शनिवार, 12 नवंबर 2011

सबद एक पूछिबा

-गणेश पाण्डेय

सबद एक पूछिबा
बाबा
दया करि कहिबा
मनि न करिबा
रोस

बाबा
हे अच्छे बाबा
इस कलिकाल में
क्या अच्छा है
क्या बुरा
आज की तिथि में
इस शहर का बाशिंदा होना
अच्छा है कि बुरा
हिन्दू का हिन्दू होना
और मुसलमान का मुसलमान
अच्छा है कि बुरा
अपने - अपने ढंग से इबादत करते हुए
ईश्वर के बंदों को प्यार करना
अच्छा है कि बुरा
खेलने - कूदने
और राजा बेटा बनने की उम्र के लड़कों का
बात - बात पर म्यान से
तलवार निकाल लेना
अच्छा है कि बुरा
पुलिस के सामने
उसकी गाड़ी से ज़बरदस्ती खींचकर
एक हिन्दू लड़के को पीट-पीट कर
मार डालना
अच्छा है कि बुरा
और बदले में
एक मुसलमान लड़के को
कहीं से पकड़कर धायं-धायं दाग देना
अच्छा है कि बुरा
आखि़र
लड़के तो लड़के हैं बाबा
जैसे आपके बच्चे वैसे सबके बच्चे
ऐसे हालात पैदा करना
अच्छा है कि बुरा

बाबा
हे दूरंदेशी बाबा
आपने शेर देखा है
जिं़दा देखा है
कि भूसा भरा हुआ
मुझे तो जब भी मौक़ा मिला
मेरी बदकिस्मती देखिए -
भूसावाला देखा
इस बार तो
एक और अचंभा देखा
पुलिस की वर्दी में भूसावाला
शेर देखा
छब्बीस जनवरी
दो हजार सात की रात थी
औैर था रात का पहला पहर
सरकारी इमारतों पर
अँधेरे में हिल-डुल रहा था
झंडा
डी ए वी  कालेज के गेट के पास
हर देखी हुई चीज़ पर शक करने वाली
और मौके़ पर
चौकसी के नाम पर खड़े-खड़े सोने वाली
पुलिस की आँखों के सामने
और उसके हाथों की ज़द में
सुबह अख़बार बांटकर
और शाम को
ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करने वाले
नौजवान राजकुमार को
पुलिस के भरे हुए
नये-नये आग्नेयास्त्रों की मौजूदगी में
माइक-स्पीकर हूटर-नीलीबत्ती लगी
और उस पर पुलिस लिखी हुई
जीप से खींचकर                                                         
पीट - पीट कर
पटक - पटक कर
और सीने में तलवार भोंक कर
मोहर्रम के जुलूस में शामिल नौजवानों ने
मार डाला
पुलिस
जैसे काठ की पुलिस थी
जैसे पत्थर की पुलिस
लोहे के हाथी जैसी पुलिस की जीप
वायरलेस सेट और भारी-भरकम बन्दूकें
सब जैसे
गोरखनाथ मंदिर के खिचड़ी मेले में
खिलौने की दुकानों के सजावटी सामान
यह तो बाद में अख़बार वालों ने बताया
न काठ की पुलिस थी न पत्थर की
और न सर्कस की पुलिस
बल्कि
सूबे के सरगना की कोई मुलायम पुलिस थी
जो गुलाब जामुन से भी अधिक मुलायम थी
ख़ास
मोहर्रम के जुलूस में शामिल नौजवानों के लिए
तबादला, लाइनहाज़िरी और मुअत्तली के डर से
ऐसे मौक़े पर
थर-थर कांपते जिसके हाथ
झूठ-मूठ का
एक हवाई फायर तक नहीं कर सकते थे
हे तत्त्वदर्शी बाबा
यह पुलिस थी तो मज़ाक़ क्या था
जो भी था अच्छा था कि बुरा
जिस वक़्त मारा गया
जनता का राजकुमार
मौके़ पर
न कोई अपने पर फ़िदा लेखक पहुँचा
न घरों, दफ़्तरों और सभागारों में
दुबक कर बैठा रहने वाला
कोई बुद्धिजीवी
न दिल्ली से कोई वायुयानी मार्क्सवादी पहुँचा
न मुंबई से उड़नखटोले में बैठकर
उड़नेवाला समाजवादी
आखि़र पहुँचा कौन
छोटी-सी बात हो चाहे बड़ी घटना
ऐसे हर मौके़ पर
रात-बिरात
घंटी बजते ही उठकर
चाहे नींद में पहुँचने के लिए
बदनाम आपका बच्चा - छोटा बाबा
आज की तारीख़ में
ऐसे किसी भी नाजु़क मौके़ पर
इस छोटे-से बाबा का
आसपास कहीं भी
अपने हिस्से की जनता के बीच पहुंचना
आंधी का पहुँचना है
और कुशासन के खि़लाफ
आग की लपटों का बेकाबू हो जाना
यह तो बाद में
अख़बारवालों ने बताया
कि जिस वक़्त यह सारा कांड हो रहा था
ज़िले का नौजवान आला अफ़सर
किसी भारतप्रसिद्ध चंपी मास्टर से
अपने बंगले में चंपी करा रहा था
न तो उसके पास
जनता के किसी लेखक के लिए वक़्त था
और न जनता के बीच
जनता का लाडला बनकर जाने की चाहत
पुलिस के आला अफसर की दशा
इतनी बदतर थी
कि जनता की घड़कन नापने का
उसका हर आला टूटा-फूटा था
और पुलिस का हर आला अफ़सर
सूबे के राजा का
एक अदना कांस्टेबिल बनकर
लट्टू की तरह नाच रहा था
किया वह जो नहीं करना था
वह नहीं किया जो करना था
आला अफ़सरों को
करना था राजकुमार के हत्यारों को
फ़ौरन गिरिफ़्तार
कहाँ लगा दिया आनन-फानन में
कई थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू
और अगले दिन
कर लिया उसे गिरिफ़्तार
जो न चोर था न डाकू न क़ातिल
बस कुसूर यह था कि ऊँची आवाज़ में
हत्यारों की गिरिफ्तारी की मांग कर रहा था
और कर्फ्यू मुक्त गोलघर में
श्रद्धांजलि सभा में शामिल होने जा रहा था

राजनीति के पण्डित
और तिजारती सदमे में थे बाबा
वे चाहकर भी और देखकर भी
कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि आखि़र
यह हो क्या रहा है
एक छोटे - से बाबा पर
फ़िदा कैसे हो रहा है
इस अंचल का
और उसके पक्ष का बच्चा - बच्चा
क्या वयस्क और क्या बुजुर्ग
क्या औरत और क्या मर्द
जो जानते थे उन्हें पता था
कैसे दौड़ता रहा एक छोटा-सा बाबा
आँधी-पानी और अंगारों के बीच
दिन रात
क़सबा - क़सबा,  गाँव - गाँव
एक - एक घर
जिसे और जहाँ ज़रूरत थी उसकी
पहुँचा उसके पास तुरत
और जब अफ़सरों ने उसे
ले जाना चाहा गिरिफ़्तार करके
जेल
तो धर्मशाला बाज़ार से ज़िला जेल तक
पुलिस से ज़्यादा और पुलिस पर भारी थी
उसके चाहने वालों की भीड़
क्या बच्चे क्या बड़े
सबके हाथ में पत्थर
गु़स्सा और चीख़
पुलिस की लारी घिर चुकी थी ऐसे
जैसे उसकी जनता के अथाह जल में
कोई खिलौना
                                                   
कोई लारी के पहिए की हवा निकाल रहा था
कोई लारी के आगे लेटकर सीना फुला रहा था
कोई ऐसे ही कहीं मुक्का मार रहा था
कोई रास्ते में जाम लगा रहा था
सबकी आँखों में उतर आया था ख़ून और आँसू
रह-रह कर उठती थी पुकार -
जोगी  मत जा  मत जा  मत जा
इस नौजवान जोगी के पास
अपनी जनता का दिल था
और पुलिस के पास थीं लाठियाँ
आँसू गैस के गोले
और बन्दूकें
पुलिस तो पुलिस थी
हार कर भी जीतने का कानून था
उसके पास
सो कर दिया एक छोटे से बाबा को
दो मिनट में जेल के अन्दर

बाबा
हे सबसे बड़े बाबा
यह छोटा बाबा
आपका बच्चा है कि जनता का
जोगी है कि कोई नन्हा जादूगर
इस वक़्त
यह कितना नाथपंथी है कितना ठाकुर
कितना अपनी जनता का है कितना आपका
यह आपका क्या है और क्या नहीं
आप जानें
मैं तो बस इतना जानूं
आज की तारीख़ में
आपका यह जो भी है अच्छा या बुरा
अपनी जनता का लाडला है
अपनी जनता की उम्मीद है
जनता के आँसू
और जनता की आग

पूर्वांचल में
आग ही आग
रेल के डिब्बों और रोडवेज की बसों से
उठती ऊँची-ऊँची बेक़ाबू लपटें
दुकानों और गुमटियों में आग लगाकर
हू-हू करते दौड़ते - भागते लड़के
गोरखपुर, बस्ती, सिद्धार्थनगर, देवरिया
महराजगंज, पडरौना - कुशीनगर हो
चाहे बहराइच, बनारस और कानपुर
हर जगह विरोध की आग
रेलसेवाएँ ठप और बसें बेबस
जगह-जगह हिंसक झड़पें
और कई जगह कर्फ्यू

बाबा
हे स्वतंत्र बाबा
कर्फ्यू देखा है आपने
कर्फ्यू के बारे में सुना है कभी कुछ
कि आखि़र
यह कैसी घरबन्दी है
मरता है कोई बदनसीब
तो अस्पताल का मुँह देखे बिना
मर जाए
छूटता है कहीं किसी का कोई
बेहद ज़रूरी काम
तो छूट जाए
जैसे छूट जाती है कोई गाड़ी
किसी का इन्तज़ार किये बगैर
किसी ग़रीब का
दूध के लिए रोता हुआ बच्चा
रह जाए अंगूठा चूसकर
कुछ दिन और
रूठती है किसी की नन्ही परी
तो रूठ जाए या फिर
सब्जी नहीं है तो क्या हुआ
बचा रह गया हो मर्तबान में
जरा-सा अचार चाहे मसाला
तो चाटकर
काम चलाए
टलता है अचानक
किसी का शुभमुहूर्त
तो टल जाए
चाहे लग्न-मण्डप
बदल जाए                                                    
किसी का कोई ख़ास
फंस गया है कहीं दूर अगर
डर - डर कर
किसी तरह काट ले
मुसीबत के दिन बनकर आयी
सबसे काली और सर्द
रात

बाबा
आखि़र
क्या है कर्फ्यू
कोई रामबाण है
उपद्रव को रोकने का कानून है
कि शहर के स्पंदन और नसों को
बंद कर देने का कानून
कहाँ हैं कानून छाँटने वाले
निकालें खोपड़ी से प्रकाश
और डालें -
कर्फ्यू
जनभावनाओं को चोट पहुँचाने का कानून
है कि नहीं
प्रशासन की नाकामी को छिपाने का कानून
है कि नहीं
दूसरों के किये की सजा
भोली-भाली जनता को भुगतने का कानून
है कि नहीं
यह कानून अंग्रेजों के ज़माने का कानून
है कि नहीं

बाबा
कानून की आत्मा के बारे में
आप ही बतायें -
यह कानून ऐसे हालात पैदा करने वाले
आला अफ़सरों और वज़ीरों को
जेल में डालने के लिए
क्यों नहीं है
ऐसे अफ़सरों और कानून के रखवालों को
पैर की जूती बनाये रखने वाले
सूबे के सरगनाओं को तुरत
सलाखों के पीछे करने के लिए
क्यों नहीं है
बाबा
कर्फ्यू से कभी कुछ ठीक हुआ है कहीं
आज तक जारी हैं दंगे
यह कैसी बदकिस्मती है बाबा
कि अपने ही घर में
अपने ही शहर और मुल्क में
अपने ही लोगों पर
अमन के लिए बंदूक का कानून
यह कैसी आज़ादी है बाबा
तलब करो गांधीबाबा को
संविधान के निर्माता को करो
एस एम एस
फोन मिलाओ राष्ट्राध्यक्ष को
क्यों इतना संवेदनहीन हो गया है तंत्र
सूबे का राजा क्यों हो गया है इतना
सत्तालोलुप
गांधी के रघुपति राघव राजा राम वाले
स्वाधीन भारत में
हिन्दू होना अपराध क्यो हो गया है

बाबा
उस बच्चे का क्या गुनाह था
दो छोटे-छोटे बच्चों का अब्बा होना गुनाह था
कि ख़राब से ख़राब मोटरसाइकिल
पाँच रुपये में ठीक कर देना गुनाह था
कि उसका बोदा होना गुनाह था
राशिद का क्या गुनाह था बाबा
कर्फ्यू में ढील के दौरान
राशन के लिए थैला लेकर निकलना
गुनाह था
कि राजकुमार का क़ातिल न होना गुनाह था
कि असली या किसी झूठमूठ के राजकुमार को
न जानना गुनाह था
वह तो महज़
अपनी बीवी के चेहरे की उदासी को जानता था
और रोते हुए बच्चों की सूरत पहचानता था
बहुत हुआ तो याद करने पर
ठीक की गयी मोटरसाइकिलों में से कुछ को
पहचान सकता था
इसके सिवा
उसकी न किसी भले से जान-पहचान थी
न किसी बुरे से
फिर क्यों उसे पकड़ कर
और बंधे के पास ले जाकर
कट्टे से धायं - धायं दाग दिया गया
आखि़र
क्या गुनाह था बाबा राशिद का
कि वह थैले में राशन की जगह
अपनी लाश लेकर घर लौटा
हे बाबा
राशिद के मारे जाने की वजह क्या थी
पूछते हैं आपके पड़ोसी मुसलमान
इस देश में
सिर्फ एक मुसलमान होना
उसके मारे जाने की वजह क्यों थी
हे बाबा
हिन्दू का हिन्दू होना
और मुसलमान का मुसलमान होना
क्यों अलग-अलग होना है
धरती और आकाश के लिए
जल और वायु के लिए
अन्न और जीवन के लिए
ईश्वर और खुदा के लिए
और अपने शहर और देश के लिए
क्यों नहीं एक होना है
किसके हाथ में है सबको बांटने की माया
किसकी वजह से जलने लगता है
यह शहर
यह सब
ऐसे ही नहीं हो गया था बाबा
कहानी लंबी थी और मोड़ कई
क़त्ल का पहला कांड
छब्बीस जनवरी को
अचानक नहीं हो गया था
चार जनवरी को पहले
सद्दाम को फांसी देने का विरोध करते हुए
अमेरिकी शहरों की जगह
गोरखपुर के गोलघर में
हिन्दुओं की दुकानों में की गयी
तोड़फोड़
तेइस जनवरी को खूनीपुर में
वसंत पंचमी के दिन
सम्मत गाड़ने के विवाद में
अंततः
पुरानी जगह से तीन फुट हटना पड़ा
हिंदुओं को
अगले दिन छोटेकाज़ीपुर में
मन्दिर से लौट रही एक महिला के साथ
                                                  
छेड़खानी करते हुए अन्य मज़हब के युवा     
उसके हाते तक पहुँच गए
और शिकायतों की झड़ी के बावजूद
एक बार फिर नहीं पहुँची वक्त पर
पुलिस
यह कैसी पुलिस है बाबा
जिसके पास वर्दी तो एक है पर चेहरे अनेक
जिसका कारनामा है -
अंग्रेजीराज से  कांग्रेसीराज तक
कांग्रेसीराज से गैर कांग्रेसीराज तक
गैर कांग्रेसीराज से माफियाराज तक
सत्ता की आँख की डोलती हुई पुतली देखकर
कभी अंधा तो कभी बहरा
कभी बेजु़बान तो कभी वहशी हो जाना
चुन-चुन कर हिन्दू को
तो कभी मुसलमान को सताना
यह कैसी सत्तानुकूलित पुलिस है
बाबा

यह कैसी सत्ता है
और कैसा है राज
जब जल रहा है पूरा पूर्वांचल
पुलिस और नौजवानों की झड़प से
फूट रही हैं जगह - जगह चिंगारियाँ
सूबे का राजा
और उसके दोस्त - अहबाब
वालीवुड की तारिकाओं के संग
लगा रहे हैं ठुमके
और अख़बारवालों से कर रहे हैं
लगातार ग़लतबयानी
बाबा
ये कैसे राजा हैं
किस ज़माने के राजा हैं
राजा हैं कि बहुरूपिये
खाते हैं कुछ बताते हैं कुछ
खाई हींग कपूर बषाणैं
जिनके लिए एक ही समय में
हिन्दू होना साम्प्रदायिक होना है
और मुसलमान होना असाम्प्रदायिक
ये राजा
कहते हैं कुछ  करते हैं कुछ
कहणि सुहेली  रहणि दुहेली
कहणि रहणि बिन थोथी
इनके लिए
हिन्दू न तो हिन्दू है
और मुसलमान  न मुसलमान
सब
किसी वोट प्रजाति के प्राणी हैं

बाबा
तब कैसी थी दुनिया
कैसे थे यहाँ के लोग-बाग
ऐसी ही थी राजनीति की दुनिया
स्वार्थ ऐसे ही निर्लज्ज था
क्रूरता ऐसे ही असीम
सब ऐसे ही थे
जैसे ये हैं
और इनके दल हैं
ऐसे ही लूट लेते थे साधारण जन को
कभी स्वप्न तो कभी भय दिखाकर
ऐसे ही पहले के गैंग-शैंग करते थे
पाँच-पाँच सौ और हजार-हजार के
गांधी छाप नोटों की मोटी-मोटी गड्डी
और आक़ाओं की कुर्सी की मजबूती के लिए
क़त्ल दर क़त्ल
ऐसे ही
एक - एक साड़ी
एक - एक पाउच
और दो-दो रुपये में
खरीद लेते थे
ईमान
ऐसे ही जला देते थे अपने आज के लिए
सजातीय और सधर्मा जन-समूह का कल
ऐसे ही रुपया उस समय का भगवान था
ऐसे ही सबको क़र्ज़खोर बनाने के लिए
किये जाते थे सरकारी उपक्रम
और उत्सव
                                                    
बाबा
कैसा था उस वक़्त
माननीयों की समझ का संसार
जैसे आज -
इनकी बुनियादी समझ ही यही है
कि इनके अलावा किसी के पास
कोई समझ नहीं है
देश में और इस शहर में
जितने भी बैंक हैं बड़े-बड़े
सब इनके सामने खड़े हैं
शीश झुकाकर
इनका
छोटे से छोटा वोट बैंक
बड़े से बड़े बैंक से बड़ा है
और ख़तरनाक
ऐसा कोई बैंक
पहले कभी देखा है बाबा
किसी को वोट-सोट दिया है
इनके चक्कर में पड़े हैं कभी
आपके ज़माने की माया से
कितनी ज़हरीली है आज की वोट माया
कितनी चतुर है बाबा यह
देखिए, तो -
गणतंत्र के जीवन जल में
कैसे डँसती है सबको
मारौ मारौ
स्रपनी निरमल जल पैठी

बाबा
यह कैसा वक़्त है
आसमान से बरस रही है बुराई
और धरती से फूट रही है
हिंसा
क्या आपका पूर्वांचल
क्या देश
जब - जब
एक मज़हब के लोगों के वोट बैंक को
मज़बूत करने की कोशिश हुई
दूसरे धर्म के लोगों के वोट बैंक में
संख्या के अनुपात में भारी वृद्धि हुई
बाबा
साँप - सीढ़ी
और मौत के कुएँ के खेल में
बदल गया है
वोट बैंक का खेल
इस खेल में
आदमी के मारे जाने की वजह
आदमी होना नहीं
अमीर और ग़रीब होना भी नहीं
किसी का हिन्दू होना है
तो किसी का मुसलमान होना
किसी का अगड़ी जाति का होना है
किसी का पिछड़ी जाति का होना
और किसी का दलित होना
बाबा
ऐसे ही खेल - खेल में
कीट-पतंग की तरह मरना
वह मरना क्यों नहीं -
मरौ वे जोगी मरौ मरण है मीठा
तिस मरणी मरौ
जिस मरणी गोरष मरि दीठा
क्या हो गया है इस पूर्वांचल को
इस देश को
जीवन से चुरा लिया है जैसे किसी ने
उसका संगीत
और प्रकृति से उसके बोल

हे बाबा
कैसा टेढ़ा-मेढ़ा वक़्त है
और कैसा है यह शहर
यह गोरखपुर शहर आपका है
और आपका नहीं है
आज की तारीख़ में
सूबे के किसी राजा की जागीर है
उसी की पुलिस है उसी का अफ़सर
शहर का मौसम
इस शहर का मौसम नहीं रह गया है
क्या हो गया है प्रकृति को
कैसे कुम्हला गया है वक़्त की आँच में
इस शहर का वसंत
कैसा था कैसा हो गया है
किसका है यह वसंत
भटक गया है शायद
किसी बात से नाराज़ हो गया है शायद
कि डर गया है किसी अमानुष से
यह जो वसंत है
सरसो के पीले-पीले फूलों का वसंत है
कि खेतों में नौजवानों को दौड़ा-दौड़ाकर
उल्टा-सीधा चलते हुए
पुलिस के डण्डों का वसंत
कि अमराइयों में फुनगियों पर चढ़कर
थर-थर कांपता हुआ वसंत है
कि नई-नई कोंपलों में छिपकर बैठा हुआ
कि कोयलों के कंठ में भयभीत
मौन वसंत
हे बाबा
यह कैसा वसंत है
क्या
वसंत के अग्रदूत निराला का
उदग्र वसंत है
कि सुभद्रा कुमारी चौहान का
वीरों का वसंत
कि चौरीचौरा कांड में शामिल
किसानों का वसंत है
कि सूबे की सत्ता की क्रूरता के खि़लाफ
आग की नई-नई लपटों का वसंत
यह वसंत
आकर चला जाने वाला वसंत है
कि शहर की याद में
ठहर जाने वाला वसंत
यह वसंत
हवा में अमन का राग गाने वालों का वसंत है
कि धरती के कागज़ पर
पूरब की आग लिखने वालों का वसंत
बाबा
राति गई अधराति गई
बालक एक पुकारै
है कोई नगर मैं सूरा
बालक का दुःख निवारै
आपसे न पूछूँ तो और किसे याद करूँ
कौन इस शहर में आपसे बड़ा है
सबसे बड़े कवि आप
सबसे छोटा मैं
आप जैसे सबद
कहाँ मेरे पास
कहाँ आपके सबद
तीक्ष्ण ज्ञान-खड्ग -
सबद हमारा षरतर षांडा
और कहाँ मेरे नन्हे-नन्हे
बैयाँ - बैयाँ चलते शब्द
आप तो सब जानते हैं बाबा
कि मैं कितना अज्ञानी हूँ -
शास्त्र और लोक से अनभिज्ञ
कविता के कछार का ग़रीब बेटा
जिसकी कविता की टूटी-फूटी इबारत
इस अंचल के अपढ़ लोगों के
माथे की शिकन के बीच कहीं
खो गयी है
और
मैं कितना अशांत हूँ
आज की तारीख में
सुस्ताना चाहता हूँ क्षण भर
अपने बाबा के सबद की छांव में
जिन्होंने कहा -
हबकि न बोलिबा
ठबकि न चालिबा
धीरै धरिबा
पांव।


(तीसरे कविता संग्रह ‘‘जापानी बुखार’’ से)




12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत चुभती हुई कविता है बहुत कुछ सोचने करने और अपनी जड़ताओ से बाहर आने को विवश करती हुई ... आभार आपका दादा इसे हमें पढवाने के लिए ...

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  2. गोरख की परम्परा की शैली में यह कविता गोरख के कथ्य का भी निर्वाह करती है.
    निर्भीक, अनभय और कुछ वैराग्य लिए हुए.ऐसी कविता इस समय कोई नहीं लिख रहा है.
    आपकी दृष्टि, भाषा और लम्बी तान का कायल हो गया. बधाई .
    - अरुण देव.
    युवाकवि और समालोचन के संपादक अरुणदेव की यह टिप्पणी लंबीकविता ‘सबद एक पूछिबा’ के लिए है,
    जो भूलवश जापानी बुख़ार कविता के साथ लग गयी है।

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  3. वाजिब आक्रोश को सही ढंग से, चित्रात्मक शैली में अभिव्यक्त करता अत्यंत प्रभावशाली आख्यान. यह है आज के हिंदुस्तान की पीड़ादायक तस्वीर !

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  4. कठिन दौर है यह...
    सारी समस्याएं, चित्र और प्रश्न सामने रख कर सोच को उन्नत करने को उद्धत अद्भुत शब्द यात्रा!

    सादर!

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  5. बैचेन करने वाली कविता.....इस उमस भरे माहौल में सांस बहुत मुश्किल से लिया जा रहा है. मौजूदा माहौल में इस कविता को पढकर मन और बौझिल हो गया.....

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  6. हे बाबा ये कैसा

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  7. यह सामयिक यथार्थ की कुरूपता और सारे मानव मूल्यों का दलन करती अवसरवादी राजनीति को बेनक़ाब करती सशक्त रचना है । बेबाक शैली में गोरख बाबा को याद किया गया है । बधाई पाण्डेय जी ।

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  8. अपनी पूरी रचनात्मक ऊर्जा और विवश आक्रोश मे लिखी दस्तावेजी कविता जो वर्तमान के निर्मम सच को बेनकाब करती है,आपको प
    रणाम,बधाई,

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  9. अपनी पूरी रचनात्मक ऊर्जा और विवश आक्रोश मे लिखी दस्तावेजी कविता जो वर्तमान के निर्मम सच को बेनकाब करती है,आपको प
    रणाम,बधाई,

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  10. सत्ता की हेकड़ी के आगे मूक बघिर पंगु शासन प्रशासन की कुसंस्कृति के निरंतर झापड़ों से त्रस्त मानवता की मार्मिक करुण और बेबाक तस्वीर प्रस्तुत करती इस कालजयी रचना के रचियता को प्रणाम ��

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  11. बहुत प्रासंगिक और सुन्दर कविता। बधाई।

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  12. भीतर तक बेधती हुई यह कविता ऐसे जलते हुए सवालों से लैस है जिन्हें पूछने का साहस और जोखिम गिने-चुने ईमान वाले लोग ही उठा पाएंगे। मानवीय मूल्यों से स्खलित विद्रूप समाज और राजनीति का इतना प्रामाणिक और पारदर्शी दृश्य मेरी नज़र में कहीं और उपलब्ध नहीं है।

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