्दर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। अपन कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वछंदता की जिस अवस्था में देखना चाहता, वह उसे दिखाई नहीं देती। इसलिए, वह वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अन्त कर देना चाहता है, जिससे दुनिया जीने और मरने के लिए इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाय।’’ प्रेमचंद की दृष्टि में लेखक वह है जिसके भीतर इस दुनिया जीने और मरने के लिए और अधिक अच्छा बनाने की बेचैनी हो, लेकिन क्या सचमुच आज के लेखक के भीतर भी यह बेचैनी है या बेचैनी का दिखावा है ? क्या हम अपने भीतर साध्य की पवित्रता के बिना मंजिल तक पहुँच सकते हैं ? प्रेमचंद अपने इसी प्रसिद्ध लेख/भाषण में यह भी कहते हैं कि साहित्य जीवन की आलोचना है। मैथ्यू आर्नाल्ड ने भी कविता को जीवन की आलोचना कहा है। जहाँ तक मैं समझ पाता हूँ, प्रेमचंद विचार की आलोचना नहीं, जीवन की आलोचना इसलिए कहते हैं कि निरा विचार की आलोचना ज्ञान और सामाजिकविज्ञान के दूसरे अनुशासनों की चीज है। वह साहित्य को जीवन की आलोचना इसलिए कहते हैं कि साहित्य संवेदना का व्यापार है। इसका आशय यह कतई नहीं कि जीवन विचारशून्य है या मनुष्य का विचार से कुछ लेना-देना नहीं। जब वे दुनिया जीने और मरने के लिए अच्छा बनाने की बात करते हैं तो यह बात अपने आप में एक अच्छा विचार है। वह लेखक के स्वभावतः प्रगतिशील होने की बात इसीलिए करते हैं। जीवन की आलोचना की बात इसीलिए करते हैं। लेखक के जीवन की आलोचना की बात भी करते हैं। लेखक की दृष्टि की बात करते हैं-‘‘ हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी। अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढ़ंग की थी। हमारा कलाकार अमीरों का पल्ला पकड़े रहना चाहता था, उन्हीं कह कद्रदानी पर उसका अस्तित्व अवलंबित था और उन्हीं के सुख-दुख, आशा-निराशा, प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्दिता की व्याख्या कला का उद्देश्य था। उसकी निगाह अंतःपुर और बंगलों की ओर उठती थी। झोपड़े और खंडहर उसके ध्यान के अधिकारी न थे।’’ प्रेमचंद, जाहिर है कि लेखक की प्रगतिशीलता की परीक्षा भी करते हैं। वे जिस लेखक नाम की संस्था को स्वभावतः प्रगतिशील कहते हैं, उस लेखक नाम की संस्था के भीतर मौजूद खतरों की ओर भी इशारा करते हैं और बताते हैं कि कैसे कोई लेखक अप्रगतिशील भी हो सकता है। आज भी यह खतरा टला नहीं है। प्रगतिशीलता की सुपरफास्ट गाड़ी के बावजूद गैर प्रगतिशीलता की यह मालगाड़ी नई दिल्ली जंक्शन से बदस्तूर चलती चली जा रही है। श्रृंगारिकता और विलासिता का घराना अपनी गायकी में उसी तरह तल्लीन है, पर प्रेमचंद के ठीक पहले के समय में जहाँ यह मुख्यधारा  थी, वहीं अब यह सूखकर एक मामूली पनाले में तब्दील हो चुकी है। प्रेमचंद के सामने अपने सामने की दुनिया को बेहतर बनाने की बेचैनी में दरअसल अपने देश को, अपने समाज को और अपने समय के साहित्य को भी बेहतर बनाने की बेचैनी शामिल है। प्रेमचंद को पता है कि लेखक की असल कर्मभूमि साहित्य है। प्रेमचंद कहते हैं कि ‘‘ जिन्हें धन-वैभव से प्यारा है, साहित्य-मंदिर में उसके लिए स्थान नहीं है।...हमारी परिषद ने कुछ इसी प्रकार के सिद्धांतों के साथ कर्मक्षेत्र में प्रवेश किया है। साहित्य का शराब-कबाब और राग-रंग का मुखापेक्षी बना रहना उसे पसंद नहीं। वह उसे उद्योग और कर्म का संदेश-वाहक बनाने का दावेदार है। उसे भाषा से बहस नहीं। आदर्श व्यापक होने पर भाषा अपने आप सरल हो जाती है। भाव-सौंदर्य बनाव-सिंगार से बेपरवाही दिखा सकता है। जो साहित्यकसा अमीरों का मुँह जोहने वाला है, वह रईसी रचना-शैली स्वीकार करता है, जो जन-साधारण का है, वह जन-साधारण की भाषा में लिखता है।’’ प्रेमचंद यहाँ साफतौर पर साहित्य की संप्रेषणीयता पर विचार कर रहे होते हैं। जाहिर है कि उनके सामने साहित्य की पहुँच का बड़ा प्रश्न है, लेकिन प्रेमचंद बड़े लेखक हैं इसलिए वे शुरू में ही बता देते हैं कि साहित्य की भाषा ठीक वही नहीं हो सकती है जो बोलचाल की भाषा है-‘‘ भाषा साधन है, साध्य नहीं।...भाषा बोलचाल की भी होती है और लिखने की भी।...मेरा अभिप्राय यह नहीं कि जो कुछ लिख दिया जाय, वह सब साहित्य है। साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सचाई प्रकट की गयी हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुदर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने वाला गुण हों और साहित्य में यह गुण पूर्णरूप में उसी अवस्था में उतपन्न होता है, जब उसमें जीवन की सचाइयां और अनुभूतियां व्यक्त की गयी हों।’’ इसीलिए अंत में भी प्रेमचंद कहते हैं कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव, सौंदर्य का सार हो, सुजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो-जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’ सवाल यह कि आज प्रेमचंद जैसा खरापन कहाँ है ? क्या लेखक संगठनों के पास और उसमें शामिल कच्चे-पक्के प्रगतिशील लेखकों के पास प्रेमचंद का ईमान है ? क्या वे लोग सचमुच रचना और आलोचना और जीवन में रईसी-शैली से मुक्त हैं ? ये आलोचकों के पीछे-पीछे भागना, उनकी पूजा करना, उनसे सर्टिफिकेट लेना, सेठों और सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के पुरस्कारों के पीछे-पीछे भागना जनता के लेखक का काम है या रईसी-शैली के लेखकों का काम है ? पहले की अशर्फियों और आज के पुरस्कारों में कोई बहुत अंतर नहीं है। क्या ऐसे ही लेखक दुनिया को बेहतर बनाने का काम करेंगे, जो अपनी उपलब्धियों के लिए मरे जा रहे हैं ? क्या ऐसे लेखक प्रगतिशील हैं जो यौन-संदर्भों को चटखारे के लिए लिखते हैं और अतिश्रृंगारिक कथा की पत्रिका में छपने के लिए लालायित रहते हैं ? सब जानते हैं कि ऐसी कहानियों का छापाखाना प्रेमचंद के नाम पर कथापत्रिका का धंधा करने वाले किस बुजुर्ग लेखक के पास है। प्रेमचंद का विपुल कथासाहित्य कया आज के कथाकारों और कथासंपादकों के लिए प्रमाण नहीं है कि प्रगतिशील कथा का परिसर किसे कहते हैं ? असल में प्रेमचंद के सामने साहित्य का उद्देश्य कुछ और था और आज के लेखकों के सामने साहित्य का उद्देश्य कुछ और है। प्रेमचंद के सामने बेचैनी का सबब रचना और अपने समय का तीखा यथार्थ था, बदलाव की आकांक्षा आत्मा को मथती थी। आज तो लेखक प्रगतिशीलता की आड़ में यश, इनाम, चर्चा का धंधा करने में लगे हैं। प्रेमचंद देश और समाज को देखते थे, ये अपने आप को देखते हैं, अपना तमगा, अपना नाम और अपना सर्टिफिकेट देखते हैं। यह बेहद तकलीफदेह है कि बकौल प्रेमचंद जिनके ऊपर अपने समय के समाज को जगाने की जिम्मेदारी है, सो रहे हैं। विडम्बना यह कि ये सोने वाले जिन्हें हिंदी का जगाने वाला बनना था, नींद में अमरता का स्वप्न देख रहे हैं। ये खुली आँखों से स्वप्न देख रहे हैं कि अमुक आलोचक और अमुक संपादक और अमुक इनाम उन्हें अमर बना रहा है, उन्हें हिंदी कथा साहित्य या कविता या आलोचना का हीरो बना रहा है। क्या पानी के बुलबुले जैसी नायकत्व की यह आकांक्षा अच्छी रचना या आलोचना को जन्म दे सकती है ? प्रेमचंद जैसी रचना की बात करते हैं, वह इन कमजोर हाथों से संभव है ? ऐसे ही लेखक समाज को बेहतर बनाने का जीवित स्वप्न पाठकों की आँखों में भर सकते हैं ? ऐसे लेखक पाठकों के लेखक बन सकते हैं ? क्या यह बताने की बात है कि प्रेमचंद आलोचकों के लेखक हैं या पाठकों के ? पाठकों की जगह आलोचकों और संपादकों की पूजा करने वाले लेखक कभी भी हिंदी के सच्चे लेखक हो ही नहीं सकते हैं। पुरस्कार बड़ा लेखक नहीं बनाता है, पाठक बड़ा लेखक बनाते हैं। पाठकों के लिए लिखी गयी रचना ही बड़ी रचना बनती है। पाठक ही समाज है। आज हिंदी के परिसर से पाठक गायब हैं। कुछ हैंे जो कविता-कहानी-आलोचना लिखते हैं और कुछ किताब और पत्रिकाएँ खरीद लेते हैं, बाकी पुस्तकालयों की शोभा की चीज हैं। कभी नाव पर रखकर पत्रिकाएँ और किताबें गाँव में पहुँचती थीं, प्रेमचंद घरों में पढ़े जाते थे। आज का दृश्य क्या वही है ? पाठकों की शक्ति पर भरोसा न करने वाले या पाठाकों की अभिरुचि को उन्नत न करने वाले लेखक समाज को बेहतर बनाने का स्वप्न जनता के दिल और दिमाग में पहुँचा सकते हैं ? कह सकते हैं कि आज राजनीति ने और व्यवस्था के इस मॉडल ने समाज को भ्रमित किया है, तो समाज को विचार और मूल्य से जोड़ने का काम किसका है ? राजनीति करने वालों का ? जनता को राजनीति के इस अँधेरे से निकालने का काम किसका है ? बिना आँख वालों को बिना आँख वाले खुली हवा में ले जाएंगे ? क्या राजनेताओं की तरह लेखकों ने जनता का विश्वास खो नहीं दिया है ? यह हमारे समय का बड़ा सवाल है ? इस सवाल से टकराना क्या आज लेखक संगठनों की जिम्मेदारी नहीं है ? शायद इस बड़ी कमी की वजह से ही आज साहित्य राजनीति से आगे नहीं है। प्रेमचंद ने जब कहा था-‘‘ साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है।’’ जाहिर है कि तब इस नसीहत की जरूरत जितनी थी, उससे कम आज नहीं है। आज भी महफिल सजाने और मनोरंजन का सामान जुटाने का काम लेखक बढ़-चढ़कर कर रहे हैं।  राजे-रजवाड़े नहीं हैं तो क्या हुआ राजनीति और साहित्य के राजे-रजवाड़े हैं। अपने को गिराने की ऐसी होड़ शायद अशर्फियों के जमाने में भी इतनी न रही होगी। क्या यह प्रगतिशील लेखकों और लेखक संगठनों के लिए गौरतलब नहीं है ? प्रेमचंद के स्मरण का अर्थ आज और क्या हो सकता है।
(यह लेख ‘पीपुल्स समाचार’ के 31 जुलाई 2013 के अंक में भी है।)






शनिवार, 13 जुलाई 2013

ऋण है मुझ पर

 -गणेश पाण्डेय

उस खेत का, उस बीज का
उस धूप का, उस पानी का
उस किसान का ऋण है
मुझ पर
उस हवा का , उस जगह का
उस चौखट का, उस छत का
उस दुलार का ऋण है
मुझ पर
उस छड़ी का, उस किताब का
उस पाठशाला का, उस विचार का
उस गुरु का ऋण है
मुझ पर
उस चरण का , उस आशिष का
उस मोतीचूर का, उस हृदय का
उस बुआ का ऋण है
मुझ पर
उस भाई का, उस मित्र का
उस साथ का, उस चाह का
उस अपनत्व का ऋण है
मुझ पर
उस चितवन का, उस स्पर्श का
उस गंध का , उस स्मृति का
उस प्यार का ऋण है
मुझ पर
उस शत्रु का, उस वरिष्ठ का
उस घात का, उस कायर का
उस नाग का ऋण है
मुझ पर
उस आक्रोश का, उस ललकार का
उस साहस का, उस दर्प का
उस रक्त का ऋण है
मुझ पर
उस धारा का, उस यकीन का
उस शक्ति का, उस पृथ्वी का
उस अभिन्न संगिनी का ऋण है
मुझ पर
कोई देखे कितना सुख है
अपने होने की खोज में
कितनी तृप्त है मेरी आत्मा
अपनी इस अतिशय दरिद्रता में।


( ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से )
(यह कविता ई पत्रिका सृजनगाथा पर भी उपलब्ध है।)