बुधवार, 16 दिसंबर 2015

धर्मशाला बाजार के आटो लड़के

- गणेश पाण्डेय

वे दूर से देखते थे और पहचान लेते थे
मद्धिम होता मेरा प्याजी रंग का कुर्ता
थाम लेते थे बढ़कर कंधे से
मेरा वही पुराना आसमानी रंग का झोला
जिसे तमाम गर्द-गुबार ने
खासा मटमैला कर दिया था

वे मेरे रोज के मुलाकाती थे
मैं चाचा था उन सबका
मेरे जैसे सब उनके चाचा थे
कुछ थे जो दादा जैसे थे
इस स्टैंड से उस स्टैंड तक
फैल और फूल रहे थे
छाते की कमानियों की तरह
कई हाथ थे उनके पास
रंगदारी के रंग कई

दो-दो रुपये में
जहां बिकती थी पुलिस
वे तो बस
उसी धर्मशाला बाजार के
आटो लड़के थे हंसते-मुस्कराते
आपस में लड़ते-झगड़ते
एक-एक सवारी के लिए
माथे से तड़-तड़ पसीना चुआते
पेट्रोल की तरह खून जलाते

वे मुझे देखते थे
और खुश हो जाते थे
वे मेरे जैसे किसी को भी देखते थे
खुश हो जाते थे
वे मुझे खींचते थे चाचा कहकर
और मैं उनकी मुश्किल से बची हुई
एक चौथाई सीट पर बैठ जाता था
अंड़सकर 

वे पहले आटो चालू करते थे
फिर टेप-
किसी खोते में छिपी हुई
किसी अहि रे बालम चिरई के लिए
फुल्ले-फुल्ले गाल वाले लड़के का
दिल बजता था

उनका टेप बजता था
आटो में ठुंसे हुए लोगों में से
किसी की सांसत में फंसी हुई
गठरी बजती थी

किसी की टूटी कमानियों वाला
छाता बजता था
किसी के झोले में
टार्च का खत्म मसाला बजता था

और अंधेरे में
किसी बच्चे की किताब बजती थी
किसी छोटे-मोटे बाबू की जेब में
कुछ बेमतलब चाबियां बजती थीं
कुछ मामूली सिक्के बजते थे

किसी के जेहन में-
धर्मशाला बाजार की फलमंडी में
देखकर छोड़ दिया गया
अट्ठारह रुपये किलो का
दशहरी आम
और कोने में एक ठेले पर
दोने में सजा
आठ रुपये पाव का जामुन बजता था

और घर पर इन्तजार करते बच्चों की आंखें
बजती थीं सबसे ज्यादा।

(‘जापानी बुखार’ से)



गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

कविता के इलाके में नयीसदी की कविता

 - गणेश पाण्डेय 

           कविता के इलाके में एक नयी सुबह हुई है, जिसका नाम है-नयीसदी की कविता। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि नयीसदी की कविता ने कविता के इलाके में दस्तक दी है, अपनी आँखें खोली है, इत्यादि। यहीं आप ठिठककर पूछ सकते हैं कि कविता के इलाके से क्या आशय है, कविता तो कविता में होती ही है, बाहर कहाँ हो सकती है, कैसे बाहर हो सकती है भला ? बाहर जाते ही जल की रानी मछली की तरह मर नहीं जाएगी ? दोस्तो जैसे कभी आप घर से बाहर निकलते हैं, कहीं किसी राजनीतिक मंच पर भाषण देने जाते हैं या चुनाव लड़ते हैं या कक्षा में अर्थशास्त्र या दर्शन पढ़ाने जाते हैं या दो पैसे का काम करते हैं, बीसवीं सदी की आखिरी चौथाई में कविता से और न सिर्फ कविता से बल्कि कविता की आलोचना से भी बाहर का काम ज्यादा लिया गया हे। जैसे अर्थशास्त्र का काम, जैसे राजनीतिशास्त्र का काम, जैसे साम्प्रदायिकता के ‘क्षण-प्रतिक्षण’ विरोध का काम। देशी कारपोरेट या बाहर की कंपनियों का विरोध बुरा नहीं था, साम्प्रदायिकता का विरोध भी बुरा नहीं था, जीवन और समाज के सरोकारों से बाहर नहीं थीं ये चीजें, बस कविता के सरोकार से इस अर्थ में बाहर थीं कि कविता प्रथमतः भाव का व्यापार है, ज्ञान का नहीं। इसका आशय यह नहीं कि भाव विचारशून्य होता है। ज्ञान और सूचना की स्थिति कविता के इलाके में भाव के बाद आती है और अपने क्रम में स्वागतयोग्य भी हो सकती है, लेकिन हुआ यह कि कविगण ज्ञान की पीठपर सवार होकर कविता की वैतरणी पार करने की चेष्टा करने लगे थे। संतकवियों को तो ज्ञानमार्गी कवि कहा ही गया है, पर वे कविताच्युत कवि नहीं थे, वे कविता की पीठ पर सवार होकर ज्ञान के इलाके में जाते थे। कहते कि-‘‘चींटी के पग नेवर बाजे सो भी साहब सुनता है।’’ जाहिर है ‘चींटी के पग नेवर’ में कविता का वास है, कविता यहाँ भाषण नहीं है, कविता यहाँ लेख या निबंध या ज्ञान की कोई पाठ्यपुस्तक नहीं है। दुर्भाग्यवश नयीसदीपूर्व कविता में सबसे ज्यादा अनदेखी कविता की हुई। छंद की भी नौटंकी हुई, जिसके नक्कारे को फोड़ने लिए ‘कविता का चाँद और आलोचना का मंगल’ जैसा लेख काफी था। हाँ, दिक्कत गद्यकविता से हुई। गद्य के प्रकोप से कविता की धरती डोली। भूडोल आया। यहाँ यह कहना जरूरी है कि ऐसा करने वाले कवि सब नहीं थे, पर जो थे वही आलोचना के केंद्र में थे। कह सकते हैं कि आलोचक की आँख में थे। छोटे सुकुल को कहना होता तो कहते कि आलोचकों की काँख में थे। एक बात और साफ कर देना जरूरी है कि बीती सदी की आखिरी चौथाई में कविता से प्रेम करने वाले कवि भी थे, पर कविता के घर में गद्य के डाकू घुस आये थे और उन्हें प्रेम करने के लिए ऐसी जगह जाना होता था जहाँ उन्हें आलोचक महराज देख न लें और उनका आलोचना-धर्म भ्रष्ट न हो जाय। कहना जरूरी है कि बीसवीं सदी की आखिरी चौथाई में कुछ ही सही मर्द कवि भी थे , पर आलोचना के केंद्र में मर्द आलोचक नहीं थे। इसीलिए कविता के सच्चे वारिस अछूत बना दिये गये थे।
       नयीसदी की कविता प्रयत्नपूर्वक नहीं बल्कि अपनी स्वाभाविक गति से कविता के इलाके में दाखिल होती है। जैसे कोई पहिया है कविता का आप से आप घूमता हुआ। फिर अपनी जड़ों में, फिर अपने घर में लौटता हुआ। कविता की इस घर वापसी के लिए ‘यात्रा’ के इस उपक्रम में जो कवि सुलभ हुए, कवि हैं, कविता के बेटे हैं, कुछ बहुत अच्छे हैं, बहुत मजबूत, कुछ कम अच्छे हैं कुछ अभी अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में हैं, कुछ में संभावनाओं का आकाश दिखता है तो कुछ के पास चौड़ा सीना है। आशय यह कि कविता अपने स्वभाव में, अपने रंग में, अपनी उड़ान में, अपनी देह में, अपने अँगरखें में, अपने खेत में, अपने ताल-पोखर, अपने हृदय में अपनी छोटी-सी खुशी और बड़े दर्द के साथ मौजूद है। कविता का अपना परिसर, प्रकृति और समाज की जरूरी दृश्यावली, जनविरोधी राजनीति के खिलाफ आवाज, बाजार की मुश्किल और परिवार के जरूरी सुख-दुख, प्रेम और स्मृति के आख्यान, अच्छे जीवन के स्वप्न और उसकी हजार मुश्किलों के बीच मनुष्य की जिजीविषा और उसके संघर्ष की गाथा से भासमान हैं। जीवन की थोड़ी भुरभुरी तो थोड़ी सख्त मिट्टी कविता की आधारभूमि जरूर है, लेकिन राजनीति और समाजनीति भी उसका एक जरूरी हिस्सा है। कविता में कवितापन और पठनीयता का तत्व इस समय की कविता का एक विशिष्ट गुण है। मजे की बात यह कि इस कविता को पढ़ने और समझने के लिए लंदन से पढ़ाई करके आने की जरूरत नहीं हैं। 
     नयीसदी की कविता मे दो तरह के कवि हैं, एक वे जिनके कवि-व्यक्तित्व की निर्मिति नयीसदी में जन्म लेती है और विकसित होती है, दूसरी तरह के कवि वे हैं जो अपनी यात्रा शुरू तो करते हैं बीसवींसदी की आखिरी चौथाई में, लेकिन जिन्हें अपनी कविता का आत्मसंघर्ष नयीसदी में भी जारी रखना पड़ता है। जाहिर है कि इनके समय के भ्रष्ट आलोचकों ने इनकी कविता को फूटी आँख से भी देखना जरूरी नहीं समझा। ऐसे भ्रष्ट आलोचक अपने समय के मठाधीशों के दास होते हैं। कई आलोचकों को मैंने दिल्ली की टें्रड दाई बनते देखा है, गोद में खेलाएंगे तो सिर्फ कविता की दिल्ली में पैदा हुए बच्चों को। इन आलोचकों ने हद यह किया कि अपने घर के बच्चों को मरने के लिए छोड़ दिया, चाहे खुद ही ले जाकर नगरनिगम के कूड़ेदान में डाल दिया और दिल्ली के सिंह नर्सिंगहोम या भारतभूषण हास्पिटल में पैदा हुए बच्चों की दाई माँ बन जाना बेहतर समझा। ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ साहब, देखा है बाकायदा। जाहिर है कि आज भी आलोचकों की ऐसी प्रजाति साहित्य की सरकार में मुलाजिम है और वही सब कर रही है जो उनके पहले के आलोचकों ने किया है।
    यात्रा के इस उपक्रम में अस्सीपार कवि से लेकर सोलह वर्ष तक के कवि शामिल हैं। अपनी तकनीकी कमी की वजह से कुछ फाइलों को खोल नहीं पाया, कुछ समय से मिल नहीं पायीं, कुछ अधूरी थीं, बावजूद इसके नील कमल, सिद्धेश्वर सिंह, संतोष चतुर्वेदी, महेश पुनेठा, पंकज पराशर, प्रेमचंद गांधी, जयप्रकाश मानस,, रति सक्सेना, वंदना शर्मा, रश्मि भारद्वाज, देवेंद्र आर्य, राजकिशोर राजन, शहंशाह आलम अरविंद श्रीवास्तव, सुंदर सृजक, रामजी तिवारी, आत्मा रंजन, नीलोत्पल, सोनी पाण्डेय, वंदना गुप्ता, अंजु शर्मा, हेमा दीक्षित, वंदना देव शुक्ल, एस पी सुधेश, महाभूत चंदन राय, आशीष नैथानी, नित्यानंद गायेन, कुमार निर्मलेन्दु , प्रत्यूष मिश्र,, संजय कुमार शाण्डिल्य, नवनीत शर्मा, परमेश्वर फुंकवाल, कमल जीत चौधरी, अस्मुरारी नंदन मिश्र, कृष्णधर शर्मा, पंकज मिश्र,  बिपिन कुमार शर्मा, आयुष आस्तीक, भावना मिश्र, वंदना मुकेश, कंचन जायसवाल, क्षमा सिंह, अनुपमा तिवारी, पवन चौहान, अरविंद कुमार, प्रदीप शुक्ल, समीर कुमार पाण्डेय, रविभूषण पाठक, सुदीप सोहनी, तरुण त्रिपाठी आदि कवियों की कविताओं ने नयीसदी की कविता का जो चेहरा उपस्थित किया है, वह जितना नया है, उससे ज्यादा मजबूत। ये कवि महान कवि बनने के लिए न तो विकल हैं और न वैसा कुछ बनना इनकी प्राथमिकता में है। ये कवि कम और मेरी तरह कविता के कार्यकर्ता अधिक लगते हैं, कविता के देश के कोनें-कोनें में जाकर सच्ची कविता का परचम लहराने के लिए विकल। इनमें कुछ कवि अपवाद भी हो सकते है, पर ऐसे बहुत कम होंगे। कम से कम यह तो तय है कि इनमें से कोई पाँच टके का लालची कवि नहीं है। हाँ, यह बात अपनी ओर से कहना जरूरी है कि दूसरे लेख में दस-बारह और कवियों पर टिप्पणी करना चाह रहा था, लेकिन सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस की वजह से हाथ में झनझनाहट और काफी दर्द होता था, इसलिए चाहते हुए भी नहीं कर पाया, माफी चाहता हूँ। आगे कुछ करूँगा। यात्रा के इस उपक्रम से बाहर कुछ और अच्छे युवाकवि हैं, जिनकी कविताएँ नहीं आ पायीं, रही होगी कोई वजह, कोई दुविधा, कोई विवशता, कोई पेंच भी हो सकता है, पर अपने से बीस साल छोटे बच्चों के बारे में इससे ज्यादा क्या कह सकता हूँ। उनके बारे में अपने लेख में या इस आयोजन के जरिये कुछ कहना इसलिए संभव नहीं हो पाया। जिन कवियों ने कविताएँ भेजीं उनके प्रति हृदय से आभारी हूँ। यात्रा का यह आयोजन उनकी उपस्थिति से संभव हो पाया है। सच तो यह कि यह सारा उपक्रम सिर्फ और सिर्फ इन्हीं कवियों के लिए हैं। वरिष्ठ आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने इन कवियों को नयीसदी की कविता की उम्मीद के रूप में महत्व और वक्त दिया, अच्छा लगा। उनके बहुत अच्छे लेख के लिए यात्रा की ओर से बहुत धन्यवाद।
          बहरहाल, अंक आपके सामने है, कह सकते हैं कि नयीसदी की कविता का भविष्य आपके सामने है। यह अंक नयीसदी की कविता पर केंद्रित इस उपक्रम का पहला खण्ड है आलोचना का, कविताएँ अगले खण्ड में होंगी।  
                                                           
( संपादकीय/यात्रा 10 )                                                     
       
                                                                                                                   














बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

ओ ईश्वर

- गणेश पाण्डेय

 ईश्वर तुम कहीं हो
और कुछ करते-धरते हो
तो मुझे फिर
मनुष्य मत बनाना

मेरे बिना रुकता हो
दुनिया का सहज प्रवाह
खतरे में हो तुम्हारी नौकरी
चाहे गिरती हो सरकार

तो मुझे
हिन्दू मत बनाना
मुसलमान मत बनाना

तुम्हारी गर्दन पर हो
किसी की तलवार
किसी का त्रिशूल

तो बना लेना मुझे
मुसलमान
चाहे हिन्दू

देना हृष्ट-पुष्ट शरीर
त्रिपुंडधारी भव्य ललाट
दमकता हुआ चेहरा
और घुटनों को चूमती हुई
नूरानी दाढ़ी

बस एक कृपा करना
 ईश्वर!
मेरे सिर में
भूसा भर देना, लीद भर देना
मस्जिद भर देना, मंदिर भर देना
गंडे-ताबीज भर देना, कुछ भी भर देना
दिमाग मत भरना

मुझे कबीर मत बनाना
मुझे नजीर मत बनाना
मत बनाना मुझे

आधा हिन्दू
आधा मुसलमान।

(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)

                                






सोमवार, 14 सितंबर 2015

धार्मिक सहिष्णुता : एक नोट

-गणेश पाण्डेय

इस पद अर्थात शब्दयुग्म की धारणा के बारे में कुछ कहने के लिए पहले इस बारे में आपसे से यह बात करना जरूरी है कि अलग से इसे रेखांकित करने की जरूरत क्यों पड़ी ? जैसे हमारे शरीर में समय-समय पर कई रोग हो जाते हैं, किसी को सर्दी-जुकाम, किसी को जापानी बुखार, किसी को राजरोग इत्यादि, इन रोगों की दवा करते हैं। कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनके लिए बाकायदा चीर-फाड़ करते हैं। ऐसे ही समाज और उसकी धार्मिक मान्यताओं, उसके विश्वास, उसकी विचारधाराओं इत्यादि में भी कभी मनुष्य के अज्ञान के कारण कुछ दिक्कत या दृष्टिदोष हो जाता है, वह कुछ का कुछ देखने लगता है। ऐसे ही धर्म के बारे में भी हो जाता है। वह भूल जाता है कि धर्म का मूल उद्देश्य मुक्ति है, बंधन नहीं। धर्म का मूल स्वभाव उदारता और प्रेम है, कट्टरता और धृणा नहीं। एक छोटे से उदाहरण से अपनी बात आगे बढ़ाऊँगा।  मेरी एक कविता ‘‘ गाय का जीवन’’ पढ़िए-

वे गुस्से में थे बहुत
कुछ तो पहली बार इतने गुस्से में थे


यह सब
उस गाय के जीवन को लेकर हुआ
जिसे वे खूँटे से बाँधकर रखते थे
और थोड़ी-सी हरियाली के एवज में
छीन लिया करते थे जिसके बछड़े का
सारा दूध


और वे जिन्हें नसीब नहीं हुई
कभी कोई गाय, चाटने भर का दूध
वे भी मरने-मारने को तैयार थे
कितना सात्त्विक था उनका क्रोध


कैसी बस्ती थी
कैसे धर्मात्मा थे,
जिनके लिए कभी
गाय के जीवन से बड़ा हुआ ही नहीं
मनुष्य के जीवन का प्रश्न ।

(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)


आशय यह कि आप अपने धर्म को बचाने या उसके लिए विश्वयुद्ध करने से पहले यह विचार करें कि मनुष्य का जीवन कम जरूरी नहीं है। सारी लड़ाई में मारा कौन जाता है ? राजा, धर्माचार्य या आमजन ? आखिर हम ऐसा क्यो ंकरते हैं ? धर्म तो हजारों बर्षों से है, हमारी गरीबी, हमारी बेरोजगारी और सि़्त्रयों के संग हिंसा और बलप्रयोग धर्म के प्रभाव से अब तक खत्म क्यों नहीं हो पाया ? ये कौन लोग हैं जो धर्म को सफल करने की जगह विफल करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं, इनका क्या उद्देश्य है ? किस राजपाट की आकांक्षा है इन्हें ? 
       धर्म का जीवन भी तब तक है, जब तक मनुष्य है। सारी किताबें सारे महाग्रंथ, सारे पुस्तकालय, सारे विद्वान-महाज्ञानी, सारे धर्माचार्य तब तक हैं, जब तक मनुष्य जीवन है। सोचो , अभी कुछ ही दिन पहले एक बड़ा भूकंप आया था, एक नहीं लगातार कई। हमसब अपना सबकुछ घरों में छोड़कर भागे थे। धर्म की किताब भी हमारे हाथ में नहीं थी। जीवन पहले जरूरी है। धर्म जीवन की रक्षा और उसके उन्नयन के लिए है, उसे खत्म करने के लिए नहीं। फिर यह धर्म के नाम पर अनुदारता और कट्टरता क्यों ? इसी धार्मिक कट्टरता नाम की बीमारी का रामबाण इलाज है, धार्मिक सहिष्णुता। सभी धर्मों का सम्मान, सब के विश्वासों और जीवन शैली का सम्मान। महान कथाकार प्रेमचंद ने ‘‘ईदगाह’’ नाम की बहुत अच्छी कहानी लिखी है, आपको जरूर पढ़ना चाहिए। मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना की है। रसखान, रहीम के दोहे आपको याद होंगे। आज धार्मिक सहिष्णुता का आलोक कोंनें-कोनें में ले जाने का काम आपको करना है, हिन्दी का लेखक बहुत विपन्न और कंकाल हो चुका है, वह समाज में बदलाव के लिए अपने जीवन को उदाहरण नहीं बनाना चाहता है, अपने पुरस्कारों से आपको चकित करना चाहता है कि देखिए मेरे पास यह पुरस्कार है, उसके पास साहस की कमी है, सच को ईमान के साथ कहने का भाव कम है। कबीर की समाधिस्थली पास में है। कबीर ने अपने समय में सच कहने का जोखिम उठाया था। धर्मिक कटृटरता के सामने तर्कों अर्थात सच्चे ज्ञान की दीवार खड़ी कर दी।, लेकिन यह समय पहले के समय से ज्यादा खरनाक है। इधर कई लेखकों और ब्लॉगरों की हत्याएँ दुनिया में कट्टरपंथी ताकतों ने की हैं। एक ऐसे समय में जब खतरा पहले से ज्यादा है, हमें धार्मिक कट्टरता के बरक्स धर्मिक सहिष्णुता के विचार और विश्वास को अधिक से अधिक साझा करना है।







सोमवार, 13 जुलाई 2015

साठ की कविताएँ

-गणेश पाण्डेय


(साठ पर लिखी ये कविताएँ बिल्कुल अच्छी नहीं होंगी, बहुत छोटा कवि हूँ। “सबद एक पूछिबा“ में गोरखनाथ से कहा है कि इस शहर के सबसे बड़े कवि आप और सबसे छोटा मैं - कविता के कछार का गरीब बेटा। हाँ, मद्धिम आवाज में यह जरूर कहना चाहूँगा कि “कवि का जीवन“ खराब नहीं जिया है, वह सब नहीं किया है, जिसे करके कुछ लोग ऊँची कुर्सी हथिया लेते हैं। 
     साहित्य के राक्षसों से मिला एक-एक दर्द याद है, पर जाने देता हूँ उन्हें, नहीं कहूँगा कि मेरे साठ साल की कथा “ जीवन ऐसे जिया “ से मिलाकर अपना जीवन देख लो...यह कविता हिन्दी के राक्षसों के पढ़ने के लिए है भी नहीं। इस माध्यम पर मुझे जो बड़े भाई, मित्र और प्यारे अनुज मिले हैं उनके लिए हैं...बड़ी-छोटी बहनों के लिए है...शिष्यों के लिए है...जाहिर है कि हिन्दी के सभी सज्जनों और देवियों के लिए है।)



जीवन ऐसे जिया


कागज में भी आज साठ का हुआ, 
हाँ-हाँ, पक्का हुआ साठ का हुआ
बाबूजी हुआ 
आपके हिसाब से हुआ
माँ आज गणेश चतुर्थी नहीं है
फिर भी तेरा बेटा साठ का हुआ
बुआ देख मेरी कनपटियों के ऊपर
झक सफेद टोपी
तेरी गोदी में छीछी करने वाला बच्चा
साठ का हुआ

चले गये जब सब अपने
क्या-क्या हुआ बताऊँ किसको
पाया क्या-क्या खोया क्या
जीवन ऐसे जिया
जैसे कोई निर्धन
फटी बनियान के भीतर
लेकर अपना टूटा-फूटा ईमान 
जिया

कवि तो हुआ 
बस हुआ नहीं अब तक 
कविता का एकल पाठ कहीं
लिखा नहीं किसी ने 
मेरी कविताओं पर कोई लंबा लेख 
कौन छापता भला 
मुझ देहाती भुच्चड़ का कोई इंटरव्यू  
मेरे नाम नहीं कोई इनाम 
मिला नहीं हिन्दी का कोई प्रभु अब तक
शीश झुकाता जहाँ
बनाता जिसको साहित्य का अपना परमपिता

इस पथ में मिले एक से एक
रंगेसियार
घड़ी-घड़ी आते थे दुश्मन भेस बदल
लड़ता रहा हमेशा जिनसे 
हँसता 
देख हिन्दी के बड़े-बड़े डरपोक निरंतर
सबको बैरी करता ऐसे ही हँस-हँस कर


मत पूछो कैसे-कैसे शत्रु मिले
गुरुओं ने भी किया प्रहार गुरुतर -
‘‘पहला बाण 
जो मारा मुख पर
आंख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।’’

क्या गुरु ,क्या गुरुभाई, सब-
जब भी आते बाहर से साहित्य सितारे
मेरे चेहरे पर लंबा घूँघट कर देते थे
हाथ बाँधकर पीछे 
मिट्टी में नीचे दफना देते थे 
और मैं देहाती भुँईंफोर बन
बाहर आ जाता था

पूछो मत
कितना गरीब था मैं इन साठ सालों में-
दोस्त भी मिले तो ढ़िलपुक 
जो बाद में महाढ़िलपुक हुए और उसके बाद अदृश्य
मेरे जीवन की नीच से भी नीच विडम्बना यह 
कि मेरा ढ़िलपुक दोस्त दिल्ली का पेटेंट भक्त था 
सत्ता किसी की भी हो मान हो अपमान हो
वह दिल्ली का था
हर दिल्ली जाने-आने वाले का सगा था
और मैं कमबख्त किसी का भक्त-सक्त नहीं था
मैं तो लड़ाई में था मुझे फुर्सत कहाँ थी
और कोई देवता मेरे पास फटकता नहीं था

हाय-हाय 
समय बीत गया प्रिये
चतुरकवि नहीं बन पाया 
मठाधीशों की गोद मेरे लिए खाली नहीं थी
निश्चिंतभाव से कविता की कीमियागीरी के लिए
उनके पास वक्त ही वक्त था मेरे पास वक्त नहीं था 

दर्ज किया जाय जहाँपनाह
मेरे पास उन जैसा नहीं था उनके पास मुझ जैसा नहीं
मैं तो लहूलुहान था मुझे सचमुच का लड़ना था
तानाशाह और फासिस्ट पर बिना लड़े कविताएँ कैसे लिखता
कितना अलग-थलग था मैं कविता की नकली दुनिया में
जहाँ अच्छा कवि बनने के मंत्र भी नकली थे
हर चमकता हुआ कवि नकली था
आलोचक भी नकली

एक जुल्फीसँवार चिर युवा आलोचक दिखे, 
खूब बातें होतीं थीं, खूब चाय पीते थे 
उम्र में अपने से छोटे 
हिन्दी के एक जुगाड़ी के पीछे चलने से उन्हें मना करता,
कहता किसी पाजामा, किसी पैंट के पीछे नहीं, साहित्य के पीछे चलो,
वे दिल्ली की गाड़ी के छोटे-छोटे पुर्जे 
चाहे मामूली से मामूली नट-बोल्ट के पीछे जा सकते थे, 
पर मेरे साथ नहीं चल सकते थे
उनको भी नमस्कार किया

चला अकेले
बढ़ा अकेले
चलता रहा, चलता रहा अकेले 
आभासी दुनिया में मित्र मिले वे प्रियवर 
ढ़ूँढ़ता रहा जिन्हें मैं नित्य इस अरण्य में 
यह शहर साहित्य का महा अरण्य 
हैं जहाँ गुफाएँ बड़ी डरावनी
एक से एक हिंस्र और भयभीत साहित्यपशुओं की 
जहाँ संस्थाओं की प्रयोगशाला में शोधित किये जाते हैं 
साहित्य के अतितीव्र विष
जीवन अब तक ऐसे इन्हीं हत्यारों के बीच जिया

यों बाहर भी कुछ हिंस्र दिखे
डरपोक दिखे कुछ
सत्ता से जुड़े एक संपादक को नानी जी की याद आ गयी
हिन्दी के सुमनों पर लिखी मेरी एक मामूली कविता छापने में
कई तो मेरा नाम देखकर डर जाते थे
कि कोई देख न ले उन्हें मेरा नाम देखते हुए 
वे राजनीति के फासिस्टों का अँगरखा तार-तार कर सकते थे
उसे चिंदी-चिंदी करके आसमान में उड़ा सकते थे
पर साहित्य की फासिस्ट सत्ता के आगे
क्षणभर में अपने वस्त्र उतार देते थे

यह साहित्य का एक भयानक समय था
जहाँ मैं था और पूरी ताकत के साथ था
मेरी तरह और लोग भी थे लगभग चीखते हुए
इस बुरे समय में हम साथ-साथ थे
यह भी साहित्य का एक जीवन था

कई लेखकों ने 
साठ पर षडयंत्रपूर्वक
खुद पर खास अंक निकलवाये
कई चिरकुटों ने तो बाकायदा
किताबें संपादित करायीं खुद पर 
मुंशियों से

और कलिकाल में 
षष्टिपूर्ति का पाप इसप्रकार बहुत बढ़ गया 
देखकर 

मेरी जान ने 
अपनी जान के लिए कुर्ता सिलवाया है
देखते नहीं कितना खिल रहा है
एक नाराज कवि की काठी पर

जीवन क्या जिया
कुछ तो बहुत अच्छा जिया
कुछ कम अच्छा जिया
न जीभर का घूमना हुआ
न दुनियाभर की किताबें पढ़ पाया
न घर के फर्श पर टाइल्स लगा सका
न बच्चों के जिए जहाज-वहाज खरीदा
न एक फटीचर कवि की नेक बीवी के लिए 
सोना-चाँदी
जो था सौंप दिया जो किया सो किया

जीवन से अधिक कविता को प्रेम किया
कविता के सरकारी कागज पर लिख दिया
जीवन ऐसे जिया।



साठ का होने पर


साठ तक पहुँचते-पहुँचते
पता चल जाता है कि आ गया है बुढापा दरवाजे पर 
बजाता है साँकल जरा-जरा-सा रुक-रुक कर
किवाड़ की दरार से भी जरा-सा झाँककर देखो तो सीधे घुस आता है 
धड़धड़ाता हुआ बैठक में
पसर जाता है सोफे पर बूट समेत
सोने के कमरे में घुसते उसे देर नहीं लगती
और गुसलखाने में तो पहले से कमोड पर बैठा मिलता है

साठ तक पहुँचते-पहुँचते बात-बेबात चटकने लगती हैं हड्डियाँ
खूबसूरत चमड़ी कट-फट जाती है जगह-जगह
बिखर जाती हैं एक-एक करके सारी पंखुड़ियाँ बूढ़ी त्वचा की
कहां हो तुम देखो किस तरह घेर लिया है मुझे
अच्छे दिनों की याद की झुर्रियों ने
कमबख्त इस बुढ़ापे ने किसी रोज तुम्हें भी छेड़ा होगा सरेराह

मुझे अब क्यों नहीं लगता कि जिंदगी कोई जवांकुसुम है
बबूल भी कम लगता है नाम देने के लिए
और बेईमान दोस्त कहते हैं, नहीं-नहीं, इश्क है इबादत है सबकुछ है 
मैं कहता हूँ नहीं-नहीं 
हद से हद सख्त पहाड़ों के बीच सूखा हुआ सोता कह सकते हो

क्या से क्या कर गुजरने वाली नजर अब अक्सर जाती है ठहर 
बस इससे आगे और इससे साफ दिखता नहीं है कुछ 
तुम कहते हो मेरी नज़र को कुछ हो गया है 
मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारी सोच को क्या हो गया है 
मुश्किल यह कि हम बाहर चाहे जितना शोर कर लें 
कविता के घर में गुस्सा हो या प्यार इशारे में कहना जरूरी है 
नहीं तो बाहर रहना जरूरी है
कई दिनों से आलोचना के भद्रजनों से कहना चाहता हूँ
और कह नहीं पा रहा हूँ कि मेदा कमजोर हो गया है 
कि भारी गैस बुढ़ापे की निशानी है 
थक गया हूँ 
हर दो मिनट पर धूम-धड़ाके के साथ गैस छोड़ते-छोड़ते
सभा-सोसाइटी हो एसी थ्री या टू का डिब्बा हो या सब्जीमंडी
इज्जत के साथ निकलना मुश्किल है देखते हैं लोग पलट के
लेकिन यह बात कविता में कहना मुश्किल है 

अलबत्ता कह सकता हूँ 
उनदिनों इश्क में भी इतनी तेज नहीं थी खून की रफ्तार 
सब कहते हैं कि रक्तचाप ने मुझे चाप दिया है कसके
और हैरान हूँ कि खून में भी आ गयी है शरबत जितनी मिठास 
एक बूढ़े की पेशाब की एक बूँद के हजारवे हिस्से को चखने के लिए 
न जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं असंख्य च्यूंटे
कविता की पुलिस मुझे गिरफ्तार न करे तो जानना चाहूँगा 
कि किस देश के बाशिंदे होते हैं ऐसे च्यूंटे 
जरा-सी मिठास के लिए चलते ही चले जाते हैं हजार कोस 
इन्हें धिक्कारूं या झुक कर सलाम करूँ 
बुढ़ापे की मद्धिम आवाज में 

मेरे जैसे असंख्य विपन्न बूढ़े आखिर क्यों मारे-मारे फिरते हैं 
जिन्दगी में जरा-सी मिठास के लिए
गोया समय के पहाड़ के नीचे दबी हुई गुड़ की सबसे छोटी डली हो
और पहाड़ को छाप लिया हो च्यूंटों की दुनिया की सबसे बड़ी फौज ने
और पहाड़ तो पहाड़, टस से मस नहीं

यह जानते हुए कि जिनके पास है, सोने का तमगा नहीं बचेगा
नहीं बचेगा चांदी का विशाल छत्र 
फिर भी सोचता हूँ कि बचा रह जाएगा मुझमें से मेरा कुछ
कोई ढ़ूँढेगा हजार बार मेरे दिल के तहखाने में
मेरा टूटा-फूटा प्यार
ढ़ूंढ़ेगा कोई मुझे मेरी बकवास कविताओं में 
शायद मेरे आगे-आगे गुस्से में चलता मेरा गुस्सा बचा रह जाए
मेरा हौसला बचा रह जाएगा शायद एक कण जितना
और कैसा भी हो मेरा सोचना जो सिर्फ मेरे लिए नहीं है
बचा रहेगा बचा रहेगा बचा रहेगा मेरा दिल कहता है
जलेंगी तो जलेंगी सिर्फ्र आँखें, स्वप्न बचा रहेगा
पृथ्वी की सबसे बड़ी जलती हुई चिता भी उसे नहीं कर सकेगी राख

मेरे बेटो, मेरे प्यारो, तुम भी एक दिन साठ के पास पहुंचोगे
हड्डियां कमजोर होती हैं, टूटती हैं, जुड़ती हैं, 
पृथ्वी पर नयी हड्डियों का कारखाना कभी बंद नहीं होता
आती है हड्डियां नयी-नयी
उतनी ही सफेद, उतनी ही मजबूत और उतनी ही
यह दुनिया खराब और अच्छी हड्डियों का गोदाम है
अंत में आखिर हड्डियों के कुछ टुकड़े ही तो बचते हैं
न रुपया बचता है, न प्रधानमंत्री की कुर्सी
अकादमी का संडास भी साथ छोड़ देता है
किताबें भी धरी की धरी रह जाती हैं, ज्ञान किसी काम का नहीं रहता
साठ का होने पर एक नयी किताब शुरू होती है
लेकिन सबके साथ ऐसा कहां होता है
कुछ लोग साठ के बाद दूसरी योनि में चले जाते हैं
कुछ के पीछे दुम निकल आती है
कुछ के जबड़े में खून लग जाता है
कुछ के नाखून और लंबे हो जाते हैं
कुछ रुपया खाते-खाते
अन्न की जगह हीरे-जवाहरात खाने लगते हैं
कुछ तो रुपये की हाफपैंट पहनकर
देश की सरकार चलाने लगते हैं

कितना दुर्बल हूँ 
कि साठ का होने पर ढ़ंग से एक घर नहीं चला पाता
न किसी जंगल से लकड़ी काटकर ला पाता हूँ
न खेत से मनचाही चीजें
कितना बूढ़ा हो गया हूँ काँपते रहते हैं हाथ
डर के मारे फिसल जाता है दो रुपये का सिक्का

कुछ लोग साठ का होने पर बूढ़े क्यों नहीं होते हैं
जिसके पास बंदूक नहीं होती है
जिसके पास फौज नहीं होती है
जिसके पास लालबत्ती की गाड़ी नहीं होती है
जिसके पास खाना-खजाना नहीं होता है
और जिसके पास तुम नहीं होती हो मेरी जान
सब बूढ़े क्यों हो जाते हैं साठ का होने पर
क्या तुम सब बूढ़ी नहीं होती होगी 
साठ का होने पर।




                        


शनिवार, 4 अप्रैल 2015

गाय का जीवन

- गणेश पाण्डेय

वे गुस्से में थे बहुत
कुछ तो पहली बार इतने गुस्से में थे


यह सब
उस गाय के जीवन को लेकर हुआ
जिसे वे खूँटे से बाँधकर रखते थे
और थोड़ी-सी हरियाली के एवज में
छीन लिया करते थे जिसके बछड़े का
सारा दूध


और वे जिन्हें नसीब नहीं हुई
कभी कोई गाय, चाटने भर का दूध
वे भी मरने-मारने को तैयार थे
कितना सात्त्विक था उनका क्रोध


कैसी बस्ती थी
कैसे धर्मात्मा थे,
जिनके लिए कभी
गाय के जीवन से बड़ा हुआ ही नहीं
मनुष्य के जीवन का प्रश्न ।

(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)








बुधवार, 25 मार्च 2015

मैं कहाँ हूँ

- गणेश पाण्डेय

(मेरी यह नयी कविता ‘‘ मैं कहाँ हूँ ’’ मेरे किसी संग्रह में अब तक नहीं शामिल है, बल्कि साक्ष्य के तौर पर मेरी आलोचना की नयी किताब ‘‘ आलोचना का सच ’’ में है। श्री जयप्रकाश मानस जी मेरी इस किताब के बड़े प्रशंसक हैं, उन्होंने कृपापूर्वक इस कविता को ‘‘आलोचना का सच’’ से लेकर और टाइप करके  अपनी वॉल पर दिया है। इसे वहीं से आभार सहित ले लिया है। कई और मित्र भी हैं, जिन्होंने बढ़कर ‘‘आलोचना का सच’’ का स्वागत खुलेमन से और गर्मजोशी से किया है। जाहिर है कि ये सभी मित्र मेरे शहर से बाहर के हैं। मैं इन सभी मित्रों का बहुत आभारी हूँ। इस शहर के हिन्दी के लगभग सभी दुश्मन लेखक इसे देखना पसंद करेंगे, मुझे संदेह है। बाहर भी ऐसे कम न होंगे जिनका रास्ता साहित्य में प्रभुजाति से जुड़े लेखकों की शुद्ध चापलूसी का है, शायद वे सब इस किताब के फ्लैप का यह प्रकाशकीय भी पढ़ना पसंद न करें कि-कवि गणेश पाण्डेय की आलोचना का रंग अलग है। एक खास तरह की निजता गणेश पाण्डेय की आलोचना की पहचान है। उनकी आलोचना नये प्रश्न उठाती है। उनकी आलोचना साहित्यिक मुक्ति की बात करती है। यह पहलीबार है।...गणेश पाण्डेय की आलोचना एक अर्थ में समकालीन आलोचना का प्रतिपक्ष है। मुहावरे सिर्फ कविता में ही नहीं बनते हैं, एक ईमानदार आलोचक अपनी आलोचना का मुहावरा खुद गढ़ता है। गणेश पाण्डेय अपनी आलोचना का मुहावरा खुद बनाते हैं। आलोचना की सर्जनात्मक भाषा का जो प्रीतिकर वितान खड़ा करते हैं, बिल्कुल नया है। हमारे समय की निर्जीव आलोचना को नयी चाल में ढ़ालने का काम करते हैं।...- इस अंश को अपने ब्लॉग पर देने का आशय अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना नहीं है, बल्कि यह बताना है कि यदि मैं भी तमाम मित्रों की तरह साहित्य के अनगिन दरबारों में क्षण-प्रतिक्षण शीश नवाता फिरता तो मुंशीछाप आलोचना लिखता, जैसा कि मेरे कुछ झूठमूठ के मित्र लिखते हैं। यह बताना जरूरी है कि मैंने खुद को अलग बनाने के लिए यह सब कतई नहीं किया है, बल्कि एक लेखक के रूप में यह मेरी ड्यूटी थी कि साहित्य का सच फटकार कर कहूँ। यह अलग बात है कि आज के शीर्ष कवि-लेखक से लेकर छोटे से छोटे लेखक तक मानते हैं कि उनकी ड्यूटी साहित्य का सच फटकार कर कहना नहीं है, बल्कि इनाम लेना है। जाहिर है कि पहले से दो रास्ते रहे हैं साहित्य में। मैं जिस रास्ते पर हूँ, इस शहर में अकेला हूँ, लेकिन बाहर बहुत से मित्र हैं, जिनका रास्ता भी मेरे रास्ते से अलग नहीं है। उन्हीं के लिए लिखता हूँ, उन्हीं के लिए साहित्य में जीता-मरता हूँ। बहरहाल प्रसंगवश यह सब कहना जरूरी था। लीजिए कविता पढ़िए-मैं कहाँ हूँ। इस कविता का मैं जाहिर है कि हर ईमानदार कवि-लेखक है। सिर्फ कोई एक मैं नहीं।)

मैं कहाँ हूँ

मैं कहाँ हूँ, कहाँ हूँ, कहाँ हूँ
इस सूची में नहीं हूँ उस सूची में नहीं हूँ
इस पृष्ठ पर नहीं हूँ उस पृष्ठ पर नहीं हूँ
इस चर्चा में नहीं हूँ उस चर्चा में नहीं हूँ
इस अखबार में नहीं हूँ उस अखबार में नहीं हूँ
इस किताब में नहीं हूँ उस किताब में नहीं हूँ
इसकी जेब में नहीं हूँ उसकी जेब में नहीं हूँ 
इस संगठन में नहीं हूँ उस संगठन में नहीं हूँ
मैं कहाँ हूँ कहाँ हूँ ,कहाँ हूँ ,कहाँ हूँ
किसी आलोचक की आँख में नहीं हूँ
किसी संपादक की काँख में नहीं हूँ
युवा लेखकों के आगे नहीं हूँ
वरिष्ठ लेखकों के पीछे नहीं हूँ 

मैं कहाँ हूँ
यह इक्कीसवीं सदी है 
कि हिंदीसमय की वही नदी है 
जो निकलती है राजधानी से सारा कचरा लेकर 
और फैल जाता है पूरे देश में जहर
यह रचना का कैसा देश है
यह आलोचना का कैसा देश है 
जिसमें बने हुए हैं दाएँ-बाएँ 
बड़े-बड़े बाड़े और फाँसीघर
एक स्वाधीन लेखक क्या चुने जाये तो जाये किधर
किससे पूछँू कि मैं कहाँ हूँ कौन-सा देश है मैं जहाँ हूँ

मैं हूँ कि नहीं हूँ
नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ 
हिंदी का कोई कवि हूँ कि कविता का कोई भूत हूँ 
प्रेत हूँ 
किस देवता से पूछूँ किस असुर से पूछूँ  
थक गया हूँ पूछते-पूछते
खग मृग बाघ सबसे पूछते-पूछते
मैं कहाँ हूँ, कहाँ हूँ , कहाँ हूँ , कहाँ हूँ
यह क्या है 
जो किसी झुरमुट में छिपा हुआ है
यह क्या है जो किसी मेघ की ओट में 
है कुछ है जैसा किससे कहूँ कि देखो जरा
किससे कहूँ कि मुझे बताओ जरा
कि मैं कहाँ हूँ किसके पास हूँ किसके साथ हूँ
इस बंदे से पूछूँ कि उस बंदे से पूछूँ
आखिर किससे पूछूँ

मैं कहाँ हूँ।