मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

कुछ कविताएं/

-गणेश पाण्डेय


उठा है मेरा हाथ

मैं जहाँ हूँ
खड़ा हूँ अपनी जगह
उठा है मेरा हाथ।

रुको पवन
मेरे हिस्से की हवा कहाँ है।

बताओ सूर्य
किसे दिया है मेरा प्रकाश।

कहाँ हो वरुण
कब से प्यासी है मेरी आत्मा।

सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने।

(1996)


पूरे शरीर से


कई बार पसीजती हैं हथेलियाँ
कहना चाहती हैं कि बस
मुझे विदा करोे

कई बार दृश्य के विरुद्ध
उद्यत होती हैं 
आँखें

कई बार उठते हैं हाथ
कि पूरा चाहिए, अपना
राज्य

कई बार बाजार से लौटकर
सीधे लाम पर जाना चाहते हैं
पैर

कई बार मचलता है मेरा दिल
और पूरे शरीर से होती है
बम होने की इच्छा।

(1996)



मुहावरे


तुम्हारी आँखें, तुम्हारी भुजाएँ
तुम्हारे पैर, तुम्हारी छाती
और तुम्हारा सिर
कुछ नहीं लेंगे वे

तुम्हारे बारे में गोपनीय सूचनाएँ
सामरिक महत्व के ठिकानों के पते 
और साथियों के नाम
कुछ भी नहीं लेंगे वे

वे आएँगे तुम्हारे बीच
कोई भी रूप धर कर
उठाएँगे तुम्हारे मुहावरे
और सब ले लेंगे।

(1993)

दरअसल वे पिछड़े थे

जिनके पास पीने भर का साफ पानी नहीं था
जिनके पास दो जून का मनचाहा अनाज नहीं था
जिनके पास मुर्दे की तरह लेटने भर की जगह नहीं थी
जिनके पास नियम में छेद करने का कोई औजार नहीं था
जिनके पास जीने भर का कुछ भी नहीं था
जिनका कभी किसी संसद में आना-जाना नहीं था
जिनके लिए किसी भी तरह का बाजार
एक लंबी और अंतहीन दौड़ का डरावना सपना था
सबसे खराब बात यह कि जिनके पास कोई खतरनाक
शब्द नहीं था
दरअसल वे पिछड़े थे।
वे पिछड़े थे कि उनके प्रतिनिधि तनिक भी नहीं पिछड़े थे ।


(1996)





गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

बेताब हो रहे हैं नब्बे करोड़ पुरवे

-गणेश पाण्डेय

मेरे शरीर के आँवें में
बेताब हो रहे हैं नब्बे करोड़ पुरवे
दुनियाभर के होंठो को  चूमने के लिए

निकल पड़ना चाहता हूँ चाय की गंगा लेकर
गाँव-गाँव, कस्बा-कस्बा, शहर-शहर

यहाँ-वहाँ, इस पर-उस पर
पूरे आसमान पर लिख देना चाहता हूँ चाय
गरुड़ की पीठ पर बैठ कर

मठाधीशों और इमामों के अँगरखे पर
छिड़क देना चाहता हूँ एक सौ आठ बार चाय

हृदय की अँगीठी पर
रक्त और धड़कनों की मिठास से बनी चाय

सबको पिलाना चाहता हूँ गरमागरम चाय
और सबसे मिलाना चाहता हूँ हाथ

हवाओं में भर देना चाहता हूँ चाय की आदिम गंध
सुनाना चाहता हूँ सबको भीतर के तारों पर
चाय का संगीत।

(1993)




सोमवार, 14 अप्रैल 2014

लेखक होने का अर्थ

-गणेश पाण्डेय

     कोई पांच दिन लेखक होने की अपनी ज्यादा और दूसरों की बहुत कम मूर्खता से दूर रहा। कहें कि पूरी तरह मुक्त रहा। यह मुक्ति बड़ी प्रतिकर थी। न कोई मोदी, न कोई राहुल, न कोई मुलायम न कोई आजम, न अमुक-ढ़मुक लेखक जी लोग। बेटियों के पास उनकी यूनिवर्सिटी और इंस्टीट्यूट के परिसर में और उनके साथ एक-एक क्षण। बीच-बीच में फोन आते तो हां-हूं, नहीं और बाद में कह कर काटता रहा। सच आप माने या न माने पिता का पद लेखक के पद से ही नहीं, पृथ्वी के बड़े से बड़े पद से बड़ा होता। आप न माने, आपकी मर्जी और लेखक होने की आपकी महानता का आदर फिर भी करूंगा, पर विनम्रता के साथ यह भी कहूंगा कि हम जो पैदा हुए हैं तो किस काम के लिए ? हमारा नैसर्गिक दायित्व क्या है ? पिता होना अर्थात सृष्टि को चलाना या प्रधानमंत्री होना ? हम कहीं नौकरी करते हैं या कोई व्यवसाय करते हैं या कृषि का कार्य करते हैं तो अपने घर-परिवार के लिए ही। लेकिन हम सिर्फ अपने घर-परिवार के लिए सब नहीं करते हैं, कुछ दूसरों के घर-परिवार के लिए भी करते हैं। हम एक साथ परिवार और समाज के सदस्य होते हैं। परिवार तो अपने आप में समाज की एक इकाई है ही। बहरहाल कहना यह कि पूरी तरह बच्चों के साथ रहा पांच दिन। इस बीच फेसबुक की राजनीति विषयक टिप्पणियों अर्थात फेसबुकी पत्रकारिता से दूर रहा। दूर तो सचमुच के अखबार से भी रहा। बमुश्किल दो-चार मिनट टीवी से आमना-सामना हुआ। नही ंके बराबर। 
    हां, भले हमें राजनीति से दूर रहना कभी प्रीतिकर लगे, लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीति का प्रभाव सब पर पड़ता है। मनुष्य तो मनुष्य, सचमुच के पशुओं पर भी। उसके निर्णय और उसकी नीतियां, हमारे बच्चों के भविष्य को प्रभावित करती हैं। कहना चाहिए कि सबके बच्चों को प्रभावित करती हैं। इसलिए अपने समय की राजनीति की अनदेखी बड़ी ना समझी है। देखना तब अच्छा होता है, जब हम ठीक से देखें। सम्यक। आगे देखें, नीछे न देखें या दायें देखें और बायें न देखें तो इस देखने का वह प्रतिफल नहीं मिलेगा जो पूरा देखने पर मिलेगा। यह इसलिए कह रहा हूं कि फेसबुक पर कभी-कभी राजनीति के पंडितों के विचार और तर्क इत्यादि से अरूचि पैदा हो जाती है। छाछठ-सड़सठ साल में भी इस देश से गरीबी दूर नहीं हुई। असमानता जस की तस है। बीच में एक मष्यवर्ग जरूर थोड़ा फैल गया है, पर वह पूरा देश नहीं है। कुछ नौकरी वाले लोग कुछ सुविधाएं और अवसर पा गये हैं, कुछ दूसरे लोगों को भी तलछट से कुछ मिल गया होगा, पर देश की बुनियादी समस्याएं जस की तस हैं। पूरे पांच दिन मैं जहां-जहां गया, मध्यवर्ग के बाहर की दुनिया मेरा पीछा करती रही। यात्रा में गरीबी मेरे साथ यात्रा करती रही। कण-कण में दिखी गरीबी। हर जगह झुग्गी-झोपड़ी और बेघर लोग दिखे। समतल हो या पहाड़, गरीबी का घर हर जगह दिखा। मिट्टी के कच्चे घर, छत फूस की। कोई दरवाजा नहीं, न किस्मत का, न पैसे का, न व्यवस्था का...शुरू में इसीलिए लेखक होने की मूर्खता का जिकर किया है। क्या विख्यात मोदी जी के आने से, इस देश में सम्पन्नता या खुशहाली आ जाएगी ? आएगी तो किस वर्ग के लिए ? क्या कुख्यात मोदी जी के न आने से गरीबी उड़नछू हो जाएगी ? बेरोजगारी दूर हो जाएगी ? अपराध मिट जाएंगे ? क्या हिंदी का बड़े से बड़ा लेखक आज चुनाव लड़ने में सक्षम है ? एकाध करोड़ खर्च कर सकता है ? फिर यह मूर्खता लेखक क्यों करे कि बस यह नहीं ? लेखक को यह नहीं कहना चाहिए कि यह, यह, यह, यह सब नहीं ? पार्टियां पवित्र हैं, व्यक्ति खराब ? यहां तक भी बहुत बुरा नहीं, चलो किसी एक का विरोध कर लो, लेकिन क्या यह चुनाव से पहले मान लिया है कि किसे देश का नेता बनना है ? पक्का है ? कोई और दृश्य नहीं हो सकता है, यह नहीं हो सकता है कि पार्टी में ही कुछ ऐसा हो जाए कि किसी और को नेता बनाना पड़ जाय ? उस स्थिति में आपके आकलन का क्या होगा ? चलो वह न बने तो जो अब तक रहा है, वही आ जाए तो बुनियादी समस्याएं हल हो जाएंगी ? पिछले छाछठ सालों में किसका-किसका पेट फूला है ? विपन्न तो आज भी जस का तस है। स्त्री आज भी उतनी ही असुरक्षित है। असुरक्षित भी और असमानता की शिकार भी। जिसे भी चुनते हैं कि जाओ जरा हाकिम से बात करो कि क्यों व्यवस्था ऐसी है ? वह जाता है बात करने और खुद हाकिम बन जाता है-

‘ऐसा क्यों है वहाँ 
बिजली नहीं है वहाँ 
रास्ता नहीं है, पानी नहीं है शुद्ध
कोई आदमी नहीं है वहाँ
जो कर सके हाकिम से बात।
हर बार मत के भाड़े पर
वे बुलाते हैं जिस आदमी को
वही हाकिम हो जाता है।’’ 
(वे बुलाते हैं जिस आदमी को / ‘जल में’ से)
 
       आप लेखक जी लोग कहते हैं कि इसको नहीं ? अरे भाई मैं जानना चाहता हूं कि किसको ? बताते क्यों नहीं कि फिर किसको ? मैं अच्छी तरह अनुभव करता हूं कि किसी अमुक जी के आने से यह देश सोने की चिड़िया नहीं होने जा रहा है, चलो मान लूं कि सोने की चिड़िया हो भी जाए तो वह चिड़िया घुरहू-निरहू की फूस की झोपड़ी में वास नहीं करेगी ? वह वास या उपवास का नाटक जो भी करेगी अमीर-उमरा की कोठी में ही करेगी। चुनाव के पहले हो या बाद में नेता जी लोग कहते कुछ और हैं, करते कुछ और हैं। कहते हैं कि चोर को पकड़ने का कानून बनाएंगे और पीछे से उसी में बचने का रास्ता भी निकाल देंगे। कहते हैं कि गरीबी दूर करंेगे और अमीरो की अमीरी और बढ़ाने का रास्ता निकाल देंगे। परिवर्तन का स्वांग करने वाली पार्टी भी जाति और धर्म के आधार पर चुनाव लड़ती है। हर दल राजनीति के हम्माम में एक-सा है-

‘‘फिर उपराये
नये-नये छपहार
घुसकर, घर-घर
खोज-खोज कर 
आजू-बाजू, छाती-पुट्ठ
अंग-अंग पर छापा जीभर
टीका।
उल्टा टीका, सीधा टीका
छोटका टीका, बड़का टीका
माई का टीका
चाई का टीका
फिर भरमाये
हँस-हँसकर छपहार।
अन्न मिलेगा, पुन्न मिलेगा
राज मिलेगा, पाट मिलेगा
सरग मिलेगा धरती पर
चेहरा-चेहरा फूल खिलेगा
फिर बतियाये
हाथ पकड़ छपहार। 
तंबू लेकर, भोंपू लेकर
सर्कस लेकर, जोकर लेकर
फिर फुसलायें
बड़े-बड़े छपहार।’’
(छपहार / ‘जल में’ से)
 
      मित्रो! यह देश कोई प्राइमरी स्कूल नहीं है और न जनता प्राइमरी की विद्यार्थी कि जैसे हम छपहार के आने की झूठी सूचना से भी भयभीत होकर प्राइमरी स्कूल से भाग जाया करते थे, आज के राजनीतिक छपहारों को विभिन्न मुद्राओं में साक्षात देखकर भाग जायें....तब के छपहार हमें बीमारी से बचाने के लिए टीका लगाते थे, ये जनता को फँसाने के लिए...सच तो यह कि ये राजनीतिक छपहार जनता को अभी भी प्राइमरी का विद्यार्थी ही समझते हैं। समझ की जगह डर पैदा करने वाले लेखक जी, संपादक जी, बुद्धिजीवी जी इत्यादि को क्या कहें...ये इस बड़े सच को क्यों पीठ दिखाते हैं कि जो एक कर रहा है और जिस लिए कर रहा है, दूसरा भी वही कर रहा है। जिन्हें जनता की शक्ति और सत्ता में विश्वास है वे जानते हैं कि जनता आसमान से विकल्प नहीं ला सकती है। मौजूद विकल्पों में से ही उसे कभी इस पार्टी को तो कभी उस पार्टी को चुनना होता है। विकल्प, परिवर्तन और चुनावसुधार के लिए जनता ने किसी बिल्कुल नये या पुराने दल को कोई ठेका नहीं दिया है। विचार, साहित्य और कला की दुनिया के लोगों की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है...दुख इस बात का है कि लेखक जी लोग भी पार्टी कार्यकर्ता की तरह प्रतिद्वन्दी पार्टी को चोर है कहते हैं। इस बार तो पार्टी को भी नहीं, सिर्फ किसी एक व्यक्ति को कह रहे हैं। जबकि सब वैसे ही हैं, सत्तालोलुप। कौन है भाई जो सत्ता लोलुप नहीं है ? कौन है जो दमदार विपक्ष बनाना चाहता है ? कौन है ? जब लक्ष्य किसी तरह सत्ता प्राप्त करना होगा तो जायज-नाजायज सब हथकंड़े अपनाए जाएंगे। बात तो तब बनेगी जब लक्ष्य परिवर्तन का हो, सत्ता हस्तांरण का नहीं। इस बात तक पहुंचने में कई सदियां बीत जाएंगी, लेकिन एक लेखक क्या सिर्फ अपने समय से संवाद करता है ? क्या उसकी आवाज रह नहीं जाती है ? क्या बाद में उसे सुना नहीं जाता है ? बहरहहाल फेसबुक पर जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नक्कारखाने में तूती की यह आवाज रह जाएगी या नहीं, नहीं जानता। यह ठीक है कि अपने समय में आंख मूंद कर नहीं रहा जा सकता है, जो सामने है, उसका विरोध या समर्थन किया जा सकता है, बल्कि कहना चाहिए कि करना ही चाहिए, लेकिन लेखक सिर्फ अपने समय का मशालची नहीं होता है, उसकी मशाल आगे भी जाती है और राजनीति के आगे तो उसे होना ही चाहिए।




रविवार, 6 अप्रैल 2014

छपहार

-गणेश पाण्डेय

फिर उपराये
नये-नये छपहार
घुसकर, घर-घर
खोज-खोज कर 
आजू-बाजू, छाती-पुट्ठा
अंग-अंग पर छापा जीभर
टीका।

उल्टा टीका, सीधा टीका
छोटका टीका, बड़का टीका
माई का टीका
चाई का टीका
फिर भरमाये
हँस-हँसकर छपहार।

अन्न मिलेगा, पुन्न मिलेगा
राज मिलेगा, पाट मिलेगा
सरग मिलेगा धरती पर
चेहरा-चेहरा फूल खिलेगा
फिर बतियाये
हाथ पकड़ छपहार। 


तंबू लेकर, भोंपू लेकर
सर्कस लेकर, जोकर लेकर
फिर फुसलायें
बड़े-बड़े छपहार।




वे बुलाते हैं जिस आदमी को

बिजली नहीं है वहा
रास्ता नहीं है, पानी नहीं है शुद्ध
कोई आदमी नहीं है वहाँ
जो कर सके हाकिम से बात।
हर बार मत के भाड़े पर
वे बुलाते हैं जिस आदमी को
वही हाकिम हो जाता है।


(‘जल में’ से)





शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

लेखक इंसेफेलाइटिस फैला रहे हैं...

-गणेश पाण्डेय

किसी का कोई शेर है कि हर आदमी में छुपे होते हैं दस-बीस आदमी, जिसे देखना है, उसे कई बार देखो। शायद मधुकर जी का है। शायद इसलिए कि पक्का नहीं है कि उन्हीं का है। इस शेर की जमीन पर कई लोगों के शेर हो सकते हैं। मधुकर जी इस शहर के बड़े दंगली कवि थे। कोई बात हो तो किसी भी लेखक को तुरत दौड़ा लेते थे। मुझे याद है कि मैं जब विद्यार्थी था, मधुकर जी मुझे भी एकाधिक बार कविसममेलन के मंच पर गीतफरोश बना चुके थे। बंगाली जी ने मना किया तो मंचो पर जाना छोड़ा। मंच ही नहीं, गीत भी छोड़ा। जो दो-चार थे, फाड़-फूड़ कर फेंक दिया। कहना मुझे सिर्फ उस शेर के बारे में था, लेकिन बात जब बीते दिनों की आ ही गयी है तो कह देने में कोई कोई हर्ज नहीं कि मधुकर जी मुझ पर और मेरे मित्र और मेरी पीढ़ी के बहुत अच्छे आलोचक अरविंद त्रिपाठी पर इस बात को लेकर काफी खफा रहते थे कि हम लोग ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद (हरिजन-मधुकर जी के शब्द में सीधे वही) देवेंद्र कुमार के साथ क्यों रहते हैं ? वे चाहते थे कि देवेंद्र कुमार का साथ छोड़कर उनके साथ रहें। बंगाली जी के घर कई बार रात का खाना खाते थे। बंगाली जी कमरे पर आ जाते थे और कहते थे कि देर हो गयी है, अब क्या खाना बनाओगे, चलो मेरे घर। कहना तो कुछ और था, पर बात आ ही गयी है तो यह भी कि हम लोग विश्वविद्यालय की दगी, बिन दगी या बिगड़ी हुई तोपों की जगह बंगाली जी को अधिक आदर देते थे। रिटायर होने के कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया था। आज बंगाली जी रहे होते तो इस शहर के हिंदी के परिसर में अकेलेपन की जिस त्रासदी से गुजरा हूँ, शायद वह सब नहीं हुआ होता। बहरहाल कहना यह नहीं था। कहना था कुछ और। शुरू में ही जिस शेर का जिक्र किया है। बात उसी से आगे।
     एक आदमी में कई आदमी के संदर्भ के साथ। चार-छः तो नहीं कह सकता, पर अधिकांशतः एक में दो की मौजूदगी देखता रहा हूँ। एक में दो अर्थात एक अच्छा तो उसी में एक खराब। कभी अच्छा वाला दिख जाता तो ज्यादा समय खराब दिखता। इधर कई दिनों से फेबु पर एक आदमी में दो आदमी देखने पर बड़ा जोर है। पर अधिकांश आदमी उसी आदमी में दूसरे बुरे आदमी पर पृथ्वी पर मौजूद सारी रोशनी डाल रहे हैं। चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि वह आदमी जो किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री है, मुख्यमंत्री नहीं सिर्फ एक बुरा आदमी है। आततायी है। आशय यह कि वह एक धर्म विशेष के मनुष्यों की सामूहिक हत्याओं के लिए दोषी है। अत्याचारी है। तानाशाह है। हिटलर है। देश को बर्बाद कर देगा। सीधे-सीधे कह तो नहीं रहे हैं, पर उनके कहने का मतलब यही है कि उसके आने से ट्रेनें नहीं चलेंगी। हवाई जहाज बंद हो जाएगा। विद्यालय में प्रवेश और परीक्षाओं का काम रुक जाएगा। लोग पहले की तरह साइकिल में पंक्चर ठीक करना बंद कर देंगे। मजदूर, मजदूरी नहीं करेंगे। टाटा-बिड़ला, अंबानी वगैरह खुद खेतों में हल चलाएंगे। बैंक बंद हो जाएंगे। कचहरियाँ नहीं रहेंगी। लोग रिक्शा नहीं चलाएंगे। जेएनयू को या तो बंद कर दिया जाएगा या वहाँ से हटा कर गुजरात भेज दिया जाएगा। उसके न आने से देश में लंबित सारे मुकदमे दस दिन में निस्तारित कर दिये जाएंगे। सबके बच्चे एक तरह के स्कूलों में पढ़ेंगे। जैसे सबके एक-एक वोट से सरकारें बनती हैं, उसी तरह सरकारें सबके बराबर-बराबर हित के हिसाब से काम करेंगी। सबको पैसा बराबर मिलेगा। सबके पास पैसा बराबर होगा। मँहगाई नहीं रहेगी। चीजों की कीमत नहीं बढ़ेगी। इत्यादि-इत्यादि।
    मेरे हमउम्र एक आलोचक और फेसबुकी मित्र सूची के सम्मानित सदस्य इधर कई दिनों से उसके आने को लेकर बहुत भयभीत हैं। रोज अपनी दीवार पर कुछ गोद देते हैं। (1) येदियुरप्पा दूर करेंगे भ्रष्टाचार/अबकी बार मोदी सरकार। (2) ना कुछ समझा ना कुछ जाना/ बस पाखण्ड किया मनमाना/फिर भी हो रही जयजयकार। (3)/माली आता देख कर /कलियन करी पुकार/ फूले फूले चुन लिए /कल हमारी बार / अब की बार मोदी सरकार। दूसरे कई मित्र हैं, जो उन्हीं की तरह तंज और डर का मजा ले रहे हैं। मेरी पीढ़ी तक ही नहीं है, डर का यह सिलसिला। मेरी पीढ़ी के पहले की पीढ़ी भी भयभीत है। आततायी पर कविता लिखती है और साहित्य में खुद आततायी का काम करती है। जनसत्ता में न सिर्फ ऐसे झूठमूठ के डर को जगह मिलती है, उस डर को महिमामंडित भी किया जाता है। बहरहाल यहाँ मेरा उद्देश्य किसी कवि या अखबार को छोटा बनाना नहीं है और मेरी खुद की हैसियत भी इतनी नहीं है। हाँ, अलबत्ता यह कहना चाहता हूँ कि साहित्य में कल्पना सच को प्रभावशाली बनाने का एक महत्वपूर्ण औजार है, लेकिन जीवन में इस तरह के काल्पनिक डर का क्या प्रयोजन है ? राजनीति में कल्पना का क्या योगदान है ? राजनीति और पत्रकारिता का रथ तथ्यों और तर्कों के पहिये पर चलता है। तथ्य और तर्क यह है कि आज तक किसी भी सरकार ने गैरबराबरी की खाई को  पाटने का काम नहीं किया है। दिखावा जरूर किया है।यह देश मेरा भी है/यह देश आपका भी है/एक मत मेरे पास है/एक मत आपके पास भी है/एक अरब आपके पास है/एक सौ मेरे पास है/यह देश आपको प्यारा है/मुझको भी जान से प्यारा है/एक छोटी-सी जिज्ञासा है/मान्यवर, यह देश/कितना आपका है कितना हमारा है। सबसे बुरा तो यह भाई कि साहित्य में मार्क्सवादी आलोचकों के शिष्य आलोचक भी गैर बराबरी के इस नारकीय खेल के खिलाफ कम और हिन्दू-मुसलमान के खेल में ज्यादा रुचि ले रहे हैं। यह ठीक है कि साम्प्रदायिकता का विरोध जरूरी है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सिस्टम का विरोध करने की जगह व्यक्तियों के विरोध तक अपने को सीमित कर लो। 
‘‘बाबा 
तब कैसी थी दुनिया 
कैसे थे यहाँ के लोग-बाग 
ऐसी ही थी राजनीति की दुनिया 
स्वार्थ ऐसे ही निर्लज्ज था 
क्रूरता ऐसे ही असीम 
सब ऐसे ही थे 
जैसे ये हैं 
और इनके दल हैं 
ऐसे ही लूट लेते थे साधारण जन को 
कभी स्वप्न तो कभी भय दिखाकर 
ऐसे ही पहले के गैंग-शैंग करते थे 
पाँच-पाँच सौ और हजार-हजार के 
गांधी छाप नोटों की मोटी-मोटी गड्डी 
और आक़ाओं की कुर्सी की मजबूती के लिए 
क़त्ल दर क़त्ल 
ऐसे ही 
एक - एक साड़ी 
एक - एक पाउच
और दो-दो रुपये में 
खरीद लेते थे 
ईमान 
ऐसे ही जला देते थे अपने आज के लिए
सजातीय और सधर्मा जन-समूह का कल 
ऐसे ही रुपया उस समय का भगवान था 
ऐसे ही सबको क़र्ज़खोर बनाने के लिए 
किये जाते थे सरकारी उपक्रम
और उत्सव 

बाबा 
कैसा था उस वक़्त
माननीयों की समझ का संसार  
जैसे आज - 
इनकी बुनियादी समझ ही यही है 
कि इनके अलावा किसी के पास 
कोई समझ नहीं है 
देश में और इस शहर में 
जितने भी बैंक हैं बड़े-बड़े 
सब इनके सामने खड़े हैं 
शीश झुकाकर 
इनका 
छोटे से छोटा वोट बैंक
बड़े से बड़े बैंक से बड़ा है 
और ख़तरनाक 
ऐसा कोई बैंक 
पहले कभी देखा है बाबा 
किसी को वोट-सोट दिया है 
इनके चक्कर में पड़े हैं कभी 
आपके ज़माने की माया से 
कितनी ज़हरीली है आज की वोट माया 
कितनी चतुर है बाबा यह 
देखिए, तो - 
गणतंत्र के जीवन जल में 
कैसे डँसती है सबको 
मारौ मारौ 
स्रपनी निरमल जल पैठी...’’
(सबद एक पूछिबा)
      आज के राजनीति के जानकार बताएँ कि स्विस बैंकों में कालाधन जमा करना बुरा है तो देश की        राजनीति में वोट बैंक की राजनीति बुंरी क्यों नहीं ? क्या शुरू से ही इस लोकतंत्र को विवेक सम्मत बनाने की जगह वोटबैंक आधारित बनाने की कोशिश नहीं की गयी ? यह लोकतंत्र का अवमूल्यन नही तो और क्या है ? और तो छोड़िये पिछले दस साल देखिए कि हमारे पीएम महोदय लोकसभा के सदस्य नहीं थे,  राज्यसभा से आये। क्या यह कम गौरतलब है ? मैं यह नहीं कहता कि कोई मोदी का विरोध न करे। बेशक करे। कोई भी व्यक्ति इस सिस्टम से चुनकर आये। जो भी आएगा, इसी सिस्टम में उसे काम करना होगा। ऐसा नहीं होगा कि पहले अच्छा था, अमुक के आने पर खराब होगा। वह उन्नीस-बीस उतना ही अच्छा या खराब होगा जितना पहले था। इसलिए जरूरी है कि बुद्धिजीवी इस लोकतंत्र की कमजोरियों को ठीक करने के लिए आवाज उठायें। भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जनलोकपाल बिल से पहले जरूरी यह था कि चुनाव से पैसे की भूमिका पूरी तरह खत्म करने का कानून बने। कोई  बिना पैसे के चुनाव लड़ सके। राष्ट्रीय स्तर पर भारत जैसे गरीब देश के गरीब नागरिकों के लिए चुनाव लड़ने के लिए प्रचार का माध्यम बने। गाड़ियों की भूमिका खत्म हो। जहाज की भूमिका खत्म हो। बड़ी-बड़ी रैलियों की भूमिका खत्म हो। इत्यादि-इत्यादि। अखबारों और साहित्य का भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए आलोचक और कवि लोग लगें। देश की बीमारी का इलाज भी जरूर ढ़ँूढ़ें, पर पहले साहित्य के इंसेफेलाइटिस को दूर करने का उपाय ढ़ँूढ़ें। जीवन और समाज में मच्छर इंसेफेलाटिस फैला रहे हैं, लेकिन साहित्य में लेखकवे यह काम खुद ही कर रहे हैं। साहित्य के तानाशाहों को रोको। साहित्य के सांप्रदायिक लोगों को रोको। साहित्य और खासतौर से आलोचना और साहित्यिक पत्रकारिता के भ्रष्टाचार को रोको। मोदी को भी रोको, लेकिन कहीं ऐसा न हो मित्र कि आप मोदी को भी न रोक पायें और साहित्य के तानाशाहों को भी भ्रष्टाचार करने से न रोक पायें। दोनों लड़ाई जीतो। चलो दोनों न सही, कोई एक तो जीतो ही। वैसे कोई लड़ाई न जीतो तो भी कोई हर्ज नहीं। जीतना या हारना तो बाद की चीज है, पहले जीवन में लड़ना जरूरी हैं। लड़ो, लड़ने का धोखा मत करो। साहित्य का सच कहो। राजनीति का सच कहो- 
‘‘अपने आकाश से उतर कर
लकदक खादी में खिलखिल करते 
हाथ हिलाते आयेंगे बादल 
तो कहेंगे क्या 
कि बैठिए मिट्टी की इस टूटीफूटी खाट पर
हरी चादर बिछी हुई है खास आपके लिए 
मेड़ का तकिया थोड़ा मटमैला है तो क्या हुआ
आप चाहें तो पसर सकते हैं आराम से
आप चाहें तो जुड़ सकते हैं हमारे जी से आराम से
आप चाहें तो समा सकते हैं 
मिट्टी की अतृप्त देह की आत्मा में
और जुड़ाकर हमें 
आप चाहें तो परमात्मा बन सकते हैं आराम से
आप चाहें तो अपनी खादी जैकेट की जेब से निकाल कर 
चाँदी की वर्कवाली पान की गिलौरी 
सोने के दाँतों के बीच रख सकते हैं आराम से
आप हमारे लिए कुछ न करना चाहें
किसी अमीरउमरा की कोठी में आराम फरमाना चाहें तो जा सकते हैं
हमारे मुँह पर थूक कर आराम से
आप बादल हैं सरकार
हम आपका क्या कर सकते हैं
आप का घर और आपका दफ्तर
और आपकी थानापुलिस सब आसमान पर
हमारी पहुँच से दूर
क्या कर सकते हैं हम
आप जब चाहें
असगाँव-पसगाँव सब जगह गरज सकते हैं
आप चाहें तो कहीं भी बरस सकते हैं
आप चाहें तो किसी के खेत के हिस्से का पानी
दे सकते हैं किसी और के खेत को
चाहे किसी पत्थर पर डाल सकते हैं सबेरे-सबेरे 
हंड़ेनुमा लोटे में भर कर सारा जल
आप चाहें तो अपना पानी 
सुर-असुर और नर-किन्नर किसी को भी न देकर
सब का सब बेच सकते हैं खुले बाजार में
आप बादल हैं तो क्या हुआ जितना चाहें रुपया कमा सकते हैं
आप आकाश की संसद में बैठ कर जो राग चाहें काढ़ सकते हैं
अपनी संसद को दुनिया की सबसे बड़ी मंडी बना सकते हैं
हम कुछ नहीं कह सकते हैं आपको
आप के पास कोई विशेष अधिकार है
जिसके डर से हम आपसे यह भी नहीं पूछ सकते है
कि आप रोज गला फाड़-फाड़ कर यह क्यों कहते हैं 
कि सब हमारे भले के लिए करते हैं
सरकार
और माईबाप 
सब हमारे भले के लिए करते हैं 
तो हमारा पानी 
और हमारा पसीना ले जाकर विदेश के किसी बैंक में क्यों जमा करते हैं 
अफसोस हम आपसे पूछ नहीं सकते हैं
हम ठहरे मिट्टी के क्षुद्र कण 
और आप ठहरे खादी पहनकर गजराज की तरह चलने वाले 
दुनिया के सबसे बड़े तोंदिया बादल
हम कितने मजबूर हैं
हम ने कैसे काट लिए हैं अपने हाथ
कि हम आपसे पूछ भी नहीं सकते कि आप ऐसा कानून क्यों बनाते हैं
कि हमारा सारा पानी अपने मुँह, अपने नाक, अपने कान
अपने रोम-रोम से खुद पी जाते हैं
और हम आपको स्वार्थी नहीं कह सकते हैं
बेईमान भी नहीं कह सकते
सिर्फ और सिर्फ माननीय कह सकते हैं
और चोर तो हरगिज-हरगिज सात जन्म में नहीं कह सकते हैं
ऐसा कहने पर हमें जेल हो सकती
हमारे बच्चे भूखों मर सकते हैं
आपका कानून है आप खुद कानून हैं 
आप चाहें तो सबका पानी खुद पी जाने वाले मामले पर
चाहे रबड़ के मजबूत और विशाल गुब्बारे की तरह बढ़ती जाती हुई
अपनी तोंद के खिलाफ
थोड़ी-सी भी चपड़-चूँ करने पर जनता को 
सीधे गोली मारने का कानून बना सकते हैं
आप कोई ऐसे-वैसे बादल नहीं हैं
आप बादलों के दल हैं
दलदल हैं कीचड़ हैं
जिसमें जनता धँस तो सकती है पर जिससे निकल नहीं सकती है
राजनीति के इस कीचड़ में कोई कमल भला कैसे खिल सकता है
कानून की इस जादुई किताब में 
जनता को दलों के इस कीचड़ में धंसते चले जाने के लिए 
विवश करने का कोई बाध्यकारी कानून है
पर निकलने के लिए एक नन्ही-सी भी धारा नहीं है
और दबी जुबान से भी 
हम कह नहीं सकते कि यह संविधान हमारा नहीं हैं 
हमारी उँगली से चलता है बादलों का राजपाट
लेकिन 
आकाश में विचरण की अभ्यस्त संसद हमारी नहीं है 
हमारा देश , हमारी धरती, हमारा अन्न, हमारा श्रम, 
हमारा जीवन , कुछ भी हमारा नहीं है
यहाँ तक कि यह उँगली भी हमारी नहीं है।’’
(तोंदिया बादल)