शनिवार, 19 जनवरी 2013

गिरोह का लेखक बनाम प्रतिरोध का लेखक

- गणेश पाण्डेय

बंधुवर, आपके दर्द के साथ हूँ। सच तो यह कि आज हिंदी की दुनिया में हर वह आदमी दुखी है, जो हिंदी का लेखक नहीं है या मौजूदा दौर के हिंदी साहित्य का नया या पुराना धंधेबाज नहीं है। हिंदी साहित्य के परिदृश्य को लेकर दुखी तो आज वह लेखक भी है जो मौजूद दौर के अनेक लेखक गिरोहों में से किसी का सदस्य नहीं है। कहना चाहूँगा कि जो आज की तारीख में साहित्य का बुरा आदमी नहीं है। पहले ही बात साफ कर दूँ कि अब इस उम्र में बात-बात पर गुस्सा नहीं करूँगा। कोई चाहे तो मुझे अप्रिय कहकर भी देख ले। बस मैं यह देखूँगा कि यह जो मेरे सामने है, इसने अब तक हिंदी की दुनिया में किया क्या है ? इसकी हथेली की छाप कहाँ है ? चाहे उसके अँगूठे का निशान कहाँ है ? चाहे खूबसूरत दस्तखत कहाँ है ? कहाँ है उसकी अपनी छाप ? उसके पास सचमुच उसकी अपनी कोई छाप है या ऐसे ही फिल्म के हीरो की तरह शर्ट के बटन खोल कर घूमता है ? अभी यह हिंदी की दुनिया में ढ़ंग से जवान हुआ भी है या नहीं ? भला ऐसे लोगों की बात का क्या बुरा मानना  ? दिक्कत तब होती है, जब कोई हिंदी का अच्छा आदमी हो और उसे हिंदी के गुंडे तंग करना शुरू कर दें। ऐसा देखने में आता है। हिंदी का अच्छा आदमी आँख नम कर ले, यह मेरे लिए काफी तकलीफ की बात है। क्या हिंदी ‘‘सिर्फ’’ उनकी बपौती है जो कविता करते हैं या कहानी लिखते हैं या आलोचना लिखते हैं या हिंदी की पत्रिका निकालते हैं ? हिंदी आखिर किसकी है ? क्या हिंदी बोलने और लिखने वाले या हिंदी का साहित्य पढ़ने वाले उसके बेटे नहीं हैं ? उन्हें अपनी हिंदी की बेहतरी के बारे में बोलने का कोई हक नहीं है ? कक्षा में कई बार बच्चों से कहता हूँ कि तुम सब पृथ्वी के सबसे बड़े महाकाव्य हो। तुम हो तो महाकाव्य है, तुम नहीं हो साहित्य कुछ भी नहीं है। बड़े से बड़ा लेखक तुम्हारे बिना मुर्दा है। बड़ी से बड़ी किताब तुम्हारे (साहित्य के पाठकों के ) बिना पत्थर है। जैसे भगवान भक्त के बिना हो ही नहीं सकता। ऐसे में कोई हिंदी पुत्र दुखी हो जाये तो भाई मुझे तो दुख होगा। किसी और को न हो तो कोई बात नहीं।
अपने बहुत पुराने मित्र के उस दर्द को भी बताना जरूरी है, जिससे दुख हुआ-‘‘...आप आलोचक हैं।  कविगण आपकी कृपादृष्टि के आतुर. कहें तो वे आपके चरणों में मेरा सिर काट के रख देंगे इस उन्माद भारी बात के बात. आप इतने बेवकूफ नहीं कि "अधिकांश कवि" और "हिंदी के कवि" में आप को फर्...क नहीं पता हो. लेकिन भाजपाइयों की तरह ऐसा करके अपनी दुकान चमकाने में आपको परहेज नहीं. आपको सर चाहिए, ले लीजिये मेरा. मैं न कवि हूँ न आलोचक. पाठक हूँ. आप कहें तो तौबा कर लूं हिंदी साहित्य से
यह भी १९९० के बाद की फितरत है- साहित्य में लंठई और गुंडई. कोई बाहरी न घुसे.
कवि कविता लिखें, आलोचक आलोचना लिखें, तीसरे की क्या मजाल जो चूं-चपड़ करे....‘‘
       यह सब जिनकी वजह से हुआ, उन्हें मैं कुछ नहीं कहना चाहूँगा। क्योंकि मैंने उन्हें अभी किसी वयस्क रचना या बड़े काम के साथ नहीं देखा है। जिसदिन देखूँगा नतमस्तक होकर उनके काम को प्रणाम करूँगा। मैं यहाँ सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि ऐसा क्यों है कि बहस से तर्क को विदा कर दिया जाय ? या कहने वाले की सदिच्छा को नजरअंदाज किया जाय ? या किसी को अकेला पाकर दलबल के साथ हमला किया जाय ? सही जगह पर तो चोट अकेले भी की जा सकती है। फिर गिरोह या गिरोहबंदी की क्या जरूरत ? यह तो और भी बुरा कि लेखक गिरोह बना कर रहे। गिरोह का लेखक होना भी कोई लेखक होना है ?
    अरे भाई सिर पर विचारधारा का हिमालय है और समझ नहीं कि प्रतिरोध का लेखक होना ही सच्चे अर्थों में लेखक होना है। पहले भी कुछ-कुछ लेखक गिरोह बनाते थे। आज अधिकांश लेखक गिरोह में रहते हैं। क्या बायाँ बाजू क्या दायाँ बाजू। पहले के दिग्गज लेखक अपने समय के लेखकों से टकराते थे। वैचारिक और व्यावहारिक असहमतियाँ व्यक्त करते थे। इस नाचीज ने भी अपने ढ़िलपुक दोस्त के बारे में काफी कुछ कहा है। अपने शहर के लोगों के बारे में कहा है। नाराजगियाँ मोल ली हैं। अकेला कर दिया गया हूँ। फिर भी साहित्य का सच कहने में कोई कोताही नहीं की। साठ के आसपास हूँ और एक नये पैसे का पुरस्कार और सम्मान इत्यादि मेरे नाम नहीं है। फिर भी रहता हूँ किस तरह, यह किसे पता नहीं है। अवसर है तो बात साफ कर दूँ कि कोई यह न समझे कि पुरस्कार नहीं है तो पुरस्कारों का विरोध करता हूँ। अरे भाई पुरस्कार लो, एक नहीं हजार पुरस्कार लो पर पुरस्कारों के पीछे भागो नहीं, पुरस्कार तुम्हारे पीछे भागे। क्या आज यह दृश्य नहीं है कि हिंदी का लेखक पैदा होते ही मुँह से जिस शब्द का उच्चारण करता है, वह है-पुरस्कार। पैदा होते ही पहला डग जिस दिशा में भरता है, वह है दिल्ली। आज कितने युवा लेखक साहित्य की राजधानी से दूर रहना पसंद करते हैं ? जो राजधानी से बाहर रहते हैं वे भी बराबर राजधानी के संपर्क में रहते हैं। कुछ ही समय पहले अपने एक नोट में कहा है कि-‘‘ मित्रो! विडम्बना यह कि समाज का ही नहीं, साहित्य का भी अपना एक मध्यवर्ग है। साहित्य का यह मध्यवर्ग भी समाज के मध्यवर्ग की तरह अपने उच्च वर्ग की खुरचन, कृपा और जूठन से खुद को परमतृप्त अनुभव करता है। छोटे-बड़े पुरस्कारो और थोड़ी-बहुत चर्चाओं से खुद को अघाया हुआ जीव समझता है। उसकी शक्ति और सीमा और प्रतिभा से कहीं अधिक (झूठमूठ का) मान-सम्मान पा जाने की यह प्रवृत्ति, उसे साहित्य का जीहुजूरिया और लंठ और एक अर्थ में लठैत भी बनाती है। लठैत कहने से यह भ्रम न हो जाये कि यह वीरता के अर्थ में प्रयुक्त है, इसलिए यह बात साफ कर दूँ कि लठैत का जीवन और कार्यव्यापार मूल्यकेंद्रित नहीं होता है बल्कि वह तो अपने आकाओं का गुलाम होता हैं। वहीं एक वीर का जीवन और कार्य मूल्यकेंद्रित और स्वाधीन होता है। दुर्भाग्यवश जैसे समाज और राजनीति में एक निम्नवर्ग होता है, उसी तरह साहित्य में भी एक निम्नवर्ग होता है। जाहिर है कि निम्नवर्ग के लोग हाशिए का जीवन जीते है। कहना न होगा कि यह हाशिए का जीवन उन्हें बहुत-सी जीवनोपयोगी चीजों से वंचित तो करता है पर उनके जीवन को मूल्य और विचार से संपृक्त करता है और अपने हक के लिए संघर्ष की ताकत भी देता है। साहित्य में भी कुछ लोग हाशिए का जीवन जी रहे हैं। पर अपनी इच्छा से। वे भी चाहते तो कूद कर साहित्य के मध्यवर्ग के डिब्बे में बैठ सकते थे। बस एक अदद या एकाधिक गॉडफादर बनाने की देर थी। गॉडफादर आज सबसे अधिक हिंदी साहित्य में सुलभ हैं। वे तो इसीलिए पैदा ही हुए हैं, अच्छा और अविस्मरणीय लिखने के लिए नहीं। हर शहर के उच्चवर्ग में ये मिल जाएँगे। पर ज्यादातर लेखक राजधानी में गॉडफादर चुनते हैं। क्योंकि वहाँ उनका एक नेटवर्क होता है। गुट होता है। गिरोह होता है। जिसमें कई तरह के प्रभावशाली लोग, संपादक-पत्रकार, संस्थाएँ, अखबार, पत्रिकाएँ और बड़े प्रकाशनकेंद्र होते हैं।
    इस मध्यवर्ग के उड़नखटोले में बैठे हुए वे तमाम लोग हाशिए का जीवन जीने वाले और प्रतिरोध की आवाज पैदा करने वाले लेखकों को बर्दाश्त नहीं कर कर पाते हैं। विडम्बना यह कि उनसे टकरा भी नहीं पाते हैं। वे जो साहित्य में हाशिए का जीवन आज जी रहे हैं, रचना और आलोचना में बेहतर कर रहे हैं। अपने हिस्से का पूरा सच कह रहे हैं। अपने जीवन के ताप से जो रच रहे हैं, वह उन मध्यवर्गीय लेखकों से अच्छा ही नहीं बल्कि नया भी है। इसीलिए ये हाशिए का जीवन जीने वाले, जिन्हें हाशिए का जीवन जीने वाले उपेक्षित और वंचित जन की तरह किसी पुरस्कार और यश की इच्छा नहीं है, वे तो बस साहित्य की धरती के लिए लड़ रहे है। साहित्य के अरण्य के लिए रण कर रहे हैं। आने वाली पीढ़ी के लिए लड़ रहे हैं।
    जैसा कि पहले कहा गया कि अपने-अपने गाफडफादरों और उप गॉफडफादरों के ‘जीहुजूरिया और लठैत’ टाइप के छोटे-बड़े लेखक साहित्य में हाशिए का जीवन जीने वाले लेखकों को अभी साहित्य का नक्सली नहीं कह रहे हैं। ये कुछ भी कहें क्या फर्क पड़ता है....पता नहीं साहित्य के सांगठनिक क्रांतिकारी साथियों को कोई फर्क पड़ता है या नहीं!
     बहरहाल मैं बात अपने मित्र के दर्द की कर रहा था। मुझे ही नहीं मेरे मित्र को भी दर्द है कि आज हिंदी के कवि बिकाऊ क्यों हैं ? जब वे कहते हैं कि-‘‘ समकालीन कविता का संकट क्या है... अधिकांश कवि तो खुद को पाँच पौंड में बेचने पर आमादा हैं ।’’
    मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगता। आज जो बड़े-बड़े कवि दृश्य पर हैं, उनमें कई अमुक-अमुक पुरस्कार के लिए अमुक-अमुक के दरबार में नाक रगड़ चुके हैं ? क्या पुरस्कारों के लिए जुगाड़, राजनीति, तिकड़म और अपनी इज्जत गिरवीं रखना छिपी हुई बात है ? कथित बड़े पुरस्कारों की बात छोड़िए, उस जमाने के पाँच पौंड की बात भी छोड़िए, किसे यह पता नहीं कि आज पाँच सौ रूपये के पुरस्कार के लिए क्या करना पड़ता ? पुरस्कार की पहली शर्त है कि लेखक अपनी जीभ काट कर सरस्वती को प्रसन्न करने के लिए उनके  चरणों में नहीं, सत्ता के शिखर पुरुष को या उनके दरबारियों के चरणों में सौंप देगा या अपने आचरण के माथे पर चिपका देगा और कभी साहित्य की सत्ताओं के खिलाफ एक शब्द नहीं कहेगा। प्रतिरोध की नकली कविता खूब लिखेगा, राजनीति और समाज और धर्म आदि की सत्ता के विरुद्ध आग उगलेगा पर साहित्य की सत्ता के सामने सू-सू कर देगा। क्या पहले के लेखक यही करते थे ? फिर  आज का युवा लेखक यह सब क्यों करता है ? युवा तो बेचारे हैं, जिन्हें कथित बड़े पुरस्कार मिल चुके हैं, वे भी साहित्य के भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शब्द नहीं कहते। साहित्य के इन अघाये हुए लोगों और राजनीति के माननीयों में क्या फर्क है ?
  राजनीति में जैसी भी है, जितनी भी ताकतवर है, एक जनता है। जब भी मौका मिलता है अच्छा करने की कोशिश करती है। जो तख्त है उसी को हरबार उलटती-पलटती है। कभी यह तो कभी यह। पर कुछ करती है। अलबत्ता राजनीति की जनता अभी अपने लिए नया तख्त नहीं बना पा रही है। पर ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन यही जनता अपने लिए नया तख्त बना लेगी। निकाल बाहर करेगी इस-उस गिरोह को। लेकिन भाई साहित्य में जनता कहाँ है ? साहित्य की जनता को कच्चा खा जाने वाले कौन लोग हैं ? आज साहित्य में जनता है तो बची-खुची, बहुत कम है। जो हैं उनके लिए तो मौजूदा तख्त को उलटना-पलटना तो दूर, छूकर बदलाव का एक शब्द कहना तक मुश्किल है। शायद इसी वजह से मित्र को दर्द हुआ और कहा कि लो साहित्य के माननीयों मेरा सिर काट लो...
 यह सब ऐसे चलता रहा तो यह बची-खुची जनता एक दिन अपने लिए गिरोह के लेखकों से इतर दूसरे लेखक चुन लेगी। हजार तिकड़म से जिन्हें पुरस्कार मिल गया है, उन्हें भी तज देगी साहित्य की जनता। हमारे समय में ही पुरस्कारों के लिए रोने वाले लेखक भी मौजूद हैं और पुरस्कारों के शोरगुल से दूर रहकर काम करने वाले लेखक भी। अफसोस यह कि नये लेखक कभी-कभी अच्छे और पुरस्कारों के पीछे न भागने वाले लेखक को बहुत देर बाद पुरस्कार मिलने में पर प्रसन्नता तो व्यक्त करते हैं पर यह सवाल नहीं करते कि भाई इस बुजुर्ग कवि को पुरस्कार देने वाले गलत हैं या मुँह में चम्मच लेकर घूमने वाले कवियों को पुरस्कार देने वाले गलत थे ? क्या सवाल नहीं बनता है ? लेकिन वे क्यों सवाल करेंगे जो खुद फौरन से पेश्तर एक अदद पुरस्कार चाहते हैं ? ऐसे वक्त में जब साहित्य सच का सखा नहीं, झूठ का मित्र है,
मैंने अपने मित्र से कहा:
कम कविता के दिन थे
कुछ करने के दिन न थे
कविता के लिए मरने के दिन न थे
जो मरे मारे गयेए कोई न पूछ थी कहीं।
रोशनी का काम उनके जिम्मे न था
जिनके पास कुछ ढ़का.छिपा न था।
गजब का मंजर था सामने
टुटही हरमुनिया थी
वक्त.बेवक्त राग जैजैवन्ती गवैया थे
वही झाँझ.करताल वही बजवैया थे
बड़े.बड़े घुटरुन चलवैया थे
कुछ थे जो
बाहरी जहाजों पर कूद.कूद चढ़वैया थे
कई तो अपने ऊपर ग्रंथ छपवैया थे।
रटन्त विद्या के दिन थे
एक कविता दौर के अन्तिम दिन थे
दृश्य उन्हीं का था
जिनके जीवन में कोई संग्राम न था
जीवन छोटा था
कम कविता के दिन थे
फिर भी कुछ पागल थे बचे हुए
जिनके हौसले थे कि कम न थे।...
(‘‘जल में’’ से)
     कम कविता के दिनों में कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं। फिर साहित्य में होने का मतलब कुछ लोगों के लिए खतरे उठाना भी है। हाँ जिनके लिए हलवा-पूड़ी खाना है, वे अपने काम में जुटे रहें....




सोमवार, 14 जनवरी 2013

नये कवियों में इतना डर क्यों है

 - गणेश पाण्डेय


बंधुवर, एक बार फिर आपके आयोजन में न पहुँच कर मैंने आपको दुखी किया है। इस बार अस्वस्थ हूँ। इस वजह से। जाहिर है कि वहाँ रचनाशिविर में कई युवा मित्र आयेंगे, जिनसे मिलना मेरे लिए सुखद होता। पर कई बार हम चाहते हैं कुछ और हो जाता है कुछ। ऐसे ही आज की कविता के साथ भी होता है। कई बार आज की कविता जिसे हमारे पास आना होता है और हमारे पास आ नहीं पाती है। कभी कविता की सेहत खराब होती है तो कभी कविता का टिकट पक्का नहीं होता है। कभी-कभी कविता की गाड़ी छत्तीस घंटे लेट होती है। कभी कोहरे में कहीं कोई दुर्घटना या पहिये का पटरी से उतर जाना वगैरह, जैसी तमाम स्थितियाँ समकालीन कविता ( जिसे मैं नई सदी की कविता कहना पसंद करता हूँ ) कही जाने वाली कविता के साथ अक्सर होती हैं। फिर भी कविता की गाड़ी तो चलेगी ही, चाहे जैसे। ऐसे ही कविता की गाड़ी भी चल रही है। कोई सुपरफास्ट गाड़ी नहीं है। बस, एक सवारी गाड़ी है, जिसमें अच्छा-बुरा कोई भी बैठ सकता है। टिकट हो या न हो, कोई मजिस्टेªट चेकिंग नहीं है। डर तो रत्तीभर नहीं है। डिब्बे में कहीं भी गंदगी कर सकते हैं,मूंगफली के छिलके फेंकना तो आम बात है, छेड़खानी से लेकर चीरहरण और किसी की गठरी, किसी का पर्स, किसी का ब्रीफकेस लेकर दिनदहाड़े भागने तक कांड तो कोई भी कर सकते हैं।
  आज की कविता के अनेक कांड हैं। लंका कांड भी है। कांड करने की कला में प्रवीणों के बारे तो पूछिए मत। पृथ्वी पर कोई ऐसा कांड नहीं है, जिसे ये कर न सकें। कविता का टेंटुआ सौ प्रकार से दबाने की कला में इन्हें महारत हासिल है। ये इस धरती पर कविता को मिटाने के लिए ही पैदा हुए हैं। पर इनमें सब का तरीका जुदा-जुदा है। कोई कविता की कानी उँुगली काट कर तृप्त हो जाता है तो कोई उसकी बाँह में चिकोटी काट कर तो कोई उसका दुपट्टा खींच कर तो कोई उसके मुँह पर तेजाब फेंक कर। ये जंगली कवि हैं। ये वहशी आलोचक हैं। कविता इनके लिए सामाजिक होकर भी पैरों में रहने वाली बीवी और दिल में बसने वाली प्रेयसी जितनी व्यक्तिगत है। कवि की सेवा करे, आलोचक से इश्क फरमाये और इन दोनों को पुरस्कार और सुख-सुविधाएँ दिलाए। कहने के लिए ये पठनीयता और पाठक का राग काढ़ते हैं, पर इनका पाठक नाम की विलुप्त प्रजाति से कुछ भी लेनादेना नहीं है। पठनीयता की बात क्या खाक करेंगे, जब ये खुद इस मोर्चे के फिसड्डी होते हैं। पर बनते हैं ऐसे जैसे राजधानी में बैठ कर पूरे देश से बात करते हों और सब सुन और गुन रहे हों। राजधानी के नेता सौ फीसदी झूठ बोलते हैं तो साहित्य के ये नेता दो सौ फीसदी झूठ बोलते हैं। ये मानते हैं कि जैसे मकान राजधानी में शहरी तौर-तरीके के बनते हैं, मकान वैसे ही होते हैं। कविता के मकान वैसे ही होने चाहिए। ये हरगिज इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते कि राजधानी से हजार किलोमीटर दूर छोटे-मोटे कस्बों और गाँवों में खपरैल और कच्ची मिट्टी की दीवारों से बने खपरैल और फूस के घर भी उतने ही संुदर हो सकते हैं या उसमें रहने वाले मनुष्यों या चरित्रों का या उनका हृदय उनसे अधिक निर्मल हो सकता है।
    यह चिंता स्वाभाविक है कि हमारे समय में कविता का श्रेष्ठ मॉडल चंद पुरस्कारीजन कैसे तय कर सकते हैं। यह तो वही बात हुई कि इस देश की जनता का भविष्य सिर्फ कुछ अघाये हुए प्रतिनिधि लोग तय करें। राजनीति में तो यह नहीं सभंव है कि चुने हुए प्रतिनिधियों को उनके आसन से नीचे उतार दें, पर साहित्य में ऐसी कार्रवाई की एक श्रृंखला है। अपने समय के बहुत से जरजरात कवियों को एक नन्हे जुगनू भर की हैसियत भी बाद में नहीं मिली। ऐतिहासिक क्रम का लाभ भले मिल गया हो। इसलिए आज के कवि और आलोचक को यह देखना होगा कि वह कहाँ खड़ा है ? उसे तय करना होगा कि वह गोरखपुर, सिद्धार्थनगर, देवरिया, बलिया या बनारस, रायपुर, रायगढ़, बिलासपुर का कवि है या दिल्ली का ? अगर उसके भीतर अपनी कर्मभूमि के प्रति तनिक भी लगाव है तो उसे अपनी मिट्टी की आवाज को बड़े गौर से सुनना होगा। अगर वह अपनी मिट्टी का गद्दार है तो मुझे उस गंदे आदमी से कुछ नहीं कहना है। मुझे अपने लोगों से बात करनी है। अपनों के बीच में रहना है। उनका होकर। मुझे देखना है कि आज की कविता में हमारे अंचल, हमारे परिवेश, हमारे अड़ोसपड़ोस, हमारे जीवन की पुकार है कि नहीं ? यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं गोरखपुर और सिद्धार्थनगर जैसी जगहों के नामीगिरामी गद्दार आलोचकों को भी जानता हूँ। ऐसे कवियों को भी जानता हूँ, जिन्हें अपनी कविता से अधिक प्रेम आलोचकों की झूठी शाबाशी से है। हमारे समय की कविता की दुनिया में टूटफूट की असल वजह भी यही है। आलोचक कहेगा कि फलाना विमर्श और फलाना विचारधारा अमृत है तो ये कूड़े के ढेर पर बैठकर उसका पान करने लगेंगे। फलाना आलोचक-कवि कहेगा कि स्त्रीदेह ही कविता का परम सत्य है तो ये उस आलोचक कवि को महान कवि समझने लगेंगे। वही आलोचक बड़े गर्व से कहेगा कि मैंने कोई एक हजार कविताएँ लिखी हैं, तो ये युवा कवि-लेखक उसे संख्या के आधार पर सचिन की तरह कविता का महान खिलाड़ी समझ लेंगे। कविता की दुनिया में भला संख्या का क्या महत्व ? यह कोई क्रिकेट का खेल थोड़े है। एक बार मेरे शहर में हरदम ससुरा-ससुरा कहने वाले एक ऐसे ही कवि ससुरे आये हुए थे और जब वे हजार कविता लिख चुकने की रट लगाये जा रहे थे तो मुझे लग रहा था कि वे भारतरत्न जैसी कोई चीज चाह रहे हैं क्या ? किसी की भी हजार कविताएँ आज तक स्मरणीय नहीं रही हैं। कुछ कविताएँ होती हैं जो याद रह जाती हैं। जब निराला की सभी कविताएँ स्मरणीय नहीं हुईं तो किसी अमुक-ढ़मुक की कितनी कविताएँ याद की जाएंगी ? मुझे तो लगता है कि खराब कविता, पान की पीक की तरह थूकते हुए लिखी जाती है तो अच्छी कविता कवि के ईमान और गहरे सरोकर से बनती है और स्मरणीय कविता के लिए कवि को अपना पूरा जीवन उसके सुपुर्द कर देना होता है। तब कहीं जाकर ढंग की कोई कविता बन पाती है।
  यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पान की पीक वाली कविताएँ अधिक हैं। आलोचना के साथ भी यही बात है। नित्य रिव्यू और अपने चाहने वाले औसत कवियों को उम्दा कवि बनाने की विफल कोशिश आखिर है क्या ? जैसे कविता में अच्छे विचार आते हैं, उसी तरह कविता में कवि का विवेक भी आना चाहिए। जब नाई बाल काटने में तनिक भी जल्दबाजी नहीं करता है, एक माँ अपने बच्चे को दूध पिलाने में जल्दबाजी नहीं करती है, खुद आप अपने नाखून काटने में जल्दबाजी नहींे करते हैं तो भाई कविता के साथ ही यह लड़ाकू विमान की गति क्यों ? ठहर कर चलिए, नही तो चोट लग जायेगी। आप को न सही, आपकी कविता का हाथपाँव टूटफूट जायेगा। फिर बेचारी कविता का क्या होगा ? आप तो किसी भी रंग और कदकाठी के पुरस्कारों के संग कहीं हनीमून मनाने चले जायेंगे। आपका क्या ? और आलोचक आपका ? यह जल्दबाजी केवल कविता की बुनावट को लेकर नहीं है, संवेदना की पहचान को लेकर भी है। उन्हीं-उन्हीं दुकानों के पान, वही मगही पान का बीड़ा, वही गमकने वाली जर्दे की खुश्बू, वही चूने का कम या तेज हो जाना। सुपाड़ी खाना, सुपारी लेने में बदल जाना। कविता की मुश्किलों का अंत नहीं है।
  कविता की संवेदना या यथार्थ का दुहराव और रचाव की पुनरावृत्ति , एक बड़ी समस्या है। यह समस्या पहले भी रही है। पर पहले के कवि जानते थे कि मुख्यधारा में बह कर किया गया लेखन महत्वपूर्ण नहीं होता है। इसलिए उन्होंने अपनी निजता की छाप को तजने की कोशिश नहीं की है। मुझे तो मुक्तिबोध जैसे कवि में भी उनकी अपनी छाप खूब दिखती है। दुर्भाग्यवश आज दृश्य यह है कि प्रगतिशील मित्रों ने प्रगतिशीलता के मुहावरे और कविता के औजारों के चुनाव में अपने विवेक का कम इस्तेमाल किया है। बस, ऐसे-ऐसे और इन्हीं-इन्हीं रास्तों पर दौड़ लगाते हुए कविता का मैराथन जीत लेना है। मुक्तिबोध कैसे प्रेम के प्रतीक चाँद को पूँजीवाद का प्रतीक बना देते हैं, मुक्तिबोध कैसे मार्क्सवाद के साथ ईमानवाद को मिला देते हैं, मुक्तिबोध कैसे विचारधारा को अपने समय और जीवन की आँख से देखते हैं, इस बात से आज के घोषित प्रगतिशील युवा मित्रों को क्या कुछ लेना-देना है ? उन्हें कठिन जीवन जीने वाले कवि नहीं दिखते हैं। उन्हें अपने समय का सुगम संगीत अधिक भा रहा है। पुरस्कारों के इस जमाने में मार्क्सवाद मुझे तो कभी-कभी मजाक लगता है। इतना छोटा हो गया है आज मार्क्सवाद कि पाँच सौ रुपये के पुरस्कार से भी छोटा लगता है। सामाजिक सरोकारों का राग काढ़ने वाले नौजवानों का पुरस्कारों के खड्ड में कूद जाना क्या खुदकुशी नहीं है ? अच्छी कविता का रास्ता पुरस्कारों के पेड़ के नीचे से होकर नहीं जाता है। यह जाने बिना हम अपने समय की अच्छी कविता रच ही नहीं सकते हैं। पिछले दिनों एक कवि से बातचीत के क्रम में यशपाल का संदर्भ आ गया तो कहा कि जैसे यशपाल जैसे कथाकार एक ओर परदा जैसी कहानी लिखते हैं तो दूसरी ओर करवा का व्रत जैसी दाम्पत्य संबंधों पर लिखी कहानी से प्रगतिशीलता का पाट चौड़ा करते हैं, उसी तरह या उससे भी अच्छी तरह कविता के परिसर को चौड़ा करना चाहिए। प्रगतिशीलता का प्रेम, प्रकृति और घर-संसार से कोई बैर नहीं है। हर समय तनी हुई मुट्ठी ही नहीं रहनी चाहिए, कभी उुँलियों को उनके स्वाभाविक मुद्रा में भी रहने देना चाहिए। ताकि वे अपने बच्चों और प्रिया के केश छू सकें। सहन में लगे गेंदे के फूल को जीभर निहार सकें। अपनी गाय, अपनी बकरी, अपने श्वान की पीठ सहला सकें। अपने आसपास को गौर से देख और महसूस कर सकें। आर्थिक उदारीकरण और विश्वबैंक और विश्व मुद्रा कोष के विरोध में हजारों कविताएँ लिखी गयी हैं, पर उनमें से अच्छी कविताएँ कितनी हैं , अविस्मरणीय कविताएँ भी हैं क्या ? साम्प्रदायिकता पर भी हजारों कविताएँ लिखी गयी हैं, पर अच्छी और अविस्मरणीय कितनी हैं ? मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि एक कवि को इन विषयों पर काव्य रचना से मना किया जाय, पर इतना जरूर चाहता हूँ कि मिनट-मिनट पर ऐसी ही कविताएँ लिखने के नुकसान से वाकिफ कराया जाय। एक कवि इस तरह के विषयों पर दस-पन्द्रह कविताएँ लिख दे या एक-दो अच्छी कविताएँ बन जायें तो बहुत है। इन पर एक समय में मैंने भी लिखा है। लेकिन आज तक वही लिखता रहूँ, यह मेरे लिए संभव नहीं है। औरों को भी इससे बचना चाहिए। नये कवियों को दूसरी तरफ भी देखना चाहिए कि कोई और दृश्य, कोई और अनुभव, कोई और संवेदना उसकी राह देख रही है। कोई और है जिसे उसका इंतजार है। कोई और उसे पुकार रहा है। पहुँचो कवि, पहुँचो उसके पास।
  सत्ता के विरोध में भी बहुत-सी कविताएँ लिखी गयी हैं। प्रतिरोध की संस्कृति का दौर पहले भी रहा है और आज भी है। भक्तिकाल की संत कविता में कम प्रतिरोध नहीं है। आज की कविता में प्रतिरोध, क्या उतनी ही कविताई के साथ मौजूद है ? किसी लेख के प्रतिरोध का स्वर और प्रभाव क्या वही होगा जो एक अच्छी कविता का होगा ? क्या प्रतिरोध की कविता को लेख या ठस गद्य हो जाना चाहिए ? यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि कविता की सबसे बड़ी दुश्मन कोई दायें बाजू या बायें बाजू की इचारधारा-विचारधारा नहीं है, बल्कि कवि की खुद की हड़बड़ी ही उसकी कविता की दुश्मन नम्बर एक है। हाँ, यह भी कहना जरूरी है कि एक कवि की सभी कविताएँ बहुत कसी हुई और बड़े आशयों वाली नहीं होती हैं। बड़ी कविता या स्मरणीय कविता, सभी कविताएँ हो भी नहीं सकती हैं। अच्छा कवि जानता है कि उसकी कौन-सी कविता अच्छी है और कौन-सी कविताएँ सामान्य। पर जो कवि अच्छे नहीं होते हैं या नये होते हैं, वे अपनी कविता में नुक्स देख नहीं पाते हैं। शायद आज के कवियों की एक बड़ी समस्या यह भी है।
   इधर कविता में आंदोलन या विमर्श का आलम यह है कि कविता को राजनीति का औजार बनाने या उसे सीधे राजनीतिक कारर्वाई में बदलने की विकलता का अनुभव किया जा रहा है। हिंदी में विमर्श के नाम पर बहुत कूड़ा-करकट इकट्ठा कर दिया गया है। स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श। कवयित्रियाँ जो-जो बाहर कर पाना संभव नहीं है, सब कागज पर कर देना चाहती है। तुरत सृष्टि को उलट-पुलट देने के लिए विकल हैं। यह बात सभी कवयित्रियों के लिए नहीं कह रहा हूँ। क्योंकि बहुत-सी कवयित्रियाँ अच्छा लिख रही हैं। अपनी पूरी स्वाभाविकता और स्थानीयता के साथ। सब इस देश में रह कर विदेश में रहने वाली स्त्री जैसी मुद्रा नहीं अपना रही हैं। सच तो यह कि विदेश में भी जो स्त्रियाँ अपनी जड़ों से जुड़ी हैं, वे भी अस्वाभाविक या कृत्रिम क्रांति की बात नहीं कर रही हैं। दुर्भाग्य यह कि दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों की स्त्रियाँ नहीं बल्कि छोटे शहरों की कुछ गाँवगिराँव से जुड़ी कवयित्रियाँ अस्वाभाविक मुद्रा का प्रदर्शन कर रही हैं। मैं तो पाँच हजार से भी अधिक मित्र बनाने वाली ऐसी कुछ कवयित्रियों की बात कर रहा हूँ, जिन्हें कुछ लोग पता नहीं किस स्वार्थवश प्रमोट करने की कुचेष्टा करते रहे हैं। अभी दो दिन पहले फेसबुक पर एक रचनाकार मित्र ने एक कवयित्री पर अपनी गजल के एक शेर को चोरी कर लेने का आरोप साक्ष्य सहित लगाया है, तमाम मित्रो ने इस साहित्यिक चोरी पर तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। यह भी कहा कि इसके लिए आलोचकों और प्रमोटरों की भी जवाबदेही बनती है। दुर्भाग्य यह कि साहित्य की सबसे बड़ी अकादमी के एक बड़े पदाधिकारी ही ऐसी कवयित्रियों या कवियों को प्रमोट करने के काम में लगे हुए हों तो साहित्य की समस्याएँ कितनी गंभीर होतीे जायेंगी, सहज अनुभव कर सकते हैं। यह सभी कवयित्रियों का सच नहीं है, सिर्फ कुछ कवयित्रियों और कवियों का सच है , अलबत्ता यह आज के प्रमोटरों का सौ फीसदी सच है। प्रसंगवश कहना चाहता हूँ कि जैसे कथा साहित्य में कुछ महिला कथाकारों ने बहुत अच्छा काम किया है, कुछ उसी तरह का अच्छा काम कवयित्रियों को भी करना चाहिए था। पर कविता के आलोचक उन्हें ऐसा करने देते, तब न!
     आज का नया कवि क्यों इस बात से परेशान है कि जल्दी से उसकी कविता छप नहीं जायेगी या लोग उसकी चर्चा नहीं कर देंगे तो उसका जीवन विफल हो जायेगा। सफलता के इस शार्टकट में कम पूँजी से भारी लाभ कमाने का लोभ और एक लेखक के अनिवार्य आत्मसंघर्ष से भागने की उसकी छवि में उसका डर उसके चेहरे पर चस्पा हो गया है, यह उसे पता नहीं है। नये लेखकों में यह डर चिंता की बात है कि आत्मसंघर्ष के पथ पर एक भी डग भरते हुए थरथर काँप रहे हैं, उन्हें क्यों ऐसा लगता है कि आत्मसंघर्ष बाघ है, उनके जीवन और उनके स्वप्न को खा जायेगा (उनका यश और पुरस्कार खा जायेगा )। हजार कमजोरियों को लेकर ही वे साहित्य की दुनिया में पैदा हुए हैं। उनमें आत्मसंघर्ष की तनिक भी कूवत नहीं है और उन्हें यश और पुरस्कार बड़े से बड़ा चाहिए, उनकी इस बेजा चाहत ने उन्हें न जाने क्या-क्या बना दिया है। आज के साहित्य का सबसे बुरा यह है कि लेखक को आत्मसंघर्ष जैसी किसी चीज पर भरोसा तो दूर, उसे उसके बारे में ढ़ंग से पता तक नहीं है, वह केवल अपने गॉडफादर को जानता है और उसी पर आँख मूँद कर भरोसा करता है। यह भी कम दुर्भाग्य नहीं है कि आज नासमझी इस हद तक है कि जिस आलोचक ने खुद कुछ अच्छा न किया हो, उससे अच्छे की सनद नये लेखक क्यों चाहते हैं। इतना डर क्यों है आज नये लेखकों में ? जब कवि ही स्वाधीन नहीं होगा तो स्वाधीनता और संघर्ष की कविता क्या खाक रचेगा ?
   कविता में तो कुछ अच्छा कहीं-कहीं दिख भी जा रहा है, पर कविता की आलोचना तो बंजर में बदल चुकी है। जगह घेरेगी ज्यादा, दुर्गन्ध छोड़ेगी ज्यादा और सिर पर चढ़ कर बोलेगी ज्यादा। कहना बेहद जरूरी है कि कवि के बाद कविता का दुश्मन नम्बर दो आलोचना ही है। आलोचक तो खैर सिर्फ कविता का ही नहीं, पूरे साहित्य का दुश्मन है। हिंदी समाज का दुश्मन है। ऐसे पेशेवर दुश्मनों के बीच कविता बची रह जाय, कवि उम्मीद जगा पायें, यह बड़ी बात है। लेकिन यह संभव कैसे हो, यह भी एक बड़ी समस्या है।
  दलित विमर्श के नाम पर इधर ऐसी कविताएँ आयी हैं, जिनमें कविता का अंश नमक के बराबर भी नहीं है। (जीरे वाला मुहावरा बहुत घिस गया है, इसलिए नमक कह रहा हूँ, शायद ऐसे ही कविता के मुहावरे के बारे में भी सोचना चाहिए। ) कविताएँ शुरुआती दौर में तो किसी फैशन में लिखी जा सकती हैं, लेकिन एक-दो संग्रह आने के बाद भी मामला ऐसे ही रहता है तो समझिए कि ऐसे कवि सिर्फ सतह के कवि हैं। अच्छे कवि अपने पहले संग्रह में ही अपनी छाप छोड़ते लगते हैं। मुझे याद है कि देवेंद्र कुमार बंगाली जो स्वयं दलित कहे जाने वाले समाज से जुड़े हुए व्यक्ति थे, उन्होंने न तो कवि के रूप में मूल्यांकन किये जाने के लिए दलित होने के आधार पर कोई छूट माँगा और न अपनी नौकरी में प्रमोशन के लिए दलित होने का लाभ लिया। लेकिन यह कहना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह निवेदन करना कि मेरी दृष्टि में आज जितने भी दलित कवि हैं, उनसे कविताई में बहुत पीछे हैं। साठोत्तरी हिंदी कविता के आलोक में उनकी कविताएँ कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह अलग बात है कि वे किसी बड़े आलोचक के जवार के नहीं थे। न तो उन्होंने कविता की काशी में डुबकी लगायी न दिल्ली में। यह इसलिए कह रहा हूँ कि उनका मानना था कि हिंदी कविता की विकास यात्रा में संत कविता का जो पुष्ट आधार है, उसमें दलित जीवन की वेदना और प्रतिरोध को बड़ी ताकत और कलात्मकता के साथ व्यक्त किया गया है। मराठी की स्थिति और हिंदी की स्थिति में फर्क है। उन्होंने बहुत अच्छे नये गीत भी लिखे हैं। लिखा कम है, पर जो है महत्वपूर्ण है। यह भी इसलिए कह रहा हूँ कि आज के दलित विमर्श प्रेमियों को इस कवि पर भी गौर करना चाहिए। पर जहाँ बहुत जल्दी और किसी भी तरीके से कवि हो जाने या मशहूर हो जाने या पुरस्कृत हो जाने की हड़बड़ी हो, वहाँ कविता के पक्ष में इस माँग का हश्र क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह अलबत्ता कहा जा सकता है कि आज भी कुछ ऐसे कवि हैं, जिन्हें कवि होने के लिए दलित समाज से जुड़े होने की सनद की जरूरत नहीं है। वे कला की शर्तों पर कवि होना पसंद करते हैं। कविता की दुनिया में किसी आरक्षण या छूट की बात नहीं करते हैं। ऐसे कवियों में दिल्ली में रहने वाले एक मित्र का नाम मेरे सामने है, जिनसे काफी वक्त से नहीं मिला हूँ पर जानता हूँ कि वे भी बंगाली जी की तरह कविता में कविता की शर्तों के साथ प्रवेश करते हैं। आदिवासी जीवन की वेदना को और उसके पूरे संघर्ष को कविता के कागज पर ठीक से उतारते हैं। ऐसे और भी लोग हो सकते हैं। कुछ अपवाद तो हर जगह होते हैं। एक और दलित कवि-आलोचक मित्र हैं, जो दलित विमर्श को तंग नजर से नहीं देखते हैं, एक बार गोरखपुर आये थे, मैंने उनसे पूछा कि भाई ये तो बतलाइए कि यदि दलित जीवन पर कोई फिल्म बने तो उसमें दलित चरित्र का अच्छा अभिनय आप करेंगे या नसीरुद्दीन शाह ? वे बोले , जाहिर है कि वही करेंगे। यह इसलिए कह रहा हूँ कि इस विमर्श की बाधा कला ही नहीं सोच भी है। यह सोच की हम अपनी बात अच्छी तरह कहेंगे, दूसरा नहीं कह सकता। जब फिल्म में दूसरा अच्छा काम करेगा, कचहरी में दूसरी जाति का वकील चलेगा, डॉक्टर भी विजातीय स्वीकार है तो साहित्य में ही ऐसी जिद क्यों कि दलित जीवन पर अच्छी कविता सिर्फ हम लिखेंगे। किसी कवि का प्रयोजन यदि सिर्फ कविता लिखना है तो वह अच्छा कवि नहीं, जिस कवि का प्रयोजन अच्छी कविता लिखना होगा और लिखेगा, जाहिर है कि वही अच्छा कवि होगा। यह दिक्कत दलित और गैर दलित सभी कवियों के साथ है। मेरे आलोचक मित्र नाराज न हों तो कहना चाहता हूँ कि आलोचना का परिदृश्य ऐसी दिक्कतों से अटा पड़ा है। जहाँ अच्छी आलोचना से आलोचक का कुछ नहीं लेनादेना है। उसे तो बस कुछ तुरत और नकद चाहिए। यह तुरंता छाप कविता और गैरजिम्मेदार आलोचना का समय है क्या ? यह जानना बहुत जरूरी है। जान कर कुछ करना भी बेहद जरूरी है। जो कुछ नहीं करेंगे, सिर्फ अपने समय की साहित्य की धारा में बहेंगे, वे बह जायेंगे। बचेंगे वही जो बचना चाहेंगे, जो धारा को कोई मोड़ देने की कोशिश करेंगे। यह प्रश्न बेचैनीभरा है कि धारा के विरुद्ध खड़े होने में आज नये कवियों में इतना डर क्यों है ?




रविवार, 6 जनवरी 2013

वस्त्र और विचार

- गणेश पाण्डेय


किसी शव को कफन की क्या जरूरत हैै ? दूसरा सवाल यह कि शव खुद यह तय करता है कि उसे कितना और कौन-सा कफन चाहिए ? तीसरा सवाल यह कि क्या उसके घरवाले या रिश्तेदार यह तय करते हैं ? चौथा सवाल यह कि क्या कि कुछ लोगों का समूह या कोई वृहत्तर मूर्त या अमूर्त समाज यह तय करता है ? पांचवां सवाल कि समाज नाम की किस काल की संस्था ने कफन का मौजूदा रूप तय किया है ? छठा सवाल यह कि स्त्री और पुरुष दोनों के कफन एक जैसे क्यों तय किये गये ? सातवां सवाल यह कि हिंदू धर्माचार्यों का कारनामा है यह सब कि कुछ और ?
 दरअसल यह सब जो कह रहा हूं वह नहीं कहना है। यह तो बस ऐसे ही सुविधा के लिए कह रहा हूं। कहना यह कि हम अंगरखा हमेशा अपनी पसंद का पहनते हैं या कभी-कभी घरवालों की पसंद का भी ? बचपन में तो शायद सब मां-पिता, दादा-दादी, बुआ-दीदी, नाना-नानी,मामा-मामी आदि की पसंद का पहनते हैं ? क्यों ? हां-हां भाई क्यों ? उस समय विचार का कोई संकट क्यों नहीं पैदा होता है ? आधुनिकता या प्रगतिशीलता खतरे में क्यों नहीं क्यों नहीं होती है ? उस समय भी यह खतरा नहीं दिखता है, जब कोई बच्चा आग छूने की जिद करता है ?
  स्कूल-कालेज में वहां का प्रशासन यूनीफार्म क्यों तय करता है ? सेना या पुलिस आदि की वर्दी क्यों तय की गयी है ? किसी समाज ने तय किया है ? किसी धर्माचार्य ने तय किया है ? हमारे यहां नेताजी लोगों की वर्दी खद्दर का कुर्ता-पाजामा क्यों है ? किसने तय किया है ? संविधान में कुछ ऐसा है ? गांधी जी की कोई वसीयत है ? मुसलमान स्त्री बुर्का क्यों पहनती हैं ? हिंदू दुल्हन घूंघट क्यों काढ़ती हैं ? किसी-किसी दफ्तर में खास तरह की टाई क्यों लगाते हैं ? अदालतों में जज साहब और वकील साहब काला लबादा क्यों पहनते हैं ? उफ., ये फेहरिश्त तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है और मैं अपनी बात शुरू ही नहीं कर पा रहा हूं। शायद मैं कहना चाहता हूं कि कपड़ा अपनी पसंद का पहनने की आजादी हो ? शायद मैं यह नहीं कहना चाहता हूं कि  कपड़ा अपनी पसंद का पहनने की आजादी हो ? शायद मैं यह कहना चाहता हूं कि अपनी पसंद का कपड़ा पहनने की आजादी हो लेकिन यह आजादी एक तरफा न हो ? कि कोई चाहे तो कपड़ा पहने और न चाहे तो कपड़ा ही न पहने और सड़क पर ऐसे ही घूमे ?
    शायद मैं यह कहना चाहता हूं कि अपनी पसंद का कपड़ा पहनने की आजादी तो हो लेकिन कितना कम कपड़ा पहनें या कितना अधिक कपड़ा पहनंे इस पर देशभर में एक कपड़ा विमर्श शुरू किया जाय ? कपड़ा भी कविकर्म का जरूरी हिस्सा है। कई कविताओं में सौंदर्य को अधखुला रखने की बात की गयी है। कुछ खुला हो, कुछ ढ़ंका हो ? क्या पुरुष अपना बदन अधिक खोल कर चलते है ? क्या वे सीने के बाल दिखाते हुए घूमते हैं ? क्या फिल्म के हीरो भी बाहर अपनी बॉडी का प्रदर्शन करते हैं ? या सिर्फ फिल्मों में ही ऐसा करते हैं ? कहना तो यह भी चाहता हूं कि वे फिल्मों में ऐसा क्यों करते हैं ? कौन है जो उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करता है ? या पैसे के लिए ऐसा करते हैं ? कौन हैं जिनसे उन्हें इस काम के लिए पैसे मिलते हैं ? फिल्म में स्त्ऱी-पुरुष सभी कलाकार पैसे के लिए ऐसा क्यों कर रहे हैं ? यह भी एक बड़ा सवाल है ? फिल्म ही नहीं, विज्ञापन और पत्रकारिता, क्या सब इस पैसे के धंधे में शामिल नहीं हैं ? हैं, हैं सौ फीसदी हैं। तो शायद मैं कह रहा था कि कौन है जो तय करेगा कि कैसी फिल्में बनें ? कैसे धारावाहिक टीवी पर आयें ? कैसे विज्ञापन हों ? अखबारों पर या टीवी पर अश्लील चित्र या विज्ञापन न दिखें ? सरकार का क्या काम है ? सरकार की क्या जरूरत है ? साहित्य क्यों हो ? बुद्धिजीवी और लेखक जी लोग नित्य विचारक या छींकवादी विमर्शकार क्यों हों ? बात-बेबात मिनट-मिनट पर असंख्य बेवकूफियां ? काम की बात क्यों नहीं ? पहले पुलिस ही सही होगी नेताजी बाद में सही होंगे ? नेताजी ही पहले सही होगे, लेखक जी बाद में सही होगे ? पत्रकार जी भी लेखक जी लोंगे के साथ ही होते हैं। लेखक जी भ्रष्टाचार करें तो सब चुप ? पत्रकार जी भ्रष्टाचार करें तो सब चुप ? नेताजी और पुलिस जी पर भिड़ जायेंगे सब ?  पुलिस भी जनता की सुरक्षा के लिए है या नेताओं की सुरक्षा के लिए ? इस देश में पूंजीवाद से कम बड़ा खतरा वी.आई.पी वाद है ? वी.आई.पी. पूंजीवाद के दांत, आंख, कान और नाक नहीं हैं ? इनकी सुरक्षा के भारी-भरकम इंतजाम के खिलाफ बुद्धिजीवी और लेखक कब बोलेंगे ? बहरहाल मैं शायद कुछ और कह रहा था। क्या कह रहा था....जरा याद दिलाइएगा....
 हां, शायद मैं कपड़ा विमर्श पर कुछ कह रहा था... शायद कपड़ा विमर्श कर रहा था... नहीं-नहीं, विमर्श तो नित्य विचारक करते हैं। मैं तो सिर्फ अपनी बात कह रहा था। हां, सवालों की कतार में या कह लें कि जाम में फंसा हुआ हूं...कौन तय करेगा कि हम क्या पहने और क्या न पहने ? हम खुद या हमारे मां-बाप या हमारे शुभेच्छु ? कपड़ा तो कपड़ा साहब रंग तक तय कर दिये जाते हैं कि आप लाल रंग कर इस्तेमाल नहीं करेंगी...
‘वे जानते और मानते थे, बेशक
तमाम मुल्कों की बागडोर संभाल सकती थीं
औरतें
फतह कर सकती थीं सागरमाथा
लिख सकती थीं अच्छी कविताएँ
सोच सकती थीं दुनिया के बारे में
खूब,
एक अपने बारे में नहीं।
यही ऊपर का हुक्म था
ऐसा ही वे सोचते, जानते और मानते थे।
वे जानते और मानते थे, अच्छा नहीं होता
औरतों का इस तरह रंगों से मेलजोल।
क्रूर प्रतिबंध और नियम की धार से
वे खुरच देना चाहते थे
औरतों के शरीर से
पहनावे और उनके जीवन से
लाल, हरे, पीले, नारंगी जैसे
चटकीले रंग।
वे थे तो बड़े ताकतवर
बहुत कुछ कर सकते थे
बैठे-बैठे कुछ भी बदल सकते थे
अच्छे खासे आदमी को भेंड़
और भेंड़ को आदमी कर सकते थे।
बस शरीर के भीतर का रंग नहीं बदल सकते थे
वह, जो बहता चला आया था
शुरू से उन औरतों के शरीर में
उसी तरह लाल चटक। ’
(यह दुनिया-2)
सवाल यह है कि ऐसा करने वाले या ऐसा चाहने वाले क्रूर और धर्मांध लोगों के अज्ञान का विकल्प क्या है ? क्या पहनावे की बंदिश का जवाब कुछ भी न पहनना या शरीर के उभार वाले हिस्सों को दिखाने वाले तंग कपड़े पहनना है ? क्या अज्ञान, अप्रगतिशीलता और अवैज्ञानिकता का विकल्प फैशन है ? फैशन, क्या विज्ञान और क्रांति है ? फैशन क्या अश्लीलता है ? अश्लीलता क्या आधुनिक विचार है ? आधुनिकता और वैज्ञानिकता क्या अंगरखे से तय होने वाली चीज है ? पुलिस की वर्दी में शर्ट और पैंट पहन कर मोटरसाइकिल चलाती हुई बेटियों में अश्लीलता क्यों नहीं दिखती है ? जींस पहनना भी उस समय बुरा नहीं लगता है, जब वह तंग नहीं होता है। लेकिन तंग जींस या ऐसा कोई भी कपड़ा बस जरा-सा ढ़ीला करके बनवाने से हमारी आधुनिकता खतरे में पड़ जायेगी ? हम सोलहवीं सदी में पहुंच जायेंगे ? अज्ञानियों और धर्मांध लोगों का जवाब आंख मूंद कर देना कतई बुद्धिमानी नहीं है। गांधी आश्रम के कपड़े पर कहीं- कहीं गांधी जी के हवाले से लिखा होता था कि ‘‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’’ क्या आज उसके जवाब में हम कह सकते हैं कि तंग कपड़े वस्त्र नहीं, विचार हैं ? गांधी जी कम कपड़े पहनते थे तो क्या आज बच्चों को यह जानने की जरूरत नहीं है  कि वे ऐसा किसी फैशन की वजह से करते थे या इस विचार की वजह से कि शेष भारतीयों को भी तन ढ़कने के लिए वस्त्र मिले ? क्या आज कम कपड़ा पहनने या भद्दा लगने वाला कपड़ा पहनने का चलन किसी फैशन इत्यादि की वजह से है या देश और समाज से जुड़े किसी अच्छे विचार की वजह से ? क्या यह देखने की जरूरत नहीं है कि इसमें कोई अज्ञान या कुविचार तो नहीं है ? बातें काफी की जा सकती हैं। पर यहां न तो किसी का दिल दुखाना उद्देश्य है न किसी को छोटा बनाना। पर यह कहना चाहता हूँ कि बातें जो भी सामने हों उनका तर्कसंगत विश्लेषण जरूर करना चाहिए। तर्क ही वह पथ है जो हमें अधिक आधुनिक, अधिक प्रगतिशील बनाता है। अंत में कहना चाहूँगा कि बच्चों के कपड़ों पर बेशक बात कीजिए, पर जरा इस लोकतंत्र के कपड़ों पर भी गौर करें और देखें कि कहीं लोकतंत्र के शरीर पर कोई कपड़ा है या नहीं ? क्या इस तंत्र को चलाने वालों ने इसे पूरा अश्लील नहीं बना दिया है ? यह नहीं कहूँगा कि इस बात पर विचार करें कि ऐसे लोकतंत्र को अंगरखे की जरूरत ज्यादा है या कफन की ? काश, कफन कहानी कोई फिर से लिखता !



शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

कुछ नोट्स...

- गणेश पाण्डेय 
 1.
इंकिलाब के   जुगनुओं को सलाम...
December 28, 2012 at 6:42pm

हाल में पूर्वांचल की बिटिया के साथ देश की राजधानी में जो हुआ, वह देश के किसी भी हिस्से की किसी बिटिया के साथ न हो। किसी की भी बिटिया हो। मित्र की या शत्रु की, अमीर की या गरीब की, शहर की या गाँव की या जंगल की...दुनिया की किसी भी बिटिया के साथ ऐसा न हो।
     इस बिटिया के साथ जो घटित हुआ वह हर पिता को विचलित, भयभीत, अवाक कर देने वाला तो है ही, हर युवा भाई और बहन को आग की लपटों वाले गुस्से से भर देने वाला है। सच तो यह कि दिल्ली में मौजूद भाइयों और बहनों ने गुस्से से आगे का भी काम बढ़-चढ़ कर किया है...एक स्वतःस्फूर्त प्रभावी आंदोलन के रूप में। ये युवा भाई और बहन, पुरस्कारों के पीछे-पीछे भागने वाले लेखक और विचारक नहीं थे, सिर्फ इस देश के बेटे और बेटियाँ थे। जिन्हें अपनी जिम्मेदारी के एवज में कोई तमगा नहीं चाहिए था। जहाँ तक मैं हिंदी के लेखकों को जानता हूँ, वे सिर्फ और सिर्फ यशःप्रार्थी लेखक ज्यादा हैं, इस देश के बेटे और बेटियाँ बहुत कम। वे हिंदी के बेटे और बेटियाँ तो हैं नहीं, देश के क्या खाक होंगे ? बहरहाल, यहाँ बात हिंदी की नहीं, पूरा हिंद सामने है। इस देश का वर्तमान और भविष्य सामने है। कोई दस-बारह दिन से मेरे भीतर भी काफी-कुछ मथ रहा है। बेचैन कर रहा है। इतना कि शब्द भी मुश्किल में हों जैसे। यथार्थ इतना तीखा और भयावह है कि जैसे इस बीच पत्थर का हो गया था। लेकिन एक बात जो सचमुच का पत्थर हो जाने से बचाती रही, वह यह कि दिल्ली में देश के बेटे और बेटियों ने पेशेवर नेतृत्वप्रार्थी लोगों की अगुआई के बिना जो कमाल किया है, वह मिसाल है। बदलाव की बानगी है।
 जरूर किसी विचार और भावना की तीव्रता ने इन बेटों और बेटियों की कोमल आत्मा के तारों को छेड़ा है। जिस यथार्थ की तीव्रता ने इनकी आत्मा पर खरोंचें लगायी हैं, वाकई वह असाधारण है। उसी राजधानी में जहाँ नये राजाओं की मृत या कि कम जीवित आत्माओं का कोई प्रतिनिधि मिलनस्थल या कि कोई प्रेक्षागृह है। जहाँ मृत या कि कम जीवित आत्माएँ कभी समाजवाद या जनपक्षधरता या हिंदुत्व या अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का नाटक करती हैं तो कभी देश और समाज की असाधारण चिंता करती हुई दिखती हैं। पर इस बात पर कभी विचार नहीं करती हैं कि आजादी के बाद भी पुलिस और राजनीति का चरित्र और ढ़ाँचा वही क्यों है ? सत्तानुकूलित पुलिस क्यों ? जनानुकूलित पुलिस क्यों नहीं ? राजनीति सत्तामुखी क्यों है, सचमुच की जनपक्षधर क्यों नहीं ? राजनीति देश के बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हित के लिए क्यों ? जनता के लिए क्यों नहीं ?
  सच तो यह कि जब सत्ता और प्रतिपक्ष के माननीय विचार करना बंद कर देते हैं या कि कुविचार ( सत्ता बचाने और पाने का विचार) में डूब जाते हैं, तब जनता ही विचार करती है। अब तो  जनता के बीच से कुछ लोग निकल कर दल भी बनाने लगे हैं। शायद एक दिन ऐसा आये कि जब सचमुच की जनता सत्तावादी दलों की छुट्टी करके सीधे जनसत्ता की प्रतिष्ठा करे। अभी तो युवजन की यह निर्णायक अंगड़ाई हमारे सामने है। यही युवजन जिसदिन जनपक्षधर व्यापक राजनीतिक विचारधारा से लैस होकर निकल पड़ेंगे ऐसे ही, उसदिन देश की बेटियों और बेटों को सताने वाली व्यवस्था का अंत हो जाएगा। उसदिन यह देश लोकतंत्र के राजाओं और उनके बेटों का नहीं रह जाएगा।
 यह सच है कि मौजूदा जनांदोलन या कि सचमुच का युवांदोलन दिल्ली में हुई घटना से फूटा। पर इसे सिर्फ दिल्ली तक न समझा जाय। देश के बाकी हिस्से के बच्चे भी उसमें शामिल हैं। खुद जिस बिटिया के साथ हादसा हुआ, वह दिल्ली के बाहर की है, पूर्वांचल की है। अलबत्ता सुदूर गाँवों और जंगलों के आपपास रहने वाली बेटियों के साथ होने वाली ऐसी घटनाओं पर इस तरह का गुस्सा नहीं फूट पाया है। पर इस गुस्से को भी उन्हीं घटनाओं के क्रम में संचित गुस्से की अभिव्यक्ति के रूप में भी लेना होगा।
   यह युवांदोलन नई सदी का जनांदोलन है, इसे इसी तरह देखना चाहिए। यह पहले की प्रतिरोधचेतना का  नया संस्करण है। उम्मीद करनी चाहिए कि हमारे ये युवा अपने विचार और और अपनी भावना को प्रतिरोध की व्यापक विचारधारा से जोड़ कर नये भारत के निर्माण के लिए आगे बढ़ेंगे। इस सदी में या कि अगली सदी में, जब भी आए इस देश की मिट्टी से जुड़ा व्यापक इंकिलाब, इंकिलाब के इन असंख्य जुगनुओं को हजार सलाम।

December 29, 2012 at 11:12am
बेहद बुरा कि अब हमारे बीच देश की वह बिटिया नहीं रही, जिसने दिल्ली की देश जैसी उस बस में दरिंदों के साथ अपने संघर्ष की मिसाल पेश की और अपने संघर्ष को स्त्री-प्रतिरोध का प्रतीक बनाया। दामिनी सदेह हमारे बीच नहीं होगी, पर दामिनी हमारे बीच रहेगी अपनी स्त्री अस्मिता की जिद और प्रतिरोध की परमाणु-भट्ठी जैसी आत्मा के साथ...जनशत्रुओं के लिए बिजली की भयंकर कड़क और जनविरोधी सत्ता के केंद्रों का नाश करने वाली भ...ावना और विचार की ज्वाला के साथ। दामिनी...पूर्वांचल की बेटी...इस मजबूर महादेश की बेटी...श्रद्धांजलि...यह शब्द आज तुम्हारे लिए कितना छोटा पड़ गया है...और कितना अप्रत्याशित...जिस उम्र में तुम्हें अपने समाज से आशीर्वाद पाना चाहिए था, उसी उम्र में देश तुम्हें श्रद्धांजलि कह रहा है...यह इस लोकतंत्र की विफलता नहीं है तो और क्या है ?

2.
मजाज का स्मरण
November 6, 2012 at 8:01pm
आकाशवाणी गोरखपुर द्वारा हिंदी-उर्दू के कुछ लेखकों की जन्मशती के मौके पर कई कार्यक्रमों की श्रृंखला में आज पहले कार्यक्रम ‘‘ शताब्दी स्मरण - मजाज’’ से अभी-अभी लौटा हूँ। उर्दू की तरक्कीपसंद कविता के बड़े कवि मजाज लखनवी पर केंद्रित इस कार्यक्रम में शकील सिद्दीकी, अजीज अहमद  और अरविंद त्रिपाठी ने मजाज के जीवन और उनकी कविता के बारे में मूल्यवान तो कहा ही, मजाज की गजलों और नज्मों के पाठ ने श्रोताओं को अपने वश में कर लिया। मजाज लखनवी की इस ‘‘आवारा’’ शीर्षक कविता का भी पाठ किया गया-
शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ.

3.
साहित्य का जीहुजूरिया, लंठ और लठैत
October 30, 2012 at 10:20pm

मित्रो! विडम्बना यह कि समाज का ही नहीं, साहित्य का भी अपना एक मध्यवर्ग है। साहित्य का यह मध्यवर्ग भी समाज के मध्यवर्ग की तरह अपने उच्च वर्ग की खुरचन, कृपा और जूठन से खुद को परमतृप्त अनुभव करता है। छोटे-बड़े पुरस्कारो और थोड़ी-बहुत चर्चाओं से खुद को अघाया हुआ जीव समझता है। उसकी शक्ति और सीमा और प्रतिभा से कहीं अधिक (झूठमूठ का) मान-सम्मान पा जाने की यह प्रवृत्ति, उसे साहित्य का जीहुजूरिया और लंठ और एक अर्थ में लठैत भी बनाती है। लठैत कहने से यह भ्रम न हो जाये कि यह वीरता के अर्थ में प्रयुक्त है, इसलिए यह बात साफ कर दूँ कि लठैत का जीवन और कार्यव्यापार मूल्यकेंद्रित नहीं होता है बल्कि वह तो अपने आकाओं का गुलाम होता हैं। वहीं एक वीर का जीवन और कार्य मूल्यकेंद्रित और स्वाधीन होता है। दुर्भाग्यवश जैसे समाज और राजनीति में एक निम्नवर्ग होता है, उसी तरह साहित्य में भी एक निम्नवर्ग होता है। जाहिर है कि निम्नवर्ग के लोग हाशिए का जीवन जीते है। कहना न होगा कि यह हाशिए का जीवन उन्हें बहुत-सी जीवनोपयोगी चीजों से वंचित तो करता है पर उनके जीवन को मूल्य और विचार से संपृक्त करता है और अपने हक के लिए संघर्ष की ताकत भी देता है। साहित्य में भी कुछ लोग हाशिए का जीवन जी रहे हैं। पर अपनी इच्छा से। वे भी चाहते तो कूद कर साहित्य के मध्यवर्ग के डिब्बे में बैठ सकते थे। बस एक अदद या एकाधिक गॉडफादर बनाने की देर थी। गॉडफादर आज सबसे अधिक हिंदी साहित्य में सुलभ हैं। वे तो इसीलिए पैदा ही हुए हैं, अच्छा और अविस्मरणीय लिखने के लिए नहीं। हर शहर के उच्चवर्ग में ये मिल जाएँगे। पर ज्यादातर लेखक राजधानी में गॉडफादर चुनते हैं। क्योंकि वहाँ उनका एक नेटवर्क होता है। गुट होता है। गिरोह होता है। जिसमें कई तरह के प्रभावशाली लोग, संपादक-पत्रकार, संस्थाएँ, अखबार, पत्रिकाएँ और बड़े प्रकाशनकेंद्र होते हैं।
इस मध्यवर्ग के उड़नखटोले में बैठे हुए वे तमाम लोग हाशिए का जीवन जीने वाले और प्रतिरोध की आवाज पैदा करने वाले लेखकों को बर्दाश्त नहीं कर कर पाते हैं। विडम्बना यह कि उनसे टकरा भी नहीं पाते हैं। वे जो साहित्य में हाशिए का जीवन आज जी रहे हैं, रचना और आलोचना में बेहतर कर रहे हैं। अपने हिस्से का पूरा सच कह रहे हैं। अपने जीवन के ताप से जो रच रहे हैं, वह उन मध्यवर्गीय लेखकों से अच्छा ही नहीं बल्कि नया भी है। इसीलिए ये हाशिए का जीवन जीने वाले, जिन्हें हाशिए का जीवन जीने वाले उपेक्षित और वंचित जन की तरह किसी पुरस्कार और यश की इच्छा नहीं है, वे तो बस साहित्य की धरती के लिए लड़ रहे है। साहित्य के अरण्य के लिए रण कर रहे हैं। आने वाली पीढ़ी के लिए लड़ रहे हैं।
 जैसा कि पहले कहा गया कि अपने-अपने गाफडफादरों और उप गॉफडफादरों के ‘जीहुजूरिया और लठैत’ टाइप के छोटे-बड़े लेखक साहित्य में हाशिए का जीवन जीने वाले लेखकों को अभी साहित्य का नक्सली नहीं कह रहे हैं। ये कुछ भी कहें क्या फर्क पड़ता है....पता नहीं साहित्य के सांगठनिक क्रांतिकारी साथियों को कोई फर्क पड़ता है या नहीं!

4.
आज के यथार्थ को देखने और विश्लेषित करने की दृष्टि
October 27, 2012 at 7:46am

‘‘रावण का पुतला’’ के बहाने कुछ लोगों का मानना है कि ये मिथकीय चरित्र आज के यथार्थ को देखने और विश्लेषित करने की दृष्टि से बेकार की चीज हैं। इनसे बाहर आकर आज के संघर्ष को किसी और आँख से देखने और समझने की जरूरत है। क्या आज का यथार्थ इतना जटिल है कि जिसमें राम और रावण अपने अँगरखे अदल-बदल कर साधारण जन को भ्रम में डाल दे रहे हैं। आज इनकी पहचान मुश्किल हो गयी है ? ये एक-दूसरे में इतना गड्डमड्ड हो गये हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि रावण ही पार्ट टाइम राम की भी नौकरी पर है। कहीं ऐसा तो नहीं कि रावध ने राम के नाम पर भी अलग से एक दुकान खोल ली है। इसलिए हम देख नहीं पा रहे हैं और सब गड्डमड्ड हो गया है। हम लोग ठहरे पुराने जमाने और सोच के लोग। चीजों को किसी रंगीन फिल्म-विल्म की तरह देख नही पा रहे हैं। आज के यथार्थ को मिथकों से विश्लेषित नहीं कर पा रहे हैं तो भला यह कैसे देख रहे हैं कि राम जी का ध्यान सीता को छुड़ाने में नहीं, बल्कि लंका के सोने में है ? क्या यथार्थ का यह विश्लेषण सही नहीं है ? फिर यथार्थ क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं ब्लैक और ह्वाइट में देखने से मना करने वाले मित्र यह कहना चाहते हैं कि रावण को भी राम का खेला खेलने दीजिए, राम बनकर यश और पुरस्कार बटोरने दीजिए, अपने समय का नायक बनने दीजिए, रावण भी क्रांति कर सकता है, रावण भी मुक्तिबोध को अपने भीतर साहित्य के मोर्चे पर घटित कर सकता है। सत्ता सिर्फ राजनीति की नहीं होती है। धर्म समाज, साहित्य कला आदि विभिन्न क्षेत्रों की होती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं काला और सफेद में बाँटकर यथार्थ को देखने का विरोध करने के पीछे खोटे सिक्कों को चलाने की बात हैं। यों समय तो ऐसा है ही जब एक-दो रुपये नहीं बल्कि हजार-पाँच सौ के नोट जाली होते हैं। साहित्य में मैं साफ-साफ ऐसा देख रहा हूँ। बाहर के बारे अधिक नहीं जानता, पर यहाँ गोरखपुर में रावण और राम वगैरह की कविता हो या आलोचना या उपन्यास, आमने-सामने रख कर देखने पर फर्क दिखता है। बहरहाल बात ‘‘रावण का पुतला’’ के जरिये राजनीति पर केंद्रित है। हमारे समय की राजनीति पर।
दूसरी बात है कि आज की राजनीति का विकल्प क्या है ? हम जिस भ्रष्ट लोकतंत्र में साँस ले रहे हैं, उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं, यह विदित है। आज हमारे पास सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों का क्या विकल्प है ? सच तो यह कि प्रतिपक्ष का अर्थ ही सत्ता का विकल्प है। राजनीति में विकल्प का अर्थ वहीं नहीं है बल्कि उससे बेहतर है। यह बेहतर मिलेगा कहाँ ? कोई दुकान है ? या प्रोफेसर लोग विकल्प की कोई डिग्री देंगे ? क्या तोप का विकल्प बाँस है ? कई प्रश्न हैं। साहित्य में सत्ता पक्ष का विकल्प है अच्छी रचना। राजनीति में क्या विकल्प हो ? बुरी राजनीति का विकल्प क्या अच्छी राजनीति नहीं ? ऊपर जिस भ्रष्ट राजनीति की बात की है, उससे बचकर अर्थात उससे आमने-सामने की टक्कर के बिना कोई और विकल्प है ? ‘‘तोंदिया बादल’’ कविता का अंश है-
‘‘आप बादलों के दल हैं
दलदल हैं
जिसमें जनता धँस तो सकती है पर जिससे निकल नहीं सकती है
कानून की इस जादुई किताब में
जनता को दलों के इस कीचड़ में धंसते चले जाने के लिए
विवश करने का कोई बाध्यकारी कानून है
पर निकलने के लिए एक नन्ही-सी भी धारा नहीं है
और दबी जुबान से भी
हम कह नहीं सकते कि यह संविधान हमारा नहीं हैं’’
इस मुश्किल में क्या रास्ता है भाई इससे निकलने का ? सवाल यह है कि अंग्रेजों के समय में भी मुश्किल कानून था, पर देश आजाद नहीं हुआ क्या ? क्या हम राजनीति में सफाई का कोई आंदोलन नहीं चला सकते हैं क्या ? राजनीति को बदलने की कोशिश नहीं करेंगे तो सत्ता के इस क्रूर तिलिस्म को तोड़ने का और क्या उपाय है ? क्या सफाई का आंदोलन भी उतने ही बुरे लोग चलाएँगे ? गंदे लोग सफाई पर महाकाव्य लिखेंगे ? मित्रो विरोध के लिए विरोध अंधा बना देता है। बदलाव के लिए विरोध से राहें खुलती हैं। क्रांतिकारियों का नाम लेने से चीजें नहीं बदलती हैं, जीवन में ‘‘छोटे से छोटा’’ क्रांतिकारी बनने से चीजें बदलती हैं।

5.
पुरस्कारों के बारे में एक नन्ही-सी जिज्ञासा
October 20, 2012 at 10:34am
आरंभ में प्रार्थना
कि इसे आत्मश्लाघा समझने की कृपा न करेंगे।
यह सिर्फ और सिर्फ पुरस्कारों के बारे में एक नन्हीं-सी जिज्ञासा है।
आज अस्सी के बुजुर्ग से लेकर बिल्कुल नये-नये जन्म लेने वाले युवतर लेखक तक पुरस्कारों और यश के लिए विकल हैं न कि अपने काम के लिए, उनके लिए लिखना कोई ड्यूटी नहीं, बल्कि अमर होने का जरिया है। ऐसे में यह संवाद कुछ कहता है। विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित शिक्षक ने रीफ़ पढ़ कर मुझे एसएमएस किया-
‘‘आपके उपन्यास में सबसे मार्मिक हिस्सा मुझे रीफ की बीमारी वाला अंतिम हिस्सा लगा। कई बार रोया। पूरा उपन्यास खासा प्रभावकारी है।’’
मित्रो यहाँ तक मेरे लिए सब सामान्य था। कुछ इसी तरह कई सहृदय मित्रों ने लिखा था। पर जब उस एसएमएस में आगे लिखा गया -
‘‘शोभा निलयम और कुशीजी को देखने की इच्छा है।’’
तो मेरी आँखें नम हो गयीं।
मेरे लिए यह बड़ी बात थी कि कोई पाठक मेरे किसी पात्र से मिलना चाहे या उस परिवेश को सचमुच देखना चाहे। किसी कृति की कामयाबी किसे कहते हैं, यह आप से आप समझ गया। जानना सिर्फ यह है कि यह कि किसी पाठक का यह कहना कि ‘‘शोभा निलयम और कुशीजी को देखने की इच्छा है।’’ मेरे जैसे तुच्छ लेखक के लिए ‘‘किस’’ पुरस्कार से कम है ? फेसबुक के साहित्य के जानकार मित्रों से इसलिए भी जानने की इच्छा है कि मुझे पुरस्कारों के महत्व के बारे में बहुत कम पता है।
मैंने जवाब में लिखा-
‘‘बहुत अच्छा लगा कि आपने पूरा उपन्यास देखा और इसके मर्म को छुआ। बहुत धन्यवाद।‘‘
फिर एसएमएस आया और उसमें मुझे दुरुस्त किया गया -
‘‘पूरा उपन्यास ‘देखा’ नहीं, पढ़ा है सर जी।’’
मैंने लिखा-
‘‘हाँ, मेरे कहने का वही आशय है। आपने बहुत गंभीरता से पढ़ा है।’’
मैंने उन्हें ‘‘धन्यवाद।’’ लिखा तो उन्होंने लिखा कि ‘‘धन्यवाद तो आपको....’’
यह धन्यवाद भी ‘‘किस’’ पुरस्कार से कम है ?
मैं जानना चाहता हूँ कि यह  ‘‘शोभा निलयम और कुशीजी को देखने की इच्छा है।’’  ‘‘किस’’ पुरस्कार से कम है ?  पुरस्कारों के बारे में जानने वाले मित्र मेरी मदद जरूर करेंगे  कि  अमुक...अमुक...अमुक... पुरस्कार से कम है।

6.
कम कविता के दिन थे
August 17, 2012 at 11:36am

मित्रो, परसों एक साहित्यक मित्र की इस टिप्पणी को अपने ब्लॉग पर देखने का अवसर मिला। युवा लेखक मित्र की इस टिप्पणी ने मेरे विश्वास को दृढ़ किया कि सच को कहने वाले भी हैं और उसे पसंद करने वाले भी। इस टिप्पणी में कहा गया है कि ‘‘ मैं खुद ही इस बात से बड़ा दुखी रहता हूँ की युवा रचनाशीलता किस तरह से कीड़ेमकोड़े की तरह पद पुरस्कार और यश की तलाश में हिन्दी के स्वयंभू"महान "कहें जाने वाले माफियाओं के आगे पीछे रेंगती है और इस तरह से जुगाड़े सम्मान को सर लगाये घूमती है .महानो की महान्गिरी तो चलेगी ही जब ऐसे जंतु उनके बड़े में बने रहेंगे .... कल संयोगवश एक काम से मुझे अपने दूसरे कविता संग्रह ‘ जल में’ को पलटते हुए यह कविता देखने को मिली ‘‘ कम कविता के दिन थे’’। आज फिर सच को पसंद करने वाले मित्रों के साथ अपनी इस कविता को साझा करने का मन हैः

कम कविता के दिन थे
कुछ करने के दिन न थे
कविता के लिए मरने के दिन न थे
जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।
रोशनी का काम उनके जिम्मे न था
जिनके पास कुछ ढ़का-छिपा न था।
गजब का मंजर था सामने
टुटही हरमुनिया थी
वक्त-बेवक्त राग जैजैवन्ती गवैया थे
वही झाँझ-करताल वही बजवैया थे
बड़े-बड़े घुटरुन चलवैया थे
कुछ थे जो
बाहरी जहाजों पर कूद-कूद चढ़वैया थे
कई तो अपने ऊपर ग्रंथ छपवैया थे।
रटन्त विद्या के दिन थे
एक कविता दौर के अन्तिम दिन थे
दृश्य उन्हीं का था
जिनके जीवन में कोई संग्राम न था
जीवन छोटा था
कम कविता के दिन थे
फिर भी कुछ पागल थे बचे हुए
जिनके हौसले थे कि कम न थे।
(‘जल में’ से)

















-गणेश पाण्डेय