---------------------------------
ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
---------------------------------
कहां फेंका था तुमने
अपना वह माउथआर्गन
जिस पर फिदा थीं तुम्हारी सखियां
कहां गुम हुईं सखियां किस मेले-ठेले में
किसके संग
कैसे तहाकर रख दिया होगा तुमने
अपना प्यारा-प्यारा स्लेटी स्कर्ट
किस खूंटी पर फड़फड़ा रहा होगा
वह बेचारा लाल रिबन
सब छोड़-छाड़ कर
कैसे प्रवेश किया होगा तुमने
पहलीबार
भारी-भरकम प्रभु की पोशाक के भीतर
यह क्या है तुममें
जे बज रहा है फिर भी मद्धिम-मद्धिम
कहां हैं तुम्हारी सखियां
कोई क्या करे अकेले
इस राग का
देखो तो आंखें वही हैं
जिनमें छिपा रह गया है फिर भी कुछ
जस के तस हैं काले तुम्हारे वही केश
होठों में गहरे उतर गया है नमक
कुछ भी तो नहीं छूटा है
वही हैं तुम्हारे प्रियातुर कान
किस मुंह से जाओगी प्रभु के पास
ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
कैसे करोगी तुम ईश का ध्यान
जब बजने लगेगा कहीं
मद्धिम-मद्धिम
माउथआर्गन।
-----------------
प्रथम परिणीता
-----------------
जिस तलुए की कोमलता से
वंचित है
मेरी पृथ्वी का एक-एक कण
घास के एक-एक तिनके से
उठती है जिसके लिए पुकार
फिर से जिसे स्पर्श करने के लिए
मुझमें नहीं बचा है अब
चुटकीभर धैर्य
जिसके पैरों की झंकार
सुनने के लिए
बेचैन है
मेरे घर के आसपास
गुलमोहर के उदास वृक्षों की कतार
और तुलसी का चौरा
जिसकी
सुदीर्घ काली वेणी में लग कर
खिल जाने के लिए आतुर हैं
चांदनी के सफेद नन्हे फूल
और
असमय
जिसके चले जाने के शूल से
आहत है मेरे आकाश का वक्ष
और धरती का अंतस्तल
तुम हो
तुम्हीं हो
मेरी प्रथम परिणीता
मेरे विपन्न जीवन की शोभा
जिसके होने और न होने से
होता है मेरे जीवन में
दिन और रात का फेरा
धूप और छांव
होता है नीचे-ऊपर
मेरे घर
और
मेरे दिल
और दिमाग का तापमान
अच्छा हुआ
जो तुम
जा कर भी जा नहीं सकी
इस निर्मम संसार में मुझे छोड़कर
अकेला
सोचा होगा कैसे पिएंगे प्रीतम
सुबह-शाम
गुड़
अदरक
और गोलमिर्च की चाय
भूख लगेगी तो कौन देगा
मीठी आंच में पकी हुई
रोटी
और मेथी का साग
दुखेगा सिर
तो दबाएगा कौन
आहिस्ता-आहिस्ता
सारी रात
रोएंगे जब मेरे प्रीतम
तो किसके आंचल में पोछेंगे
रेत की मछली जैसी
अपनी तड़पती आंखें
और जब मुझे देख नहीं पाएंगे
तो जी कैसे पाएंगे
कैसे समझाएंगे
खुद को
कैसे पूरी करेंगे जीवन की कविता
कैसे करेंगे मुझे प्यार
अच्छा हुआ
मीता
मेरी प्रथम परिणीता
छोड़ गयी मेरे पास
स्मृतियों की गीता
दे गयी
एक और मीता
परिणीता
जिसके जीवन में शामिल है
तुम्हारा जीवन
जिसके सिंदूर में है तुम्हारा सिंदूर
जिसके प्यार में है
तुम्हारा प्यार
जिसके मुखड़े में है तुम्हारा मुखड़ा
जिसके आंचल में है तुम्हारा आंचल
जिसकी गोद में है तुम्हारी गोद
कितना अभागा हूं
भर नहीं पाया तुम्हारी गोद
तुम्हारे कानों में पहना नहीं पाया
किलकारी के एक-दो कर्णफूल
तुम्हारी आंखों के कैमरे में
उतार नहीं पाया
तुम्हारी ही बालछवि
किससे पूछूं कि जीवन के चित्र
इतने धुंधले क्यों होते हैं
समय की धूल
उड़ती है
तो आंधी की तरह क्यों उड़ती है
प्रेम का प्रतिफल
दुख क्यों होता है
और
अक्सर
तुम जैसी स्त्री का सखियारा
दुख से क्यों होता है
तुम नहीं हो
तुम्हारी सखी है
है दुख है तुम्हारी सखी है
कर लिया है उसी से ब्याह
हूं जिसके संग
देखता हूं उसी में
तुम्हें नित।
-------------
गर्वीली बिंदी
-------------
जरा-सा
छू गयी थी बस
वह कलफदार साड़ी गुलाबी
सुबह की गाड़ी के पहले डिब्बे में
किसी माता के मंदिर को जातीं
और उसी के गुन गातीं
कई रंग और कई उम्र
और कई चेहरों वाली
स्त्रियों के बीच।
देर से
रह-रह कर हिल-डुल रहा था
एक कंगन और एक मुखड़ा
बीचोबीच।
आउटर सिंगनल पार करते-करते
दिशाओं में जीवन रस घोलती हुई
एक लंबी सीटी के साथ
दिल के किसी कोने से निकला-हाय
कोई बेधक गान।
प्लेटफार्म पर उतरते-उतरते
लगा कि मुझे
खींच नहीं पा रही थी पीछे से
सोने की मोटी चेन।
चश्में के सुनहले फ्रेम से
पलक झपकते
बाहर हो गया था मैं।
मुझे ढूंढ़ नहीं रही थीं
रेले में पता नहीं किसे ढूंढ़ती हुई
वे दो खोयी-खोयी आंखें।
बोलते-से होंठ बुला नहीं रहे थे मुझे
अपने पास।
फिर भी
एक इच्छा हुई कि देखूं पीछे मुड़कर
और दौड़कर
चूम लूं उसकी गर्वीली बिंदी
झुककर
पर यह तो कोई बात न हुई।
-----------------------------
एक चांद कम पड़ जाता है
-----------------------------
कई बार एक जीवन कम पड़ जाता है
एक प्यार कम पड़ जाता है कई बार
कई बार हजार फूलों के गुलदस्ते में
चंपे का एक फूल कम पड़ जाता है
एक कोरस ठीक से गाने के लिए
एक हारमोनियम कम पड़ जाता है
कई बार।
सांसें लंबी हैं अगर
और हौसला थोड़ा ज्यादा
तो तबीअत से जीने के लिए
एक रण कम पड़ जाता है
जो है और जितना है उतने में ही
एक दुश्मन कम पड़ जाता है।
दिल से हो जाय बड़ा प्यार अगर
तो कई बार
एक अफसाना कम पड़ जाता है
एक हीर कम पड़ जाती है
ठीक से बजाने के लिए
सितार का एक तार कम पड़ जाता है
एक राग कम पड़ जाता है।
कई बार
आकाश के इतने बड़े शामियाने में
एक चांद कम पड़ जाता है
दुनिया के इस मेले में देखो तो
एक दोस्त कहीं कम पड़ जाता है
एक छोटी-सी बात कहने के लिए
कई बार एक कागज कम पड़ जाता है
एक कविता कम पड़ जाती है।
---------
गायिका
---------
बस
ऐसे ही
गाती रहो गायिका
इस जमघट के घट-घट में
ढूंढो
नंद के लालन को
पकड़ो
रंग डारो
छा जाओ गायिका
आतुर
रागमेघ बनकर टूट पड़ो
अरराकर
विकल अति तप्त धरा के
एक-एक कण
और एक-एक बीज को
छू-छू कर बरसो गायिका
एक-एक पुकार से
लिपट-लिपट कर बरसो
गायिका
आज की रात
और
मेरे जीवन की रात के हर क्षण को
बना दो अपने जैसी गाती हुई।
यह एक खास रात है
गायिका
तुम बरस रही हो
और कोई तुम्हें सुन रहा है
रोम-रोम से
ऐसे ही बरसती रहो गायिका
अनुभव और स्मृति की उर्वर घरती पर
तुम गा रही हो
तुम बरस रही हो मुझ पर ऐसे
कि कोई और नहीं बरस रही है
पृथ्वी पर
कोई और गायिका नहीं गा रही है
किसी लोक में ऐसे
कोई और नहीं सुन रहा है तुम्हें
जिस तरह मैं सुन रहा हूं तुम्हें।
गायिकी की नौका में तुम्हारे संग
ऐसे ही हिचकोले खाते रहना चाहता हूं
सारी रात
ऐसे ही गाती रहो गायिका
जैसे
नन्ही-नन्ही उंगलियों के इशारे पर
नाचता है तुम्हारा हारमोनियम
बांसुरी जैसे
जैसे ढोल।
ऐसे ही गाती रहो
ऐसे ही बार-बार
गंव से लट पीछे ले जाओ
छेड़ती रहो
आलाप जैसी उठी हुई बाहों से तान
एक-एक बोल पर
थिरकती हुई अपनी आखों से गाओ
गाते हुए होंठो से गाओ
कंठ के भीतर बैठी हुई
राधा के कंठ से गाओ
गायिका
ऐसे ही।
कोई और फिर से याद आकर
जाए तो जाए निष्ठुर
आज की रात
मुझे छोड़कर
तुम न जाओ गायिका
ऐसे ही बस गाती रहो
जब तक मैं हूं।
--------------------
उस चांद से कहना
--------------------
तुम्हारे उड़ने के लिए है
यह मन का खटोला
खास तुम्हारे लिए है यह
स्वप्निल नीला आकाश
विचरण के लिए
आकाश का
सुदूर चप्पा-चप्पा
सब तुम्हारे लिए है
तनिक-सी इच्छा हो तो
चांद पर
बना लो घर
चाहो तो चांद के संग
पड़ोस में मंगल पर बस जाओ
जितनी दूर चाहो
जाओ
बस
देखना प्रियतम
अपने कोमल पंख
अपनी सांस
और भीतर की जेब में
मुड़ातुड़ा
अपनी पृथ्वी का मानचित्र
सोते-जागते दिखता रहे
आगे का आकाश
और पीछे प्रेम की दुनिया
धरती पर
दिखती रहें
सभी चीजें और अपने लोग
उड़नखटोले से
होती रहे
आकाश के चांद की बात
पृथ्वी के सगे-संबंधियों
और अपने चांद की
आती रहे याद
जाओ जो चाहो तो जाओ
जाओ आकाश के चांद के पास
तो लेते जाओ उसके लिए
धरती का जीवन
और संगीत
मिलो आकाश के चांद से
तो पहले देना
धरती के चांद की ओर से
भेंट-अंकवार
फिर धरती की चंपा के फूल
धरती की रातरानी की सुगंध
धरती की चांदनी का प्यार
धरती के सबसे अच्छे खेत
धरती के ताल-पोखर
धान
और गेहूं के उन्नत बीज
थोड़ी-सी खाद
और एक जोड़ी बैल
देना
कहना कि कोई सखी है
धरती पर भी है एक चांद है
जिसे
तुम्हारे लौटने का इंतजार है
कहना कि छोटा नहीं है
उसका दिल
स्वीकार है उसे
एक और चांद
चाहे तो चली आए
तुम्हारे संग
उड़नखटोले में बैठकर
मंगलगीत गाती हुई
धरती के आंगन में
स्वागत है।
---------------------------
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
---------------------------
तुम अच्छी हो
तुम्हारी रोटी अच्छी है
तुम्हारा अचार अच्छा है
तुम्हारा प्यार अच्छा है
तुम्हारी बोली-बानी
तुम्हारा घर-संसार अच्छा है
तुम्हारी गाय अच्छी है
उसका थन अच्छा है
तुम्हारा सुग्गा अच्छा है
तुम्हारा मिट्ठू अच्छा है
ओसारे में
लालटेन जलाकर
विज्ञान पढ़ता है
यह देखकर
तुम्हें कितना अच्छा लगता है
तुम
गुड़ की चाय
अच्छा बनाती हो
बखीर और गुलगुला
सब अच्छा बनाती हो
कंडा अच्छा पाथती हो
कंडे की आग में
लिट्टी अच्छा लगाती हो
तुम्हारा हाथ अच्छा है
तुम्हारा साथ अच्छा है
कहती हैं सखियां
तुम्हारा आचार-विचार
तुम्हारी हर बात अच्छी है
यह बात कितनी अच्छी है
तुम अपने पति का
आदर करती हो
लेकिन यह बात
बिल्कुल नहीं अच्छी है
कि तुम्हारा पति
तुमसे
प्रेम नहीं करता है
तुम हो कि बस अच्छी हो
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
चुप क्यों रहती हो
क्यों नहीं कहती अपने पति से
तुम उसे
बहुत प्रेम करती हो।
-----------------------------
कहां जान पाते हैं सब लोग
-----------------------------
नाती-पोतों की दुनिया में मगन
दादियों और नानियों की
थुलथुल टोली की वह नायिका
इतनी वयस्त है कि भूल गयी है
काफी समय से बंद
खिड़कियों को खोलना
वक्त की तमाम धूल को झाड़ना
किसी को याद रखना
भूल गयी है नूरजहां का गाना
कहती है-
अब मेरे लिए
इतना वजनी शरीर लेकर
न नाचना मुमकिन है न गाना
बीते दिनों में लौटना
पीछे की पगडंडी पर कदम रखना
और किसी पुराने छत पर
चांदनी रातों में तन्हा टहलना
अब मुमकिन नहीं
कह दो
अब कुछ नहीं मुमकिन
पता नहीं कहां रख दी है
वह किताब
कह दो
प्रेम मेरे लिए
पहली कक्षा का एक पाठ था
किस कमबख्त को याद रहता है
इतना पुराना पाठ
कोई याद दिलाए भी तो हंसकर
टाल जाना बेहतर
आखिर
कितना वक्त लगता है
किसी पाठ के कुपाठ होने में
मैं जिसे प्रेम करती हूं
राख में दबी हुई चिंगारी की तरह
बस प्रेम करती हूं
उसे याद नहीं करती हूं
प्रेम मेरे लिए
न मेरी दिनचर्या का हिस्सा है
न मेरे घर के कोने में
इस तरह की
किसी जानलेवा चीज के लिए
झाड़ू जितनी जगह है
घर की कारा में ऐसा कुछ रखना
कितना खतरनाक होता है
कहां जान पाते हैं
सब लोग।
-------------------------------------------------
घर : पांच /
कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
-------------------------------------------------
कैसे निकलूं इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नींद
एक स्त्री की तीस बरस लंबी नींद
नींद भी जैसे किसी नींद में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नींद में हो
बस एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नींद
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नींद में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूं उसके जीवन से
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूं कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह
नींद में
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूं
बताकर जाना चाहता हूं
कि जा रहा हूं
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूं कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूं
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे
कि जा रहा हूं।
-----------------------------------------
घर : छः /
उठो यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है
----------------------------------------
कैसे जगाऊंगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूंगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूंगा हौले से
जागो यशोधरा
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताजा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है
उठो यशोधरा
तुम्हारा राहुल सो रहा है
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊं तुम्हें
तुम्हीं बताओ यशोधरा
किस गुरु के पास जाऊं
किस स्त्री से पूछूं
युगों से
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मंत्र
किससे कहूं कि देखो
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी है
और मुझ जैसे
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से
क्या करूं
इस यशोधरा का
जिसे
मेरे जैसा एक साधारण आदमी
बहुत चाह कर भी
जगा नहीं पा रहा है
और
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।
------------------------------
कब्र में लेटी रहने वाली स्त्री
-----------------------------
कौन था
वह बूढ़ा आदमी
और कौन थी वह
बूढ़ी स्त्री
दो पैसे
खुद पर खर्च किया
बहुत दिनों के बाद
बूढ़े का
हाथ पकड़
रसोई की कब्र से
बाहर निकाली
और
खुली हवा में
जीभर
देर तक
हंसी
बहुत दिनों के बाद
बूढ़े ने
मंहगे टाकीज में
सफेद बालों वाली
एक सांवली
बूढ़ी स्त्री को
सिनेमा दिखाया
सिल्क की एक साड़ी खरीदी
बहुत दिनों के बाद
मसाला डोसा खाया
और फुल प्लेट
कुल्फी खिलायी
कोल्ड काफी भी पिलायी
बहुत दिनों के बाद
पार्क में बैठे
यादों की चादर बिछा कर
उंगलियों का जाल बनाकर
एक-दूसरे के चेहरे को
एकटक देखा
पहले जैसा
बहुत दिनों के बाद
ढ़लते हुए सूरज को
और थके हुए पक्षियों को
कलरव करते
लंबी सांस भरते
देखा-सुना करीब से
बहुत दिनों के बाद
फिर से
जोड़ा-जामा पहन कर
बूढ़ी स्त्री की चुनरी
लहराया
बूढ़ी ने भी बूढ़े को
उस नजर से देखा
और पार्क में बैठे
लड़कों
और लड़कियों की
आंख बचा कर
बूढ़े को जोरदार ढंग से
मारी आंख
इस तरह
एक घरेलू क्रांति हुई
बहुत दिनों के बाद
स्वप्न और उमंग के
समुद्रतल में धंसे हुए
लड़के
और लड़कियां
कितनी बेखबर हैं
क्या जानें
साल में एक दिन
शादी की वर्षगांठ पर
अपने
बूढ़े जिन्न के इशारे पर
जिन्दा हो जाने के लिए
वर्षभर
चुपचाप
कब्र में लेटी रहने वाली
वह
बूढ़ी स्त्री
कौन है
किससे पूछूं जानते हो
किससे कहूं नहीं जानती हो
तो जाओ
मेरे जैसे किसी गुमनाम
कवि के जीवन की कविता से
इस बूढ़ी स्त्री का
चित्र निकाल कर
ले जाओ
और
मिलाओ इसे
उस बूढ़ी स्त्री से
जिसे तुम जानते तो हो
पर तुम्हारे पास जिसके लिए
वक्त सबसे कम है
जाओ
उस मां के पास जाओ
जिसने दी है तुम्हें
अपनी लोहे जैसी जवानी
गला कर
कुंदन जैसी यह तरुणाई
देर-देर तक
उस बूढ़ी स्त्री का हाथ पकड़ कर
कभी बरामदे में
कभी फोन के पास
कभी फोटो के सामने
बैठे रहने वाले
उस बूढ़े आदमी के पास जाओ
देखो
आज
इतना अधीर क्यों है
कमजोर क्यों है उसका मन
जिसने दी है तुम्हें
प्रेम और संघर्ष के लिए
फूल की पंखड़ियों जैसी कोमल
और वज्र जैसी कठोर
काया
बैठो उसके पास
ठीक अपनी जड़ के पास
कुछ देर बैठो
देखो
फिर कोई कंछा फूट रहा है
बहुत दिनों के बाद।
----------------------------
आत्मा का एकांत आलाप
---------------------------
अजीब आदमी है
ढ़लान से उतरते हुए
मुड़-मुड़ कर
आकाश में चांद को
देखता है
इतने बड़े आकाश में
चांद को अकेला देखता है
देखता है कैसे
कहीं गिर न जाए बेचारा
खड्ड में
उसे अकेला चांद
बिल्कुल अपने जैसा लगता है
कितना अच्छा लगता है
अपनी तरफ एकटक देखते हुए
चांद के कान के पास मुंह ले जाकर
कहता है-
कितनी अजीब बात है
मैं भी भटक रहा हूं कोई तीस बरस से
अपने आकाश में अकेला
और जिसे प्रेम करता हूं
कुछ नहीं कहता हूं उससे अब
यह भी कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं
जिससे प्रेम नहीं करता हूं
उससे भी नहीं कहता
कि मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता हूं
मेरे लिए प्रेम
बिल्कुल निजी घटना है
आत्मा का एकांत आलाप
अभिव्यक्ति के सारे दरवाजे बंद हैं जहां
बस एक अद्वितीय अनुभव है
प्रौढ़ता का एक शालीन विस्फोट
जिसने मेरे प्रेम को
त्वचा की अभेद्य सतह को भेदकर
भीतर कहीं गहराई में पहुंचा दिया है
शायद मेरे लिए प्रेम
एकांत में किसी फूल से मिलना है
अपनी ही हथेली को
बार-बार चूमना है
किसी पुलिया पर बैठ कर
आहिस्ता-आहिस्ता
डूबते हुए सूरज को देखना है
उम्र की ढ़लान पर
पुराने प्रेमियों के लिए शायद
स्मृति का महोत्सव है प्रेम
जीवन का अंतिम राग है
जीवन की चुनरी का
मद्धिम रंग है
रेलगाड़ी के किसी पुराने डिब्बे में
किसी छोटे-से स्टेशन पर
किसी शहर में
किसी गरीब के लोटे की तरह
कि उसके बदनसीब दिल की तरह
छूट गया
अनोखा वाद्य है।
---------------------------
सफेद दाग वाली लड़की
---------------------------
कोई
आया नहीं
देखने कि कैसी हो
कहाँ हो मिट्ठू
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का
है उसे इन्तजार
कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-सि का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर
सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में
सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे सो उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सरी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जगते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।
--------
वर्दी में
--------
कई थीं
ड्यूटी पर थीं
कुछ तो बिल्कुल नई थीं
अंट नहीं पा रही थीं वर्दी में
आधा बाहर थीं आधा भीतर थीं।
एक की खुली रह गयी थी खिड़की
दूसरी ने औटाया नहीं था दूध
झगड़कर चला गया था तीसरी का मरद
चौथी का बीमार था बच्चा कई दिनों से
पांचवीं जो कुछ ज्यादे ही नई थी
गपशप करते जवानों के बीच
चुप-चुप थी
छठीं को कहीं दिखने जाना था
सातवीं का नाराज था प्रेमी
रह-रह कर फाड़ देना चाहता था
उसकी वर्दी।
----------
परिणीता
---------
यह तुम थी !
पके जिसके काले लंबे बाल असमय
हुए गोरे चिकने गाल अकोमल
यह तुम थी !
छपी जिसके माथे पर अनचाही इबारत
टूटा जिसका कोई कीमती खिलौना
एक रेत का महल था जिसका
एक पल में पानी में था
कितनी हलचल थी कितनी पीड़ा थी
भीतर एक आहत सिंहनी कितनी उदास थी
यह तुम थी !
ढ़ल गया था चांद जिसका
और चांद से भी दूर हो गया प्यार जिसका
यह तुम थी !
श्रीहीन हो गया जिसका मुख
खो गया था जिसका सुख यह तुम थी !
यह तुम थी एक-एक दिन
अपने से लड़ती-झगड़ती खुद से करती जिरह
यह तुम थी ! औरत और मर्द दोनों का काम करती
और रह-रह कर किसी को याद करती
यह तुम थी !
कभी गुलमोहर का सुर्ख फूल
और कभी नीम की उदास पीली पत्ती
यह तुम थी !
अलीनगर की भीड़ में अपनी बेटी के साथ
अकेली कुछ खरीदने निकली थी
यह तुम थी !
यह मैं था
साथ नहीं था आसपास था
मैं भी अकेला था तुम भी अकेली थी
मुझसे बेखबर यह तुम थी !
बहुमूल्य
चमचमाती और भागती हुई
कार के पैरों के नीचे एक मरियल काले पिल्ले-सा
मर रहा था किसी का प्यार
और तुम बेखबर थी
यह तुम थी ! जिसकी किताब में लग गया था
वक्त का दीमक
कुतर गये थे कुछ शब्द कुछ नाम कुछ अनुभव
एक छोटी-सी दुनिया अब नहीं थी
जिसकी दुनिया में यह तुम थी !
जो अपनी किताब में थी और नहीं थी
जो अपने भीतर थी और नहीं थी
घर में थी और नहीं थी
यह तुम थी !
बदल गयी थी
जिसके घर और देह की दुनिया
जुबान और आंख की भाषा
बदल गया था
जिसके चश्मे का नंबर और मकान का पता
यह तुम थी !
जिसकी आलीशान इमारत ढ़ह चुकी थी
मलबे में गुम हो चुकी थी जिसकी अंगूठी
और हार छिप गया था किसी हार में
यह तुम थी!
जीवन के आधे रास्ते में
बेहद थकी हुई झुकी हुई
देखती हुई अपनी परछाईं
समय के दर्पण में
जो इससे पहले कभी
इतनी कमजोर न थी
इतनी उदास न थी
यह तुम थी
किसी की परिणीता!
और
यह !
तुम थी !!
मेरी तुम !!!
जो अहर्निश
मेरे पास थी
जिसकी त्वचा
मेरी त्वचा की सखी थी
जिसकी सांसों का
मेरी सांसों के संग
आना-जाना था
मेरे बिस्तर का आधा हिस्सा जिसका था
और जिसका दर्द मेरे दर्द का पड़ोसी था
जिसके पैर बंधे थे मेरे पैरों से
जिसके बाल कुछ ही कम सफेद थे
मेरे बालों से
जिसके माथे की सिलवटें कम नहीं थीं मेरे माथे से
जिससे मुझे उस तरह प्रेम न था
जैसा कोई-कोई प्रेमी और प्रेमिका किताबों में करते थे
पर अप्रेम न था कुछ था जरूर
पर शब्द न थे जो भी था एक अनुभव था
एक स्त्री थी
जो दिनरात खटती थी
सूर्य देवता से पहले चलना शुरू करती थी
पवन देवता से पहले दौड़ पड़ती थी
हाथ में झाड़ू लेकर
बच्चों के जागने से पहले
दूध का गिलास लेकर
खड़ी हो जाती थी मुस्तैदी से
अखबार से भी पहले
चाय की प्याली रख जाती थी
मेरे होठों के पास मीठे गन्ने से भी मीठी
यह तुम थी
मेरे घर की रसोई में
सुबह-शाम सूखी लकड़ी जैसी जलती
और खाने की मेज पर
सिर झुकाकर
डांट खाने के लिए तैयार रहती
यह तुम थी!
बावर्ची
धोबी
दर्जी
पेंटर
टीचर
खजांची
राजगीर
मेहतर
सेविका
और दाई
क्या नहीं थी तुम!
यह तुम थी!
क्या हुआ
जो इस जन्म में मेरी प्रेमिका नहीं थी
क्या पता मेरे हजार जन्मों की प्रेयसी
तुम्हारे अंतस्तल में छुपी बैठी हो
और तुम्हें खबर न हो
यह कैसी उलझन थी मेरे भीतर कई युगों से
यह तुम थी अपने को मेरे और पास लाती थी
जब-जब मैं अपने को तुमसे दूर करता था
यह तुम थी !
जो करती थी मेरे गुनाहों की अनदेखी
मेरे खेतों में
अपने गीतों के संग पोछीटा मार कर
रोपाई करती हुई मजदूरनी कौन थी!
अपनी हमजोलियों के साथ
हंसी-ठिठोली के बीच
बड़े मन से मेरे खेतों में एक-एक खर-पतवार
ढूंढ-ढूंढ कर निराई करती हुई
यह तन्वंगी कौन थी!
मेरे जीवन के भट्ठे पर पिछले तीस साल से
ईंट पकाती हुई झाँवाँ जैसी यह स्त्री कौन थी
यह तुम थी!
और यह मैं था एक अभिशप्त मेघ !
जिसके नीचे न कोई धरती थी न ऊपर कोई आकाश
और जिसके भीतर पानी की जगह प्यास ही प्यास
कभी
मैं ढू़ंढ़ता उस तुम को !
और कभी इस तुम को !
कभी किसी की प्यास न बुझाई
न किसी के तप्त अंतस्तल को
सींचा
न किसी को कोई उम्मीद बंधायी
यह मैं था प्रेम का बंजर
इतनी बड़ी पृथ्वी का
एक मृत और विदीर्ण टुकड़ा
अपनी विकलता और विफलता के गुनाह में
डूबा
यह मैं था! यह मेरे हजार गुनाह थे
और तुम मेरे गुनाहों की देवी थी!
यह तुम थी!
जिससे
मेरी छोटी-सी दुनिया में
गौरैया की चोंच में अंटने भर का
उसके पंख पर फैलने भर का
एक छोटा-सा जीवन था
एक छोटी-सी खिड़की थी
जहां मैं खड़ा था
सुप्रभात का एक छोटा-सा
दृश्यखंड था
यह तुम थी! मेरी आंखों के सामने
मेरी तुम थी
यह तुम थी!
मेरे गुनाहों की देवी!
मुझे मेरे गुनाहों की सजा दो
चाहे अपनी करुणा में
सजा लो मुझे
अपनी लाल बिन्दी की तरह
अपने अंधेरे में भासमान इस उजास का क्या करूं
जो तुमसे है इस उम्मीद का क्या करूं
आत्मा की आवाज का क्या करूं
अतीत का क्या करूं अपने आज का क्या करूं
तुम्हारा क्या करूं
जो मेरे जीवन की सखी थी और सखी है
जिसके संग लिए सात फेरे
मेरे सात जन्म के फेरे हैं
जो मेरी आत्मा की चिरसंगिनी थी मेरा अंतिम ठौर है
यह तुम थी!
यह तुम हो!!
मेरी मीता
मेरी परिणीता।
('परिणीता' संग्रह से प्रेम कविताएं )
ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
---------------------------------
कहां फेंका था तुमने
अपना वह माउथआर्गन
जिस पर फिदा थीं तुम्हारी सखियां
कहां गुम हुईं सखियां किस मेले-ठेले में
किसके संग
कैसे तहाकर रख दिया होगा तुमने
अपना प्यारा-प्यारा स्लेटी स्कर्ट
किस खूंटी पर फड़फड़ा रहा होगा
वह बेचारा लाल रिबन
सब छोड़-छाड़ कर
कैसे प्रवेश किया होगा तुमने
पहलीबार
भारी-भरकम प्रभु की पोशाक के भीतर
यह क्या है तुममें
जे बज रहा है फिर भी मद्धिम-मद्धिम
कहां हैं तुम्हारी सखियां
कोई क्या करे अकेले
इस राग का
देखो तो आंखें वही हैं
जिनमें छिपा रह गया है फिर भी कुछ
जस के तस हैं काले तुम्हारे वही केश
होठों में गहरे उतर गया है नमक
कुछ भी तो नहीं छूटा है
वही हैं तुम्हारे प्रियातुर कान
किस मुंह से जाओगी प्रभु के पास
ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
कैसे करोगी तुम ईश का ध्यान
जब बजने लगेगा कहीं
मद्धिम-मद्धिम
माउथआर्गन।
-----------------
प्रथम परिणीता
-----------------
जिस तलुए की कोमलता से
वंचित है
मेरी पृथ्वी का एक-एक कण
घास के एक-एक तिनके से
उठती है जिसके लिए पुकार
फिर से जिसे स्पर्श करने के लिए
मुझमें नहीं बचा है अब
चुटकीभर धैर्य
जिसके पैरों की झंकार
सुनने के लिए
बेचैन है
मेरे घर के आसपास
गुलमोहर के उदास वृक्षों की कतार
और तुलसी का चौरा
जिसकी
सुदीर्घ काली वेणी में लग कर
खिल जाने के लिए आतुर हैं
चांदनी के सफेद नन्हे फूल
और
असमय
जिसके चले जाने के शूल से
आहत है मेरे आकाश का वक्ष
और धरती का अंतस्तल
तुम हो
तुम्हीं हो
मेरी प्रथम परिणीता
मेरे विपन्न जीवन की शोभा
जिसके होने और न होने से
होता है मेरे जीवन में
दिन और रात का फेरा
धूप और छांव
होता है नीचे-ऊपर
मेरे घर
और
मेरे दिल
और दिमाग का तापमान
अच्छा हुआ
जो तुम
जा कर भी जा नहीं सकी
इस निर्मम संसार में मुझे छोड़कर
अकेला
सोचा होगा कैसे पिएंगे प्रीतम
सुबह-शाम
गुड़
अदरक
और गोलमिर्च की चाय
भूख लगेगी तो कौन देगा
मीठी आंच में पकी हुई
रोटी
और मेथी का साग
दुखेगा सिर
तो दबाएगा कौन
आहिस्ता-आहिस्ता
सारी रात
रोएंगे जब मेरे प्रीतम
तो किसके आंचल में पोछेंगे
रेत की मछली जैसी
अपनी तड़पती आंखें
और जब मुझे देख नहीं पाएंगे
तो जी कैसे पाएंगे
कैसे समझाएंगे
खुद को
कैसे पूरी करेंगे जीवन की कविता
कैसे करेंगे मुझे प्यार
अच्छा हुआ
मीता
मेरी प्रथम परिणीता
छोड़ गयी मेरे पास
स्मृतियों की गीता
दे गयी
एक और मीता
परिणीता
जिसके जीवन में शामिल है
तुम्हारा जीवन
जिसके सिंदूर में है तुम्हारा सिंदूर
जिसके प्यार में है
तुम्हारा प्यार
जिसके मुखड़े में है तुम्हारा मुखड़ा
जिसके आंचल में है तुम्हारा आंचल
जिसकी गोद में है तुम्हारी गोद
कितना अभागा हूं
भर नहीं पाया तुम्हारी गोद
तुम्हारे कानों में पहना नहीं पाया
किलकारी के एक-दो कर्णफूल
तुम्हारी आंखों के कैमरे में
उतार नहीं पाया
तुम्हारी ही बालछवि
किससे पूछूं कि जीवन के चित्र
इतने धुंधले क्यों होते हैं
समय की धूल
उड़ती है
तो आंधी की तरह क्यों उड़ती है
प्रेम का प्रतिफल
दुख क्यों होता है
और
अक्सर
तुम जैसी स्त्री का सखियारा
दुख से क्यों होता है
तुम नहीं हो
तुम्हारी सखी है
है दुख है तुम्हारी सखी है
कर लिया है उसी से ब्याह
हूं जिसके संग
देखता हूं उसी में
तुम्हें नित।
-------------
गर्वीली बिंदी
-------------
जरा-सा
छू गयी थी बस
वह कलफदार साड़ी गुलाबी
सुबह की गाड़ी के पहले डिब्बे में
किसी माता के मंदिर को जातीं
और उसी के गुन गातीं
कई रंग और कई उम्र
और कई चेहरों वाली
स्त्रियों के बीच।
देर से
रह-रह कर हिल-डुल रहा था
एक कंगन और एक मुखड़ा
बीचोबीच।
आउटर सिंगनल पार करते-करते
दिशाओं में जीवन रस घोलती हुई
एक लंबी सीटी के साथ
दिल के किसी कोने से निकला-हाय
कोई बेधक गान।
प्लेटफार्म पर उतरते-उतरते
लगा कि मुझे
खींच नहीं पा रही थी पीछे से
सोने की मोटी चेन।
चश्में के सुनहले फ्रेम से
पलक झपकते
बाहर हो गया था मैं।
मुझे ढूंढ़ नहीं रही थीं
रेले में पता नहीं किसे ढूंढ़ती हुई
वे दो खोयी-खोयी आंखें।
बोलते-से होंठ बुला नहीं रहे थे मुझे
अपने पास।
फिर भी
एक इच्छा हुई कि देखूं पीछे मुड़कर
और दौड़कर
चूम लूं उसकी गर्वीली बिंदी
झुककर
पर यह तो कोई बात न हुई।
-----------------------------
एक चांद कम पड़ जाता है
-----------------------------
कई बार एक जीवन कम पड़ जाता है
एक प्यार कम पड़ जाता है कई बार
कई बार हजार फूलों के गुलदस्ते में
चंपे का एक फूल कम पड़ जाता है
एक कोरस ठीक से गाने के लिए
एक हारमोनियम कम पड़ जाता है
कई बार।
सांसें लंबी हैं अगर
और हौसला थोड़ा ज्यादा
तो तबीअत से जीने के लिए
एक रण कम पड़ जाता है
जो है और जितना है उतने में ही
एक दुश्मन कम पड़ जाता है।
दिल से हो जाय बड़ा प्यार अगर
तो कई बार
एक अफसाना कम पड़ जाता है
एक हीर कम पड़ जाती है
ठीक से बजाने के लिए
सितार का एक तार कम पड़ जाता है
एक राग कम पड़ जाता है।
कई बार
आकाश के इतने बड़े शामियाने में
एक चांद कम पड़ जाता है
दुनिया के इस मेले में देखो तो
एक दोस्त कहीं कम पड़ जाता है
एक छोटी-सी बात कहने के लिए
कई बार एक कागज कम पड़ जाता है
एक कविता कम पड़ जाती है।
---------
गायिका
---------
बस
ऐसे ही
गाती रहो गायिका
इस जमघट के घट-घट में
ढूंढो
नंद के लालन को
पकड़ो
रंग डारो
छा जाओ गायिका
आतुर
रागमेघ बनकर टूट पड़ो
अरराकर
विकल अति तप्त धरा के
एक-एक कण
और एक-एक बीज को
छू-छू कर बरसो गायिका
एक-एक पुकार से
लिपट-लिपट कर बरसो
गायिका
आज की रात
और
मेरे जीवन की रात के हर क्षण को
बना दो अपने जैसी गाती हुई।
यह एक खास रात है
गायिका
तुम बरस रही हो
और कोई तुम्हें सुन रहा है
रोम-रोम से
ऐसे ही बरसती रहो गायिका
अनुभव और स्मृति की उर्वर घरती पर
तुम गा रही हो
तुम बरस रही हो मुझ पर ऐसे
कि कोई और नहीं बरस रही है
पृथ्वी पर
कोई और गायिका नहीं गा रही है
किसी लोक में ऐसे
कोई और नहीं सुन रहा है तुम्हें
जिस तरह मैं सुन रहा हूं तुम्हें।
गायिकी की नौका में तुम्हारे संग
ऐसे ही हिचकोले खाते रहना चाहता हूं
सारी रात
ऐसे ही गाती रहो गायिका
जैसे
नन्ही-नन्ही उंगलियों के इशारे पर
नाचता है तुम्हारा हारमोनियम
बांसुरी जैसे
जैसे ढोल।
ऐसे ही गाती रहो
ऐसे ही बार-बार
गंव से लट पीछे ले जाओ
छेड़ती रहो
आलाप जैसी उठी हुई बाहों से तान
एक-एक बोल पर
थिरकती हुई अपनी आखों से गाओ
गाते हुए होंठो से गाओ
कंठ के भीतर बैठी हुई
राधा के कंठ से गाओ
गायिका
ऐसे ही।
कोई और फिर से याद आकर
जाए तो जाए निष्ठुर
आज की रात
मुझे छोड़कर
तुम न जाओ गायिका
ऐसे ही बस गाती रहो
जब तक मैं हूं।
--------------------
उस चांद से कहना
--------------------
तुम्हारे उड़ने के लिए है
यह मन का खटोला
खास तुम्हारे लिए है यह
स्वप्निल नीला आकाश
विचरण के लिए
आकाश का
सुदूर चप्पा-चप्पा
सब तुम्हारे लिए है
तनिक-सी इच्छा हो तो
चांद पर
बना लो घर
चाहो तो चांद के संग
पड़ोस में मंगल पर बस जाओ
जितनी दूर चाहो
जाओ
बस
देखना प्रियतम
अपने कोमल पंख
अपनी सांस
और भीतर की जेब में
मुड़ातुड़ा
अपनी पृथ्वी का मानचित्र
सोते-जागते दिखता रहे
आगे का आकाश
और पीछे प्रेम की दुनिया
धरती पर
दिखती रहें
सभी चीजें और अपने लोग
उड़नखटोले से
होती रहे
आकाश के चांद की बात
पृथ्वी के सगे-संबंधियों
और अपने चांद की
आती रहे याद
जाओ जो चाहो तो जाओ
जाओ आकाश के चांद के पास
तो लेते जाओ उसके लिए
धरती का जीवन
और संगीत
मिलो आकाश के चांद से
तो पहले देना
धरती के चांद की ओर से
भेंट-अंकवार
फिर धरती की चंपा के फूल
धरती की रातरानी की सुगंध
धरती की चांदनी का प्यार
धरती के सबसे अच्छे खेत
धरती के ताल-पोखर
धान
और गेहूं के उन्नत बीज
थोड़ी-सी खाद
और एक जोड़ी बैल
देना
कहना कि कोई सखी है
धरती पर भी है एक चांद है
जिसे
तुम्हारे लौटने का इंतजार है
कहना कि छोटा नहीं है
उसका दिल
स्वीकार है उसे
एक और चांद
चाहे तो चली आए
तुम्हारे संग
उड़नखटोले में बैठकर
मंगलगीत गाती हुई
धरती के आंगन में
स्वागत है।
---------------------------
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
---------------------------
तुम अच्छी हो
तुम्हारी रोटी अच्छी है
तुम्हारा अचार अच्छा है
तुम्हारा प्यार अच्छा है
तुम्हारी बोली-बानी
तुम्हारा घर-संसार अच्छा है
तुम्हारी गाय अच्छी है
उसका थन अच्छा है
तुम्हारा सुग्गा अच्छा है
तुम्हारा मिट्ठू अच्छा है
ओसारे में
लालटेन जलाकर
विज्ञान पढ़ता है
यह देखकर
तुम्हें कितना अच्छा लगता है
तुम
गुड़ की चाय
अच्छा बनाती हो
बखीर और गुलगुला
सब अच्छा बनाती हो
कंडा अच्छा पाथती हो
कंडे की आग में
लिट्टी अच्छा लगाती हो
तुम्हारा हाथ अच्छा है
तुम्हारा साथ अच्छा है
कहती हैं सखियां
तुम्हारा आचार-विचार
तुम्हारी हर बात अच्छी है
यह बात कितनी अच्छी है
तुम अपने पति का
आदर करती हो
लेकिन यह बात
बिल्कुल नहीं अच्छी है
कि तुम्हारा पति
तुमसे
प्रेम नहीं करता है
तुम हो कि बस अच्छी हो
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
चुप क्यों रहती हो
क्यों नहीं कहती अपने पति से
तुम उसे
बहुत प्रेम करती हो।
-----------------------------
कहां जान पाते हैं सब लोग
-----------------------------
नाती-पोतों की दुनिया में मगन
दादियों और नानियों की
थुलथुल टोली की वह नायिका
इतनी वयस्त है कि भूल गयी है
काफी समय से बंद
खिड़कियों को खोलना
वक्त की तमाम धूल को झाड़ना
किसी को याद रखना
भूल गयी है नूरजहां का गाना
कहती है-
अब मेरे लिए
इतना वजनी शरीर लेकर
न नाचना मुमकिन है न गाना
बीते दिनों में लौटना
पीछे की पगडंडी पर कदम रखना
और किसी पुराने छत पर
चांदनी रातों में तन्हा टहलना
अब मुमकिन नहीं
कह दो
अब कुछ नहीं मुमकिन
पता नहीं कहां रख दी है
वह किताब
कह दो
प्रेम मेरे लिए
पहली कक्षा का एक पाठ था
किस कमबख्त को याद रहता है
इतना पुराना पाठ
कोई याद दिलाए भी तो हंसकर
टाल जाना बेहतर
आखिर
कितना वक्त लगता है
किसी पाठ के कुपाठ होने में
मैं जिसे प्रेम करती हूं
राख में दबी हुई चिंगारी की तरह
बस प्रेम करती हूं
उसे याद नहीं करती हूं
प्रेम मेरे लिए
न मेरी दिनचर्या का हिस्सा है
न मेरे घर के कोने में
इस तरह की
किसी जानलेवा चीज के लिए
झाड़ू जितनी जगह है
घर की कारा में ऐसा कुछ रखना
कितना खतरनाक होता है
कहां जान पाते हैं
सब लोग।
-------------------------------------------------
घर : पांच /
कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
-------------------------------------------------
कैसे निकलूं इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नींद
एक स्त्री की तीस बरस लंबी नींद
नींद भी जैसे किसी नींद में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नींद में हो
बस एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नींद
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नींद में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूं उसके जीवन से
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूं कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह
नींद में
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूं
बताकर जाना चाहता हूं
कि जा रहा हूं
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूं कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूं
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे
कि जा रहा हूं।
-----------------------------------------
घर : छः /
उठो यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है
----------------------------------------
कैसे जगाऊंगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूंगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूंगा हौले से
जागो यशोधरा
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताजा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है
उठो यशोधरा
तुम्हारा राहुल सो रहा है
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊं तुम्हें
तुम्हीं बताओ यशोधरा
किस गुरु के पास जाऊं
किस स्त्री से पूछूं
युगों से
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मंत्र
किससे कहूं कि देखो
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी है
और मुझ जैसे
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से
क्या करूं
इस यशोधरा का
जिसे
मेरे जैसा एक साधारण आदमी
बहुत चाह कर भी
जगा नहीं पा रहा है
और
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।
------------------------------
कब्र में लेटी रहने वाली स्त्री
-----------------------------
कौन था
वह बूढ़ा आदमी
और कौन थी वह
बूढ़ी स्त्री
दो पैसे
खुद पर खर्च किया
बहुत दिनों के बाद
बूढ़े का
हाथ पकड़
रसोई की कब्र से
बाहर निकाली
और
खुली हवा में
जीभर
देर तक
हंसी
बहुत दिनों के बाद
बूढ़े ने
मंहगे टाकीज में
सफेद बालों वाली
एक सांवली
बूढ़ी स्त्री को
सिनेमा दिखाया
सिल्क की एक साड़ी खरीदी
बहुत दिनों के बाद
मसाला डोसा खाया
और फुल प्लेट
कुल्फी खिलायी
कोल्ड काफी भी पिलायी
बहुत दिनों के बाद
पार्क में बैठे
यादों की चादर बिछा कर
उंगलियों का जाल बनाकर
एक-दूसरे के चेहरे को
एकटक देखा
पहले जैसा
बहुत दिनों के बाद
ढ़लते हुए सूरज को
और थके हुए पक्षियों को
कलरव करते
लंबी सांस भरते
देखा-सुना करीब से
बहुत दिनों के बाद
फिर से
जोड़ा-जामा पहन कर
बूढ़ी स्त्री की चुनरी
लहराया
बूढ़ी ने भी बूढ़े को
उस नजर से देखा
और पार्क में बैठे
लड़कों
और लड़कियों की
आंख बचा कर
बूढ़े को जोरदार ढंग से
मारी आंख
इस तरह
एक घरेलू क्रांति हुई
बहुत दिनों के बाद
स्वप्न और उमंग के
समुद्रतल में धंसे हुए
लड़के
और लड़कियां
कितनी बेखबर हैं
क्या जानें
साल में एक दिन
शादी की वर्षगांठ पर
अपने
बूढ़े जिन्न के इशारे पर
जिन्दा हो जाने के लिए
वर्षभर
चुपचाप
कब्र में लेटी रहने वाली
वह
बूढ़ी स्त्री
कौन है
किससे पूछूं जानते हो
किससे कहूं नहीं जानती हो
तो जाओ
मेरे जैसे किसी गुमनाम
कवि के जीवन की कविता से
इस बूढ़ी स्त्री का
चित्र निकाल कर
ले जाओ
और
मिलाओ इसे
उस बूढ़ी स्त्री से
जिसे तुम जानते तो हो
पर तुम्हारे पास जिसके लिए
वक्त सबसे कम है
जाओ
उस मां के पास जाओ
जिसने दी है तुम्हें
अपनी लोहे जैसी जवानी
गला कर
कुंदन जैसी यह तरुणाई
देर-देर तक
उस बूढ़ी स्त्री का हाथ पकड़ कर
कभी बरामदे में
कभी फोन के पास
कभी फोटो के सामने
बैठे रहने वाले
उस बूढ़े आदमी के पास जाओ
देखो
आज
इतना अधीर क्यों है
कमजोर क्यों है उसका मन
जिसने दी है तुम्हें
प्रेम और संघर्ष के लिए
फूल की पंखड़ियों जैसी कोमल
और वज्र जैसी कठोर
काया
बैठो उसके पास
ठीक अपनी जड़ के पास
कुछ देर बैठो
देखो
फिर कोई कंछा फूट रहा है
बहुत दिनों के बाद।
----------------------------
आत्मा का एकांत आलाप
---------------------------
अजीब आदमी है
ढ़लान से उतरते हुए
मुड़-मुड़ कर
आकाश में चांद को
देखता है
इतने बड़े आकाश में
चांद को अकेला देखता है
देखता है कैसे
कहीं गिर न जाए बेचारा
खड्ड में
उसे अकेला चांद
बिल्कुल अपने जैसा लगता है
कितना अच्छा लगता है
अपनी तरफ एकटक देखते हुए
चांद के कान के पास मुंह ले जाकर
कहता है-
कितनी अजीब बात है
मैं भी भटक रहा हूं कोई तीस बरस से
अपने आकाश में अकेला
और जिसे प्रेम करता हूं
कुछ नहीं कहता हूं उससे अब
यह भी कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं
जिससे प्रेम नहीं करता हूं
उससे भी नहीं कहता
कि मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता हूं
मेरे लिए प्रेम
बिल्कुल निजी घटना है
आत्मा का एकांत आलाप
अभिव्यक्ति के सारे दरवाजे बंद हैं जहां
बस एक अद्वितीय अनुभव है
प्रौढ़ता का एक शालीन विस्फोट
जिसने मेरे प्रेम को
त्वचा की अभेद्य सतह को भेदकर
भीतर कहीं गहराई में पहुंचा दिया है
शायद मेरे लिए प्रेम
एकांत में किसी फूल से मिलना है
अपनी ही हथेली को
बार-बार चूमना है
किसी पुलिया पर बैठ कर
आहिस्ता-आहिस्ता
डूबते हुए सूरज को देखना है
उम्र की ढ़लान पर
पुराने प्रेमियों के लिए शायद
स्मृति का महोत्सव है प्रेम
जीवन का अंतिम राग है
जीवन की चुनरी का
मद्धिम रंग है
रेलगाड़ी के किसी पुराने डिब्बे में
किसी छोटे-से स्टेशन पर
किसी शहर में
किसी गरीब के लोटे की तरह
कि उसके बदनसीब दिल की तरह
छूट गया
अनोखा वाद्य है।
---------------------------
सफेद दाग वाली लड़की
---------------------------
कोई
आया नहीं
देखने कि कैसी हो
कहाँ हो मिट्ठू
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का
है उसे इन्तजार
कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-सि का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर
सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में
सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे सो उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सरी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जगते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।
--------
वर्दी में
--------
कई थीं
ड्यूटी पर थीं
कुछ तो बिल्कुल नई थीं
अंट नहीं पा रही थीं वर्दी में
आधा बाहर थीं आधा भीतर थीं।
एक की खुली रह गयी थी खिड़की
दूसरी ने औटाया नहीं था दूध
झगड़कर चला गया था तीसरी का मरद
चौथी का बीमार था बच्चा कई दिनों से
पांचवीं जो कुछ ज्यादे ही नई थी
गपशप करते जवानों के बीच
चुप-चुप थी
छठीं को कहीं दिखने जाना था
सातवीं का नाराज था प्रेमी
रह-रह कर फाड़ देना चाहता था
उसकी वर्दी।
----------
परिणीता
---------
यह तुम थी !
पके जिसके काले लंबे बाल असमय
हुए गोरे चिकने गाल अकोमल
यह तुम थी !
छपी जिसके माथे पर अनचाही इबारत
टूटा जिसका कोई कीमती खिलौना
एक रेत का महल था जिसका
एक पल में पानी में था
कितनी हलचल थी कितनी पीड़ा थी
भीतर एक आहत सिंहनी कितनी उदास थी
यह तुम थी !
ढ़ल गया था चांद जिसका
और चांद से भी दूर हो गया प्यार जिसका
यह तुम थी !
श्रीहीन हो गया जिसका मुख
खो गया था जिसका सुख यह तुम थी !
यह तुम थी एक-एक दिन
अपने से लड़ती-झगड़ती खुद से करती जिरह
यह तुम थी ! औरत और मर्द दोनों का काम करती
और रह-रह कर किसी को याद करती
यह तुम थी !
कभी गुलमोहर का सुर्ख फूल
और कभी नीम की उदास पीली पत्ती
यह तुम थी !
अलीनगर की भीड़ में अपनी बेटी के साथ
अकेली कुछ खरीदने निकली थी
यह तुम थी !
यह मैं था
साथ नहीं था आसपास था
मैं भी अकेला था तुम भी अकेली थी
मुझसे बेखबर यह तुम थी !
बहुमूल्य
चमचमाती और भागती हुई
कार के पैरों के नीचे एक मरियल काले पिल्ले-सा
मर रहा था किसी का प्यार
और तुम बेखबर थी
यह तुम थी ! जिसकी किताब में लग गया था
वक्त का दीमक
कुतर गये थे कुछ शब्द कुछ नाम कुछ अनुभव
एक छोटी-सी दुनिया अब नहीं थी
जिसकी दुनिया में यह तुम थी !
जो अपनी किताब में थी और नहीं थी
जो अपने भीतर थी और नहीं थी
घर में थी और नहीं थी
यह तुम थी !
बदल गयी थी
जिसके घर और देह की दुनिया
जुबान और आंख की भाषा
बदल गया था
जिसके चश्मे का नंबर और मकान का पता
यह तुम थी !
जिसकी आलीशान इमारत ढ़ह चुकी थी
मलबे में गुम हो चुकी थी जिसकी अंगूठी
और हार छिप गया था किसी हार में
यह तुम थी!
जीवन के आधे रास्ते में
बेहद थकी हुई झुकी हुई
देखती हुई अपनी परछाईं
समय के दर्पण में
जो इससे पहले कभी
इतनी कमजोर न थी
इतनी उदास न थी
यह तुम थी
किसी की परिणीता!
और
यह !
तुम थी !!
मेरी तुम !!!
जो अहर्निश
मेरे पास थी
जिसकी त्वचा
मेरी त्वचा की सखी थी
जिसकी सांसों का
मेरी सांसों के संग
आना-जाना था
मेरे बिस्तर का आधा हिस्सा जिसका था
और जिसका दर्द मेरे दर्द का पड़ोसी था
जिसके पैर बंधे थे मेरे पैरों से
जिसके बाल कुछ ही कम सफेद थे
मेरे बालों से
जिसके माथे की सिलवटें कम नहीं थीं मेरे माथे से
जिससे मुझे उस तरह प्रेम न था
जैसा कोई-कोई प्रेमी और प्रेमिका किताबों में करते थे
पर अप्रेम न था कुछ था जरूर
पर शब्द न थे जो भी था एक अनुभव था
एक स्त्री थी
जो दिनरात खटती थी
सूर्य देवता से पहले चलना शुरू करती थी
पवन देवता से पहले दौड़ पड़ती थी
हाथ में झाड़ू लेकर
बच्चों के जागने से पहले
दूध का गिलास लेकर
खड़ी हो जाती थी मुस्तैदी से
अखबार से भी पहले
चाय की प्याली रख जाती थी
मेरे होठों के पास मीठे गन्ने से भी मीठी
यह तुम थी
मेरे घर की रसोई में
सुबह-शाम सूखी लकड़ी जैसी जलती
और खाने की मेज पर
सिर झुकाकर
डांट खाने के लिए तैयार रहती
यह तुम थी!
बावर्ची
धोबी
दर्जी
पेंटर
टीचर
खजांची
राजगीर
मेहतर
सेविका
और दाई
क्या नहीं थी तुम!
यह तुम थी!
क्या हुआ
जो इस जन्म में मेरी प्रेमिका नहीं थी
क्या पता मेरे हजार जन्मों की प्रेयसी
तुम्हारे अंतस्तल में छुपी बैठी हो
और तुम्हें खबर न हो
यह कैसी उलझन थी मेरे भीतर कई युगों से
यह तुम थी अपने को मेरे और पास लाती थी
जब-जब मैं अपने को तुमसे दूर करता था
यह तुम थी !
जो करती थी मेरे गुनाहों की अनदेखी
मेरे खेतों में
अपने गीतों के संग पोछीटा मार कर
रोपाई करती हुई मजदूरनी कौन थी!
अपनी हमजोलियों के साथ
हंसी-ठिठोली के बीच
बड़े मन से मेरे खेतों में एक-एक खर-पतवार
ढूंढ-ढूंढ कर निराई करती हुई
यह तन्वंगी कौन थी!
मेरे जीवन के भट्ठे पर पिछले तीस साल से
ईंट पकाती हुई झाँवाँ जैसी यह स्त्री कौन थी
यह तुम थी!
और यह मैं था एक अभिशप्त मेघ !
जिसके नीचे न कोई धरती थी न ऊपर कोई आकाश
और जिसके भीतर पानी की जगह प्यास ही प्यास
कभी
मैं ढू़ंढ़ता उस तुम को !
और कभी इस तुम को !
कभी किसी की प्यास न बुझाई
न किसी के तप्त अंतस्तल को
सींचा
न किसी को कोई उम्मीद बंधायी
यह मैं था प्रेम का बंजर
इतनी बड़ी पृथ्वी का
एक मृत और विदीर्ण टुकड़ा
अपनी विकलता और विफलता के गुनाह में
डूबा
यह मैं था! यह मेरे हजार गुनाह थे
और तुम मेरे गुनाहों की देवी थी!
यह तुम थी!
जिससे
मेरी छोटी-सी दुनिया में
गौरैया की चोंच में अंटने भर का
उसके पंख पर फैलने भर का
एक छोटा-सा जीवन था
एक छोटी-सी खिड़की थी
जहां मैं खड़ा था
सुप्रभात का एक छोटा-सा
दृश्यखंड था
यह तुम थी! मेरी आंखों के सामने
मेरी तुम थी
यह तुम थी!
मेरे गुनाहों की देवी!
मुझे मेरे गुनाहों की सजा दो
चाहे अपनी करुणा में
सजा लो मुझे
अपनी लाल बिन्दी की तरह
अपने अंधेरे में भासमान इस उजास का क्या करूं
जो तुमसे है इस उम्मीद का क्या करूं
आत्मा की आवाज का क्या करूं
अतीत का क्या करूं अपने आज का क्या करूं
तुम्हारा क्या करूं
जो मेरे जीवन की सखी थी और सखी है
जिसके संग लिए सात फेरे
मेरे सात जन्म के फेरे हैं
जो मेरी आत्मा की चिरसंगिनी थी मेरा अंतिम ठौर है
यह तुम थी!
यह तुम हो!!
मेरी मीता
मेरी परिणीता।
('परिणीता' संग्रह से प्रेम कविताएं )