- गणेश पाण्डेय
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आलोचक अभिनव ज्ञान की मौखिक परीक्षा
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आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
अपने पट्टशिष्य अभिनव ज्ञान से
मौखिक परीक्षा में सबसे पहले पूछा-
वत्स, अपना नाम बताओ
अभिनव ज्ञान ने
हाफपैंट की जेब से हाथ बाहर निकाला
और धाराप्रवाह बोलना शुरू किया-
जी, मेरे अग्रज का नाम ज्ञानेंद्र है
उनके अग्रज का नाम ध्यानेंद्र है
मेरे अनुज का नाम रणेंद्र है
उसके अनुज का नाम देवेंद्र है
मेरे चचेरे भाई का नाम नरेंद्र है
मेरे मौसेरे भाई का नाम जितेंद्र है
मेरे फुफेरे भाई का नाम धर्मेंद्र है
आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह को
गर्व से देखा कि ग़ौर से देखिए
मेरे संस्थान का नगीना है नगीना
एक प्रश्न के दस-दस उत्तर दे सकता है
बाह्य परीक्षक
आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने पूछा-
वत्स, तुम्हारे पिता जी का क्या नाम है
और अभिनव ज्ञान की आँखों से निकलती
अद्भुत ज्योति से चकित होकर
फिर कहा- हां, वत्स बताओ
अभिनव ज्ञान ने फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे ताऊ का नाम है निर्मल प्रसाद
मेरे मंझले ताऊ का नाम है विमल प्रसाद
मेरे चाचा का नाम है सदल प्रसाद
उनसे छोटे चाचा का नाम है कोमल प्रसाद
मेरे फूफा का नाम है लालमन प्रसाद
मेरे मौसा का नाम है ढुनमुन प्रसाद
मेरे मामा का नाम है भुल्लन प्रसाद
इस बार
बाह्य परीक्षक सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक हँसमुख शास्त्री डी. लिट. को
सविस्मय देखा
और एक चौड़ी मुस्कान मुस्काए-
वाह, क्या विद्यार्थी है अद्भुत है
हिंदी का प्रतिभाशाली आलोचक है
पूछो एक बताता है दस
आचार्य हँसमुख शास्त्री ने
अपना सीना छप्पन इंच का करके
अतिहर्षित होते हुए कहा-
मित्र सुतुही प्रसाद सिंह जी पूछिए
कुछ और पूछिए
आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने
अभिनव ज्ञान को ग़ौर से ऐसे देखा
जैसे सूर्य और चंद्रमा को देख रहे हों
जैसे रामचंद्र शुक्ल
और हजारी प्रसाद द्विवेदी को
साक्षात देख रहे हों
मन ही मन प्रणाम भी किया
तत्क्षण सहज होकर अभिनव ज्ञान से पूछा -
वत्स, अपने गाँव का नाम बताओ
अभिनव ज्ञान ने
प्रचण्ड आत्मविश्वास से फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे गाँव में गाँधी जी आ चुके हैं
और नेहरू जी दो बार आ चुके हैं
मेरे गाँव में वाजपेयी जी भी आ चुके हैं
मेरे गाँव में नामवर जी आ चुके हैं
मेरे गाँव में रामविलास जी आ चुके हैं
मेरा गाँव आदर्श गाँव बन चुका है
मेरा गाँव जनपद मुख्यालय के पास है
मेरे गाँव के पास रेलवे स्टेशन है
मेरे गाँव के पास हवाईअड्डा बन रहा है
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह
अभिनव ज्ञान की कारयित्री प्रतिभा से
और आचार्य हँसमुख शास्त्री डी. लिट. के भव्य
सत्कार से तृप्त और अतीव प्रसन्न हो चुके थे
उन्होंने कहा- अब जाओ, वत्स!
आलोचना के आकाश में विचरण करो
जो चाहो सो करो
परीक्षार्थी के जाने के बाद
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक और अपने मित्र
आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. से
तपाक से कहा-
अभिनव ज्ञान को उसके अभिनव ज्ञान
और विलक्षण तर्कणा के आधार पर
हमारे समय की हिंदी आलोचना की
पीएचडी की उपाधि प्रदान करने हेतु
संस्तुति की जाती है।
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चुग़द उर्फ़ मियाँ मोहन राकेश
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(तुम से पहले भी वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था/
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था : हबीब जालिब)
इस शहर में
तब भी कोई हलचल नहीं हुई थी
शायद सब अपने-अपने में
बहुत मसरूफ़ रहे होंगे
कुछ जो अपने शहर के लेखक से
भीतर ही भीतर जलते रहे होंगे
शायद ख़ुश भी हुए होंगे
कि चलो हम नहीं छोटा कर पाये
उसे किसी ने तो किया
जब
मोहन राकेश ने
शायद अपने बोले चाहे लिखे में
कोई नुक़्स निकालने की वजह से
इस शहर के एक लेखक को
चुग़द कहा था बल्कि लिखा था
टाँक दिया था बाक़ायदा
अपनी डायरी में हमेशा के लिए
बिना वजह बताए उसके मुँह पर
कालिख मल दिया था
क्या
कोई बड़े से बड़ा लेखक भी
साहित्य का ख़ुदा होता है
कि कोई उसकी आलोचना न करे
कोई उसे चुभने वाली बात न करे
और चुभने वाली बात का जवाब
शानदार दलील की जगह गाली क्यों हो
भला ख़ुदा भी कहीं गाली देता है
काश
मैं मोहन राकेश का
समकालीन रहा होता तो कहता
मियाँ मोहन राकेश बड़े लेखक हो
तो तुम्हारे पास कोई अच्छा शब्द
क्यों नहीं है
अनाड़ी नहीं कह सकते थे
नासमझ नहीं कह सकते थे
औसत नहीं कह सकते थे
कहाँ गयी थी तुम्हारी भाषा
घास चरने चली गयी थी
उस वक़्त जब तुम
किसी लेखक पर
टल्ली होकर
थूक रहे थे
मोहन राकेश
तो मोहन राकेश
आज की तारीख़ में
छोटे से छोटा लेखक भी ख़ुद को
बड़ा लेखक से कम नहीं समझता है
उसे ख़ुद के तख़्त-नशीं
और ख़ुदा होने का
घमंड हो गया है
बुरा वक़्त है
मोहन राकेश के समय से काफ़ी बुरा है
जो आज काफ़ी बुरा है वह भी
धड़ल्ले से किसी लेखक को
उसके मुँह पर चुग़द कह सकता है
मुझे भी
मेरी बात और है
फिर भी मेरे मुँह पर कोई
मेरे बराबर का या मुझसे बड़ा शख़्स
मुझे चुग़द कहेगा तो शायद मैं
सीधे उसका कुर्ता फाड़ दूँ
अगर मैं ऐसा नहीं करता
तो यह शहर तो मेरे साथ भी
ठीक वही सलूक करेगा
अकेला छोड़ देगा
यह शहर है ही ऐसा
कहने के लिए सब साथ होते हैं
लेकिन असल में सब के सब
बहुत अकेले होते हैं
इतनी बुरी तरह अकेले होते हैं
कि अकेले चलने जीने और लड़ने का
साहस ही किसी के पास नहीं होता है
भला ऐसा शहर भी कोई शहर होता है।
(नोट : यह कविता एक अर्थ में अपने शिक्षक परमानंद श्रीवास्तव के प्रति श्रद्धांजलि है। परमानंद जी एक लोकतांत्रिक लेखक थे। सहमति और असहमति, दोनों का स्वागत करते थे। साहित्य में कई मुद्दों को लेकर मेरी उनसे असहमति भी रही है, लेकिन मुझ पर एक शिक्षक के रूप में उनका ऋण भी रहा है। इस कविता को मुझे कोई पच्चीस-तीस साल पहले लिखना चाहिए था, लेकिन किसी बात को लिखने का समय कब और किस घटना-दुर्घटना के बहाने आएगा, यह कौन जानता है।)
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परिक्रमाकार
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जब
आपके पास
ढंग का एक लेख भी नहीं है
जिसका नाम लेकर
अभी बता सकें कि यह
आपकी कीर्ति का आधार है
एक बीघा खेत नहीं है
और आप बनना चाहते हैं
गोरखपुर की आलोचना का
ज़मींदार
ऐसा कैसे हो सकता है भला
और अगर आप बज़िद हैं
तो फिर आपको इस उम्र में
साहित्यिक औषधि की जरूरत है
बेहतर हो
आप अपने लिए
औषधि की विधि का चुनाव ख़ुद करें
चाहें तो आयुर्वेदिक चाहें तो होम्योपैथ
लेकिन एलोपैथ आपके लिए
ख़तरनाक होगा उसमें सर्जरी है
इस उम्र में
दुर्बल महत्वाकांक्षाओं को
अपने घर के सहन में मिट्टी खोदकर
उसी में रखकर अच्छी तरह से
ऐसे दबा देना चाहिए
कि फिर कभी बाहर न आ सकें
जैसे मैंने एकल काव्यपाठ
मंच माइक माला
और पुरस्कार की इच्छा को
दफ़्न कर दिया है
साहित्य में
एक कार्यकर्ता के रूप में भी
ईमान साथ हो तो अच्छा काम
किया जा सकता है
और अमूमन मठाधीश के रूप में
बहुत ख़राब काम किया जाता है
गोरखपुर के मठाधीश का हाल देख लें
न कविता में कुछ न आलोचना में कुछ
और
आप हैं कि आलोचना का क़िला
फ़तह करने की ज़िद लिए बैठे हैं
यह भूल गये हैं कि आप ऊंट हैं
और पहाड़ को मां की गाली दे बैठे हैं
असल में
आप छेदीलाल शुक्ल के काव्य संग्रह पर
ब्लर्ब लेखन को ही आलोचना समझ बैठे हैं
और आपको घमंड इस मूर्खता पर है
जबकि आपका छेदीलाल
मेरे मित्र का चरणरज
हज़ार बार ले चुका है
जब मैं
अपने प्यारे आलोचक मित्र
अरविंद की कमियों पर चोट कर सकता हूं
तो आप किस खेत की मूली हैं
अरविंद के पास तो
आलोचना की अच्छी खेती बारी है
मोटा-महीन सब बोता है
आपके पास तो
एक बिस्वा खेत नहीं है
जो है हवा-हवाई है
आलोचना में हाथ की सफाई है
ज़रूरी नहीं
कि परमानंद के सेवक भी
इस शहर में आलोचना का परमपद
प्राप्त करें ख़ुद को शांत करें
ठंडा तेल अपनी खोपड़ी पर धरें
कुछ बनने के लिए तीस साल बहुत होते हैं
मान लें कि इतने लंबे वक्त में
न आप आलोचक का पद बचा पाए
न विमर्शकार बन पाए
बेहतर होगा
आलोचना के परिक्रमाकार के रूप में
ख़ुद को मुतमइन करें।
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दीन-हीन निरीह लेखक की हवाई फायरिंग
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गोरखपुर के एक लेखक ने
बाहर के एक लेखक की पोस्ट पर
कुछ टिप्पणी की
बाहर के लेखक ने
गोरखपुर के लेखक को उसके मुंह पर कहा,
आप मूर्ख हैं
और
गोरखपुर के लेखक ने
तुरत झुककर हथियार डालते हुए कहा,
आप यही कह सकते हैं
हद है
इस दीन-हीन निरीह लेखक ने
गोरखपुर का मान कितना घटा दिया
पलट कर यह भी नहीं कहा
कि आप महामूर्ख हैं
या मैं नहीं आप मूर्ख हैं
किसी ने पूंछ पर पैर रखा
तो दस दिन बाद फनफनाये
हवा में खूब तलवारबाजी की
बेनामी गालियां दीं
बाहर के लेखक को
पता ही नहीं कि पट्ठा यह प्रलाप
किसे सुनाने के लिए कर रहा है
पूंछ पर पैर रखने वाले को पता नहीं
हवाई फायरिंग का मतलब भीड़ में होता है
साहित्य में हवाई फायरिंग का मतलब
शुद्ध मूर्खता है
पट्ठा जो-जो ऊपर वाले पर फेंक रहा था
सारा सूखा गीला गंदा उसके मुंह पर
गिर रहा था फिर भी वह बहुत खुश था
गोरखपुर का लेखक है इतना ही काफी है
कुछ भी कहूंगा तो हम सबकी बदनामी है
यों कहने को पूरा पोथा अभी बाकी है।
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आलोचक अभिनव ज्ञान की मौखिक परीक्षा
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आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
अपने पट्टशिष्य अभिनव ज्ञान से
मौखिक परीक्षा में सबसे पहले पूछा-
वत्स, अपना नाम बताओ
अभिनव ज्ञान ने
हाफपैंट की जेब से हाथ बाहर निकाला
और धाराप्रवाह बोलना शुरू किया-
जी, मेरे अग्रज का नाम ज्ञानेंद्र है
उनके अग्रज का नाम ध्यानेंद्र है
मेरे अनुज का नाम रणेंद्र है
उसके अनुज का नाम देवेंद्र है
मेरे चचेरे भाई का नाम नरेंद्र है
मेरे मौसेरे भाई का नाम जितेंद्र है
मेरे फुफेरे भाई का नाम धर्मेंद्र है
आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह को
गर्व से देखा कि ग़ौर से देखिए
मेरे संस्थान का नगीना है नगीना
एक प्रश्न के दस-दस उत्तर दे सकता है
बाह्य परीक्षक
आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने पूछा-
वत्स, तुम्हारे पिता जी का क्या नाम है
और अभिनव ज्ञान की आँखों से निकलती
अद्भुत ज्योति से चकित होकर
फिर कहा- हां, वत्स बताओ
अभिनव ज्ञान ने फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे ताऊ का नाम है निर्मल प्रसाद
मेरे मंझले ताऊ का नाम है विमल प्रसाद
मेरे चाचा का नाम है सदल प्रसाद
उनसे छोटे चाचा का नाम है कोमल प्रसाद
मेरे फूफा का नाम है लालमन प्रसाद
मेरे मौसा का नाम है ढुनमुन प्रसाद
मेरे मामा का नाम है भुल्लन प्रसाद
इस बार
बाह्य परीक्षक सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक हँसमुख शास्त्री डी. लिट. को
सविस्मय देखा
और एक चौड़ी मुस्कान मुस्काए-
वाह, क्या विद्यार्थी है अद्भुत है
हिंदी का प्रतिभाशाली आलोचक है
पूछो एक बताता है दस
आचार्य हँसमुख शास्त्री ने
अपना सीना छप्पन इंच का करके
अतिहर्षित होते हुए कहा-
मित्र सुतुही प्रसाद सिंह जी पूछिए
कुछ और पूछिए
आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने
अभिनव ज्ञान को ग़ौर से ऐसे देखा
जैसे सूर्य और चंद्रमा को देख रहे हों
जैसे रामचंद्र शुक्ल
और हजारी प्रसाद द्विवेदी को
साक्षात देख रहे हों
मन ही मन प्रणाम भी किया
तत्क्षण सहज होकर अभिनव ज्ञान से पूछा -
वत्स, अपने गाँव का नाम बताओ
अभिनव ज्ञान ने
प्रचण्ड आत्मविश्वास से फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे गाँव में गाँधी जी आ चुके हैं
और नेहरू जी दो बार आ चुके हैं
मेरे गाँव में वाजपेयी जी भी आ चुके हैं
मेरे गाँव में नामवर जी आ चुके हैं
मेरे गाँव में रामविलास जी आ चुके हैं
मेरा गाँव आदर्श गाँव बन चुका है
मेरा गाँव जनपद मुख्यालय के पास है
मेरे गाँव के पास रेलवे स्टेशन है
मेरे गाँव के पास हवाईअड्डा बन रहा है
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह
अभिनव ज्ञान की कारयित्री प्रतिभा से
और आचार्य हँसमुख शास्त्री डी. लिट. के भव्य
सत्कार से तृप्त और अतीव प्रसन्न हो चुके थे
उन्होंने कहा- अब जाओ, वत्स!
आलोचना के आकाश में विचरण करो
जो चाहो सो करो
परीक्षार्थी के जाने के बाद
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक और अपने मित्र
आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. से
तपाक से कहा-
अभिनव ज्ञान को उसके अभिनव ज्ञान
और विलक्षण तर्कणा के आधार पर
हमारे समय की हिंदी आलोचना की
पीएचडी की उपाधि प्रदान करने हेतु
संस्तुति की जाती है।
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चुग़द उर्फ़ मियाँ मोहन राकेश
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(तुम से पहले भी वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था/
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था : हबीब जालिब)
इस शहर में
तब भी कोई हलचल नहीं हुई थी
शायद सब अपने-अपने में
बहुत मसरूफ़ रहे होंगे
कुछ जो अपने शहर के लेखक से
भीतर ही भीतर जलते रहे होंगे
शायद ख़ुश भी हुए होंगे
कि चलो हम नहीं छोटा कर पाये
उसे किसी ने तो किया
जब
मोहन राकेश ने
शायद अपने बोले चाहे लिखे में
कोई नुक़्स निकालने की वजह से
इस शहर के एक लेखक को
चुग़द कहा था बल्कि लिखा था
टाँक दिया था बाक़ायदा
अपनी डायरी में हमेशा के लिए
बिना वजह बताए उसके मुँह पर
कालिख मल दिया था
क्या
कोई बड़े से बड़ा लेखक भी
साहित्य का ख़ुदा होता है
कि कोई उसकी आलोचना न करे
कोई उसे चुभने वाली बात न करे
और चुभने वाली बात का जवाब
शानदार दलील की जगह गाली क्यों हो
भला ख़ुदा भी कहीं गाली देता है
काश
मैं मोहन राकेश का
समकालीन रहा होता तो कहता
मियाँ मोहन राकेश बड़े लेखक हो
तो तुम्हारे पास कोई अच्छा शब्द
क्यों नहीं है
अनाड़ी नहीं कह सकते थे
नासमझ नहीं कह सकते थे
औसत नहीं कह सकते थे
कहाँ गयी थी तुम्हारी भाषा
घास चरने चली गयी थी
उस वक़्त जब तुम
किसी लेखक पर
टल्ली होकर
थूक रहे थे
मोहन राकेश
तो मोहन राकेश
आज की तारीख़ में
छोटे से छोटा लेखक भी ख़ुद को
बड़ा लेखक से कम नहीं समझता है
उसे ख़ुद के तख़्त-नशीं
और ख़ुदा होने का
घमंड हो गया है
बुरा वक़्त है
मोहन राकेश के समय से काफ़ी बुरा है
जो आज काफ़ी बुरा है वह भी
धड़ल्ले से किसी लेखक को
उसके मुँह पर चुग़द कह सकता है
मुझे भी
मेरी बात और है
फिर भी मेरे मुँह पर कोई
मेरे बराबर का या मुझसे बड़ा शख़्स
मुझे चुग़द कहेगा तो शायद मैं
सीधे उसका कुर्ता फाड़ दूँ
अगर मैं ऐसा नहीं करता
तो यह शहर तो मेरे साथ भी
ठीक वही सलूक करेगा
अकेला छोड़ देगा
यह शहर है ही ऐसा
कहने के लिए सब साथ होते हैं
लेकिन असल में सब के सब
बहुत अकेले होते हैं
इतनी बुरी तरह अकेले होते हैं
कि अकेले चलने जीने और लड़ने का
साहस ही किसी के पास नहीं होता है
भला ऐसा शहर भी कोई शहर होता है।
(नोट : यह कविता एक अर्थ में अपने शिक्षक परमानंद श्रीवास्तव के प्रति श्रद्धांजलि है। परमानंद जी एक लोकतांत्रिक लेखक थे। सहमति और असहमति, दोनों का स्वागत करते थे। साहित्य में कई मुद्दों को लेकर मेरी उनसे असहमति भी रही है, लेकिन मुझ पर एक शिक्षक के रूप में उनका ऋण भी रहा है। इस कविता को मुझे कोई पच्चीस-तीस साल पहले लिखना चाहिए था, लेकिन किसी बात को लिखने का समय कब और किस घटना-दुर्घटना के बहाने आएगा, यह कौन जानता है।)
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परिक्रमाकार
---------------
जब
आपके पास
ढंग का एक लेख भी नहीं है
जिसका नाम लेकर
अभी बता सकें कि यह
आपकी कीर्ति का आधार है
एक बीघा खेत नहीं है
और आप बनना चाहते हैं
गोरखपुर की आलोचना का
ज़मींदार
ऐसा कैसे हो सकता है भला
और अगर आप बज़िद हैं
तो फिर आपको इस उम्र में
साहित्यिक औषधि की जरूरत है
बेहतर हो
आप अपने लिए
औषधि की विधि का चुनाव ख़ुद करें
चाहें तो आयुर्वेदिक चाहें तो होम्योपैथ
लेकिन एलोपैथ आपके लिए
ख़तरनाक होगा उसमें सर्जरी है
इस उम्र में
दुर्बल महत्वाकांक्षाओं को
अपने घर के सहन में मिट्टी खोदकर
उसी में रखकर अच्छी तरह से
ऐसे दबा देना चाहिए
कि फिर कभी बाहर न आ सकें
जैसे मैंने एकल काव्यपाठ
मंच माइक माला
और पुरस्कार की इच्छा को
दफ़्न कर दिया है
साहित्य में
एक कार्यकर्ता के रूप में भी
ईमान साथ हो तो अच्छा काम
किया जा सकता है
और अमूमन मठाधीश के रूप में
बहुत ख़राब काम किया जाता है
गोरखपुर के मठाधीश का हाल देख लें
न कविता में कुछ न आलोचना में कुछ
और
आप हैं कि आलोचना का क़िला
फ़तह करने की ज़िद लिए बैठे हैं
यह भूल गये हैं कि आप ऊंट हैं
और पहाड़ को मां की गाली दे बैठे हैं
असल में
आप छेदीलाल शुक्ल के काव्य संग्रह पर
ब्लर्ब लेखन को ही आलोचना समझ बैठे हैं
और आपको घमंड इस मूर्खता पर है
जबकि आपका छेदीलाल
मेरे मित्र का चरणरज
हज़ार बार ले चुका है
जब मैं
अपने प्यारे आलोचक मित्र
अरविंद की कमियों पर चोट कर सकता हूं
तो आप किस खेत की मूली हैं
अरविंद के पास तो
आलोचना की अच्छी खेती बारी है
मोटा-महीन सब बोता है
आपके पास तो
एक बिस्वा खेत नहीं है
जो है हवा-हवाई है
आलोचना में हाथ की सफाई है
ज़रूरी नहीं
कि परमानंद के सेवक भी
इस शहर में आलोचना का परमपद
प्राप्त करें ख़ुद को शांत करें
ठंडा तेल अपनी खोपड़ी पर धरें
कुछ बनने के लिए तीस साल बहुत होते हैं
मान लें कि इतने लंबे वक्त में
न आप आलोचक का पद बचा पाए
न विमर्शकार बन पाए
बेहतर होगा
आलोचना के परिक्रमाकार के रूप में
ख़ुद को मुतमइन करें।
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दीन-हीन निरीह लेखक की हवाई फायरिंग
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गोरखपुर के एक लेखक ने
बाहर के एक लेखक की पोस्ट पर
कुछ टिप्पणी की
बाहर के लेखक ने
गोरखपुर के लेखक को उसके मुंह पर कहा,
आप मूर्ख हैं
और
गोरखपुर के लेखक ने
तुरत झुककर हथियार डालते हुए कहा,
आप यही कह सकते हैं
हद है
इस दीन-हीन निरीह लेखक ने
गोरखपुर का मान कितना घटा दिया
पलट कर यह भी नहीं कहा
कि आप महामूर्ख हैं
या मैं नहीं आप मूर्ख हैं
किसी ने पूंछ पर पैर रखा
तो दस दिन बाद फनफनाये
हवा में खूब तलवारबाजी की
बेनामी गालियां दीं
बाहर के लेखक को
पता ही नहीं कि पट्ठा यह प्रलाप
किसे सुनाने के लिए कर रहा है
पूंछ पर पैर रखने वाले को पता नहीं
हवाई फायरिंग का मतलब भीड़ में होता है
साहित्य में हवाई फायरिंग का मतलब
शुद्ध मूर्खता है
पट्ठा जो-जो ऊपर वाले पर फेंक रहा था
सारा सूखा गीला गंदा उसके मुंह पर
गिर रहा था फिर भी वह बहुत खुश था
गोरखपुर का लेखक है इतना ही काफी है
कुछ भी कहूंगा तो हम सबकी बदनामी है
यों कहने को पूरा पोथा अभी बाकी है।
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मेरे विद्यार्थियो
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कहां होंगे
मेरे विद्यार्थी
कविता का दरवाज़ा खोलना
उन्हें ठीक से याद होगा
अब भी सीढियों से उतरकर
दोस्तों और सखियों संग
मर्मस्थल पर पहुंचने की बेचैनी
उतनी ही तीव्र होगी
अब भी
उनके जीवन में
उतना ही गाढ़ा होगा
गुलमोहर और अमलतास का
सुर्ख़ और चटक पीला रंग
कहां होगे
मेरे विद्यार्थियो
मेरे बच्चो इस हारी-बीमारी में
कहीं निपट अकेले तो नहीं होगे
किस हाल में होगे।
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लाइव मुकुट वितरण
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कवि जी
ख़ूब आस्तीनें मोड़ते हैं
ख़ूब तलवारें भांजते हैं
काले बादलों से भी ज़्यादा
ख़ूब-ख़ूब गरजते हैं
कवि जी जैसे
अपने इस महारोर से
सब उलट-पलट देंगे
हिंदी की काली दुनिया को
दिव्यज्योति से पलभर में
भासमान कर देंगे
ये क्या हुआ
कवि जी का सिंहनाद
लाइव में आते ही गुम हो गया
कवि जी मुदितमन प्रसन्नवदन
मुकुट वितरण करने लगे।
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कहां होंगे
मेरे विद्यार्थी
कविता का दरवाज़ा खोलना
उन्हें ठीक से याद होगा
अब भी सीढियों से उतरकर
दोस्तों और सखियों संग
मर्मस्थल पर पहुंचने की बेचैनी
उतनी ही तीव्र होगी
अब भी
उनके जीवन में
उतना ही गाढ़ा होगा
गुलमोहर और अमलतास का
सुर्ख़ और चटक पीला रंग
कहां होगे
मेरे विद्यार्थियो
मेरे बच्चो इस हारी-बीमारी में
कहीं निपट अकेले तो नहीं होगे
किस हाल में होगे।
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लाइव मुकुट वितरण
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कवि जी
ख़ूब आस्तीनें मोड़ते हैं
ख़ूब तलवारें भांजते हैं
काले बादलों से भी ज़्यादा
ख़ूब-ख़ूब गरजते हैं
कवि जी जैसे
अपने इस महारोर से
सब उलट-पलट देंगे
हिंदी की काली दुनिया को
दिव्यज्योति से पलभर में
भासमान कर देंगे
ये क्या हुआ
कवि जी का सिंहनाद
लाइव में आते ही गुम हो गया
कवि जी मुदितमन प्रसन्नवदन
मुकुट वितरण करने लगे।
सारी कवितायें, आज की कविता,आलोचना के परिदृश्य के साथ साथ शोध और शोधकर्ता तथा उनके गाइड्स की सच्चाई को रेखांकित करती हुई,वस्तुस्थिति को उजागर करती हैं। बेहद सधे मारक व्यंग्य की ये कविताएं पाठक को सोचने समझने के लिए मजबूर करती हैं।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र धीर, कोलकाता