-गणेश पाण्डेय
स्वप्निल श्रीवास्तव का नया संग्रह आज ही मिला है। स्वप्निल जिला-जवार के हैं। उनका हक बनता है कि सब काम रोक कर उनका संग्रह देखूँ। स्वप्निल भी यूपी के सिद्धार्थनगर जनपद के हैं, जो पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बस्ती जनपद का हिस्सा था। सनद के मुताबिक स्वप्निल मुझसे आठ माह बड़े हैं, पर कविता में मुझसे पहले और मुझसे काफी प्रतिष्ठित हैं। यों कहने के लिए इसी जनपद के और असल में दिल्ली के बाबा विश्वनाथ त्रिपाठी भी हैं। बाबा पंडिज्जी के अर्थ में कह रहा हूँ। वे चहुँओर पंडित हैं। बस अपने जनपद के कुछ नहीं हैं। उन्होंने खुद एक बार मेरे सामने सिद्धार्थनगर में खुद को घर का जोगी जोगड़ा कहा था। जाहिर है कि वजह वे खुद हैं। बहरहाल, छोड़िये अपने जनपद के ऐसे किसी पुरनिया की बात। बात तो हमउम्र स्वप्निल की करेंगे, जो हमवतन हैं और मुझे हमेशा हमवतन लगते हैं। भाभू पाने के बाद कभी कोई ऐंठ इस कवि में नहीं दिखी। कम से कम मुझे। कुछ और भी होंगे जो भाभू के बाद भी धरती पर रहते हैं। ऐसा इसलिए कहता हूँ कि कुछ कवि तो ऐसे छोटे-मोटे इनाम पाने के बाद आसमान में उड़ने लगते हैं। कहना यह है कि स्वप्निल आसमान में उड़ने वाले नहीं, सचमुच की धरती के कवि हैं। गाँव-जवार और एक अर्थ में कस्बाई मन के कवि हैं। शायद इसीलिए उनके प्रगतिशील में शील अलग से लगा हुआ देखता हूँ। नहीं तो आज तमाम ऐसे प्रगतिशील कवि दिख जाएंगे जिन्होंने गाँव और कस्बे के शील को तज कर शुद्ध शहराती बनकर साहित्य में काफी प्रगति की है। असल में जैसे-जैसे वाणिज्य हमारे परिवेश के कण-कण में एक-एक साँस में समा गया है, साहित्य की दुनिया में भी लेन-देन का एक नया दौर चला है। एक धंधा चल निकला है। पहले दोस्तो के बीच अलीबाबा और चालीस चोर का एक मुहावरा खूब चलता था, इधर साहित्य में एक बाबा या एक ठाकुर और चार सौ चोर का मुहावरा शुरू हुआ है। हाँ, यह सच है कि मेरे गद्य का अपना अलग रंग है, इसलिए किसी भी बात को मुहावरे में कहने लगता हूँ। कहने का आशय यह कि साहित्य का एक नेटवर्क है। उससे जुड़े हैं तो मालामाल, नाम-इनाम इत्यादि भरपूर। कुछ इनाम तो स्वप्निल को भी मिले, पर कभी इनामी डाकू जैसा कुछ लगे नहीं। स्वप्निल की यह सहजता उनकी कविता का आधार है। इसीलिए स्वप्निल कभी खाँटी राजनीतिक कवि, खाँटी सांगठनिक कवि या खाँटी क्रांतिकारी कवि लगे नहीं, बावजूद इसके कि उनकी कविताओं में राजनीतिक संदर्भ कभी कम नहीं रहे या परिवर्तन की आवाज कभी गुम नहीं हुई। कह सकते हैं कि एक सहज प्रगतिशील कविता का स्वर स्वप्निल की कविता की पहचान है, लेकिन इस प्रगतिशीला की राह में उनकी निजता कभी बाधक नहीं रही। सच तो यह कि अपनी निजता को तज कर ढंग का प्रगतिशील कवि हुआ भी नहीं जा सकता है। मैं स्वप्निल के बारे में कुछ अधिक कहने के मूड में नहीं था, पर कक्षा के लिए निकलने में कोई तीस मिनट का वक्त था, सोचा क्यों न यह सारा का सारा वक्त अपने जिला-जवारी के लिए खर्च कर दूँ, आखिर मैं दिल्ली का कोई बाबा-साबा तो हूँ कि सारा जीवन औरों के लिए और अपने जिला-जवार के लिए नहीं । कम से कम मैं इतना स्वार्थी नहीं हो सकता हूँ भाई। दुश्मन की भी कविता अच्छी हो तो रुक कर देखूँगा और इत्मीनान से एक बार जोरदार ढं़ग से साँस खींचकर वाह कहूँगा, फिर आगे बढ़ूँगा। यह तो स्वप्निल की कविता है। उस स्वप्निल की, जिसकी हँसी बाँध लेगी और जिसकी डबडब आँखें खींचकर अपने में डुबो लेंगी। जब तक है जीवन, स्वप्निल जैसे कवियों का साथ है। यह स्वप्निल की नये संग्रह का नाम भी है- जब तक है जीवन।
स्वप्निल के लिए कविता का अर्थ जीवन है। आप चाहें तो सुविधा के लिए पर्याय कह लें। स्वप्निल के लिए भी जीवन का पर्याय कविता ही है। जीवन का एक छोर यर्थाथ की सख्त चट्टान पर टिका है तो दूसरा भावना के समुद्र के सबसे निचले तल में। इस तरह भी कह सकते हैं स्वप्निल की कविता की नदी बुद्धि और हृदय के दो पाटों के बीच बहती है। आप यह न समझें कि मैं स्वप्निल की कविता की तारीफ में कोई पर्वत बना रहा हूँ या समुद्र लाँघ रहा हूँ। यह सब जो कह रहा हूँ, स्वप्निल जैसे हजारों कवियों में मौजूद है। यह सब कह इसलिए रहा हूँ कि आप यह जाने कि मेरी दृष्टि में स्वप्निल कवि है, कविता के व्यापारी नहीं। कविता के कार्यकर्ता हैं, इंजीनियर नहीं। खुरदुरे हाथों से कविता की सड़क बनाते हैं, कमीशन नहीं खाते हैं। कविता है तो कविता ही है, लेख नहीं, निबंध नहीं, कुछ और नहीं। स्वप्निल कविता की बुनियादी शर्तों को कभी नहीं तजते। कहीं-कहीं यथार्थ का दबाव उन्हें बतकही तक खींचकर जरूर ले जाता है, पर अगली कविता में वापस कविता में लौट आते हैं। गाँव स्वप्निल के यहाँ लोक के मुहावरे में पहले की कविता की छौंक के साथ नहीं, बल्कि संवेदना के स्तर पर यथार्थ के आलोक में दिखता है। ‘हलवाहे’ कविता आप खुद देखें-
हलवाहे दिखते नहीं
मैंने सोचा-
वे बैलों के आसपास होंगे
लेकिन बैल कहाँ हैं ?
तो चलो हलवाहे को हल और
जुआठे के आसपास खोजा जाय
लेकिन अफसोस वे वहाँ नहीं हैं
हो सकता है कि हलवाहे खेत
जोत रहे हों
हाँ वे खेत में शर्तियाँ होंगे
लेकिन वे वहाँ भी नहीं मिले
उन्हें खोजने की यह कोशिश भी
बेकार गयी
किसी ने बताया हलवाहों के बिना
जोते जा सकते हैं खेत
यह मेरे लिए दुखद सूचना थी
हलवाहों के बिना खेत की
कल्पना नहीं होती
लेकिन हमारी कल्पना से ज्यादा
घटित हो रही हैं दुर्घटनाएँ
यह मानने में वक्त लगेगा कि
हलवाहे नहीं रहे
उसी तरह हमें एक दिन यह भी
सुनना पड़ सकता है कि खेत
नहीं रहे।
लेकिन मेरी दिलचस्पी स्वप्निल की राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ से जुड़ी कविताओं के साथ उन कविताओं में भी है जहाँ स्वप्निल अपने वजूद के साथ, अपने निजी संसार के साथ, कवि होने की पहली शर्त के साथ के साथ दिखते हैं। जिस कवि की आँख में आँसू नहीं, वह कवि, कवि नहीं, कविता का दलाल है। कहना तो कुछ और चाहता हूँ, पर दलाल शब्द की व्यंजना अपना काम कर देगी। हाँ, तो आते हैं उस कविता की ओर, जिसका जिक्र अपने एक लेख में अन्यत्र कर चुका हूँ और जिसे यात्रा में दे चुका हूँ-सूई धागा :
तुम सूई थी और मैं था धागा
सूई के पहले तुम लोहा थी
धरती के गर्भ में सदियों से
सोई हुई
तुम्हें एक मजदूर ने अंधेरे से
मुक्त किया
उसी ने तुम्हें तराश तराश
बनाया सूई
ताकि तुम धागे से दोस्ती
कर सको
धागे के पहले मैं कपास था
जिसे मां जैसे हाथों से चुनकर
चरखे तक पहुँचाया गया
कारीगरों ने मुझे बनाया धागा
मैं अकेला भटकता रहा
और एक दिन मैं तुमसे मिला
इस तरह हम बन गये
सूई धागा
और साथ साथ रहने लगे
तुम्हारे बिना मैं रहता था
बेचैन
और मेरे बिना तुम
रहती थी अधीर
हम दोनों मिलकर ओढ़ते रहे
जिंदगी की चादर
और अपने सुख-दुख को रफू
करते रहे
एक दिन तुम मृत्यु के अंधेरे में
गिर गयी
मैं रह गया अकेला
जब भी मैं तुम्हारे बारे में
सोचता हूँ
तुम मुझे चुभती हो
आत्मा तक पहुँचती है
तुम्हारी चुभन।
इस तरह की कविताओं को स्वप्निल की कविता की कसौटी मानता हूँ। यों यह कसौटी किसी भी भले कवि के लिए हो सकती है कि सबसे पहले उसकी आँख का पानी देखें। कुछ मित्रों को लग सकता है कि दूसरे कवियों पर एकाध पैराग्राफ कहे और स्वप्निल की कविता पर कई पैराग्राफ। इस आरोप के जवाब में सिर्फ इतना कहना है कि मैं कोई दिल्ली का बाबा नहीं हूँ जीवन में बाहर के लोगो के लिए करता रहूँगा, अपने जिला-जवार के कवियों को हिंदी के आदमखोर जानवरों के हिस्से में छोड़कर अपनी मिट्टी का कर्ज उतारे बिना चल दूँगा। अंत में मित्रो आपसे विनम्र प्रार्थना है कि स्वप्निल की कविता को एक भले कवि की कविता के रूप में देखें, मेरे जिला-जवार के कवि के रूप में हरगिज नहीं, वह तो मैं ऐसे ही कह रहा था।
(नोट : यह संग्रह पाने के बाद शिष्टाचारवश एक त्वरित प्रतिक्रिया है। इसे संग्रह की पुस्तक समीक्षा के रूप में न देखें।)
स्वप्निल श्रीवास्तव का नया संग्रह आज ही मिला है। स्वप्निल जिला-जवार के हैं। उनका हक बनता है कि सब काम रोक कर उनका संग्रह देखूँ। स्वप्निल भी यूपी के सिद्धार्थनगर जनपद के हैं, जो पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बस्ती जनपद का हिस्सा था। सनद के मुताबिक स्वप्निल मुझसे आठ माह बड़े हैं, पर कविता में मुझसे पहले और मुझसे काफी प्रतिष्ठित हैं। यों कहने के लिए इसी जनपद के और असल में दिल्ली के बाबा विश्वनाथ त्रिपाठी भी हैं। बाबा पंडिज्जी के अर्थ में कह रहा हूँ। वे चहुँओर पंडित हैं। बस अपने जनपद के कुछ नहीं हैं। उन्होंने खुद एक बार मेरे सामने सिद्धार्थनगर में खुद को घर का जोगी जोगड़ा कहा था। जाहिर है कि वजह वे खुद हैं। बहरहाल, छोड़िये अपने जनपद के ऐसे किसी पुरनिया की बात। बात तो हमउम्र स्वप्निल की करेंगे, जो हमवतन हैं और मुझे हमेशा हमवतन लगते हैं। भाभू पाने के बाद कभी कोई ऐंठ इस कवि में नहीं दिखी। कम से कम मुझे। कुछ और भी होंगे जो भाभू के बाद भी धरती पर रहते हैं। ऐसा इसलिए कहता हूँ कि कुछ कवि तो ऐसे छोटे-मोटे इनाम पाने के बाद आसमान में उड़ने लगते हैं। कहना यह है कि स्वप्निल आसमान में उड़ने वाले नहीं, सचमुच की धरती के कवि हैं। गाँव-जवार और एक अर्थ में कस्बाई मन के कवि हैं। शायद इसीलिए उनके प्रगतिशील में शील अलग से लगा हुआ देखता हूँ। नहीं तो आज तमाम ऐसे प्रगतिशील कवि दिख जाएंगे जिन्होंने गाँव और कस्बे के शील को तज कर शुद्ध शहराती बनकर साहित्य में काफी प्रगति की है। असल में जैसे-जैसे वाणिज्य हमारे परिवेश के कण-कण में एक-एक साँस में समा गया है, साहित्य की दुनिया में भी लेन-देन का एक नया दौर चला है। एक धंधा चल निकला है। पहले दोस्तो के बीच अलीबाबा और चालीस चोर का एक मुहावरा खूब चलता था, इधर साहित्य में एक बाबा या एक ठाकुर और चार सौ चोर का मुहावरा शुरू हुआ है। हाँ, यह सच है कि मेरे गद्य का अपना अलग रंग है, इसलिए किसी भी बात को मुहावरे में कहने लगता हूँ। कहने का आशय यह कि साहित्य का एक नेटवर्क है। उससे जुड़े हैं तो मालामाल, नाम-इनाम इत्यादि भरपूर। कुछ इनाम तो स्वप्निल को भी मिले, पर कभी इनामी डाकू जैसा कुछ लगे नहीं। स्वप्निल की यह सहजता उनकी कविता का आधार है। इसीलिए स्वप्निल कभी खाँटी राजनीतिक कवि, खाँटी सांगठनिक कवि या खाँटी क्रांतिकारी कवि लगे नहीं, बावजूद इसके कि उनकी कविताओं में राजनीतिक संदर्भ कभी कम नहीं रहे या परिवर्तन की आवाज कभी गुम नहीं हुई। कह सकते हैं कि एक सहज प्रगतिशील कविता का स्वर स्वप्निल की कविता की पहचान है, लेकिन इस प्रगतिशीला की राह में उनकी निजता कभी बाधक नहीं रही। सच तो यह कि अपनी निजता को तज कर ढंग का प्रगतिशील कवि हुआ भी नहीं जा सकता है। मैं स्वप्निल के बारे में कुछ अधिक कहने के मूड में नहीं था, पर कक्षा के लिए निकलने में कोई तीस मिनट का वक्त था, सोचा क्यों न यह सारा का सारा वक्त अपने जिला-जवारी के लिए खर्च कर दूँ, आखिर मैं दिल्ली का कोई बाबा-साबा तो हूँ कि सारा जीवन औरों के लिए और अपने जिला-जवार के लिए नहीं । कम से कम मैं इतना स्वार्थी नहीं हो सकता हूँ भाई। दुश्मन की भी कविता अच्छी हो तो रुक कर देखूँगा और इत्मीनान से एक बार जोरदार ढं़ग से साँस खींचकर वाह कहूँगा, फिर आगे बढ़ूँगा। यह तो स्वप्निल की कविता है। उस स्वप्निल की, जिसकी हँसी बाँध लेगी और जिसकी डबडब आँखें खींचकर अपने में डुबो लेंगी। जब तक है जीवन, स्वप्निल जैसे कवियों का साथ है। यह स्वप्निल की नये संग्रह का नाम भी है- जब तक है जीवन।
स्वप्निल के लिए कविता का अर्थ जीवन है। आप चाहें तो सुविधा के लिए पर्याय कह लें। स्वप्निल के लिए भी जीवन का पर्याय कविता ही है। जीवन का एक छोर यर्थाथ की सख्त चट्टान पर टिका है तो दूसरा भावना के समुद्र के सबसे निचले तल में। इस तरह भी कह सकते हैं स्वप्निल की कविता की नदी बुद्धि और हृदय के दो पाटों के बीच बहती है। आप यह न समझें कि मैं स्वप्निल की कविता की तारीफ में कोई पर्वत बना रहा हूँ या समुद्र लाँघ रहा हूँ। यह सब जो कह रहा हूँ, स्वप्निल जैसे हजारों कवियों में मौजूद है। यह सब कह इसलिए रहा हूँ कि आप यह जाने कि मेरी दृष्टि में स्वप्निल कवि है, कविता के व्यापारी नहीं। कविता के कार्यकर्ता हैं, इंजीनियर नहीं। खुरदुरे हाथों से कविता की सड़क बनाते हैं, कमीशन नहीं खाते हैं। कविता है तो कविता ही है, लेख नहीं, निबंध नहीं, कुछ और नहीं। स्वप्निल कविता की बुनियादी शर्तों को कभी नहीं तजते। कहीं-कहीं यथार्थ का दबाव उन्हें बतकही तक खींचकर जरूर ले जाता है, पर अगली कविता में वापस कविता में लौट आते हैं। गाँव स्वप्निल के यहाँ लोक के मुहावरे में पहले की कविता की छौंक के साथ नहीं, बल्कि संवेदना के स्तर पर यथार्थ के आलोक में दिखता है। ‘हलवाहे’ कविता आप खुद देखें-
हलवाहे दिखते नहीं
मैंने सोचा-
वे बैलों के आसपास होंगे
लेकिन बैल कहाँ हैं ?
तो चलो हलवाहे को हल और
जुआठे के आसपास खोजा जाय
लेकिन अफसोस वे वहाँ नहीं हैं
हो सकता है कि हलवाहे खेत
जोत रहे हों
हाँ वे खेत में शर्तियाँ होंगे
लेकिन वे वहाँ भी नहीं मिले
उन्हें खोजने की यह कोशिश भी
बेकार गयी
किसी ने बताया हलवाहों के बिना
जोते जा सकते हैं खेत
यह मेरे लिए दुखद सूचना थी
हलवाहों के बिना खेत की
कल्पना नहीं होती
लेकिन हमारी कल्पना से ज्यादा
घटित हो रही हैं दुर्घटनाएँ
यह मानने में वक्त लगेगा कि
हलवाहे नहीं रहे
उसी तरह हमें एक दिन यह भी
सुनना पड़ सकता है कि खेत
नहीं रहे।
लेकिन मेरी दिलचस्पी स्वप्निल की राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ से जुड़ी कविताओं के साथ उन कविताओं में भी है जहाँ स्वप्निल अपने वजूद के साथ, अपने निजी संसार के साथ, कवि होने की पहली शर्त के साथ के साथ दिखते हैं। जिस कवि की आँख में आँसू नहीं, वह कवि, कवि नहीं, कविता का दलाल है। कहना तो कुछ और चाहता हूँ, पर दलाल शब्द की व्यंजना अपना काम कर देगी। हाँ, तो आते हैं उस कविता की ओर, जिसका जिक्र अपने एक लेख में अन्यत्र कर चुका हूँ और जिसे यात्रा में दे चुका हूँ-सूई धागा :
तुम सूई थी और मैं था धागा
सूई के पहले तुम लोहा थी
धरती के गर्भ में सदियों से
सोई हुई
तुम्हें एक मजदूर ने अंधेरे से
मुक्त किया
उसी ने तुम्हें तराश तराश
बनाया सूई
ताकि तुम धागे से दोस्ती
कर सको
धागे के पहले मैं कपास था
जिसे मां जैसे हाथों से चुनकर
चरखे तक पहुँचाया गया
कारीगरों ने मुझे बनाया धागा
मैं अकेला भटकता रहा
और एक दिन मैं तुमसे मिला
इस तरह हम बन गये
सूई धागा
और साथ साथ रहने लगे
तुम्हारे बिना मैं रहता था
बेचैन
और मेरे बिना तुम
रहती थी अधीर
हम दोनों मिलकर ओढ़ते रहे
जिंदगी की चादर
और अपने सुख-दुख को रफू
करते रहे
एक दिन तुम मृत्यु के अंधेरे में
गिर गयी
मैं रह गया अकेला
जब भी मैं तुम्हारे बारे में
सोचता हूँ
तुम मुझे चुभती हो
आत्मा तक पहुँचती है
तुम्हारी चुभन।
इस तरह की कविताओं को स्वप्निल की कविता की कसौटी मानता हूँ। यों यह कसौटी किसी भी भले कवि के लिए हो सकती है कि सबसे पहले उसकी आँख का पानी देखें। कुछ मित्रों को लग सकता है कि दूसरे कवियों पर एकाध पैराग्राफ कहे और स्वप्निल की कविता पर कई पैराग्राफ। इस आरोप के जवाब में सिर्फ इतना कहना है कि मैं कोई दिल्ली का बाबा नहीं हूँ जीवन में बाहर के लोगो के लिए करता रहूँगा, अपने जिला-जवार के कवियों को हिंदी के आदमखोर जानवरों के हिस्से में छोड़कर अपनी मिट्टी का कर्ज उतारे बिना चल दूँगा। अंत में मित्रो आपसे विनम्र प्रार्थना है कि स्वप्निल की कविता को एक भले कवि की कविता के रूप में देखें, मेरे जिला-जवार के कवि के रूप में हरगिज नहीं, वह तो मैं ऐसे ही कह रहा था।
(नोट : यह संग्रह पाने के बाद शिष्टाचारवश एक त्वरित प्रतिक्रिया है। इसे संग्रह की पुस्तक समीक्षा के रूप में न देखें।)