-गणेश पाण्डेय
कबीर होते, रैदास होते, दादू होते तो आज किसी पँूजीपति घराने या सरकारी अनुदान से चलने वाली संस्थाओं के कथित बड़े ,मझोले या छोटे पुरस्कारों के लिए चयन समिति के सदस्यों को भाँति-भाँति के नुस्खों और प्रलोभनों और अन्य प्रभाव से खुश करने का उपक्रम करते या ऐसे कलंकित पुरस्कारों को अपनी सचाई की धूनी में डालकर तज देते ? कबीर तो कबीर गोरखपुर के ही दलित कही जाने वाली एक जाति विशेष से जुड़े और धूमिल, जगूड़ी की तरह ही साठोत्तरी हिंदी कविता को अपने मुहावरे और खासतौर से अपनी काव्यभाषा से समृद्ध करने वाले देवेंद्र कुमार आज जीवित होते तो यहाँ के पीछे के दरवाजे से पुरस्कृत होने वाले लेखकों की तरह चयन समिति के सदस्यों के सामने बिछ कर दिल्ली-फिल्ली या किसी भी बड़े शहर का कोई पुरस्कार हथिया रहे होते ? और अपने शहर के और बाहर के साहित्य के कूपमण्डूक लेखकों और साहित्यिक रूप से वज्र मूर्ख पत्रकारों के सामने सीना फुलाकर या फर्जी विनम्रता का प्रदर्शन कर बड़ा कवि होने का अभिनय कर रहे होते ? आज कई पुरस्कार ऐसे लोगों को दिये जाते हैं जिन्हें अच्छा लिखने में नहीं बल्कि पुरस्कारों के लिए सेटिंगबाजी में महारत हासिल हो। यह सब इसलिए कह रहा हूं कि हम जिस समय में हैं जब उसके साहित्य का परिदृश्य इतना गंदा है तो समाज और राजनीति का परिदृश्य कितना गंदा रहेगा, आप सहज अनुमान लगा सकते हैं। अनुमान क्या लगाना, जब इसी समय में जीना है तो सब आप अपनी खुली आँखों से देख रहे होंगे। मुश्किल यह है मित्रो! इसी समय मे दोनों तरह के लोग रह रहे हैं। महाखराब भी और शायद कुछ-कुछ अच्छे भी। क्या गोरखपुर क्या दिल्ली, क्या कोई और शहर- कवि हों या आलोचक साढ़े निन्यानबे फीसदी औसत की सरकार है। कोई किसी नामवर का मंुशी है तो कोई किसी नामी-गिरामी का अधिकारी-आलोचक और बात-बात पर ससुरा कहने वाले का भक्त तो कोई साहित्य के किसी मुंशी का मुंशी। कोई पूर्णकालिक मंुशी है तो कोई अंशकालिक। कोई विश्वविद्यालय में काम करने वाला है तो कोई सरकारी दफतर में। हैं सभी वही। साहित्य की दुनिया का जब अपराधीकरण हो जायेगा और साहित्य का परिसर व्यभिचार और पाप का अड्डा बन जायेगा तो जो लेखक इस रास्ते का मुसाफिर नहीं होगा, उसके हृदय से कुछ तो कठोर वचन निकलेंगे ही। बालकृष्ण भट्ट के निबंध का नाम ही है‘ साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है’ ,लेकिन बालकृष्ण भट्ट आज लिख रहे होते तो शीर्षक देते कि ‘आज का साहित्य हिंदी के हरामजादों का पापागार है’। मित्रो, आप सोच रहे होंगे कि मैं संत कवियों के बहाने यह सब क्या कह रहा हूं। संतों की बात के बीच अप्रिय वचन! कहां संत कवि और कहां ससुरे असंत कवि। सच तो यह कि जब असंतई हद से ज्यादा बढ़ जाये तो संतो को याद करने सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं। क्योंकि ये संत ही हैं जिनमें कुछ के पास जलता हुआ मोटा-तगड़ा चैला है तो कुछ के पास नम्र निवेदन। जिस को जो पसंद हो सब हाजिर है। आज कबीर, रैदास, दादू वगैरह कविता के संतांे की जरूरत जितना साहित्य में है, उतना ही गांधी जैसे अडिग संत की जरूरत इस देश की राजनीति में है। राजनीति और साहित्य में फिसड्डियों की पापी सत्ता को चुनौती देने का काम वे ही कर सकते हैं जो इस रीति-नीति और पतनोन्मुख संस्कृति के कीचड़ से दूर हों या इनके बीच रहने को अभिशप्त हों तो इनके बीच वैसे ही रहें जैसे कीचड़ में ‘कोई-कोई’ कमल रहता है। यह कोई-कोई इसलिए कह रहा हूँ कि अब कमल भी देवता के चरणों में नतमस्तक होने की जगह राजनीति और साहित्य के दुष्टों के चरणों में पड़ कर अपने को धन्य ही नहीं बल्कि अधिक सुरक्षित और खासतौर से पुरस्कृत अनुभव करते हैं। फिर भी हर जगह कुछ पागल मिल जाते हैं। कमलों में भी कुछ होंगे जो कमल की तरह जीना चाहते होंगे। जाहिर है कि ऐसे जन ही कुछ-कुछ संतों के स्वभाव के निकट होंगे। हिन्दी साहित्य के परिसर में आज संत कविता की ओर देखना जितना जरूरी है उतना ही दिलचस्प। संतों की ओर टकटकी लगाने की एक दूसरी और विशेषरूप से नयी सदी की सबसे बड़ी साहित्यिक जरूरत यह है कि आज हमारा देश और देश की हिन्दी भाषी जनता अनेक गुलामियों के बाद अब जिस नई गुलामी के खतरे से चुपचाप जुझ रही है, उसका नाम ‘साहित्यिक गुलामी’ है और कुछ किया न गया तो यह किसी जानलेवा बीमारी की तरह उसके साहित्यिक जीवन का नाश कर देगी। साहित्यिक जीवन का ही नहीं, साहित्यिक जीवन के बाद उसके सामाजिक जीवन और राजनीतिक जीवन को भी नष्ट कर देगी। हिन्दी के बेटों और सगे-संबंधियों को खबर ही नहीं कि उनके जीवन में यह हो क्या रहा है और उनका सभ्य जीवन या जीवन को जीवन देने वाला जीवन नयी सदी के अंत तक बच भी पायेगा या नहीं। यह बात मैं, हाँ मैं, पहलीबार कह रहा हँू और ऐसा कुछ कहते हुए अपने होशो-हवास में हँू। जानता हूँ कि आज हिन्दी के देश में ‘साहित्यिक गुलामी’ के नाम से जो यह जो नयी गुलामी किसी महामारी की तरह फाट पड़ी है इससे हमारा न सिर्फ हिन्दी भाषी जनता का साहित्यिक जीवन शायद कुछ दशकों में या इस नयी सदी के अंत तक नष्ट हो जायेगा और हो सकता है कि कोई कृत्रिम साहित्यिक जीवन या साहित्य की कोई रोबोट प्रणाली वाली कोई मुर्दों की दुनिया विकसित हो जाये। यह भी जानता हँू कि हमारा शुद्ध साहित्यिक जीवन अपने आप नष्ट होने वाली चीज नहीं है बल्कि इसे नष्ट करने वाले विषाणुओं का जन्म मौजूदा हिन्दी भाषी साहित्यिक समाज के बीच हो चुका है। ये विषाणु अपने समय के सबसे चतुर और बहुरूपी और प्रतिपल चकित और मुग्ध करने वाले हैं। ये विषाणु सबसे पहले पाँच सौ रूपये के भारतभूषण पुरस्कार से लेकर साहित्य आकादमी और व्यास सम्मान और दूसरे हजारों और लाखों रुपये के पुरस्कारों के पीछे-पीछे दिनरात चक्कर काटने वाले दो-दो कौड़ी के छुटभैये लेखकों की आत्मा को खा कर उनके प्राण हर लेते हैं और उन्हें साहित्य का प्रेत बना कर छोड़ देते हैं कि जाओ और जा कर साहित्य को ऐय्याश प्रेतों की कब्रगाह बना दो। भूल जाओ और नाच-गा कर या मार-मार कर सबको समझा दो कि प्लेटो झूठ कहता था कि गुलामी मृत्यु से भयावह है, अपना तिलक बक-बक करता था कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, वह लेखिका पागल हो गयी है जो उस व्यास-सम्मान को ठुकरा देती है जिसके लिए छुटभैये क्या कुछ नहीं करते। जाओ कह दो कि गणेश पाण्डेय भी पागल हो गया है जो आध्यात्मिक मुक्ति, सामाजिक मुक्ति , राजनीतिक मुक्ति की तरह नयी सदी के दूसरे दशक के आरम्भ में ‘साहित्यिक मुक्ति’ की बात करता है। हाँ, मित्रो! आज मैं ऐसा कहता हँू। क्यों कि मैं ऐसा कह सकता हूँ।
ऐसे समय में जब साहित्य में पाप का घड़ा भर गया हो, पापियों ने बाकायदा साहित्यिक सरकारें और संसद का गठन कर लिया हो, असंतई साहित्यक जीवन का चरममूल्य बन गयी हो, मेरा ढ़िलपुक दोस्त क्या करेगा और किसे याद करेगा यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन मेरे जैसा आदमी अपने पुरखे हिंदी के संतो को नहीं याद करेगा तो आज की तारीख में हिंदी के किस हरामजादे को याद करेगा ? तो संतो! आप से जानना है कि आपके समय में दुष्टता का क्या चरित्र था ? देखिये यह फर्क तो रहेगा ही मुझमें और मेरे ढ़िलपुक दोस्त में कि वह आपसे पूछता तो पूछता कि भक्तिकाल की कविता में भक्ति का स्वरूप क्या है ? आपके राम और सगुण कवियों के राम में क्या फर्क है और बहुत काँखता-कूँखता तो अपने किसी राम या प्रगतिशील मित्रों को खुश करने के लिए यह पूछ लेता कि आपके राम और आज की अमुक राजनीतिक पार्टी के राम में क्या फर्क है ? शायद उसे लगता है कि जो साम्प्रदायिक हैं सिर्फ वे ही भ्रष्ट और समाज के हत्यारे होते हैं और बाकी सब दूध के धुले और हिंदी के मर्द और लायक बेटे होते हैं। बुराई और कहीं है ही नहीं। ये साम्प्रदायिक ही बुराई के लिए पैदा हुए हैं। साहित्य में सिर्फ देवता होते हैं, सब देवता होते हैं, एक गणेश पाण्डेय को छोड़ कर। छोड़िए मेरे ढ़िलपुक दोस्त और इस, उस शहर के हजार ढ़िलपुकों की बात। एक जरूरी सवाल से अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ कि संतो! साम्प्रदायिकता का विरोध आपने किया तो ऐसा क्यो नहीं लगा कि आप फ्रॉड कर रहे हैं ,जबकि आज की तारीख में इस-उस शहर का कोई असंत परमानंद दास या बिसनाथदास या कोई भी बंदा ऐसा करता है तो फ्रॉड क्यों लगता है ? आप के समय में प्रशासनिक सेवा के आला अफसर होते थे, उनमें से अपने से आधी उम्र के किसी अधिकारी को किसी बड़े लेखक के नाम पर औसत लेखन के आधार पर उसे पुरस्कार दिलाने के लिए आप लोग एड़ी-चोटी एक करते थे और फिर हरिओम तत्सत कह कर नृत्य करने लगते थे ? या आप ऐसा करने वाले असंत परमानंददास को या बिसनाथदास को या किसी भी बंदे को चिमटे से दाग देते ? आप ही बताइए कि सत्तर-पचहत्तर साल वालों को सम्मानित करने के लिए कोई पैंतीस साल का आला अफसर उपक्रम करे तो यह अच्छा लगेगा या सत्तर-पचहत्तर साल के लेखक उस अधिकारी को सम्मानित करने के लिए तिकड़म करें तो यह अच्छा लगेगा ? यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि बाबा आप लोगों ने तमाम अजब-गजब उलटबाँसी वाली कल्पना करते हुए भी यह कल्पना न की होगी कि हिंदी में एक दिन ऐसा भी आ जायेगा कि जब साहित्य में असंतों की कोई ऐसी प्रजाति भी पैदा हो जायेगी! हे बाबा लोग आपके समय में साहित्य, आध्यात्मिक और सामाजिक मुक्ति का माध्यम था। आज के असंतों के लिए साहित्य मात्र पुरस्कार पाने के लिए बांस की ढ़िलपुक सीढ़ी है। आपके समय के राजाओं और संत कवियों में फर्क था। आज नेता पैसे के लिए देश को दांव पर लगा सकता है तो लेखक पुरस्कार के लिए साहित्य को। यह नये जमाने का नया अद्वैतवाद है। इनके लिए शब्द ब्रह्म नहीं, पुरस्कार ब्रह्म है। जो आपके लिए ब्रह्म है, वह इनके लिए ब्रह्म नहीं है। आपके पास जीव को ब्रह्म से मिलने की तड़प है। इनके पास न कोई आत्मा है और न कोई परमात्मा। कोई तड़प है तो पुरस्कार के लिए है। आप जिसे माया कहकर दूर करने के लिए कहते हैं, ये उसे पुरस्कार कहकर गजभर की जीभ से चाटते हैं। आप मुक्ति चाहते हैं, ये पुरस्कार का पिंजड़ा चाहते हैं। आप सच फटकार कर कह सकते हैं तो विनम्रतापूर्वक भी, ये भूल कर भी और किसी तरह भी सच नहीं कह सकते। जहाँ तक मैं जानता हूँ बाबा, आप लोगों ने किसी आलोचक ससुरे को कभी खुश-वुश नहीं किया। आप लोग परमात्मा का अनुग्रह चाहते थे, ये आलोचक का। वह तो कहिए कि आपके वक्त में निंदक तो हुए कोई आलोचक न हुआ। हुआ होता तो उसका क्या हुआ होता, कहना मुश्किल है। आज निंदक नहीं आलोचक होते हैं। मेरा ढ़िलपुक दोस्त भी आलोचक है। कभी-कभी मुझसे कहता है कि रचना के परिश्रम का फल चखने के लिए आलोचक को खुश करना पड़ता है। वह इसलिए ऐसा कहता है कि कोई-कोई हमउम्र कवि उससे कहते हैं कि वे उसके चरणों की धूल हैं। यह समय का फेर है कि साहित्य के सरोकारों का ? कहाँ भक्त मुक्ति के लिए प्रभु के चरणों की धूल होता था, कहाँ आज लेखक पुरस्कार और अवसर के लिए जिस-तिस दो कौड़ी के कथित बड़े लेखकों के चरणों की धूल बनने के लिए व्यग्र है। वह तो कहिए कि ये ससुरे आजादी की लड़ाई के दौरान नहीं पैदा हुए ,नहीं तो देश को आजादी खाक मिलती! एक रायबहादुरी पर ये न जाने क्या-क्या दे देते। बहरहाल कभी-कभी भूमिकाएँ लिखने का काम जिस पटकथा लेखक का होता है, उसका नाम समय होता है। वक्त बहुत कुछ बदल देता है। अलग-अलग वक्त के परिप्रेक्ष्य एक जैसे नहीं होते। आज संत कवियों को याद करने का अर्थ वही नहीं है, जो बड़े सुकुल जी के समय में था। आलोचना में भाड़ झोंकने वाले आलोचकों ने अपनी काबुली चने जैसी आँखों से आलोचना का कितना भाड़ फोड़ दिया है और कितनी आँखें, यह बाकायदा जाँच आयोग का विषय तो हो सकता है, इस लेख का विषय नहीं। तो संत कविता क्यों बड़ी कविता है और संत कवि क्यों बड़े कवि हैं और आज उनकी याद क्यों बेहद जरूरी है जैसे प्रश्नों से गुजरते हुए अपने समय की दरिद्रता और शक्ति और प्रतिभा की विफलता का अनुभव होता है। कोई कविता अपने सरोकारों और ईमानदारी से बड़ी होती है। निजी प्रेम या अन्य नितांत व्यक्तिगत विषयों पर भी लिखी गयी कविता अपने सरोकारों से बड़ी हो सकती है। कविता का साध्य पुरस्कार होते ही कविता मर जाती है। कवि ससुरा मर जाता है। हम जिस समय में हैं। कई कवियों की जनखई देखी है। इसी शहर में एक कवि को साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में बुलाये जाते रहने के लिए एक औसत लेखक की धोती फींचते देखा गया है। अनेक स्थानों पर ऐसे दृश्य होंगे। इसीलिए आज बड़ी कविता लिखना सबके वश की बात नहीं। जीवन छोटा है तो बड़ी कविता बने कैसे ? संत कवियों का जीवन बड़ा था इसलिए कविता बड़ी हुई। जीवन में चुनौतियाँ बड़ी थीं इसलिए कविता बड़ी हुई। संत कवियों का समय चुनौती पूर्ण था, आज की तरह साहित्य, समाज और राजनीति की सŸाा के सामने समर्पण करने वाला नहीं था। समर्पण था तो सर्वशक्तिमान सŸाा प्रभु के सामने था, उस प्रभु के सामने था जो दयालु था, दुख दूर करने वाला था। मुक्तिदाता था। मक्कार ,लालची और शोषक और क्रूर नहीं था। संत कवियों की आकाँक्षा मुक्ति थी, सबकी मुक्ति। जैसे बुद्ध की आकाँक्षा सबके दुखों का अंत। जैसे गांधी की आकाँक्षा भारत की मुक्ति।
संत कवि भी अपने समय के मुक्तिकामी नायक और सामाजिक विमर्श को दिशा देने वाले प्रखर विचारक थे। यह अलग बात है कि उन्हें भी अक्सर अध्यात्म के चश्मे से ही देखा जाता रहा है। यह ठीक है कि अध्यात्म उनके काव्य की वीणा है पर उस वीणा से जो राग फूटते हैं, वे सिर्फ जीव और ब्रह्म के मिलन के गीत से जुड़े नहीं हैं। उन रागों के बीच जीवन की तिक्तता ओर कंटीले अनुभवों के संसार से जुड़े राग भी हैं, खासतौर से समाज के बहुसंख्यक जीवन की नसों में बहने वाले दर्द के तीव्र अनुभव का राग है। आचार्य शुक्ल उचित ही भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि को उस समय की जनता की चिŸावृŸिायों से जोड़कर देखते हैं -‘‘ देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव , गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराये जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चल कर जब मुस्लिम राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गये। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ? ’’ पर इस विश्लेषण में शायद पीछे की ओर रोशनी कम पड़ती है। पर इस चित्र का पीछे का हिस्सा भी है, वह यह है कि बहुसंख्यक हिन्दू जनता मुसलमानो से नहीं बल्कि अपने ही धर्म और समाज के थोड़े से लोगों के उस हिस्से से अपने को पराजित ही नहीं दलित, वंचित, अपमानित और अतिशय पीड़ित अनुभव कर रही थी। इसीलिए संत कवि जो प्रायः इसी वर्ग से आये थे, जीव और ब्रह्म के बीच के मायाजनित दूरी को सामाजिक वैष्मय और अलगाव से जोड़कर देखते थे। जाहिर है कि अध्याम के गीत की टेक का संबंध पक्के तौर पर सामाजिक टूट-फूट और उससे पैदा महाबेचैनी से है। कोई साढ़े चार सौ साल पहले के आसपास जब दादू कहते हैं-‘‘कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौं पूजै गरीब पिंजारा ।।.....मैं हौं निबल सबल ये सारे , क्यों करि पूजौं बहुत पसारे।।.....या... तहाँ मुझ कमीन की कौन चलावै।....सवतैं नीच मैं नांव न जांनां, कहै दादू क्यों मिलै सयाना।।’’ तो ‘कमीण विचारा’, ‘गरीब’, ‘पिंजारा’ ‘निबल’, ‘मुझ कमीन’, सवतैं नीच मैं’ जैसे पदों से अपने जैसे बहुसंख्यक जनता के जीवन के महादुख को तो व्यक्त करते ही हैं, खुद को ये सब विशेषण देते हुए जिस वर्ग से यह अपमान और असह्य दुख मिला है उस वर्ग की क्रूरता के विरुद्ध प्रतिकार का यह स्वर और मुहावरा काव्यभाषा की शालीनता का उदाहरण तो है ही संधर्ष को संयम से जोड़कर कहीं न कहीं निर्णायक स्थिति तक ले जाने की गंभीर चेष्टा भी है। दादू खुद को कमीण, कमीना, सवसे नीच कह कर चोट उस मुँह और सोच पर ही करते हैं जो ऐसा कहता या सोचता है, उस वर्ग को कमीना और सबसे नीच कह कर न तो उसका सिर फोड़ते हैं और न ही समाज को गैरजरूरी मारकाट में झोंकना चाहते हैं। रैदास भी खुद को ही कही गयी अपमानजनक बातें और दंश की पीड़ा रख कर अपनी बात रखते हैं-‘‘कह रैदास खलास चमार।...ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।’’ संत कवि सिर्फ यह चाहते हैं कि जब सबको साथ ही रहना है तो ढ़ग से रहें। दादू कहते भी हैं-‘‘नीच ऊँच मधिम को नाही, देषौ राम सबनि कै माँही।।’’ दादू ही नहीं दूसरे संत भी कहते हैं कि भगवान ने सबको बराबर बनाया है, कोई छोटा-बड़ा नहीं। आज के दलित कवि जब अपनी बात रखते हैं तो एक तो उनकी कवितानुमा चीज में कविता की तमीज नहीं होती और दूसरे कविता के मुहावरे में काव्यभाषा की शालीन परमाणु ऊर्जा की जगह सिर्फ आवाज करने वाले पटाखा बम की गूँज अधिक होती है। शायद इस बात का सही अनुमान या अंदेशा मेरे प्रिय कवि देवेंद्र कुमार को कोई तीस साल पहले था कि हिंदी की समृद्ध और बड़ी कविता की परंपरा में मेरुदंड जैसी संत काव्यधारा की मौजूदगी की वजह से हमारे यहाँ मराठी की तरह दलित साहित्य का उज्ज्वल भविष्य नहीं। और कुछ हो तो हो। ये वही देवेंद्र कुमार हैं जिन्हें पता था-‘‘पर्वत के सीने से बहता है झरना। मुझको भी आता है भीड़ से गुजरना।।’’ कहना चाहता हूँ कि देवेंद्र कुमार की तरह उन्नत काव्यभाषा आज के दलित साहित्य के स्वयंभू लेखकों के पास मेरी जानकारी में नहीं है। हो तो देखना भी चाहूँगा और खुशी भी होगी। पर कविता का मुहावरा और काव्यभाषा का शालीन तेवर सभी संत कवियों में भी एक जैसा नहीं है। दादू जहाँ अपने समाज दर्द उघाड़ कर रख देते हैं वहीं कबीर आगे बढ़कर चोट करते हैं, ललकारते हैं, चुनौती देते हैं और लोक के मुहावरे का कविता में जितना तीखा इस्तेमाल कर सकते हैं करते हैं। जहाँ तक मैं समझता हूँ कविता के भीतर इससे तीखा संभव ही नहीं। इससे अधिक तीखा होगा तो फिर तो वह कविता नहीं हो सकती। कबीर अपने गुस्से को उसकी ताकत को और फटकार कर सच कहने की अपनी आदत को मिलाकर कविता का जो रसायन तैयार करते हैं वह अन्यत्र दुर्लभ है। कोई सच्चा जब भाषा के बाँध तोड़ देता है तो झूठा चाह कर भी उससे टकरा नहीं सकता। कबीर को शायद यह मालूम था, इसीलिए उन्हांेने दादू की तरह नहीं बल्कि अपनी तरह जात-पाँत पर प्रहार किया-‘‘ जो तूं बांमन बंमनी जाया। तौ आन वाट ह्वै क्यों नहिं आया।।’’ दादू कबीर के बाद आते हैं। शायद इसीलिए अपने स्वर को तोड़फोड़ के राग की जगह एका के कोमल राग से जोड़ते हैं। कहते हैं सब पर। पर आलोचना ऐसी कि जैसे सबको साथ लेकर चलना है। शायद दादू और बाद के दूसरे लोगों ने अनुभव किया होगा कि खण्डन-मण्डन और पत्थरों की वर्षा बस। हुआ क्या इससे ? कितना फर्क आया ? सब जस का तस। चलो प्रेम का राग काढ़ कर देखते हैं, शायद बात बन जाये। प्रेम तो कबीर के यहाँ भी है और खूब है। पर कुछ जो और है कुछ अधिक है। कबीर के यहाँ अतिशय मीठा और अतिशय तीखा एक ही दोने में रखकर साथ चखने की समस्या है। पर सच की ताकत कविता की ताकत को कम नहीं करती। इसीलिए कबीर का मीठा जितना प्यारा लगता है, उतना ही प्यारा तीखा भी। कबीर के लिए क्या दूसरे क्या अपने! सबके लिए कविता का सोटा एक जैसा। हाँ मित्रो! कबीर हैं जो कविता को कविता की सारी खूबियों के साथ सोटा भी बनाते हैं और अपने बेटे पर भी सोटा चलाने से नहीं चूकते-‘‘बूड़ा वंश कबीर का उपज्यो पूत कमाल...।’’ क्यों कि वह हरि का सुमिरन छोड़कर माल के फेर में पड़ता है। दादू कहते हैं-‘‘धन जोबन माया रे। यहु काची काया रे।।’’ लेकिन संत कवि यह नहीं कहते कि घरबार डोड़कर संन्यासी बन जाओ। वे सिर्फ निर्मल जीवन की बात करते हैं। माया मुक्त संत स्वभाव की बात करते हैं। उल्टे ऐसे ढ़ोंगियों की आलोचना करते हैं जो ‘‘ स्वंाग सती का पहिर करि , करै कुटुंब की सोच।’’ वे तो सबको जागने की बात करते हैं। वे बताते हैं कि मन और इंद्रियां व्यक्ति को माया की ओर आकृष्ट करती हैं और इन्हें वश में करके ही मायामुक्त हुआ जा सकता है। यह महाठगिनी माया जीव को ब्रह्म से मिलने नहीं देती। पृथ्वी की सबसे बड़ी सौत है माया। गुरु से ज्ञान प्राप्त करके ही इस बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। लेकिन आध्यात्मिक मुक्ति के लिए गुरु-शिष्य के इस अनिवार्य रिश्ते की कई पेचीदगियाँ भी हैं। सद्गुरु की खोज और शिष्य की पात्रता संत कविता और संत कवियों की अध्यात्मिक यात्रा की सबसे बड़ी समस्या है। मेरे प्रिय पाठको! मैं आपका ध्यान यहाँ जिन दो बातों की ओर खींचना चाहूँगा उनमें पहली बात हैं अध्यात्मिक मुक्ति का प्राणतत्व, दूसरी बात गुरु समस्या का समसामयिक संदर्भ। पर बात दूसरी बात से। सभी जीवों को ब्रह्म से मिलने की छटपटाहट के पीछे की असल वजह क्या है ? संत कवि क्यों इतने विकल हैं ? क्या सिर्फ अध्यात्मिक मुक्ति ही उनकी कविता या उनके संत जीवन का मुख्य प्रयोजन है ? यदि बात इतनी-सी है, तो फिर सिर्फ मिलन के गीत ही क्यों नहीं ? यह बार-बार अध्यात्म के भीतर समाज क्यों ? समाज के अपने समय के सबसे ज्वलंत और पेचीदा सवाल क्यों ? जात-पाँत और हिन्दू-मुसलमान क्यों ? संत कवियों का मुख्य प्रयोजन आखिर क्या है ? वे दुनिया को सुखी देखना चाहते हैं या जीव को ब्रह्म से मिलाना चाहते हैं ? दुनिया से दुख दूर हो जाये तो क्या वे जीव को ब्रह्म से मिलाने की बात छोड़ देंगे ? या जीव ब्रह्म से मिल जाय तो दुनिया की बात भूल जायेंगे ? दादू क्यों कहते हैं- ‘‘ दुष दरिया संसार है...। ’’ संसार क्यों दुख का दरिया है ? संत कवि कोई मार्क्सवादी तो हैं नहीं कि उन्हें धन और धरती न बंट पाने का दुख है ? वे तो पैसे को तुच्छ समझते हैं। कबीर कहते हैं- साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय। आप भी भूखा न रहे, साधु न भूखा जाय। कबीर हो या दादू या रैदास या कोई और संत कवि कोई भी अपने समय का सबसे बड़ा धनी नहीं बनना चाहता। फिर क्या चाहिए ? दुनिया दुख का दरिया क्यों है ? क्या यह दुनिया इसलिए दुख का दरिया नहीं है कि ऊँची जाति वाले उन्हें कमीण या नीच वगैरह कहते हैं ? क्या छोटी जातियों को सामाजिक अपमान और तिरस्कार के जिस असह्य दंश को बर्दाश्त करना पड़ रहा है, यह दुख का सबसे बड़ा कारण नहीं है ? यदि यह सबसे बड़ा कारण नहीं है तो बारबार जीव और ब्रह्म जैसे पृथ्वी के सबसे बड़े संदर्भ के बीच यह प्रकरण तीव्रता और विकलता के साथ क्यों ? जहाँ तक मैं समझ पाता हूँ मेरे प्रिय पाठको! संत कविता की अध्यात्मिक मुक्ति का केंद्रीय तत्व यह सामाजिक मुक्ति ही है। इसे ही मैं संत कविता के अघ्यात्मिक मुक्ति के प्राणतत्व के रूप में देखता हूँ। इसीलिए संत कविता मुझे इतनी प्रिय है। पहली बात पर लौटता हूँ। गुरु-शिष्य प्रकरण। मेरे प्रिय पाठको ! यह बारबार मेरे प्रिय पाठको, इसलिए कि यह बात जग में साफ रहे कि मेरे और मेरे ढ़िलपुक दोस्त के पाठक अलग-अलग है। पता नहीं उसके पाठक कितने हैं ? किस तरह के हैं ? हैं भी या नहीं ? बहरहाल मेरे पाठको! हम बात कर रहे थे गुरु-शिष्य की। संत कवि हो या दूसरे भक्त कवि गुरु के महत्व का बखान कौन नहीं करता ? कबीर कहते हैं-‘‘सतगुरु की महिमा अनँत, अनँतु किया उपगार। लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार।।’’ दादू कहते हैं-‘‘ सतगुरु कीया फेरि करि मन का औरे रूप। दादू पंचों पलटि करि, कैसे भये अनूप।।’’ लेकिन ये कबीर और दादू या दूसरे संतकवि ‘‘सतगुरु’’ की बात क्यों करते है ? क्या उनके समय में भी खराब या गंदे गुरु होते थे ? ये गंदे गुरुओं की परंपरा आखिर कितनी पुरानी है ? क्या इसीलिए कबीर कहते हैं-‘‘ जाका गुरु है आंधरा, चेला है जाचंद। अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप परंत।’’( श्याम सुदर दास का पाठ है-जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत।।) जब गुरुओं की हरामजदगी की कथा अतिप्राचीन है तो ऐसे में आज के गुरुओं को ठीक-ठीक कैसे देखा जाय यह समस्या आज के कवि की बड़ी समस्या है, जाहिर है कि जो समस्या आज के कवि की है वह कबीर की नहीं है। अच्छे गुरु भी होंगे, कोई दो राय नहीं। पर पक्का तो यह कि महाखराब या महागंदे गुरु भी हैं और ये असंतई के मामले में कबीर के जमाने के गुरुओं के बाप हैं। तभी तो आज के कवि का काम सिर्फ अंधा कहने से नहीं चलता। क्योंकि सिर्फ अंधा कहना बहुत नाइंसाफी है। काफी कम है। इसलिए आज का कवि जब दस कविताओं की ‘‘गुरु सीरीज’’ लिखता है तो कहता है-(2) जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया/मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ/न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर/सब कुछ सामान्य था मेरे लिए/जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया/और बनाया किसी खुशामदी को अपना/प्रधान शिष्य।/बस इतना हुआ मुझसे/कि मैं बहुत जोर से हँसा। (5) गुरु से बड़ा था गुरु का नाम/सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम/कबीर तो बहुत छोटा रहेगा/कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला/अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ/गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में/पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु/ एक टुकड़ा मोदक थमाया/और बोले-/फिसड्डी हैं ये सारे नाम/तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है। (8) खूब मिले गुरु भाई/सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल/कुछ भी हो जाने के लिए/मेरे विरुद्ध/बात सिर्फ इतनी-सी थी/कि मैं कवि था भरा हुआ/कि टूट रहा था मुझसे /कोई नियम/कि लिखना चाहता था मैं /नियम के लिए नियम। (9) खीजे गुरु/पहला बाण / जो मारा मुख पर/आंख से निकला पानी/दूसरे बाण से सोता फूटा/वक्षस्थल से शीतल जल का/तीसरा बाण जो साधा पेट पर/पानी का फव्वारा छूटा /खीजे गुरु/मेरी हत्या का कांड करते वक्त/कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने/अपना तप्त लहू। इस सीरीज की कुछ अन्य कविताओं के शीर्षक हैं-जब मुझे गुरु ने डसा, गुरु ने मुझसे कुछ नहीं मांगा, जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा, कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान, निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं, सद्गुरु का पता। मेरे पाठको ! आज जिस साहित्यिक मुक्ति का प्रश्न उठा रहा हूँ यह अकारण नहीं। ठोस कारण हैं और पक्के सबूत। आज हिंदी साहित्य का टेंटुआ ऐसे कंटाल गुरुओं के पंजे में फँसा हुआ है कि अब गया, तब गया हिंदी का प्राण। गांधी ने संत कविता की अध्यात्मिक और सामाजिक मुक्ति को भारत की राजनीतिक मुक्ति से जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया है। समय आ गया है कि जब सामाजिक और राजनीजिक मुक्ति को हिंदी की साहित्यिक मुक्ति से भी जोड़ा जाय। सामाज और राजनीति के मौजूदा अंधेरे में एक बार फिर साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बनाने की बेहद जरूरत है। यह काम तब संभव होगा जब साहित्यि की मुक्ति संभव की जाय। साहित्यिक मुक्ति का यह संग्राम चलेगा कैसे ? सवाल यह है। जब तुरत पैदा लेखक से लेकर कब्र में पैर लटकाकर बैठे रहने वाले और आँखों और इच्छाओं से बहुत कुछ करते रहने वाले लेखकों के लिए साहित्यिक गुलामी जीवन के सर्वोŸाम उपहार की तरह हो, जिनके लिए इस-उस की साहित्यिक चाकरी और बेगार और दासता साहित्यिक पुरुषार्थ जैसी चीज हो तो ऐसे में साहित्यिक मुक्ति की कामना निश्चितरूप से किसी जोखिम से कम नहीं। पर विदित है कि जीते हैं वही जो उठाते हैं जोखिम। कबीर के समय में ही नहीं , सच बोलना आज भी सबसे बड़ा जोखिम है। जो सच कहता है, वही अपना काम करता है। जस की तस सच की चादर धरती पर झाड़ और बिछा कर और हिंदी के कापुरुषों को उस पर पटककर या सममानपूर्वक बैठाकर जो बंदा इस दुनिया से चल देता है , वही ऊपर या कहीं भी धरती की कोई चीज लेकर भाग आने के जुर्म से बचता है। कबीर हों या दादू या कोई अन्य संत कवि, सब अपने हिस्से का ही नहीं बल्कि अपने समय के हिस्से का भी सच बोल कर जाते हैं। इसीलिए वे बारबार याद आते हैं। सच से जो लौ लगाते हैं वह लौ परमात्मा के लौ से तनिक भी कम नहीं। जैसे सच ही ईश्वर है। यह ऐसा समय है जिसमें झूठ और फरेब को ही भगवान समझा जाता है। इनमें आसक्ति ही आज के जमाने की प्रभु भक्ति है। आज के भक्त कवि-आलोचक हैं वे प्रभु के भक्त नहीं बल्कि साहित्यप्रभुओं के भक्त हैं। मेरा ढ़िलपुक दोस्त तो कम से कम ऐसा ही भक्त हैऔर कोई ऐसी-वैसी भक्तई नहीं है उसकी। किसी नामी-गिरामी प्रभु ही नहीं ज्ञात-अज्ञात कुलशील के कोई तैंतीस करोड़ साहित्य के देवी-देवताओं का भक्त है। जो बंदा या अपने जनपद का गद्दार ही सही उसे कोई पुरस्कार दिला देता है या बाहर की किसी गोष्ठी का निमंत्रण दिला देता है, वही उसका भगवान हो जाता है। उसी के गुण गाने लगता है। गुण ही नहीं अवगुण को भी गुण की तरह गाने लगता है। यह सब उसकी आलोचना का वैशिष्ट्य है, जिस पर कभी शोधकार्य कराने की जरूरत है। आज के अनेक आलोचक और लेखक मित्रो को लग रहा होगा कि मेरा मित्र ही केवल साहित्यभ्रष्ट है, बाकी सब दूध के धुले हैं। जबकि सच तो यह कि जो दूसरे लेखक-आलोचक-कवि हैं उससे कम पतित नहीं हैं। कुछ तो उससे काफी बढ़-चढ़ कर हैं। कबीर कवि ही नहीं अपने समय और समाज के सबसे बड़े आलोचक हैं। आज के महाभ्रष्ट आलोचकों को अपने बडप्पन का भ्रम नहीं होना चाहिए। क्योंकि कबीर कविता ही नहीं आलोचना में भी उनके बाप हैं। यह अलग बात है कि वे कबीर को नहीं बल्कि दिल्ली या गोरखपुर में किसी भी साहित्यपतित को अपना बाप समझते हों। आज का आलोचक और साहित्य प्रबंधक इतना मदांध हैं कि अपने को साहित्य का ही बाप समझ लेने के मुगालते में है। सब जानते हैं कि संत कवि मुगालते के कवि नहीं हैं। बल्कि जीवन और समाज और जगत के मुगालते की काट की खोज करने वाले कवि हैं। वे अपनी खोज में कामयाब भी होते हैं और जहाँ-जहाँ जरूरत होती है, पूरी ताकत से उसे कहते भी हैं। न राजा से डरते हैं, न मृत्यु से। दादू कहते हैं-राव, रंक मरहिंगे, जीवै नाही कोई। दादू सोई जीवता जो मरजीवा होई।। या फिर कहते हैं-कागद का माणस कीया, छत्रपति सिरमौर। राजपाट साधै नहीं, दादू परिहरि और।। कबीर इस निर्भयता को मुक्ति से जोड़ते हैं-आये हैं सो जायेंगे, राजा, रंक फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जात जंजीर।। यहाँ राम विलास शर्मा का स्मरण स्वाभाविक है-‘‘संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का इजारा तोड़ा। खासतौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को साँस लेने का मौका मिला, यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्रों के बिना भी उनका काम चल सकता है।’’ इतने लंबे प्रकरण के बाद जो बड़ी बात कहना चाहता हूँ वह यह कि हिन्दी के इन छुटभैये लेखकों-आलोचकों-कवियों को यह बात क्यों नहीं समझ में आती है कि हिन्दी साहित्य के पुरोहितांे और असंतों के बिना उनका भी काम चल सकता है। जब कबीर फिर से पैदा होकर उन्हें समझाएँगे, तभी वे समझेंगे। किसी साधारण लेखक की सच्ची बात को नहीं सुनेंगे-समझेंगे। कबीर अब नहीं आयेंगे तो न आयें पर कुछ तो आयेंगे जरूर और कहेगे जरूर। संत कविता ही नहीं पूरे भक्तिकाल की कविता और उसके बाद छायावाद की कविता और उसके बाद की कविता में कविता को जीवित रखने वाले तत्वों की प्रतिष्ठा में लेखक के जीवन का सत्व कितना अधिक है, सब जानते हैं। अफसोस जानकर भी उस रास्ते पर चलने की समस्या आज के लेखक के जीवन की सबसे बड़ी समस्या है। यह समस्या जाहिर है कि साहित्यिक मुक्ति से जुड़ी समस्या है। यह भी सच है कि इस मुक्तिसंग्राम के लिए संतो ंके जीवन का सत्व चाहिए। संत मुक्ति की बात को ऊँची आवाज में कह सके तो यह उनके आत्मबल में खासतौर से जीवन के बल की असीम ऊर्जा है। संतों को संत कहा गया तो इसीलिए कहा गया कि उनका जीवन निर्मल था, उनकी चादर पारदर्शी और उजली-धुली थी। संत वह है जिसका जीवन बुराइयों वाली दुनिया में निर्मल जीवन हो। जो सभी प्रकार के मायाजन्य और अज्ञानजन्य दुर्गुणों से खुद को और दूसरों को बचाये। जो वर्ग और जाति की सोच से मुक्त हो। नानाक कहते हैं- जो नर दुख में दुख नहिं मानै। सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै। नहिं निंदा, नहिं अस्तुति जाके....। पर आज साहित्य की दुनिया में अतिशय भीरु, पुरस्कारलोलुप, पतित और हिंदी के हत्यारों की सरकार है, जैसे राजनति की दुनिया में धनबल और बाहुबल की सरकार है। दोनों क्षेत्र एक जैसे हालात में हैं। राजनति में तो फिर भी कहने के लिए ही सही एक विपक्ष होता है जो गाहे-बगाहे सरकार से जुड़े लोगों के बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों पर कुछ बोलता तो है। कुछ शोरगुल करता है। पर साहित्य में कोई प्रतिपक्ष है ही नहीं और अगर कहीं कोने-अँतरे में हो भी तो जिंदा नहीं है।
जबकि प्रतिपक्ष और प्रतिरोध की नौटंकी हरामजादे लेखक सबसे ज्यादा यहीं करते हैं। खुशी-खुशी चाही गयी साहित्यिक गुलामी के कंठ से मुक्ति के फर्जी गीत गाते हैं। क्रांतिकारी का भेष बनाकर गुलामी के गुप्तचर और साहित्य के हत्यारे बनकर गली-गली घूमते हैं। कबीर और दादू हों या कोई और संत कवि, सभी ऐसे ढोंगियों की पोल खोलते रहते हैं। कोई कहता है कि - मन न रंगाये , रंगाये जोगी कपड़ा। तो कोई कहता है-स्वाँग सती का पहरि करि, करै कुटुम्ब की सोच। ऐसे समय में जब साहित्य में सबकुछ खाक कर देने वाली आग न सिर्फ लगी हो बल्कि तेजी से फैलती ही जा रही हो तो आग बुझााने के सभी तरीके आजमाने की जरूरत है। बालू भी चाहिए तो पानी भी। सीधे-सादे लोग चाहिए तो दमकल पुलिस भी। साहित्य और साहित्य के जीवन को बचाने के लिए शीतलहर में कभी तप्त सूर्य चाहिए तो भयंकर रूप से तपती हुई रातों में शीतल चंद्रमा। शायद संत कविता में और संत कविता में ही क्यों, साहित्य के पूरे जीवन में एक ओर कबीर जैसे संत कवि तप्त सूर्य हैं तो दूसरी ओर दादू जैसे संत कवि शीतल चंद्रमा। आशय यह कि आज के साहित्यिक आकाश में ऐसे लेखकों की ही जरूरत है जो अपने समय का नन्हा ही सही सूर्य और चंद्रमा बन सकें। अपने समय के साहित्य का सच निर्भय होकर कह सकें। अपनी ऊष्मा और अपने आलोक से अँधेरे की जंजीर को काट सकें। साहित्यिक दासता से अपने समय के विपन्न और भयभीत लेखकों को मुक्त करा सकें। संत कवियों ने जैसे साधारण जन को माया की ठगी से बचाने की कोशिश की वैसे ही हमारे समय के अति विरल इक्का-दुक्का ‘संत साहित्यिक’ पुरस्कार जैसी माया से खुद को और दूसरे लेखकों को बचाने की कोशिश कर सकें। उन्हें खबरदार कर सकें। सड़क पर लगे बोर्ड की तरह- आगे खड्ड है! नही ंतो लेखक या साहित्यकार नाम की संस्था तांे मरेगी ही, हिंदी साहित्य भी मर जाएगा। इसीलिए कह रहा हूँ कि आज आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति की तरह साहित्यिक मुक्ति की आकांक्षा लेखक और साहित्य दोनों के जीवन और खासतौर से हिंदी के भविष्य के लिए सबसे जरूरी है। इसी साहित्यिक मुक्ति के संघर्ष की कोख से ही राजनीतिक और सामाजिक मुक्ति के संघर्ष को अँधेरे से निकाल कर अर्थपूर्ण और तीव्र बनाया सकता है।
( संपादकीय: यात्रा 5-6 )