बुधवार, 28 दिसंबर 2011

नये साल का हवाईजहाज

- गणेश पाण्डेय

कैसे होंगे
ये नये दिन
किस रंग में होंगे
कितने उजले-धुले होंगे
कितने कोमल कितने मीठे
हाथ हिलाते
खिल-खिल करते
हंसते-गाते संतूर बजाते
पीली साड़ी पर
सोने के झुमके जैसे
झिलमिल करते ये दिन
किस-किस के लिए होंगे
नववर्ष के ये दिन
कितने अच्छे होंगे
कितने अलग होंगे
कठिन दिनों से
थके-हारे
भूखे-प्यासे पसीना-पसीना
अन्नदाता की उदास आंखों में
सुदूर जुगनू जैसे टिमटिमाते
नववर्ष के ये दिन
धरती की गोद में
नये आषाढ़ के नये दिन
झमाझम नई बारिश जैसे
जैसे खिली हुई नई धूप
आकाश से उतरी हो जैसे
कोई नई पुरवाई
जैसे
किसी नई-नई सलोनी का
नया-नया
प्रेम

इस नये वर्ष में पृथ्वी पर
कितने हजार करोड़ का
प्रेम का व्यापार होगा
कितने हजार करोड़ का फूलों का सौदा
कौड़ियों के मोल बिकेंगी कितनी दोस्तियां
कितने हजार करोड़ का होगा
हिंसा का कारोबार
कितने हजार लोग मारे जाएंगे
कितने अरब लोग छले जाएंगे
कितने लोग होंगे
जो कामयाब होंगे
जीवन की ऊंची मीनार पर
पैर रखने में
नये दिन का एक सुर्ख फूल
मनचाही जगह पर टांकने में
कितने ऐसे लोग होंगे
जो जीवन में एक चौथाई सोएंगे
और चैन की एक नींद नहीं पाएंगे
शेष तीन चौथाई जागेंगे
और एक बार भी किसी दिन
ठीक से जाग नहीं पाएंगे
कितने लोग होंगे जो भागेंगे
जाम के सिर के ऊपर पैर रखकर
और कितने होंगे जो डूबेंगे
प्रेम के थोड़े-से जल में
निकल पड़ेंगे
जीवन के अरण्य में
उम्दा नस्ल के घोड़े जैसे
नये दिनों की पीठ पर

मेरे बच्चो
तुम्हारे लिए है
नववर्ष का यह रथ
खास तुम्हारे लिए है
नये साल का हवाईजहाज
उठो देखो जल्दी करो
कहां रखा हुआ है तुम्हारा पासपोर्ट
तुम्हारा होलडाल
और तुम्हारे स्वप्न का ब्रीफकेस
आओ नजदीक आओ
बैलगाड़ी की सैर करने वाले
ओ मेरे बच्चो तुम्हारे लिए भी है
नये साल का यह हवाईजहाज
कोई टिकट विकट नहीं है
हौसला है तो टिकट है
नये वर्ष का यह उत्सव
और जागरण का
यह नया संगीत
तुम्हारे लिए भी उतना ही है
जितना अमीरजादों के लिए
क्या हुआ जो नहीं है तुम्हारे पास
अपने ही देश में ढ़ंग से जीने का
गारंटी का कोई मुड़ातुड़ा
कागज

ये कविताएं हैं तुम्हारे लिए हैं
मेरे बच्चो
जिसके पास सरकार का कागज नहीं
उसके लिए है कविता का संसार
तुम्हारे बहुमत से चलती है
कविता की सरकार
आएगा एक दिन
ऐसा नववर्ष जरूर
जब तुम्हारे इशारे पर नाचेंगी
दुनिया की बड़ी-बड़ी सरकारें
जिस दिन तुम बड़े हो जाओगे
तनकर खड़े हो जाओगे
मेरे बच्चो यह देश तुम्हारा हो जाएगा

कितनी कमी हो गयी है आज
इस देश में
न काम का कोई कागज मिलता है
न काम की जगह
न काम के लोग
रहते तो हैं अपने देश में
पर लगता है जैसे परदेश में हो
नहीं मिलता है कोई
नहीं दिखता है कोई
देश का ढ़ग का खेवनहार
एक महानायक
सचमुच के गांधी का देश है यह
कि किसी झूठमूठ के गांधी का
हाय कितना मजबूर है
एक महादेश
शायद बन जाए इस वर्ष
यह देश
अमेरिका की किसी गुप्त पर्ची से
चाहे भीख में मिली खुली रजामंदी से
झूठमूठ की महाशक्ति जैसी कोई चीज
हो सकता है इस वर्ष
चाहे किसी और नववर्ष में
इस देश का कोई यान-सान
हजार बार जाकर छोड़ दिये गये
चांद पर
जाए
और सरकारें
कागज का सीना थोड़ा और फुलाएं

मेरे बच्चो मैं तुम्हारे बारे में
नये वर्ष के प्रथम दिवस के
सफेद कागज पर
कोई प्रस्ताव करते हुए डरता हूं
इस समय की दुनिया की बागडोर
जिन हाथों में हैं
वे बच्चों और बडों के रक्त से सने हैं
वे बच्चों के दिल और दिमाग
और अच्छे दिनों के हत्यारे हैं
यमराज के हाथों में है
पृथ्वी का राजपाट
डरता हूं
अच्छी-अच्छी बात करते हुए
और डरावनी बातें करते हुए
सांस लेना भूल जाता हूं
जीवन की यह कैसी विफल कविता है
कि नये वर्ष के पहले दिन मुस्कराते हुए
डरता हूं
और हंसते हुए रोता हूं
डरते हुए पतंग देखता हूं
हो-हो करता हूं
कांटेदार फूलों के बीच
तितलियों के पीछे-पीछे
भागता हूं
कितनी बेखबर हैं तितलियां
कितने बेखबर हैं फूल
देखो तो
किस तरह कर रहे है मह-मह
इनकी दुनिया में डर कहां है
कहां है
देखता क्यों नहीं
दुनिया का चिरकुट नेता
मैं भी कितना बावला हूं
बच्चों की दुनियां में डर कहां है
बच्चों के लिए
नये दिन बिल्कुल नये होते हैं
न डरने के दिन होते हैं न रोने के
पुलकित करने के लिए होते हैं
नये दिन
एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर जाकर
उत्सव मनाने के लिए।

रविवार, 4 दिसंबर 2011

घर सीरीज की सात कविताएँ

-गणेश पाण्डेय                                   


घर: एक / 
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है                     
                                             
कहां हो तुम
उजाले में हो कि किसी अंधेरे में
बोलो अकेले में हो
कि किन्हीं अपनों के बीच
कि यादों के किसी तहखाने में
बंदी
किसी छत के नीचे हो
कि खुले आसमान में 
पृथ्वी के किस कोने में हो
इस वक्त
कितनी तेज है धूप
और हवा कितनी गर्म
जहां भी हो
कैसी हो
किसी घर में हो
सुकून का घर है 
कि घर है                    
कोई खिड़की है घर में              
जिसके आसपास हो                         
जो दिख जाय
यह अटाला कहीं से
तो देख लो
काम भर का है यहां भी सब
इस अटाले पर
बस
एक मैं हूं
जो किसी काम का नहीं हूं
चाय की पत्ती है
तो चीनी नहीं है मेरे पास
चीनी है तो माचिस नहीं
माचिस है
तो उसमे अब आग कहां
तुम्हारे पास आग है
ऐसे ही बदल जाती हैं चीजें
बदलने के लिए ही होती हैं चीजें
इस दुनिया को देखो
कितनी बदल गयी है
जहां होना था चैन का घर
लग गया है वहां मुश्किलों का कारखाना
रोज सुबह
एक थका हुआ आदमी निकलता है घर से
और
शाम को थोड़ा और थका हुआ
लौटता है बाहर से              
अब कोई नहीं देखता चाव से
मेरी अधलिखी कविता
किसे फुरसत है कि देखे
क्या पक रहा है
क्या रिस रहा है
मेरे भीतर
किससे कहूं कि आओ बैठो
घड़ीभर                  
मेरे इर्द-गिर्द
जंजीर की झंकार सुनो
देह के हर हिस्से से उठती हुई
पुकार सुनो
ये देह और देह का मूल
सब हुआ है थककर चूर
कैसी हो तुम
किस हाल में हो
किसी सितार का कीमती तार हो
खुश होे
कि मेरी तरह हो
सांस है कि टूटती नहीं
और लेना उससे भी कठिन
भला अब कौन आएगा
आखिरी वक्त में
इस भीड़ भरे एकांत में
मेरा पुरजा-पुरजा जोड़ने
कैसा आदमी हूं
बावला नहीं हूं तो और क्या हूं
अपने को खत्म करते हुए
सोचता हूं जिन्दगी के बारे में
अपनी कविता का अन्त जानते हुए -
इस कबाड़ के ढ़ेर पर    
एक फेंका हुआ सितार हूं बस
और
यह अटाला ही अब जिसका ठिकाना है ।
                                                  

                                          
घर: दो / 
कितना अच्छा होता जो प्रेम होता     
                                          
अच्छा होता
जो मेरा घर
हरी-हरी और कोमल पत्तियों के बीच      
खिले हुए फूलों की गंध
और पके हुए फलों के बिल्कुल पास
चोंच भर की दूरी पर होता ं
किसी दरख्त पर
एक-एक तिनका जोड़कर
और
नादान आदमियों की नजर बचाकर
सुरुचि से बनाया गया
सबसे छोटा
घर
अच्छा होता
जो पक्षियों के बीच होता
मनुष्यों के शब्द
और सभ्यता की कैद से मुक्त होता
प्रेम और जीवन के संगीत में
जितना चाहता डूबता
न किसी से घृणा
न कोई दंभ
न कोई लूट
न पीढ़ियों के लिए कुछ
न कोई दिखावा
न कोई टंटा
न कोई रोना
न किसी से अप्रेम
न किसी पर क्रूरता
न किसी से छल
न असत्य का आग्रह
न किसी के संग बुरा होता
जो किसी का साथ होता
मन से मन का साथ होता
साथ में जो होता
दोनों के साथ होता
साथ रहते तो रहते
न रहते तो न रहते
न मारकाट होती
न मनमुटाव होता
कितना अच्छा होता
जो प्रेम होता
संघर्ष जीवन का होता
जैसे रहते भूधर और वटवृक्ष
जैसे छोटे-छोटे पौधे
और कीट-पतंग
प्रचंड धूप में
अटूट बारिश में
और भयंकर आंधी-तूफान में
जिंदा रहते
घर रहते नहीं रहते
घर के मुहताज नहीं रहते
हौसलेे
और कोशिश से फिर बनता धर
एक नहीं हजार बनता
रुपया रहता नहीं रहता
रुपये का क्या गम रहता
हम रहते
और घर रहता
न कोई कर रहता
न कोई डर रहता
न कोई अफसर
न कोई कागज-पत्तर
बस हम रहते
सरोसामान रहता नहीं रहता
जीवन साथ रहता
मेरे मन के मीत तुम क्या रहते
तोता होते कि मैना रहते
छोड़ो भी अब
जब होते तब होते
और
उस घर का क्या
जो बन नहीं सका               
जब उसमे रहते तब रहते
अनुभव की उस दुनिया में
जिस दुनिया में
और                   
जैसे घरों में रहते हैं हम
कैसे रहते हैं                               
किसी से कह नहीं सकते
और चुप रह नहीं सकते ।                 
                          
              
घर: तीन / 
यह घर शायद वह घर नहीं है
                                      
                                       
जिस घर में रहते थे हम
यह शायद वह घर नहीं है
कहां है वह घर
और
कहां है उस घर का लाडला
जो दिन में मेरे पैरों से
और अंधेरी रातों में
मेरे सीने से चिपका रहता था
कहां खो गया है
बहती नाक और खुले बाल वाला
नंग-धड़ंग मेरा छोटा बाबा
मुझे ढूंढ़ता हुआ
कहां छिप गया है
किस कमरे में                                     
किस पर्दे के पीछे
कि मां की ओट में है
नटखट
यह कौन है जो तन कर खड़ा है
किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ
बेटा है कि पूरा मर्द           
भुजाओं सेे
पैरों से
और छाती से
फट पड़ने को बेचैन
आखिर क्या चाहिए मुझसे
किसका बेटा है यह
जो छीन लेना चाहता है मुझसे
सारा रुपया
मेरा बेटा है तो भूल कैसे गया
मांगता था कैसे हजार मिट्ठी देकर
एक आइसक्रीम
एक टाफी और थोड़ी-सी भुजिया
मांग क्यों नहीं लेता उसी तरह
मुझसे मेरा जीवन
किसका है यह जीवन
यह घर
कहां छूट गयी हैं
मेरी उंगलियों में फंसी हुईं
बड़ी की नन्ही-नन्ही कोमल उंगलियां
उन उंगलियों में फंसा पिता
कहां छूट गया है
किसी को खबर न हुई
हौले-हौले हिलते-डुलते
नन्ही पंखुड़ी जैसे होंठों को
पृथ्वी पर सबसे पहले छुआ
और सुदीप्त माथा चूमा
पहलीबार
जिनसे
मेरे उन होंठों को क्या हो गया है
कापते हैं थर-थर
यह कैसा डर है
यह कैसा घर है
छोटी की छोटी-छोटी
एक-एक इच्छा की खातिर
कैसे दौड़ता रहा एक पिता
अपनी दोनों हथेलियों पर लेकर
अपना दिल और कलेजा
अपना सबकुछ
जो था पहुंच में सब हाजिर करता रहा
क्या इसलिए कि एक दिन
अपनी बड़ी-बडी आंखों से करेगी़
पिता पर कोप
कहां चला गया वह घर
मुझसे रूठकर
जिसमें पिता पिता था
अपनी भूमिका में
पृथ्वी का सबसे दयनीय प्राणी न था
और वह घर
जीवन के उत्सव में तल्लीन
एक हंसमुख घर था
यह घर शायद वह घर नहीं है
कोई और घर है
पता नहीं किसका है यह घर ।

                              
घर: चार / 
जो उसके पास हुआ मुझसे बड़ा दुख

इस घर से
जो निकलना ही हुआ 
तो किधर ले चलेंगे मुझे
मेरे कदम              
कहीं तो रुकेंगे
कोई ठिकाना देखकर
किस घर के सामनेे रुकेंगे
ये पैर
अब इस उम्र में
किस अधेड़ स्त्री को होगा भला
मेरी कातर पुकार का इन्तजार
फिर मिली कोई चोट
तो मर नहीं जाउंगा
डर कर
फिर मुड़ेंगे किधर मेरे पैर
किस दिशा में ढूढ़ेंगे  
कोई रास्ता
किस बस्ती में पहुंच कर
किस स्त्री के कंधे पर रखूंगा सिर
क्या करूंगा जो उसके पास हुआ
मुझसे बड़ा दुख          
दो दुखीजन मिल कर     
बना सकते हैं क्या
एक छोटा-सा
सुखी घर ।
                                  

घर: पांच / 
कैसे निकलूं सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
                                       
                                             
कैसे निकलूं इस घर से
सोती हुई यशोधरा को छोड़कर
कितनी गहरी है यशोधरा की नींद
एक स्त्री की तीस बरस लंबी नींद
नींद भी जैसे किसी नींद में हो
चलना-फिरना
हंसना-बोलना
सजना-संवरना
और लड़ना-झगड़ना
सब जैसे नींद में हो
बस एक क्षण के लिए
टूटे तो सही यशोधरा की नींद
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा निकलना
यशोधरा के लिए नींद में कोई स्वप्न हो
मैं निकलना चाहता हूं उसके जीवन से
एक घटना की तरह
मैं चाहता हूं कि मेरा निकलना
उस यशोधरा को पता चले
जिसके साथ एक ही बिस्तर पर
तीस बरस से सोता और जागता रहा
जिसके साथ एक ही घर में           
कभी हंसता तो कभी रोता रहा
मैं उसे इस तरह
नींद में
अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहता
मैं उसे जगाकर जाना चाहता हूं
बताकर जाना चाहता हूं
कि जा रहा हूं
मैं नहीं चाहता कि कोई कहे
एक सोती हुई स्त्री को छोड़कर चला गया
मैं चाहता हूं कि वह मुझे जाते हुए देखे
कि जा रहा हूं
और न देख पाते हुए भी मुझे देखे
कि जा रहा हूं।


घर: छः / 
उठो यशोधरा तुम्हारा प्यार सो रहा है

कैसे जगाऊंगा उसे
जिसे जागना नहीं आता
प्यार से छूकर कहूंगा उठने के लिए
कि चूमकर कहूंगा हौले से
जागो यशोधरा
देखो कबसे जाग रही है धरा
कबसे चल रही है सखी हवा
एक-एक पत्ती
एक-एक फूल
एक-एक वृक्ष
एक-एक पर्वत
एक-एक सोते को जगा रही है
एक-एक कण को ताजा करती हुई
सुबह का गीत गा रही है
उठो यशोधरा
तुम्हारा राहुल सो रहा है
तुम्हारा घर सो रहा है
तुम्हारा संसार सो रहा है
तुम्हारा प्यार सो रहा है
कैसे जगाऊं तुम्हें
तुम्हीं बताओ यशोधरा
किस गुरु के पास जाऊं
किस स्त्री से पूछूं
युगों से
सोती हुई एक स्त्री को जगाने का मंत्र
किससे कहूं कि देखो
इस यशोधरा को
जो एक मामूली आदमी की बेटी हैे
और मुझ जैसे
निहायत मामूली आदमी की पत्नी है
फिर भी सो रही है किस तरह
राजसी ठाट से
क्या करूं
इस यशोधरा का
जिसे
मेरे जैसा एक साधारण आदमी
बहुत चाह कर भी
जगा नहीं पा रहा है
और
कोई दूसरा बुद्ध ला नहीं पा रहा है।

                                       
घर: सात / 
बहुत उदास हूं आज की रात                         
                               
किससे कहूं
कि मुझे बताये
अभी कितने फेरे लेने होंगे वापस
जीवन की किसी उलझी हुई गांठ को
सुलझाने के लिए
जो खो गया है
उसे दुबारा पाने के लिए
कहां हो मेरे प्यार                                        
देखो     
जिस छोटे-से घर को बनाने में 
कभी शामिल थे कई बड़े-बुजुर्ग
आज कोई नहीं है उनमें से
कितना अकेला हूं
हजार छेदों वाले इस जहाज को
बचाने के काम में
जहाज का चूहा होता
तो कितना सुखी होता
मेरी मुश्किल यह है कि आदमी हूं
कितना मुश्किल होता है कभी
किसी-किसी आदमी के लिए
एक धागा तोड़ पाना
किसी तितली से
उसके पंख अलग करना
किसी स्त्री के सिंदूर की चमक
मद्धिम करना
और अपने में मगन
एक दुनिया को छोड़कर
दूसरी दुनिया बसाना
कोई नहीं है इस वक्त
मेरे पास
कभी न खत्म होने वाली
इस रात के सिवा
बहुत उदास हूं आज की रात
यह रात
मेरे जीवन की सबसे लंबी रात है
कैसे संभालूं खुद को
मुश्किल में हूं   
एक ओर स्मृतियों का अधीर समुद्ऱ है                       
दूसरी तरफ दर्द का घर                        
कुछ नहीं बोलते पक्षीगण
कि जाऊं किधर
पत्तियां भूल गयी हैं हिलना-डुलना
चुप है पवन
बाहर
कहीं से नहीं आती कोई आवाज
बहुत बेचैन हूं आज की रात
किससे कहूं
कि अब इस रात से बाहर जाना                    
और इसके भीतर जिंदा रहना
मेरे वश में नहीं।

( चौथे संग्रह ‘परिणीता’ से )