-गणेश पाण्डेय
जब मैं कहता हूँ कि काजल की इस कोठरी को ढहा दो तो जानता हूँ कि काजल की यह कोठरी किसी गरीब की मड़ई नहीं है, जिसे कोई दबंग चुटकी बजाते हुए गिरा देगा। यह भी जानता हूँ कि जब तमाम साथी इस व्यवस्था को बदलने की बात करते हैं तो उन्हें यह अच्छी तरह पता रहता है कि यह व्यवस्था एक मिनट में नहीं बदल जाएगी। उन्हें पता है कि गरीब, पिछड़े, आदिवासी की मुश्किलें हमारे जीवनकाल में खत्म नहीं होने जा रही हैं। मैं भी जानता हूँ। साथी भी जानते हैं। हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे जीवित रहते इस दुनिया से पूँजीवाद का नाश नहीं होने जा रहा है। यह भी पता है कि राजधानी में भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए चाहे लाख नहीं, करोड़ लोग जमा हो जाएँ, भ्रष्टाचार खत्म नहीं होने जा रहा है। गांधी जी फिर से आएँ, चाहे मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन तुरत या अगले कुछ सालों में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है कि उनकी जरूरत खत्म हो जाए। हम जानते हैं कि सूरज को निकलने में कोई बारह घंटे लगते हैं, रात होते ही कहाँ झट से सूरज निकल आता है। हम जानते हैं कि इस दुनिया और इस देश को जस की तस चलाने वाली ताकतें बड़े बदलाव का विरोध इसी तरह करती रहेंगी। हम यह भी जानते हैं कि बदलाव की आवाज इसी तरह गूँजती रहेगी। जहाँ तक साहित्य की बात है, यह जानता हूँ कि मैं साहित्य के इस नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ। मेरी तरह दूसरे भाई भी तूती की आवाज हैं। अलबत्ता हमारे बहुत से भाई जिन्हें बदलाव की इस लड़ाई में साथ होना चाहिए था, अलग-अलग वजहों से हमारे साथ नहीं होते हैं। फिर भी कुछ लोग क्यों पूरी दुनिया में, इस देश में, समाज और साहित्य में दीवानों की तरह बदलाव के गीत गाते रहते हैं ? क्यों गाँव-गाँव, जंगल-जंगल, शहर-शहर बदलाव के ऐसे दीवानों की आवाज सुनाई देती है ? क्यों दुनिया के असंख्य नक्कारखाने में कहीं भी कभी भी कोई तूती चुप नहीं होती है ? ऐसा इसलिए कि हम बदलाव के गीत गाये बिना साँस तक नहीं ले सकते हैं ? हमारे जिंदा रहने की शर्त ही प्रतिरोध है, असहमति है, संघर्ष है।
जब मैं कहता हूँ कि साहित्य में भ्रष्टाचार की इमारत ढहा दो तो जानता हूँ भाई कि मेरे जीते जी यह काम नहीं होने जा रहा है। मेरे लिए जीवन भी एक कविता है। जब आप कविता लिखते हैं तो कविता में बदलाव की सुबह का इशारा क्यों करते हैं, क्या सचमुच बदलाव की सुबह हो रही होती है ? इसी तरह दोस्त, इसी तरह, काजल की कोठरी को ढहाने की बात करता हूँ। मैं जानता हँू कि साहित्य में नायकों की धोती में दाग बहुत है, इसे एक मिनट में साफ करने का कोई डिटर्जेंट पावडर मेरे पास नहीं है। फिर भी इसलिए कहता हूँ कि मेेरे जीवनकाल में नहीं, सौ - दो सौ साल बाद सही, उसके भी बाद सही, साहित्य से ये भ्रष्टाचार दूर हो, अन्याय दूर हो। क्या एक छोटे से छोटे लेखक के पास यह स्वप्न नहीं होना चाहिए ? बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि जब तक साहित्य, कला और संस्कृति के परिसर से अँधेरा नहीं हटेगा, समाज और राजनीति से अँधेरा रत्तीभर कम नहीं होगा। क्या दुनिया में जहाँ-जहाँ बदलाव आया है, वहाँ के लेखक साहित्य के हर तरह के काले कारमाने में जुटे थे या उनके पास साहित्य का थोड़ा-सा ईमान बाकी था ? क्या अपने देश में विचार और संस्कृति से जुड़े प्रबुद्ध और गंभीर कार्यकर्ता अपने ईमान के साथ पीड़ित जन के साथ नहीं हैं ?
जैसे जनता का एक बड़ा हिस्सा व्यवस्था की खुरचन के प्रलोभन में फँसा रहता है, हजार तरह के डर उसके सामने होते हैं, उसी तरह कुछ लोगों को छोड़कर हिंदी के लेखकों बहुत बड़ा हिस्सा डरा हुआ रहता है। हाय, पाँच सौ की टॉफी, हाय इस अकादमी, हाय उस अकादमी, हाय इस पीठ, हाय उस पीठ का इनाम हाथ से निकल जाएगा। फिर भी जनता तो आंदोलन करती है। दफ्तर घेरती है। ये लेखक जिस जनता को बड़ी-बड़ी सीख् देते है , उससे तनिक भी सीख नहीं लेते हैं। मैं पूछता हूँ कि यार अच्छा लिखोगे तो कौन-सा आलोचक है जो तुम्हारी अच्छी चीज छीन लेगा, उसे भूसे के मंडीले में छिपा देगा ? या उसे जमीन में गाड़ देगा ? कौन है जो तुम्हारी अच्छी रचना को बम से उड़ा देगा ? नाम तो बताओ जरा उस आलोचक का ? कौन है आज की तारीख में महाबली ? क्यों मरे जाते हो कि कोई आलोचक जरा-सा नाम ले ले ? क्यों मरे जाते हो अमुक अखबार में, अमुक पत्रिका में अपना नाम देखने के लिए ? अपमान के साथ कहीं मत छपो, अपमान के साथ किसी मंच पर मत बैठो, अपमान के साथ कोई पुरस्कार मत लो। अपनी पत्रिका निकालो, चाहे दस पेज का ही सही। अपनी किताब छपवाओ। आएगा कोई तुम्हें पढ़ने वाला। तुम्हें देखने वाला। दूसरे संग्रह की अपनी ही एक कविता ‘मुश्किल काम’ फिर याद आ रही है, ऐसा इसलिए कि इस मिजाज की हमारे समय की कोई और कविता फिलहाल मुझे याद नहीं आ रही है-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे
जो मेरे साथ तो थे पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-‘पीना और शैतान के संग’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।
एक लेखक का जीवन भी पतित जीवन हुआ तो फिर उसमें और किसी दुष्कर्मी बाबा-साबा में क्या फर्क रह जाएगा ? बोलो दोस्तो ? बाबा गंदा है और तुम गंदे नहीं हो ? राजनीति और धर्म के नायक पवित्र हो जाएँ और तुम ? राजनीति में सब सेकुलर हो जाएँ और तुम इनाम के मामले में सांप्रदायिक बने रहोगे ? दुष्कर्म में लगे रहोगे ? हँसो कि मैं बेवकूफी की बात करता हूँ। हँसो कि मैं नहीं जानता, पुरस्कार ही आज बहुसंख्यक लेखक के जीवन का प्रयोजन है। हँसो कि मैं दूध में पानी की तरह कमल जाने की कला नहीं जानता। हँसो कि मैं बड़ों का सम्मान करना नहीं जानता। हँसो कि मैं गँवार हूँ। हँसो कि मैं उजड्ड हूँ। हँसो कि मैं लेखक संगठन का रास्ता नहीं जानता हूँ। हँसो कि मैं फलाना शहर की भूलभुलैया नहीं जानता हूँ। हँसो कि साठ के पास पहुँचकर भी अपने प्रदेश की राजधानी में किसी चर्चित पत्रकार के साथ युवा कवियों-लेखकों के योग्य पुरस्कार लेने वाले पचहत्तर साल के कवि के जीवन से कुछ सीख नहीं लेता। हँसो कि मेरे गले में प्रगतिशील होने का कोई पट्टा नहीं है। इस तरह के पुरस्कारों को छ़ोड़ो और देश के हिंदी के तमाम पुरस्कारों को देखकर सच-सच बताओ दोस्तो कि क्या आज तमाम पुरस्कार लेखकों को पालतू बनाने का सुनहला पट्टा नहीं है ? कौन-कौन हैं जो साहित्य में अपने ‘पुरस्कारघर’ को जुआघर की तरह नहीं चला रहे हैं ? इन्हें क्यों नही पहचान रहे हो भाई ? क्यों जानबूझकर लेखक का जीवन हार रहे हो। मैं यह कहाँ रहा हूँ कि तुम कोई सम्मान और पुरस्कार न लो, बस इतना ही तो कह रहा हूँ कि नंगा हो जाने की कीमत पर यह सब न करो। कहना तो यह चाहता हूँ कि संास्थानिक और व्यावसायिक या साहित्य की राजनीति के तहत कोई पुरस्कार मत लो। जनता का कोई स्वतःस्फूर्त पुरस्कार और सम्मान इन पुरस्कारों से हजार गुना ज्यादा तृप्ति देगा। अव्वल तो ऐसा होगा नहीं फिर भी कभी कोई ऐसा संयोग बना तो मैं तो किसी मोची भाई की कमाई का और उसके हाथ से एक नये पैसे का पुरस्कार लेकर अपने इस तुच्छ लेखक जीवन को सार्थक समझूँगा। तुम भी ऐसा क्यों नहीं चाहते ?
दोस्तो देवेंद्र कुमार का जिक्र यहाँ जरूरी है। देवेंद्र कुमार पंडित नहीं थे, लाला नहीं थे, हरिजन थे, पर आज की तारीख में यहाँ जितने भी असली या नकली तोप हैं, उन सबसे अच्छे थे और हैं। अपनी कविता को लेकर अति संकोची थे। आत्मप्रचार से दूर रहने वाले। सिर्फ और सिर्फ कविता से प्रेम करने वाले। बात-बात पर राजधानी की परिक्रमा न करने वाले। उन्हें कभी पुरस्कारों के लिए दौड़धूप करते नहीं देखा। मैं ही नहीं, मेरा दोस्त अरविंद भी उन्हें ही बेहतर कहता है। फिर अपनी ही एक कविता का अंश, साक्ष्य के रूप में -
कई कवि देखे
कई तरह के कवि देखे
कोई मधुकर था यहाँ
कोई काला था, कोई दिलवाला
कोई परमानंद, कोई विश्वनाथ।
देवेंद्र कुमार को यहीं देखा
अपनी हीर कविता के लिए राँझा बनते।
अपनी कविता से प्रेम करना है, अच्छी कविता से प्रेम करना है तो उन्हें मत देखो जो पुरस्कार के लिए अपनी कविता को गिरा चुके हैं। यह क्यों नहीं सोचते कि एजेंडा अच्छी कविता लिखने का है, नामी-गिरामी पुरस्कार लेने का नहीं है। क्या मुक्तिबोध को उतने पुरस्कार मिले, जितने पुरस्कार काँख में दाब कर आज दो कौड़ी के कवि यहाँ-वहाँ घूम रहे हैं ?
दोस्तो, क्यों उस धोती वाले पंडित या बाऊ साहब के हाथ से गले का सुनहला पट्टा ले रहे हो ? या लेने के लिए कतार में हो ? मैं जानता हूँ मेरी बातें सबको अच्छी नहीं लगती हैं लेकिन यह भी जानता हूँ कि मेरी बातें उन साथियों को अच्छी लगती हैं जो साहित्य में अच्छाई का पक्ष लेते हैं। बुराई का पक्ष लेने वाले जरूर बंद कमरे में छिपकर मुझ पर हँसते होंगे। हँसो भाई खूब हँसो, हँसो कि मैं नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ।