रविवार, 17 अप्रैल 2011

कैसे बनेगा बिना छेद वाला जनलोकपाल बिल

                
          
            गणेश पाण्डेय :  संपादक ‘यात्रा’
हाँ भाई डर तो मुझे भी लग रहा है। और भी बहुत से लोगों को इसी तरह का डर लग रहा होगा। वे आयेंगे और वे आ चुके होंगे अन्ना हजारे के आसपास। पैर बनकर, हाथ बनकर, आँख बनकर, जुबान बनकर पृथ्वी के सबसे सच्चे साथी बनकर। वे इस जनांदोलन का भी वही हश्र करेंगे। जैसा हश्र उनके पूर्ववर्तियों ने ऐसे ओदोलनों का हश्र किया है। लेकिन दुर्घटनाओं के अंदेशे में जैसे जहाज उड़ना बंद नहीं कर देते। जैसे रेल का सफर जारी रहता है। वैसे ही ऐसे आंदोलन भी चलते रहेंगे। क्यों कि इनका चलते रहना ही किसी समाज के जीवित रहने का प्रमाण है। एक पत्रकार को या एक लेखक को खुद को जिंदा रखने में उतना ही पश्रिम करना पड़ता है, जितना किसी जनांदोलन के नायक को अपने आंदोलन को जिंदा रखने के लिए या एक मंजिल तक पहुँचाने के लिए करना पड़ता है। क्या सचमुच जनलोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी में जितनी जन प्रतिभाएँ शामिल हैं, उनमें कुछ सौ करोड़ से भी अधिक सम्पत्ति की स्वामी अर्थात अरबपति हैं अथवा करोड़पति हैं ? क्या से सामाजिक कार्यकर्ता हैं ? तो फिर ये भी बताइये कि रामू सिद्धार्थ जैसे हजारों युवा लोग सामाजिक कार्यकर्ता हैं कि नहीं ? मैं जान भी गया हूँ कि आप का जवाब क्या है और मैं आपके जवाब से सौ फीसदी सहमत भी हूँ। खतरा कई ओर से है। जो अन्ना के आसपास हैं उनसे भी और जो अन्ना के सामने हैं उनसे भी। अभी कुछ ही दिन पहले कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल जी ने अन्ना हजारे से जिरह के अंदाज में जानना चाहा कि जन लोकपाल बिल जनता की मदद कैसे करेगा ? आप पूछ रहे हैं कि अगर एक गरीब बच्चे के पास पढ़ने का साधन नहीं है तो जन लोकपाल विधेयक कैसे उसकी सहायता करेगा। अगर उसे स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है तो वह एक राजनेता को पुकारेगा। लोकपाल विधेयक उसकी मदद कैसे करेगा। सिब्बल जी मंत्री हैं और कानून के जानकार भी, सो हो सकता है कि वे ऐसा सोच रहे हों कि जनता की नजर में यह लोकपाल बिल कोई जादू की छड़ी जैसी चीज है। तभी तो वे प्रश्न कर रहे हैं और कह रहे हैं कि इससे कुछ खास नहीं होने वाला है। अन्ना हजारे ने उचित ही कहा है कि आप ऐसा सोच रहे हैं तो आपको उस कमेटी से हट जाना चाहिए। अन्ना जी चाहे जितनी उचित बात कर रहे हों लेकिन किसी को किसी समिति से हटने के लिए कहना लोकतांत्रिक नहीं है बल्कि स्वस्थ बहस करना देश को सच बताना लोकतांत्रिक है। मंत्री जी को भी अपनी बात कहने का हक है। वैसे अन्ना जी भी यह बात अच्छी तरह समझ रहे होंगे कि जन लोकपाल बिल कोई रामबाण नहीं है। सिर्फ एक बाण है और उसका एक निश्चित लक्ष्य है। वह निशाना विकास नहीं है बल्कि सŸाा केंद्रित भष्टाचार है। मंत्री जी कुछ और जानते होंगे। फिलहाल साधारण जनता इतना ही समझ रही है। जनता जानती है कि देश के राजनीतिक स्वास्थ्य में भ्रष्टाचार की वजह से दिक्कत पैदा हो गयी है। भ्रष्टाचार को पैर की ओर से नहीं मारा जा सकता है। बल्कि भ्रष्टाचार को मारने की बुनियादी शर्त ही यह है कि उसे सिर की ओर से मारा जाय। अर्थात ऊपर से खत्म किया जाय। अन्ना हजारे और जनता यही चाह रही है और इसी विधि से भ्रष्टाचार का नाश देखना चाह रही है। अन्ना जी जो बोल रहे हैं वह उनका अपना नहीं है। जनता के शब्द हैं और जनता की आवाज है। इतना ही नहीं बल्कि यह कि अन्ना के मुख से समय बोल रहा है। हमारा समय। समय-समय पर जन आंदोलन ऐसे ही होते रहते हैं। आजादी के बाद जेपी का आंदोलन इससे व्यापक था। उस आंदोलन के नतीजे और अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे। उस आंदोलन ने भारतीय राजनीति के भविष्य को प्रभावित नहीं किया। आंदोलन से जुड़े लोगों में से कुछ ने तो भ्रष्टाचार का कीर्तिमान बनाया। अन्ना के साथ भी ऐसा हो सकता है। एक छोटी सी बात  बहुत से लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि कमेटी में पिता-पुत्र को रखने की विवश का कोई औचित्य है तो क्या है ?  यदि दोनों के सहयोग के बिना यह कार्य असंभव था अर्थात देश में बाकी सारी प्रतिभाओं का लोप हो गया था तो भी पिता-पुत्र को साथ रखने का निर्णय वयस्क नहीं प्रतीत होता है। एक ही घर के लोग संचार के हिमालय पर बैठकर जब चाहते आपस में परामर्श कर सकते थे। यदि पाँच लोगों में वह एक ही सबसे अपरिहार्य हैं तो बाकी लोगों का उस समिति में रहने का क्या औचित्य है। शेष अयोग्य ही हैं तो वहाँ क्यों हैं। यह सब जन उभार को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं कह रहा हूँ। बल्कि जन आंदोलन की चूकों की ओर ध्यान खींच रहा हूँ। बहरहाल मैं बात कर रहा था मंत्री जी की आलोचना को लेकर। मैं भी यही समझ रहा हूँ कि जन लोकपाल बिल से बिजली नहीं मिलेगी। पढ़ाई और दवाई का इंतजाम नहीं होगा। संसद और विधानसभाओं में दागी छवि के लोगों को जाने से रोक नहीं पायेगा। भारतीय राजनीति में धनबल और बाहुबल के विषधर के बिल को नष्ट नहीं कर पायेगा। वगैरह। लेकिन यह जानता हूँ कि बिना छेद वाला कोई संपूर्ण जनलोकपाल बिल बन गया तो उसके दूरगामी परिणाम होंगे। लेकिन मित्रो यह जुगाड़ का देश है। आप कोई भी सख्त कानून बना दीजिए राजनेता उसमें छेद पैदा कर देंगे। जहाँ नेता जी लोग खुद कानून बनाने बैठेंगे तो अपने खिलाफ कितना सख्त कानून बनाएंगे यह आसानी से अनुभव किया जा सकता है। क्या जन लोकपाल बिल में कुछ सख्त होने और होते हुए दिखने जा रहा है ? लेकिन आशंकाओं के प्रेत से चिपक कर बैठ जाएंगे तो आगे का रास्ता कैसे तय करेंगे ? यह ठीक कि जेपी इस देश की राजनीति को पवित्र नहीं बना पाये। अन्ना के बहाने शायद पवित्रता की कुछ बँूदे राजनति के विकृत मुख में आ जायँ और भारतीय राजनीति नैतिक और सामाजिक रूप से अधिक जवाबदेह हो जाय। न भी हो तो ऐसी कोशिश करते रहने से हम उस शुचिता की उम्मीद को तो जिन्दा कर सकते हैं जिसे राजनीति ने मार डाला है। क्या जन लोकपाल बिल रामबाण है, इस प्रश्न के जवाब को ढ़ूढ़ते हुए यह ध्यान देने की जरूरत है कि यह रामबाण हो या न हो पर यह सौ फीसदी सच है कि ऐसी कोशिशें भारतीय राजनीति को निर्मल बनाने के लिए एकबार ही नहीं बल्कि जब-जब मुश्किलें आयेंगी हजार बार रामबाण सिद्ध होंगी। जाहिर है कि आगे का रास्ता इन्हीं कोशिशों से होकर जाता है। अंत में मंत्री जी की बात से यह बात कि ठीक है कि जन लोकपाल बिल जादू की छड़ी नहीं है तो फिर मंत्री जी को क्या यह नहीं बताना चाहिए था कि जादू की छड़ी आखिर है कहाँ ? किस राजनेता या किस दल के पास है ? सŸाापक्ष के पास है कि विपक्ष के पास ?
गणेश पाण्डेय: संपादक-यात्रा, साहित्यिक पत्रिका

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

अख़बारनामा-2

              गणेश पाण्डेय 



सचमुच हिंदुस्तान गोरखपुर ने जिस तरह प्रतिदिन खाँची भर फोटो छापना शुरू किया है, उसे देखकर तो यही लगता है कि हो हो हिंदुस्तान में अच्छी खबरों को लिखने वाले या खबरो को अच्छी तरह लिखने वाले पत्रकारों का टोटा हो गया है। या अवकाश पर चले गये हों अच्छे पत्रकार। वैसे अच्छी खबरें लिखना भी सबके वश की बात नहीं। ठीक वैसे ही जैसे अच्छी कविता लिखना सबके वश की बात नहीं। लेकिन अच्छी लिखी ही नहीं जाती, अच्छा संपादक या स्थानीय डेस्क प्रभारी अपने पत्रकारों से वैसे ही अच्छी खबरें लिखवाते हैं, जैसे गैरी गुरु शुरू में अपने प्रदर्शन से सबसे खराब टीम लगने वाली टीम इण्डिया को चैम्पियन बनाते हैं। जैसे बडे संपादक साहित्य में अपने समय के अच्छे लेखकों के निर्माण में भूमिका निभाते हैं। हिंदुस्तान गोरखपुर के स्थानीय संपादक तो भले हैं और उन्हें अच्छा अनुभव भी है। फिर यह सब हो कैसे रहा है ? या कोई रणनीतिक निर्णय है, जिसमें बदलाव उनके वश में नहीं। बहरहाल, मैं अन्दर की बात जानता नहीं। सो बाहर से जो देख रहा हूँ और अनुभव कर रहा हूँ, वही कह रहा हूँ। अभी चार अप्रैल को भारत की जीत पर अड़तालीस फोटो छापने के अति उत्साह के बारे में अखबारनामा-1 में कह चुका हूँ। फिर सात अप्रैल के पेज दो पर अन्ना हजारे के साथ कोई बीस लोगों की फोटो और उनके सूक्ष्म वक्तव्य हैं। जिसे देखकर यह लगता है कि अन्ना हजारे के साथ यह लोग हैं, बाकी लोग अन्ना हजारे के साथ नहीं हैं। यह भी प्रतीत होता है कि अन्ना हजारे को बाकी पाठक इनके फोटो के बिना तो पहचान पायेंगे और उनके बारे में जान पायेंगे कि वे कर क्या रहे हैं ? या कुछ कर रहे हैं। युवा पाठकों के बारे में नहीं जानता पर वयस्क और प्रौढ़ पाठकों का ध्यान शायद सिर्फ अन्ना हजारे की फोटो पर जायेगा और बाकी छोटे-छोटे टिकुली जैसे फोटो पर तो नजर जायेगी और उन वक्तव्यों को कोई पढ़ने की जहमत उठायेगा। वह क्यों ऐसा करे ? फोटो की माला और वक्तव्यों की झड़ी से सामान्य पाठक के ज्ञान और समझ और विश्लेषण के तरीके में क्या फर्क आयेगा या कोई सूचना या विश्वास या भावना पुष्ट होने में क्या मदद मिल पायेगी। फिर वही साधारण पाठक, अति साधारण पाठक या लोकतंत्र का प्रतिनिधि जन अखबार के ऐसे पन्नों से क्या सीखने और समझने जा रहा है ? फोटो की यह माला रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह दिखती है। जिसमें खिड़कियों से सट कर बैठे हुए लोग आँखों के सामने से गुजर जाते हैं और चेहरा याद नहीं रह जाता। बहरहाल फोटो छापें, यह तो ठीक बात है, लेकिन इतना छाप दें कि आँखों को अपच हो जाय। पूर्वांचल के पाठक खबरों को समझ नहीं पायेंगे, यदि किसी ऐसे निष्कर्ष पर हिंदुस्तान के पत्रकार मित्र पहुंच गये हों और अब उन्हें सिर्फ फोटो-सोटो से ही अखबार का प्रेमी बनाया जा सकता है तो मुझे कुछ नहीं कहना है। हिंदुस्तान ने किसी नई फोटोनीति को अपनी रणनीति में शामिल कर लिया हो तो भी कुछ नहीं कहना है। फोटो-सोटो को लेकर दूसरे अखबारों में भी दिक्कतें हैं। पर जहाँ उम्मीद सबसे ज्यादा हो, कहने की जरूरत और मतलब भी वहीं सबसे ज्यादा है। अन्ना हजारे के अभियान के प्रति यदि जन भावनाओं को तीव्र बनाने में सहयोग करना है या उसकी अभिव्यक्ति के लिए अखबार में भरपूर जगह और महत्व देना है तो उस अभियान के समर्थन में स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर होने वाली गतिविधियों , प्रदर्शन , धरना , हस्ताक्षर अभियान तथा अन्य बौद्धिक और लोकतांत्रिक कार्यक्रमों की बेहतर कवरेज करके हिंदुस्तान गोरखपुर जिम्मेदार और प्रभावशाली पत्रकारिता का उदाहरण और आदर्श उपस्थित कर सकता है। सच तो यह कि उत्साही साथियों से बनी हिंदुस्तान टीम के लिए यह सब करना कतई कोई मुश्किल काम नहीं है। अच्छी बात यह कि हिंदुस्तान गोरखपुर के आठ अप्रैल के पहले और खासतौर से दूसरे पेज पर अन्ना हजारे से जुड़ी खबरों को ढ़ंग से बल्कि कहें कि वयस्क ढ़ंग से दी गयी हैं। अच्छी और निर्दोष पत्रकारिता के उदाहरण के रूप में ऐसे संपादन और रिपोर्टिंग को देख सकते हैं। भाई हिुदुस्तान गोरखपुर जब आपके पास सब है , तो बेहतर को इसी तरह तरजीह दें।
-गणेश पाण्डेय संपादक- यात्रा साहित्यिक पत्रिका।