रविवार, 31 मार्च 2013

क्रांति भी, रोना भी ,प्यार भी...


-गणेश पाण्डेय

आभासी दुनिया की हलचल हो या सचमुच की, कभी-कभी इन से दूर जीवन को बिल्कुल पास से देखने की इच्छा होती है। गहरे धँसकर जीने की इच्छा होती है। सच तो यह कि कभी-कभी सिर्फ और सिर्फ दर्द को बारबार छूने की इच्छा होती है। ऐसा बहुत कम होता है। जब अखबार, टीवी और आभासी दुनिया के दर्द से बाहर... कुछ ठहर कर देखने की इच्छा होती है। आज अचानक स्वप्निल की सूई-धागा कविता को फिर से पढ़ने के बाद साझा करने की इच्छा हुई। पर बहुत से कवि तो दुनिया को बदल देने का काम हरहाल में आज पूरा कर लेने में लगे होंगे। स्वप्निल की इस ‘सूई-धागा’ का होगा क्या-

तुम सूई थी और मैं था धागा
सूई के पहले तुम लोहा थी
धरती के गर्भ में सदियों से
सोई हुई

तुम्हें एक मजदूर ने अंधेरे से
मुक्त किया
उसी ने तुम्हें तराश तराश
बनाया सूई
ताकि तुम धागे से दोस्ती
कर सको

धागे के पहले मैं कपास था
जिसे मां जैसे हाथों से चुनकर
चरखे तक पहुँचाया गया
कारीगरों ने मुझे बनाया धागा

मैं अकेला भटकता रहा
और एक दिन मैं तुमसे मिला
इस तरह हम बन गये
सूई धागा
और साथ साथ रहने लगे

तुम्हारे बिना मैं रहता था
बेचैन
और मेरे बिना तुम
रहती थी अधीर

हम दोनों मिलकर ओढ़ते रहे
जिंदगी की चादर
और अपने सुख-दुख को रफू
करते रहे

एक दिन तुम मृत्यु के अंधेरे में
गिर गयी
मैं रह गया अकेला

जब भी मैं तुम्हारे बारे में
सोचता हूँ
तुम मुझे चुभती हो
आत्मा तक पहुँचती है
तुम्हारी चुभन।
(यात्रा 5-6)

     एफबी पर स्वप्निल श्रीवास्तव की इस कविता को यह जानते हुए दिया कि यह कविता एफबी के मिजाज की कविता नहीं है। यह कहना भी पड़ा कि मुझे ऐसा लगता है कि एफबी पर सक्रिय जिन कवियों के पास ऐसे काव्यानुभव या इस जमीन की कविताएँ नहीं हैं, उन्हें यह कविता पसंद नहीं आयेगी। हिंदी कविता में हम जिसे बड़ी कविता कहते हैं, यह कविता चाहे उन अर्थो में सचमुच बड़ी कविता न हो पर यह सच है कि यह कविता उस बड़ी जमीन की कविता जरूर है। यह बात मैं अपनी किसी कविता के लिए नहीं कह रहा हूँ। आज कविता को लेकर पसंद का संकट है। क्या एफबी और क्या बाहर प्रिंट की दुनिया। हर जगह। दरअसल मैं जिसे विनम्रतापूर्वक पसंद का संकट कह रहा हूँ, वह समझ का ही संकट है। कभी-कभी प्रिय-अप्रिय या मेरा-तेरा कवि व्यक्तित्व से जुड़ी पसंद समझ पर भारी पड़ जाती है, यह भी सच है। खैर, यह कविता मुझे पसंद है। मेरी समझ भी इस कविता के पक्ष में है। अच्छी बात यह कि कुछ मित्रों की भी पसंद और समझ मेरी पसंद और समझ के साथ है। 
    मैं एफबी और अखबार को अलग-अलग समझता हूँ। हालांकि अखबार में भी जो रोज-रोज नहीं होता है, वह यहाँ होता है। इस माध्यम के चरित्र और स्वभाव को लेकर कम जानता हूँ। इस माध्यम को बनाने और चलाने वाले लोग पूँजीवादी हैं या समाजवादी या कुछ और, यह नहीं जानता हूँ। इस माध्यम का अर्थशास्त्र और राजनीतिविज्ञान या समाजशास्त्र, कुछ नहीं जानता हूँ। कुछ-कुछ यह जानता हूँ कि यहाँ अपने बारे में दिनरात अच्छी-अच्छी बातें करने वाले लोग हैं। कुछ लोग दिनरात देश-दुनिया के बारे में अच्छी-अच्छी बातें करने वाले लोग हैं। कुछ उम्र में बड़े हैं, कुछ मेरी उम्र के जेएनयू , जामिया और डीयू या बाहर के हैं और बहुत से मुझसे छोटे हैं। मेरे बेटे की उम्र के या मेरे शिष्यों की उम्र के। पर इनमें से जो साहित्य में काम करने वाले हैं, उनमें कई उम्र में छोटा होने के बावजूद कविता और आलोचना की दुनिया में अच्छा कर रहे हैं। ‘काफी’ इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि कुछ और न समझ लिया जाय। जाहिर है कि साहित्य की समझ अच्छी है, तभी इनका अच्छा काम है। कुछ एफबीएफ दो-दो नाव पर एक साथ सवार हैं। दो-दो क्या, कई नावों पर एक साथ हैं। कुछ हैं जो एक्टिविस्ट भी हैं और लेखक भी। कुछ पचास-पचास प्रतिशत हैं तो कुछ पचहत्तर और पच्चीस प्रतिशत। कुछ सिर्फ एक्टिविस्ट हैं। कुछ ऐसे भी एफबीएफ हैं जो सिर्फ लेखक हैं। उनमें भी कुछ साधारण लेखक हैं, कुछ उससे बड़े। कुछ तो बहुत बड़े लेखक भी हैं। बहुत बड़े का मतलब, जो  राजधानी की साहित्य सत्ताओं के निकट या अंतरंग हो। कुछ लेखकनुमा पत्रकार हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में साहित्य को लेकर व्याप्त भयंकर नासमझी और भष्टाचार से आँख मँूद कर ज्यादातर अच्छी-अच्छी बात करते हैं। लेखकों और आयोजनों के फोटो देते हैं। कुछ जेएनयू के पूर्व विद्यार्थी भी हैं, सचमुच ये बहुत प्रतिभाशाली हैं। प्रतिभाशाली तो ऐसे भी युवतर लेखक यहाँ हैं जो जेएनयू से नहीं हैं। बाहर से हैं। मुझे इनसे साहित्य संवाद अच्छा लगता है। ये साहित्य के बारे में बहुत अच्छी-अच्छी बात करते हैं। कुछ तो ब्लॉग भी चलाते हैं। घ्यान देने की बात यह कि ये ब्लॉग दिल्ली ही नहीं दिल्ली के बाहर से भी चलाते हैं और अच्छा चलाते हैं। ध्यान खींचते हैं। कुछ जोर-शोर से तो कुछ चुपचाप। ये अच्छा कर रहे हैं। अक्सर मेरा ध्यान अच्छे साहित्य पर चला जाता है। सच तो यह कि इसीलिए इस माध्यम पर आया भी हूँ। दूसरे लोग किसलिए आए हैं, नहीं जानता। सच यह पता नहीं कि वे टाइम पास के लिए आए हैं कि साहित्यिक चुटकुलाबाजी के लिए या राजनीतिक लतीफा सुनाने के लिए या सचमुच बड़े सामाजिक और राजनीतिक या साहित्यिक बदलाव के लिए ?
  इस माध्यम पर कविताएँ खूब पढ़ने को मिलती हैं। कुछ अच्छी और कुछ बहुत कमजोर। अधिकांश कविताएँ साधारण होती हैं। मेरा मानना है कि सिर्फ एक या कुछ खास कवि के यहाँ ही असाधारण कविताएँ अलग से पैदा नहीं होती हैं, तमाम कवियों की तरह इन्हीं साधारण कविताओं के क्रम में कुछ बहुत अच्छी कविताएँ बन जाती हैं। कुछ अविस्मरणीय कविताएँ हो जाती हैं। एक कवि का एजेंडा क्या होना चाहिए ? मेरी समझ से एक कवि का एजेंडा अच्छी कविता लिखना होना चाहिए। क्योंकि मेरा मानना है कि यदि आपका एजेंडा खराब कविता लिखना है तो आप कविता की दुनिया में आये ही क्यों ? ट्रक ड्राइवर होकर शेर कहने का लांगरूट तो खुला ही था। नहीं दोस्तो, अच्छी तरह जानता हूँ कि आप अच्छी कविता लिखने के लिए कविता के संसार में आए हैं। यह भी बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि आप सफर में हैं। मंजिल बस तनिक दूर है। हालाकि मुझे ही कौन अब तक मंजिल मिल गयी है। रास्ते में हम सब हैं। बस यह ध्यान रहे कि रास्ते में ट्रक ड्राइवर भी मिल सकते हैं, इसलिए जरा देख कर चलें। सामने खड्ड है। पहले तय कर लें कि पहले अच्छी कविता कि पहले राजनीतिक और सामाजिक क्रांति कि दोनों नावों पर एक साथ ? मैं बिल्कुल क्रांति के पक्ष में हूँ लेकिन सब एक साथ साधने की कला मेरे पास नहीं है। हाँ, कविता में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का स्वप्न तो देख सकता हूँ पर समाज में चुटकी या बंदूक बजाते हुए तुरत क्रांति हो जाने का सचमुच का स्वप्न नहीं देख सकता। क्योंकि मैं कोई सचमुच का एक्टिविस्ट नहीं हूँ। जब मैं बहुत छोटा था, मेरे कस्बे तेतरी बाजार में एक कॉमरेड हुआ करते थे, कॉमरेड दयाराम, उनकी बहुत इज्जत करता था। वे कहते थे अर्थात स्वीकार करते थे कि तोप का मुकाबला बांस से नहीं किया जा सकता है अर्थात समझ और विचार और सार्थक प्रतिरोध से किया जा सकता है। ऐसे जो भी साथी हैं, आदरपूर्वक उनके सामने नतमस्तक होता हूँ। पर शायद आज कुछ संकट यहाँ भी है। कुछ अच्छे साथी भी जरूर हैं। पर कुछ दूसरे तरह के साथी भी मिल सकते हैं। अभी एफबी पर मनीषा पाण्डेय ने अपने स्टेटस में लिखा है कि ‘मेरा एक ब्वायफ्रेंड था, धुर क्रांतिकारी। एक दिन उसने मुझसे कहा, मनीषा, तुम नौकरी करना और मैं पार्टी का होलटाइमर बन जाऊँगा। तुम एक -दो बच्चे पैदा करना। उनकी टट्टी साफ करना, उनके लिए रातभर जागना, उन्हें पढ़ाना-लिखाना। मैं तो महान कार्यों में लगा हुआ हूँ। जब पार्टी सम्मेलन होगा तो तो वहाँ भी तुम कढ़ाई-कलछुल लेकर तैयार रहना कॉमरेडों की सेवा करने के लिए। उस दिन मेरा दिल किया था कि तुरत बाहर का दरवाजा दिखाऊँ और बोलूँ- खबरदार जो इस तरफ कभी मुड़कर भी देखा। अब अगर क्रांति होनी ही है तो तुम नौकरी करना, मैं क्रांति करूँगी। तुम पूड़ियाँ परोसना, मैं भाषण दूँगी। चूल्हे में गए तुम और तुम्हारे विचार। बहुत उल्लू बना चुके तुम। अब हमारी बारी है।’ मैं मनीषा जी तरह ऐसा कुछ तो नहीं कह सकता, पर इस खतरे की ओर इशारा जरूर करूँगा कि कविता की दुनिया में क्रांति के नाम पर ऐसे उल्लू बनाने वाले लोगों का आविर्भाव हो चुका है। ऐसे लोगों को मैं ही नहीं, कई एफबी मित्र भी, छद्म क्रांतिकारी कवि कहना अधिक पसंद करते हैं। क्योंकि ये साहित्य के बाहर हर उस जगह क्रांति चाहते हैं, जहाँ इनके लिए जोखिम रत्तीभर न हो। इनके पास साहित्य में सत्ता की चाकरी और बाहर की दुनिया को उलट-पलट देने का फर्जी स्वप्न होता है। इनकी कविताओं में परिवर्तन का कानफाड़ू तीव्र राग और जीवन में धुुर यथास्थितिवाद होता है। इनके लिए विचारधारा और ईमान मुक्तिबोध की तरह एक नहीं, दो है। दोनों एक-दूसरे के विरोधी। इन्हें क्या विचार नहीं करना चाहिए कि बाहर दूसरे देशों और भाषाओं के जिन क्रांतिकारी कवियों की कविताओं को अक्सर याद करते हैं, उनका जीवन भी ऐसा ही रहा है जैसा इनका है। मैं विनम्रतापूर्वक कहता हूँ कि बेशक उनकी तरह या उनसे भी अच्छी कविताएँ लिखो। बिल्कुल क्रांति की आला दरजे की कविताएँ लिखो, अच्छी कविताएँ लिखो और ऐसे दिखो जिससे तुम और तुम्हारी कविताएँ भरोसा पैदा करें बदलाव के लिए। तुम्हारा स्वप्न सच्चा लगे। तुम्हारी कविता की आत्मा से पुरस्कार की इच्छा की गंध न आए। ऐसे किसी कतार में मत दिखो। कवि  केशव तिवारी ऐसे छद्म क्रांतिकारी कवियों के लिए शायद ठीक ही कहते हैं कि सिंथेटिक कविताओं से इनका बाजार अटा पड़ा है। पर सुकून की बात यह कि यह ऐसे छद्म क्रांतिकारी कवियों की कविता का सच तो है आज की कविता का पूरा सच नहींे है। कई ऐसे धोषित तौर पर प्रगतिशलील कवि हैं जो छद्म प्रगतिशील नहीं लगते हैं। जिनके लिए कविता की चौहद्दी में जीवन की कविता और परिवर्तन की कविता दोनों शामिल है। आखिर स्वप्निल की कविता ‘सूई-धागा’ को एफबी की कई लेखिकाएँ और लेखक मित्रों ने क्यों पसंद किया है ? कवि -आलोचक प्रेमचंद गांधी की प्रगतिशीलता यह कहते हुए खतरे में क्यों नहीं पड़ती है कि ‘ निश्चय ही यह एक शानदार कविता है...धरती के गर्भ से लेकर कपास के पौधे के शीर्ष तक और फिर मानवीय संबंधों की सघनतम संवेदनाओं को स्वप्निल जी ने बहुत धैर्य के साथ कहा है...मेरे अपने जीवनानुभव से इसमें कुछ और जोड़ा जा सकता है... लेकिन वह शायद इस कविता का अतिरिक्त विस्तार होगा...बचपन में कपास के पौधों और सूई-धागा-ताना-बाना देखने की अनेक स्मृतियाँ हैं...इस कविता ने उन्हें आँगन दिखाया है...’ आखिर यह प्रगतिशीलता जीवनानुभवों की विरोधी क्यों नहीं है ? यह प्रगतिशीलता सिर्फ किताबी या अखबारी क्यों नहीं है ? हमारे समय की कविता में कई कवि हैं जो जितने प्रगतिशील हैं, उतने ही लोकतांत्रिक और निडर भी। 
       विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा कि हमारे समय की कविता में कुछ ‘छद्म प्रगतिशील’ कवियों ने बहुत सारा कूड़ा-करकट कर रखा है। ऐसे आलोचकों ने भी गंदगी इकट्ठा करने का काम ही अधिक किया है। आभासी दुनिया में ही नहीं बाहर भी चालीस-पचास के आसपास के कई कवि -आलोचक भी ऐसा ही कुछ करते दिख जाते हैं। असल में काव्यालोचना की दिल्ली फैक्ट्री ने इतना कूड़ा इधर फैलाया है कि जहाँ देखो वहीं दुनिया को बदलने के नाम पर भूसाछाप ठस गद्यात्मकता का प्राचुर्य, विचारों का प्रकोप और मुँहदेखी प्रशंसा और जातिवाद और नये किस्म के काव्यसंप्रदायवाद का खड्ड है। अपने लिखे पर अपनी कोई छाप नहीं है। लगता है कि जैसे किसी सेठ का बही-खाता ठीक करने वाले मुनीम हों। बाहर के कई आलोचकों ने भी इसी तरह की आलोचना की फ्रेंचाइजी ले रखी है। संतोष यह कि कुछ युवा कवि-आलोचक अपने समय की बुराई से अभी बचे हुए हैं। युवा कवि-आलोचक नीलकमल ने अभी हाल ही में एक युवा कवि की कुछ नकली कविताओं की ओर मेरा ध्यान खींचा है। यह अच्छी बात है कि कम ही सही पर कुछ कवि-आलोचकों की नजर इधर हिंदी में लिखी जा रही उन कविताओं पर है जिनमें हिंदी कविता की प्रकृति नहीं है। बल्कि बाहर से  आयातित  मुहावरे में लिखी जा रही हैं। जाहिर है कि ऐसी कविताओं को मैं नकली कविता कहता हँू। असल में नये कवियों में दो आने में चाँद खरीद लेने की तीव्र इच्छा ने उन्हें कुछ भी कर गुजरने के लिए विवश किया है। उन्हें पुरस्कार चाहिए, उन्हें अपने जीवनकाल में अमरत्व चाहिए। इसलिए सिर के बल कविता लिखने से भी परहेज नहीं। प्रायोजित इनाम और चर्चा के गठजोड़ ने भी इस तरह की नकली ही नहीं, दूसरे तरह की किताबी और अखबारी कविताओं के आधार पर भी तमाम शहरों के कमजोर कवियों को भी महानगर केशरी या रुस्तमे हिन्द जैसी रेवड़ियाँ बांटने का काम किया है। छोटे-छोटे शहरों के भ्रष्ट पुरस्कारों के लिए मचलते हुए कई कवियों की आत्ममुग्घ गद्गद मुद्राएँ आभासी दुनिया के पटल पर नित्य देखी जा सकती हैं। मेरे ही शहर का कविता का एक ‘सम्मान’ अर्थात पुरस्कार है, जिसे यहाँ पुरस्कारों का धंधा करने वाला एक आदमी निकालता है। न तो उसे साहित्य की कोई जानकारी है न समझ और न ईमानदारी। वह जैसे हाईस्कूल-इंटर के विद्यार्थियों को पानी चढ़ा गोल्डमेडल बाँटता है और व्यापारियों-डॉक्टरों इत्यादि को भी श्रमवीर और न जाने क्या-क्या पुरस्कार-सम्मान बाँटता फिरता है, उसी तरह कविता के साथ भी दगा करता है। आशय यह कि जिसने सिर्फ ‘पुरस्कारों का धंधा’ कर रखा है, उसकी संस्था के पुरस्कार लेने में भी कथित प्रगतिशील कवियों की प्रगतिशीलता खतरे में नहीं पड़ती है, बल्कि साहित्य के भ्रष्टाचार के गले लगकर और पुष्ट ही होती है। यह भी संभव है कि ऐसे पुरस्कार लेने वाले प्रगतिशील लोगों को पुरस्कार की हकीकत ही न मालूम हो। मजे की बात यह कि अनेक शहरों में ऐसे तमाम पुरस्कारों के लिए चयनसमितियों में भ्रष्ट लेखक या लेखकनुमा या अलेखक लोग ही होते है। उनमें से किसी के भी पास मर्द लेखक का जीवन और छवि हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। राजधानी से लेकर अनेक छोटे-बड़े शहरों में ऐसे ही भ्रष्ट प्रगतिशीलता का खेल जारी है। इस खेल में क्या प्रगतिशील और क्या गैर प्रगतिशील, सब एक साथ शामिल हैं। पर मेरा मानना है कि चोर की चोरी बाद में रोकना, पहले सिपाही को पकड़ो और उसकी तलाशी लो। जाहिर है कि मेरी बात उन्हें पसंद नहीं आएगी जो इस खेल में शामिल है या शामिल होने के लिए कतार में हैं।
    दरअसल मैं कविता का एक साधारण कार्यकर्ता हूँ। कविता का लालबत्ती वाला मंत्री या अफसर नहीं। कविता का बिना दाम का मजदूर हँू। इसलिए पहले तो मैं साहित्य की दुनिया में बदलाव का स्वप्न देखता हूँ। मैं ऐसी बेवकूफी करने से खुद को रोकने की कोशिश करता रहता हूँ कि ऐसा स्वप्न देखूँ या साहित्य का फ्रॉड करूँ कि साहित्य में तो सब जस का तस काला रहे और देश-समाज सब पलक झपकते बदल जाय। मैं इस पक्ष में भी नहीं हूँ कि शुरू से अंत तक कोई कवि सिर्फ क्रांति की कविताएँ ही लिखे और कुछ कविताएँ घर-संसार, प्रेम और प्रकृति इत्यादि की न हों। एकबार मेरे शहर के ही देवेंद्र कमार उर्फ बंगाली जी ने एक बिल्कुल शुरुआती युवा कवयित्री से कहा था कि जिस उम्र में हो उसमें क्रांति की कविता नहीं, पहले प्रकृति और प्रेम इत्यादि की कुछ कविताएँ लिखो। मित्रो, एफबी मित्रों से यह कहना कतई उचित नहीं है कि वे अपनी ‘हर कविता’ विचार और तात्कालिक मुद्दों पर केंद्रित न लिखें। कोई चाहे तो यहाँ मेरे कान उमेठ सकता है कि फिर मैंने ‘ओ ईश्वर‘ ‘गाय का जीवन’ ही नहीं बल्कि ‘जापानी बुखार’, और ‘सबद एक पूछिबा’ आदि लंबी कविताओं को क्यों लिखा ? नम्र निवेदन यह कि मित्रो सिर्फ यही नहीं लिखा है, बहुत कुछ इससे इतर भी लिखा है। आप भी अपनी ‘हर कविता’ को अर्थशास्त्र या राजनीति विज्ञान का रचनात्मक गद्य न बनाएँ। अपनी ‘हर कविता’ को तरल संवेदना की जगह ठस अखबारी यथार्थ का कवितानुमा अनुवाद न बनाएँ। जीवन और अपने आसपास के लोगों के दिलों में भी झांकें, उनके मुस्कान और आँसू भी देखें। अरे बाबा अपने आँसू को भी खारा पानी समझ कर व्यर्थ में बहा न दें। उसे अपनी कविता में संभाल कर रखें। जैसे ‘सूई-धागा’ में है। जैसे मेरी ‘कहाँ जलाओगे मेरी देह’ में है, जैसे मेरी ‘‘प्रथम परिणीता’’ में है- 
जिस तलुए की कोमलता से 
वंचित है 
मेरी पृथ्वी का एक-एक कण 
घास के एक-एक तिनके से
उठती है जिसके लिए पुकार
फिर से जिसे स्पर्श करने के लिए 
मुझमें नहीं बचा है अब 
चुटकीभर धैर्य
जिसके पैरों की झंकार 
सुनने के लिए
बेचैन है
मेरे घर के आसपास  
गुलमोहर के उदास वृक्षों की कतार
और तुलसी का चौरा  
जिसकी 
सुदीर्घ काली वेणी में लग कर
खिल जाने के लिए आतुर हैं 
चांदनी के सफेद नन्हे फूल 
और 
असमय 
जिसके चले जाने के शूल से
आहत है मेरे आकाश का वक्ष
और धरती का अंतस्तल
तुम हो 
तुम्हीं हो
मेरी प्रथम परिणीता 
मेरे विपन्न जीवन की शोभा
जिसके होने और न होने से 
होता है मेरे जीवन में 
दिन और रात का फेरा 
धूप और छांव 
होता है नीचे-ऊपर 
मेरे घर 
और 
मेरे दिल 
और दिमाग का तापमान
अच्छा हुआ
जो तुम 
जा कर भी जा नहीं सकी 
इस निर्मम संसार में मुझे छोड़कर
अकेला
सोचा होगा कैसे पिएंगे प्रीतम 
सुबह-शाम 
गुड़
अदरक 
और गोलमिर्च की चाय
भूख लगेगी तो कौन देगा 
मीठी आंच में पकी हुई 
रोटी
और मेथी का साग
दुखेगा सिर 
तो दबाएगा कौन 
आहिस्ता-आहिस्ता 
सारी रात 
रोएंगे जब मेरे प्रीतम
तो किसके आंचल में पोछेंगे
रेत की मछली जैसी 
अपनी तड़पती आंखें
और जब मुझे देख नहीं पाएंगे
तो जी कैसे पाएंगे
कैसे समझाएंगे
खुद को
कैसे पूरी करेंगे जीवन की कविता
कैसे करेंगे मुझे प्यार
अच्छा हुआ
मीता
मेरी प्रथम परिणीता
छोड़ गयी मेरे पास
स्मृतियों की गीता
दे गयी 
एक और मीता
परिणीता
जिसके जीवन में शामिल है
तुम्हारा जीवन
जिसके सिंदूर में है तुम्हारा सिंदूर
जिसके प्यार में है
तुम्हारा प्यार
जिसके मुखड़े में है तुम्हारा मुखड़ा
जिसके आंचल में है तुम्हारा आंचल
जिसकी गोद में है तुम्हारी गोद
कितना अभागा हूं
भर नहीं पाया तुम्हारी गोद
तुम्हारे कानों में पहना नहीं पाया
किलकारी के एक-दो कर्णफूल
तुम्हारी आंखों के कैमरे में 
उतार नहीं पाया
तुम्हारी ही बालछवि
किससे पूछूं कि जीवन के चित्र
इतने धुंधले क्यों होते हैं
समय की धूल 
उड़ती है
तो आंधी की तरह क्यों उड़ती है
प्रेम का प्रतिफल 
दुख क्यों होता है
और 
अक्सर 
तुम जैसी स्त्री का सखियारा
दुख से क्यों होता है 
तुम नहीं हो
तुम्हारी सखी है 
है दुख है तुम्हारी सखी है
कर लिया है उसी से ब्याह
हूं जिसके संग 
देखता हूं उसी में 
तुम्हें नित।
(परिणीता)

इन कविताओं से भी अच्छी बहुत-सी कविताएँ हैं। ये तो कुछ भी नहीं, बहुत-सी ताकतवर कविताएँ हैं। बहुत से कवियों के पास ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं। यही जीवन है। यही संसार है। इसी संसार में क्रांति भी करना है, रोना भी है और प्यार भी करना है...


रविवार, 24 मार्च 2013

चाँद और चींटी

-गणेश पाण्डेय 

      शायद, यह एक शहर के उस अकेले लेखक की बेवकूफी है कि वह मुक्तिबोध को बेवकूफ नहीं समझता है। इस शहर के और बाहर के भी कुछ समझदार लोगों को लगता है कि वह अपने महाखराब साहित्यिक जीवन में निरंतर एक बड़ी नासमझी कर रहा है। महानासमझी यह कि दूर के ही नहीं बल्कि अपने बिल्कुल पास के चाँद को भी प्रेमियों की तरह या भक्तों की तरह पूजाभाव से नहीं देखता है। चाँद की नाक चपटी करके या थोड़ी-सी उठाकर, कान को फूँक मारकर या उमेठ कर और जुल्फें घुमाफिरा कर देखना पसंद करता है। दिग्गजों की नाक से पोटा तो कान से खूँट और जुल्फों से जुएँ निकालने की हिमाकत करता है। हालाकि वह कसम खाकर कहता है कि मैं ऐसा कुछ अव्वल तो करता नहीं हूँ और अगर मेरी जानकारी के बिना ऐसा कुछ हो गया हो तो इसमें मेरी कोई दुर्भावना नहीं है। फिर अपने आप नींद में उससे ऐसा कुछ कैसे हो जाएगा ? जरूर कोई बात होगी। कहता है कि मुक्तिबोध होते तो पूछने के लिए उनके पास जरूर जाता। आखिर मुक्तिबोध ने ही तो पहले चाँद के मुँह को टेढ़ा कहा था। क्यों कहा था ? क्या उसकी तरह वे भी बेवकूफ थे ? अच्छे-भले प्रेम के सम्राट को महानायक के सिंहासन से कान पकड़ कर नीचे उतार दिया और दुनिया के सबसे बड़े खलनायक पूँजीवाद के स्टूल पर बैठा दिया कि लो देख लो अपने चाँद की अस्ल सूरत...। बहरहाल मुक्तिबोध, मुक्तिबोध थे, इसलिए हिंदी के नये समझदारों ने उन्हें डाँटा-फटकारा नहीं। कहा तो सीधे उस अपने शहर के अकेले लेखक के बारे में भी नहीं। बहुत डर कर, बहुत दूर से इशारे में कुछ कहा। मोटर साइकिल पर बैठ कर जैसे कुछ लोग थूकते चलते हैं और किसी पर कुछ फुहारें पड़ जाती हैं। बाँह पर, मुँह पर या पीठ पर, कहीं भी। 
        इधर हिंदी साहित्य में नये किस्म के लठैतों का प्रादुर्भाव हुआ है। ये अपने जमींदार के पैरों में बैठकर  वहीं से जिस-तिस के मुँह पर थूकने का काम करते हैं। ताकि जमींदार अपने सामने उन्हें दुश्मनों के मुँह पर थूकते हुए देख ले। असल में इनकी जुबान पर विद्या का नहीं, थूक का वास होता है। ये बहादुर, लठैत तो होते हैं, वीर नहीं होते हैं। वीर मूल्य से जुड़ा होता है, लठैत स्वार्थ से। हिंदी के लठैतों का स्वार्थ साहित्य की अकादमियों के कार्यक्रमों में आने-जाने से लेकर बड़े पुरस्कार ही नहीं ,मुहल्ला स्तर के चिरकुट पुरस्कारों और चर्चा इत्यादि से भी जुड़ा होता है। इसलिए ये हर उस आदमी पर थूकने की कोशिश करते हैं जो इनकी तरह लठैत नहीं होता है, वीर होता है। बहरहाल किसी शहर का हिंदी का अकेला गरीब लेखक भला चाँद पर थूकने की हिमाकत कैसे कर सकता ? हाँ, इतना अपराध तो जरूर है कि अपनी आँखों को चाँद में दाग देखने से मना नहीं करता। असल में उसे कोई पुरस्कार के पीछे थोड़े भागना है कि अपनी हिंदी की आँखें फोड़ ले। चाहे पुरस्कार प्रदाता के चरणों में लाठी की अदृश्य नोंक से अपने राजीवनयन निकालकर अर्पित कर दे। असल में जो छुटभैये चाहे दिग्गज लेखक किसी गिरोह में शामल होते हैं, ये लोग हिंदी के बेटे कहाँ होते हैं ? पुरस्कार के बेटे होते है चाहे कार्यक्रम के बेटे होते हैं ? ये समझते हैं कि वीर-झटीर चाहे जितना कूँद-फाँद लें अन्त में पुरस्कार प्रदाताओं चाहे प्रमोटरों के आगे उन्हीं की तरह नतमस्तक होंगे। जो उनकी तरह नहीं हैं, बुद्धू हैं कि समझदार का मतलब समझदार समझते हैं। इन लठैतों ने समझदार शब्द का अर्थ परिवर्तन और संकुचन अपने हिसाब से कर लिया है। समझदार अर्थात दुनियादार। आप ही बताएँ कि आज तक किसी कोश में समझदार का मतलब दुनियादार लिखा है ? पर इनके पास अपना कोश होता है। हिंदी के ये लठैत मानते हैं कि वह व्यक्ति कभी अच्छा या सच्चा या तनिक भी बड़ा नहीं हो सकता है, जो अकेला होगा, किसी का लठैत नहीं होगा या कई जमींदारों का एक साथ लठैत नहीं होगा, जो किसी गिरोह में नहीं होगा, जो किसी को अपना गॉडफादर नहीं बनाएगा। इनकी दृष्टि में वह तो कतई कुछ भी नहीं हो सकता है, साहित्य के बाड़े में भी नहीं घुस सकता है जो गॉडफादर ही नहीं पादड़ी वाला फादर तक किसी को नहीं मानेगा। ये लठैत मानते हैं कि सच्चा या अच्छा या वीर या महान वही होगा जो अपने पड़ोसियों से अच्छे संबंध रखेगा, जिन लोगों के साथ काम करता है, वहाँ सबसे अच्छे संबंध रखेगा। अच्छे संबंध का मतलब इनके लिए यह है कि किसी का विरोध मत कीजिए, असहमति मत व्यक्त कीजिए, किसी को भूल कर भी नाराज मत कीजिए। इनका मानना है कि जो भी मुहल्ले में है अच्छा है। खराब कोई मुहल्लों में रहता ही नहीं है। ये इतने समझदार हैं कि इस बात को मानते ही नहीं कि पड़ोसी भी ईर्ष्यालु, द्वेषी, कई तरह से बुरे हो सकते हैं। छलिया हो सकते हैं। सहकर्मी भी छलिया , ईर्ष्यालु और द्वेषी हो सकते हैं। ये हिंदी के नये लठैत मानते हैं कि एक नहीं हजार रावण पड़ोस में बस जाए तो भी समुद्र की महिमा नहीं घटेगी या हिंदी की दुनिया में रावण होते ही नहीं हैं। अकेला रहने वाला लेखक लाख कहता रहे कि ये देखो हिंदी की लंका...ये सुनो रावण के जूते से निकलने वाली दर्पघ्वनि...ये मचमच की आवाज...। असल मे ये हैं तो लठैत भी नहीं। बने फिरते हैं। चूहा भी नहीं। हैं तो बस कीट-पतंग। साहित्य के कँटीले पथ के राही नहीं है। राजपथ पर चलना चाहते हैं, पैर नहीं हैं तो बैसाखी के सहारे, बैसाखी नहीं है तो गोद में बैठ कर या कंधे पर चढ़ कर। ये सीढ़ी के बिना एक भी मंजिल पर नहीं पहुँच सकते हैं। ये साहित्य के अपने छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं की ही नहीं, उनके भी असंख्य सेवकों को प्रसन्न करके साहित्य के शिखर पर पहुँचना चाहते हैं। असल में ये साहित्य में कई तल की चापलूसी में थ्रू प्रापर चैनल जाना चाहते हैं, सबके आगे मत्था टेकते हुए। अकेला लेखक कहता है कि वह अपराधी है तो है। वह लंबे समय से अपने समय के स्थानीय और बाहर के, हर जगह के दिग्गजों को खुश करने के लिए उनके दरबार के अनेक स्तर के घुरहुआओं और निरहुआओं को खुश करने से इंकार करता है तो पूरी ताकत से इंकार करता है। कहता है कि लठैतों तुमने साहित्य के कितने पिलिपिले जमींदारों की लठैती से इंकार किया है ? तुम्हारा तो साहित्य की दुनिया में सीधा-पानी सब जमींदारों की कृपा से चलता है। पुरस्कार का दो कौड़ी का मुकुट लेकर जाओं बच्चों की पिपिहरी की तरह घूम-घूम कर बजाओ। फुलरे की तरह दिखाओ। जाओ, ले जाओ साहित्य का यह राजपाट। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं कुछ नहीं हूँ। कुछ होना भी नहीं चाहता हूँ। राजा, हाथी, घोड़ा, गधा, कुछ भी नहीं हूँ मैं। मैं खुश हूँ कि मेैं हिंदी की एक मतवाली चींटी हूँ-

मैं चींटी हिंदी की मतवाली

मेरा क्या
मैं हिंदी की चींटी
चले गये सब हिंदीपति
योद्धा बड़े-बड़े
कुछ अप्रिय कुछ मीठा लेकर

उस पथ पर
मैं चींटी हिंदी की मतवाली

क्यों छेड़े कोई मुझको
कोई हाथी कोई घोड़ा
चाहे कोई और।

( दूसरा संग्रह ‘जल में’ से)
  
         मित्रो, अच्छी बात यह कि सारे लेखक या लेखकनुमा लोग लंठई और लठैती में मगन नहीं हैं। कुछ हैं जो जीवन में संघर्ष कर रहे हैं। साहित्य में आत्मसंघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं। अभी कल एक लेखक ने एफबी पर, एक मकान के पास से गुजरते हुए लिखा कि ‘‘अपने ही शहर के इस इलाके में आते ही मैं बहुत भावुक हो जाता हूँ। यादें मुझे 30 बरस पीछे लिये जाती हैं तो एक अजीब सिहरन-सी दौड़ जाती है.......यही है एक घर, जिसमें कभी दूसरी मंजिल का निर्माण कार्य चल रहा था.........उन दिनों बोर्ड की फीस जमा कराने के भी पैसे नहीं थे घर में.......मैं रिश्ते के एक चाचा के साथ इस मकान पर मजदूर की तरह काम करने के लिए आया था...........फीस के लायक पैसे होते ही मैंने काम छोड दिया..........मकान मालिक एक सरकारी अफसर थे ..... उनके आग्रह के बाद मैंने कहा कि मुझे बस इतने ही पैसे चाहिए थे....वे साहब कुछ नहीं बोले, बस इतना ही कहा कि तुम्हारे जैसा लड़का नहीं देखा......फिर उन्होंने ईश्वर का नाम लेंकर शुभकामनाएँ दीं.....’’ दूसरे लेखक ने जब लिखा कि नम आँखों से उस मकान को देखना और छूना चाहता हूँ तो फिर पहले लेखक ने लिखा ‘‘ पिछले दिनों संयोग से लगातार उधर तीन-चार बार जाना हुआ, लेकिन मेरी खुद की हिम्मत नहीं हो रही, उस मकान के सामने जाने की....अभी भी, ये पंक्तियाँ लिखने के बाद मन इस कदर विह्वल है कि मेरी आँखें भर आई हैं......कई बार सोचा कि पोस्ट ही हटा दूँ...... लेकिन फिर भगत सिंह याद आये...... सातवीं कक्षा से ही वही मेरे प्रेरक रहे........कल सुबह उधर से गुजरा था और आज भगत सिंह की याद ने फिर मजबूर कर दिया......’’ इस पर फिर दूसरे लेखक ने लिखा ‘‘ फिर लिखा कि ‘ अपना रास्ता खुद बनाने वाले ही साहित्य में स्वाभिमान और आत्मसंघर्ष की इबारत लिखते हैं। उनमें ही थोड़ी-बहुत आग होती है। आप, मैं बौर कई ऐसे हैं, जिन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया है। ’’ जैसे जीवन में कुछ अच्छे लोग भी होते हैं, उसी तरह साहित्य की दुनिया में भी कुछ अच्छे लोग होते हैं। ये अच्छे लोग सच के साथ होते हैं। ये अच्छे लोग हिंदी के साथ होते हैं, किसी कुर्सी और किसी अकादमी के आगे-पीछे नहीं होते हैं। ये अच्छे लोग ढ़िलपुक नहीं होते हैं। ये अच्छे लोग साहित्य का सच फटकार कर कहते हैं। ये अच्छे लोग निडर होते हैं, साहित्य की तोपों और तमंचों से डरते नहीं। साहित्य के लंठों और लठैतों को साहित्य का मच्छर समझते हैं। इनके पास चाहे इनके पीछे अपने समय की साहित्य की तोपोें और तमंचों की ताकत नहीं होती है। आत्मसंघर्ष की ताकत होती है। यह आत्मसंघर्ष ही उसे एक लेखक के जीवन और लेखन की मुश्किलों और व्याधियों से बचाता है। यह आत्मसंघर्ष ही उसे साहित्य में असली या नकली किसी भी केदार या किसी भी फलाना-ढ़माका का नकलची नहीं बनने देता। अपना रास्ता खुद बनाने की ताकत देता है। मित्रो जिस लेखक के पास आत्मसंघर्ष सिरे से गायब होता है, जो बाऊ साहब या पंडिज्जी के डिठौने से या उनकी गोद में या उनके कंधे पर बैठ कर साहित्य का सफर तय करता है, उसके पैर रचयिता के दृढ़ पैर नहीं होते हैं, साहित्य के किसी चोट्टे के पैर हों तो कह नहीं सकता। रचयिता के दृढ़ पैर शायद ये  हैं-
‘‘मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था वह अक्सर धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थेे जो मेरे साथ तो थे 
पर किसी के गुलाम न थे।’’
( दूसरा संग्रह ‘जल में’ से)
      
        अंत में निवेदन यह कि जो लेखक या लेखकनुमा लोग साहित्य में लंठ और लठैत की भूमिका में हैं, कृपया अपने बाड़े में रहें और इस जीवन का सारा सुख भोगें। दूसरे तरह के लेखकों को साहित्य के नये चाँद के बारे में न बताएँ। क्योंकि नये चाँद के जन्नत की हकीकत हम नजदीक से जानते है।

                                       





गुरुवार, 21 मार्च 2013

स्त्रीलेखन की मुश्किलें

-गणेश पाण्डेय

यह कैसा कथाकंस है, जिसने एक ऐतिहासिक महत्व की कथापत्रिका को ही नहीं, अपने समय के स्त्रीलेखन को कलंकित किया है। अभी हाल में आभासी दुनिया के किसी पटल पर देखा है कि एक स्त्री विधिपरामर्शदाता ने उसी बदनाम कथासंपादक को एक पिलपिले चरित्र वाले लेखक के रूप में याद किया है। जानते तो सब हैं,पर जब स्त्री खुद बुलंद आवाज में ऐसे भ्रष्ट लेखकों का सच उजागर करने लगे तो समझो कि परिवर्तन की लौ तेज हुई। काफी समय से कथाकंस के किस्से हर शहर में चटखारे लेकर सुने जाते रहे हैं। ऐसे ही संपादक के इर्दगिर्द स्त्रीलेखन का जो दायरा बना, संदेह की दृष्टि से देखा गया। कुछ ने अप्रिय ही नहीं, अपमानजनक भी इसीलिए कहा। आखिर ऐसा क्यों कि हमारे समय के स्त्रीलेखन में उपलब्धियाँ कम रहीं और मुश्किलें और चुनौतियाँ ज्यादा। स्त्रीलेखन का यह संकट सिर्फ एक कथासंपादक के व्यभिचार तक ही सीमित नहीं रहा। कई संपादक और आलोचक बराबर के हिस्सेदार रहे। छोटे सुकुल के नाम से लिखे गये एक लेख ‘‘आलोचक का भीतर-बाहर’’ में तो यह कहा ही गया है कि ‘‘ हिंदी आलोचना के दसवें से लेकर अट्ठारहवें रत्नों में कई ऐसे मिलेंगे, जिनकी कीमत दो कौड़ी की है। दिल्ली या कोलकाता का एसी टिकट है। ये ऐसे गरीब आलोचक हैं जो प्रोफेसरी से रिटायर होने के बाद एक-एक पैसे को दाँत से पकड़ते हैं। गरीब औरतो की तरह अमीर औरतों या लेखिकाओं की साड़ी में फाल लगाते हैं, उनके लिए कई तरह के पापड़ बेलते हैं, अचार बनाते हैं, उनकी पाण्डुलिपियों को उनके बच्चों की तरह सजाते-सवाँरते हैं।’’ जाहिर है कि आलोचक का यह चरित्र जितना बीसवीं सदी की अंतिम चौथाई का है, उतना ही आज का भी है और आगे भी रहेगा। आखिर संपादक और आलोचक का यह चरित्र हमारे समय का प्रतिनिधि चरित्र हुआ ही क्यों ? दिक्कत कहाँ हुई ? क्या कहीं कोई चूक, जरा-सी ही सही गलती, लेखिकाओं से नहीं हुई ? लेखक तो बुरा था ही तो क्या लेखिकाओं को भी उसी रास्ते पर चलना जरूरी था ? यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे समय के लेखक के लिए कि लेखन उसकी ड्यूटी नहीं,यश और पुरस्कार का जरिया है। कोई बेचैनी अपने परिवेश और समाज को लेकर नहीं है, जिसके लिए किसी प्रतिरोध या असहमति के बड़े मूल्य या किसी बडे उद्देश्य के प्रभाव में वह लेखन करे। हद तो यह कि वह जहाँ सामाजिक परिवर्तन और क्रांति का स्वाँग अपनी रचना में करता है, वह भी सचमुच के बदलाव के लिए नहीं बल्कि पुरस्कार और यश के लिए ही। काव्य के प्रयोजन के रूप में यश, आधुनिक काल से बहुत पहले की चीज है भाई। हिंदी कविताई से भी पहले की चीज। इक्कीसवीं सदी में तो यश के शव को अपने कंधे से उतार फेंको भाई। अफसोस की बात यह कि लेखक आज भी उतना ही कमजोर है। लालची है। तनिक भी नहीं सोचता कि जिस कबीर से लेकर मुक्तिबोध तक के जिन कवियों को अपना आदर्श मानता है, उनका साहित्यकर्म पुरस्कार के लिए नहीं,बल्कि सचमुच के समाजिक बदलाव के लिए है। जैसे लेखक यश और पुरस्कार के लिए पतित होता जा रहा है, कहीं स्त्रीलेखन भी तो इसी बीमारी का शिकार नहीं है ? यह प्रश्न बेचैन करता है।
    ऊँचीकक्षा के बच्चों से कहता हूँ कि तुम पृथ्वी के सबसे बड़े महाकाव्य हो। तुम हो तो महाकाव्य है। नही ंतो महाकाव्य और भूसे में कोई फर्क नहीं। आखिर महाकाव्य जैसे बच्चों की रचना करके एक माँ जीवन में क्या कोई पुरस्कार या यश अपने लिए चाहती है ? एक माँ अपने बच्चे के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देती है। उसे भला पुरस्कार की चिरकुटई से क्या लेना-देना ?वह तो दुनिया-जहान सिर्फ बच्चे के लिए चाहती है। वह चाहती है कि उसका बच्चा अच्छा बनें और जग में जाना जाए। लेकिन आज औसत से भी खराब कविता लिखने वाली एक कवयित्री क्यों पृथ्वी का सारा यश अपने नाम कर लेना चाहती है ? सारे पुरस्कार अपनी गोद में डाल लेना चाहती है ? स्त्री किसलिए लिखती है ? मीरा और महादेवी किसलिए लिख रही थीं ? सुभद्राकुमारी वीरों का नाम क्यों ले रही थीं ? आज स्त्रीलेखन का प्रयोजन क्या है ? आधुनिक स्त्री स्त्रियों की बेहतरी के लिए लिख रही है या किसी निजीआंकांक्षा को पूरा करने के लिए ? स्त्रीविमर्श आखिर किस मर्ज की दवा है, जब अपने ही प्रवक्ताओं का इलाज नहीं कर पा रहा है ? स्त्रीविमर्श दृष्टि है या आंदोलन ? क्या सिर्फ और सिर्फ स्त्रियाँ ही अपने बारे में बेहतर कहेंगी ? पुरुष उनके बारे में बेहतर नहीं कहेंगे ? प्रेमचंद और जैनेंद्र आदि ने उनके बारे में खराब कहा है ? क्या स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है ? स्त्रीस्वतंत्रता का कोई बड़ा सामाजिक और आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य नहीं है ? क्या यौनसंदर्भ ही जीवन में सबसे बडा है ? क्या भारत की नब्बे फीसदी स्त्रियों की सबसे बडी समस्या यौनस्वतंत्रता है ?क्या इस देश के महानगरों में रहने वाली उच्चशिक्षाप्राप्त स्त्रियाँ देश की बहुसंख्यक गरीब और अशिक्षित महिलाओ का प्रतिनिधित्व करती हैं ? आज भी ग्रामीण महिलाओं की मुश्किलें किन छोटी-छोटी चीजों के लिए बड़ी से बड़ी हैं,कहने की बात नहीं। सबको पता है। नोन, तेल, लकड़ी और उससे जुड़ी हजार बुनियादी दिक्कतें ही उनके लिए सबसे बड़ी हैं। इन्हीं दिक्कतों का सामना करने के दौरान ही उन्हें कई अत्याचारों और शोषण और प्रतिरोध करने पर दमन का शिकार होना पड़ता है। ऐसा नहीं कि वे मशीन हो गयी हैं या पत्थर की स्त्री बन गयी हैं, उनके हृदय में प्रेम नहीं है या जीवन का उल्लास नहीं है या स्वप्न नहीं है।
       सवाल यह है कि आज स्त्रीलेखन के परिसर की सीमा क्या है ? हमारे समय की कथापत्रिकाओं ने किस स्त्रीलेखन को प्रतिष्ठित किया है ? क्या स्त्री और दलित विमर्श का परचम लहराने वाली कथापत्रिका ने कुछ अविस्मरणीय कहानियो को लाने का काम किया है या सिर्फ लेखिकाओं को प्रमोट करने में ही रुचि ली है ? नई कहानी और आंचलिक कहानी का आंदोलन हवा-हवाई था या उसमें कुछ बहुत महत्वपूर्ण कहानियाँ भी आयीं ? कई ताकतवर लेखकों के आने से वह आंदोलन प्रतिष्ठित हुआ। फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, कमलेश्वर जैसे लेखकों ने अपने समय के रचनात्मक आंदोलन को प्रतिष्ठित किया। क्या यह सच नहीं कि आज कथाकंस का यश का यह सारा साम्राज्य पाप और बेईमानी की धुरी पर टिका हुआ है ? आखिर कुछ लेखिकाओं ने स्त्रीमुक्ति को कथाकंस की दासी के रूप में क्यों देखा ? क्यों नहीं उन्होने अपनी पत्रिका खुद निकाली, बीस पेज की ही सही ? अपनी बात कहने के लिए कथाकंस जैसे बदनाम संपादक की गुलामी क्यों ? या फिर आजादी के बाद की और अपने से पहले के लेखिकाओं की तरह स्वाधीन लेखन क्यों नहीं किया ?
    यह तो अच्छा हुआ कि कुछ लेखिकाओं ने आभासी दुनिया को माध्यम के रूप में चुना। अपने स्टेटस, अपने नोट, अपने ब्लॉग के जरिये अपनी बात ताकत से उठायी। इस आभासी दुनिया में मेरी मित्र सूची में कई ऐसी प्रतिभाशाली और दृढ़ चरित्र लेखिकाएँ हैं। जिनके लिए अपने को व्यक्त करना महत्वपूर्ण। किसी पुरस्कार और यश की लालसा नहीं। यह जरूर है कि एफबी पर उनकी सभी रचनाएँ बहुत अच्छी नहीं होती हैं। पर कुछ जरूर अच्छी होती हैं। सभी रचनाएँ किसी की भी अच्छी नहीं होती हैं। बड़े से बड़े कवियों की तमाम कविताएँ औसत होती हैं। कुछ ही होती हैं, जो अविस्मरणीय होती हैं। कुछ रचनाएँ औसत होती हैं, कुछ अच्छी, कुछ बहुत अच्छी और कुछ अविस्मरणीय होती हैं। कविता हो या कहानी, अनगढ़ता में भी कुछ अच्छा दिख जाता है। बहुत गढ़ी हुई कविताएँ या रचनाएँ टकसाली हो सकती हैं। नयापन ही किसी कृति को देखने के लिए सबसे पहले ध्यान खींचता है। यह नयापन, विषय का भी हो सकता है, चरित्र का भी, शिल्प और कथाभाषा का भी। मेरी एक कविता है-‘सफेददाग वाली लड़की’। यह अच्छी कविता नहीं है, साधारण कविता है पर इससे पहले मैंने कविता में किसी सफेददाग वाली लड.की को नहीं देखा था -

सफेददाग वाली लड़की

कोई 
आया नहीं
देखने कि कैसी हो
कहाँ हो मिट्ठू
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का
है उसे इन्तजार
कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-किस का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर
सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में
सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे सो गये उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सारी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जागते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।
   इसलिए हमेशा बहुत अच्छी-अच्छी कविताओं के चक्कर में ही नहीं रहना चाहिए। जहाँ कुछ दिख जाय, उसे कविता में रचो। मेरे लिए कविता पुनर्जीवन है, चाहें तो पुनर्जन्म कह लें, जिसमें पहले के जीवन में हुई टूट-फूट को ठीक करने की कोशिश करता हूँ। चाहता हूँ कि  मेरी बहनें, चाहे राजधानी से बाहर रहती हों या राजधानी में, साहित्य की राजधानी की हवा से महफूज रहें। देश की धड़कन बनें। जहाँ भी रहें, अपनी नौकरी या दूसरी वजहों से, अपने ह्नदय को धरती का विस्तार दें। जरूरत इस बात की है कि लेखिकाएँ सिर्फ रचना तक ही अपने को सीमित न रखें, आलोचना और संपादन में भी दिखें और ताकत के साथ दिखें।
(यह लेख ‘फर्गुदिया’ ब्लॉग पर भी है।)



मंगलवार, 5 मार्च 2013

मुक्ति की लौ कैसे तेज करेंगे

-गणेश पाण्डेय

यह हमारे समय का मुहावरा है, बेईमान को बेईमान कहिएगा तो पलटकर वह भी बेईमान कहेगा। राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, धर्म, खेल, शिक्षा, पत्रकारिता की दुनिया में ही नहीं, साहित्य में भी यह प्रवृत्ति मौजूद है। कभी लेखक का दर्जा नायक का हुआ करता था। कलम का मजदूर और कलम का सिपाही में भी उसी नायकत्व की गूँज है। यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि नायकत्व का वह भाव सिरे से ही आज के लेखकों में नहीं है। नायक का काम सिर्फ आगे रहना ही नहीं है, आगे रहने और उससे भी आगे बढ़ने का जोखिम भी उठाना होता है। नायक का काम पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बच्चों की तरह कतार में लगकर सिर्फ लड्डू खाना नहीं है। हालाकि आज तमाम लेखक यही कर रहे हैं। यह अलग बात है कि आज समाज में जिन्हें हम बच्चा कह रहे हैं, वे अपने को लेखकों से भी ज्यादा जिम्मेदार और बहादुर साबित कर रहे हैं। उन बच्चों ने तो बड़े-बड़े नेताओं को हाशिये पर करके खुद अपने दम पर बड़े आंदोलन करना सीख लिया है। उनकी सीमाएँ भी हैं। इसलिए वे अभी आंदोलन को निर्णायक लड़ाई में तब्दील करने की कला नहीं सीख पाये हैं। पर वे हैं उसी रास्ते पर। लेकिन बड़ा सवाल यह कि आज का लेखक किस रास्ते पर है। क्या आज का लेखक बड़े-बड़े मठाधीश लेखकों की पूँछ पकड़कर चलने के लिए अभिशप्त नहीं है ? कहीं इसीलिए तो नहीं कि समाज में उनकी नायक वाली छवि नदारद है या खुद उसके भीतर ही यह भाव नहीं। प्रश्न है और बड़ा है कि जब लेखक खुद इतना भयभीत होगा तो समाज को कैसे भयमुक्त करेगा ? लेखक के भीतर आखिर भय है तो किस बात का ? क्या उसे जेल में बंद कर दिये जाने का डर है ? क्या उसे अपनी सोने की कुटिया में आग लगा दिये जाने का डर है ? क्या छीन लेगा कोई उसका कुछ ? क्या है उसका जो खो जायेगा ? क्या कुछ पाने की आकांक्षा है, जो नहीं मिलेगा ? आखिर मित्रो इस डर की वजह क्या है ? बस यही न कि अमुक-ढमुक पत्रिका में उसका नाम या रचना नहीं छपेगी ? कहीं तो छपेगी ! नहीं छपेगी तो दो पेज की पत्रिका खुद निकाल कर अपनी बात कह लेगा। यहाँ बता दूँ कि कई सौ पेज वाली पत्रिकाएँ अक्सर भूसा छापती हैं और दस पेज की पत्रिका में भी जीवन और समय का नमक और दर्द मिल जाता है। वे मोटी-तगड़ी पहलवान छाप या चौड़ी-चकली चमक-दमक वाली राजधानी की कुछ पत्रिकाएँ बड़ा लेखक बनाने की फैक्ट्री होतीं, तो उनके संपादक पहले खुद बड़ा लेखक या संपादक बन चुके होते। हो सकता है कि मुख्यधारा में महाजनों के पथ पर न चलने से कोई महाजन पीछे न आने वाले लेखक को कोई भाव न दे अर्थात उसकी चर्चा ही न करे और वह इस जीवन में चर्चित या पुरस्कृत होने से वंचित हो जाय। क्या यह देखने की जरूरत नहीं है कि जब वे महाजन नहीं रहेंगे तो लोग उन महाजनों को उसी तरह याद करेंगे, जैसे आज करते हैं ?
  महाजनों के पीछे-पीछे अपना जीवन नष्ट करने वालों में इस डर की असल वजह क्या साहित्य के संसार में मर जाने का डर है ? या अमर न हो पाने का डर ? क्यों यह कि अमुक जी अमर कर दें ? हाय अमुक जी ने अमर नहीं किया तो होगा क्या ? आखिर अमर होना क्यों इतना अच्छा है और मरना इतना बुरा ? क्या सभी लेखक ऐसे ही दिनरात डरते हैं ? कुछ दूसरे तरह के लेखक हमारे आसपास नहीं हैं ? क्या पहले ऐसे निडर लेखक नहीं थे ? आज भी, छोटे-मोटे ही सही ऐसे लेखक हांेगे या नहीं, जिन्हें साहित्य में मरने का कोई डर नहीं होगा ? आखिर साहित्य का एक छोटा-मोटा कार्यकर्ता यह कैसे कहता है-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे
जो मेरे साथ तो थे पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्राचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सगके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे- पीना और शैतान के संग
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
(मुश्किल काम/दूसरे संग्रह ‘जल में’ से)
     क्यों आज साहित्य का पथ ऐसे लेखकों से अटा पड़ा है, जिन्हें अमुक जी और ढ़मुक जी का नित्य आशीर्वाद चाहिए या जिन्हें अमुक जी के संगठन में जल्दी से घुस जाना है या घुस चुके हैं तो नित्य कृपा और चर्चा और क्रमशः या एक ही बार में सीधे अमरत्व चाहिए ? कई लेखक संगठन हैं और सब डरपोक लेखकों के जमावड़े के रूप में क्यों दिखते हैं ? आज किस लेखक में साहित्य के पथ पर अकेले एक भी डग भरने का साहस है ? कौन है जो गिरोह या संगठन से या इनके भय से मुक्त है ? इन संगठनों के लेखक आरएसएस के स्वयंसेवकों की तरह हॉफपैंट तो नहीं पहनते हैं और उस तरह की कोई लाठी भी लेकर नहीं चलते हैं पर अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों और क्रूरता के मामले में उनके बड़े भाई लगते हैं। उस लेखक के वध के लिए जोर-शोर से और बिना शोर के भी काम करने वाले कई हथियार इनके पास हैं, जो इनकी तरह किसी गिरोह में शामिल नहीं है और साहित्य के अरण्य का पथ अकेले तय करने की हिमाकत करता है। जहाँ तक मैं जानता हूँ और अगर इसे मेरी धृष्टता न समझें तो बड़ी विनम्रता से कहना चाहूँगा कि मेरे शहर में तो अकेले चलने की हिम्मत किसी में भी नहीं है। कोई संगठन में नहीं है तो किसी गिरोह में है या कई संगठनों का मजा एक साथ लूट रहा है। यह सब मेरी बातें गलत साबित हो सकती हैं। चलिए रास्ता भी मैं ही बताता हूँ, अपने को गलत साबित कराने के लिए। संगठनों के लेखकों के काम को उठाइए और देखिए कि क्या वाकई उन्होने कुछ या क्या-क्या ऐसा लिखा है जिसे कभी याद किया जायेगा ? ऐसे एक-एक लेखक के काम को उठाइए और उसे जोर से पूरी तबीयत के साथ उछालिए और मेरे सिर पर दे मारिए। मित्रो, यह सब कहने का प्रयोजन यह नहीं कि मैंने कोई ढ़ग का काम किया है। मुझे अच्छी तरह पता है कि मैंने तो अभी कुछ ऐसा किया ही नहीं है। यह जानते हुए भी साहित्य में मुझे मर जाने से कोई डर क्यों नहीं लगता है ? क्यों नहीं यहाँ के और बाहर के बाकी लेखकों या लेखकनुमा लेखकों की तरह मैं डरता हँू ? क्यों नहीं अमर होने की कोई आकांक्षा मेरे भीतर है ? क्या इसलिए नहीं कि जानता हूँ कि मरना जीवन की गति है। जीवन को पूरा करना जरूरी है। जो काम है, उसे करना जरूरी है। मेरी जानकारी में किसी भी महापुरुष ने यह नहीं कहा है कि अमर होना जरूरी है। अमरत्व और मुक्ति दोनों अलग हैं। इसीलिए मैंने ‘‘साहित्यिक मुक्ति’’ की बात की है। ( देखें: साहित्यक मुक्ति की प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो!)  
  मित्रो! विडम्बना यह कि आज और अभी और सबसे पहले जिसे अमर होना है, वह लेखक चाहता है कि सिर्फ वही अमर हो बाकी सब मर जायें। बहुत हुआ तो अपने हेलीमेलियों को थोड़ा-सा ( शायद दस प्रतिशत) अमर हो जाने देना चाहेगा। जाहिर है कि इसके लिए वह इस बाऊसाहब, उस बाऊसाहब या इस पंडिज्जी, उस पंडिज्जी की परिक्रमा करता है। उनकी धोती या पतलून या पाजामा वगैरह साफ करता है। चालीस चोरों का गिरोह चुनता है और उसमें घुस जाता है। जहाँ-जहाँ यश का चाहे साहित्य के कुबेर का खजाना है, लूटने के काम में लग जाता है। मजे की बात यह कि जिसके पास एक भी ढ़ंग की किताब या कुछ भी सचमुच का मूल्यवान नहीं है, वह भी साहित्य की दिल्ली को लूट लेना चाहता है। गिरोह और लेखक संगठन की माया है। अंधे भी तेज दौड़ रहे हैं और सारी हरियाली देख और भोग रहे हैं। इन्हें लगता है कि संगठन है, चाहे विचारधारा का जहाज है तो बिना लिखे अमर हो जाने की गारंटी है। कौन बेवकूफ होगा भाई जो कहेगा कि ‘‘विचारधारा मात्र’’ अच्छे लेखन की गारंटी है ? विचारधारा रचना का सातवाँ आसमान नहीं, हवाईपट्टी है बुद्धू जहाँ से तुम अपनी रचना का जहाज ऊपर ले जाओगे। विचारधारा को केवल पकड़कर बैठे रह जाओगे तो आगे कैसे जाओगे। विचारधारा पकड़कर बैठे रह जाने के लिए नहीं है, आगे बढ़ने के लिए है। साहित्य में हो तो अच्छी रचना करने के लिए है और राजनीति में हो तो परिवर्तन की लौ तेज करने के लिए है। कहने का आशय यह कि आज संगठनों में शामिल अधिकांश लेखक इसी दिक्कत का सामना कर रहे हैं। इधर लेखक संगठनों ने नाच-गाना और फिल्म इत्यादि से भी खुद को जोड़ा है और जनता को जगाने के नाम पर जनता से दूर चाहे जनता के पास उत्सव का मजा लूटने का नया तरीका ढ़ूँढ़ लिया है। साहित्य में जहाँ कुछ कर सकते हैं, वहाँ कुछ कर नहीं सकते, इसलिए चलो कुछ और ही कर लेते हैं ...। मित्रो, बाहर मैंने बहुत कम देखा है। आप ही बताएँ कि बाहर क्या इससे बेहतर है ? मेरे शहर के जो लोग बाहर हैं, उनके बारे में भ्रम था कि वे लोग यहाँ के लोगों की तरह साहित्य में भ्रष्टाचार के पक्ष में नहीं होंगे। जहाँ-जहाँ होंगे प्रतिरोध में खड़े होंगे। लेकिन जब उनकी पूँछ उठाकर देखने की बारी आयी तो दृश्य दूसरा ही था। वे भी तनिक भी अलग नहीं। निर्लज्जता और क्रूरता उसी तरह। वे भी साहित्य के लंठ और लठैत की तरह गरज कर कह सकते हैं- पांडे जी, आप भी वही सब कर रहे हैं। आप भी बेईमान हैं। भाई मैंने तो परिक्रमा की ही नहीं। मेरे गृहजनपद के ही एक महाजन हैं, उनकी पूजा नहीं की है। अपने एक मित्र की तरह उनको कभी साष्टांग प्रणाम नहीं किया है। कभी किसी महाजन की पूजा नहीं की है। कभी किसी मित्र से यह नहीं पूछता हूँ कि भाई तुम अमुक महाजन को क्यों अपने गाँव या कार्यक्रम ले जाते हो ? क्यों अमुक आलोचक या संपादक को खुश करने के हजार बहाने ढ़ॅँूढते हो ? अमुक बाबू को क्यों अपना बास समझते हो ? ऐसा कुछ नहीं पूछता। उन्हें दुखी नहीं करना चाहता। किसी को भी दुखी नहीं करना चाहता। पर साहित्य का परिदृश्य दुखी करता है तो कुछ कहने लगता हूँ। अपने को सच कहने से रोक नहीं पाता हूँ। कतई किसी को कभी दुखी करना प्रयोजन नहीं होता है। चाहे वे दायें बाजू के लोग हों चाहे बायें बाजू के मित्र। एक मित्र के प्रगतिशील दृष्टि को ‘‘ मात्र शंकराचार्य के अनधिकृत लालबत्ती प्रेम के विरोध तक ’’ सीमित कर देने पर विनम्रतापूर्वक कहा कि जबतक वीआईपीवाद जिन्दा रहेगा, सभी वाद मुर्दा रहेगे। यह वीआईपीवाद साहित्य में भी जोरो पर है। मैं शंकराचार्यों और साहित्य के आचार्यों या वीआईपी के लाल-नीली बत्ती प्रेम के पक्ष में नहीं हूँ। विनम्रतापूर्वक यह भी कहना चाहता हूँ कि आँख मूँद कर प्रगतिशलीता को ‘‘केवल धर्म के ठेकेदारों के विरोध’’ से जोड़कर देखने के पक्ष में भी नहीं हूँ। जहाँ-जहाँ ठेकेदारी है, सबके विरोध में हूँ। साहित्य में तो लगातार विरोध करता ही हूँ। धर्माचार्य का नियम विरुद्ध लाल बत्ती का समर्थन उसी तरह नहीं करता हूँ, जैसे राजनीति के तमाम छोटे नेताओं और छोटे सरकारी पदाधिकारियों की गाड़ियों पर लगी बत्तियों का समर्थन नहीं करता हूँ। धर्माचार्य लाल बत्ती से भी कहीं ज्यादा खतरनाक काम करते हैं। दूसरे तमाम लोग साहित्य में उनसे भी कहीं ज्यादा खतरनाक काम करते हैं। लालबत्ती तो साहित्य में भी तमाम लोग लगाकर घूम रहे हैं। क्या सबके सब अधिकृत हैं ? सब को उनकी अच्छी कृतियों पर ही लालबत्ती मिली है ? क्रांतिकारी विचारों और जुझारू तेवर वाले प्रगतिशील मित्र हाथ पर हाथ बैठे रहे और साहित्य के सत्ता केंद्रों पर गैर प्रगतिशील और अपात्र लेखकों ने कब्जा कर लिया। सच तो यह कि भटके हुए मुद्दों से न देश का भला होना है, न साहित्य का।   
   असल में संकट सिर्फ देखने का है। हम वही देखना चाहते हैं, जो सुविधाजनक हो। हम अपने विचारों को भी जीवन के उसी हिस्से तक रखना चाहते हैं, जिसमें जोखिम कम हो। इसके विपरीत जो दिखता है, उसे देख तो लेते हैं पर आँख भी तत्क्षण मूँद लेते हैं। यह समाज, राजनीति, साहित्य में कहाँ नहीं है? इसलिए विचार को जीवनीशक्ति देने का काम रह जाता है। लेकिन जब रोज विचार देना जरूरी होगा तो हमसे चूक भी होगी। हम सीमित दायरे में कभी रह जायेंगे तो कभी छींकने और बात-बेबात खांसने की क्रिया तक ठहर जायेंगे। बदलाव हमेशा एक बड़े परिदृश्य, एक बड़े उद्देश्य को सामने रखकर लाने की बात करनी चाहिए। धर्माचार्यें का विरोध इस तरह करें कि वे समाज में अज्ञान और अंधविश्वास कितना फैला रहे हैं। साम्प्रदायिकता को किस तरह बढ़ा रहे हैं। सामाजिक और आर्थिक अपराध और दूसरे अनैतिक कार्य कैसे कर रहे हेैं। धर्म को राजनीति से जोड़कर धर्म की प्रकृति को विकृत कैसे कर रहे हैं। इत्यादि। हम तो यह चाहते हैं कि कोई लेखक किसी का भी बचाव न करें। वे चाहे धर्माचार्य हों या राजनेता या साहित्य के भ्रष्ट लोग। क्योंकि मेरा  मानना है कि देश और साहित्य को ठीक करने की लड़ाई लेखकों को एक साथ करनी चाहिए। न कि देश पहले ठीक हो जाय, भ्रष्ट नेता और धर्माचार्य कूच कर जायें और बाकी जगह बुरे लोग बचे रहें। वैसे लेखक को पहले साहित्य की गंदगी दूर करने का काम करना चाहिए या राजनीति की, फिल्म की, क्रिकेट की ? या एक लेखक को देश और साहित्य में झाड़ू एक साथ लगाना चाहिए ?  जहाँ कुछ लोग यह नहीं कर पायेंगे, संभव है कि वहाँ कुछ दूसरे लोग बीड़ा उठायें। झाड़ू तो हर जगह लगेगा। इसे कोई चाहकर भी रोक नहीं पायेगा। हाँ कोई चाहे तो खुद साहित्य के अँधेरे में अपनी खुशी से अपना जीवन जी सकता है या किसी खूँटे से खुद को बाँध कर रह सकता है। यह कोई जरूरी नहीं कि साहित्य की दुनिया में सब एक जैसे हों। कहाँ नहीं दस तरह के लोग होते हैं? मित्रो, साहित्य में बेईमानी का आलम यह कि कुछ लोग सिर्फ यश और पुरस्कार का खेल ही नहीं खेल रहे हैं, बल्कि विचारधारा के साथ भी दगा कर रहे हैं। वे राजनीति में भी बदलाव की बात दिल से नहीं, बल्कि गले से कर रहे हैं। नाटक कर रहे हैं कि ये देखो इंकिलाब का परचम! सच यह कि डरपोक कौमें कभी इंकिलाब नहीं करतीं। ये खुद सबसे बड़े डरपोक। राजनीति की सत्ता अपने देश की हो चाहे अमेरिका की, सौ गाली (मुहावरे में कह रहा हूँ), पर साहित्य  की सत्ता चाहे राजधानी की हो चाहे अपने शहर की पिद्दी से पिद्दी , उसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहते। ऐसे ही होते हैं लेखक ? ये लेखक कहलाने लायक हैं ? लेखक हैं कि मुंशी ? साहित्य में मेरा शहर मुंशियों और मुंशियों के सहायक मुंशियों के शहर के रूप में तो मशहूर है ही। अब तो इस शहर के साहित्य के मुंशी टोले का प्रभाव दूर तक है। दूसरे शहरों में भी इस शहर के मुंशियों के मुंशी आसानी से मिल जायेंगे। क्यों आज हिंदी लेखकों का समाज इतना भयभीत है ? ये भयभीत लेखक समाज और देश को आखिर कैसे भयमुक्त करेंगे ? सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति की लौ को कैसे तेज करेंगे ?
      मित्रो ! सुखद यह कि दूसरी ओर विचारधारा से जुड़े ऐसे भी साथी हैं जो कहने के लिए लेखक नहीं हैं, कवि या कथाकार या आलोचक नहीं हैं, पर साहित्य के मोर्चे पर उनसे कहीं ज्यादा विवेक और मर्म को छूने की प्रज्ञा और खासतौर से ईमान रखते हैं। सच तो यह कि ऐसे लोगों के साथ साहित्य पर संवाद अच्छा लगता है, जबकि भ्रष्ट लेखकों के बीच उठना-बैठना तक बुरा लगता है। फेसबुक पर और बाहर ऐसे तमाम युवा और वरिष्ठ मित्र हैं जो अभी साहित्य के भ्रष्टाचार में डूबे नहीं हैं। उन्हें अमर होने की चिंता या हड़बड़ी नहीं। जहिर है कि ऐसे मित्रों से ही साहित्य-संवाद अच्छा लगता है। सच तो यह कि उनसे संवाद के लिए ही कुछ कहने की टूटी-फूटी कोशिश करता हूँ।     (यह लेख महत्वपूर्ण ब्लॉग समालोचन पर भी सुलभ है।)