सोमवार, 3 दिसंबर 2012

ओ ईश्वर

- गणेश पाण्डेय

 ईश्वर तुम कहीं हो
और कुछ करते-धरते हो
तो मुझे फिर
मनुष्य मत बनाना

मेरे बिना रुकता हो
दुनिया का सहज प्रवाह
खतरे में हो तुम्हारी नौकरी
चाहे गिरती हो सरकार

तो मुझे
हिन्दू मत बनाना
मुसलमान मत बनाना

तुम्हारी गर्दन पर हो
किसी की तलवार
किसी का त्रिशूल

तो बना लेना मुझे
मुसलमान
चाहे हिन्दू

देना हृष्ट-पुष्ट शरीर
त्रिपुंडधारी भव्य ललाट
दमकता हुआ चेहरा
और घुटनों को चूमती हुई
नूरानी दाढ़ी

बस एक कृपा करना
 ईश्वर!
मेरे सिर में
भूसा भर देना, लीद भर देना
मस्जिद भर देना, मंदिर भर देना
गंडे-ताबीज भर देना, कुछ भी भर देना
दिमाग मत भरना

मुझे कबीर मत बनाना
मुझे नजीर मत बनाना
मत बनाना मुझे

आधा हिन्दू
आधा मुसलमान।

(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

अभी

गणेश पाण्डेय


बची हुई है अभी थोड़ी-सी शाम
बची हुई है अभी थोड़ी-सी भीड़
नित्य उठती-बैठती दुकानों पर

रह-रह कर सिहर उठती है
रह-रह कर डर जाती है
नई-नई लड़की
छोटी-सी श्यामवर्णी
जिसके पास बची हुई है अभी
थोड़ी-सी मूली

और
मूली के पत्तों से गाढ़ा है
जिसके दुपट्टे का रंग
जिससे ढाँप रखा है उसने
आधा चेहरा आधा कान

अनमोल है जिसकी छोटी-सी हँसी
संसार की सभी मूलियाँ
जिसके दाँतों से सफ़ेद हैं कम

और
पाव-डेढ़ पाव मूली एक रुपए में देकर
छुट्टी पाती है मण्डी से
ख़ुश होती है काफ़ी
एक रुपये से कहीं ज्यादा

मण्डी से लौटते हुए मुझे लगता है-
मूली से छोटी है अभी उसकी उम्र
और मूली से बीस है अभी उसकी ताज़गी

घर में घुसता हूँ तो अहसास होता है-
अरे!
ये तो मूली में छिपकर
घुस आई है नटखट मेरे संग
अभी-अभी शामिल हो जाएगी
बच्चों में ।


(दूसरे कविता संग्रह ‘जल में’ से)

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

तोंदिया बादल


-  गणेश पाण्डेय
अपने आकाश से उतर कर
लकदक खादी में खिलखिल करते
हाथ हिलाते आयेंगे बादल
तो कहेंगे क्या
कि बैठिए मिट्टी की इस टूटीफूटी खाट पर
हरी चादर बिछी हुई है खास आपके लिए
मेड़ का तकिया थोड़ा मटमैला है तो क्या हुआ
आप चाहें तो पसर सकते हैं आराम से
आप चाहें तो जुड़ सकते हैं हमारे जी से आराम से
आप चाहें तो समा सकते हैं
मिट्टी की अतृप्त देह की आत्मा में
और जुड़ाकर हमें
आप चाहें तो परमात्मा बन सकते हैं आराम से
आप चाहें तो अपनी खादी जैकेट की जेब से निकाल कर
चाँदी की वर्कवाली पान की गिलौरी
सोने के दाँतों के बीच रख सकते हैं आराम से
आप हमारे लिए कुछ न करना चाहें
किसी अमीरउमरा की कोठी में आराम फरमाना चाहें तो जा सकते हैं
हमारे मुँह पर थूक कर आराम से
आप बादल हैं सरकार
हम आपका क्या कर सकते हैं
आप का घर और आपका दफ्तर
और आपकी थानापुलिस सब आसमान पर
हमारी पहुँच से दूर
क्या कर सकते हैं हम
आप जब चाहें
असगाँव-पसगाँव सब जगह गरज सकते हैं
आप चाहें तो कहीं भी बरस सकते हैं
आप चाहें तो किसी के खेत के हिस्से का पानी
दे सकते हैं किसी और के खेत को
चाहे किसी पत्थर पर डाल सकते हैं सबेरे-सबेरे
हंड़ेनुमा लोटे में भर कर सारा जल
आप चाहें तो अपना पानी
सुर-असुर और नर-किन्नर किसी को भी न देकर
सब का सब बेच सकते हैं खुले बाजार में
आप बादल हैं तो क्या हुआ जितना चाहें रुपया कमा सकते हैं
आप आकाश की संसद में बैठ कर जो राग चाहें काढ़ सकते हैं
अपनी संसद को दुनिया की सबसे बड़ी मंडी बना सकते हैं
हम कुछ नहीं कह सकते हैं आपको
आप के पास कोई विशेष अधिकार है
जिसके डर से हम आपसे यह भी नहीं पूछ सकते है
कि आप रोज गला फाड़-फाड़ कर यह क्यों कहते हैं
कि सब हमारे भले के लिए करते हैं
सरकार
और माईबाप
सब हमारे भले के लिए करते हैं
तो हमारा पानी
और हमारा पसीना ले जाकर विदेश के किसी बैंक में क्यों जमा करते हैं
अफसोस हम आपसे पूछ नहीं सकते हैं
हम ठहरे मिट्टी के क्षुद्र कण
और आप ठहरे खादी पहनकर गजराज की तरह चलने वाले
दुनिया के सबसे बड़े तोंदिया बादल
हम कितने मजबूर हैं
हम ने कैसे काट लिए हैं अपने हाथ
कि हम आपसे पूछ भी नहीं सकते कि आप ऐसा कानून क्यों बनाते हैं
कि हमारा सारा पानी अपने मुँह, अपने नाक, अपने कान
अपने रोम-रोम से खुद पी जाते हैं
और हम आपको स्वार्थी नहीं कह सकते हैं
बेईमान भी नहीं कह सकते
सिर्फ और सिर्फ माननीय कह सकते हैं
और चोर तो हरगिज-हरगिज सात जन्म में नहीं कह सकते हैं
ऐसा कहने पर हमें जेल हो सकती
हमारे बच्चे भूखों मर सकते हैं
आपका कानून है आप खुद कानून हैं
आप चाहें तो सबका पानी खुद पी जाने वाले मामले पर
चाहे रबड़ के मजबूत और विशाल गुब्बारे की तरह बढ़ती जाती हुई
अपनी तोंद के खिलाफ
थोड़ी-सी भी चपड़-चूँ करने पर जनता को
सीधे गोली मारने का कानून बना सकते हैं
आप कोई ऐसे-वैसे बादल नहीं हैं
आप बादलों के दल हैं
दलदल हैं
जिसमें जनता धँस तो सकती है पर जिससे निकल नहीं सकती है
कानून की इस जादुई किताब में
जनता को दलों के इस कीचड़ में धंसते चले जाने के लिए
विवश करने का कोई बाध्यकारी कानून है
पर निकलने के लिए एक नन्ही-सी भी धारा नहीं है
और दबी जुबान से भी
हम कह नहीं सकते कि यह संविधान हमारा नहीं हैं
हमारी उँगली से चलता है बादलों का राजपाट
लेकिन
आकाश में विचरण की अभ्यस्त संसद हमारी नहीं है
हमारा देश , हमारी धरती, हमारा अन्न, हमारा श्रम,
हमारा जीवन , कुछ भी हमारा नहीं है
यहाँ तक कि यह उँगली भी हमारी नहीं है।





मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

पितृपक्ष


       -गणेश पाण्डेय


जैसे रिक्शेवाले भाई ने किया याद
पूछा जैसे जूतों की मरम्मत करनेवाले ने
जैसे दिया जल-अक्षत सामनेवाले भाई ने
जैसे दिया ज्ञानियों ने
और कम ज्ञानियों ने
जैसे किया याद
अड़ोस-पड़ोस और गांव-जवार ने
अपने-अपने पितरों को


मैंने भी किया याद
पिता को और पिता की उंगली को
बुआ को और बुआ की गोद को
और उसकी खूंट में बंधी दुअन्नी को
सिर से पैर तक मां को
मां के आंचल के मोतीचूर को
मामा को और मामा के कंधे को
दादी को और दादी की छड़ी को


अनुभव की चहारदीवारी में
और याद की चटाई पर
आते गये जो भी आप से आप
मैंने सबको किया याद
जिन्हे देखा और जिन्हे नहीं देखा


जैसे ठेलेवाले भाई ने किया याद
जैसे याद किया नाई ने
मैंने भी जल्दी-जल्दी खाली कराया
पितरों के बैठने के लिए अपना सिर।


(तीसरे कविता संग्रह ‘जापानी बुखार’ से)






 










                                                      


                                                                                                                    

सोमवार, 17 सितंबर 2012

त्रिपाठी जी तथा अन्य गुरु


            
                                                              -गणेश पाण्डेय
प्रिय राय साहब, आप गुरुवर त्रिपाठी जी के सबसे प्रिय शिष्य हैं। कई गुरुओं का शिष्य तो मैं भी हूँ पर शायद यहाँ किसी भी गुरु का सबसे प्रिय शिष्य होने का सौभाग्य मेरे पास नहीं है। शायद विद्या की दुनिया में सबसे टूटा-फूटा पीस मैं ही हूँ। उस अभागे कटपीस की तरह जिसे वक्त की कैंची ने जीवन के मुश्किल दिनों में बहुत-सी चीजों से अलग कर दिया। माँ और बाबूजी भी चतुराई की विद्या की सीख दिये बगैर इस कँटीली दुनिया के बीचोबीच मुझे निहत्था छोड़कर चले गये। संत कवियों का सौभाग्य कि उनका जीवन, सद्गुरुओं के चरणकमल पाकर तर गया। पर मैं इस जीवन में तर पाऊँगा, मुझे संदेह है। क्योंकि मुझे लगता है कि अभी मुझे अनेक जन्मों में अनेक हिंदी विभागों के पापागार में बंदी रहना पड़ेगा। किसी गुरु का शाप है या यम का कोई नियम कि हिंदी विभाग से जुड़े किसी भी स्वाभिमानी लेखक को अंतिम रूप से हिंदी विभाग में ही मारा जायेगा, शायद मेरे उपन्यास ‘अथ ऊदल कथा’ के नायक ऊदल की तरह पत्थर से कूच-कूच कर। शायद तब कहीं जाकर हिंदी के किसी निडर कार्यकर्ता को मुक्ति मिलेगी। ऐसे ही हिंदी विभागों का अप्रिय और दुष्ट केवल मैं और त्रिपाठीजी के सबसे प्रिय शिष्य आप, यह सब भाग्य का खेला है राय साहब। त्रिपाठीजी की कृपा आप पर हुई तो मुझ पर भी हुई। पर मैं कैसे हिंदी विभाग का बुरा आदमी बन गया और मेरे समकालीन बाकी लोग हिंदी का मान बढ़ाने वाले और देश में हिंदी विभाग का नाम रोशन करने वाले हिंदी के सच्चे सपूत। हिंदी के इस कारागार में घुसते ही कैसे-कैसे पापी पीछे पड़ गये। आप इनमें तो नहीं थे राय साहब! पर जो थे गुरुभाई ही थे। कैसे-कैसे गुरु मिले और कैसे-कैसे गुरुभाई!
       हिंदी विभाग में नहीं आता तो हिंदी में हजार बार एम.ए. करने के बावजूद यह समझ नहीं पाता कि कबीर आखिर बार-बार सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? यह अलग बात है कि हिंदी विभाग में आने के बाद भी कुछ लोग यह जान नहीं पाते हैं कि कबीर आखिर सद्गुरु की बात क्यों करते हैं ? कबीर ही नहीं दूसरे संत कवि भी आखिर यह सद्गुरु-सद्गुरु क्यों करते रहते हैं ? इन्हीं अर्थों में मेरे लिए त्रिपाठी जी सद्गुरु हैं, जिन्होंने मुझे इस शहर और बाहर के हिंदी के कापुरुषों को  उलट-पलट कर देखने का अवसर दिया। मैं व्यक्तिगतरूप से अपने को त्रिपाठी जी का अत्यंत ऋणी अनुभव करता हूँ कि उन्होंने मुझे कबीर के सद्गुरु और आँधरा गुरु के फर्क को हिंदी की अकादमिक प्रयोगशाला और खासतौर से हिंदीविभाग की परखनली में रखकर और हजार बार लाल-पीला- काला करके देखने का मौका दिया। त्रिपाठी जी सिर्फ इसलिए ही मेरी दृष्टि में अच्छे गुरु नहीं हैं कि उन्होंने मुझे अवसर दिया, बल्कि इसलिए भी अच्छे गुरु हैं कि उन्होंने मुझे कभी टोका नहीं, कभी डाँटा नहीं कि तुम क्या करते-रहते हो। कभी कुछ नहीं कहा मुझे। कभी नाराज नहीं हुए कि तुम मेरे घर आते क्यों नहीं हो, कहाँ व्यस्त रहते हो ? जब भी मैं अपने गुरुओं की सीरीज पर नजर दौड़ाता हूँ तो त्रिपाठी जी का चेहरा सामने आते ही आँख भर आती है। त्रिपाठी जी ने कभी किसी से मेरी शिकायत क्यों नहीं की ? क्यों नहीं बुला कर किसी बात पर मुझे कुछ कहा ? दूसरे गुरुओं की तरह आखिर त्रिपाठी जी ने किसी से मेरी बुराई इस शहर में या दूसरे शहर में क्यों नहीं की ? त्रिपाठी जी के अलावा अनेक गुरु थे और हैं जिन्होंने चिकवे की दुकान पर टंगे हुए बकरे की तरह उल्टा लटका कर मुझे हजम कर जाना चाहा। त्रिपाठी जी ने कभी ऐसा कुछ क्यों नहीं किया ? त्रिपाठी जी का मुझ पर हक है वे चाहते तो मेरी त्वचा को चाँदी के वर्क में लपेट कर पान का बीड़ा बना सकते थे। मैं औरों की बात नहीं जानता पर इतना जानता हूँ कि त्रिपाठी जी ने अपने इस शिष्य को लोहे की मोटी जंजीर में नहीं, बल्कि किसी बेहद कोमल धागे से बाँध रखा है। शायद ऐसा इसलिए कि त्रिपाठी जी का मन एक कवि का मन है, उन्हें पता है कि किसी कविता के कार्यकर्ता को किस तरह बाँधना चाहिए और कितना बाँधना चाहिए ? कवि और लेखक तो मेरे और भी गुरु थे और हैं। मेरे पहले कविता संग्रह ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ में गुरुओं पर लिखी हुई मेरी दस कविताओं की एक पूरी सीरीज ही है। जिसमें गजब-गजब के गुरु हैं। कोई डँसने वाला गुरु है तो कोई शिष्य के विरुद्ध मिथ्या कहने वाला, कोई कान का कच्चा है तो कोई अक्ल का कच्चा, कोई किसी खुशामदी को प्रधान शिष्य बनाने के लिए सच कहने वाले शिष्य को प्रधान शिष्य के पद से बर्खास्त करने वाला, कोई-कोई गुरु तो सीधे सच कहने वाले शिष्य की अनेक प्रकार से हत्या पर उतारू हो जाता है- ‘पहला बाण/जो मारा मुख पर/आँख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा/खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू।’ निर्दयी गुरु की गाथा यहीं खत्म नहीं हो जाती है। शिष्य के आँसुओं की बाढ़ कम नहीं होती है। मेरी पीढ़ी के बहुत से लोग संत साहित्य के विशेषज्ञ होंगे, शायद वे लोग गुरु-शिष्य प्रकरण को संत कवियों की आँख से और अच्छी तरह देखते होंगे। मैं अपने जीवन में घटित होते हुए  अपनी ग्लोकोमायुक्त आँख से जितना देख पा रहा हूँ और जो अनुभव कर रहा हूँ, बस उतना ही कहना चाहूँगा। मेरे एक गुरु बड़े भारी कवि के रूप में इस शहर में प्रसिद्ध हुए हैं, उनसे मैंने काफी पहले एक बार पूछा कि अच्छी कविता लिखने के लिए क्या करना चाहिए ? तो वे बड़े आश्वस्त भाव से बोले कि अरे गणेश जी सब ऐसे ही करते-करते आ जाता है। जाहिर है कि मैं बहुत दुखी हुआ था। कविताई के प्रति ऐसी भयंकर उपेक्षा या कहें कि अपने बाद की पीढ़ी के प्रति ऐसा अदेख मैं पहली बार देख रहा था। कल्पना कीजिए कि देवेंद्र कुमार की रचना-प्रक्रिया को जानने के बाद उक्त गुरु की प्रक्रिया विषयक अगंभीर टिप्पणी से मुझे कितना दुख हुआ होगा। इतना ही नहीं दुख तो कई बार इससे भी अधिक हुआ। शायद ऐसे ही अनेक गुरुओं की गूँज ‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम’ कविता में है-‘गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले-/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।’ ऐसे स्वयंभू महान गुरुओं की एक फेहरिश्त है। एक गुरु जी कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते जीवन के लिए सूत्रवाक्य कहते थे कि अकेला होना बड़ा रचनात्मक होता है और अपने जीवन में और अपने लिखने की मेज पर कभी अकेला हुए ही नहीं। कभी भी किसी कृति का साक्षात्कार अकेले किया ही नहीं। मेज पर कभी आलोचना के किसी अपने समय के महान का खड़ाऊँ रखा होता था तो जिस लेखक ही किताब पर लिख रहे होते थे उसका फोटो और पदनाम या लेखिका हुई तो अन्य उपयोगी सूचनाएँ। कभी भी किसी के भी पीछे चलने में कभी कोई असुविधा नहीं महसूस की। अपने चलता-पुर्जा किस्म के शिष्यों के पीछ चलने में भी नहीं। किसी के भी पीछे रहने का दुर्गुण एक और लेखक गुरु में रहा है। अपने लेखन पर मुग्ध और अतिसंतुष्ट रहना उतना बुरा नहीं है जितना अपने समय और आसपास के लेखकों से स्वस्थ साहित्यिक प्रतिस्पर्धा का न होना। मुझे इस बात का दुख हमेशा रहा कि मेरे अमुक गुरु उम्र में अपने से छोटे अमुक गुरु से आगे क्यों नहीं रहना चाहते थे और हैं ? उनके भीतर क्यों नहीं कोई ऐसी चिंगारी मौजूद थी और है ? उनके भीतर किसी चिंगारी को न पाकर आखिर मैं किस चीज को सुलगाता ? और भी कई तरह की दिक्कतें रही हैं। कई गुरुओं से। मुझसे भी दिक्कत रही होगी मेरे गुरुओं को। मेरे गुरुभाइयों को भी मुझसे तमाम दिक्कतें थीं, जिस वजह से मैं अपने गुरुओं का प्रिय शिष्य नहीं बन पाया। ‘ खूब मिले गुरुभाई/सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल/कुछ भी हो जाने के लिए/मेरे विरुद्ध/बात सिर्फ इतना-सी थी/कि मैं कवि था भरा हुआ/कि टूट रहा था मुझसे/कोई नियम/कि लिखना चाहता था मैं/नियम के लिए नियम। ’कोई ढ़ाई दशक गुरुभाइयों की ईर्ष्या-द्वेष और मेरे साहित्यिक काम की वजह से अकारण भयभीत होकर लगातार मुझ पर किये गये आक्रमण और मेरे विरुद्ध साजिशों के जर्बदस्त तनाव के बावजूद मैं थोड़ा-बहुत कुछ कर पाया तो यह वीणा वादिनी का चमत्कार है। अन्यथा मेरे जैसे शिष्य को तो साहित्यिक रूप से कब को खत्म हो जाना चाहिए था। जिसके खिलाफ केवल गुरुभाई ही कुछ भी खाने को तैयार नहीं रहे हैं, बल्कि खुद नामी-गिरामी गुरु भी लघुता की अनेक सीमाएँ लाँघते रहे हैं। पर मैं देख रहा हूँ कि जब मुझसे ईर्ष्या करने वाले ये गुरुभाई नहीं रहेंगे तो इन बड़े नाम वाले लघुगुरुओं को महान कौन कहेगा ? कौन इनके काम को सराहेगा ? क्या कृतियों की जगह यहाँ के पुस्तकालयों में इनके पुरस्कार रखे जायेंगे ? इनके अँगरखे रखे जायेंगे ? क्या कोई ऐसा समय आने वाला है कि जब लोग कृतियों को प्रमाण नहीं मानेंगे, उन्हें समुद्र में डुबो देंगे और नाच-गाने और तमगे समेत अन्य चीजों को महत्वपूर्ण मानेंगे ? फेहरिश्त को और लंबा नहीं करना चाहूँगा। फिर कभी अपने सभी गुरुओं पर विस्तार से कुछ कहूँगा। यहाँ तो सिर्फ त्रिपाठी जी पर कुछ कहना है। उनकी छवि के बारे में कुछ कहना है। त्रिपाठी जी की कोई खराब छवि मेरे मन में कभी नहीं रही। न विद्यार्थी जीवन में और न अब। विद्यार्थी जीवन में  त्रिपाठी जी अपनी अध्यापन शैली और छवि से प्रभावित करते थे। भाषाविज्ञान जैसे दुरूह विषय को भी सरस शैली में पढ़ाने की कला आज शायद ही किसी के पास उस स्तर की हो। जब पढ़ने का मन न हो और भाषाविज्ञान पढ़ना हो तो यह सिर्फ त्रिपाठी जी की क्लास में ही संभव था। वे कब हमारी थकान को दूर करके हमें तरोजाता कर देते हम जान ही नहीं पाते। भाषाविज्ञान ही नहीं लोकसाहित्य को हमारे सामने सजीव कर देते थे। लोक हमारे सामने उपस्थित हो जाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि लोक साहित्य के प्रति जो थोड़ा-सा अनुराग मुझमें है वह त्रिपाठी जी कक्षाओं की वजह से ही। त्रिपाठी जी के समय के शिक्षकों की बात ही कुछ और थी। त्रिपाठी जी अच्छा पढ़ाते थे। भगवती प्रसाद सिंह अच्छा पढ़ाते थे। तिवारी जी अच्छा पढ़ाते थे। जब मैं तिवारी जी कह रहा हूँ तो मेरा आशय रामचंद्र तिवारी से है। विश्वनाथ जी से नहीं। विश्वनाथ जी अच्छा नहीं पढ़ाते थे। परमानंद जी अच्छा पढ़ाते थे। रामदेव जी अच्छा पढ़ाते थे। जगदीश जी तो अपने गीत भी अच्छा पढ़ते थे। रस्तोगी जी अच्छा पढ़ाती थीं। गुरु तो कई और भी हैं। इन गुरुओं में कई ऐसे गुरु रहे हैं जो शिक्षक होने के साथ-साथ लेखक भी रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि कई गुरु खुशामदी शिष्यों की अतिशय पूजा और महान लेखक जैसी स्थानीय प्रतिष्ठा से मुग्ध होकर साहित्यिक खुदकुशी के शिकार हुए। एकाधिक गुरुओं ने देशभर में घूमने और दिल्ली में भारी-भरकम गॉडफादर बना लेने के बावजूद रचना और आलोचना में कुछ भी नया और महत्वपूर्ण नहीं किया है। यहाँ तक कि सत्तर-पचहत्तर का होने के बाद भी पुरानी रुई को भी ठीक से धुनना और रजाई में ढंग से भरना और तागना सीख नहीं पाये। गॉडफादरों के पीछे-पीछे भागना काम नहीं आया। एक भी अविस्मरणीय रचना या आलोचनात्मक लेख ऐसा नहीं है जिसे पढ़ने के लिए कोई पाठक विकल हो जाय। मेरा तो मानना है कि कोई आलोचक कोई एक ढ़ंग का लेख लिख दे तो काफी है। दुर्भाग्य यह कि एक तो दूर आधा या चौथाई लेख भी ऐसा नहीं दिखता जिसे पढ़ने के बाद कोई कह सके कि यदि अमुक जी पैदा नहीं हुए होते तो यह लेख नहीं लिखा जाता। अच्छा हुआ कि त्रिपाठी जी ने किसी धंधेबाज आलोचक या आई.ए.एस. अधिकारी को या ऐसे ही किसी साहित्य के सौदागर को अपना गॉडफादर नहीं बनाया। क्योंकि यह रास्ता साहित्य के मंदिर का रास्ता नहीं है, बल्कि साहित्य में अपराध की दुनिया का रास्ता है। त्रिपाठी जी ने पिछले पच्चीस साल यदि इस रास्ते पर चलने की कोशिश नहीं की तो ठीक ही किया।
     त्रिपाठी जी केवल अच्छे शिक्षक ही नहीं रहे, बल्कि एक रचनाकार उनके भीतर निरंतर सक्रिय रहा है। त्रिपाठी जी की कुछ कविताएँ विश्वविद्यालय पत्रिका में देखने के बाद अनुभव हुआ था कि त्रिपाठी आधुनिक काव्य संवेदना से जुड़े हुए तो हैं ही काव्यभाषा और शिल्प की दृष्टि से भी प्रभावित करते हैं। पर पता नहीं क्या हुआ कि त्रिपाठी जी की वह रचनाशीलता स्थगित हो गयी। कहना चाहूँगा कि त्रिपाठी जी रचनाशीलता स्थगित न हुई होती तो यह भी हो सकता है कि आज यहाँ के साहित्य का दृश्य दूसरा होता। शायद कोई विकल्प होता। त्रिपाठी जी ने इधर फिर से रचनारत होकर अच्छा किया है। पर और अच्छा रहा होता कि त्रिपाठी जी की यह नई शुरुआत पहले के काव्यरूप और संवेदना के साथ होकर आगे बढ़ती। खैर जो भी है, इस नई सदी की नई सक्रियता के साथ गुरुवर त्रिपाठी जी को देखना सुखद है।

[संस्मरण]

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कविता की पृथ्वी पर लौट आओ साथियो...

                  -गणेश पाण्डेय
दोस्तो, कुछ लोग नेट की दुनिया को आभासी दुनिया कहते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि फिर कागज पर जो दुनिया होती है, वह क्या है ? वह आभासी नहीं है। सचमुच की है। सचमुच की है तो कागज फट नहीं जाएगा ? कागज लोहे का है क्या ? कितना मजबूत लोहा है कि पृथ्वी का भार संभाल लेगा ? इसे छोड़िए, ये साहित्य भी क्या सचमुच की दुनिया है ? ठोस भी, तरल भी, जिसे इंद्रियों से अनुभव कर सकें ? फिर नेट की दुनिया ही आभासी क्यों बाकी दुनिया आभासी नहीं है क्या ? उसे छूकर और देखकर नहीं जान सकते हैं क्या ? जीवन नेट पर नहीं है क्या ? कोई समाज नेट पर नहीं है क्या ? विचार और समय की आवाजाही नेट की दुनिया में नहीं है क्या ? मेरे डिपार्टमेंट के कुछ नेटविरोधी दाएँ बाजू के नन्हे विचारक विचारक इतना तो मार्क्सवाद को तुच्छ नहीं समझते हैं, जितना इस कथित आभासी दुनिया को। मार्क्सवादी आचार्य भी इसे कौतुक की दृष्टि से देखते हैं, वे खुद भी जो एक कौतुक ठहरे। बहरहाल, कहना यह है कि यह दुनिया आभासी है या विश्वासघाती, इसके चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। सिर्फ अपनी बात कहना चाहता हूँ। जो कहना है, उसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं। मसलन, आज ही खरा कहने का दावा करने वाले खरे जी का एक मेल आया है। दूसरे मित्रों के पास भी गया होगा। उसमें एक जंगल में बैठ कर कविता की बात करने पर सख्त सजा दी गयी है-कुछ उम्रकैद जैसी। गनीमत यह कि उसी जंगल में ही उम्र कैद नहीं दे दी गयी है। मेरा ख्याल है कि इसके बाद अब किसी और सजा की जरूरत नहींे है। हालाकि मुझे भी मेरे शहर के कुछ लोग मेरी आक्रामता की वजह से पसंद नहीं करते हैं। यह अलग बात है कि उनके लिए जो भाषा और तेवर शाकाहारी नहीं है अर्थात भूसे की तरह बेजान और प्रभावहीन नहीं है, सब खराब है। उनके लिए खराब का मतलब आग्रहपूर्ण होना या बेइमानी करना नहीं है। लेकिन मैं जिन अर्थों में मेल से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ,उसके पीछे वजह सिर्फ यह है कि वह लेख की शक्ल में तार्किक कम और खबर की शक्ल में चटपटा अधिक है। उस लेख में क्या है, यह बताना यहाँ प्रयोजन नहीं है। मैं क्या सोच रहा हूँ, इससे मुझे सरोकर है।
  नेट पर हाल ही में उस कविता कांड पर काफी कुछ कहा गया है। पक्ष और विपक्ष आप से आप फाट पड़े। सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ। एक आयोजन जंगल में हुआ, कुछ लोग वहाँ गये और कुछ लोग वहाँ इसलिए नहीं गये कि उन्हें वहाँ बुलाया नहीं गया। लीलाधर मंडलोई  मित्रों के मित्र हैं। इलाहाबाद से कोई बुलाया गया और गोरखपुर से कोई नहीं बुलाया गया ? पर हे मित्रो शपथपूर्वक कहता हूँ कि मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगा। क्योंकि मैं जानता था कि वहाँ से कविता की कोई गंगोत्री नहीं फूट रही है कि पहुँच जाऊँ या न पहुँच पाने का कोई अफसोस करूँ। बहुत से अच्छी कविता करने वाले मित्र वहाँ नहीं शामिल थे। जो थे सब अच्छे ही थे, ऐसा भी नहीं। यह अलग बात है कि विजयकुमार और मंडलोई और दूसरे लोग वहाँ थे। इसलिए यह भी मानने में दिक्कत है कि सब वहाँ खराब ही हुआ होगा। कविता पर ढ़ंग से बात नहीं की गया होगी, यह स्वीकार करना मुश्किल है। पर मुश्किल कुछ और है। मुश्किल यह कि वहाँ हुआ क्या-क्या और बाहर आया क्या-क्या ? कई कवयित्रियों ने वहाँ के फोटो थोक में नेट पर आभासी दुनिया में जारी किए तो लगा कि बस वहाँ सिर्फ और सिर्फ यही हुआ। यह तो किसी ने ढं़ग से ब्योरेवार बताया हीनहीं कि वहाँ कतिवा पर यह-यह बात हुई या इन-इन अच्छी कविताओं का पाठ हुआ। बहस के नतीजे क्या रहे ? कोई एजेंडा तय हुआ या नहीं ?
  जहाँ तक आभासी दुनिया को पढ़ना सीख पाया हूँ, हुआ यह कि इन फोटो-फाटो से संदेश दूसरा गया और (शायद) लोगों ने समझा कि वहाँ सब अंभीर हुआ। अरे भाई अगंभीर तो दिल्ली में भी किया जा सकता था। इतने बड़े समूह में इतनी दूर जाकर अगंभीर करने की क्या जरूरत थी ? यह कोई पिकनिक था तो पिकनिक पर तो कोई भी कहीं जाए, क्या फर्क पड़ता है। यह फर्क पड़ा क्यों ? एक दूसरी विचारधारा का आदमी जाकर कुछ खराब किया तो अच्छी विचारधारा वालों ने वहाँ क्या अच्छा किया, यह बताना नहीं चाहिए था ? बताने में यह कमी कैसे हुई ? आभासी दुनिया में जैसे अंतरिक्ष में कोई भिड़ंत हो, एक भिड़ंत हो गयी। कहंें कि भिडं़त भी अकेली नहीं, टक्कर पर टक्कर हाल ही में पृथ्वी के नीचे प्रयोगशाला में हुई महाटक्कर जैसी। एक दिन, दो दिन, कई दिन। पक्ष और विपक्ष। जैसे होड़ लग गयी हो विचार व्यक्त करने में। मेरे जैसे आदमी की मुश्किल यह कि कोई उम्र में बीस साल छोटा तो बारह-पन्द्रह साल छोटा। करूँ तो क्या करूँ ? कविता को लेकर आग लगी हो तो दूर बैठ कर तमाशा कैसे देखूँ ? हालाकि वहाँ जाने वाले कुछ मित्र भी चुपचाप तमाशा देख रहे थे। इसे उनकी कविता के प्रति प्रतिबद्धता और साहस की कमी कह सकते हैं। पर यह कहना यहाँ प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन बहुत सीधा-सा है। वाद-विवाद का तूफान थम गया है। छोटे-बड़े महारथी वापस लौट चुके हैं। पर प्रश्न...सामने है।
     बहस के बीच एक जगह मुझे न चाहते हुए भी कहना पड़ा कि ‘‘ मैं कुछ कहना तो नहीं चाह रहा था। कहता भी तो शायद आगे किसी लेख में। पर इस विवाद में मेरे कई मित्र शामिल हैं। उनमें से कुछ के बीच पहली बार साहस की झलक देखने का अवसर मिला है तो कुछ मित्र अपने पक्ष को लेकर काफी नाराज दिख रहे हैं। ऐसे में मेरी कोशिश है कि इस आग पर थोड़ा-सी राख या बालू या पानी पड़ जाय तो बेहतर। चाहता यही हूँ कि सब कविता की प्रतिष्ठा को सबसे ऊपर समझें। अपने दुख को क्रम से कहना चाहूँगा।
1-युवा पीढ़ी ऐसे आयोजनों में यदि अपनी सार्थकता का अनुभव करती है, तो मुझे दुख है।
2-युवा पीढ़ी कविता का भविष्य कविता से इतर गतिविधियों में ढ़ूँढ़ती है, तो मुझे दुख है।
3-युवा पीढ़ी अपने समय के महाजनों के पथ पर चल कर अपनी मुक्ति चाहती है तो मुझे दुख है। 4-युवा पीढ़ी कविकर्म के फल या कविता के प्रयोजन के रूप में यश और चर्चा को स्वीकार करती है, तो मुझे दुख है।
5-युवा पीढ़ी कविता लिख देने के बाद अलग से प्रमोशन के लिए सक्रिय होती है, तो मुझे दुख है। ( यहाँ बात साफ कर दूँ कि कविता लिखने के बाद कवि सम्मेलन में पढ़ने का उपक्रम कविता को राजाओं के दरबार से निकाल कर जनता के बीच ले जाने के लिए हुआ था।)
6-युवा पीढ़ी अपनी कविता में अपनी बात कह नहीं पा रही है, तो मुझे दुख है।
7-युवा पीढ़ी कविता के लिए अपने भीतर गहरे में प्रेम का जज्बा नहीं पैदा नहीं कर पा रही है तो मुझे दुख है।
8-युवा पीढ़ी कविकर्म की विफलता से डर रही है तो मुझे दुख है।
9-युवा पीढ़ी अपने को कविता का कलगीदार मुर्गा समझ रही है कि उसके बाँग देने से ही कविता का भला होगा, तो मुझे दुख है।
10-युवा पीढ़ी कम महत्व की रचना से कविता का विश्वविजय करना चाहती है ,तो मुझे दुख है। 11-युवा पीढ़ी सिर्फ और सिर्फ अपनी बात को ही सच मान रही है, तो मुझे दुख है।
इन छोटे-छोटे दुखों के बाद कुछ बड़े दुख भी हैं-
(1)‘संगमन’ के कार्यक्रम को युवा पीढ़ी कोई बहुत जरूरी उपक्रम समझती है तो मुझे दुख है। एक बार कुशीनगर में संगमन का कार्यक्रम किया गया था, जिसमें मैं इसलिए नहीं जा पाया कि उस कार्यक्रम में ऐसे लोगों को महत्वपूर्ण बनाया गया था, जो लेखक ही नहीं थे। कुछ तो औसत से भी कम थे। मेरी प्रियंवद से फोन पर बात भी हुई थी। उन्होंने आश्वस्त भी किया था कि वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो स्तरीय न हो। लेकिन हुआ वही। आशय यह कि संगमन में न जाने के बाद भी मैं कथारचना करना भूल नहीं गया।
(2)- कथाक्रम के आयोजन में गोरखपुर से जो कथाकार और आलोचक जाते रहे, उनसे बहुत खराब उपन्यास या आलोचना नहीं लिखा है।
(3)-कोई बीस-पच्चीस साल से हंस नहीं देखता हूँ, फिर भी कथालेखन भूल नहीं गया।
बड़ा दुखः
1-यह कि युवा पीढ़ी अपने ऊपर भरोसा कब करेगी ? कब तक कविता या साहित्य के शार्टकट पर अमल करेगी ?
2-यह कि अपने समकालीन मित्रों के बीच अहंकार और ईर्ष्या-द्वेष की भावना से काम करेगी ?
3-यह कि युवा पीढ़ी बच्चों जैसी अगलीसीट पर बैठने की जिद कब तक करेगी। ( मैंने तो दिल्ली जाने वाली सारी सुपरफास्ट गाड़ियों को छोड़कर साहित्य की सबसे धीमी गति से चलने वाली माल गाड़ी पर बैठ कर सफर करना मुनासिब समझा है, भाई)।
यह सब कहने का आशय अपने को महान बनाने की बेवकूफी करना नहीं है। बस यह चाहता हूँ कि अरे मेरे युवा बड़े-बुजुर्ग, आप लोग अब आपस में यह सब बंद करो। साथ रहकर कविता का काम नहीं कर सकते तो कोई बात नहींे भाई। अलग-अलग रह कर कविता का काम करो। इसमे बुरा क्या है ? पर यह याद रखो कि ईमानदारी से अपना काम करो। यह पहले तय कर लो युवा दोस्तो कि तुम कविता का भला चाहते हो कि सिर्फ अपना भला ? कविता की प्रतिष्ठा समाज में चाहते हो कि कविता के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा ? यह सब मैंने शास्त्रार्थ के लिए नहीं कहा है। जिसे मेरी बात अच्छी न लगे, अपना गुस्सा थूक दे और मुझे कविता का बुरा आदमी समझ कर क्षमा कर दे।’’
जहिर है कि मेरी इस टिप्पणी से मेरे कुछ युवा मित्र दुखी भी हुए होंगे। पर उनका बड़प्पन यह कि मेरी इस टिप्पणी पर कुछ बुरा-भला नहीं कहा। सच तो यह कि अब मुझे अनुभव हो रहा है कि इस आभासी दुनिया में हर समय विचार वमन खतरे से खाली नहीं है। खतरे से मैं डरता नही पर खतरे में लेखक समाज पड़ जाय, इससे डरता हूँ। हमारे युवा मित्र आपस में भिड़ंत करके लहूलुहान हो जाएँ। एक-दूसरे को देखना न पसंद करें। एक-दूसरे की जड़ में मट्ठा डालने लगें, तो जाहिर है कि ऐसे में मेरा मन बहुत दुखी होगा। अरे भाई बड़े-बुजुर्ग तो यह सब कर ही रहे हैं, गुरु तक शिष्यों का हत्याकांड करने में लगे हुए हैं-
पहला बाण
जो मारा मुख पर
आँख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।
(गुरु सीरीज)
हमारे छोटे मित्र भी आपस में यही सब करने लगेंगे तो फिर कविता देवी का क्या होगा ? अरे भाई स्वाभिमानी लोग अपने आकाश से तनिक नीचे आओ कविता की धरती पर। अपने उन साथियों को देखो जिनके गले में तुम्हारी बाहें अब तक झूल रही हैं। वे तुमसे क्रूा पूछ रही हैं ? कविता का सम्मान क्यों तुम्हारे अपने सम्मान से कम है ? मेरे युवा मित्र न नाराज हों तो जाना चाहूँगा कि पृथ्वी का बुरे से बुरा आदमी भी क्या कविता की अच्छी किताब को छूने का अधिकारी नहीं है ? क्या आप कर्फ्यू लगा देंगे कि मुक्तिबोध की कविता को कोई दक्षिणपंथी छुएँ नहीं या कक्षाओं में पढ़ाएँ नहीं ? यह तो अधिक हो जाएगा भाई। ज्यादती है। यह ठीक है कि आप अपनी प्रतिबद्धता के नाते ऐसे लोगों के साथ कविता के मंच पर नहीं बैठना चाहते हैं। हम आपकी इस भावना का सम्मान करते हैं। लेकिन इसका अर्थ क्या यह है कि फिर कोई बात ही नहीं। कविता का काम ही बंद कर दिया जाय। मित्र लोग शत्रु हो जाएँ ? अरे भाई टकराने के लिए अपने मित्र नहीं होते। टकराने के लिए हिंदी के दुश्मन क्या कम हैं ? मित्रों की आलोचना करें, ऐसे टकराएँ नहीं कि उनका रामनाम सत्य हो जाए। कहीं कुछ गलत दिखे तो उन्हें खूब डाँटें। पर प्यार से। यह मैं इस पीड़ा से दो-चार होते हुए कह रहा हूँ कि मेरा एक प्यारा दोस्त इधर यहाँ मुझसे नाराज है। अरे भाई छूटने वाले दाग के लिए शर्ट फाड़ देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? कम से कम कविता के अँगरखे को नुकसान न पहुँचाओ कविता के युवा साथियो! मेरी प्रार्थना सुन लो! लौट आओ....

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

साहित्यिक मुक्ति का होगा क्या उर्फ ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन

                       -गणेश पाण्डेय
शेष जी, आपका प्रश्न महत्वपूर्ण है। आपका प्रस्थानबिंदु भी संभवतः संदेह से परे है। यह एक संयोग है कि आपके प्रश्न से कोई दो-तीन पहले मेरे एक प्राध्यापक शिष्य ने मुझे गुरुज्ञान दिया-सर दुनिया बदलेगी नहीं। शिष्य को मेरे बारे में काफी कुछ पता है। यह भी पता है कि बहुत से गुरुओं से प्रश्न करता रहता हूँ। पर देखिए मेरा शिष्य मुझसे कितना अधिक योग्य है कि वह प्रश्न नहीं करता है, सीधे उत्तर देता है। कह सकते हैं कि अब ऐसे शिष्य आते हैं जो उत्तरीय युग के हैं। आप भोले हैं शेष जी जो आप यह प्रश्न कर रहे हैं कि भाई आप कहते तो ठीक हैं, पर यह तो बताइए कि यह होगा कैसे ? दरअसल तीन तरह के लोग इस समय साहित्य के परिसर में कुछ कर-धर रहे हैं। यहाँ कर के साथ धर भी है, ध्यान दीजिएगा। पहले तरह के लोग तत्वज्ञानी और सर्वज्ञ हैं। हालाकि जिस अर्थ में कवि को सर्वज्ञ कहा जाता है, मैं उस अर्थ में इन्हें सर्वज्ञ नहीं कह रहा हूँ। इनकी सर्वज्ञता आकाश की तरह नहीं, बल्कि कहना चाहिए कि ये साहित्य के सुरंग की गतिविधयों के सर्वाधिक जानकार हैं। ये जानते हैं कि यह दुनिया नहीं बदलेगी, कोई क्रांति अब इस भारत धरा पर नहीं होगी। कोई सिरफिरा अँधेरे के इस साम्राज्य को छिन्नभिन्न नहीं कर सकता। ये जानते तो यहाँ तक भी हैं कि शिखर को ऐसे सिरफिरे छू भी नहीं सकते, उन्हें हटाना तो बहुत बड़ी बात है। कुछ लोग कह भी सकते हैं कि ये ठीक भी सोचते हैं, आज राजनीति के घोटाले बाजों के सरदार को हटाया जा सका है ? कौन है माई का लाल जो यह कारनामा कर सकता है ? जाहिर है कि ऐसे लोग सत्ता के इर्द-गिर्द रहने में ही मनुष्य मात्र का कल्याण समझते है। अपना तो खैर सबसे अधिक समझते ही हैं। हो सकता है कि मेरे प्राध्यापक शिष्य के मन में मेरे कल्याण की भी बात रही हो कि सर आप कहाँ फँस गये हैं, निकलिए अपने घटाटोप से। देखिए कामयाबी की सीढ़ी आपका इंतजार कर रही है। साहित्य के आकाश का सबसे बड़ा दफ्तर तो अपने शहर में ही है। आप कहाँ देख रहे है, अंट-शंट ? आपके सिद्धार्थ नगर जनपद के ही महान आलोचक इस समय आलोचना के हेड ऑफिस का सारा काम-धाम देखते हैं। क्यों नहीं उन्हें प्रसन्न कर लेते हैं ? आप भी पंडित और उसी जनपद के पंडित फिर भला अनाथ क्यों हैं साहित्य में ? जब एक नहीं दो-दो विश्वनाथ आपके सन्निकट हैं। हाथ भर की दूरी पर। बस हाथ फैलाने भर की देर है। अपने शिष्य से क्या कहूँ भला कि मैं अपने जनपद के गद्दार या अपने मौजूदा शहर के साहित्य के डॉन के आगे हाथ कैसे फेला सकता हूँ, मेरा तो हाथ ही मेरे वश में नहीं है। मेरे दूसरे संग्रह ‘ जल में ’ में की दूसरी कविता है-‘‘मुश्किल काम’’। इसे यहाँ देना जरूरी है-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे जो मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे जो मेरे साथ तो थे
पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीअत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-
‘पीना और शैतान के संग ?’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
पर मेरी बात को मेरे शिष्य ही नहीं, कोई क्यों समझे ? कोई जोर-जबरदस्ती है क्या ? कि मेरे शिष्य मेरी तरह सोचें, कोई किसी चलतापुर्जा गुरु की तरह सोचने के लिए भी उतने ही स्वतंत्र हैं, जितना मैं। गुरुओं पर भी मेरी गुरु सीरीज तो है ही। हमारे समय का विद्या और साहित्य का संसार उसमें मौजूद है ही। खैर शेष जी, ये तो पहले तरह के लोगों की बात हुई जिन्हें पक्का पता है कि साहित्य की दुनिया हरगिज-हरगिज नहीं बदलेगी। सिरफिरे कुछ भी कहते रहें। असल में ऐसे लोगों के साथ दिक्कत ये है कि ये लोग स्टेशन पर रुकने वाली या बदलने वाली गाड़ियों पर नहीं बल्कि नित्य कामयाबी की पटरी पर दौड़ती हुई गाड़ियों पर दौड़कर चढ़ने वाले दु्रतगामी लोग हैं। इन्हें न तो जान की परवाह है न किसी राक्षस से डर लगता है, ये डरते हैं तो बस विफलता के मामूली काँटे से। ऐसे लोग साहित्य में आए ही इसलिए हैं कि अमर हो जाएँ। मरने के लिए तो बेवकूफ लोग हैं ही। मैं भी सोचता हूँ चलो ठीक ही है, यदि एक मुझ नाचीज के मरने से बाकी  लोग अमर हो जाएँ तो भी कुछ बुरा नहीं। यह कोई जरूरी नहीं सिद्धार्थ नगर में या गोरखपुर में कई अमर लेखक हों। मैं तो इतना बुद्धू हूँ कि जानता ही नहीं कि लेखक अमर होने के लिए हुआ जाता है। क्या रेल या जहाज का पायलट अमर होने के लिए हुआ जाता है ? किसी मल्लाह को अमर होते देखा है आपने ? जैसे झाड़ू लगाने का काम अमर होने के लिए नहीं, उसी तरह मेरे लिए भी साहित्य में ईंट-गारा ढ़ोने का काम अमर होने के लिए नहीं है। बस एक सड़क बन जाय। अपने हिस्से का काम कर जाऊँ। बस। कबीर अमर होने के लिए कविता लिख रहे थे कि सूरदास या जायसी या तुलसी ? या मीरा या रैदास या.......।  अमर होने के लिए कोई लिखता है, तो चलो उसे भी अच्छा काम मान लेता हूँ, पर अकादमी पुरस्कार अमर होने का प्रमाणपत्र है। साहित्य के स्वर्ग का टिकट साहित्य अकादमी की खिड़की से मिलता है क्या ? कोई आरक्षण काउंटर है वहाँ ? कुछ लोगों को लगता है कि साहित्य में अमर होने के लिए विदेश यात्राएँ बहुत जरूरी हैं, वे मिनट-मिनट पर विदेश का दौरा करते रहते हैं और अखबार के दफ्तरों में फोटो सहित विवरण छपवाते रहते हैं। मैं तो समझ ही नहीं पाया कि चीन में हिंदी कविता पढ़ने या हिंदी साहित्य पर बात करने का क्या मतलब है। इस काम के लिए अपना सिद्धार्थनगर, गोरखपुर, महराजगंज, देवरिया, पड़रौना...खराब है क्या ? यहाँ हिंदी मर रही है और आप हिंदी का अमृत बाँटने चीन जा रहे हैं, इससे बड़ी बेवकूफी की बात मेरी दृष्टि में दूसरी नहीं। हिंदी के बाऊ साहब को पता है कि उनके पडरौना या बलिया या जीयनपुर में हिंदी मर रही है ? सवाल आज बाऊ साहबों का नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। उन्हें जितना करना था या कह सकते हैं कि हिंदी की दुनिया में जितना जापानी बुखार फैलाना था, फैला दिया है। हिंदी के लाड़ले और सच्चे सपूत क्या कर रहे हैं, जिन्हे अभी पुरस्कारों का राजरोग नहीं लगा है। आजादी की लड़ाई क्या सिर्फ बूढ़ों न लड़ी है ? नौजवानों की हिस्सेदारी क्या कम है ? बहरहाल, आपके प्रश्न के उत्तर में मुझे न जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़ रहा है। असल में आपका प्रश्न असाधारण है। मैं आप पर तनिक भी संदेह नहीं करूँगा कि आपने मजाक में या संदेह में या भय में यह प्रश्न किया है। मैं तो मानता हूँ कि आप के भीतर यह इच्छा है कि साहित्य की सत्ता में भी बदलाव हो भ्रष्ट लोग साहित्य की सत्ता से बेदखल हों। पर सवाल यह है कि यह होगा कैसे ? लेकिन इसके उत्तर की खोज में मुझे फिर एक चक्कर दूसरे तरह के लोगों का लगाना पड़ेगा। पहले तरह के लोगों की बात कर चुका हूँ। दूसरे तरह के लोग क्रांति के गीत गाते हुए ही इस धरती पर अवतरित हुए हैं। इंकलाब जिंदाबाद और मार्क्सवाद जिंदावाद जैसे कई मशहूर नारे मिनट-मिनट पर इनकी जीभ पर होते हैं। चलिए यह भी साहित्य में बुरा नहीं है, बल्कि साहित्य को उद्देश्य को सुंदर बनाने का एक जरूरी विकल्प है। लेकिन यह विकल्प उस वक्त दम तोड़ देता है, जब साहित्य की भ्रष्ट सत्ता के सामने ऐसे लोग हथियार डाल देते हैं। आज की तारीख में इनकी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि ये चाहते हैं कि अमेरिका तो ध्वस्त हो लेकिन साहित्य की दिल्ली या बनारस बना रहे। साहित्य की सत्ता की क्रूरताएँ, हर प्रकार का शोषण और बर्बर दमन और कत्लेआम इन्हें नहीं दिखता है। ये सिर्फ सुरक्षित महान साहित्य का काम करना चाहते हैं। ये लाल कविताएँ तो लिखना चाहते हैं पर साहित्य के अन्यायी के सामने लाल नहीं होना चाहते हैं। ये भी दुनिया भर में घूमते या वहाँ के साहित्य के अच्छे अंशों का पाठ करते नहीं थकते हैं, पर अपने साहित्यिक जीवन में निडरता और मुखरता से परहेज करते हैं। ये बहुत बड़े रिसर्चर तो बनते हैं पर साहित्य की सत्ता के सामने एक छींक भी नहीं निकाल सकते हैं। अरे भाई आप सत्रहवीं शती के बारे में क्या सोचते हैं, इसमें कोई जोखिम नहीं है, इस पर कोई आपसे नासराज नहीं होगा। आप वाह-वाह लूट सकते हैं पर आपने समय के बारे में कितना सच कहते हैं। कबीर ने बपने समय के सच को कितना फटकार कर कहा है, पर आप अपने समय के बारे में चुप क्यों हैं ? जाहिर है, बोलते ही सतता और सफलता का समीकरण बिगड़ जायेगा। इस डर से चुप रहते हैं। यहाँ मैं कहना चाहता हूँ कि मैं भी प्रगतिशील विचारधारासे उतना ही प्रेम करता हूँ, पर भीतरी निष्ठा के साथ। दिखावे के तौर मिनट-मिनट पर सुकविधाजनक छींक, छींक कर नहीं। एक बऔर जरूरी बात यह कि मैं मार्क्सवादी लेखकों में गैरमार्क्सवादी लेखकों से अधिक ईमान और साहस चाहता हूँ। मेरी यह माँग किसी को गलत लगे तो लगे। अरे भाई जब सिपाही ही बेईमान हो जाएगा तो फिर होगा क्या...। साहित्य में विचारधारा के साथ विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों का चोलीदामन का साथ है। दुर्भाग्य से ऐसे ही कुछ विभागों को मैं हिंदी की लंका के रूप में देखता हूँ। जाहिर है जहाँ लंका होगी, वहाँ कोई रावण होगा, कोई कुभकरण, कोई मेधनाद वगैरह...हरण और युद्ध भी होगा ही। पर आज का बाहर का लेखक भी जब हिंदी की लंका के राक्षसों का रिश्तेदार बनने लगता है ....तो लेखक नाम की संस्था का अंत निकट दिखने लगता है। तृतीय कोटि के लेखक वे हैं जो साहित्य कर दुनिया में भी क्रांति का स्वप्न देखते हैं। हैं न ये बेवकूफ नम्बर एक ? ये सोचते हैं कि ये क्रांति का बिगुल बजायेंगे और प्रगतिशील दोस्त दौड़े चले आयेंगे। उलट-पलट देंगे साहित्य की दुनिया। नहीं दोस्तो,  ऐसी बात शायद नहीं है। इन्हें पता है कि इनके चाहने से दुनिया नहीं बदलेगी। पर ये बदल गये तो इन्हें पता है कि फिर दुनिया कभी नहीं बदलेगी। ये अभी थोड़े क्रांति की हड़बड़ी में हैं। इन्हें पता है कि बाँस लेकर तोप का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। ये तो बात को जिंदी रखना चाहते हैं। ये तो बस एक उम्मीद को जिंदा रखना चाहते हैं। ये जानते हैं कि इनके चाहने भर से यश और पुरस्कार की घुड़दौड़ खत्म नहीं होने को है। ये बस बता भर रहे हैं कि पार्टनर तुम्हारे पैर मुड़े हुए हैं। तुम्हें जाना सीधे है और भाग रहे हो पीछे। खुद को अमर करने की होड़ क्यों ? अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाने की चिंता क्यों नही ? यह क्यों नहीं चाहते कि तुम्हारे न रहने के बाद तुम्हारी कोई एक कविता किसी को याद रहे ? सिर्फ कविता ? आज कविता में भी अंधी दौड़ हैं। कोई  केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन या त्रिलोचन या केदारनाथ सिंह इत्यादि...का क्लोन बनना चाहता है तो कोई कविता को उलटा लटका कर कविता का जादूगर ? अकादमी विजेताओं की बात कर ही चुका हूँ। ऐसे में शेष जी, साहित्यिक मुक्ति फौरन से पेश्तर संभव हो जाएगी, ऐसा कोई मुगालता मेरे भीतर नहीं है। बस आप जैसे लेखक इसे एक जरूरी बात के रूप में याद रखें इतना ही बहुत है। मैं सिद्धार्थ नगर से जे.एन.यू. या दिल्ली पहुँचने का भाग्य लेकर साहित्य में नहीं आया हूँ। कबीर भी काशी को तज कर मगहर पहुँचे थे। मैं भी आज की काशी दिल्ली से दूर हूँ। मगहर के पास। गोरखपुर में। गोरख के मुहल्ले में मेरा छोटा-सा घर है। जहाँ बैठ कर हिंदी साहित्य के बारे में कुछ सोचता रहता हूँ। उलटा-सीधा। शेष जी, इत्मीनान से लिखना चाहता था, पर प्रश्न सामने हो तो रुकना वश में कहाँ है ? हाँ, आपके प्रश्न का क्या हुआ, कह नहीं सकता....।






                                                                                                                           

रविवार, 12 अगस्त 2012

साहित्यिक मुक्ति का प्रश्न उर्फ़ इस पापागार में स्वागत है संतो

 -गणेश पाण्डेय



                      कबीर होते, रैदास होते, दादू होते तो आज किसी पँूजीपति घराने या सरकारी अनुदान से चलने वाली संस्थाओं के कथित बड़े ,मझोले या छोटे पुरस्कारों के लिए चयन समिति के सदस्यों को भाँति-भाँति के नुस्खों और प्रलोभनों और अन्य प्रभाव से खुश करने का उपक्रम करते या ऐसे कलंकित पुरस्कारों को अपनी सचाई की धूनी में डालकर तज देते ? कबीर तो कबीर गोरखपुर के ही दलित कही जाने वाली एक जाति विशेष से जुड़े और धूमिल, जगूड़ी की तरह ही साठोत्तरी हिंदी कविता को अपने मुहावरे और खासतौर से अपनी काव्यभाषा से समृद्ध करने वाले देवेंद्र कुमार आज जीवित होते तो यहाँ के पीछे के दरवाजे से पुरस्कृत होने वाले लेखकों की तरह चयन समिति के सदस्यों के सामने बिछ कर दिल्ली-फिल्ली या किसी भी बड़े शहर का कोई पुरस्कार हथिया रहे होते ? और अपने शहर के और बाहर के साहित्य के कूपमण्डूक लेखकों और साहित्यिक रूप से वज्र मूर्ख पत्रकारों के सामने सीना फुलाकर या फर्जी विनम्रता का प्रदर्शन कर बड़ा कवि होने का अभिनय कर रहे होते ? आज कई पुरस्कार ऐसे लोगों को दिये जाते हैं जिन्हें अच्छा लिखने में नहीं बल्कि पुरस्कारों के लिए सेटिंगबाजी में महारत हासिल हो। यह सब इसलिए कह रहा हूं कि हम जिस समय में हैं जब उसके साहित्य का परिदृश्य इतना गंदा है तो समाज और राजनीति का परिदृश्य कितना गंदा रहेगा, आप सहज अनुमान लगा सकते हैं। अनुमान क्या लगाना, जब इसी समय में जीना है तो सब आप अपनी खुली आँखों से देख रहे होंगे। मुश्किल यह है मित्रो! इसी समय मे दोनों तरह के लोग रह रहे हैं। महाखराब भी और शायद कुछ-कुछ अच्छे भी। क्या गोरखपुर क्या दिल्ली, क्या कोई और शहर- कवि हों या आलोचक साढ़े निन्यानबे फीसदी औसत की सरकार है। कोई किसी नामवर का मंुशी है तो कोई किसी नामी-गिरामी का अधिकारी-आलोचक और बात-बात पर ससुरा कहने वाले का भक्त तो कोई साहित्य के किसी मुंशी का मुंशी। कोई पूर्णकालिक मंुशी है तो कोई अंशकालिक। कोई विश्वविद्यालय में काम करने वाला है तो कोई सरकारी दफतर में। हैं सभी वही। साहित्य की दुनिया का जब अपराधीकरण हो जायेगा और साहित्य का परिसर व्यभिचार और पाप का अड्डा बन जायेगा तो जो लेखक इस रास्ते का मुसाफिर नहीं होगा, उसके हृदय से कुछ तो कठोर वचन निकलेंगे ही। बालकृष्ण भट्ट के निबंध का नाम ही है‘ साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है’ ,लेकिन बालकृष्ण भट्ट आज लिख रहे होते तो शीर्षक देते कि ‘आज का साहित्य हिंदी के हरामजादों का पापागार है’। मित्रो, आप सोच रहे होंगे कि मैं संत कवियों के बहाने यह सब क्या कह रहा हूं। संतों की बात के बीच अप्रिय वचन! कहां संत कवि और कहां ससुरे असंत कवि। सच तो यह कि जब असंतई हद से ज्यादा बढ़ जाये तो संतो को याद करने सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं। क्योंकि ये संत ही हैं जिनमें कुछ के पास जलता हुआ मोटा-तगड़ा चैला है तो कुछ के पास नम्र निवेदन। जिस को जो पसंद हो सब हाजिर है। आज कबीर, रैदास, दादू वगैरह कविता के संतांे की जरूरत जितना साहित्य में है, उतना ही गांधी जैसे अडिग संत की जरूरत इस देश की राजनीति में है। राजनीति और साहित्य में फिसड्डियों की पापी सत्ता को चुनौती देने का काम वे ही कर सकते हैं जो इस रीति-नीति और पतनोन्मुख संस्कृति के कीचड़ से दूर हों या इनके बीच रहने को अभिशप्त हों तो इनके बीच वैसे ही रहें जैसे कीचड़ में ‘कोई-कोई’ कमल रहता है। यह कोई-कोई इसलिए कह रहा हूँ कि अब कमल भी देवता के चरणों में नतमस्तक होने की जगह राजनीति और साहित्य के दुष्टों के चरणों में पड़ कर अपने को धन्य ही नहीं बल्कि अधिक सुरक्षित और खासतौर से पुरस्कृत अनुभव करते हैं। फिर भी हर जगह कुछ पागल मिल जाते हैं। कमलों में भी कुछ होंगे जो कमल की तरह जीना चाहते होंगे। जाहिर है कि ऐसे जन ही कुछ-कुछ संतों के स्वभाव के निकट होंगे। हिन्दी साहित्य के परिसर में आज संत कविता की ओर देखना जितना जरूरी है उतना ही दिलचस्प। संतों की ओर टकटकी लगाने की एक दूसरी और विशेषरूप से नयी सदी की सबसे बड़ी साहित्यिक जरूरत यह है कि आज हमारा देश और देश की हिन्दी भाषी जनता अनेक गुलामियों के बाद अब जिस नई गुलामी के खतरे से चुपचाप जुझ रही है, उसका नाम ‘साहित्यिक गुलामी’ है और कुछ किया न गया तो यह किसी जानलेवा बीमारी की तरह उसके साहित्यिक जीवन का नाश कर देगी। साहित्यिक जीवन का ही नहीं, साहित्यिक जीवन के बाद उसके सामाजिक जीवन और राजनीतिक जीवन को भी नष्ट कर देगी। हिन्दी के बेटों और सगे-संबंधियों को खबर ही नहीं कि उनके जीवन में यह हो क्या रहा है और उनका सभ्य जीवन या जीवन को जीवन देने वाला जीवन नयी सदी के अंत तक बच भी पायेगा या नहीं। यह बात मैं, हाँ मैं, पहलीबार कह रहा हँू और ऐसा कुछ कहते हुए अपने होशो-हवास में हँू। जानता हूँ कि आज हिन्दी के देश में ‘साहित्यिक गुलामी’ के नाम से जो यह जो नयी गुलामी किसी महामारी की तरह फाट पड़ी है इससे हमारा न सिर्फ हिन्दी भाषी जनता का साहित्यिक जीवन शायद कुछ दशकों में या इस नयी सदी के अंत तक नष्ट हो जायेगा और हो सकता है कि कोई कृत्रिम साहित्यिक जीवन या साहित्य की कोई रोबोट प्रणाली वाली कोई मुर्दों की दुनिया विकसित हो जाये। यह भी जानता हँू कि  हमारा शुद्ध साहित्यिक जीवन अपने आप नष्ट होने वाली चीज नहीं है बल्कि इसे नष्ट करने वाले विषाणुओं का जन्म मौजूदा हिन्दी भाषी साहित्यिक समाज के बीच हो चुका है। ये विषाणु अपने समय के सबसे चतुर और बहुरूपी और प्रतिपल चकित और मुग्ध करने वाले हैं। ये विषाणु सबसे पहले पाँच सौ रूपये के भारतभूषण पुरस्कार से लेकर साहित्य आकादमी और व्यास सम्मान और दूसरे हजारों और लाखों रुपये के पुरस्कारों के पीछे-पीछे दिनरात चक्कर काटने वाले दो-दो कौड़ी के छुटभैये लेखकों की आत्मा को खा कर उनके प्राण हर लेते हैं और उन्हें साहित्य का प्रेत बना कर छोड़ देते हैं कि जाओ और जा कर साहित्य को ऐय्याश प्रेतों की कब्रगाह बना दो। भूल जाओ और नाच-गा कर या मार-मार कर सबको समझा दो कि प्लेटो झूठ कहता था कि गुलामी मृत्यु से भयावह है, अपना तिलक बक-बक करता था कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, वह लेखिका पागल हो गयी है जो उस व्यास-सम्मान को ठुकरा देती है जिसके लिए छुटभैये क्या कुछ नहीं करते। जाओ कह दो कि गणेश पाण्डेय भी पागल हो गया है जो आध्यात्मिक मुक्ति, सामाजिक मुक्ति , राजनीतिक मुक्ति की तरह नयी सदी के दूसरे दशक के आरम्भ में ‘साहित्यिक मुक्ति’ की बात करता है। हाँ, मित्रो! आज मैं ऐसा कहता हँू। क्यों कि मैं ऐसा कह सकता हूँ।
   ऐसे समय में जब साहित्य में पाप का घड़ा भर गया हो, पापियों ने बाकायदा साहित्यिक सरकारें और संसद का गठन कर लिया हो, असंतई साहित्यक जीवन का चरममूल्य बन गयी हो, मेरा ढ़िलपुक दोस्त क्या करेगा और किसे याद करेगा यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन मेरे जैसा आदमी अपने पुरखे हिंदी के संतो को नहीं याद करेगा तो आज की तारीख में हिंदी के किस हरामजादे को याद करेगा ? तो संतो! आप से जानना है कि आपके समय में दुष्टता का क्या चरित्र था ? देखिये यह फर्क तो रहेगा ही मुझमें और मेरे ढ़िलपुक दोस्त में कि वह आपसे पूछता तो पूछता कि भक्तिकाल की कविता में भक्ति का स्वरूप क्या है ? आपके राम और सगुण कवियों के राम में क्या फर्क है और बहुत काँखता-कूँखता तो अपने किसी राम या प्रगतिशील मित्रों को खुश करने के लिए यह पूछ लेता कि आपके राम और आज की अमुक राजनीतिक पार्टी के राम में क्या फर्क है ? शायद उसे लगता है कि जो साम्प्रदायिक हैं सिर्फ वे ही भ्रष्ट और समाज के हत्यारे होते हैं और बाकी सब दूध के धुले और हिंदी के मर्द और लायक बेटे होते हैं। बुराई और कहीं है ही नहीं। ये साम्प्रदायिक ही बुराई के लिए पैदा हुए हैं। साहित्य में सिर्फ देवता होते हैं, सब देवता होते हैं, एक गणेश पाण्डेय को छोड़ कर। छोड़िए मेरे ढ़िलपुक दोस्त और इस, उस शहर के हजार ढ़िलपुकों की बात। एक जरूरी सवाल से अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ कि संतो! साम्प्रदायिकता का विरोध आपने किया तो ऐसा क्यो नहीं लगा कि आप फ्रॉड कर रहे हैं ,जबकि आज की तारीख में इस-उस शहर का कोई असंत परमानंद दास या बिसनाथदास या कोई भी बंदा ऐसा करता है तो फ्रॉड क्यों लगता है ? आप के समय में प्रशासनिक सेवा के आला अफसर होते थे, उनमें से अपने से आधी उम्र के किसी अधिकारी को किसी बड़े लेखक के नाम पर औसत लेखन के आधार पर उसे पुरस्कार दिलाने के लिए आप लोग एड़ी-चोटी एक करते थे और फिर हरिओम तत्सत कह कर नृत्य करने लगते थे ? या आप ऐसा करने वाले असंत परमानंददास को या बिसनाथदास को या किसी भी बंदे को चिमटे से दाग देते ? आप ही बताइए कि सत्तर-पचहत्तर साल वालों को सम्मानित करने के लिए कोई पैंतीस साल का आला अफसर उपक्रम करे तो यह अच्छा लगेगा या सत्तर-पचहत्तर साल के लेखक उस अधिकारी को सम्मानित करने के लिए तिकड़म करें तो यह अच्छा लगेगा ? यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि बाबा आप लोगों ने तमाम अजब-गजब उलटबाँसी वाली कल्पना करते हुए भी यह कल्पना न की होगी कि हिंदी में एक दिन ऐसा भी आ जायेगा कि जब साहित्य में असंतों की कोई ऐसी प्रजाति भी पैदा हो जायेगी! हे बाबा लोग आपके समय में साहित्य, आध्यात्मिक और सामाजिक मुक्ति का माध्यम था। आज के असंतों के लिए साहित्य मात्र पुरस्कार पाने के लिए बांस की ढ़िलपुक सीढ़ी है। आपके समय के राजाओं और संत कवियों में फर्क था। आज नेता पैसे के लिए देश को दांव पर लगा सकता है तो लेखक पुरस्कार के लिए साहित्य को। यह नये जमाने का नया अद्वैतवाद है। इनके लिए शब्द ब्रह्म नहीं, पुरस्कार ब्रह्म है। जो आपके लिए ब्रह्म है, वह इनके लिए ब्रह्म नहीं है। आपके पास जीव को ब्रह्म से मिलने की तड़प है। इनके पास न कोई आत्मा है और न कोई परमात्मा। कोई तड़प है तो पुरस्कार के लिए है। आप जिसे माया कहकर दूर करने के लिए  कहते हैं, ये उसे पुरस्कार कहकर गजभर की जीभ से चाटते हैं। आप मुक्ति चाहते हैं, ये पुरस्कार का पिंजड़ा चाहते हैं। आप सच फटकार कर कह सकते हैं तो विनम्रतापूर्वक भी, ये भूल कर भी और किसी तरह भी सच नहीं कह सकते। जहाँ तक मैं जानता हूँ बाबा, आप लोगों ने किसी आलोचक ससुरे को कभी खुश-वुश नहीं किया। आप लोग परमात्मा का अनुग्रह चाहते थे, ये आलोचक का। वह तो कहिए कि आपके वक्त में निंदक तो हुए कोई आलोचक न हुआ।  हुआ होता तो उसका क्या हुआ होता, कहना मुश्किल है। आज निंदक नहीं आलोचक होते हैं। मेरा ढ़िलपुक दोस्त भी आलोचक है। कभी-कभी मुझसे कहता है कि रचना के परिश्रम का फल चखने के लिए आलोचक को खुश करना पड़ता है। वह इसलिए ऐसा कहता है कि कोई-कोई हमउम्र कवि उससे  कहते हैं कि वे उसके चरणों की धूल हैं। यह समय का फेर है कि साहित्य के सरोकारों का ? कहाँ भक्त मुक्ति के लिए प्रभु के चरणों की धूल होता था, कहाँ आज लेखक पुरस्कार और अवसर के लिए जिस-तिस दो कौड़ी के कथित बड़े लेखकों के चरणों की धूल बनने के लिए व्यग्र है। वह तो कहिए कि ये ससुरे आजादी की लड़ाई के दौरान नहीं पैदा हुए ,नहीं तो देश को आजादी खाक मिलती! एक रायबहादुरी पर ये न जाने क्या-क्या दे देते। बहरहाल कभी-कभी भूमिकाएँ लिखने का काम जिस पटकथा लेखक का होता है, उसका नाम समय होता है। वक्त बहुत कुछ बदल देता है। अलग-अलग वक्त के परिप्रेक्ष्य एक जैसे नहीं होते। आज संत कवियों को याद करने का अर्थ वही नहीं है, जो बड़े सुकुल जी के समय में था। आलोचना में भाड़ झोंकने वाले आलोचकों ने अपनी काबुली चने जैसी आँखों से आलोचना का कितना भाड़ फोड़ दिया है और कितनी आँखें, यह बाकायदा जाँच आयोग का विषय तो हो सकता है, इस लेख का विषय नहीं। तो संत कविता क्यों बड़ी कविता है और संत कवि क्यों बड़े कवि हैं और आज उनकी याद क्यों बेहद जरूरी है जैसे प्रश्नों से गुजरते हुए अपने समय की दरिद्रता और शक्ति और प्रतिभा की विफलता का अनुभव होता है। कोई कविता अपने सरोकारों और ईमानदारी से बड़ी होती है। निजी प्रेम या अन्य नितांत व्यक्तिगत विषयों पर भी लिखी गयी कविता अपने सरोकारों से बड़ी हो सकती है। कविता का साध्य पुरस्कार होते ही कविता मर जाती है। कवि ससुरा मर जाता है। हम जिस समय में हैं। कई कवियों की जनखई देखी है। इसी शहर में एक कवि को साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में बुलाये जाते रहने के लिए एक औसत लेखक की धोती फींचते देखा गया है। अनेक स्थानों पर ऐसे दृश्य होंगे। इसीलिए आज बड़ी कविता लिखना सबके वश की बात नहीं। जीवन छोटा है तो बड़ी कविता बने कैसे ? संत कवियों का जीवन बड़ा था इसलिए कविता बड़ी हुई। जीवन में चुनौतियाँ बड़ी थीं इसलिए कविता बड़ी हुई। संत कवियों का समय चुनौती पूर्ण था, आज की तरह साहित्य, समाज और राजनीति की सŸाा के सामने समर्पण करने वाला नहीं था। समर्पण था तो सर्वशक्तिमान सŸाा प्रभु के सामने था, उस प्रभु के सामने था जो दयालु था, दुख दूर करने वाला था। मुक्तिदाता था। मक्कार ,लालची और शोषक और क्रूर नहीं था। संत कवियों  की आकाँक्षा मुक्ति थी, सबकी मुक्ति। जैसे बुद्ध की आकाँक्षा सबके दुखों का अंत। जैसे गांधी की आकाँक्षा भारत की मुक्ति।
 संत कवि भी अपने समय के मुक्तिकामी नायक और सामाजिक विमर्श को दिशा देने वाले प्रखर विचारक थे। यह अलग बात है कि उन्हें भी अक्सर अध्यात्म के चश्मे से ही देखा जाता रहा है। यह ठीक है कि अध्यात्म उनके काव्य की वीणा है पर उस वीणा से जो राग फूटते हैं, वे सिर्फ जीव और ब्रह्म के मिलन के गीत से जुड़े नहीं हैं। उन रागों के बीच जीवन की तिक्तता ओर कंटीले अनुभवों के संसार से जुड़े राग भी हैं, खासतौर से समाज के बहुसंख्यक जीवन की नसों में बहने वाले दर्द के तीव्र अनुभव का राग है। आचार्य शुक्ल उचित ही भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि को उस समय की जनता की चिŸावृŸिायों से जोड़कर देखते हैं -‘‘ देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव , गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराये जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चल कर जब मुस्लिम राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गये। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ? ’’ पर इस विश्लेषण में शायद पीछे की ओर रोशनी कम पड़ती है। पर इस चित्र का पीछे का हिस्सा भी है, वह यह है कि बहुसंख्यक हिन्दू जनता मुसलमानो से नहीं बल्कि अपने ही धर्म और समाज के थोड़े से लोगों के उस हिस्से से अपने को पराजित ही नहीं दलित, वंचित, अपमानित और अतिशय पीड़ित अनुभव कर रही थी। इसीलिए संत कवि जो प्रायः इसी वर्ग से आये थे, जीव और ब्रह्म के बीच के मायाजनित दूरी को सामाजिक वैष्मय और अलगाव से जोड़कर देखते थे। जाहिर है कि अध्याम के गीत की टेक का संबंध पक्के तौर पर सामाजिक टूट-फूट और उससे पैदा महाबेचैनी से है। कोई साढ़े चार सौ साल पहले के आसपास जब दादू कहते हैं-‘‘कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौं पूजै गरीब पिंजारा ।।.....मैं हौं निबल सबल ये सारे , क्यों करि पूजौं बहुत पसारे।।.....या... तहाँ मुझ कमीन की कौन चलावै।....सवतैं नीच मैं नांव न जांनां, कहै दादू क्यों मिलै सयाना।।’’ तो ‘कमीण विचारा’, ‘गरीब’, ‘पिंजारा’ ‘निबल’, ‘मुझ कमीन’, सवतैं नीच मैं’ जैसे पदों से अपने जैसे बहुसंख्यक जनता के जीवन के महादुख को तो व्यक्त करते ही हैं, खुद को ये सब विशेषण देते हुए जिस वर्ग से यह अपमान और असह्य दुख मिला है उस वर्ग की क्रूरता के विरुद्ध प्रतिकार का यह स्वर और मुहावरा काव्यभाषा की शालीनता का उदाहरण तो है ही संधर्ष को संयम से जोड़कर कहीं न कहीं निर्णायक स्थिति तक ले जाने की गंभीर चेष्टा भी है। दादू खुद को कमीण, कमीना, सवसे नीच कह कर चोट उस मुँह और सोच पर ही करते हैं जो ऐसा कहता या सोचता है, उस वर्ग को कमीना और सबसे नीच कह कर न तो उसका सिर फोड़ते हैं और न ही समाज को गैरजरूरी मारकाट में झोंकना चाहते हैं। रैदास भी खुद को ही कही गयी अपमानजनक बातें और दंश की पीड़ा रख कर अपनी बात रखते हैं-‘‘कह रैदास खलास चमार।...ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।’’ संत कवि सिर्फ यह चाहते हैं कि जब सबको साथ ही रहना है तो ढ़ग से रहें। दादू कहते भी हैं-‘‘नीच ऊँच मधिम को नाही, देषौ राम सबनि कै माँही।।’’ दादू ही नहीं दूसरे संत भी कहते हैं कि भगवान ने सबको बराबर बनाया है, कोई छोटा-बड़ा नहीं। आज के दलित कवि जब अपनी बात रखते हैं तो एक तो उनकी कवितानुमा चीज में कविता की तमीज नहीं होती और दूसरे कविता के मुहावरे में काव्यभाषा की शालीन परमाणु ऊर्जा की जगह सिर्फ आवाज करने वाले पटाखा बम की गूँज अधिक होती है। शायद इस बात का सही अनुमान या अंदेशा मेरे प्रिय कवि देवेंद्र कुमार को कोई तीस साल पहले था कि हिंदी की समृद्ध और बड़ी कविता की परंपरा में मेरुदंड जैसी संत काव्यधारा की मौजूदगी की वजह से हमारे यहाँ मराठी की तरह दलित साहित्य का उज्ज्वल भविष्य नहीं। और कुछ हो तो हो। ये वही देवेंद्र कुमार हैं जिन्हें पता था-‘‘पर्वत के सीने से बहता है झरना। मुझको भी आता है भीड़ से  गुजरना।।’’ कहना चाहता हूँ कि देवेंद्र कुमार की तरह उन्नत काव्यभाषा आज के दलित साहित्य के स्वयंभू लेखकों के पास मेरी जानकारी में नहीं है। हो तो देखना भी चाहूँगा और खुशी भी होगी। पर कविता का मुहावरा और काव्यभाषा का शालीन तेवर सभी संत कवियों में भी एक जैसा नहीं है। दादू जहाँ अपने समाज दर्द उघाड़ कर रख देते हैं वहीं कबीर आगे बढ़कर चोट करते हैं, ललकारते हैं, चुनौती देते हैं और लोक के मुहावरे का कविता में जितना तीखा इस्तेमाल कर सकते हैं करते हैं। जहाँ तक मैं समझता हूँ कविता के भीतर इससे तीखा संभव ही नहीं। इससे अधिक तीखा होगा तो फिर तो वह कविता नहीं हो सकती। कबीर अपने गुस्से को उसकी ताकत को और फटकार कर सच कहने की अपनी आदत को मिलाकर कविता का जो रसायन तैयार करते हैं वह अन्यत्र दुर्लभ है। कोई सच्चा जब भाषा के बाँध तोड़ देता है तो झूठा चाह कर भी उससे टकरा नहीं सकता। कबीर को शायद यह मालूम था, इसीलिए उन्हांेने दादू की तरह नहीं बल्कि अपनी तरह जात-पाँत पर प्रहार किया-‘‘ जो तूं बांमन बंमनी जाया। तौ आन वाट ह्वै क्यों नहिं आया।।’’ दादू कबीर के बाद आते हैं। शायद इसीलिए अपने स्वर को तोड़फोड़ के राग की जगह एका के कोमल राग से जोड़ते हैं। कहते हैं सब पर। पर आलोचना ऐसी कि जैसे सबको साथ लेकर चलना है। शायद दादू और बाद के दूसरे लोगों ने अनुभव किया होगा कि खण्डन-मण्डन और पत्थरों की वर्षा बस। हुआ क्या इससे ? कितना फर्क आया ? सब जस का तस। चलो प्रेम का राग काढ़ कर देखते हैं, शायद बात बन जाये। प्रेम तो कबीर के यहाँ भी है और खूब है। पर कुछ जो और है कुछ अधिक है। कबीर के यहाँ अतिशय मीठा और अतिशय तीखा एक ही दोने में रखकर साथ चखने की समस्या है। पर सच की ताकत कविता की ताकत को कम नहीं करती। इसीलिए कबीर का मीठा जितना प्यारा लगता है, उतना ही प्यारा तीखा भी। कबीर के लिए क्या दूसरे क्या अपने! सबके लिए कविता का सोटा एक जैसा। हाँ मित्रो! कबीर हैं जो कविता को कविता की सारी खूबियों के साथ सोटा भी बनाते हैं और अपने बेटे पर भी सोटा चलाने से नहीं चूकते-‘‘बूड़ा वंश कबीर का उपज्यो पूत कमाल...।’’ क्यों कि वह हरि का सुमिरन छोड़कर माल के फेर में पड़ता है। दादू कहते हैं-‘‘धन जोबन माया रे। यहु काची काया रे।।’’ लेकिन संत कवि यह नहीं कहते कि घरबार डोड़कर संन्यासी बन जाओ। वे सिर्फ निर्मल जीवन की बात करते हैं। माया मुक्त संत स्वभाव की बात करते हैं। उल्टे ऐसे ढ़ोंगियों की आलोचना करते हैं जो ‘‘ स्वंाग सती का पहिर करि , करै कुटुंब की सोच।’’ वे तो सबको जागने की बात करते हैं। वे बताते हैं कि मन और इंद्रियां व्यक्ति को माया की ओर आकृष्ट करती हैं और इन्हें वश में करके ही मायामुक्त हुआ जा सकता है। यह महाठगिनी माया जीव को ब्रह्म से मिलने नहीं देती। पृथ्वी की सबसे बड़ी सौत है माया। गुरु से ज्ञान प्राप्त करके ही इस बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। लेकिन आध्यात्मिक मुक्ति के लिए गुरु-शिष्य के इस अनिवार्य रिश्ते की कई पेचीदगियाँ भी हैं। सद्गुरु की खोज और शिष्य की पात्रता संत कविता और संत कवियों की अध्यात्मिक यात्रा की सबसे बड़ी समस्या है। मेरे प्रिय पाठको! मैं आपका ध्यान यहाँ जिन दो बातों की ओर खींचना चाहूँगा उनमें पहली बात हैं अध्यात्मिक मुक्ति का प्राणतत्व, दूसरी बात गुरु समस्या का समसामयिक संदर्भ। पर बात दूसरी बात से। सभी जीवों को ब्रह्म से मिलने की छटपटाहट के पीछे की असल वजह क्या है ? संत कवि क्यों इतने विकल हैं ? क्या सिर्फ अध्यात्मिक मुक्ति ही उनकी कविता या उनके संत जीवन का मुख्य प्रयोजन है ? यदि बात इतनी-सी है, तो फिर सिर्फ मिलन के गीत ही क्यों नहीं ? यह बार-बार अध्यात्म के भीतर समाज क्यों ? समाज के अपने समय के सबसे ज्वलंत और पेचीदा सवाल क्यों ? जात-पाँत और हिन्दू-मुसलमान क्यों ? संत कवियों का मुख्य प्रयोजन आखिर क्या है ? वे दुनिया को सुखी देखना चाहते हैं या जीव को ब्रह्म से मिलाना चाहते हैं ? दुनिया से दुख दूर हो जाये तो क्या वे जीव को ब्रह्म से मिलाने की बात छोड़ देंगे ? या जीव ब्रह्म से मिल जाय तो दुनिया की बात भूल जायेंगे ? दादू क्यों कहते हैं- ‘‘ दुष दरिया संसार है...। ’’ संसार क्यों दुख का दरिया है ? संत कवि कोई मार्क्सवादी तो हैं नहीं कि उन्हें धन और धरती न बंट पाने का दुख है ? वे तो पैसे को तुच्छ समझते हैं। कबीर कहते हैं- साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय। आप भी भूखा न रहे, साधु न भूखा जाय। कबीर हो या दादू या रैदास या कोई और संत कवि कोई भी अपने समय का सबसे बड़ा धनी नहीं बनना चाहता। फिर क्या चाहिए ? दुनिया दुख का दरिया क्यों है ? क्या यह दुनिया इसलिए दुख का दरिया नहीं है कि ऊँची जाति वाले उन्हें कमीण या नीच वगैरह कहते हैं ? क्या छोटी जातियों को सामाजिक अपमान और तिरस्कार के जिस असह्य दंश को बर्दाश्त करना पड़ रहा है, यह दुख का सबसे बड़ा कारण नहीं है ? यदि यह सबसे बड़ा कारण नहीं है तो बारबार जीव और ब्रह्म जैसे पृथ्वी के सबसे बड़े संदर्भ के बीच यह प्रकरण तीव्रता और विकलता के साथ क्यों ? जहाँ तक मैं समझ पाता हूँ मेरे प्रिय पाठको! संत कविता की अध्यात्मिक मुक्ति का केंद्रीय तत्व यह सामाजिक मुक्ति ही है। इसे ही मैं संत कविता के अघ्यात्मिक मुक्ति के प्राणतत्व के रूप में देखता हूँ। इसीलिए संत कविता मुझे इतनी प्रिय है। पहली बात पर लौटता हूँ। गुरु-शिष्य प्रकरण। मेरे प्रिय पाठको ! यह बारबार मेरे प्रिय पाठको, इसलिए कि यह बात जग में साफ रहे कि मेरे और मेरे ढ़िलपुक दोस्त के पाठक अलग-अलग है। पता नहीं उसके पाठक कितने हैं ? किस तरह के हैं ? हैं भी या नहीं ? बहरहाल मेरे पाठको! हम बात कर रहे थे गुरु-शिष्य की। संत कवि हो या दूसरे भक्त कवि गुरु के महत्व का बखान कौन नहीं करता ? कबीर कहते हैं-‘‘सतगुरु की महिमा अनँत, अनँतु किया उपगार। लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार।।’’ दादू कहते हैं-‘‘ सतगुरु कीया फेरि करि मन का औरे रूप। दादू पंचों पलटि करि, कैसे भये अनूप।।’’  लेकिन ये कबीर और दादू या दूसरे संतकवि ‘‘सतगुरु’’ की बात क्यों करते है ? क्या उनके समय में भी खराब या गंदे गुरु होते थे ? ये गंदे गुरुओं की परंपरा आखिर कितनी पुरानी है ? क्या इसीलिए कबीर कहते हैं-‘‘ जाका गुरु है आंधरा, चेला है जाचंद। अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप परंत।’’( श्याम सुदर दास का पाठ है-जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत।।) जब गुरुओं की हरामजदगी की कथा अतिप्राचीन है तो ऐसे में आज के गुरुओं को ठीक-ठीक कैसे देखा जाय यह समस्या आज के कवि की बड़ी समस्या है, जाहिर है कि जो समस्या आज के कवि की है वह कबीर की नहीं है। अच्छे गुरु भी होंगे, कोई दो राय नहीं। पर पक्का तो यह कि महाखराब या महागंदे गुरु भी हैं और ये असंतई के मामले में कबीर के जमाने के गुरुओं के बाप हैं। तभी तो आज के कवि का काम सिर्फ अंधा कहने से नहीं चलता। क्योंकि सिर्फ अंधा कहना बहुत नाइंसाफी है। काफी कम है। इसलिए आज का कवि जब दस कविताओं की ‘‘गुरु सीरीज’’ लिखता है तो कहता है-(2) जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया/मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ/न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर/सब कुछ सामान्य था मेरे लिए/जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया/और बनाया किसी खुशामदी को अपना/प्रधान शिष्य।/बस इतना हुआ मुझसे/कि मैं बहुत जोर से हँसा। (5)  गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/ एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले-/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है। (8) खूब मिले गुरु भाई/सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल/कुछ भी हो जाने के लिए/मेरे विरुद्ध/बात सिर्फ इतनी-सी थी/कि मैं कवि था भरा हुआ/कि टूट रहा था मुझसे /कोई नियम/कि लिखना चाहता था मैं /नियम के लिए नियम। (9) खीजे गुरु/पहला बाण / जो मारा मुख पर/आंख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा /खीजे गुरु/मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू। इस सीरीज की कुछ अन्य कविताओं के शीर्षक हैं-जब मुझे गुरु ने डसा, गुरु ने मुझसे कुछ नहीं मांगा, जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा,  कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान, निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं, सद्गुरु का पता। मेरे पाठको ! आज जिस साहित्यिक मुक्ति का प्रश्न उठा रहा हूँ यह अकारण नहीं। ठोस कारण हैं और पक्के सबूत। आज हिंदी साहित्य का टेंटुआ ऐसे कंटाल गुरुओं के पंजे में फँसा हुआ है कि अब गया, तब गया हिंदी का प्राण। गांधी ने संत कविता की अध्यात्मिक और सामाजिक मुक्ति को भारत की राजनीतिक मुक्ति से जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया है। समय आ गया है कि जब सामाजिक और राजनीजिक मुक्ति को हिंदी की साहित्यिक मुक्ति से भी जोड़ा जाय। सामाज और राजनीति के मौजूदा अंधेरे में एक बार फिर साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बनाने की बेहद जरूरत है। यह काम तब संभव होगा जब साहित्यि की मुक्ति संभव की जाय। साहित्यिक मुक्ति का यह संग्राम चलेगा कैसे ? सवाल यह है। जब तुरत पैदा लेखक से लेकर कब्र में पैर लटकाकर बैठे रहने वाले और आँखों और इच्छाओं से बहुत कुछ करते रहने वाले लेखकों के लिए साहित्यिक गुलामी जीवन के सर्वोŸाम उपहार की तरह हो, जिनके लिए इस-उस की साहित्यिक चाकरी और बेगार और दासता साहित्यिक पुरुषार्थ जैसी चीज हो तो ऐसे में साहित्यिक मुक्ति की कामना निश्चितरूप से किसी जोखिम से कम नहीं। पर विदित है कि जीते हैं वही जो उठाते हैं जोखिम। कबीर के समय में ही नहीं , सच बोलना आज भी सबसे बड़ा जोखिम है। जो सच कहता है, वही अपना काम करता है। जस की तस सच की चादर धरती पर झाड़ और बिछा कर और हिंदी के कापुरुषों को उस पर पटककर या सममानपूर्वक बैठाकर जो बंदा इस दुनिया से चल देता है , वही ऊपर या कहीं भी धरती की कोई चीज लेकर भाग आने के जुर्म से बचता है। कबीर हों या दादू या कोई अन्य संत कवि, सब अपने हिस्से का ही नहीं बल्कि अपने समय के हिस्से का भी सच बोल कर जाते हैं। इसीलिए वे बारबार याद आते हैं। सच से जो लौ लगाते हैं वह लौ परमात्मा के लौ से तनिक भी कम नहीं। जैसे सच ही ईश्वर है। यह ऐसा समय है जिसमें झूठ और फरेब को ही भगवान समझा जाता है। इनमें आसक्ति ही आज के जमाने की प्रभु भक्ति है। आज के भक्त कवि-आलोचक हैं वे प्रभु के भक्त नहीं बल्कि साहित्यप्रभुओं के भक्त हैं। मेरा ढ़िलपुक दोस्त तो कम से कम ऐसा ही भक्त हैऔर कोई ऐसी-वैसी भक्तई नहीं है उसकी। किसी नामी-गिरामी प्रभु ही नहीं ज्ञात-अज्ञात कुलशील के कोई तैंतीस करोड़ साहित्य के देवी-देवताओं का भक्त है। जो बंदा या अपने जनपद का गद्दार ही सही उसे कोई पुरस्कार दिला देता है या बाहर की किसी गोष्ठी का निमंत्रण दिला देता है, वही उसका भगवान हो जाता है। उसी के गुण गाने लगता है। गुण ही नहीं अवगुण को भी गुण की तरह गाने लगता है। यह सब उसकी आलोचना का वैशिष्ट्य है, जिस पर कभी शोधकार्य कराने की जरूरत है। आज के अनेक आलोचक और लेखक मित्रो को लग रहा होगा कि मेरा मित्र ही केवल साहित्यभ्रष्ट है, बाकी सब दूध के धुले हैं। जबकि सच तो यह कि जो दूसरे लेखक-आलोचक-कवि हैं उससे कम पतित नहीं हैं। कुछ तो उससे काफी बढ़-चढ़ कर हैं। कबीर कवि ही नहीं अपने समय और समाज के सबसे बड़े आलोचक हैं। आज के महाभ्रष्ट आलोचकों को अपने बडप्पन का भ्रम नहीं होना चाहिए। क्योंकि कबीर कविता ही नहीं आलोचना में भी उनके बाप हैं। यह अलग बात है कि वे कबीर को नहीं बल्कि दिल्ली या गोरखपुर में किसी भी साहित्यपतित को अपना बाप समझते हों। आज का आलोचक और साहित्य प्रबंधक इतना मदांध हैं कि अपने को साहित्य का ही बाप समझ लेने के मुगालते में है। सब जानते हैं कि संत कवि मुगालते के कवि नहीं हैं। बल्कि जीवन और समाज और जगत के मुगालते की काट की खोज करने वाले कवि हैं। वे अपनी खोज में कामयाब भी होते हैं और जहाँ-जहाँ जरूरत होती है, पूरी ताकत से उसे कहते भी हैं। न राजा से डरते हैं, न मृत्यु से। दादू कहते हैं-राव, रंक मरहिंगे, जीवै नाही कोई। दादू सोई जीवता जो मरजीवा होई।। या फिर कहते हैं-कागद का माणस कीया, छत्रपति सिरमौर। राजपाट साधै नहीं, दादू परिहरि और।। कबीर इस निर्भयता को मुक्ति से जोड़ते हैं-आये हैं सो जायेंगे, राजा, रंक फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जात जंजीर।। यहाँ राम विलास शर्मा का स्मरण स्वाभाविक है-‘‘संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का इजारा तोड़ा। खासतौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को साँस लेने का मौका मिला, यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्रों के बिना भी उनका काम चल सकता है।’’ इतने लंबे प्रकरण के बाद जो बड़ी बात कहना चाहता हूँ वह यह कि हिन्दी के इन छुटभैये लेखकों-आलोचकों-कवियों को यह बात क्यों नहीं समझ में आती है कि हिन्दी साहित्य के पुरोहितांे और असंतों के बिना उनका भी काम चल सकता है। जब कबीर फिर से पैदा होकर उन्हें समझाएँगे, तभी वे समझेंगे। किसी साधारण लेखक की सच्ची बात को नहीं सुनेंगे-समझेंगे। कबीर अब नहीं आयेंगे तो न आयें पर कुछ तो आयेंगे जरूर और कहेगे जरूर। संत कविता ही नहीं पूरे भक्तिकाल की कविता और उसके बाद छायावाद की कविता और उसके बाद की कविता में कविता को जीवित रखने वाले तत्वों की प्रतिष्ठा में लेखक के जीवन का सत्व कितना अधिक है, सब जानते हैं। अफसोस जानकर भी उस रास्ते पर चलने की समस्या आज के लेखक के जीवन की सबसे बड़ी समस्या है। यह समस्या जाहिर है कि साहित्यिक मुक्ति से जुड़ी समस्या है। यह भी सच है कि इस मुक्तिसंग्राम के लिए संतो ंके जीवन का सत्व चाहिए। संत मुक्ति की बात को ऊँची आवाज में कह सके तो यह उनके आत्मबल में खासतौर से जीवन के बल की असीम ऊर्जा है। संतों को संत कहा गया तो इसीलिए कहा गया कि उनका जीवन निर्मल था, उनकी चादर पारदर्शी और उजली-धुली थी। संत वह है जिसका जीवन बुराइयों वाली दुनिया में निर्मल जीवन हो। जो सभी प्रकार के मायाजन्य और अज्ञानजन्य दुर्गुणों से खुद को और दूसरों को बचाये। जो वर्ग और जाति की सोच से मुक्त हो। नानाक कहते हैं- जो नर दुख में दुख नहिं मानै। सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै। नहिं निंदा, नहिं अस्तुति जाके....। पर आज साहित्य की दुनिया में अतिशय भीरु, पुरस्कारलोलुप, पतित और हिंदी के हत्यारों की सरकार है, जैसे राजनति की दुनिया में धनबल और बाहुबल की सरकार है। दोनों क्षेत्र एक जैसे हालात में हैं। राजनति में तो फिर भी कहने के लिए ही सही एक विपक्ष होता है जो गाहे-बगाहे सरकार से जुड़े लोगों के बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों पर कुछ बोलता तो है। कुछ शोरगुल करता है। पर साहित्य में कोई प्रतिपक्ष है ही नहीं और अगर कहीं कोने-अँतरे में हो भी तो जिंदा नहीं है।
जबकि प्रतिपक्ष और प्रतिरोध की नौटंकी हरामजादे लेखक सबसे ज्यादा यहीं करते हैं। खुशी-खुशी चाही गयी साहित्यिक गुलामी के कंठ से मुक्ति के फर्जी गीत गाते हैं। क्रांतिकारी का भेष बनाकर गुलामी के गुप्तचर और साहित्य के हत्यारे बनकर गली-गली घूमते हैं। कबीर और दादू हों या कोई और संत कवि, सभी ऐसे ढोंगियों की पोल खोलते रहते हैं। कोई कहता है कि - मन न रंगाये , रंगाये जोगी कपड़ा। तो कोई कहता है-स्वाँग सती का पहरि करि, करै कुटुम्ब की सोच। ऐसे समय में जब साहित्य में सबकुछ खाक कर देने वाली आग न सिर्फ लगी हो बल्कि तेजी से फैलती ही जा रही हो तो आग बुझााने के सभी तरीके आजमाने की जरूरत है। बालू भी चाहिए तो पानी भी। सीधे-सादे लोग चाहिए तो दमकल पुलिस भी। साहित्य और साहित्य के जीवन को बचाने के लिए शीतलहर में कभी तप्त सूर्य चाहिए तो भयंकर रूप से तपती हुई रातों में शीतल चंद्रमा। शायद संत कविता में और संत कविता में ही क्यों, साहित्य के पूरे जीवन में एक ओर कबीर जैसे संत कवि तप्त सूर्य हैं तो दूसरी ओर दादू जैसे संत कवि शीतल चंद्रमा। आशय यह कि आज के साहित्यिक आकाश में ऐसे लेखकों की ही जरूरत है जो अपने समय का नन्हा ही सही सूर्य और चंद्रमा बन सकें। अपने समय के साहित्य का सच निर्भय होकर कह सकें। अपनी ऊष्मा और अपने आलोक से अँधेरे की जंजीर को काट सकें। साहित्यिक दासता से अपने समय के विपन्न और भयभीत लेखकों को मुक्त करा सकें। संत कवियों ने जैसे साधारण जन को माया की ठगी से बचाने की कोशिश की वैसे ही हमारे समय के अति विरल इक्का-दुक्का ‘संत साहित्यिक’ पुरस्कार जैसी माया से खुद को और दूसरे लेखकों को बचाने की कोशिश कर सकें। उन्हें खबरदार कर सकें। सड़क पर लगे बोर्ड की तरह- आगे खड्ड है! नही ंतो लेखक या साहित्यकार नाम की संस्था तांे मरेगी ही, हिंदी साहित्य भी मर जाएगा। इसीलिए कह रहा हूँ कि आज आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति की तरह साहित्यिक मुक्ति की आकांक्षा लेखक और साहित्य दोनों के जीवन और खासतौर से हिंदी के भविष्य के लिए सबसे जरूरी है। इसी साहित्यिक मुक्ति के संघर्ष की कोख से ही राजनीतिक और सामाजिक मुक्ति के संघर्ष को अँधेरे से निकाल कर अर्थपूर्ण और तीव्र बनाया सकता है।
( संपादकीय: यात्रा 5-6 )