गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

कविता के इलाके में नयीसदी की कविता

 - गणेश पाण्डेय 

           कविता के इलाके में एक नयी सुबह हुई है, जिसका नाम है-नयीसदी की कविता। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि नयीसदी की कविता ने कविता के इलाके में दस्तक दी है, अपनी आँखें खोली है, इत्यादि। यहीं आप ठिठककर पूछ सकते हैं कि कविता के इलाके से क्या आशय है, कविता तो कविता में होती ही है, बाहर कहाँ हो सकती है, कैसे बाहर हो सकती है भला ? बाहर जाते ही जल की रानी मछली की तरह मर नहीं जाएगी ? दोस्तो जैसे कभी आप घर से बाहर निकलते हैं, कहीं किसी राजनीतिक मंच पर भाषण देने जाते हैं या चुनाव लड़ते हैं या कक्षा में अर्थशास्त्र या दर्शन पढ़ाने जाते हैं या दो पैसे का काम करते हैं, बीसवीं सदी की आखिरी चौथाई में कविता से और न सिर्फ कविता से बल्कि कविता की आलोचना से भी बाहर का काम ज्यादा लिया गया हे। जैसे अर्थशास्त्र का काम, जैसे राजनीतिशास्त्र का काम, जैसे साम्प्रदायिकता के ‘क्षण-प्रतिक्षण’ विरोध का काम। देशी कारपोरेट या बाहर की कंपनियों का विरोध बुरा नहीं था, साम्प्रदायिकता का विरोध भी बुरा नहीं था, जीवन और समाज के सरोकारों से बाहर नहीं थीं ये चीजें, बस कविता के सरोकार से इस अर्थ में बाहर थीं कि कविता प्रथमतः भाव का व्यापार है, ज्ञान का नहीं। इसका आशय यह नहीं कि भाव विचारशून्य होता है। ज्ञान और सूचना की स्थिति कविता के इलाके में भाव के बाद आती है और अपने क्रम में स्वागतयोग्य भी हो सकती है, लेकिन हुआ यह कि कविगण ज्ञान की पीठपर सवार होकर कविता की वैतरणी पार करने की चेष्टा करने लगे थे। संतकवियों को तो ज्ञानमार्गी कवि कहा ही गया है, पर वे कविताच्युत कवि नहीं थे, वे कविता की पीठ पर सवार होकर ज्ञान के इलाके में जाते थे। कहते कि-‘‘चींटी के पग नेवर बाजे सो भी साहब सुनता है।’’ जाहिर है ‘चींटी के पग नेवर’ में कविता का वास है, कविता यहाँ भाषण नहीं है, कविता यहाँ लेख या निबंध या ज्ञान की कोई पाठ्यपुस्तक नहीं है। दुर्भाग्यवश नयीसदीपूर्व कविता में सबसे ज्यादा अनदेखी कविता की हुई। छंद की भी नौटंकी हुई, जिसके नक्कारे को फोड़ने लिए ‘कविता का चाँद और आलोचना का मंगल’ जैसा लेख काफी था। हाँ, दिक्कत गद्यकविता से हुई। गद्य के प्रकोप से कविता की धरती डोली। भूडोल आया। यहाँ यह कहना जरूरी है कि ऐसा करने वाले कवि सब नहीं थे, पर जो थे वही आलोचना के केंद्र में थे। कह सकते हैं कि आलोचक की आँख में थे। छोटे सुकुल को कहना होता तो कहते कि आलोचकों की काँख में थे। एक बात और साफ कर देना जरूरी है कि बीती सदी की आखिरी चौथाई में कविता से प्रेम करने वाले कवि भी थे, पर कविता के घर में गद्य के डाकू घुस आये थे और उन्हें प्रेम करने के लिए ऐसी जगह जाना होता था जहाँ उन्हें आलोचक महराज देख न लें और उनका आलोचना-धर्म भ्रष्ट न हो जाय। कहना जरूरी है कि बीसवीं सदी की आखिरी चौथाई में कुछ ही सही मर्द कवि भी थे , पर आलोचना के केंद्र में मर्द आलोचक नहीं थे। इसीलिए कविता के सच्चे वारिस अछूत बना दिये गये थे।
       नयीसदी की कविता प्रयत्नपूर्वक नहीं बल्कि अपनी स्वाभाविक गति से कविता के इलाके में दाखिल होती है। जैसे कोई पहिया है कविता का आप से आप घूमता हुआ। फिर अपनी जड़ों में, फिर अपने घर में लौटता हुआ। कविता की इस घर वापसी के लिए ‘यात्रा’ के इस उपक्रम में जो कवि सुलभ हुए, कवि हैं, कविता के बेटे हैं, कुछ बहुत अच्छे हैं, बहुत मजबूत, कुछ कम अच्छे हैं कुछ अभी अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में हैं, कुछ में संभावनाओं का आकाश दिखता है तो कुछ के पास चौड़ा सीना है। आशय यह कि कविता अपने स्वभाव में, अपने रंग में, अपनी उड़ान में, अपनी देह में, अपने अँगरखें में, अपने खेत में, अपने ताल-पोखर, अपने हृदय में अपनी छोटी-सी खुशी और बड़े दर्द के साथ मौजूद है। कविता का अपना परिसर, प्रकृति और समाज की जरूरी दृश्यावली, जनविरोधी राजनीति के खिलाफ आवाज, बाजार की मुश्किल और परिवार के जरूरी सुख-दुख, प्रेम और स्मृति के आख्यान, अच्छे जीवन के स्वप्न और उसकी हजार मुश्किलों के बीच मनुष्य की जिजीविषा और उसके संघर्ष की गाथा से भासमान हैं। जीवन की थोड़ी भुरभुरी तो थोड़ी सख्त मिट्टी कविता की आधारभूमि जरूर है, लेकिन राजनीति और समाजनीति भी उसका एक जरूरी हिस्सा है। कविता में कवितापन और पठनीयता का तत्व इस समय की कविता का एक विशिष्ट गुण है। मजे की बात यह कि इस कविता को पढ़ने और समझने के लिए लंदन से पढ़ाई करके आने की जरूरत नहीं हैं। 
     नयीसदी की कविता मे दो तरह के कवि हैं, एक वे जिनके कवि-व्यक्तित्व की निर्मिति नयीसदी में जन्म लेती है और विकसित होती है, दूसरी तरह के कवि वे हैं जो अपनी यात्रा शुरू तो करते हैं बीसवींसदी की आखिरी चौथाई में, लेकिन जिन्हें अपनी कविता का आत्मसंघर्ष नयीसदी में भी जारी रखना पड़ता है। जाहिर है कि इनके समय के भ्रष्ट आलोचकों ने इनकी कविता को फूटी आँख से भी देखना जरूरी नहीं समझा। ऐसे भ्रष्ट आलोचक अपने समय के मठाधीशों के दास होते हैं। कई आलोचकों को मैंने दिल्ली की टें्रड दाई बनते देखा है, गोद में खेलाएंगे तो सिर्फ कविता की दिल्ली में पैदा हुए बच्चों को। इन आलोचकों ने हद यह किया कि अपने घर के बच्चों को मरने के लिए छोड़ दिया, चाहे खुद ही ले जाकर नगरनिगम के कूड़ेदान में डाल दिया और दिल्ली के सिंह नर्सिंगहोम या भारतभूषण हास्पिटल में पैदा हुए बच्चों की दाई माँ बन जाना बेहतर समझा। ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ साहब, देखा है बाकायदा। जाहिर है कि आज भी आलोचकों की ऐसी प्रजाति साहित्य की सरकार में मुलाजिम है और वही सब कर रही है जो उनके पहले के आलोचकों ने किया है।
    यात्रा के इस उपक्रम में अस्सीपार कवि से लेकर सोलह वर्ष तक के कवि शामिल हैं। अपनी तकनीकी कमी की वजह से कुछ फाइलों को खोल नहीं पाया, कुछ समय से मिल नहीं पायीं, कुछ अधूरी थीं, बावजूद इसके नील कमल, सिद्धेश्वर सिंह, संतोष चतुर्वेदी, महेश पुनेठा, पंकज पराशर, प्रेमचंद गांधी, जयप्रकाश मानस,, रति सक्सेना, वंदना शर्मा, रश्मि भारद्वाज, देवेंद्र आर्य, राजकिशोर राजन, शहंशाह आलम अरविंद श्रीवास्तव, सुंदर सृजक, रामजी तिवारी, आत्मा रंजन, नीलोत्पल, सोनी पाण्डेय, वंदना गुप्ता, अंजु शर्मा, हेमा दीक्षित, वंदना देव शुक्ल, एस पी सुधेश, महाभूत चंदन राय, आशीष नैथानी, नित्यानंद गायेन, कुमार निर्मलेन्दु , प्रत्यूष मिश्र,, संजय कुमार शाण्डिल्य, नवनीत शर्मा, परमेश्वर फुंकवाल, कमल जीत चौधरी, अस्मुरारी नंदन मिश्र, कृष्णधर शर्मा, पंकज मिश्र,  बिपिन कुमार शर्मा, आयुष आस्तीक, भावना मिश्र, वंदना मुकेश, कंचन जायसवाल, क्षमा सिंह, अनुपमा तिवारी, पवन चौहान, अरविंद कुमार, प्रदीप शुक्ल, समीर कुमार पाण्डेय, रविभूषण पाठक, सुदीप सोहनी, तरुण त्रिपाठी आदि कवियों की कविताओं ने नयीसदी की कविता का जो चेहरा उपस्थित किया है, वह जितना नया है, उससे ज्यादा मजबूत। ये कवि महान कवि बनने के लिए न तो विकल हैं और न वैसा कुछ बनना इनकी प्राथमिकता में है। ये कवि कम और मेरी तरह कविता के कार्यकर्ता अधिक लगते हैं, कविता के देश के कोनें-कोनें में जाकर सच्ची कविता का परचम लहराने के लिए विकल। इनमें कुछ कवि अपवाद भी हो सकते है, पर ऐसे बहुत कम होंगे। कम से कम यह तो तय है कि इनमें से कोई पाँच टके का लालची कवि नहीं है। हाँ, यह बात अपनी ओर से कहना जरूरी है कि दूसरे लेख में दस-बारह और कवियों पर टिप्पणी करना चाह रहा था, लेकिन सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस की वजह से हाथ में झनझनाहट और काफी दर्द होता था, इसलिए चाहते हुए भी नहीं कर पाया, माफी चाहता हूँ। आगे कुछ करूँगा। यात्रा के इस उपक्रम से बाहर कुछ और अच्छे युवाकवि हैं, जिनकी कविताएँ नहीं आ पायीं, रही होगी कोई वजह, कोई दुविधा, कोई विवशता, कोई पेंच भी हो सकता है, पर अपने से बीस साल छोटे बच्चों के बारे में इससे ज्यादा क्या कह सकता हूँ। उनके बारे में अपने लेख में या इस आयोजन के जरिये कुछ कहना इसलिए संभव नहीं हो पाया। जिन कवियों ने कविताएँ भेजीं उनके प्रति हृदय से आभारी हूँ। यात्रा का यह आयोजन उनकी उपस्थिति से संभव हो पाया है। सच तो यह कि यह सारा उपक्रम सिर्फ और सिर्फ इन्हीं कवियों के लिए हैं। वरिष्ठ आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने इन कवियों को नयीसदी की कविता की उम्मीद के रूप में महत्व और वक्त दिया, अच्छा लगा। उनके बहुत अच्छे लेख के लिए यात्रा की ओर से बहुत धन्यवाद।
          बहरहाल, अंक आपके सामने है, कह सकते हैं कि नयीसदी की कविता का भविष्य आपके सामने है। यह अंक नयीसदी की कविता पर केंद्रित इस उपक्रम का पहला खण्ड है आलोचना का, कविताएँ अगले खण्ड में होंगी।  
                                                           
( संपादकीय/यात्रा 10 )                                                     
       
                                                                                                                   














बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

ओ ईश्वर

- गणेश पाण्डेय

 ईश्वर तुम कहीं हो
और कुछ करते-धरते हो
तो मुझे फिर
मनुष्य मत बनाना

मेरे बिना रुकता हो
दुनिया का सहज प्रवाह
खतरे में हो तुम्हारी नौकरी
चाहे गिरती हो सरकार

तो मुझे
हिन्दू मत बनाना
मुसलमान मत बनाना

तुम्हारी गर्दन पर हो
किसी की तलवार
किसी का त्रिशूल

तो बना लेना मुझे
मुसलमान
चाहे हिन्दू

देना हृष्ट-पुष्ट शरीर
त्रिपुंडधारी भव्य ललाट
दमकता हुआ चेहरा
और घुटनों को चूमती हुई
नूरानी दाढ़ी

बस एक कृपा करना
 ईश्वर!
मेरे सिर में
भूसा भर देना, लीद भर देना
मस्जिद भर देना, मंदिर भर देना
गंडे-ताबीज भर देना, कुछ भी भर देना
दिमाग मत भरना

मुझे कबीर मत बनाना
मुझे नजीर मत बनाना
मत बनाना मुझे

आधा हिन्दू
आधा मुसलमान।

(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)