- गणेश पाण्डेय
1
मिट्टी
------
हम
जिस मिट्टी में
लोटकर बड़े होते हैं
वह
हमारी आत्मा से
कभी नहीं झड़ती।
2
बाबा
------
बहुत से भी
बहुत कम लेखक होंगे
जिन्हें साहित्य में कभी
कृपा बरसाने वाले
किसी बाबा की ज़रूरत
नहीं हुई होगी।
3
बड़ा बाज़ार
---------------
साहित्य को
बड़ा बाज़ार बनाया किसने
जी जी उन्हीं दो-चार लोगों ने
जिनकी आप पूजा करते हैं।
4
जो कवि जन का है
------------------------
जो कवि
जितना गोरा है
चिकना है सजीला है
उसके पुट्ठे पर राजा की
उतनी ही छाप है
जो कवि
जितना सुरीला है
तीखे नैन-नक्श वाला है
उसके गले में अशर्फियों की
उतनी ही बड़ी माला है
जो कवि
जन का है
बेसुरा है बदसूरत है
बहुत खुरदुरा है
उम्रक़ैद भुगत रहा है।
5
जीवन
--------
जहाँ
जीवन ज्यादा होता है
हम वहाँ रुकते ही कम हैं
असल में
जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं
चमकती हुई चीज़ों के पीछे
तेज़ दौड़ना शुरू कर देते हैं
जीवन तो कहीं पीछे से
हमें मद्धिम आवाज में
पुकारता रह जाता है।
6
समकालीन कवि
--------------------
जब हम
साहित्य में लड़ रहे थे
तब वे किसी उत्सव में
काव्यपाठ कर रहे थे
कहने के लिए वे भी
समकालीन कवि थे।
7
नया मुहावरा
----------------
साहित्य में
लड़ोगे-भिड़ोगे
तो होगे ख़राब
मुंडी झुकाकर
लिखोगे-पढ़ोगे
तो होगे नवाब।
8
काम
------
जिसका जो काम है
उसे वही करना चाहिए
जैसे हर शख़्स
ख़ुशामदी नहीं हो सकता है
उसी तरह हर शख़्स
बाग़ावत नहीं कर सकता है।
9
अहमक़
----------
ओह ये अहमक़
आख़िर समझेंगे कब
साहित्य को जश्न नहीं
ईमान की ज़रूरत है।
10
गालियाँ
---------
कविता के पितामह ने
बिगाड़ा है मुझे
सारी गालियाँ
उन्हीं से सीखी हैं मैंने
मेरा क्या करोगे भद्रजनो
जाओ कबीर से निपटो।
11
आज़माइश
--------------
इतना
टूटना भी ज़रूरी था
ख़ुद को आज़माने के लिए
एक हाथ टूट जाने दिया
फिर दूसरे हाथ से
लड़ाई की।
12
आ संग बैठ
---------------
तू भी
कवि है मैं भी कवि हूँ
मान क्यों नहीं लेता
जब पीढ़ी एक है तो तुझे
ऊँचा पीढ़ा क्यों चाहिए
आ संग बैठ चटाई पर।
13
कविता का मजनूँ
---------------------
जिस कवि को
हज़ार कविताएँ लिखने के बाद
एक भी खरोंच नहीं आयी
एक ढेला न लगा सिर पर
ज़रा-सा ख़ून न बहा
कितना सुखी
सात्विक और अपने मठ का
निश्चय ही प्रधानकवि हुआ
गुणीजनो क्या वह
कविता का मजनूँ हुआ!
14
दुरूह
-------
जिस कविता में
कथ्य की रूह
साफ़-साफ़
एकदम दिख जाय
वह दुरूह नहीं है
नहीं है नहीं है।
15
दलाल
---------
जो अलेखक हो
जुगाड़ का चैंपियन हो
छपने-छपाने इनाम दिलाने
मशहूर कराने में माहिर हो
और देशभर के लेखकों को
मिनटों में मुर्गा बनाता हो।
16
ब्रह्म
-----
जिसने तबीअत से
पुरस्कार को सूँघ लिया
ब्रह्म को पा लिया
जिसे नसीब नहीं हुआ
वह बेचारा हर जन्म में
हिन्दी का लेखक हुआ।
17
दिल्ली
----------
हाशिए के लेखक
मेरे दोस्त हैं मेरी ताक़त हैं
मेरी तरह दिल्ली के
पॉवरहाउस से दूर रहते हैं
दिल्ली उन्हें भी मेरे साथ
मिटाने के लिए विकल है।
18
भिड़ंत
--------
तुम अपनी
अशरफ़ी दिखाओ
मैं अपना
ईमान दिखाता हूँ।
19
मार्क्सवादी
--------------
हिन्दी के मार्क्सवादी
चाहते हैं देश के पूँजीपतियों का
नाश हो नाश हो नाश हो
और वे राजधानी में खुलेआम
हिन्दी के पूँजीपतियों का तलवा
चाटते हैं चाटते हैं चाटते हैं।
20
लगा पीटेगा
---------------
यह कविता इससे पहले
लिखी क्यों नहीं गयी थी
आलोचक ने कहा तो लगा
पहले के कवियों को पीटेगा
थोड़ा डरा सोचा कि यह ख़ुद
पहले क्यों नहीं पैदा हुआ!
21
महानता
----------
भाड़ में जाए
आपकी महानता
जो था सब
कह नहीं दिया तो।
22
धरती पर
------------
धरती पर कोई फूल
अधखिला रह न जाए
कोई बात ज़रूरी हो
तो कहे बिना रह न जाए
23
नानी की नानी
------------------
नानी कब याद आती हैं
जी, कठिन बात कहनी हो तब
और जब बहुत कठिन बात
कहनी हो तो तब, वत्स
जी गुरु जी, तब
नानी की नानी याद आती हैं।
24
नहीं देखा
------------
मंच की रोशनी में
फुदकते हुए चूहों को
कभी शेर में बदलते
नहीं देखा नहीं देखा
चूहों ने भी नहीं देखा
नहीं देखा नहीं देखा।
25
ये
---
मेरा ख़याल है ये अभी
गंदा खाने तक जाएंगे
आख़िर इन्हीं के समय में
पुरस्कार युग आया है
कर लेने दो खा लेने दो।
26
अधिकतम
-------------
लेखकों, संपादकों, आलोचकों ने
कभी कृति के न्यूतम समर्थन मूल्य की बात
की ही नहीं
इन्होंने हमेशा गोलबंद होकर
अधिकतम समर्थन मूल्य के लिए
राजधानी को घेरा।
27
कनकौआ
-------------
इधर के
किन-किन लेखकों के पास
कोई जुनूनी काम है
क्या पता
कनकौआ उड़ाना ही आज का
बड़ा काम हो!
28
वहाँ
-----
अच्छा हुआ
मैं वहाँ बहुत कम जाना गया
जहाँ थोड़े से आदमी रहते थे
और चूहे बहुत ज़्यादा ।
29
सुधार
--------
गुप्त जी मानते थे
कि राम के चरित के सहारे
कोई भी कवि बन सकता है
आज हैरान होते हिन्दी के इन
दुश्चरित्र कवियों को देखकर
अपने लिखे में सुधार करते
कोई भी दुश्चरित्र कवि हो जाय
यह सहज संभाव्य है।
30
मज़बूत कवि
----------------
जैसे
बच्चे को देखकर
तंदुरुस्ती जान लेते हैं
उसी तरह
मज़बूत कवि को
दूर से पहचान लेते हैं।
31
शायद
-------
हिन्दी में विचारों की कमी नहीं है
बस काम करना बंद कर दिया है
हिन्दी में आदर्शों की कमी नहीं है
बस काम करना बंद कर दिया है
हिंदी में महान लेखक कम नहीं हैं
इन लेखकों ने रास्ता बदल लिया है
लेखक की दुनिया बदल गयी है
शायद पुरस्कार-राशि बढ़ गयी है।
32
सर्वेंट क्वार्टर
----------------
यह बच्चा
जब दिल्ली में लेखक बना है
वहीं पला-बढ़ा है तो जाएगा कहाँ
अमेरिका इंग्लैंड वग़ैरा
यह तो अंतरराष्ट्रीय साहित्य के
सर्वेंट क्वार्टर में पैदा हुआ है
देश की नसों में मेरा ख़ून बनकर
कैसे दौड़ेगा।
33
आ बेटा
----------
बच्चा लेखक है
सारे अंग छोटे और कोमल होंगे
मूते भी तो मुझ तक कैसे पहुँचेगी
मुझे ही जाना होगा दिल्ली
दुलार करने आ बेटा सिर पर
कर ले मन की।
34
लीला
-------
मान्यवर आप लेखक हैं
और साहित्य के संघर्ष में नहीं हैं
तो आपकी भाषा चमकती हुई
स्निग्ध कोमल वग़ैरा तो होगी ही
आपकी उँगलियाँ अभी भी
स्वेटर बुनने की अभ्यस्त होंगी
काश मैं भी मूलतः स्त्री होता
मेरी हथेलियाँ खुरदुरी न होतीं
मैं गणेश नहीं लीला होता।
35
डण्डा
-------
वे
साहित्यपति थे
उन्होंने कहा -
झण्डा लेकर चलो
मैंने कहा -
डण्डा लेकर चलो।
36
लज्जा
-------
हे प्रभु
माइक के सामने
अख़बार के बयान में
कविता लिखते हुए
टेढ़ी हो गयी है कवि की रीढ
जहाँ झगड़ना था मीठा बोला
जहाँ तनकर खड़ा होना था झुका
जहाँ उदाहरण प्रस्तुत करना था
छिपकर जिया
हे प्रभु
उसे सुख-शांति दीजिए न दीजिए
थोडी-सी लज्जा जरूर दीजिए।
37
अकड़
--------
हे प्रभु
आप हो तो ठीक है
न हो तो भी
पर हिन्दी में ऐसा वक़्त
ज़रूर आये
जब पाठक ही पाठक हों
और पाठक के पास इतना बल हो
कि कवि और आलोचक की
अकड़ तोड़कर उसकी जेब में
डाल दें।
38
निरीह कवि
--------------
हे प्रभु
आये ज़रूर आये
हिन्दी में ऐसा भी वक़्त
जब आलोचक अपनी अकड़
निरीह कवि के सामने नहीं
साहित्य की सत्ता के सामने
दिखाए।
39
दिल्ली भी
------------
साहित्य में
दिल्ली भी है
दिल्ली ही नहीं
सुनता कौन है
देशभर के लेखक
बहरे हैं।
40
ज्ञानी
-------
हिन्दी में
इतने ज्ञानी आ गए हैं
कि पूछो मत
ज्ञान की आंधी में
कविता की नाव
अब डूबी तब डूबी।
41
टैटू
------
नक़लची कवि
असली कवियों को
कविता पढ़ा रहे हैं
हँस रहे हैं चूतड़ मटका रहे हैं
उसी पर कविता का टैटू
बनवा रहे हैं।
42
नोट कर लें
-------------
एक बात नोट कर लें
मैं किसी का पालतू
कवि नहीं हूँ
यह भी नोट कर लें
मेरा कोई पालतू
आलोचक नहीं है
फिर भी
कविता की पृथ्वी का
एक कण मैं भी हूँ।
नोटबुक में
जगह न बची हो तो
जिल्द पर नोट कर लें।
43
क़सम
--------
उन्होंने
मुझे बर्बाद करने की
ज़बरदस्त क़सम खायी थी
जानकर
बहुत अफ़सोस हुआ
उनकी
अच्छी-ख़ासी क़सम
बर्बाद हो गयी।
44
बुरी बात
----------
ग़ुस्सा चाहे जितना हो
किसी वाजिब बात के लिए हो
तो अच्छी बात है
ख़ुद कुछ न कर पाएँ और
ग़ुस्सा करने वाले पर खीझ हो
तो बहुत छोटी बात है
और अगर साहित्य में
ऐसी छोटी बात हो तो
बहुत बुरी बात है।
45
पत्थर हूँ
---------
हाँ पत्थर हूँ
बहुत से बहुत सख़्त
और तुम ठहरे
चलते-फिरते आदमजात
मान क्यों नहीं लेते
मेरे ऊपर सिर्फ़ प्यार से
बैठ सकते हो
दो घड़ी सुस्ता सकते हो
मुझे
अपनी राह का
पत्थर समझकर
ठोकर से हटाना चाहोगे
तो ज़ख़्मी हो जाओगे।
46
पोतड़े
--------
बादशाहों का
कुछ साफ़ नहीं किया
तो उनके बच्चों के
पोतड़े कैसे साफ़ करूँ
जाओ मुझे तुमसे भी
कुछ नहीं चाहिए।
47
चरणरज
----------
वह
कल तक बड़ों का
चरणरज लेता था
और
आजकल छोटों का
चरणरज लेता है।
48
जीना
-------
मित्र अब न कहो
बरस अठारह क्षत्रिय जीवे
लेखक बेचारा किसी मठ में
एक बार खड़ा नहीं हो पाता।
49
गया नहीं
------------
राजधानी कोई शहर नहीं
एक बुलडोज़र है बुलडोज़र
जहाँ चूहा भी ऐंठकर चलता है
अच्छा हुआ कि मैं गया नहीं
बुलडोज़र से लड़ तो जाता
चूहे से कैसे लड़ता।
50
इसीलिए
-----------
हिन्दी के लेखक हैं
उन्हें पता ही नहीं है
कि वे कर क्या रहे हैं
इसीलिए
जिधर सब जा रहे हैं
उसी तरफ़ जा रहे हैं।
51
परंपरा
--------
जैसे
बड़ी कविता की
परंपरा होती है
उसी तरह
ज़रूरी कविता की
परंपरा होती है।
52
नक़ली कविता
------------------
इधर हिन्दी कविता में ख़ूब
झूठमूठ की चीज़ें मिल जाएंगी
कवि के जीवन से विरत
नक़ली कविता यहीं संभव है
53
ठग
-----
आज की तारीख़ में
किसी कवि को कविता में
बारीक बुनावट करते देखो
चाहे मामूली कविता को
ख़ूब चिकना करते देखो
तो समझ जाओ कि वह
कवि नहीं कविता का ठग है।
54
जुनूनी काम
---------------
मित्र से पूछा
इधर के किसी कवि को
कविता में जुनूनी काम
करते देखा है
मित्र ने कहा कुछ नहीं
बस मेरी तरफ़ देखते रहे।
55
ये लेखक
-----------
अंग्रेज़ों से
ग़लती हो गयी
बड़ी ग़लती हो गयी
वे सौ साल बाद आये होते
तो आज के हिन्दी के ये लेखक
आज़ादी की लड़ाई होने ही नहीं देते!
आख़िर साहित्यिक मुक्ति के लिए
लड़ाई कहाँ की!
56
कविता की शक्ति
---------------------
आज का आलोचक ख़ुद
अपने दिमाग़ की खिड़कियाँ खोले
आँखों के जाले ख़ुद साफ़ करे
मज़बूत कविता की खोज करे
मैं अपनी कविता की शक्ति से
घोड़े को शेर में बदल सकता हूँ
गधे आलोचकों को घोड़ा बनाना
मेरा काम नहीं है।
57
मास्टर
---------
वे सब आलोचक कहाँ थे
वे तो हिन्दी के मास्टर थे
जितना पढ़ा पढ़ाया
उतना ही लिखा
हिन्दी का मास्टर होकर भी
मैं आजीवन कार्यकर्ता ही रहा
कविता का मास्टर बनने का
कभी सोचा ही नहीं।
58
आदर्श
--------
मैंने कहा
तू मेरे गाँव का है
बच्चा संपादक है तो क्या हुआ
मेरी तरह बहादुर-शहादुर बन
चल मर्दाना कविताएँ छाप
वह
तनिक भी नहीं बदला
देशभर के नचनिया कवि
उसके आदर्श थे।
59
चाटना
---------
ईमान नहीं है
तो विचारधारा कुछ नहीं है
सिर्फ़ चाटने
और चाटते रहने की चीज़ है।
60
आत्मसंघर्ष
--------------
आप छत्तीस साल के युवा हैं
लेकिन लिख कितने साल से रहे हैं
आत्मसंघर्ष की उम्र कितनी है
कभी किया भी है या नहीं
लेखक के जीवन में चिंगारी
सिर्फ़ किताबों से पैदा होती तो
दुनिया में रोशनी ही रोशनी होती
मेरे बच्चे जीवन में रगड़ से
पैदा होती है असल रोशनी।
61
लेखक-प्रकाशक
---------------------
मानता हूँ
अच्छा रिश्ता होता है
लेखक और प्रकाशक के बीच
लेकिन एक सच्चा लेखक
किसी प्रकाशक के लिए
पैदा नहीं होता है
उसे तो अपने लोग
और अपनी भाषा के लिए
जीना-मरना होता है।
62
खड़ी कविताएँ
------------------
वह ढिलपुक संपादक
मुझे पसंद नहीं करता
क्योंकि मैं खड़ी कविताएँ
लिखता हूँ
और वह
लेटी हुई कविताओं का
सोलह शृंगार करके
छापता है।
63
दोहराव
----------
कविता का उद्देश्य बड़ा है
और कवि भी जुनूनी है
तो अलग-अलग ढंग से
कोई बात कहना
दोहराव नहीं असाधारण
चोट की निरंतर है।
64
अंतिम बल्लेबाज़
----------------------
मेरे एक मित्र
बड़े मज़ाक़िया हैं
मुझे अपनी पीढ़ी का
अंतिम बल्लेबाज़ कहते हैं
कहते हैं
बाक़ी सस्ते में निपट गये
कविता में सारे चौके छक्के
अब मुझे ही लगाने हैं।
65
दोस्ती
-------
लेखक का साथ
लेखक के चरित्र का
जासूस होता है
बता देता है कि यह लेखक
किस तरह के साहित्य के
गिरोह में शामिल है
फिर आप हुआ करें कुछ भी
गणेश पाण्डेय की दोस्ती के
क़ाबिल नहीं रह जाते।
66
निजी विचार
---------------
साहित्य
मनुष्यता का अभियान है
और कविता उस अभियान की बेटी
आज के कवियों
और आलोचकों के बारे में
मेरा निजी विचार यह कि ये दोनों
कविता के सीरियल रेपिस्ट हैं।
67
पाठक
--------
आज की कविता का
कोई पाठक बहुत हुआ तो
खेत कोड़ने जितना श्रम कर देगा
कविता की आत्मा तक
पहुँचने के लिए मौत के कुएँ में
मोटरसाइकिल नहीं चलाएगा।
68
कवि
------
कवि का काम है
पाठक की तरफ़ हाथ बढ़ाना
किसी दरबार में मुजरा करना
किसी क़ीमत पर नहीं।
68
ख़रगोश
----------
हिन्दी के एक
कछुए की क्या हैसियत है
कोई उसे देखता ही नहीं
कछुआ अक्सर फर्राटे से
दौड़ते हुए लेखकों को देखता है
और सोचता रहता है
ये हृष्टपुष्ट ख़रगोश
थकेंगे तो नहीं बेचारे अधबीच में
सो तो नहीं जाएंगे।
70
स्त्रीमुक्ति
-----------
कविता में
प्रेम से आगे का
सब हो गया
अर्थात कविता में
स्त्रीमुक्ति का काम
पूरा हो गया था।
71
अहंकार
----------
राजधानी की माया
विचित्र है कि मठ का
नन्हा-सा चूहा भी ख़ुद को
मठाधीश समझता है
न मुझे सलाम करता है
न मुझसे छापने के लिए
कविताएँ माँगता है ताऊ हूँ
फिर भी अहंकार देखो।
72
सीढ़ी
-------
हिन्दी में कुछ लेखक
लेखक कम होते हैं
सीढ़ी अधिक
किसी से बताना मत
कि ये सीढ़ी लेखक
दिल्ली में अधिक होते हैं।
73
नंगा कीजिए
---------------
कोई लेखक
नाम-इनाम का विरोध करता है
तो ख़ुद को ईमानदार लेखक
क्यों नहीं समझ सकता है
क्या वह बाक़ी लेखकों की तरह है
है तो उसे नंगा कीजिए।
74
फ़ाइल
--------
कवि जी बहुत हुआ
पुरानी फ़ाइलें जमा करना
मुंशी जी का काम है
आपका नहीं
आपकी ड्यूटी
नयी फ़ाइल बनाने की है
ज़रूरी फ़ाइल बनाने की है
झट से आगे बढ़ाने की है।
75
कारख़ाना
------------
कुछ लेखक
लिखने का कारख़ाना होते हैं
उनके कारख़ाने में सोचने का
पुर्ज़ा नहीं लगा होता है
कभी जान ही नहीं पाते
कि इतना फ़ालतू सामान
क्यों तैयार किया क्या होगा
बस लिखते हैं लिखते जाते हैं।
76
तुम
-----
तुम्हें लगता है कि वह ग़लत है
सीने में बर्छी जैसी चुभती हैं
उसकी बातें और कविताएँ
तुम वैसा कर भी नहीं सकते
और वैसा करते हुए उसे
देखना भी चाहते हो।
77
बुरा
-----
बुरा लगता है
बहुत बुरा लगता है
जब हिन्दी का चोट्टा
मर्यादित भाषा का
पाठ पढ़ाता है
जी करता है
मुँह तोड़ दूँ।
78
विशेषाधिकार
-----------------
वह चरित्रहीन होकर भी
क्रांति की बात कर सकता है
सिर्फ़ हिन्दी के लेखक को
यह विशेषाधिकार है।
79
आन बाट
------------
लेखको
मरे हुए तो हो ही
जब भी जाओगे ऊपर
बाबा कबीर गेट पर बैठे मिलेंगे
हाथ में जलता हुआ चैला लिए
पूछेंगे मरे हुए क्यों पैदा हुए थे
कहोगे जी आन बाट से आया
शायद दागे जाने से बच जाओ।
80
अजीब बात
---------------
झूठ बोलता हुआ
इस देश का हर आदमी
हिन्दी का कवि लगता है
कितनी अजीब बात है
झूठ बोलने वाला अब
राजनेता नहीं लगता है।
81
लड़वैया
----------
अगर तुम
पहले के लड़वैया की
इज़्ज़त नहीं करते
तो तुम
कवि वग़ैरा हो सकते हो
लड़वैया नहीं हो सकते।
82
तर्क के जूते
---------------
मुझे एक दो नहीं
सौ जूते चाहिए थे
मेरा दिमाग़ खराब था
मेरा दुर्भाग्य देखिए
हिन्दी में किसी के पास
तर्क के जूते ही नहीं थे।
83
जमात
--------
मैं उस जमात को
वक़्त पर छोड़ नहीं आया होता
तो पूरी ज़िन्दगी
चिलम सुलगाता रह गया होता।
84
मेरे सामने
------------
यह तो कोई बेईमान
आलोचक ही कह सकता है
आलोचना की आलोचना
बुरा काम है आलोचना नहीं
मैं चाहता हूँ कि मेरे सामने
मेरे लिखे की धज्जियाँ उड़ाएँ।
85
दोस्त
-------
वह मेरा दोस्त था
और दोस्त जैसा नहीं था
मेरे दुश्मनों से डरता था
उसने न कभी दुश्मन बनाये
न किसी से कोई लड़ाई की
वह मेरा दोस्त कैसे हो सकता था।
86
गिनतीकार
-------------
गिनतीकार
आलोचकों ने
रोज़-रोज़ कविगणना
और श्रेणीबद्धता से
माठा नहीं कर रखा होता
तो मैं भला उनके ख़िलाफ़
सख़्त कार्रवाई क्यों करता
कि छोटे सुकुल समेत
फाट पड़ता।
87
मार दो
---------
कविता
जब हिन्दी के शोहदों के सामने
भय से थरथर काँप रही है
एक डरा हुआ आलोचक
जो ख़ुद की हिफ़ाज़त
नहीं कर सकता
हिंदी कविता की
आबरू ख़ाक बचाएगा
सबसे पहले उसे मार दो।
88
नाराज़ कवि
---------------
नाराज़ कवि के हाथ में
सोना-चांदी फूल-पत्ती वग़ैरा नहीं
मामूली पत्थर है
कविता के सभासदो देखो तो
उसने तुम्हारे राजा के महल के
काँच पर कैसे दे मारा है।
89
बाग़ी
------
बीस साल पहले सोचा
नहीं था यह सब करूँगा
उड़िए मत आप जानते हैं
बीस साल बाद क्या होगा
बीस साल में हिन्दी में एक
नया बाग़ी पैदा हो जाता है।
90
आत्मा
--------
किसी को
अपशब्दों की बौछार से
लज्जित करना चाहोगे तो
वह सिर्फ़ नाराज़ होगा
और
उसकी आँख में
आँख डालकर तर्क करोगे
तो उसकी आत्मा लज्जित होगी।
91
बेचैनी
-------
न सबद लिखता हूँ
न रमैनी लिखता हूँ
कविता का
छोटा-मोटा कार्यकर्ता हूँ
साखी जैसी बस
अपनी बेचैनी लिखता हूँ।
92
कर्ज़
-----
जिस
आलोचक की आलोचना में
ईमान का छंद नहीं होता है
वही
प्राय: कविता में छंद के लिए
आठ-आठ आँसू रोता है
असल में
उसे कुछ कवियों से लिया गया
पुराना कर्ज़ चुकाना होता है।
93
मैं
---
मैं जब
कविता में
मैं लिखता हूँ
तो
पुरस्कार का नहीं
हिन्दी का मैं लिखता हूँ।
94
भरोसा
---------
उसके हाथ में डायरी थी
उसमें कई नंबर और पते थे
मेरे पास सिर्फ़ दो हाथ थे
मुझे उन्हीं पर भरोसा करना था।
95
पंडिज्जी
----------
पंडिज्जी की कोठी थी
मेरे पास थी मड़ई थी इसीलिए
वे मुझे पड़ोसी मानते नहीं थे
मैं हिन्दी की ज़मीन में रोज़
कुआँ खोदता रोज़ पानी पीता
एक-एक ईंट जोड़कर जब मैंने
हिन्दी की मीनार खड़ी कर दी
तो वे रातों में छिप-छिपकर
उसे देखते थे।
96
ईमान
-------
हिन्दी में
पहले भी हुआ है
ईमान के
चींटी जैसे पैर
बेईमानी के हाथी को
कुचल सकते हैं।
97
अशुभ योग
--------------
कवियो कहीं भी सो जाना
चारपाई पर चाहे ज़मीन पर
किसी भी तरफ़ पैर कर लेना
भूलकर भी दिल्ली की दिशा में
सिर करके मत सोना
बोले तो अशुभ योग है।
98
दुर्दशा
-------
मेरे पुरखे
प्राचीन कवि गोरखनाथ होते तो
हिन्दी की दुर्दशा पर चुप नहीं रहते
अलबत्ता इस शहर के बाक़ी कवि
उनके होने पर भी चुप रहते।
99
वैशाखनंदन
--------------
मूर्ख लेखक को
गधा या लेंड़ी वग़ैरा
कैसे कह सकते थे
पवित्र भाषा हिन्दी में
छोत भी तो नहीं कह सकते थे
चुगद पहले कहा जा चुका था
इसलिए गधा कहा।
100
दण्ड
------
मैंने जिन
लेखकों के रहस्य खोले
और उनके अतिसौंदर्यप्रसाधनयुक्त
मुखमंडल पर कालिख पोती
मुझे उनसे दण्ड मिलना
स्वाभाविक था
उन्होंने मुझे सर्वसम्मति से
जातिबहिष्कृत किया।
101
अपकीर्ति
------------
मेरे समय में
हिन्दी के समुद्र में मंथन हुआ
तो कुछ को पाँच टके का सिक्का
कुछ को हज़ार का कुछ को
लाख का आभूषण
कुछ को हीरे से सुसज्जित मुकुट
मेरे हिस्से में विलक्षण वस्तु आयी
अपकीर्ति का बहुमूल्य चमड़ा।
102
मिशन
--------
यह धंधे का समय है
क्या साहित्य क्या पत्रकारिता
क्या धर्म क्या राजनीति क्या शिक्षा
मिशन का नाम लेंगे तो सीधे
सूली पर चढ़ा दिए जाएंगे
जैसे मुझे साहित्य में
सूली पर चढ़ा दिया गया।
103
सरल रेखा
-------------
सरल रेखा
सबको अच्छी लगती है
चुपचाप मुंडी झुकाये चलते जाने में
कोई मुश्किल भी नहीं होती है
कोई दर्द नहीं कोई शर्म नहीं
जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलना
हिन्दी के लेखकों के लिए भी
सरल नहीं होता।
104
बड़का कबी
---------------
कुछ कबी तौ
बिल्कुल्लै मज़ेदार कबीता लिखि रहै हैं
गजबै करत हैं पुरान कोल्हू है बैल नवा
न कौनो चीरा-टाका न कौनो दर्द-सर्द
पेटौ ठीक से फूला नाहीं नौ महीना
एक मिनट में कबीता-फबीता होइगै
दाँत चियारि-चियारि खेलावत हैं
ज़मीदारन कै पैर दबावा टोटका आज़मावा
डिल्ली पहुँचि कै बड़का कबी होइगा।
105
भैंस
-----
साहित्य
कोई भैंस नहीं है
जिसे कोई इनाम की लाठी से
हाँक सकता है!
106
तू
--
तू किताब पढ़
मैं जिन्दगी को पढ़ता हूँ
तू ज्ञान के शिखर चूम
मैं गिरे हुए को उठाता हूँ
तू इनाम ले
मैं खुद को मिटाता हूँ
तू अकादमी जा
मैं उस पर थूकता हूँ
तू दिल्ली जा
मैं टिकट फाड़ता हूँ।
107
बच्चों की प्रतीक्षा
---------------------
जब
बच्चे बहुत छोटे थे
नौकरी पर जाते समय
हाथ पकड़कर झूल जाते थे
पीठ पर चढ़ जाते थे
पैरों से लिपट जाते थे
अब
मैं रिटायर हो गया हूं
बच्चे बाहर काम पर हैं
मेरे पैर मेरे कंधे मेरी बाहें सब
घर पर बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं।
108
कितने दिन रह गये हैं
-------------------------
होली में
कितने दिन रह गये हैं
पूछता हूं पत्नी से, कहती हैं
रोज एक ही बात पूछते हैं
चुप हो जाता हूं दूर से
चुपचाप कैलेंडर देखता हूं
मोबाइल में ढूंढता हूं
होली की तिथि दिन गिनता हूं
रिटायर हो गया हूं न, बच्चे आएंगे
तो फिर काम पर लग जाऊंगा।
109
बच्चे आ गये हैं
------------------
कोई चिड़िया पीछे से
सिर पर पंख फड़फड़ाती है
कोई तितली
चुपके से कंधे पर बैठ जाती है
कोई हिरन
सामने से कुलांचे भरता है
कोई शावक टीवी पर
धूप में बाघिन के मुंह चूमता है
कोई शख्स
दरवाजे की कुंडी खटखटाता है
कोई जहाज
हवाई अड्डे पर उतरता है
कोई पीछे से
मुझसे जोर से लिपट जाता है
हजार बातें हैं पता चल जाता है
बच्चे आ गये हैं।
110
देखना
--------
उस रात प्रीतिभोज में
उसके साथ एक बच्चा था
बड़ा प्यारा था
खरगोश की तरह
देखता था सबको
मुझे भी ।
और उसने भी मुझे देखा था
जैसे नहीं देखा था
मैंने देखा था।
111
उठा है मेरा हाथ
--------------------
मैं जहाँ हूँ
खड़ा हूँ अपनी जगह
उठा है मेरा हाथ ।
रुको पवन
मेरे हिस्से की हवा कहाँ है।
बताओ सूर्य
किसे दिया है मेरा प्रकाश ।
कहाँ हो वरुण
कब से प्यासी है मेरी आत्मा ।
सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने ।
112
उनका कोश
---------------
सबके काम आते थे
सबसे काम लेते थे
बड़े काम-काजी थे।
हर जगह थी उनकी पूछ ।
असल में, उनके कोश में अकरणीय कुछ था ही नहीं।
113
गौरैया
--------
इतने बड़े आसमान में
मेरी नन्ही गौरैया
जिसके हर हिस्से में
हजार इच्छाएँ
आसमान से बड़ी।
114
मेरा बेटा
-----------
मेरा बेटा
कंधे पर बैठा हुआ
भरता है किलकारियाँ
दिखाता है आसमान को
ठेंगा।
115
क्यों नहीं करते
------------------
इस पिद्दी को तो देखो
कितनी देर से कर रहा है
इतने बड़े देश के साथ
हँसी-ठट्ठा।
कहाँ हैं लोग
क्यों नहीं करते
इसका मुँह बंद।
116
हिंदी की चींटी
------------------
मेरा क्या
मैं हिंदी की चींटी
चले गये सब हिंदीपति
योद्धा बड़े-बड़े
कुछ अप्रिय कुछ मीठा लेकर
उस पथ पर
मैं चींटी हिंदी की मतवाली
क्यों छेड़े कोई मुझको
कोई हाथी कोई घोड़ा
चाहे कोई और।
117
एक भिण्डी
--------------
यह जो छूट गयी थी
थैले में अपने समूह से
अभी-अभी अच्छी-भली थी
अभी-अभी रूठ गयी थी
एक भिण्डी ही तो थी
और एक भिण्डी की आबरू भी क्या
मुँह फेरते ही मर गयी थी।
118
याद रहे पर
--------------
ये लो पहले हाथ
फिर काटो दोनों पैर
गर्दन काटो
बोटी-बोटी कर दो
मेरी देह।
कहीं फेंक दो
कहीं झोंक दो
याद रहे पर
लपट उठेगी ऊँची-ऊँची
हर हिस्से से।
119
प्रतिबंध
----------
बच्चे समझाते हैं, पिताजी
किसी भी प्रकार का संसार हो
चूतियों से भरा हुआ है
साहित्य का भी
आप ख़ून न जलाएँ
चाहें तो उनका मुँह न देखें जाने दें
उनकी मूर्खता के उत्पादन पर
प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं।
120
भगवान की ग़लती
-----------------------
भगवान
जब अच्छे और बुरे लोगों को
धरती पर भेज रहे थे तो उनसे
सिर्फ़ एक ग़लती हुई
दूध से धुले लोगों को
साहित्य में भेज दिया
और कीचड़ में सने लोगों को
राजनीति में
इस प्रकार भगवान से
एक ऐतिहासिक भूल हुई।
121
पत्रकार
----------
पत्रकार
जो किसी से नहीं डरता
साहित्य के परिसर में जाते ही
दोनों आँखें मूँद लेता है
और घुटनों के बल बैठ जाता है
फिर तो उसे साहित्य में सब
हरा-हरा दिखने लगता है।
122
लक्ष्मी ने कराया
-------------------
इक्कीसवीं सदी की हिन्दी
इतना बदल गयी थी कि
पूछिए मत
लोग सरस्वती की जगह
अवा की पूजा कर रहे थे
रहस्य यह कि यह सब
लक्ष्मी ने कराया।
123
हैं
--
हम चार जमादार
जल्दी-जल्दी हाथ चलायें
रोज़ सड़क बुहारें मैला ढोयें
काहे से कि हमारी नौकरी
पक्की है
हम कोई हिन्दी के राजा रानी
युवराज राजकुमारी थोड़े हैं
आज हैं कल नहीं हैं
हम जो हैं, हैं।
124
पहुँचे हुए लोग
------------------
जो लोग
हिन्दी की दिल्ली जाते हैं
उससे आगे कहाँ जाते होंगे
देश-विदेश में कहीं तो
पहुँचते होंगे
और जो दिल्ली में बस गये हैं
वे लोग कहाँ तक पहुँचे होंगे
वे लोग निश्चय ही निश्चय ही
बहुत पहुँचे हुए लोग होंगे।
125
सोच
------
बाक़ी दुनिया गोरी हो जाए
हिन्दी के लेखक का जीवन
काला का काला रह जाए
यह हिन्दी के लेखक की
सोच है और वह दुनिया को
बदल तो सकता है लेकिन
अपनी सोच नहीं।
126
दिलचस्पी
-------------
उनकी दिलचस्पी
उच्चकोटि की वैचारिक
बहस में थी
बहस करने वाले के
निम्नकोटि के जीवन में नहीं
वे हिन्दी के मार्क्सवादी थे।
127
मिलना
----------
जाकर मिलना
अच्छा नहीं लगता था
वे लोग यहीं आये
मिलकर अच्छा लगा।
128
पहुँचना
----------
बड़ी नौका में बैठकर
वे पहुँचे कितनी दूर
मैं तो डोंगी में बैठकर
पहुँच गया अपने गाँव।
129
लड़ाई
-------
हिन्दी के लिए
कोई लड़ाई लड़ी है
तुम्हारी महान दिल्ली के
नीले कुर्ते वाले हँसमुख भगवान ने
जाओ ससुरो
कीर्तन करो ढोल बजाओ
हारमोनियम पर उँगलियाँ नचाओ
लो लो चरणामृत लो।
130
जो वरिष्ठ हैं
--------------
जो वरिष्ठ हैं
उन्हें कुछ तो कहना चाहिए
यही कि छोटे ठीक नहीं कर रहे हो
हिन्दी में सबको गाली देते फिरते हो
किसी भी बड़े को उघार कर देते हो
और जो लिखते हो वह तो एकदम से
कविता हइये नहीं क्या करते हो
झट्ट से नया लेख लिखकर मुँह पर
दे मारना चाहिए कविता क्या है।
131
आगे से
---------
प्रतिरोध का नाटक
बहुत हुआ दम है तो साहित्य में
प्रतिरोध का बिगुल बजाओ
राजनीति में
पीछे से लड़ाई करने की जगह
साहित्य में आगे से लड़ाई करो।
132
ओ वरिष्ठो
------------
मेरे पास
न पालकी है न हाथी न घोड़ा
गधे भी सब तुम्हारे पास हैं
मेरे पास हिन्दी की एक
पुरानी-धुरानी पुरखों की छोड़ी
साइकिल है जिसपर
हुमचकर बैठता हूँ
और घंटी टुनटुनाते हुए निकल पड़ता हूँ
रात-बिरात ड्यूटी पर।
133
मिशन
--------
कविता क्या है
न धंधा है न प्रतिरोध की नौटंकी
मिशन है मिशन
कविता कबीर की लुकाठी है
जो फूँके घर नाम-इनाम का
चले हमारे साथ।
134
टिकाऊ
---------
जिनकी
कविता में
दिल्ली की छाप नहीं है
उनकी
कविता बिकाऊ नहीं
टिकाऊ है।
135
कमबख़्त
------------
अच्छी
कविताएँ वक़्त लेती हैं
अच्छे पाठकों तक पहुँचने
और दुश्मनों के दिलों में
घर बनाने में
तीस साल लगे
अब तो मेरे दुश्मन भी छिपकर
मेरी कविताएँ देखते हैं पढ़ते हैं
और कहते हैं कमबख़्त
लिखता ख़ूब है।
136
चर्चाबाज़
------------
कृति का सच
फटकार कर कहना
इस प्रशंसा-समय में विरल है
इधर नये चर्चाबाज़ आ गये हैं
औसत की भूरि-भूरि प्रशंसा
उनका साहित्यिक व्यवसाय है।
137
स्कूल
--------
जिस कवि को देखिए
बस देखते रह जाइए
कोई अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल का है
कोई दिल्ली के किसी स्कूल का
कोई भोपाल स्कूल का है
कोई किसी हेढ़ा स्कूल का
कोई किसी कान्वेंट स्कूल का है
कोई किसी प्राइमरी स्कूल का
138
कोहिनूर
----------
उस कवि को देखिए
क्या सिल्क का कुर्ता है
क्या जींस झाड़ा है
धोती वाले
नचनिया को देखिए ज़रा
हिन्दुस्तान का नक्शा बनाया है
मंच पर माइक से चिपक कर
बहुत से बहुत तेज़ रोशनी में
चमकता है कि जैसे कोहिनूर।
139
अभागा समय
------------------
किसी भी
कवि को देखिए
कैसा भागा जा रहा है
जहाँ-तहाँ जिस-तिस
आलोचक की दुकान पर
सोना मढ़ाने हीरा जड़ाने
कैसा अभागा समय है
कोई लोहे का कवि
बनना ही नहीं चाहता है।
140
जाना
-------
हिन्दी में कम मूर्खताएं नहीं हैं
मुहल्ला-स्तर का हिन्दी कवि
कीड़े-मकोड़े की तरह चुपचाप जाता है
किसी इनामी कवि की मृत्यु पर
कुत्ते-बिल्ली तक विलाप करते हैं
साला ढिढोरा पीटते हुए क्यों जाता है
पाठक या जिल्दसाज वगैरा की मौत का
किसी को पता तक नहीं चलता
कवि कहाँ मरता है मरता तो आदमी है
फिर आदमी की तरह क्यों नहीं जाता है।
141
हाँ
-----
सुबह-सुबह
अख़बार पढ़ते हुए
श्रीमती जी ने कहा-
शीर्षकवि जी का निधन हो गया है
मैंने कहा - हाँ
उन्होंने पूछा - अब क्या होगा
मैंने फिर कहा - हां, सब अनाथ हो गये।
142
शिखर कवि
--------------
उस कवि के यहाँ भयानक शब्द भी
मुस्कराते हुए सलज्ज आता है
शायद इसीलिए वह अपने समय में
अपने कुल में शिखर कवि कहलाता है।
143
वास्तव में गुरु
------------------
गुरु
वास्तव में गुरु थे
वाह क्या प्रभामंडल था
क्या नहीं था गुरु के पास
गौरवर्ण चंदनयुक्त ललाट सुदीर्घ नेत्र
मंत्रमुग्ध करने वाली वाणी से
शब्द-पुष्प और आशीष की वर्षा
गुरुमंत्र प्रवचन और साधना के लिए
उनके पास साफ़-सुथरी चटाई नहीं थी
आँख मूँदकर गुहथरी में भी बैठ जाते थे।
144
पूँछ और शिखा
--------------------
मैं गुरु का लांछित शिष्य था
उनकी दृष्टि में गुरुद्रोही भी था
कुत्ता भी था मेरे पास पूँछ भी थी
मैं हिन्दी की जिस कुर्सी स्टूल
चटाई चाहे ज़मीन पर बैठता था
पहले उस जगह को अपनी पूँछ से
दो-तीन बार साफ़ कर लेता था
जितनी बड़ी मेरे पास पूँछ थी
उतनी ही बड़ी गुरु के पास शिखा थी
शिखा पाण्डित्य-प्रदर्शन की वस्तु थी।
145
गुरु का शाप
---------------
वास्तविक पिता की जगह
किसी अन्य को वास्तविक पिता
बनाकर लेखक नहीं बना हूँ
यही कहा था
गुरु ने मुझे अपनी पादुका से
जीभर पीटा और यह कहते हुए
आश्रम से बाहर फेंक दिया-
नीच तूने साहित्य के
पवित्र आश्रम को भ्रष्ट कर दिया
जा तुझे शाप देता हूँ यश न मिले।
146
हिंस्रपशु
------------
इन्हें पीटो खूब पीटो
हंटर से पीटो कविता की देवी
चाहे चूतड़ पर भाला घोंप दो
शायद तुम्हारे प्रहार से
हिन्दी के हिंस्रपशु मनुष्य बन सकें।
147
पिपिहरी
-----------
क्या यह समय सिर्फ़
सुंदर और कोमल कविताओं के लिए है
या परमसुंदरी कवि बनने के लिए है
या कवि का काम चकित करना रह गया है
बिगुल बजाने की जगह ये कवि
कैसी पिपिहरी बजा रहे हैं।
148
ख़राब बात
--------------
हिन्दू होना चाहे
मुसलमान होना अच्छी बात है
अलबत्ता ज़्यादा हिन्दू होना
चाहे ज्यादा मुसलमान होना
ख़राब बात है।
149
रिश्ता
--------
जो ज़रा-सा भी बहादुर नहीं
हिन्दी में वह मेरा दोस्त नहीं
जो तनिक भी ईमानवाला नहीं
हरगिज़-हरगिज़ मेरा सगावाला नहीं
और जो लँगोट का ही पक्का नहीं
वह आगे से पीछे से कहीं से भी
कभी भी क़तई मेरा दुश्मन नहीं
रिश्ते में कोई ग़ैर-बराबरी नहीं।
150
मान्यता
----------
कोई स्कूल हूँ कारखाना हूँ
कंकड़-पत्थर हूँ बंजर भूमि हूँ
काठ का कवि हूँ आदमी नहीं हूँ
कविता का कैसा कलिकाल है
कवि न होऊँ उत्पाद कहाऊँ
जिसे आलोचना की सरकार से
मान्यता चाहिए ही चाहिए।
151
भीष्म
-------
क्षमा गुरु भीष्म क्षमा आख़िर
आपका दुर्योधन नहीं बन पाया
दु:शासन नहीं बन पाया
आपको ख़ुश नहीं कर पाया
हिन्दी का महाभारत अलग है
इस अर्जुन को आपका आशीर्वाद
नहीं चाहिए।
152
लघु गुरु
----------
लघु को गुरु होने में
पूरा जीवन लग जाता है
गुरु को लघु होने में एक पल
हिन्दी की दुनिया भी ऐसी ही है।
153
जीना
------
कुछ लोग लोमड़ी की तरह
जीते हैं
कुछ शाकाहारी गिलहरी की तरह
कुछ गधे की तरह ज़माने भर की
गंद लादे हुए जीते है
कुछ शेर की तरह अकड़ के साथ
कभी हार न मानने के लिए जीते हैं
कुछ लोग पत्थर-पानी की तरह
कुछ ज़हरीली गैस की तरह जीते हैं
तो कुछ ऑक्सीजन की तरह जीते हैं।
154
घमंड
-------
एक शेर के
दो चूहों को क्रमशः
अपना गॉडफादर बनाने से
इन्कार करने की कार्रवाई को
हिन्दी के तेरह प्रोफ़ेसरों ने
न सिर्फ़ घमंड कहा
बाक़ायदा तेरह सौ लेखकों को
इसे घमंड समझने के लिए
भ्रमित भी किया।
155
साबुन
--------
फ़र्ज़ी प्रतिरोध फ़र्ज़ी नायक
फ़र्ज़ी लेखक की धुलाई के लिए
एक टिकिया गणेशछाप साबुन
काफ़ी है काफ़ी है काफ़ी है
बस आप बट्टी का सारा गाझ
आँख नाक कान में घुसेड़ दें
आत्मा की सारी मैल मिनटों में
बाहर आ जाएगी।
156
तोड़
------
मुक्तिबोध के मुहावरे में कहूँ तो
हिन्दी कविता के परिसर में
जो तुम्हारे लिए विष है
मेरे लिए वही अन्न है
तुम्हारी दृष्टि में मेरी कविताएँ
विष हैं विष हैं तीव्रविष हैं
यह सिर्फ़ तुम्हारे लिए विष हैं
क्योंकि कि ये तुम्हारी आत्मा में
संचित विष का तोड़ हैं।
157
ऐतिहासिक विदाई
----------------------
राजनीति और साहित्य से
आदर्शों की विदाई कब शुरू हुई
और पूरी कब हुई पूरी प्रक्रिया
कुछ याद है आपको आचार्यप्रवर
विचारप्रमुख साहित्य-राजन!
158
नस्लें
------
महान विचार भी
आदर्शों की शवयात्रा में
मूर्च्छित हो जाते हैं
वे भी समय की आग में
ख़ाक हो गये तो सदियाँ
ढूँढती रह जाएंगी उन्हें
हमारी नस्लें बचेंगी कैसे।
159
भय
-----
इतना भय मृत्युदण्ड में भी न होगा
जितना आज हिन्दी के लेखकों में है
मर्जी का लिखना बोलना छींकना तो दूर
धारा के विरुद्ध ये लघुशंका भी
नहीं कर सकते हैं
हैरानी की बात यह
कि जनमुक्ति और विचार का भार
इस देश में इन्हीं के पास है।
160
बेमेल
-------
मेरे राजनीतिक
और साहित्यिक विचार
अपने समय के लेखकों से
मेल नहीं खाते हैं उन्हें भय है
कि वे विचार की जगह
विवेक चुनेंगे तो उनकी
कविताएँ मर जाएंगी।
161
जी लिया
-----------
एक
लंबा सार्थक संघर्षपूर्ण
साहित्यिक जीवन जी लिया है
कविता और आलोचना में
वह सब कर दिया है जिसे
मैं कर सकता था।
162
बाँगड़ू
--------
ये हिन्दी वाले बिना कुछ लिखे
दो कौड़ी का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान
कहाँ से झटक लाते हैं
कभी मारीशस से कभी नेपाल से
कैसे-कैसे बाँगड़ू फैले हैं दुनिया में।
163
गुमनाम
----------
जितना जाना गया
उतना भी नहीं होना चाहिए था
अच्छा होता कि मैं गुमनाम रहता
कोई मुझे जानता पहचानता नहीं
मेरा टूटा-फूटा जो भी काम है
बाद में काम आने के लिए
किसी कोने में पड़ा रहता।
164
चाँद
------
हताशा के
आकाश में
आशा का चाँद
फिर निकलता है।
165
सूर्य
-----
अस्त होना है
तो हो जाओ
जानता हूँ कल
फिर उगोगे।
166
डंठल
-------
डंठल
जब तक
सूखेगा नहीं
फूल
खिलते रहेंगे
खिलते रहेंगे।
167
संकल्प
---------
बूढ़ी हड्डियों में
जब तक जान है
हिन्दी के काम
आते रहेंगे।
168
जन-संग्राम
---------------
यह लुहार यह बूढ़ा बढ़ई
जब और बूढ़ा हो जाएगा
सेहत की दिक्कतें और बढ़ जाएंगी
तब भी हिन्दी - दुर्दशा न देखी जाएगी
यह लड़ाई कभी रुकेगी नहीं
हिन्दी के लिए मर-मिटने वाले पागल
और आएंगे अपनी बंदूकें लेकर
नाम-इनाम और मुजरे की नहीं
हिन्दी को जन-संग्राम की भाषा बनाएंगे।
169
नाचना
---------
न अकादमी में नाचा
न कभी भारत भवन में
मुझे नाचना ही नहीं आता था
देवी सरस्वती ने भी कभी
न नाचने के लिए कहा
न नाचना सिखाया।
170
सुख
------
लेखक
होकर भी
देख लिया
लेकिन
मनुष्य होने का
सुख दुर्लभ है।
171
सत्य
-------
अपने समय में
मिथ्या है मिथ्या है
लेखक की प्रसिद्ध
सत्य है
लेखक का संघर्ष।
172
सीमा
-------
मुझे
अपने समय के
शेर जँचे नहीं दोहे हें हें हें
इसलिए हुईं छोटी कविताएँ
इसे मेरी सीमा समझें श्रीमान।
173
उपजीवी कविताएँ
-----------------------
शुरू में ही हिन्दी के महाभारत में
इस क़दर फँस गया कि इतिहास
और मिथकों में मैं गया ही नहीं
वे अघाये और अपने समय की सीधी लड़ाई से भागे हुए लोग थे
जो उस तरफ़ गये
एक से एक उपजीवी कविताएँ लिखीं
युद्धों के प्रभावशाली वर्णन किए
यश द्रव्य मुकुट सब हासिल किया
बस जीवन में कोई लड़ाई नहीं की।
174
पुकार
--------
कोई-कोई पुकार
संसार की विरल पुकार होती है
कोई महागायक भी अपने कंठ में
उसे उतार नहीं सकता है
जैसे किसी बहुत छोटे बच्चे की
अपनी आत्मा की आवाज़ में
सीने से चिपककर की गयी
कोई अद्भुत धीमी पुकार -
नाना!
175
चाँद की छत
---------------
बहुत छोटे बच्चों के लिए
दादा-दादी नाना नानी की गोदी
चाँद की छत है जहाँ से वे
पूरी दुनिया देख लेते हैं
पा लेते हैं।
176
बिस्कुट की प्रतीक्षा
------------------------
बहुत छोटे बच्चे
बिस्कुट कभी अकेले नहीं खाते
मेरी अद्विका पहले नाना के मुँह में
देती है बिस्कुट फिर थोड़ा-सा
अपने नन्हें दाँतो से काटती है
उसके बाद फिर मेरे मुँह में देती है
कई बार एक ही बिस्कुट
हमारे दाँतों के बीच एक साथ
काटे जाने की प्रतीक्षा में होता है।
177
नाना उड़
-----------
रोज़ खेलती है मेरी बच्ची
नाना उड़ नाना उड़ नाना उड़
कभी सममुच का उड़ जाऊँगा
तो क्या करेगी मेरी बच्ची मेरी जान
कहाँ-कहाँ ढूँढेगी भला मुझे
पर्दे के पीछे कंबल में तकिए के नीचे
लॉन में फूलों पर बैठी तितलियों से
पूछेगी तुमने मेरे नाना को देखा है
और सुबक-सुबककर रोयेगी
फिर कहाँ मिल पाऊँगा उड़ पाऊँगा।
178
आम
------
जब इसे लगाया था
सोचा था जल्दी फल आ जाएंगे
बच्चे खाएंगे बच्चों के बच्चे खाएंगे
बच्चे आते हैं खाते हैं मैं नहीं खाता
फिर भी जुड़ा जाती है
मेरी आत्मा।
179
मेरे बच्चो
------------
मेरे बच्चो
मुझे ख़ूब-ख़ूब लिखना था
अश्रु स्वेद और असीम स्मित
मुझे अंगारा लिखने के लिए
हिन्दी के हरामज़ादों ने
विवश किया।
180
कोड़े
--------
मैं भी कविता की उर्वर धरा पर
फूल और फलदार वृक्ष लगा सकता था
लेकिन मेरे समय के लेखकों को
न मेरा फूल पच रहा था न फल
ऐसे में मैंने अपने समय के
साहित्य का सच
फटकारकर कहा और कोड़े बरसाये।
181
सलाम-वलाम
------------------
मैंने
शुरू में ही यह तय कर लिया था
उन लोगों को सलाम तो करूँगा
लेकिन कभी झुककर नहीं करूँगा
और यह भी कि उन लोगों के पास
मैं नहीं जाऊँगा मेरा नाम जाएगा
मेरा कारनामा जाएगा
इसलिए आज तक
उस शहर में उन लोगों के पास
सलाम-वलाम करने गया ही नहीं।
182
कबीर का कुत्ता
-------------------
बहुत कम पढ़ना हुआ
ढाई आखर से आगे गया ही नहीं
अपने समय में कभी सिर्फ़
दाएँ बाजू की गंदगी को नहीं देखा
एकतरफ़ा जुलूस नहीं निकाला
बाएँ बाजू की टूटी-फूटी हड्डियों पर भी
थोड़ा-बहुत कच्चा प्लास्टर लगाया
कबीर का कुत्ता और क्या कर पाता
कबीर होते तो चैले से दागकर
ठीक कर देते।
183
डर
----
वे राजनीति में
गैंगस्टर के ख़िलाफ़ हैं
वे धर्म में
गैंगस्टर के ख़िलाफ़ हैं
वे साहित्य में
गैंगस्टर के ख़िलाफ़ नहीं हैं
हिन्दी में गैंग और गैंगस्टर के बिना
वे ज़िंदा क्यों नहीं रह सकते हैं
किस मिट्टी के बने हैं
किस गधे का डर है।
184
कालिदास
------------
कवि ने अपनी दोनों ज़ेब में
ठूँसकर रख लिया है रुपया
और तमगा
फेंक दिया है चिंदी-चिंदी करके
प्रेम और प्राणोत्सर्ग की कहानियाँ
वह इन दिनों प्रेम से भी ज़्यादा
बिकने वाली चीज़ें लिख रहा है
अपने समय का
ज़रूरी हिन्दी कवि नहीं
कालिदास बन रहा है।
185
संग्रह
-------
होता यही है
कि अच्छी कविताएँ
अपना घर ख़ुद बना लेती हैं
संग्रह छपे न छपे।
186
मौलिक
----------
कविता में
मौलिक हुए बिना
सामने बिखरे जीवन का
मूल्यवान
समेटा नहीं जा सकता।
187
कुछ कवि
-------------
जिसे प्रेम करते हैं
सीधे उसके हृदय में उतर जाते हैं
फिर कविता में किसी
प्रेमिका के हृदय तक पहुँचने का पथ
कुछ कवि कंटकाकीर्ण क्यों रखते हैं।
188
आसान सवाल
-------------------
कविता गणित नहीं है
ऐसा होता तो सारे गणितज्ञ
महाकवि होते वैसे गणित में भी
तो आसान सवाल पूछे जाते हैं
फिर कविता के गणित में
ऐसा क्यों नहीं।
189
होंगे बड़े कवि
-----------------
पाठक को विवश न करें कि वह
कविता के मर्म तक पहुंचने के लिए
बहुमूल्य और हज़ार पहरे में रखे
हीरे को चुराने जैसी योजना बनाये
होंगे बड़े कवि अपने घर के होंगे
मेरे जैसे साधारण पाठक के
काम के नहीं हैं।
190
बूढ़े
-----
हम बूढ़े
अपने बच्चों के
बच्चों की चिंता करते हैं
नाती-नातिन पोती-पोते के लिए
जान देते हैं
और ये परम स्वार्थी बूढ़े लेखक
नये और बाद में पैदा होने वाले
पाठकों की रत्तीभर परवाह
नहीं करते हैं।
191
साथ
-------
व्यभिचारियों के साथ रहकर
जैसे साधु नहीं बन सकते हैं
उसी तरह
बुरे संपादकों के साथ रहकर
अच्छा लेखक नहीं हो सकते हैं।
192
ताज़ा ख़बर
---------------
आज की
ताज़ा ख़बर
कुछ युवा संपादकों ने
एक सौ बानबे बुज़ुर्ग लेखकों को
बंधक बना लिया है
और समाचार लिखे जाने तक
बुज़ुर्ग लेखक संपादकों के हाते में
उनके साथ हँसी-ठट्ठा कर रहे थे।
193
मेरी लड़ाई
--------------
रहूँ
न रहूँ
मेरी लड़ाई
रह जाएगी।
194
ड्यूटी
-------
क्या नहीं किया
इसे ठोका उसे ठोका
जिनके लिए ठोका
उन्होंने कभी मुझे
पूछा तक नहीं
फिर भी मैंने
अपनी ड्यूटी की।
195
खिलाड़ी
----------
उन्होंने साहित्य को
खेल का मैदान बना लिया था
फुटबॉल क्रिकेट वग़ैरा खेलते रहते थे
उस मैदान में कभी कोई
साहित्य-सत्ता विरोधी जनसभा
धरना प्रदर्शन करते ही नहीं थे
राज़ की बात यह ये कि वे मूलतः
हिन्दी के शतरंज के खिलाड़ी थे
मैंने उन लोगों के मैदान में जाना
छोड़ दिया तो छोड़ ही दिया।
196
भारतीय वृद्ध
----------------
पहले के जीवन में
पत्नी का जीवन मिल गया
जैसे-जैसे बच्चे हुए बड़े हुए
उनके बच्चे हुए मेरा जीवन
उनका हुआ मैं अपना नहीं
उनका जीवन जी रहा हूँ
एक साधारण भारतीय
वृद्ध का यही जीवन है
उसका अपना जीवन
कहाँ है।
197
ज्ञान की दुकान
-------------------
पान की दुकान की तरह
जगह-जगह ज्ञान की दुकान थी
छोटी से छोटी दुकान पर भी
सौ ख़रीदार मौज़ूद थे
हर जगह पान की पीक की तरह
ज्ञान की पीक थी
हिन्दी पट्टी में ईमान की
कोई दुकान ही नहीं थी
यहाँ तक कि फुटपाथ पर भी
कोई उसे पूछने वाला नहीं था।
198
ईमान का ठिकाना
----------------------
मैंने ज्ञान से कहा
कुछ समय रुक क्यों नहीं जाते
अभी मेरा दिमाग़ ख़ाली नहीं है
उसमें कोई और रहता है
शायद इस जनम में ख़ाली न हो
क्या हुआ अगले जनम में आना
तुम्हें भी दूँगा मौक़ा
इस जनम में मेरा दिमाग़
ज़मानेभर से उपेक्षित बेचारे
ईमान का ठिकाना है।
199
बधाई
--------
पुरस्कार पर
बधाई देने वालों को
ज़बरदस्त बधाई की
ज़रूरत है।
200
कवि मुँहबाय
---------------
कवि मुँहबाय
थैलीशाह कवि के शामियाने में
सिंगार-पटार करके नाचने-गाने
पहुँच जाय
जैसे आय
माल्या-मोदी के
हिन्दी के मुँहबाय कवियों के
अच्छे दिन आय!
201
अच्छे विचार
----------------
हे अच्छे विचार
कुछ तो कम है
नहीं तो यह अँधेरा
छँटता कैसे नहीं!
लालटेन की बत्ती
दोमुँही तो नहीं है
चिमनी के भीतर
कैसी कालिख है!
202
दुम
-----
कुत्ते की दुम तो
पहले भी थी लेकिन
मुहावरे के रूप में
इसका चलन
हिन्दी के लेखकों में
दुम निकलने के बाद
हुआ होगा!
203
वीरता
--------
वीरता को
स्वीकार करना
वीरता का ही
एक प्रकार है।
204
चलता हुआ
-------------
मैं वहाँ
कृत्रिम प्रकाश में
पालथी मारकर
बैठा हुआ नहीं मिलूँगा
दूर अँधेरे में किसी उम्मीद में
चलता चला जाता हुआ
मिलूँगा।
205
आज
------
आज
हिन्दी की दुनिया
दुनिया में सबसे बुरी
दुनिया है।
206
रोटी वाले हाथ
------------------
रोटी बनाना
कविता बनाने से बड़ा काम है
कविता नहीं जिस हाथ से सुंदर
रोटी बनती है उसे चूमना चाहिए।
207
मूर्खता का इंजन
---------------------
आज साहित्य की रेलगाड़ी में
तर्क का पहिया नहीं लगता है
उसमें इंजन तक लोहे का नहीं
शुद्ध मूर्खता का लगता है
किसी भी लेखक से पूछो कहेगा
साहित्य में सब अच्छा है।
208
मौसेरे भाई
--------------
मास्कवादी
या मार्क्सवादी
क्या लिखना और बोलना
ज़्यादा सही है
ऐसा तो नहीं कि हिन्दी में
आज की तारीख़ में दोनों
मौसेरे भाई हों।
209
सुंदर
------
हर कोई
अपने हिसाब से
सजता-सँवरता है
हिन्दी में एक मैं हूँ
जिसे सुंदर दिखने का
कोई शौक़ ही नहीं है
कितनी अजीब बात है।
210
जूता
------
जूते पर हज़ारों
कविताएँ लिखी गयीं हैं
हिन्दी में उन कवियों ने लिखीं
जिनके पास अपना जूता था ही नहीं
इसीलिए मैंने कविता और आलोचना में
हिन्दी के हरामज़ादों पर अपना जूता
फेंककर मारने का काम किया।
211
लौंडे
------
जल में
नाम था दूसरे संग्रह का
उन्हीं दिनों हिन्दी विभाग में
हाथ मिलाते हुए मुझसे बोले
इलाहाबाद के सत्यप्रकाश -
जल में रहकर मगर से बैर!
उनके लौंडे और उनके भी लौंडे
सुना है दिल्ली में चौड़ा होकर
चलते हैं।
212
फुटनोट
----------
हिन्दी के
फुटनोटी आलोचक
प्रायः हिन्दी के फुटपाथ पर
नक़ली नोट छापते मिले
जाने दिया पूछता तो क्या बताते
रामचंद्र शुक्ल की आलोचना की
इमारत में फुटनोट की कुल
कितनी ईंटें हैं।
213
बीचधारा
-----------
बीचधारा में जो डूबता है
बचता नहीं डूब ही जाता है
दुनिया में कहीं भी देख लो
हिन्दी की नदी तो सामने है
देख लो।
214
वीर
-----
किसी पेड़ से नहीं टपकते
आलोचक के मुख से नहीं
माँ की कोख से पैदा होते हैं
वीरता मठों में बँटती भी नहीं
इसीलिए हिन्दी की दुनिया में
वीर बहुत कम पैदा होते हैं।
215
चीकट लेखक
------------------
सब
कोरस गाते थे
सब संगतकार थे
जीवन में नायक जैसा
कुछ भी नहीं था फिर भी
प्रतिरोध की टोपी पहनकर
बच्चों के घर-घरौंदे की तरह
प्रतिरोध-प्रतिरोध खेलते थे
असल में हिन्दी के चीकट
लेखक थे।
216
सिपाही
---------
सिपाही
एक होता है लेकिन
उसके सीने पर ज़ख़्म
हज़ार होते हैं।
217
गोबर गणेशो
----------------
पुरस्कार के पहले भी
हिन्दी साहित्य था
पुरस्कार न रहने पर भी
हिन्दी साहित्य रहेगा
मरेगा नहीं गोबर गणेशो
यह बात समझते क्यों नहीं
बालविवाह सतीप्रथा ख़त्म हुई
रीतिकाल भी यह भी होगा।
218
गोरखपुर
---------
चाँदी के
वरक़ में लिपटा हुआ
एक आम-सा शहर है
गोरखपुर।
219
अब यहाँ
---------
न गोरख मिलेंगे न कबीर
न निराला न मुक्तिबोध
न नेहरू न लोहिया
ज़ाहिर है
अब यहाँ मिलेंगे तो
यही सब टूटे-फूटे लोग।
220
यक़ीनन
----------
ईमान की आवाज़ से
सिर्फ़ डपटभर दो तो
यक़ीनन एक अच्छी
कविता हो जाएगी।
221
कायर
--------
हिन्दी का लेखक
इतना कायर हो सकता है
मैंने तो इन्हें ख़ूब
उलट-पलट कर देखा है
लेकिन आने वाली पीढ़ियाँ
कभी यक़ीन नहीं करेंगी।
222
ये
---
ये राजनेताओं को
ख़ूब बुरा-भला कह सकते थे
हिन्दी के मठाधीशों के सामने
झुक जाते थे लेट जाते थे।
223
आईना
-------
यहाँ
बड़े-बड़े फ़र्जी ज्ञान पेलो
कविताओं के बड़े-बड़े महल बनाओ
ख़बरदार छोटे से छोटा
आईना भूलकर भी मत बनाना
जिसमें लोगों को उनकी सूरत दिखे
जैसा कि आमतौर पर होता है
ज़रा-सा भी कमज़ोर हुए
तो मार दिए जाओगे।
224
मैंने तो
-------
ज़रूर आपने
कविताएँ लिखी होंगी
मैंने तो अपने वक़्त का
आईना बनाया है।
225
टूटा-फूटा
----------
मैं लेखक नहीं
अपने वक़्त का टूटा-फूटा
आईना हूँ
इतना भी
टूटा-फूटा नहीं हूँ जिसमें
आप ख़ुद को देख न सकें।
226
जगह
-------
मेरी जगह कोई नहीं ले सकता है
आप चाहें तो आपकी जगह भी
कोई नहीं ले सकता है
इसके लिए आपको मुझसे
दोस्ती करनी होगी।
227
उन्होंने
--------
चलो माना मैंने
कुछ किया ही नहीं
सब उन्होंने किया
मगर किया क्या।
228
लाउडस्पीकर
---------------
वे सब अक्सर
कहते हैं मुझसे हटाओ
हटाओ हटाओ अपना
लाउडस्पीकर हटाओ।
229
मत दागना
-----------
ये हिन्दी का नहीं
कांग्रेस, सपा, बसपा, माकपा, भाकपा
वग़ैरा का काम कर रहे हैं
हे बाबा कबीर इनके चूतड़ पर
जलते हुए चैले से मत दागना
ये जानते ही नहीं कि हिन्दी का काम
राहुल अखिलेश योगी वग़ैरा नहीं करेंगे
ओ हिन्दी के वैशाखनंदनो हम हैं हम
जो लड़ेंगे अंत तक हिंदी की लड़ाई।
230
कविता का घर
---------------
फाउंडेशन बाबा ने
बुलडोज़र की पीठपर
हाथ रख दिया है
देर किस बात की
जल्दी करो ढहाओ
कविता का घर
बाबा
ख़ुश होगा पैसा देगा
टॉफी देगा माइक देगा।
231
नक़ली
---------
लेखक है
अपनी लड़ाई नहीं लड़ेगा
कमबख़्त
नक़ली लड़ाई लड़ेगा।
232
प्रदर्शन
---------
लेखक लोग
रोज़ अपनी नयी कमीज़
लहराते हैं दिखाते हैं
मेरे पास तो सिर्फ़
एक लाल लँगोट है शीलवश
उसे दिखा नहीं सकता।
233
पैदल
-------
उस लेखक के पास
जहाज है हेलीकॉप्टर है
और उसके पास रेलगाड़ी
और उसके पास कार
उसके पास स्कूटर है
उसके पास साईकिल
लेकिन मैं तो पैदल हूँ।
234
सीकरी
---------
कितनी
बदल गयी है
सीकरी
ये लो
कुंभनदास को
नहीं जानती।
235
ख़ैर नहीं
-----------
जब सारे बेईमान
ईमानदारों की भाषा में
बात करने लगें
तो समझ लो
कि हिन्दी की बिल्कुल
ख़ैर नहीं।
236
वापसी
---------
आप किसी शहर से
जहाज रेल बस वग़ैरा से
हज़ार बार लौट सकते हैं
साहित्य की दिल्ली से
एक बार भी लौट नहीं सकते हैं
दिल्ली सबसे पहले लेखक के
पैर काटती है, फिर गर्दन
अंत में आत्मा को कुचल देती है
इस तरह वापसी के सारे रास्ते
बंद कर देती है।
237
राख में
---------
समय की राख में आग
तब तक दबी रहती है जब तक
उसे कुरेदकर दहकाने वाले बच्चे
आ नहीं जाते।
238
चिड़ियाघर
--------------
यह
कोई शहर है
या
हिंदी का
चिड़ियाघर।
239
फ़ौजी कवि
---------------
लड़ाई भी
और लिखाई भी
सिंगल पसली के
बंदे किया कैसे
क्या नाम है इस
फ़ौजी कवि का।
240
ग़ज़ब
-------
ये लो
साहस की बात
कायर करता है
अकेलेपन पर भाषण
पालकी ढोने वाला लेखक
देता है।
241
सीढ़ी
-------
सातवें माले पर
कोई लेखक कूदकर
नहीं चढ़ सकता
सीढ़ी की ज़रूरत
पड़ेगी पड़ेगी
क्यों नहीं पड़ेगी।
242
चरणस्पर्शी कवि
---------------------
वह कवि पहले
मेरा चरणस्पर्श करता था
मैं सम्मानपूर्वक नमस्कार
कहता था
अब वह बच्चों के पैर छूता है
ज़रूर वे आशीष देते होंगे
चाचा जी प्रणाम हरगिज़
नहीं कहते होंगे।
243
मेरे बारे में
-------------
जब जाने लगूँगा मेरे दुश्मन
मेरे बारे में इतना तो कहेंगे
चाहे मुँह घुमाकर धीरे से कहें
कहे बिना रह नहीं पाएंगे-
पागल कवि था।
244
वजह
--------
चतुर कवियो
आसपास पता करो
ख़ुद से दस बार पूछो
अपने समय का
पागल कवि होना
कोई क्यों चाहेगा
कोई तो वजह होगी।
245
इत्तिला
---------
आम लेखकों को
ज़रूरी इत्तिला दी जाती है
मठ की गद्दी पर कूदकर
उनके पोते बैठ गये हैं।
246
महान कविता
----------------
संपादक-प्रकाशक-आलोचक
समझते हैं कि महान कविता की
पूँछ पकड़कर ही महान कविता
लिखी जाती है
इन्हें माफ़ करना पाठको
ये नहीं जानते कि अपने समय के
राक्षसों के तलुवे चाटकर नहीं
टेंटुआ पकड़कर महान कविता
लिखी जाती है।
247
ननिहाल
---------
बच्चे
जब वापस लौट जाते हैं
अपने-अपने नीड़ों में तो
इतने बड़े आकाश के नीचे
ननिहाल बेचारा कितना
गुमसुम उदास और अकेला
हो जाता है।
248
महाराज
----------
हिन्दू
जीत गया
हिन्दी
हार गयी।
249
मनुष्य
-------
राजपाट धरा रह जाएगा
सारा विज्ञान और विचार
किसी काम नहीं आएगा
दुनियाभर के धर्माचार्यों
दार्शनिकों - लेखकों से
कुछ भी नहीं हो पाएगा
जब मनुष्य के भीतर का
मनुष्य ही मर जाएगा।
250
सीवर
-------
इस
ज़िन्दगी में
हिंदी के सीवर में
फँस गया
बाहर की ज़िन्दगी
देखी ही नहीं।
251
किरकिरी
------------
मैं अपने समय के
साहित्य के आसमान में
चमकता हुआ सितारा नहीं हूँ
मैं तो बस कवियों आलोचकों
और संपादकों की आँख की
किरकिरी हूँ।
252
गाय
------
हिंदी का कवि
अल्ला मियाँ की नहीं
संपादक और आलोचक की
गाय है।
253
अब वही
----------
जो किसी
संपादक और आलोचक पर
ग़ुस्सा नहीं होते अब वही
कवि होते हैं।
254
महत्वपूर्ण
------------
जिसके
पुट्ठे पर किसी
मठ की छाप है
वही अपने समय का
महत्वपूर्ण कवि है।
255
साठ
------
साठ
पार करने के बाद
कोई कवि न अपनी
चाल बदल सकता है
न चाल-चलन।
256
कोई कुछ
------------
मैंने
साहित्य में
कहाँ-कहाँ नीचता की
किस-किस दरबार में नाचा
कितने समझौते किए
कितने गॉडफ़ादर बनाये
आख़रि कोई कुछ
बताता क्यों नहीं।
257
साहस
--------
हृदय में
साहस नहीं है
तो उसमें और बच्चों के
खिलौने में कोई फ़र्क़ नहीं।
258
सुखी लेखक
----------------
जिन्हें
मुक्तिबोध की तरह
ज़जीरों में बँधे
ईमान की फ़िक्र नहीं
कितने सुखी हैं
ऐसे लेखक।
259
टिकट
--------
ऊपर
साहित्य के स्वर्ग में
जाने के लिए कोई टिकट
दिखाना पड़ता है क्या
कहाँ मिलता है!
260
भाग जाएंगे
----------------
बहुत कमज़ोर हैं
हिन्दी के लेखक
आईना दिखाओगे
तो भाग जाएंगे।
261
टेढ़ा
------
सोचता हूँ
उन लोगों की आँख
दुरुस्त कर दूँ
जिन्हें
मेरा मुँह अक्सर
टेढ़ा दिखता है।
262
चुप्पी
-------
अब तो कोई
मुझ पर हँसता नहीं
पिद्दी और गोबर गणेश भी
नहीं कहता है
सब मुझे देखते ही
एक चुप हज़ार चुप हो जाते हैं
ज़्यादातर तो पीछे की ओर
भाग जाते हैं।
263
अपनी शक़्ल
-----------------
ओह
हद दर्ज़े का बदतमीज़ लेखक है
कहता है कि इतना लिख जाऊँगा
कि मेरे समकालीन लेखको सालो
उसमें अपनी शक़्ल देख-देखकर
भौंकोगे।
264
धावक
---------
ये धावक
हिन्दी के लेखक हैं
बहुत तेज़ दौड़ रहे हैं
इन्हें पता नहीं है कि आगे
किसकी दीवार है।
265
बर्छी
------
मेरी
एक-एक कविताएँ
बेईमान लेखकों के दिल में
बर्छी की तरह
चुभेंगी।
266
मोढ़ा
-------
मेरा मोढ़ा
मुझे नहीं लौटाया तो
बेईमान लेखको उसके पाये तोड़कर
तुम्हारी जींस के पिछले पॉकेट में
डाल दूँगा।
267
शरीफ़ लेखक
------------------
बहुत
शरीफ़ लेखक हैं
शायद मेरे शहर के हैं
शायद आपके शहर के हैं
अभी-अभी किसी अन्य को
अपना पिता बनाकर
लौट रहे हैं।
268
मेरा प्रिय
-----------
जो मेरा प्रिय हो
समय को जानता हो
थोड़ा-सा ईमान हो
लिखने का शऊर हो
मशहूर हो न हो।
269
आलोचक-संपादक
-----------------------
आरबीआई ने बताया
कितने प्रतिशत नक़ली नोट
बाज़ार में हैं
आलोचक-संपादक
क्या बताएँ वे तो हिन्दी में पूरा
साहित्य ही नक़ली चला रहे हैं।
270
बेचारा मौलिक
-------------------
मौलिक को देखते ही
उस पर जीभर थूकेगा
नहीं मिटा तो उसे
जूतों से पीटेगा
फिर भी बचा रह गया तो
बेचारे मौलिक के ख़ून से
हिंदी का लेखक अपने हाथ
रंगेगा
फिर उसी हाथ से
किताब लिखेगा।
271
क़ीमत
---------
बाबा कबीर ने
रात सपने में बताया
बच्चा, हिन्दी का लेखक
आज पतुरिया बन गया है
उसकी क़ीमत ज़्यादा नहीं
दो कौड़ी का पुरस्कार है।
272
साहस
--------
दुर्दिन में जब
सबका साहस चुक जाता है
सब सिर झुकाये उदास बैठे होते हैं
सहसा देखते हैं
कोई बच्चा आता है
कूदता-फाँदता हुआ कहीं से
और समुद्र में ज़ोर से फेंकता है
एक कंकड़
और हँस पड़ता है।
273
डर
----
कितने
कमज़ोर होते हैं वे लेखक
अपनी कमज़ोरियों की वजह से
जिस ईमानदार लेखक से डर जाते हैं
उससे कभी तर्क नहीं कर पाते हैं।
274
चाबी
------
हिन्दी लेखक के
दिमाग़ का ताला
सिर्फ़ पुरस्कार की
चाबी से खुलता है!
275
हम साला
------------
बाहर वाले
हमारे ज़िक्र के बिना
हमारे बाप-दादों के ज़िक्र के बिना
अपनी बात अच्छे से कह लेते हैं
हम साला
इतने ग़रीब लेखक क्यों हैं
कि उनकी शान में कसीदा पढ़े बिना
अपनी बात रख ही नहीं पाते हैं।
276
सलीक़ा
----------
किसी लेखक को
सिर पर बैठायें तो
बहुत सलीक़े से
आपका पैर दूसरे
लेखक के सिर पर
न पड़ने पाये।
277
गौरव
-------
कोई मुहल्ले का
चाहे इंटरनेशनल पुरस्कार नहीं
हिंदी भाषा के लिए सचमुच
गौरव का दिन वह होगा
जब लेखक पिता के अतिरिक्त
अन्य को वास्तविक पिता बनाना
बंद कर देगा।
278
आता रहूँगा
--------------
जब-जब
साहित्य के धर्म की हानि होगी
अपना चक्र लेकर मैं यहाँ
आता रहूँगा आता रहूँगा।
279
आम
-------
निराला
द्विवेदी जी से मिलने के लिए
जाते समय आम लेकर गये थे
ओह हिन्दी साहित्य का
वह अमूल्य और अविस्मरणीय आम
किसी संपादक से
मिलने के लिए जाना ही हो तो शायद
मुझे भी वही आम लेकर जाना चाहिए
क्या आज की तारीख़ में दिल्ली में
एकाध महावीर प्रसाद द्विवेदी होंगे!
280
पागलपन
------------
अपने घर में
बच्चा पैदा होने पर भी
हिन्दी का लेखक इतना बावला
नहीं होता है
जितना किसी को
पुरस्कार मिल जाने पर होता है
क्या है पुरस्कार
कोई भूत-प्रेत-चुड़ैल
कोई अफ़ीम-गाँजा-भाँग क्या है
पागलपन की कोई बीमारी है क्या।
281
इतिहासकार
----------------
श्रीमान जी इतिहास तो
इतिहासकार की पूँछ है
पूँछ को जितना चाहे
बड़ी-छोटी या दायें-बायें
कर ले!
282
कितना निराला
-------------------
पाँडे जी,
अब तक आप कितना परसेंट
निराला हो गये होंगे
सुकुल जी, सेर भर का तो
सौ जनम में नहीं हो पाऊँगा
हाँ ज़्यादा नहीं, आधा छटाक
हो गया होऊँगा
बस कोई दो तोले का
महावीर प्रसाद द्विवेदी
मिल जाय।
283
नौकाविहार
---------------
साहित्य में अधिकारी
नौकाविहार करने के लिए आते हैं
हिन्दी के वास्ते
जान देने के लिए थोड़े आते हैं।
284
मेरे बाद
-----------
मैं रहूँगा भी तो कब तक
दस साल बीस साल और कितना
मेरे बाद कौन लड़ेगा
हिन्दी के अँधेरे के खि़लाफ़
यह लड़ाई
कोई तो होगा मेरी तरह
फिर आएगा कोई पागल।
285
दोस्त
-------
जो
अंत तक
साथ रहे
सिर्फ़
वही दोस्त है।
286
ज़ालिम
---------
हिन्दी के हत्यारों की फ़ौज से
तीस-पैंतीस साल से अकेले
लड़ते-लड़ते मैं मर गया होता
तो मेरे बच्चों का क्या होता
ओह कितनी ज़ालिम है
हिन्दी के फ़ासिस्टों की
यह दुनिया।
287
इल्म
------
अँग्रेजीदाँ थे बहुत घमंड था
ज्ञान को तलवार की तरह
बात-बात पर चमकाते रहते थे
कितना भी कहो हाथ जोड़कर कहो
म्यान में रखते ही नहीं थे
मेरे पास पुरखों से विरासत में मिला
साहित्य के ईमान का मोटा सोटा था
पुरखों ने उसे ख़ूब तेल पिलाया था
उनके बारामंड पर दे दना दन दे मारा
असल में उन्हें ईमान की ताक़त का
ज़रा-भी इल्म नहीं था।
288
या
----
मेरी छोटी कविताएँ क्या हैं
बिजली का नंगा तार हैं या
ब्लेड की धार वग़ैरा या
बच्चों की फुलझड़ी या
कोई खिलौना या
हिन्दी का महाभारत या गीता
या हिंदी के कापुरुषों का इतिहास
फ़ैसला कौन करेगा
हिन्दी का कोई सद्पुरुष
या आलोचना का कोई विदूषक।
289
विद्रोही
---------
विद्रोही माँ के पेट से नहीं
साहित्य-समय की कोख से
पैदा होते हैं
अप्रत्याशित ठोकरें उन्हें
चट्टान बना देती हैं
षड्यंत्र उनमें आग भर देता है
धोखे ज्वालामुखी को
सक्रिय कर देते हैं
फिर वह अँधेरे के पहाड़ को
ढहाने के काम में लग जाते हैं।
290
भक्त
------
लक्ष्मीभक्त तो
बेईमान थे ही
सरस्वतीभक्त भी
कम बेईमान नहीं थे।
291
न्याय
------
प्रकृति
जिसके साथ
न्याय नहीं कर पाती है
मनुष्य को
उसके साथ
न्याय करना होता है।
292
कविता में
------------
कविता छोटी हो या लंबी
उसमें सिर्फ़ कर्णफूल नथ
माँगटीका करधन वग़ैरा ही नहीं
हथेलियों का खुरदरापन
और एडियों की बिवाई भी
दिखनी चाहिए।
293
सफ़ाई
--------
साहित्य में
बातें सिर्फ़ हवा-हवाई न हों
उसके तीर्थों में गंदगी है
तो सफ़ाई हो।
294
कविता को
--------------
अच्छी
कविता को
बुरे वक़्त की
धूल से बचाएँ।
295
दुश्मन
--------
दानेदार
दुश्मन भी
होता है
दुश्मन ही।
296
जान
------
कितना
बड़ा पागल था
उस हिन्दी के लिए
अपनी जान दे रहा था
जिसके किसी भी लेखक को
न मेरी जान की फ़िक़ थी
न मेरे बच्चों की
फिर भी हिन्दी के लिए
लड़ाई की पूरी की।
297
आला अफ़सर
-------------------
किसी
आला अफ़सर के लिए साहित्य
लाल फीते में बँधी एक फ़ाइल है
जिसका काम वह दो मिनट में
तमाम कर सकता है
लेकिन
मेरे जैसे किसी ग़रीब के लिए
पूरी ज़िन्दगी है हुज़ूर।
298
कलियुग
----------
पुरस्कारयुग ही
हिन्दी साहित्य का
कलियुग है
आप जानते ही हैं
कलियुग में क्या-क्या
होता है।
229
रंडी आलोचक
----------------
इसी
साहित्य-समय में
मुझे रंडी आलोचक के
दिव्य-दर्शन हुए
किसी भी कवि को उसने
महान से कम कहा ही नहीं
जिस पर क़लम उठायी
ग़ज़ब का नाच नाचा
कवि जवारी या बहुत हेलीमेली
सजातीय हुआ तो नंगा नाचा।
300
विकास
-----------
शहर के मुख्यमार्गों
और चौक-चौराहों पर
विकास की चाँदनी फैली हुई है
राजा की जयकार हो रही है
उसका मुख कमल की तरह
खिला हुआ है
बस बेचारी
हमारी गलियाँ और नालियाँ
बहुत उदास हैं।
301
महान
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गाली देने से
ईश्वर छोटा हो जाता है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
उसका अपमान हो जाता है
तो फिर वह
भला महान कैसे हुआ।
302
साला
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हिन्दी का लेखक
हिन्दी के लिए नहीं
मरा जाता है
वह तो साला
पुरस्कार के लिए
मरा जाता है।
303
गाँडू
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लेखक साला माला
कबीर की जपता है
और कर्म
गाँडू के करता है।
304
दिल्ली स्कूल
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दिल्ली स्कूल के कवि
बूढ़े हों या युवा सब
कविता लिखते हैं
घुमाव गोलाई चिकनाई से
पता चल जाता है
और हमारे जैसे तमाम
अपढ़ लोग सजावटी
कविता नहीं लिख पाते हैं
जीवन लिखते हैं।
305
चुनौती
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वे मुझे
मशहूर होने नहीं देना चाहते थे
और मैं मशहूर होना नहीं चाहता था
मैं तो सिर्फ़ उनके आक़ाओं को
चुनौती देते रहना चाहता था।
306
हिन्दीवालो
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हिन्दीवालो करा लो
कान की मैल साफ़ करा लो
जिन्हें पुरस्कार की चाह नहीं
न कभी लेते हैं न कोशिश करते हैं
वे भी कवि होते हैं कबीर
सूर तुलसी जायसी से पूछ लो
दूर मत जाओ
छोटे सुकुल से पूछ लो।
307
तू
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तू दुनियाभर की किताबें पढ़
मैं ज़िन्दगी को पढ़ता हूं
तू ज्ञान के ऊँचे-ऊँचे शिखर चूम
मैं ईमान के कण को चूमता हूँ
तू दूसरे को गिराने में लग
मैं गिरे हुए को उठाता हूँ
तू दरबारों में नाच-गा इनाम ले
मैं ख़ुद को मिटाता हूँ
तू जहाज पकड़ अकादमी जा
मैं टिकट फाड़ता हूँ।
308
हम कहतै रहिजात हैं
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पूछौ न बहुतै बड़ा कबी है
जेका देखौ ओकरे पाछे-पाछे घूमत है
चाह-समोसा पत्तल-सत्तल चाटत है
अकादमी-सकादमी कै दरवाजा पर
मुँह उठाइ कै झाँकत है
हम कहतै रहिजात हैं याद करौ
बाबा तुलसी सूर अउर जायसी कै
कबीरौ कै याद कइलेव ससुर
काहै नाक कटावत हौ कुछ तौ सोचौ
माई दादा कै मुँह पर कालिख पोतत हौ।
309
पेशाब
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जो दिल्ली नहीं जाएंगे
साहित्य में मारे जाएंगे
इस घटिया मुहावरे पर
मैं गणेश पाण्डेय
वल्द श्याम सुन्दर पाण्डेय
साकिन पुराना ज़िला बस्ती
नया ज़िला सिद्धार्थनगर
एकमुश्त पेशाब करता हूँ।
310
सच्ची कहानियाँ
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मेरे होने से आज कुछ नहीं बदलेगा
न लेखकों की बदनीयती न बदकिरदार
लेकिन हर दौर में कोई पागल होता है
जो आने वाले बच्चों के लिए सुनाता है
अपने वक़्त के लोगों की
सच्ची कहानियाँ।
311
फ़िराक़
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सुनते हो
मेरे बुज़ुर्ग दोस्तो अब इस उम्र में
लौंडों की फ़िराक़ में रहना छोड़ दो
अपनी अदबी आक़िबत
सुधार लो।
312
पर्दा
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साहित्य कोई भैंस नहीं है
जिसे कोई गधा इनाम की लाठी से
हाँक सकता है
बस किसी वक़्त में कोई कवि
चाहे कोई आलोचक या संपादक
उस पर थोड़े समय के लिए
पर्दा डाल सकता है
उतना ही सच यह भी है कि कोई
सिरफिरा लेखक फ़ौरन उस पर्दे को
चर्र-चर्र फाड़ सकता है।
313
चरणपादुका
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साठ पार करने के बाद भी
कविता पाठ के नाम पर जिनकी
लपलपाती हुई जिह्वा से
लार टपकने लगती है ऐसे
कवियों को चरणपादुका से
किसी शुभमुहूर्त में पीट देने में
बक़ौल छोटे सुकुल
कोई दोष नहीं है।
314
स्त्रैणता-वंचित
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भेंट-अँकवार
कंधे पर सिर रखकर रोना-धोना
नेग-आशीष लेना-देना
महिलाओं से ज़्यादा पुरुष लेखकों ने
किया और ख़ूब किया
दिल्ली भोपाल बनारस कहाँ-कहाँ नहीं
सब सब जगह गये एक मैं ही रह गया
अपने ठीहे पर सात जन्मों से अभागा
स्त्रैणता-वंचित लेखक।
315
ट्रेन से धक्का
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जैसे गाँधी को
पीटरमैरिट्जबर्ग में धक्का देकर
ट्रेन से उतार दिया गया था
मुझे भी हिन्दी के नस्ली लेखकों ने
दिल्ली जाने वाली ट्रेन से
गोरखपुर में धक्का देकर
उतार दिया था
फिर मैं कहीं नहीं गया जहाँ भी गया
मेरा नाम गया।
316
नींद
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नींद आये तो
साहित्य के अँधेरे में आये
आहिस्ता-आहिस्ता
पुरखों को याद करते हुए
सो जाऊँ।
317
तौहीन
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आप
सर्वशक्तिमान हैं
आपके बंदे
आपके लिए लड़ाई करें
यह तो सरासर आपकी
तौहीन है।
318
दूसरा भगवान
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चिकित्सक को ही नहीं
लेखक को भी मनुष्य का
दूसरा भगवान होना चाहिए था
लेखक को मनुष्य की
आत्मा की टूट-फूट का
चिकित्सक होना चाहिए था
पर हिंदी का लेखक तो बेचारा
उसी दिन मर गया जिस दिन
उसने अपनी आत्मा बेच दी।
319
गॉडफ़ादर
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गॉड को फ़ादर
बनाना ठीक था
लेकिन किसी लेखक को
गॉडफ़ादर बनाना
हरगिज़-हरगिज़
ठीक नहीं था।
320
फूल की छड़ी
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जिन्होंने
कविता के लिए
फूल की छड़ी भी
हाथ में नहीं ली
कविता क्या है
बताते फिरते हैं।
321
वैराग्य
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मन का क्या है कभी भी
कहीं भी किसी भी बात पर
उचट सकता है जैसे इन दिनों
हिन्दी के इस श्मशान में
वैराग्य हो गया है ।