-गणेश पाण्डेय
(साठ पर लिखी ये कविताएँ बिल्कुल अच्छी नहीं होंगी, बहुत छोटा कवि हूँ। “सबद एक पूछिबा“ में गोरखनाथ से कहा है कि इस शहर के सबसे बड़े कवि आप और सबसे छोटा मैं - कविता के कछार का गरीब बेटा। हाँ, मद्धिम आवाज में यह जरूर कहना चाहूँगा कि “कवि का जीवन“ खराब नहीं जिया है, वह सब नहीं किया है, जिसे करके कुछ लोग ऊँची कुर्सी हथिया लेते हैं।
साहित्य के राक्षसों से मिला एक-एक दर्द याद है, पर जाने देता हूँ उन्हें, नहीं कहूँगा कि मेरे साठ साल की कथा “ जीवन ऐसे जिया “ से मिलाकर अपना जीवन देख लो...यह कविता हिन्दी के राक्षसों के पढ़ने के लिए है भी नहीं। इस माध्यम पर मुझे जो बड़े भाई, मित्र और प्यारे अनुज मिले हैं उनके लिए हैं...बड़ी-छोटी बहनों के लिए है...शिष्यों के लिए है...जाहिर है कि हिन्दी के सभी सज्जनों और देवियों के लिए है।)
जीवन ऐसे जिया
कागज में भी आज साठ का हुआ,
हाँ-हाँ, पक्का हुआ साठ का हुआ
बाबूजी हुआ
आपके हिसाब से हुआ
माँ आज गणेश चतुर्थी नहीं है
फिर भी तेरा बेटा साठ का हुआ
बुआ देख मेरी कनपटियों के ऊपर
झक सफेद टोपी
तेरी गोदी में छीछी करने वाला बच्चा
साठ का हुआ
चले गये जब सब अपने
क्या-क्या हुआ बताऊँ किसको
पाया क्या-क्या खोया क्या
जीवन ऐसे जिया
जैसे कोई निर्धन
फटी बनियान के भीतर
लेकर अपना टूटा-फूटा ईमान
जिया
कवि तो हुआ
बस हुआ नहीं अब तक
कविता का एकल पाठ कहीं
लिखा नहीं किसी ने
मेरी कविताओं पर कोई लंबा लेख
कौन छापता भला
मुझ देहाती भुच्चड़ का कोई इंटरव्यू
मेरे नाम नहीं कोई इनाम
मिला नहीं हिन्दी का कोई प्रभु अब तक
शीश झुकाता जहाँ
बनाता जिसको साहित्य का अपना परमपिता
इस पथ में मिले एक से एक
रंगेसियार
घड़ी-घड़ी आते थे दुश्मन भेस बदल
लड़ता रहा हमेशा जिनसे
हँसता
देख हिन्दी के बड़े-बड़े डरपोक निरंतर
सबको बैरी करता ऐसे ही हँस-हँस कर
मत पूछो कैसे-कैसे शत्रु मिले
गुरुओं ने भी किया प्रहार गुरुतर -
‘‘पहला बाण
जो मारा मुख पर
आंख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।’’
क्या गुरु ,क्या गुरुभाई, सब-
जब भी आते बाहर से साहित्य सितारे
मेरे चेहरे पर लंबा घूँघट कर देते थे
हाथ बाँधकर पीछे
मिट्टी में नीचे दफना देते थे
और मैं देहाती भुँईंफोर बन
बाहर आ जाता था
पूछो मत
कितना गरीब था मैं इन साठ सालों में-
दोस्त भी मिले तो ढ़िलपुक
जो बाद में महाढ़िलपुक हुए और उसके बाद अदृश्य
मेरे जीवन की नीच से भी नीच विडम्बना यह
कि मेरा ढ़िलपुक दोस्त दिल्ली का पेटेंट भक्त था
सत्ता किसी की भी हो मान हो अपमान हो
वह दिल्ली का था
हर दिल्ली जाने-आने वाले का सगा था
और मैं कमबख्त किसी का भक्त-सक्त नहीं था
मैं तो लड़ाई में था मुझे फुर्सत कहाँ थी
और कोई देवता मेरे पास फटकता नहीं था
हाय-हाय
समय बीत गया प्रिये
चतुरकवि नहीं बन पाया
मठाधीशों की गोद मेरे लिए खाली नहीं थी
निश्चिंतभाव से कविता की कीमियागीरी के लिए
उनके पास वक्त ही वक्त था मेरे पास वक्त नहीं था
दर्ज किया जाय जहाँपनाह
मेरे पास उन जैसा नहीं था उनके पास मुझ जैसा नहीं
मैं तो लहूलुहान था मुझे सचमुच का लड़ना था
तानाशाह और फासिस्ट पर बिना लड़े कविताएँ कैसे लिखता
कितना अलग-थलग था मैं कविता की नकली दुनिया में
जहाँ अच्छा कवि बनने के मंत्र भी नकली थे
हर चमकता हुआ कवि नकली था
आलोचक भी नकली
एक जुल्फीसँवार चिर युवा आलोचक दिखे,
खूब बातें होतीं थीं, खूब चाय पीते थे
उम्र में अपने से छोटे
हिन्दी के एक जुगाड़ी के पीछे चलने से उन्हें मना करता,
कहता किसी पाजामा, किसी पैंट के पीछे नहीं, साहित्य के पीछे चलो,
वे दिल्ली की गाड़ी के छोटे-छोटे पुर्जे
चाहे मामूली से मामूली नट-बोल्ट के पीछे जा सकते थे,
पर मेरे साथ नहीं चल सकते थे
उनको भी नमस्कार किया
चला अकेले
बढ़ा अकेले
चलता रहा, चलता रहा अकेले
आभासी दुनिया में मित्र मिले वे प्रियवर
ढ़ूँढ़ता रहा जिन्हें मैं नित्य इस अरण्य में
यह शहर साहित्य का महा अरण्य
हैं जहाँ गुफाएँ बड़ी डरावनी
एक से एक हिंस्र और भयभीत साहित्यपशुओं की
जहाँ संस्थाओं की प्रयोगशाला में शोधित किये जाते हैं
साहित्य के अतितीव्र विष
जीवन अब तक ऐसे इन्हीं हत्यारों के बीच जिया
यों बाहर भी कुछ हिंस्र दिखे
डरपोक दिखे कुछ
सत्ता से जुड़े एक संपादक को नानी जी की याद आ गयी
हिन्दी के सुमनों पर लिखी मेरी एक मामूली कविता छापने में
कई तो मेरा नाम देखकर डर जाते थे
कि कोई देख न ले उन्हें मेरा नाम देखते हुए
वे राजनीति के फासिस्टों का अँगरखा तार-तार कर सकते थे
उसे चिंदी-चिंदी करके आसमान में उड़ा सकते थे
पर साहित्य की फासिस्ट सत्ता के आगे
क्षणभर में अपने वस्त्र उतार देते थे
यह साहित्य का एक भयानक समय था
जहाँ मैं था और पूरी ताकत के साथ था
मेरी तरह और लोग भी थे लगभग चीखते हुए
इस बुरे समय में हम साथ-साथ थे
यह भी साहित्य का एक जीवन था
कई लेखकों ने
साठ पर षडयंत्रपूर्वक
खुद पर खास अंक निकलवाये
कई चिरकुटों ने तो बाकायदा
किताबें संपादित करायीं खुद पर
मुंशियों से
और कलिकाल में
षष्टिपूर्ति का पाप इसप्रकार बहुत बढ़ गया
देखकर
मेरी जान ने
अपनी जान के लिए कुर्ता सिलवाया है
देखते नहीं कितना खिल रहा है
एक नाराज कवि की काठी पर
जीवन क्या जिया
कुछ तो बहुत अच्छा जिया
कुछ कम अच्छा जिया
न जीभर का घूमना हुआ
न दुनियाभर की किताबें पढ़ पाया
न घर के फर्श पर टाइल्स लगा सका
न बच्चों के जिए जहाज-वहाज खरीदा
न एक फटीचर कवि की नेक बीवी के लिए
सोना-चाँदी
जो था सौंप दिया जो किया सो किया
जीवन से अधिक कविता को प्रेम किया
कविता के सरकारी कागज पर लिख दिया
जीवन ऐसे जिया।
साठ का होने पर
साठ तक पहुँचते-पहुँचते
पता चल जाता है कि आ गया है बुढापा दरवाजे पर
बजाता है साँकल जरा-जरा-सा रुक-रुक कर
किवाड़ की दरार से भी जरा-सा झाँककर देखो तो सीधे घुस आता है
धड़धड़ाता हुआ बैठक में
पसर जाता है सोफे पर बूट समेत
सोने के कमरे में घुसते उसे देर नहीं लगती
और गुसलखाने में तो पहले से कमोड पर बैठा मिलता है
साठ तक पहुँचते-पहुँचते बात-बेबात चटकने लगती हैं हड्डियाँ
खूबसूरत चमड़ी कट-फट जाती है जगह-जगह
बिखर जाती हैं एक-एक करके सारी पंखुड़ियाँ बूढ़ी त्वचा की
कहां हो तुम देखो किस तरह घेर लिया है मुझे
अच्छे दिनों की याद की झुर्रियों ने
कमबख्त इस बुढ़ापे ने किसी रोज तुम्हें भी छेड़ा होगा सरेराह
मुझे अब क्यों नहीं लगता कि जिंदगी कोई जवांकुसुम है
बबूल भी कम लगता है नाम देने के लिए
और बेईमान दोस्त कहते हैं, नहीं-नहीं, इश्क है इबादत है सबकुछ है
मैं कहता हूँ नहीं-नहीं
हद से हद सख्त पहाड़ों के बीच सूखा हुआ सोता कह सकते हो
क्या से क्या कर गुजरने वाली नजर अब अक्सर जाती है ठहर
बस इससे आगे और इससे साफ दिखता नहीं है कुछ
तुम कहते हो मेरी नज़र को कुछ हो गया है
मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारी सोच को क्या हो गया है
मुश्किल यह कि हम बाहर चाहे जितना शोर कर लें
कविता के घर में गुस्सा हो या प्यार इशारे में कहना जरूरी है
नहीं तो बाहर रहना जरूरी है
कई दिनों से आलोचना के भद्रजनों से कहना चाहता हूँ
और कह नहीं पा रहा हूँ कि मेदा कमजोर हो गया है
कि भारी गैस बुढ़ापे की निशानी है
थक गया हूँ
हर दो मिनट पर धूम-धड़ाके के साथ गैस छोड़ते-छोड़ते
सभा-सोसाइटी हो एसी थ्री या टू का डिब्बा हो या सब्जीमंडी
इज्जत के साथ निकलना मुश्किल है देखते हैं लोग पलट के
लेकिन यह बात कविता में कहना मुश्किल है
अलबत्ता कह सकता हूँ
उनदिनों इश्क में भी इतनी तेज नहीं थी खून की रफ्तार
सब कहते हैं कि रक्तचाप ने मुझे चाप दिया है कसके
और हैरान हूँ कि खून में भी आ गयी है शरबत जितनी मिठास
एक बूढ़े की पेशाब की एक बूँद के हजारवे हिस्से को चखने के लिए
न जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं असंख्य च्यूंटे
कविता की पुलिस मुझे गिरफ्तार न करे तो जानना चाहूँगा
कि किस देश के बाशिंदे होते हैं ऐसे च्यूंटे
जरा-सी मिठास के लिए चलते ही चले जाते हैं हजार कोस
इन्हें धिक्कारूं या झुक कर सलाम करूँ
बुढ़ापे की मद्धिम आवाज में
मेरे जैसे असंख्य विपन्न बूढ़े आखिर क्यों मारे-मारे फिरते हैं
जिन्दगी में जरा-सी मिठास के लिए
गोया समय के पहाड़ के नीचे दबी हुई गुड़ की सबसे छोटी डली हो
और पहाड़ को छाप लिया हो च्यूंटों की दुनिया की सबसे बड़ी फौज ने
और पहाड़ तो पहाड़, टस से मस नहीं
यह जानते हुए कि जिनके पास है, सोने का तमगा नहीं बचेगा
नहीं बचेगा चांदी का विशाल छत्र
फिर भी सोचता हूँ कि बचा रह जाएगा मुझमें से मेरा कुछ
कोई ढ़ूँढेगा हजार बार मेरे दिल के तहखाने में
मेरा टूटा-फूटा प्यार
ढ़ूंढ़ेगा कोई मुझे मेरी बकवास कविताओं में
शायद मेरे आगे-आगे गुस्से में चलता मेरा गुस्सा बचा रह जाए
मेरा हौसला बचा रह जाएगा शायद एक कण जितना
और कैसा भी हो मेरा सोचना जो सिर्फ मेरे लिए नहीं है
बचा रहेगा बचा रहेगा बचा रहेगा मेरा दिल कहता है
जलेंगी तो जलेंगी सिर्फ्र आँखें, स्वप्न बचा रहेगा
पृथ्वी की सबसे बड़ी जलती हुई चिता भी उसे नहीं कर सकेगी राख
मेरे बेटो, मेरे प्यारो, तुम भी एक दिन साठ के पास पहुंचोगे
हड्डियां कमजोर होती हैं, टूटती हैं, जुड़ती हैं,
पृथ्वी पर नयी हड्डियों का कारखाना कभी बंद नहीं होता
आती है हड्डियां नयी-नयी
उतनी ही सफेद, उतनी ही मजबूत और उतनी ही
यह दुनिया खराब और अच्छी हड्डियों का गोदाम है
अंत में आखिर हड्डियों के कुछ टुकड़े ही तो बचते हैं
न रुपया बचता है, न प्रधानमंत्री की कुर्सी
अकादमी का संडास भी साथ छोड़ देता है
किताबें भी धरी की धरी रह जाती हैं, ज्ञान किसी काम का नहीं रहता
साठ का होने पर एक नयी किताब शुरू होती है
लेकिन सबके साथ ऐसा कहां होता है
कुछ लोग साठ के बाद दूसरी योनि में चले जाते हैं
कुछ के पीछे दुम निकल आती है
कुछ के जबड़े में खून लग जाता है
कुछ के नाखून और लंबे हो जाते हैं
कुछ रुपया खाते-खाते
अन्न की जगह हीरे-जवाहरात खाने लगते हैं
कुछ तो रुपये की हाफपैंट पहनकर
देश की सरकार चलाने लगते हैं
कितना दुर्बल हूँ
कि साठ का होने पर ढ़ंग से एक घर नहीं चला पाता
न किसी जंगल से लकड़ी काटकर ला पाता हूँ
न खेत से मनचाही चीजें
कितना बूढ़ा हो गया हूँ काँपते रहते हैं हाथ
डर के मारे फिसल जाता है दो रुपये का सिक्का
कुछ लोग साठ का होने पर बूढ़े क्यों नहीं होते हैं
जिसके पास बंदूक नहीं होती है
जिसके पास फौज नहीं होती है
जिसके पास लालबत्ती की गाड़ी नहीं होती है
जिसके पास खाना-खजाना नहीं होता है
और जिसके पास तुम नहीं होती हो मेरी जान
सब बूढ़े क्यों हो जाते हैं साठ का होने पर
क्या तुम सब बूढ़ी नहीं होती होगी
साठ का होने पर।