रविवार, 23 फ़रवरी 2020

दूसरा संग्रह ‘जल में’ से कुछ कविताएं


-गणेश पाण्डेय

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ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
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कहां फेंका था तुमने
अपना वह माउथआर्गन
जिस पर फिदा थीं तुम्हारी सखियां
कहां गुम हुईं सखियां किस मेले-ठेले में
किसके संग

कैसे तहाकर रख दिया होगा तुमने
अपना प्यारा-प्यारा स्लेटी स्कर्ट
किस खूंटी पर फड़फड़ा रहा होगा
वह बेचारा लाल रिबन

सब छोड़-छाड़ कर 
कैसे प्रवेश किया होगा तुमने
पहलीबार
भारी-भरकम प्रभु की पोशाक के भीतर

यह क्या है तुममें
जो बज रहा है फिर भी मद्धिम-मद्धिम
कहां हैं तुम्हारी सखियां
कोई क्या करे अकेले
इस राग का

देखो तो आंखें वही हैं
जिनमें छिपा रह गया है फिर भी कुछ
जस के तस हैं काले तुम्हारे वही केश
होठों में गहरे उतर गया है नमक
कुछ भी तो नहीं छूटा है
वही हैं तुम्हारे प्रियातुर कान
किस मुंह से जाओगी प्रभु के पास

ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला
कैसे करोगी तुम ईश का ध्यान
जब बजने लगेगा कहीं
मद्धिम-मद्धिम
माउथआर्गन।

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एक चांद कम पड़ जाता है
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कई बार एक जीवन कम पड़ जाता है
एक प्यार कम पड़ जाता है कई बार 
कई बार हजार फूलों के गुलदस्ते में
चंपे का एक फूल कम पड़ जाता है
एक कोरस ठीक से गाने के लिए
एक हारमोनियम कम पड़ जाता है
कई बार।
सांसें लंबी हैं अगर
और हौसला थोड़ा ज्यादा
तो तबीअत से जीने के लिए
एक रण कम पड़ जाता है
जो है और जितना है उतने में ही 
एक दुश्मन कम पड़ जाता है।
दिल से हो जाय बड़ा प्यार अगर
तो कई बार
एक अफसाना कम पड़ जाता है
एक हीर कम पड़ जाती है
ठीक से बजाने के लिए
सितार का एक तार कम पड़ जाता है
एक राग कम पड़ जाता है।
कई बार
आकाश के इतने बड़े शामियाने में
एक चांद कम पड़ जाता है
दुनिया के इस मेले में देखो तो
एक दोस्त कहीं कम पड़ जाता है
एक छोटी-सी बात कहने के लिए
कई बार एक कागज कम पड़ जाता है
एक कविता कम पड़ जाती है।

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सफेद दाग वाली लड़की
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कोई  
आया नहीं 
देखने कि कैसी हो 
कहाँ हो मिट्ठू 
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का 
है उसे इन्तजार

कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-किस का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर

सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में

सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सारी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जागते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।

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वर्दी में
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कई थीं
ड्यूटी पर थीं
कुछ तो बिल्कुल नई थीं
अंट नहीं पा रही थीं वर्दी में
आधा बाहर थीं आधा भीतर थीं।
एक की खुली रह गयी थी खिड़की
दूसरी ने औटाया नहीं था दूध
झगड़कर चला गया था तीसरी का मरद
चौथी का बीमार था बच्चा कई दिनों से
पांचवीं जो कुछ ज्यादे ही नई थी
गपशप करते जवानों के बीच
चुप-चुप थी
छठीं को कहीं दिखने जाना था
सातवीं का नाराज था प्रेमी
रह-रह कर फाड़ देना चाहता था
उसकी वर्दी।

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कबाड़
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वे दो थे 
भाई जैसे थे छोटे-बड़े
लड़के थे जाने किस धातु के
लोहा थे पीतल थे कि सोना थे चाँदी थे
जो थे जैसे थे खुश थे उस कबाड़ में
जिधर देखते थे कबाड़ ही कबाड़ देखते थे
कबाड़ दुनिया देखते थे।

कंधे से उतारते थे अपना थैला मैला
खोलते थे मुँह और उठाते थे टिफिन बॉक्स
डिब्बी-डिब्बे, टुकड़े प्लास्टिक के
सब थैले में गड़प।

देखते थे छागल का कोई लंबा टुकड़ा
हँसते थे उस बाई की भूल पर
जिसने फेंका होगा।

उठाते थे किसी का लाल रिबन
और चल देते थे गले में बाँधकर
एक कबाड़ से दूसरे कबाड़ में।

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बाबू क्लीनर 
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बाबू क्लीनर 
इतने गंदे क्यों रहते हो
क्यों खाते हो हरदम पान
बात-बात पर हँसते क्यों हो
हो-हो।

हर गाने पर 
मूड़ी खूब हिलाते क्यों हो
लगता है तुम सचमुच 
इस गाड़ी के मालिक हो।

कुछ तो बोलो
बाबू क्लीनर 
खुश दिखने का भेद तो खोलो
हँसकर दर्द छुपाते क्यों हो।

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किसका है यह पेंसिलबॉक्स 
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जिस किसी का हो
आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स
जो मुझे अभी-अभी मिला है
पागल पहिये और पैरों केबीच।

जिस पर कुछ फूल बने हैं
कुछ तितलियाँ हैं उड़ती-सी
और कम उम्र उँगलियों की ताजा छाप है
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।

जिसके भीतर साबुत है आधी पेंसिल
और व्यग्र है उसकी नोंक
किसी मानचित्र के लिए
एक दूसरी पेंसिल है जो उससे छोटी है
बची हुई है उसमें अभी थोड़ी-सी जान
और किसी का नाम लिखने की इच्छा
मिटने से बचा हुआ है एक चौथाई रबर
काफी कुछ मिटा देने की उम्मीद में
किसी तानाशाह का चेहरा
किसी पैसे वाले की तोंद।

किसका है यह
किस दुलारे का किस अभागे का
किस रानी का किस कानी का
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।

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बोर्ड परीक्षा का पहला दिन
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मेरी सीट
ओ मेरी सीट
कहां है मेरी सीट
उचक-उचक कर ढ़ूढते हैं
इतने सारे बच्चे एक साथ
हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा के पहले दिन
नोटिस बोर्ड पर अपनी सीट का पता

मिलते हैं अन्दर घुसते ही कमरे में
एक तुनकमिजाज और कड़कआवाज
अजीब तरह के मास्टर जी
उसपर एक ढ़िलपुक मेज
और आगे-पीछे होती कुर्सी

और
उसके बाद मिलते हैं
परचे के जंगल में कुछ खरहे जैसे प्रश्न
कुछ होते हैं चीते की तरह आक्रामक
और कुछ हाथी जैसे भारी-भरकम


जिसके उत्तर में
निकालकर रख देना पड़ता है
एक पिता का कांपता हुआ कलेजा
और एक मां का आसभरा
और धड़कता हुआ दिल

देखो तो परचे के आगे-पीछे
पंक्तियों के बीच में लुका-छिपी करता है
एक मासूम सवाल-
कैसे करता है करतब
यह सब इतना कोई किशोर
पहली दफा


कोई बताए 
तो सौ में दो सौ पाए !

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अभी 
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बची हुई है अभी थोड़ी-सी शाम
बची हुई है अभी थोड़ी-सी भीड़
नित्य उठती-बैठती दुकानों पर

रह-रह कर सिहर उठती है
रह-रह कर डर जाती है
नई-नई लड़की
छोटी-सी 
श्यामवर्णी

जिसके पास बची हुई है अभी
थोड़ी-सी मूली
और
मूली के पत्तों से गाढ़ा है
जिसके दुपट्टे का रंग
जिससे ढाँप रखा है उसने
आधा चेहरा आधा कान

अनमोल है 
जिसकी छोटी-सी हँसी
संसार की सभी मूलियाँ
जिसके दाँतों से 
सफ़ेद हैं कम

और
पाव-डेढ़ पाव मूली 
एक रुपए में देकर
छुट्टी पाती है 
मण्डी से
ख़ुश होती है काफ़ी
एक रुपये से कहीं ज्यादा

मण्डी से लौटते हुए 
मुझे लगता है-
मूली से छोटी है 
अभी उसकी उम्र
और मूली से बीस है 
अभी उसकी ताज़गी

घर में घुसता हूँ तो  होता है-
अरे!
ये तो मूली में छिपकर
घुस आई है नटखट 
मेरे संग
अभी-अभी 
शामिल हो जाएगी
बच्चों में ।

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धर्मशाला बाजार के आटो लड़के   
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वे दूर से देखते थे और पहचान लेते थे
मद्धिम होता मेरा प्याजी रंग का कुर्ता
थाम लेते थे बढ़कर कंधे से
मेरा वही पुराना आसमानी रंग का झोला
जिसे तमाम गर्द-गुबार ने
खासा मटमैला कर दिया था

वे मेरे रोज के मुलाकाती थे
मैं चाचा था उन सबका
मेरे जैसे सब उनके चाचा थे

कुछ थे जो दादा जैसे थे
इस स्टैंड से उस स्टैंड तक
फैल और फूल रहे थे
छाते की कमानियों की तरह
कई हाथ थे उनके पास
रंगदारी के रंग कई
दो-दो रुपये में
जहां बिकती थी पुलिस

वे तो बस
उसी धर्मशाला बाजार के
आटो लड़के थे हंसते-मुस्कराते
आपस में लड़ते-झगड़ते
एक-एक सवारी के लिए
माथे से तड़-तड़ पसीना चुआते
पेट्रोल की तरह खून जलाते

वे मुझे देखते थे
और खुश हो जाते थे
वे मेरे जैसे किसी को भी देखते थे
खुश हो जाते थे
वे मुझे खींचते थे चाचा कहकर
और मैं उनकी मुश्किल से बची हुई
एक चौथाई सीट पर बैठ जाता था
अंड़सकर

वे पहले आटो चालू करते थे
फिर टेप-
किसी खोते में छिपी हुई
किसी अहि रे बालम चिरई के लिए

फुल्ले-फुल्ले गाल वाले लड़के का
दिल बजता था
उनका टेप बजता था
आटो में ठुंसे हुए लोगों में से
किसी की सांसत में फंसी हुई
गठरी बजती थी
किसी की टूटी कमानियों वाला
छाता बजता था
किसी के झोले में
टार्च का खत्म मसाला बजता था

और अंधेरे में
किसी बच्चे की किताब बजती थी
किसी छोटे-मोटे बाबू की जेब में
कुछ बेमतलब चाबियां बजती थीं
कुछ मामूली सिक्के बजते थे

किसी के जेहन में-
धर्मशाला बाजार की फलमंडी में
देखकर छोड़ दिया गया
अट्ठारह रुपये किलो का
दशहरी आम
और कोने में एक ठेले पर
दोने में सजा
आठ रुपये पाव का जामुन बजता था

और घर पर इन्तजार करते बच्चों की आंखें
बजती थीं सबसे ज्यादा।

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खेलो छोटे बहादुर
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आओ बहादुर
बैठो बहादुर
खाओ बहादुर
ये खुरमा
ये सेवड़ा
ये देखो रंग-वर्षा
खेलो छोटे बहादुर।

छोड़ो बहादुर
सम्भ्रांत पंक्ति का
पनाला
रहने दो आज जाम
बहने दो जहाँ-तहाँ
छोड़ो कुदाल
फेंको बाँस
लो खुली साँस।

आओ छोटे बहादुर
बताओ छोटे बहादुर
क्या कर रही होगी
इस वक्त पहाड़ पर माँ
माँ के मुख-रंग बताओ
छोटे बहादुर।

कितनी दूर है
तुम्हारा पर्वत-प्रदेश
मुझे ले चलो अपने घर
अकलुष आँख की राह
आओ छोटे बहादुर
अपने अगाये कंठ से
बोलो छोटे बहादुर
मद्धिम क्यों है आज
मुखाकृति।

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आप सौ साल जियें पापा
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छोड़ दीजिए पापा 
पान के बीड़े चबाना
और तरह-तरह के जर्दे की 
गमकने वाली खुशबू।

तम्बाकू-चूना मलना, ठोंकना
और होंठ के भीतर दाबकर
चुनचुनाहट के मजे लेना
बंद की जिए पापा बंद।

मुझे नहीं पसंद है पापा
मम्मी को नहीं पसंद है पापा।

ये लीजिए पापा सौंफ
इलायची लीजिए पापा
आप सौ साल जियें पापा।

सफेद फ्रॉकों वाली गुडिया जैसी
दस बरस की बिटिया
करती है प्रार्थना।

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मुश्किल काम
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यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे
जो मेरे साथ तो थे पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-‘पीना और शैतान के संग’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।

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सलाम वालैकुम 
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सब साहिबान को सलाम
जो मुझे छोड़ने आए थे सिवान तक
उन भाइयों को सलाम जो अड्डे तक आए थे
मेरी छोटी-छोटी चीज़ों को लेकर ।
उन चच्चा को ख़ासतौर से सलाम
जिन्होंने मेरा टिकट कटाया था
और कुछ छुट्टे दिए थे वक़्त पर काम आने के लिए।
बचपन के उन साथियों को सलाम
जिन्होंने हाथ हिलाया था
और जिन्होंने हाथ नहीं हिलाया था ।
अम्मी को सलाम
जिन्होंने ऐन वक़्त पर गर्म लोटे से
मेरा पाजामा इस्त्री किया था और जल गई थी
जिनकी कोई उँगली ।
आपा को सलाम
जिनके पुए मीठे थे ख़ूब और काफ़ी थे
उस कहकशाँ तक पहुँचे मेरा सलाम
जो मुझे कुछ दे न सकी थी
खिड़की की दरार से सलाम के सिवा ।
उस याद को सलाम
जिसने ज़िन्दा किया मुझे कई बार
उस वतन को सलाम
जो मुझे छोड़कर भी मुझसे छूट नहीं पाया ।
रास्ते की तमाम जगहों और उन लोंगो को सलाम
जिन्होंने बैठने के लिए जगह दी
और जिन्होंने दुश्वारियाँ खड़ी कीं
उस वक़्त को सलाम
जिसने मुझे मार-मार कर सिखाया यहाँ
किसी आदमी को रिश्तों से नहीं
उसकी फितरत से जानो ।
ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम
जो किसी काम के वास्ते तूने चुना
किसी गरीब को ।

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एक भिण्डी 
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यह जो छूट गई थी
थैले में अपने समूह से
अभी-अभी अच्छी भली थी
अभी-अभी रूठ गई थी
एक भिण्डी ही तो थी ।
और एक भिण्डी की आबरू भी क्या
मुँह फेरते ही मर गई ।

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एकता का पुष्ट वैचारिक आधार                      
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एक वीर ने उन्हें तब घूरा
जब वे सच की तरह कुछ बोल रहे थे ।
एक वीर ने उन्हें तब टोका
जब वे किसी की चमचम खाए जा रहे थे ।
एक वीर ने उन्हें तब फटकारा
जब वे किसी मोढ़े की परिक्रमा कर रहे थे ।
असल में
एक वीर ने दम कर रखा था
उनकी उस अक्षुण्ण नाक में
जिसे तख़्ते-ताउस की हर गंध
एक जैसी प्यारी थी ।
एक दिन वे एकजुट हुए
क्योंकि एकता का पुष्ट वैचारिक आधार 
उनके सामने था ।
पाठ्यक्रम समिति की उस बैठक में
लिया उन्होंने निर्णय
कि ‘सच्ची वीरता’ को
जीवन से निकाल दिया जाय ।                  

नोट : ’सच्ची वीरता’ अध्यापक पूर्ण सिंह का प्रसिद्ध निबंध है।

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कम कविता के दिन थे
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कुछ करने के दिन न थे
कविता के लिए मरने के दिन न थे
जो मरे मारे गये, कोई न पूछ थी कहीं।
रोशनी का काम उनके जिम्मे न था
जिनके पास कुछ ढँका-छिपा न था।
गजब का मंजर था सामने
टुटही हरमुनिया थी
वक्त-बेवक्त राग जैजैवन्ती गवैया थे
वही झाँझ-करताल वही बजवैया थे
बड़े-बड़े घुटरुन चलवैया थे
कुछ थे जो 
बाहरी जहाजों पर कूद-कूद चढ़वैया थे
कई तो अपने ऊपर ग्रंथ छपवैया थे।
रटन्त विद्या के दिन थे
एक कविता दौर के अन्तिम दिन थे
दृश्य उन्हीं का था 
जिनके जीवन में कोई संग्राम न था
जीवन छोटा था
कम कविता के दिन थे
फिर भी कुछ पागल थे बचे हुए
जिनके हौसले थे कि कम न थे।

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दूसरा संग्रह ‘जल में‘ 
नमन प्रकाशन नई दिल्ली/ प्रथम संस्करण-1999
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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

लोकतांत्रिक गालियां तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय
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लोकतांत्रिक गालियां
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कुछ लोग
ऐसा क्यों चाहते हैं
कि मैं सिर्फ भाजपा को गालियां दूं
मैं क्यों सिर्फ भाजपा को गालियां दूं

और बाकी पार्टियों के गले में
बड़े वाले गेंदे का बड़ा-सा हार पहनाऊं
क्यों भाई क्यों बाकी पार्टियां कैसे
अच्छी हैं दूध से धुली हैं

मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता
मुझे जहां-जहां छेद दिखेगा
टांग अड़ाऊंगा फटकारूंगा
बेहतरी की बात करूंगा

हां भाजपा में मुंहफटे हैं
तो तुम्हारी पसंद की पार्टियों में
क्या-क्या फटे नहीं हैं

मैं भी चाहता हूं
कि ऐसा लोकतंत्र हो
जहां योग्यता और प्रतिभा का
सम्मान हो ईमान की पूजा हो

कोई दूजा तो हो
जिससे बड़ी उम्मीद तो हो
जब तक ऐसा नहीं होता
मैं सबको गालियां दूंगा

हालांकि गालियों के मामले में
भाजपा को बहुत बड़ा नुकसान होगा
उसके हिस्से में एक गाली जाएगी
तो विपक्ष के हिस्से में 
इसको उसको-उसको मिलाकर
कुल दस जाएंगी

मेरा भी क्या कम घाटा है
कि आखिर एक तरफ गाली वाली 
एक गोली चलाऊं
और दूसरी तरफ गाली की 
दस गोलियां चलाऊं
लोकतंत्र भी बेचारा तन्हा
खड़ा-खड़ा क्या सोचता होगा
इस बर्बादी पर।

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बुरे लोग सत्ता में इसलिए आते हैं
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बुरे लोग
सत्ता में इसलिए नहीं आते हैं
कि वे बुरे हैं

बुरे लोग
सत्ता में इसलिए आ जाते हैं
कि अच्छे लोगों में बुराई आ जाती है।

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अच्छाई का मुरझा जाना
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बुराई 
कई तरह की होती है

कुछ पाने की उम्मीद में
बोलने की जगह चुप रहना बुराई है

अच्छाई को जहां खिलने की जरूरत हो
सहसा उसका मुरझा जाना बुराई है

जोखिम उठाने के साहस का 
कम होते जाना आज बड़ी बुराई है

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जब लोकतंत्र कमजोर हो जाता है
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जब राजनेता
कमजोर होने लगते हैं
तो उनकी जगह दूसरे लोग आ जाते हैं
गुंडे आ जाते हैं कातिल आ जाते हैं
धर्माचार्य आ जाते हैं सौदागर आ जाते हैं

जब लोकतंत्र
कमजोर हो जाता है
तो अखबारों और चैनलों पर
डरपोक लालची बेवकूफ
पत्रकार आ जाते हैं
गली के गुंडे भी पत्रकार बन जाते हैं

और फिर पत्रकार लोग भी लोकतंत्र को 
नोचने-खसोटने के काम में लग जाते हैं।

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लेखक नाम का प्राणी
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ये लेखक नाम का प्राणी भी
साला कितना बड़ा बेईमान है

खुद लाख मौकों का 
फायदा उठाए तो सब ठीक है

दूसरा वैसा कुछ एक बार कर ले
तो बेईमान है फासिस्ट है

अरे भाई पहले साहित्य का
एक घोषणा-पत्र तो जारी कर लो

कब कहां किसका पत्तल चाटना है
किस मंच पर जाना है इनाम लेना है

किसे राजनेता को कब तक गाली देना है
किस राजनेता का कब पैर पकड़ लेना है।

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कबीर का कुत्ता
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बहुत कम पढ़ना हुआ 
सिर्फ कबीर को थोड़ा-बहुत पढ़ा 
ढाई आखर से कभी आगे नहीं बढ़ पाया

इसीलिए अपने समय में कभी सिर्फ
दाएं बाजू की गंदगी को नहीं देखा
कभी एकतरफा जुलूस नहीं निकाला

ठोंक-पीट कर किसी तरह
बाएं बाजू की टूटी-फूटी हड्डियों पर भी
थोड़ा-बहुत कच्चा प्लास्टर लगाया

इससे ज्यादा भला 
कबीर का कोई कुत्ता क्या कर पाता 
अलबत्ता कबीर होते तो चैले से दागते।

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रामराज्य
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रामराज्य
न हिंदू राज्य हो सकता है
न मुसलमान राज्य हो सकता है

रामराज्य
न मौलवियों का राज्य हो सकता है
न धर्माचार्यों का राज्य हो सकता है

रामराज्य
न आज किसी राजा का राज्य हो सकता है
न किसी राजघराने का राज्य हो सकता है

रामराज्य
सभी नागरिकों का
सभी नागरिकों के लिए
एक आदर्श राज्य हो सकता है

रामराज्य 
सिर्फ महाजनों के लिए नहीं
देश के सभी नागरिकों के लिए
स्वास्थ्य और मंगल का राज्य हो सकता है
समता और बंधुत्व का राज्य हो सकता है

रामराज्य पर
न कांग्रेस का पेटेंट हो सकता है
न भाजपा न सपा न बसपा न आप
न माकपा न भाकपा न अन्य पार्टियों का
सिर्फ भारत की जनता का पेटेंट हो सकता है

जनता का रामराज्य 
गांधी का रामराज्य हो सकता है
और गांधी का रामराज्य ही सच्चा 
अच्छा और टिकाऊ रामराज्य हो सकता है।

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उन्नत लोकतंत्र का स्वप्न
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कितना अच्छा होता
सारे जहां से अच्छे भारत में
शहर-शहर कस्बा-कस्बा गांव-गांव
नागरिकता अस्पताल होता

सारे बच्चे 
और सभी प्राणियों के बच्चे
वहीं पैदा होते और तुरत
जन्म प्रमाण-पत्र की जगह
सीधे नागरिकता प्रमाण-पत्र लेकर
घर चाहे जंगल में जाते

कहीं और कोई जांच-पड़ताल नहीं
पुरखों के कागज की झंझट नहीं
हर पैदाइश आनलाइन होती
सब कुछ बहुत सरल होता

ऐसी मशीनें पैदा कर ली गयी होतीं
कि खून की एक बूंद से कुल-गोत्र
हिंदू-मुसलमान की पहचान होती

धर्म इतना उन्नत हो गया होता
कि मनुष्येतर प्राणियों में भी
हिंसक विभाजन हो गया होता
हिंदू की मुंडेर पर हिंदू चिड़िया बैठती
और मुसलमान की छत पर 
मुसलमान चिड़िया

मुसलमान बच्चे
मुसलमान गाय का दूध पीते
हिंदू बच्चे हिंदू गाय का

क्या पता तब तक हमारा लोकतंत्र 
पृथ्वी का सबसे उन्नत लोकतंत्र बन जाता
भारतीय सभ्यता सूर्य और चंद्रमा पर
घर बना चुकी होती
और भारत में मनुष्येतर प्राणियों को भी
मताधिकार मिल चुका होता।



गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

महाराज तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

----------
महाराज
----------
जैसे
पड़ोसी मुल्क में
हिंदू बेटियों के लिए
आपके हृदय में दर्द का समुद्र है
महाराज

होना भी चाहिए
आखिर विश्वभर के हिंदुओं के
आप ही संरक्षक हैं
महाराज

आप महाबली हैं
आपने पड़ोसी मुल्क को
कई बार धूल चटाया है
थर-थर कांपते हैं आपसे
आततायी

ये कौन घुस आए
छः फरवरी की रात
गार्गी कालेज में
बेटियों के उत्सव में
कैसे बेखौफ लोग थे
बेटियों की लाज
तार-तार कर रहे थे
उन्हें न पुलिस का डर था
न आपकी सरकार का
न फौज-फक्कड़ का

ये आदमी नहीं थे
इन्हें अपनी बहनों
और मांओं का भी
डर नहीं था
घट-घट में कंठ-कंठ में
विराजते जय श्रीराम का
डर नहीं था

आपकी राजधानी में
आपके प्रासाद से कुछ दूरी पर
बस आपकी नाक के नीचे
कालेज की बेटियों के लिए
दर्द का समुद्र नहीं न सही
नदी सही नाला सही तालाब सही
एक बूंद सही, फौरन दिखे तो
महाराज

आप पर भरोसा है महाराज
बस आपके चाहने की बात है
उन बेटियों को अपनी बेटी
देश की बेटी समझने की बात है
आप स्वयं ज्ञानी हैं महावीर हैं
भला आपको कोई क्या खाकर
समझा सकता है
महाराज।

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ईंट और पत्थर का सिलसिला
----------------------------------
जो लोग
विपक्ष में रहते समय
ईंट खाते हैं

वही लोग
सत्ता में आने के बाद
पत्थर खिलाते हैं

लोकतंत्र में
यह किस्सा भरथरी से
चल रहा है

वाह रे
हिन्दी के विद्वान
समझकर भी समझ नहीं रहे

बड़ी-बड़ी बातें बाद में
पहले ईंट और पत्थर का
सिलसिला बंद कराओ।

---------------------
राजनीति में भाषा
---------------------
प्रधानमंत्री के उम्मीदवार की भाषा
नेहरू लोहिया वाजपेयी जैसी न हो
तो भी कोई बात नहीं

कम से कम और उससे भी कम
अपनी ही पार्टी के दूसरे वक्ताओं से तो
अच्छी होनी ही चाहिए क्यों भाई

अब यह मत कह देना कि वक्त बुरा है
भावी प्रधानमंत्री की भाषा और उतावलापन
छात्रनेताओं जैसा है तो भी चलेगा

बिल्कुल नहीं चलेगा चुनाव सभाओं में
गंभीरतापूर्वक भाषण देने में दिक्कत है
तो लिखित भाषण तो पढ़ सकते हैं

हद है भाई
आप खुद कुछ सीखने के लिए
चींटी की मुंडी के बराबर तैयार नहीं हैं

चाहते हैं कि देश आपको कहे मुताबिक
हाथी की मुंडी के बराबर समझने के लिए
तैयार हो जाए।

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आत्मविश्वास
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लेखक हो या राजनेता
उसे आत्मविश्वास अर्जित करना पड़ता है
जिन्हें पार्टी पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार वगैरह
किसी की गोद में बैठने से मिल जाता है
वे जरा-सा ऊबड़खाबड़ आते ही
लुढ़क जाते हैं
धूल-मिट्टी में लोटकर बड़े हुए बच्चों से
न पंजा मिला पाते हैं न आंख।

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भारत मां को नोचने-खसोटने वाले
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देश बर्दाश्त कर लेगा
हिन्दू-मुसलमान की राजनीति
दस साल बीस साल पचास साल

लेकिन आखिर कब तक
स्त्रियों की लाज न बचाने वाले
राजा को बर्दाश्त करेगा

देश कैसे बर्दाश्त कर सकता है
कि राजा बलात्कारी को बचाए
और हत्यारे को मदद पहुंचाए

न्याय से वंचित निराश-हताश
लड़कियों को आत्महत्या के लिए
अपने कारनामों से उकसाए

समझ रहे हो
भारत मां को नोचने-खसोटने वाले
सत्ता के मद में चूर राजाओ

पीछे-पीछे जयकार करने वाले गुंडों को
लड़कियों को अपमानित करने की
छूट देने का अंजाम जानते हो

राजाओ भूल गये हो जहां
स्त्रियों की पूजा की जगह
गुंडाराज होता है वहां क्या होता है

वहां के राजा का क्या होता है
वहां के राजवंश का क्या होता है
उसके लाव-लश्कर का क्या होता है

जनता सब याद रखती है
और वक्त आने पर बहुत कुछ करती है
तुम्हारे साथ भी जनता वही करेगी

वही जो तुमसे पहले के सभी अहंकारी
राजाओं के साथ करती आयी है
घसीटकर उतारेगी सिंहासन से।






बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

फासिस्ट कवि

- गणेश पाण्डेय

मैं हिंदू हूं
मेरा तो नाम ही गणेश है
इससे अच्छा नाम भला
उस दिन और क्या हो सकता था
जिस दिन मेरा जन्म हुआ
मां गणेश चतुर्थी का व्रत थीं

मैं भारत में पैदा हुआ हूं
बुद्ध के इलाके का हूं
बुद्ध के घर का हूं
कैसे कह दूं कि मेरे पुरखे
प्राचीन कपिलवस्तु की सीमा में नहीं
जर्मनी में रहते थे
कैसे कह दूं
कि बुद्ध को नहीं मानता हूं
कि बचपन से मुझ पर
बुद्ध का प्रभाव नहीं है

मेरे गुरु
सच्चिदानंद अनीश्वरवादी हैं
सिद्धार्थनगर में रहते हैं
उनके पुरखे भी यहीं रहते थे
बचपन में मां ने
सिंहेश्वरी देवी के चरणों में
अनगिनबार मेरा शीश नवाया
फिर मैं आप से आप करने लगा
किशोर जीवन में कविता ने
मुझे गुरु सच्चिदानंद से मिलाया
धीरे-धीरे गुरु ने मां के संस्कारों को
पूरा का पूरा तो नहीं पर
किसी हद तक धोने-पोंछने का काम किया
प्रगतिशील हिंदी और उर्दू कविता से मिलाया
मुझे कुछ का कुछ बना दिया

विश्वविद्यालय में आना
मेरे जीवन की बड़ी घटना थी
गुलमोहर और अमलतास के फूलों ने
मुझे एक नये रंग में रंग दिया था
यहां मुझे
हिंदी की एक बड़ी दुनिया मिली
देवेंद्र कुमार बंगाली मिले
और मैं कविता बदलकर
कुछ का कुछ हो गया

चालीस साल से
गोरख और कबीर की छाया में
रह रहा हूं मेरी कर्मभूमि है गोरखपुर
कैसे कह दूं कि मुझे प्रेमचंद
और फिराक पसंद नहीं हैं
वह फिराक जो कहता है कि कविता
तरकारी खरीदने की भाषा में लिखो

मैं प्रगतिशील हूं
लेकिन हिंदी के भ्रष्ट मार्क्सवादियों को
बिल्कुल पसंद नहीं करता
मुक्तिबोध को पसंद करता हूं
मुक्तिबोध के ईमान को पसंद करता हूं

मैं न केवल पुरस्कारविरोधी हूं
बल्कि पुरस्कारों का धंधा करने वाले
लेखक संगठनों और अकादमियों का
विरोधी हूं
मंच माइक माला विरोधी हूं

मैं हिंदी का सफाई वाला हूं
वक्त ने मुझे क्या से क्या बना दिया
कहने के लिए हिंदी का पांडे हूं
और हिंदी के भ्रष्ट लेखकों का
रोज मैला ढोता हूं
रोज गालियां देता हूं

चूंकि मैं भी
कबीर की तरह
मार्क्सवादी कवि नहीं हूं
किसी लेखक संगठन में नहीं हूं
आधा सच और आधा झूठ नहीं बोलता हूं
कबीर की तरह निरंकुश हूं
सबको ठोंकता रहता हूं क्या इसीलिए
आज की तारीख में हिंदी का फासिस्ट कवि हूं।





सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

कबीर जेएनयू से पीएचडी थे क्या

-  गणेश पाण्डेय

तुम लोग
खुद कुछ करो
अपनी सरकार बनाओ
अपने जनप्रतिनिधि चुनो
लेकिन पहले अपढ़ और कमपढ़
जनता का विश्वास तो जीतो

जनता के पास
जाने से पहले अपने मुंह धो लो
सरकारी चाहे सेठों की संस्थाओं से
भीख में मिली सोने की चेन
गले से निकालकर चोरजेब में रख लो

और सुनो
छात्रों को पढ़ने दो
मां-बाप की उम्मीदों को पूरा करने दो
उन्हें अभी समाज-सुधारक मत बनाओ
समाज सुधार के लिए कबीर से ज्यादा
और दिल्ली में पढ़ने की क्या जरूरत है
कहीं भी पढ़ लो
दिल्ली और गोरखपुर में
कबीर को पढ़ने-पढ़ाने में क्या फर्क है
कबीर जेएनयू से पीएचडी थे क्या
जनता पूछे इससे पहले जवाब ढूंढ लो

चैनलों की राजधानी से निकलकर
मगहर में कबीर की समाधि पर प्रदर्शन करो
अपने भीतर के कबीर को जगाओ

कबीर की वाणी में उनका
ईमान देखो काशी को तजना देखो
सबको ललकारना देखो
दोनों को डांटना-फटकारना देखो

लेकिन तुम्हें पहले
दिल्ली की सड़कों पर
अपनी-अपनी पार्टी को
खुद मजबूत बनने की जगह
किसी संभावनाच्युत पार्टी के
पीछे-पीछे चलते हुए
जीभर के देखने से फुरसत तो मिले
आत्मा जुड़ा जाए तो निकलना
गांव की ओर

जहाज हेलीकाप्टर एसयूवी से नहीं
जनता का दिल जीतने के लिए
ईमान के पैरों पर चलने में
सौ से भी ज्यादा साल लगेंगे
गांधी से ज्यादा पदयात्राएं करनी होंगी
यह सब सिर्फ गाना गाकर नहीं
जीकर किया जा सकता है
जी सकोगे जैसा मुक्तिबोध चाहते थे

यह सब खुद नहीं कर सकते तो जाओ
लोकतंत्र के चोर-उचक्कों लुटेरों
और हत्यारों के घर के बाहर
औरतों और बच्चों को बैठाने की जगह
खुद धरना दो
कि राजनीति की छोटी-छोटी दुकान बंदकर
कुछ नया करें कोई लोहिया लाएं
कोई जेपी पैदा करें

और
ऐसा नहीं कर सकते तो
कोई बात नहीं थोड़ा बर्दाश्त करो
कोई दंगा-फसाद मत करो
विश्वविद्यालयों को
और उनके विद्यार्थियों का जीवन
बर्बाद मत करो मत करो मत करो

शायद जनता
कभी आप से आप कुछ कर ले
इसी इक्कीसवीं सदी के शुरू में
गोरखपुर में हुए मेयर के चुनाव की तरह
ऊबकर किन्नर आशादेवी को चुन ले।



शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

लोकतंत्र मूर्च्छित हो गया तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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लड़ाई
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ओह
यह लड़ाई
जो बिल्कुल सामने हो रही है
सच और झूठ के बीच नहीं है

जैसा
दुनियाभर की तमाम
भाषाओं के महान साहित्य में
दिखाया जाता रहा है

आज
यह लड़ाई
सिर्फ झूठ और झूठ के बीच
सचमुच की खूनी जंग है

तय है
सब हारेंगे हारेगा यह देश
हारेगा मनुष्य और विचार
कोई नहीं जीतेगा।

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गुब्बारे में गैस
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दो
विशेष समुदायों की
यह राजनीतिक लड़ाई

किसी
सिद्धांत की नहीं वर्चस्व
और उसके खौफ की लड़ाई है

इसे किसी एक से
न दबने की जरूरी लड़ाई
कह सकते हैं

लोकतंत्र का मतलब ही है
कोई किसी को दबाए नहीं
सबकी प्रतिष्ठा एक जैसी हो

फिर
इसे सही ढंग से लड़ने की जगह
खूनी लड़ाई बनाने में फायदा किसका है
हिंदुओं का कि मुसलमानों का
कि उनके नेताओं का

यह लड़ाई
दरअसल राजनीति के आकाश में
ऊपर और ऊपर जाने के लिए
हिंदू और मुसलमान गुब्बारों में
बयान बहादुर नेताओं के पम्प से
भरी गयी गैस है।

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कानून का खेल
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कभी
मुसलमानों के लिए
बड़ी अदालत के फैसले के खिलाफ
नया कानून बना दिया जाता है

तो कभी
हिंदू वोटबैंक बढ़ाने के लिए
नया कानून बना दिया जाता है

कुल मिलाकर
लोकतंत्र सिर्फ कानून बनाने घर है
दोस्ती मोहब्बत और अमन का नहीं।

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डरा हुआ आदमी
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हम
बिना तिलक लगाए
हिंदुओं का दिल
क्यों नहीं जीत सकते
और अगर लगाकर ही जीतना हो
तो अकबर क्यों नहीं बन सकते

जब हमें
काम कुछ और करना है
और करते कुछ और हैं
तो जालीदार टोपी पहनकर
हिंदूनेता होकर
इफ्तार पार्टी क्यों करते हैं

क्यों
हम हिंदू और मुसलमान के लिए
अलग-अलग बाड़ा बनाकर रखते हैं
उन्हें डराते रहते हैं
आखिर डरा हुआ आदमी
कितना हिंसक हो सकता है
किसे मालूम नहीं।

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लोकतंत्र मूर्च्छित हो गया
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ओह
लोकतंत्र और क्या करता
तुरत मूर्च्छित हो गया

जैसे ही किसी मंत्री ने
अपने विरोधियों को खुलेआम
गाली दी

जैसे ही किसी मंत्री ने
किसी एक धर्म का परचम लहराया
और दूसरे को लज्जित किया

जैसे ही किसी मंत्री ने
जनसभा में अपने विरोधियों को
सीधे गोली मारने की बात की।