- गणेश पाण्डेय
मैं कोई प्रसिद्ध खंडहर नही हूँ
मेरा ज़िक्र कहीं नहीं मिलेगा
न किसी किताब में न किंवदंती में
किसी नक़्शे में मैं नहीं दिखूँगा
मुझे देखने कभी कोई यायावर
नही आएगा
न मुझ पर कविताएँ लिखी जाएंगी
न चित्रकार मेरी अनुकृति बनाएंगे
दूर-दूर तक फैली तेज़ धूप में
बित्ताभर छाँह की उम्मीद लिए
कुछ बकरियाँ आ सकती हैं
कुछ मेमने अपने झुंड से बिछड़कर
आ सकते हैं
मेरे खुरदुरे और टूटे-फूटे पैरों के पास
बची हुई है थोड़ी-सी हरी घास
हवा अब भी मुझे छूकर गुज़रती है
बारिश अब भी मेरे चेहरे को
धोती-पोंछती है
बादलों की ओट में छिपकर सूरज
अब भी मुझे देखता है कभी-कभी
मेरा उद्धार करने के लिए
कोई ईश्वर आये न आये
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उस वक़्त देखा होता हमें
हमारे पास कितनी चहल-पहल थी
हमारे पैर कितने मज़बूत थे
हमारी बाँहें कितनी फैली हुई थीं
कितने आँधी-तूफ़ानों को चीरकर खड़े थे
हम तनकर
अब तो खंडहर हैं हम
एक-दूसरे के पास बैठकर देखते हैं
दोपहर का सन्नाटा गिनते हैं दिन
और सुनते रहते हैं भीतर से आती
भाँय-भाँय की आवाज़
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कभी लगता
साँसे उखड़ रही हैं
नाक में ज़बरदस्त जकड़न है
शायद किसी दुश्मन का काम है
हम दुश्मन से दो-दो हाथ करते
हम अपनी साँसों को पकड़कर बैठ जाते
हमें अपनी घरती से उखाड़कर
पाताल में कोई भेज नहीं पाता
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मेरी पीठ के पीछे सुनसान जान
और मुझे अनुपस्थित मानकर
सचमुच के भूत-प्रेत लुटेरे हत्यारे
गुप्त योजनाएँ बनाते हैं
अंत में
वे मेरी नींव में सोने की ईंट
होने और किसी दिन खोदकर
निकाल ले जाने की बात पर हो-हो हँसते
और इस तरह एक बदनसीब खंडहर का
मज़ाक़ उड़ाते हुए निकल जाते
वे उन्हीं जगहों पर जाते
जहाँ अशरफ़ियों की बारिश होती
बिना टिकट चलने की सुविधा होती
फूल-मालाओं से लाद दिया जाता
अख़बारों में सभी कापुरुषों की
भूरि-भूरि प्रशंसा होती
मुझे तो याद भी नहीं
आखि़री बार मेरी फ़ोटो कब छपी थी
मेरे बारे में कभी कुछ कहा भी गया था
या नहीं
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अब मैं हूँ
मेरी दोस्त है मेरी तरह अनाम खंडहर
सात जन्मों का साथ है हमारा
हमारे हाथों की गर्मी ने हमें ज़िंदा रखा है
मुश्किल समय की बर्फ़ में
शायद हमें ही पूरी तरह बुरे समय में
न गलना आया न बुझना
न मुँह छिपाना न ज़मींदोज़ होना
देखो तो अभी बची हुई हैं
छाती की हड्डियाँ और उनमें
थोड़ी-सी हरकत थोड़ी-सी चिंगारी
शायद तब तक बची रहें जब तक
आ नहीं जाते हमारे लंबे संघर्ष के
सच्चे उत्तराधिकारी।