सोमवार, 23 दिसंबर 2019

गणेश पाण्डेय की प्रेम कविताएं

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ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
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कहां फेंका था तुमने
अपना वह माउथआर्गन
जिस पर फिदा थीं तुम्हारी सखियां
कहां गुम हुईं सखियां किस मेले-ठेले में
किसके संग

कैसे तहाकर रख दिया होगा तुमने
अपना प्यारा-प्यारा स्लेटी स्कर्ट
किस खूंटी पर फड़फड़ा रहा होगा
वह बेचारा लाल रिबन

सब छोड़-छाड़ कर 
कैसे प्रवेश किया होगा तुमने
पहलीबार
भारी-भरकम प्रभु की पोशाक के भीतर

यह क्या है तुममें
जे बज रहा है फिर भी मद्धिम-मद्धिम
कहां हैं तुम्हारी सखियां
कोई क्या करे अकेले
इस राग का

देखो तो आंखें वही हैं
जिनमें छिपा रह गया है फिर भी कुछ
जस के तस हैं काले तुम्हारे वही केश
होठों में गहरे उतर गया है नमक
कुछ भी तो नहीं छूटा है
वही हैं तुम्हारे प्रियातुर कान
किस मुंह से जाओगी प्रभु के पास

ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
कैसे करोगी तुम ईश का ध्यान
जब बजने लगेगा कहीं
मद्धिम-मद्धिम
माउथआर्गन।

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प्रथम परिणीता
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जिस तलुए की कोमलता से 
वंचित है 
मेरी पृथ्वी का एक-एक कण 
घास के एक-एक तिनके से
उठती है जिसके लिए पुकार
फिर से जिसे स्पर्श करने के लिए 
मुझमें नहीं बचा है अब 
चुटकीभर धैर्य
जिसके पैरों की झंकार 
सुनने के लिए
बेचैन है
मेरे घर के आसपास  
गुलमोहर के उदास वृक्षों की कतार
और तुलसी का चौरा  
जिसकी 
सुदीर्घ काली वेणी में लग कर
खिल जाने के लिए आतुर हैं 
चांदनी के सफेद नन्हे फूल 
और 
असमय 
जिसके चले जाने के शूल से
आहत है मेरे आकाश का वक्ष
और धरती का अंतस्तल
तुम हो 
तुम्हीं हो
मेरी प्रथम परिणीता 
मेरे विपन्न जीवन की शोभा
जिसके होने और न होने से 
होता है मेरे जीवन में 
दिन और रात का फेरा 
धूप और छांव 
होता है नीचे-ऊपर 
मेरे घर 
और 
मेरे दिल 
और दिमाग का तापमान
अच्छा हुआ
जो तुम 
जा कर भी जा नहीं सकी 
इस निर्मम संसार में मुझे छोड़कर
अकेला
सोचा होगा कैसे पिएंगे प्रीतम 
सुबह-शाम 
गुड़
अदरक 
और गोलमिर्च की चाय
भूख लगेगी तो कौन देगा 
मीठी आंच में पकी हुई 
रोटी
और मेथी का साग
दुखेगा सिर 
तो दबाएगा कौन 
आहिस्ता-आहिस्ता 
सारी रात 
रोएंगे जब मेरे प्रीतम
तो किसके आंचल में पोछेंगे
रेत की मछली जैसी 
अपनी तड़पती आंखें
और जब मुझे देख नहीं पाएंगे
तो जी कैसे पाएंगे
कैसे समझाएंगे
खुद को
कैसे पूरी करेंगे जीवन की कविता
कैसे करेंगे मुझे प्यार
अच्छा हुआ
मीता
मेरी प्रथम परिणीता
छोड़ गयी मेरे पास
स्मृतियों की गीता
दे गयी 
एक और मीता
परिणीता
जिसके जीवन में शामिल है
तुम्हारा जीवन
जिसके सिंदूर में है तुम्हारा सिंदूर
जिसके प्यार में है
तुम्हारा प्यार
जिसके मुखड़े में है तुम्हारा मुखड़ा
जिसके आंचल में है तुम्हारा आंचल
जिसकी गोद में है तुम्हारी गोद
कितना अभागा हूं
भर नहीं पाया तुम्हारी गोद
तुम्हारे कानों में पहना नहीं पाया
किलकारी के एक-दो कर्णफूल
तुम्हारी आंखों के कैमरे में 
उतार नहीं पाया
तुम्हारी ही बालछवि
किससे पूछूं कि जीवन के चित्र
इतने धुंधले क्यों होते हैं
समय की धूल 
उड़ती है
तो आंधी की तरह क्यों उड़ती है
प्रेम का प्रतिफल 
दुख क्यों होता है
और 
अक्सर 
तुम जैसी स्त्री का सखियारा
दुख से क्यों होता है 
तुम नहीं हो
तुम्हारी सखी है 
है दुख है तुम्हारी सखी है
कर लिया है उसी से ब्याह
हूं जिसके संग 
देखता हूं उसी में 
तुम्हें नित।

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गर्वीली बिंदी
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जरा-सा
छू गयी थी बस
वह कलफदार साड़ी गुलाबी
सुबह की गाड़ी के पहले डिब्बे में 
किसी माता के मंदिर को जातीं
और उसी के गुन गातीं
कई रंग और कई उम्र
और कई चेहरों वाली
स्त्रियों के बीच।
देर से 
रह-रह कर हिल-डुल रहा था
एक कंगन और एक मुखड़ा
बीचोबीच।
आउटर सिंगनल पार करते-करते
दिशाओं में जीवन रस घोलती हुई
एक लंबी सीटी के साथ
दिल के किसी कोने से निकला-हाय
कोई बेधक गान।
प्लेटफार्म पर उतरते-उतरते
लगा कि मुझे 
खींच नहीं पा रही थी पीछे से
सोने की मोटी चेन।
चश्में के सुनहले फ्रेम से
पलक झपकते
बाहर हो गया था मैं।
मुझे ढूंढ़ नहीं रही थीं
रेले में पता नहीं किसे ढूंढ़ती हुई
वे दो खोयी-खोयी आंखें।
बोलते-से होंठ बुला नहीं रहे थे मुझे
अपने पास।
फिर भी
एक इच्छा हुई कि देखूं पीछे मुड़कर
और दौड़कर 
चूम लूं उसकी गर्वीली बिंदी
झुककर
पर यह तो कोई बात न हुई।

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एक चांद कम पड़ जाता है
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कई बार एक जीवन कम पड़ जाता है
एक प्यार कम पड़ जाता है कई बार 
कई बार हजार फूलों के गुलदस्ते में
चंपे का एक फूल कम पड़ जाता है
एक कोरस ठीक से गाने के लिए
एक हारमोनियम कम पड़ जाता है
कई बार।
सांसें लंबी हैं अगर
और हौसला थोड़ा ज्यादा
तो तबीअत से जीने के लिए
एक रण कम पड़ जाता है
जो है और जितना है उतने में ही 
एक दुश्मन कम पड़ जाता है।
दिल से हो जाय बड़ा प्यार अगर
तो कई बार
एक अफसाना कम पड़ जाता है
एक हीर कम पड़ जाती है
ठीक से बजाने के लिए
सितार का एक तार कम पड़ जाता है
एक राग कम पड़ जाता है।
कई बार
आकाश के इतने बड़े शामियाने में
एक चांद कम पड़ जाता है
दुनिया के इस मेले में देखो तो
एक दोस्त कहीं कम पड़ जाता है
एक छोटी-सी बात कहने के लिए
कई बार एक कागज कम पड़ जाता है
एक कविता कम पड़ जाती है।

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गायिका
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बस
ऐसे ही 
गाती रहो गायिका
इस जमघट के घट-घट में
ढूंढो 
नंद के लालन को
पकड़ो
रंग डारो
छा जाओ गायिका
आतुर
रागमेघ बनकर टूट पड़ो 
अरराकर
विकल अति तप्त धरा के
एक-एक कण
और एक-एक बीज को
छू-छू कर बरसो गायिका
एक-एक पुकार से 
लिपट-लिपट कर बरसो 
गायिका 
आज की रात
और 
मेरे जीवन की रात के हर क्षण को
बना दो अपने जैसी गाती हुई।
यह एक खास रात है 
गायिका
तुम बरस रही हो
और कोई तुम्हें सुन रहा है 
रोम-रोम से
ऐसे ही बरसती रहो गायिका
अनुभव और स्मृति की उर्वर घरती पर
तुम गा रही हो
तुम बरस रही हो मुझ पर ऐसे
कि कोई और नहीं बरस रही है
पृथ्वी पर
कोई और गायिका नहीं गा रही है 
किसी लोक में ऐसे 
कोई और नहीं सुन रहा है तुम्हें
जिस तरह मैं सुन रहा हूं तुम्हें।
गायिकी की नौका में तुम्हारे संग
ऐसे ही हिचकोले खाते रहना चाहता हूं
सारी रात
ऐसे ही गाती रहो गायिका
जैसे 
नन्ही-नन्ही उंगलियों के इशारे पर
नाचता है तुम्हारा हारमोनियम
बांसुरी जैसे
जैसे ढोल।
ऐसे ही गाती रहो
ऐसे ही बार-बार
गंव से लट पीछे ले जाओ
छेड़ती रहो
आलाप जैसी उठी हुई बाहों से तान
एक-एक बोल पर
थिरकती हुई अपनी आखों से गाओ
गाते हुए होंठो से गाओ
कंठ के भीतर बैठी हुई
राधा के कंठ से गाओ
गायिका 
ऐसे ही।
कोई और फिर से याद आकर
जाए तो जाए निष्ठुर
आज की रात
मुझे छोड़कर
तुम न जाओ गायिका
ऐसे ही बस गाती रहो
जब तक मैं हूं।

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उस चांद से कहना
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तुम्हारे उड़ने के लिए है 
यह मन का खटोला 
खास तुम्हारे लिए है यह
स्वप्निल नीला आकाश      
विचरण के लिए 
आकाश का 
सुदूर चप्पा-चप्पा
सब तुम्हारे लिए है 
तनिक-सी इच्छा हो तो 
चांद पर 
बना लो घर 
चाहो तो चांद के संग 
पड़ोस में मंगल पर बस जाओ
जितनी दूर चाहो
जाओ
बस 
देखना प्रियतम
अपने कोमल पंख
अपनी सांस 
और भीतर की जेब में 
मुड़ातुड़ा
अपनी पृथ्वी का मानचित्र 
सोते-जागते दिखता रहे 
आगे का आकाश
और पीछे प्रेम की दुनिया
धरती पर 
दिखती रहें
सभी चीजें और अपने लोग
उड़नखटोले से
होती रहे 
आकाश के चांद की बात
पृथ्वी के सगे-संबंधियों
और अपने चांद की
आती रहे याद 
जाओ जो चाहो तो जाओ
जाओ आकाश के चांद के पास 
तो लेते जाओ उसके लिए 
धरती का जीवन 
और संगीत 
मिलो आकाश के चांद से
तो पहले देना 
धरती के चांद की ओर से
भेंट-अंकवार
फिर धरती की चंपा के फूल
धरती की रातरानी की सुगंध
धरती की चांदनी का प्यार
धरती के सबसे अच्छे खेत
धरती के ताल-पोखर
धान 
और गेहूं के उन्नत बीज
थोड़ी-सी खाद
और एक जोड़ी बैल
देना
कहना कि कोई सखी है
धरती पर भी है एक चांद है
जिसे 
तुम्हारे लौटने का इंतजार है
कहना कि छोटा नहीं है
उसका दिल
स्वीकार है उसे
एक और चांद 
चाहे तो चली आए 
तुम्हारे संग 
उड़नखटोले में बैठकर 
मंगलगीत गाती हुई 
धरती के आंगन में 
स्वागत है।

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इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
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तुम अच्छी हो
तुम्हारी रोटी अच्छी है
तुम्हारा अचार अच्छा है
तुम्हारा प्यार अच्छा है 
तुम्हारी बोली-बानी 
तुम्हारा घर-संसार अच्छा है
तुम्हारी गाय अच्छी है
उसका थन अच्छा है
तुम्हारा सुग्गा अच्छा है
तुम्हारा मिट्ठू अच्छा है
ओसारे में 
लालटेन जलाकर
विज्ञान पढ़ता है
यह देखकर 
तुम्हें कितना अच्छा लगता है
तुम 
गुड़ की चाय
अच्छा बनाती हो
बखीर और गुलगुला
सब अच्छा बनाती हो
कंडा अच्छा पाथती हो
कंडे की आग में 
लिट्टी अच्छा लगाती हो
तुम्हारा हाथ अच्छा है
तुम्हारा साथ अच्छा है
कहती हैं सखियां 
तुम्हारा आचार-विचार
तुम्हारी हर बात अच्छी है
यह बात कितनी अच्छी है
तुम अपने पति का 
आदर करती हो
लेकिन यह बात 
बिल्कुल नहीं अच्छी है
कि तुम्हारा पति 
तुमसे
प्रेम नहीं करता है
तुम हो कि बस अच्छी हो
इतनी अच्छी क्यों हो चंदा
चुप क्यों रहती हो
क्यों नहीं कहती अपने पति से
तुम उसे 
बहुत प्रेम करती हो।

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कहां जान पाते हैं सब लोग
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नाती-पोतों की दुनिया में मगन
दादियों और नानियों की 
थुलथुल टोली की वह नायिका
इतनी वयस्त है कि भूल गयी है
काफी समय से बंद
खिड़कियों को खोलना
वक्त की तमाम धूल को झाड़ना 
किसी को याद रखना
भूल गयी है नूरजहां का गाना
कहती है-
अब मेरे लिए 
इतना वजनी शरीर लेकर
न नाचना मुमकिन है न गाना 
बीते दिनों में लौटना
पीछे की पगडंडी पर कदम रखना
और किसी पुराने छत पर 
चांदनी रातों में तन्हा टहलना
अब मुमकिन नहीं
कह दो
अब कुछ नहीं मुमकिन
पता नहीं कहां रख दी है
वह किताब
कह दो 
प्रेम मेरे लिए
पहली कक्षा का एक पाठ था
किस कमबख्त को याद रहता है
इतना पुराना पाठ
कोई याद दिलाए भी तो हंसकर
टाल जाना बेहतर 
आखिर
कितना वक्त लगता है 
किसी पाठ के कुपाठ होने में
मैं जिसे प्रेम करती हूं
राख में दबी हुई चिंगारी की तरह 
बस प्रेम करती हूं
उसे याद नहीं करती हूं
प्रेम मेरे लिए 
न मेरी दिनचर्या का हिस्सा है
न मेरे घर के कोने में 
इस तरह की 
किसी जानलेवा चीज के लिए
झाड़ू जितनी जगह है
घर की कारा में ऐसा कुछ रखना
कितना खतरनाक होता है
कहां जान पाते हैं
सब लोग।

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घर : पांच /  

कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
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कैसे निकलूं इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नींद
एक स्त्री की तीस बरस लंबी नींद
नींद भी जैसे किसी नींद में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नींद में हो 

बस एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नींद
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नींद में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूं उसके जीवन से 
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूं कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में            
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह 
नींद में 
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूं
बताकर जाना चाहता हूं
कि जा रहा हूं
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूं कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूं
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे 
कि जा रहा हूं। 

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घर : छः /  

उठो यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है
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कैसे जगाऊंगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूंगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूंगा हौले से
जागो यशोधरा
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताजा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है
उठो यशोधरा
तुम्हारा राहुल सो रहा है 
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है

कैसे जगाऊं तुम्हें
तुम्हीं बताओ यशोधरा
किस गुरु के पास जाऊं
किस स्त्री से पूछूं
युगों से 
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मंत्र
किससे कहूं कि देखो 
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी है 
और मुझ जैसे 
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से 

क्या करूं 
इस यशोधरा का
जिसे 
मेरे जैसा एक साधारण आदमी 
बहुत चाह कर भी
जगा नहीं पा रहा है
और 
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।

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कब्र में लेटी रहने वाली स्त्री
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कौन था
वह बूढ़ा आदमी 
और कौन थी वह 
बूढ़ी स्त्री
दो पैसे 
खुद पर खर्च किया
बहुत दिनों के बाद

बूढ़े का
हाथ पकड़
रसोई की कब्र से 
बाहर निकाली
और 
खुली हवा में 
जीभर  
देर तक 
हंसी
बहुत दिनों के बाद

बूढ़े ने 
मंहगे टाकीज में
सफेद बालों वाली
एक सांवली 
बूढ़ी स्त्री को
सिनेमा दिखाया
सिल्क की एक साड़ी खरीदी
बहुत दिनों के बाद

मसाला डोसा खाया 
और फुल प्लेट 
कुल्फी खिलायी
कोल्ड काफी भी पिलायी
बहुत दिनों के बाद 

पार्क में बैठे
यादों की चादर बिछा कर 
उंगलियों का जाल बनाकर 
एक-दूसरे के चेहरे को 
एकटक देखा 
पहले जैसा         
बहुत दिनों के बाद
ढ़लते हुए सूरज को
और थके हुए पक्षियों को 
कलरव करते
लंबी सांस भरते 
देखा-सुना करीब से
बहुत दिनों के बाद

फिर से
जोड़ा-जामा पहन कर
बूढ़ी स्त्री की चुनरी 
लहराया
बूढ़ी ने भी बूढ़े को
उस नजर से देखा
और पार्क में बैठे
लड़कों 
और लड़कियों की
आंख बचा कर
बूढ़े को जोरदार ढंग से 
मारी आंख
इस तरह
एक घरेलू क्रांति हुई
बहुत दिनों के बाद

स्वप्न और उमंग के 
समुद्रतल में धंसे हुए
लड़के
और लड़कियां 
कितनी बेखबर हैं
क्या जानें 
साल में एक दिन
शादी की वर्षगांठ पर 
अपने 
बूढ़े जिन्न के इशारे पर 
जिन्दा हो जाने के लिए
वर्षभर
चुपचाप
कब्र में लेटी रहने वाली 
वह 
बूढ़ी स्त्री 
कौन है

किससे पूछूं जानते हो
किससे कहूं नहीं जानती हो
तो जाओ 
मेरे जैसे किसी गुमनाम 
कवि के जीवन की कविता से
इस बूढ़ी स्त्री का
चित्र निकाल कर
ले जाओ
और
मिलाओ इसे
उस बूढ़ी स्त्री से
जिसे तुम जानते तो हो
पर तुम्हारे पास जिसके लिए 
वक्त सबसे कम है

जाओ 
उस मां के पास जाओ 
जिसने दी है तुम्हें 
अपनी लोहे जैसी जवानी
गला कर 
कुंदन जैसी यह तरुणाई 
देर-देर तक
उस बूढ़ी स्त्री का हाथ पकड़ कर 
कभी बरामदे में 
कभी फोन के पास 
कभी फोटो के सामने 
बैठे रहने वाले
उस बूढ़े आदमी के पास जाओ 

देखो 
आज 
इतना अधीर क्यों है 
कमजोर क्यों है उसका मन
जिसने दी है तुम्हें 
प्रेम और संघर्ष के लिए
फूल की पंखड़ियों जैसी कोमल 
और वज्र जैसी कठोर 
काया
बैठो उसके पास 
ठीक अपनी जड़ के पास
कुछ देर बैठो 
देखो 
फिर कोई कंछा फूट रहा है 
बहुत दिनों के बाद। 

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आत्मा का एकांत आलाप                          
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अजीब आदमी है
ढ़लान से उतरते हुए
मुड़-मुड़ कर
आकाश में चांद को 
देखता है 
इतने बड़े आकाश में 
चांद को अकेला देखता है
देखता है कैसे 
कहीं गिर न जाए बेचारा
खड्ड में
उसे अकेला चांद
बिल्कुल अपने जैसा लगता है
कितना अच्छा लगता है
अपनी तरफ एकटक देखते हुए
चांद के कान के पास मुंह ले जाकर 
कहता है-
कितनी अजीब बात है 
मैं भी भटक रहा हूं कोई तीस बरस से 
अपने आकाश में अकेला
और जिसे प्रेम करता हूं
कुछ नहीं कहता हूं उससे अब
यह भी कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं
जिससे प्रेम नहीं करता हूं
उससे भी नहीं कहता 
कि मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता हूं
मेरे लिए प्रेम 
बिल्कुल निजी घटना है 
आत्मा का एकांत आलाप
अभिव्यक्ति के सारे दरवाजे बंद हैं जहां 
बस एक अद्वितीय अनुभव है
प्रौढ़ता का एक शालीन विस्फोट
जिसने मेरे प्रेम को 
त्वचा की अभेद्य सतह को भेदकर
भीतर कहीं गहराई में पहुंचा दिया है
शायद मेरे लिए प्रेम
एकांत में किसी फूल से मिलना है
अपनी ही हथेली को 
बार-बार चूमना है
किसी पुलिया पर बैठ कर
आहिस्ता-आहिस्ता
डूबते हुए सूरज को देखना है
उम्र की ढ़लान पर
पुराने प्रेमियों के लिए शायद
स्मृति का महोत्सव है प्रेम
जीवन का अंतिम राग है
जीवन की चुनरी का
मद्धिम रंग है
रेलगाड़ी के किसी पुराने डिब्बे में
किसी छोटे-से स्टेशन पर
किसी शहर में
किसी गरीब के लोटे की तरह 
कि उसके बदनसीब दिल की तरह 
छूट गया
अनोखा वाद्य है।

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सफेद दाग वाली लड़की
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कोई  
आया नहीं 
देखने कि कैसी हो 
कहाँ हो मिट्ठू 
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का 
है उसे इन्तजार
कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-सि का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर
सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में
सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे सो उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सरी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जगते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।

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वर्दी में
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कई थीं
ड्यूटी पर थीं
कुछ तो बिल्कुल नई थीं
अंट नहीं पा रही थीं वर्दी में
आधा बाहर थीं आधा भीतर थीं।
एक की खुली रह गयी थी खिड़की
दूसरी ने औटाया नहीं था दूध
झगड़कर चला गया था तीसरी का मरद
चौथी का बीमार था बच्चा कई दिनों से
पांचवीं जो कुछ ज्यादे ही नई थी
गपशप करते जवानों के बीच
चुप-चुप थी
छठीं को कहीं दिखने जाना था
सातवीं का नाराज था प्रेमी
रह-रह कर फाड़ देना चाहता था
उसकी वर्दी।

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परिणीता
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यह तुम थी !
पके जिसके काले लंबे बाल असमय
हुए गोरे चिकने गाल अकोमल
यह तुम थी !
छपी जिसके माथे पर अनचाही इबारत
टूटा जिसका कोई कीमती खिलौना
एक रेत का महल था जिसका
एक पल में पानी में था
कितनी हलचल थी कितनी पीड़ा थी
भीतर एक आहत सिंहनी कितनी उदास थी

यह तुम थी !
ढ़ल गया था चांद जिसका
और चांद से भी दूर हो गया प्यार जिसका
यह तुम थी !
श्रीहीन हो गया जिसका मुख
खो गया था जिसका सुख यह तुम थी !
यह तुम थी एक-एक दिन
अपने से लड़ती-झगड़ती खुद से करती जिरह
यह तुम थी ! औरत और मर्द दोनों का काम करती
और रह-रह कर किसी को याद करती

यह तुम थी !
कभी गुलमोहर का सुर्ख फूल
और कभी नीम की उदास पीली पत्ती
यह तुम थी !
अलीनगर की भीड़ में अपनी बेटी के साथ
अकेली कुछ खरीदने निकली थी
यह तुम थी !
यह मैं था
साथ नहीं था आसपास था
मैं भी अकेला था तुम भी अकेली थी
मुझसे बेखबर यह तुम थी !
बहुमूल्य
चमचमाती और भागती हुई
कार के पैरों के नीचे एक मरियल काले पिल्ले-सा
मर रहा था किसी का प्यार
और तुम बेखबर थी
यह तुम थी ! जिसकी किताब में लग गया था
वक्त का दीमक
कुतर गये थे कुछ शब्द कुछ नाम कुछ अनुभव
एक छोटी-सी दुनिया अब नहीं थी
जिसकी दुनिया में यह तुम थी !
जो अपनी किताब में थी और नहीं थी
जो अपने भीतर थी और नहीं थी
घर में थी और नहीं थी
यह तुम थी !
बदल गयी थी
जिसके घर और देह की दुनिया
जुबान और आंख की भाषा
बदल गया था
जिसके चश्मे का नंबर और मकान का पता
यह तुम थी !
जिसकी आलीशान इमारत ढ़ह चुकी थी
मलबे में गुम हो चुकी थी जिसकी अंगूठी
और हार छिप गया था किसी हार में
यह तुम थी!
जीवन के आधे रास्ते में
बेहद थकी हुई झुकी हुई
देखती हुई अपनी परछाईं
समय के दर्पण में
जो इससे पहले कभी
इतनी कमजोर न थी
इतनी उदास न थी
यह तुम थी
किसी की परिणीता!



और
यह !
तुम थी !!
मेरी तुम !!!
जो अहर्निश
मेरे पास थी
जिसकी त्वचा
मेरी त्वचा की सखी थी
जिसकी सांसों का
मेरी सांसों के संग
आना-जाना था
मेरे बिस्तर का आधा हिस्सा जिसका था
और जिसका दर्द मेरे दर्द का पड़ोसी था
जिसके पैर बंधे थे मेरे पैरों से
जिसके बाल कुछ ही कम सफेद थे
मेरे बालों से
जिसके माथे की सिलवटें कम नहीं थीं मेरे माथे से
जिससे मुझे उस तरह प्रेम न था
जैसा कोई-कोई प्रेमी और प्रेमिका किताबों में करते थे
पर अप्रेम न था कुछ था जरूर
पर शब्द न थे जो भी था एक अनुभव था
एक स्त्री थी
जो दिनरात खटती थी
सूर्य देवता से पहले चलना शुरू करती थी
पवन देवता से पहले दौड़ पड़ती थी
हाथ में झाड़ू लेकर
बच्चों के जागने से पहले
दूध का गिलास लेकर
खड़ी हो जाती थी मुस्तैदी से
अखबार से भी पहले
चाय की प्याली रख जाती थी
मेरे होठों के पास मीठे गन्ने से भी मीठी
यह तुम थी
मेरे घर की रसोई में
सुबह-शाम सूखी लकड़ी जैसी जलती
और खाने की मेज पर
सिर झुकाकर
डांट खाने के लिए तैयार रहती
यह तुम थी!
बावर्ची
धोबी
दर्जी
पेंटर
टीचर
खजांची
राजगीर
मेहतर
सेविका
और दाई
क्या नहीं थी तुम!
यह तुम थी!
क्या हुआ
जो इस जन्म में मेरी प्रेमिका नहीं थी
क्या पता मेरे हजार जन्मों की प्रेयसी
तुम्हारे अंतस्तल में छुपी बैठी हो
और तुम्हें खबर न हो
यह कैसी उलझन थी मेरे भीतर कई युगों से
यह तुम थी अपने को मेरे और पास लाती थी
जब-जब मैं अपने को तुमसे दूर करता था
यह तुम थी !
जो करती थी मेरे गुनाहों की अनदेखी
मेरे खेतों में
अपने गीतों के संग पोछीटा मार कर
रोपाई करती हुई मजदूरनी कौन थी!
अपनी हमजोलियों के साथ
हंसी-ठिठोली के बीच
बड़े मन से मेरे खेतों में एक-एक खर-पतवार
ढूंढ-ढूंढ कर निराई करती हुई
यह तन्वंगी कौन थी!
मेरे जीवन के भट्ठे पर पिछले तीस साल से
ईंट पकाती हुई झाँवाँ जैसी यह स्त्री कौन थी
यह तुम थी!

और यह मैं था एक अभिशप्त मेघ !
जिसके नीचे न कोई धरती थी न ऊपर कोई आकाश
और जिसके भीतर पानी की जगह प्यास ही प्यास
कभी
मैं ढू़ंढ़ता उस तुम को !
और कभी इस तुम को !
कभी किसी की प्यास न बुझाई
न किसी के तप्त अंतस्तल को
सींचा
न किसी को कोई उम्मीद बंधायी

यह मैं था प्रेम का बंजर
इतनी बड़ी पृथ्वी का
एक मृत और विदीर्ण टुकड़ा
अपनी विकलता और विफलता के गुनाह में
डूबा
यह मैं था! यह मेरे हजार गुनाह थे
और तुम मेरे गुनाहों की देवी थी!
यह तुम थी!
जिससे
मेरी छोटी-सी दुनिया में
गौरैया की चोंच में अंटने भर का
उसके पंख पर फैलने भर का
एक छोटा-सा जीवन था
एक छोटी-सी खिड़की थी
जहां मैं खड़ा था
सुप्रभात का एक छोटा-सा
दृश्यखंड था
यह तुम थी! मेरी आंखों के सामने
मेरी तुम थी
यह तुम थी!

मेरे गुनाहों की देवी!
मुझे मेरे गुनाहों की सजा दो
चाहे अपनी करुणा में
सजा लो मुझे
अपनी लाल बिन्दी की तरह
अपने अंधेरे में भासमान इस उजास का क्या करूं
जो तुमसे है इस उम्मीद का क्या करूं
आत्मा की आवाज का क्या करूं
अतीत का क्या करूं अपने आज का क्या करूं
तुम्हारा क्या करूं
जो मेरे जीवन की सखी थी और सखी है
जिसके संग लिए सात फेरे
मेरे सात जन्म के फेरे हैं
जो मेरी आत्मा की चिरसंगिनी थी मेरा अंतिम ठौर है
यह तुम थी!
यह तुम हो!!
मेरी मीता                      
मेरी परिणीता।


('परिणीता' संग्रह से प्रेम कविताएं )





सोमवार, 16 दिसंबर 2019

जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं

- गणेश पाण्डेय

जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
कुछ उल्टा कुछ सीधा हर नाच चाचता हूं
कविता के कुछ नाच किये हैं जी मस्ती में
कुछ कविता की हद दर्जे की सस्ती में जी
कुछ नाच किया है यूपी का कुछ एमपी का
कुछ बिहार के बहार का नयी दिल्ली में
ठाकुर की ड्याढ़ी में पंडिज्जी की बस्ती में
जी हां हुजूर मैं डेढ़ टांग पर अतिभावप्रवण
कत्थक का नाच देशभर की अकादमियों में
भरतनाट्यम भवनों-संस्थानों में नाचता हूं
जी मैं अपने वक्त की कविता की मंदी में
गली-गली चौराहों पर गंदा नाच नाचता हूं
जी नहीं-नहीं मैं कोई कविता नरेश नहीं
सस्ती कविता का बस साधारण दल्ला हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
जी नाच-नाच कर यश का पेट पालता हूं
आउंडेशन-फाउंडेशन-जाउंडेशन के युग में
हर महफिल में जा-जा कर नाच नाचता हूं
जी हां हुजूर मैं छंद नहीं छलछंद बेचता हूं
जी मैं हिंदी का कवि हूं और प्रगतिशील हूं
पुरस्कार की धुन पर नंगा नाच नाचता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
सुबह दोपहर शाम और आधीरात नाचता हूं
जी मैं भवानी बाबू नहीं हूं जवानी बाबू हूं
जी गीतफरोश कविता का गीतफरोश नहीं हूं
जी मैं नयी सदी का पक्का कविताफरोश हूं
जी मैं कविता का गणेश नहीं गोबर गणेश हूं
साहित्यिक मुक्ति के लिए अनंत योनियों में
यश का मारा-मारा फिरता अति बिसनाथ हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
अपनी हर नाच पर दो-दो शब्द लिखवाकर
और दस-दस फोटो रोज-रोज छपवाता हूं
जी मैं खुदपर खुद ही पुस्तक छपवाता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
जी आलोचना का नाच भी नाच सकता हूं
जी नामवर आलोचक के पैर दबा सकता हूं
उससे अपनी किताब का लोकार्पण कराने
गीदड़दलबल सहित अन्य शहर जा सकता हूं
जी मैं हिंदी का नितहर्षित हंसमुख लल्लू हूं
मैं हिंदी का सारहीन अतिविनम्र मिलनसार
कड़ी से कड़ी बात सुनकर हें-हें करता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता का नाच नाचता हूं
जी हां हुजूर मैं कविता को नाच बनाता हूं।






कविता का एक हिस्सा खाली है


- गणेश पाण्डेय

कवि के लिए
तानाशाह का चेहरा
और उसकी तमाम क्रूरताएं दिखाना
बहुत से बहुत उससे भी बहुत जरूरी है

कवि के लिए
दुनिया का हर स्याह सफेद दिखाना
उसके कविकर्म का जरूरी हिस्सा है
उसे सबको दिखाना है सबका चेहरा
टेढ़े मुंह पर पुती कालिख
और दूसरी कमियां

कवि के लिए
जो-जो अपनी कविता में करना है
सब सही है सब सुंदर है सब जरूरी है
बस कविता के किसी कोने में उसे
अपना चेहरा दिखाना क्यों नहीं जरूरी है

कवि के लिए
हमारे समय के कवि के लिए
अपने चेहरे के दाग धब्बे गड्ढे छिपाने की
आखिर यह कैसी मजबूरी है कैसी
उसकी कविता में एक हिस्सा खाली है।



रविवार, 15 दिसंबर 2019

वृक्षों के नीचे फैली वनस्पतियों में

- गणेश पाण्डेय

सब गुम हो जाते हैं
जब तक दृश्य पर रहते हैं
खूब उछल-कूद नाच-गाना
और हंसी-ठट्ठा करते हैं
भूल जाते हैं कि यह
एक दिन का मेला है

बाद में पता चलता है
कि अरे-अरे यहां कोई था
अभी-अभी कहां चला गया
किस कबाड़ में किस धुंध में
निष्प्रयोज्य लिखे हुए किस पात्र में
कौन था कोई जान नहीं पाता है

शायद जो लोग
अपने काम में नहीं दिखते हैं
गुम होने के बाद कभी नहीं दिखते हैं
उनके घुंघरू उनकी पिस्तौलें
उनकी गलेबाजी किसी खड्ड में
गायब हो जाती है

दो-चार दिन चेले-चपाटी
और पाले हुए लौंडे-लफाड़ी
याद करतें हैं फिर खुद
दृश्य का हिस्सा बन जाते हैं

मुझे दृश्य से नहीं नेपथ्य से प्रेम है
मैं चाहता हूं मुझे कोई देखे नहीं
मैं अपने वक्त में ऐसे गुम रहूं
कि खुद भी खुद को देख न पाऊं

कविता की किताब के पन्नों पर
पंक्तियों के घने जंगल में कहीं
बड़े वृक्षों के नीचे फैली वनस्पतियों में
खो जाना चाहता हूं हमेशा के लिए
किसी अनाम जड़ी-बूटी
चाहे किसी कीट-पतंग की तरह
कोई मेरी शक्ल और मठ न देखे
कोई मेरे तमगे और मेरी नाच न देखे

आज के नचनियों के नचनिये
और उनके नचनिये प्रशंसक दृश्य से
छूमंतर हो जाएं तो कोई साधु आए
जिसकी आंख की एक ठोकर से
उघड़ जाए मेरी लहूलुहान आत्मा
और मैं पूरे पन्ने पर फैल जाऊं
उसके जाते ही फिर गुम हो जाऊं
फिर फिर ऐसे ही देखा जाऊं।

     



सोमवार, 9 दिसंबर 2019

हिंदीपट्टी सीरीज

- गणेश पाण्डेय
1/
-------------------
हिंदी के ज्ञानियो
--------------------
ज्ञान है
तो उसे जीवन में
उतरना चाहिए

अन्यथा
ज्ञान और गोबर में
क्या फर्क है

पहल के लिए
आपका जीवन
क्यों बुरा है।

2/
----------------------------
हिंदी पट्टी क्या हो गयी है
-----------------------------
क्या
आज हिंदी पट्टी
गोबर पट्टी नहीं हो गयी है

लोग तो हिंदी के जिस-तिस
ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को महान मानकर
पूजने के लिए अति विकल हैं
एक पैर पर खड़े हैं

उन्हें
इस बात से मतलब नहीं
जिसको पूज रहे हैं
उसके पास कोई महानता
है भी या नहीं
है तो क्या।

3/
--------------------------------
धारा के विपरीत जैसे होंगे
--------------------------------
जिसने
अपने समय के
किसी महाकवि चाहे
आलोचक का झोला नहीं ढोया

वह ऐसा करने वालों की तरह
अपना जीवन कैसे जी सकता है
उनकी तरह कैसे रह सकता हैं
उन्हें खुश करने वाला साहित्य
कैसे लिख सकता है

बहुत
मुश्किल समय है
धारा के विपरीत आप जैसे होंगे
लोग चाहे कुछ न कर पाएं फिर भी
आपको बर्बाद करने में लग जाएंगे
पत्थर फेकेंगे गालियां देंगे
दुष्प्रचार करेंगे।

4/
---------------------------------
वही अपनी बात कह पाता है
-----------------------------------
जो
अकेला होने का
जोखिम उठाता है

वही
कोई अपनी बात
कह पाता है

वर्ना
भीड़ में सब एक जैसा
लिखते बोलते करते हैं।

5/
--------------------------------
अकेला हूं अद्वितीय नहीं
--------------------------------
मैं यहां बहुत
अकेला हूं जरूर

पर हिंदी पट्टी में
अद्वितीय नहीं हूं

मेरी तरह और भी
बहुत अकेले हैं

अपनी-अपनी
जगह।

6/
-----------------------------
बस एक लंबी पंक्ति लिखूं
------------------------------
गुरुओं ने
मेरी कोई बात नहीं मानी
लेकिन मैं सोचता हूं
अपने प्रिय शिष्य की एक बात
जरूर मान लूं

यहां से हट जाऊं
नेपथ्य में बैठकर
एकांत साधना करूं
कुकुरमुत्तों को पूजने के दौर में
सरस्वती की पूजा करूं

सोचता हूं
शिष्य के कहने पर चुप रहूं
लंबी सांस लूं लंबी सांस छोड़ूं
समय के विशाल कागज पर
ग्रंथ नहीं महाकाव्य नहीं
अपनी लिखावट में
बस एक लंबी पंक्ति लिखूं

और
इस तरह अपना काम
पूरा करूं।


                                                         

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

विश्वविद्यालय सीरीज


- गणेश पाण्डेय


1

विश्वविद्यालय
-----------------

इक्कीसवीं सदी है बाबू
नेकी की नहीं बदी की सदी है बाबू
बदी के अनेक रूप और रंग हैं बाबू
ऐसे विश्वविद्यालयों को पैदाकर
मुश्किल में फंस गया है देश बाबू

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में
नेकी की बातें ठूंस-ठूंस कर भरी हुई है
लेकिन आचार्य उसे अपने छलबल से 
पढ़ने-पढ़ाने से बाहर जाने ही नहीं देते
विद्यार्थियों को जीवन में उतारने ही नहीं देते

हौदा जी आचार्य हाथी जी आचार्य
चूहा जी आचार्य और क्रांतिकारी जी आचार्य
विद्यार्थियों को जोर-जोर से डांटते हुए कहते हैं
कि यह जीवन में शामिल करने की चीज नहीं है
सिर्फ कंठस्थकर कापी पर लिखने
और ज्यादा नंबर पाने की चीज है
नंबर लो और अपने घर जाओ गधो

वे विद्यार्थियों को गधे की जगह
घोड़ा ऊंट शेर बनाना ही नहीं चाहते
उन्हें अच्छा मनुष्य बनाने के बारे में
वे सौ जन्म तक सोचना ही नहीं चाहते
वे हिंसामुक्त असमानतामुक्त समाज की बात
कक्षाओं में कर तो सकते हैं पर ऐसा हो
दिल से चाह नहीं सकते
वे मोमबत्ती जलाने का नाटक तो कर सकते हैं
पर अपने भीतर बदी से लड़ने के लिए
एक चिंगारी पैदा नहीं कर सकते हैं

क्या दुनियाभर के आचार्य
नेकी को बदी की तरह पढ़ाते हैं
मोटी-मोटी पोथियों की आड़ में
विद्यार्थियों से अपना जीवन छिपाते है
क्या हो गया है इस देश के आचार्यों को

इस देश के विश्वविद्यालयों को
समाज को सुंदर बनाने की प्रविधि के केंद्र की जगह
फूल जैसे बच्चों को पत्थर बनाकर निकालने की जगह
किन लोगों ने बनाया है कौन हैं पहले उन्हें ठीक करो।

2

कुलपति
-----

मुझे
कुलपति नहीं होना था जिस गाँव नहीं जाना था
उस रास्ते पर कोई डग रखना तो दूर उसे देखा तकनहीं 
मुझे तो अपने अनुशासन में कुछ टूटा-फूटा काम करना था
और जो पहले से टूटा-फूटा था और उसकी मरम्मत का 
जो काम पहले से बाक़ी चला आ रहा था
बस उसी को करना था किया भी

वे जो सूक्ष्म खोपड़ी के अतिविकट नितंबी आचार्य थे
उन्हें ले-देकर कुलपति बनने का काम करना था
जिन्होंने अपने आत्मवृत्त में छींकने से लेकर
मीआदी बुख़ार होने तक का वृत्तांत लिख रखा था
अपने अनुशासन का अ अक्षर तक ठीक से नहीं लिख रखा था
उनके पास कुछ भी ठीक से करने के लिए वक़्त कहाँ था
उन्हें तो कुलपतियों को नहाने के बाद तौलिया पहनाने से लेकर
रात में बिस्तर की सिलवटें ठीक करने तक का काम
पूरी मुस्तैदी के साथ करना था
कुलपति बेचारा अकेले खुले में ठीक से पाद तक नहीं सकता था 
ये सूँघते हुए वहाँ भी पहुँच जाते थे 
ऐसी बात नहीं कि कुलपतियों को यह सब ठीक नहीं लगता था
यह सब उनके जीवन का अभिन्न था इन्हीं सीढ़ियों से चढ़कर
कुलपति बनना होता था
कुलपति होते ही अलबत्ता एक अतिरिक्त दुम निकल आती थी
कुछ और भी अतिरिक्त हो जाता था

कुछ कुलपति अपवाद होते थे कहिए कि भूलवश होते थे
कुलाधिपतियों से दुर्घटनावश हो जाते रहे होंगे
ऐसे कुलपति सब जान जाते थे कि विद्या की दुनिया में
कौन-सा आचार्य किस कोटि का है 
किससे लिपिकीय कार्य लेना है, किससे परीक्षा का काम
किसे चम्मच और काँटे की तरह इस्तेमाल करना है
और किसका हृदय से सम्मान करना है
अक्सर छात्रों-शोधछात्रों और स्ववित्तपोषित महाविद्यालय के 
प्राध्यापकों के हित के लिए विभागाध्यक्षों से
मेरी लड़ाई होती रहती थी एक दिन लड़ाई
हाथापाई में बदल गयी
विभागाध्यक्ष कुलपति की आँख के तारे थे 
पहुँच गये अपने कुलपति के पास अकेले में रोना-धोना किया
और लौट आए मन ही मन मगन हांेकर अब पेशी होगी 
कल होगी परसों होगी शायद फोन पर होगी
लेकिन कुछ हुआ ही नहीं काफी दिनों बाद 
कुलपति मिले मैंने ख़ुद ही चर्चा की तो मासूम -सा जवाब दिया
उसी दिन मेरे पास आए थे लेकिन मैंने आपसे तो कुछ भी नहीं कहा
ऐसे कुलपति कम होते हैं जिनके पास अपने कान होते हैं
अपनी जुबान और अपना दिमाग होता है
नही ंतो ज़्यादार कुलपति अक़्ल से पैदल और कान के कच्चे होते हैं
चमचाप्रिय सेवाप्रिय मालप्रिय होते हैं

जब कुलपति बनना करोड़ों का खेल हो जाए
देकर बनो लेकर फूलकर कुप्पा बनो फिर दो बनो लो
ऐसे देश को रसातल में जाने से कौन रोक सकता है
जब मंत्री और कुलपति दोनों एक जैसे लुटेरे हों
एक बीमार देश यह कैसे तय कर सकता है
कि उसे लुटेरा कुलपति चाहिए या कुल की उन्नति करने वाला
कुलपति।

3

विभागाध्यक्ष
--------------

मुझे
विभागाध्यक्ष होना ही नहीं था
इसलिए कभी किसी दंदफंद वाले के पीछे
चलना ही नहीं था
उन लोगों को होना था
इसलिए उन लोगों ने
विभागाध्यक्ष होकर भी कम उम्र के
अपने विषय के फिसड्डी आचार्य
शिक्षक नेताओं के पीछे चलने में
अपनी भलाई समझी सब निरापद हो
अध्यक्षता ठीक से चलती रहे
कुलपति की डांट से बचे रहें
उनके लिए नाचना और पादना बुरा नहीं था
जीवन में इस मूल्यवान अवसर को
गँवा देना बुरा था
अपनी संततियों को कैसे बताते
जीवन में प्राध्यापक होकर उपाचार्य होकर
आचार्य होकर विभागाध्यक्ष होकर 
क्या बड़ा किया

और मुझ गधे के पास
इन फिजूल कामों के लिए वक़्त कहाँ था
मैं हिंदी का बेटा था मुझे भला
उसकी सेवा से छुट्टी कहाँ थी
उसी के लिए जीना था उसी के लिए
दिनरात लड़ना था उसी के लिए मरना
मुझे तो पता ही नहीं कि प्राध्यापक होने के बाद
हिंदी ने कब मेरे जीवन में दर्शन की जगह ले ली
कब उसने मेरी उँगली को जोर से पकड़ ली
और मैं माँ-माँ कहते हुए उसकी पीछे चल पड़ा

असल में हम
अपनी रुचि का जो काम
अच्छे से कर सकते थे हमने वही किया
भला इससे ज्यादा अच्छा
और क्या कर सकते थे।

4

प्राध्यापक
-----------

नयी सदी के
प्राध्यापक भी पूरी तरह
प्राथमिक अध्यापक बन चुके थे

सरकार ने नहीं
उन्होंने ख़ुद ही ख़ुद को 
अपने अनुशासन में कुछ बड़ा करने की जगह
शिक्षणेतर कार्यों के एक विशाल भाड़ में झोंक दिया था

कुलपति
और विभागाध्यक्ष ने
ख़ुद नहीं कहा कि पढ़ाने की जगह उनकी खुशामद करो
फिर भी उन्होंने ख़ुद ही ख़ुद को उन्नत किस्म की चंपी करने के 
पाठ्यक्रमेतर सैद्धांतिक और प्रायोगिक कार्य में 
निष्ठापूर्वक लगा दिया था

ज़ाहिर है ऐसे में प्राध्यापक
उससे भी कम पढ़ाने लगे थे
जितना किताबों में लिखा हुआ था
असल में हाथ मैले न हो जाएं
इसलिए किताबों को कम से कम छूते थे
बच्चों के सामने अपना जीवन 
किताब की तरह खोलकर कभी सीखा ही नहीं
सीखते भी तो वरिष्ठ डस्टर से उसे मिटा देते
समय बहुत दूसरा ख़ुद को बचाना
ख़ुद को अंतरिक्ष में बचाने जैसा था
और हिंदी की दुनिया में किसे इतना आता था

एक बिल्कुल अलग दुनिया थी
अलग तरह के कुलपति थे विभागाध्यक्ष अलग तरह के
प्राध्यापकों ने ख़ुद ही ख़ुद को उनके अनुकूल ढाल लिया था
और वातानुकूलित प्राध्यापक बन गये थे।


5

शिक्षाविद
------------

सरकारें कैसे-कैसे नमूनों को
शिक्षाविद चेयरमैन कुलपति बनाने लगीं थीं
जब शिक्षामंत्री ही नमूनों के सरदार हों
तो फिर नमूनों की सरकार में अचरज कैसा
इनसे कोई सख़्ती से पूछ ले तो हवा निकल जाए
तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है और है तो कहाँ है
तुम्हारे ज्ञान का विज्ञान का उद्देश्य क्या है कहाँ है
तुम्हारे पाठ्यक्रम का उद्देश्य क्या है दिख क्यों नहीं रहा है
तुम्हारे आचार्य का उद्देश्य क्या है तुम्हारा आचार्य कर क्या रहा है
तुम्हारे छात्र का उद्देश्य क्या है कर क्या रहा है
तुम्हारे विश्वविद्यालय का उद्देश्य क्या है विघ्वविद्यालय कहाँ खड़ा है
तुम्हारे शिक्षाविद होने का उद्देश्य क्या है तुम लोग कर क्या करे हो।