बुधवार, 25 मार्च 2015

मैं कहाँ हूँ

- गणेश पाण्डेय

(मेरी यह नयी कविता ‘‘ मैं कहाँ हूँ ’’ मेरे किसी संग्रह में अब तक नहीं शामिल है, बल्कि साक्ष्य के तौर पर मेरी आलोचना की नयी किताब ‘‘ आलोचना का सच ’’ में है। श्री जयप्रकाश मानस जी मेरी इस किताब के बड़े प्रशंसक हैं, उन्होंने कृपापूर्वक इस कविता को ‘‘आलोचना का सच’’ से लेकर और टाइप करके  अपनी वॉल पर दिया है। इसे वहीं से आभार सहित ले लिया है। कई और मित्र भी हैं, जिन्होंने बढ़कर ‘‘आलोचना का सच’’ का स्वागत खुलेमन से और गर्मजोशी से किया है। जाहिर है कि ये सभी मित्र मेरे शहर से बाहर के हैं। मैं इन सभी मित्रों का बहुत आभारी हूँ। इस शहर के हिन्दी के लगभग सभी दुश्मन लेखक इसे देखना पसंद करेंगे, मुझे संदेह है। बाहर भी ऐसे कम न होंगे जिनका रास्ता साहित्य में प्रभुजाति से जुड़े लेखकों की शुद्ध चापलूसी का है, शायद वे सब इस किताब के फ्लैप का यह प्रकाशकीय भी पढ़ना पसंद न करें कि-कवि गणेश पाण्डेय की आलोचना का रंग अलग है। एक खास तरह की निजता गणेश पाण्डेय की आलोचना की पहचान है। उनकी आलोचना नये प्रश्न उठाती है। उनकी आलोचना साहित्यिक मुक्ति की बात करती है। यह पहलीबार है।...गणेश पाण्डेय की आलोचना एक अर्थ में समकालीन आलोचना का प्रतिपक्ष है। मुहावरे सिर्फ कविता में ही नहीं बनते हैं, एक ईमानदार आलोचक अपनी आलोचना का मुहावरा खुद गढ़ता है। गणेश पाण्डेय अपनी आलोचना का मुहावरा खुद बनाते हैं। आलोचना की सर्जनात्मक भाषा का जो प्रीतिकर वितान खड़ा करते हैं, बिल्कुल नया है। हमारे समय की निर्जीव आलोचना को नयी चाल में ढ़ालने का काम करते हैं।...- इस अंश को अपने ब्लॉग पर देने का आशय अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना नहीं है, बल्कि यह बताना है कि यदि मैं भी तमाम मित्रों की तरह साहित्य के अनगिन दरबारों में क्षण-प्रतिक्षण शीश नवाता फिरता तो मुंशीछाप आलोचना लिखता, जैसा कि मेरे कुछ झूठमूठ के मित्र लिखते हैं। यह बताना जरूरी है कि मैंने खुद को अलग बनाने के लिए यह सब कतई नहीं किया है, बल्कि एक लेखक के रूप में यह मेरी ड्यूटी थी कि साहित्य का सच फटकार कर कहूँ। यह अलग बात है कि आज के शीर्ष कवि-लेखक से लेकर छोटे से छोटे लेखक तक मानते हैं कि उनकी ड्यूटी साहित्य का सच फटकार कर कहना नहीं है, बल्कि इनाम लेना है। जाहिर है कि पहले से दो रास्ते रहे हैं साहित्य में। मैं जिस रास्ते पर हूँ, इस शहर में अकेला हूँ, लेकिन बाहर बहुत से मित्र हैं, जिनका रास्ता भी मेरे रास्ते से अलग नहीं है। उन्हीं के लिए लिखता हूँ, उन्हीं के लिए साहित्य में जीता-मरता हूँ। बहरहाल प्रसंगवश यह सब कहना जरूरी था। लीजिए कविता पढ़िए-मैं कहाँ हूँ। इस कविता का मैं जाहिर है कि हर ईमानदार कवि-लेखक है। सिर्फ कोई एक मैं नहीं।)

मैं कहाँ हूँ

मैं कहाँ हूँ, कहाँ हूँ, कहाँ हूँ
इस सूची में नहीं हूँ उस सूची में नहीं हूँ
इस पृष्ठ पर नहीं हूँ उस पृष्ठ पर नहीं हूँ
इस चर्चा में नहीं हूँ उस चर्चा में नहीं हूँ
इस अखबार में नहीं हूँ उस अखबार में नहीं हूँ
इस किताब में नहीं हूँ उस किताब में नहीं हूँ
इसकी जेब में नहीं हूँ उसकी जेब में नहीं हूँ 
इस संगठन में नहीं हूँ उस संगठन में नहीं हूँ
मैं कहाँ हूँ कहाँ हूँ ,कहाँ हूँ ,कहाँ हूँ
किसी आलोचक की आँख में नहीं हूँ
किसी संपादक की काँख में नहीं हूँ
युवा लेखकों के आगे नहीं हूँ
वरिष्ठ लेखकों के पीछे नहीं हूँ 

मैं कहाँ हूँ
यह इक्कीसवीं सदी है 
कि हिंदीसमय की वही नदी है 
जो निकलती है राजधानी से सारा कचरा लेकर 
और फैल जाता है पूरे देश में जहर
यह रचना का कैसा देश है
यह आलोचना का कैसा देश है 
जिसमें बने हुए हैं दाएँ-बाएँ 
बड़े-बड़े बाड़े और फाँसीघर
एक स्वाधीन लेखक क्या चुने जाये तो जाये किधर
किससे पूछँू कि मैं कहाँ हूँ कौन-सा देश है मैं जहाँ हूँ

मैं हूँ कि नहीं हूँ
नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ 
हिंदी का कोई कवि हूँ कि कविता का कोई भूत हूँ 
प्रेत हूँ 
किस देवता से पूछूँ किस असुर से पूछूँ  
थक गया हूँ पूछते-पूछते
खग मृग बाघ सबसे पूछते-पूछते
मैं कहाँ हूँ, कहाँ हूँ , कहाँ हूँ , कहाँ हूँ
यह क्या है 
जो किसी झुरमुट में छिपा हुआ है
यह क्या है जो किसी मेघ की ओट में 
है कुछ है जैसा किससे कहूँ कि देखो जरा
किससे कहूँ कि मुझे बताओ जरा
कि मैं कहाँ हूँ किसके पास हूँ किसके साथ हूँ
इस बंदे से पूछूँ कि उस बंदे से पूछूँ
आखिर किससे पूछूँ

मैं कहाँ हूँ।