शनिवार, 9 मई 2020

आदरणीय की गुफा तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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आदरणीय की गुफा
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वे
आदरणीय थे
उम्र में मुझसे कुछ बड़े थे
और ज्ञान में तो बहुत बड़े थे
मैंने कभी नहीं चाहा था कि वे
मुझसे एक भी कदम पीछे रहें
बल्कि चाहा कि उम्र में बड़े हैं तो
आगे रहें

लेकिन
वे कुछ ऐसे लोगों के पीछे रहे
जो उम्र और सलाहियत में मुझसे
न सिर्फ़ पीछे थे बल्कि साहित्य के
चलता-पुर्जा क़िस्म के लोग थे
फिर भी मैंने आदरणीय का 
भला चाहा

आदरणीय ही
अपना भला ख़ुद नहीं चाहते थे
उनके भीतर जाने कैसी दिक़्कत थी
कि वे जिनके साथ रहते थे
उनकी तरह दिखना नहीं चाहते थे
शायद उनकी ख़्वाहिश रही हो
कि मेरी तरह दिखना चाहते थे

बस 
यों समझ लें कि आदरणीय
अपनी कमीज़ धोना भी नहीं चाहते थे
और साफ़ दिखना भी चाहते थे
मैं फिर भी मदद करने के लिए
तैयार था

आदरणीय 
जितना बाहर रहते थे
उससे ज़्यादा भीतर रहते थे
कोई गुफा थी उनके भीतर
शायद गुफा के भीतर कोई गुफा थी 
शायद उसके भीतर भी कोई गुफा थी

आदरणीय
गुफा से बाहर निकलकर भी
गुफा में होते थे गुफा लेकर चलते थे
आदरणीय सड़क पर चलते थे
तो गुफा साथ-साथ चलती थी
कुर्सी पर बैठते थे 
तो पीछे खड़ी रहती थी

आदरणीय
किसी के सामने होते थे 
फिर भी गुफा में होते थे
बोलते वहीं से थे बाहर होंठ हिलता था
सोचते वहीं से थे बाहर हाथ हिलता था
मैं उनकी अदृश्य गुफा को देखता रहता था
उसके भीतर की एक-एक हरकत 
मुझे दिख जाती थी

आदरणीय को 
एक झटके में हाथ पकड़कर
उनकी ख़ुद की बनायी गुफा से 
बाहर खींच सकता था
पर वे मुझे अपनी कानी उंगली तक
तो पकड़ने नहीं देना चाहते थे

वे
हिंदी के
चूहे बिल्ली गिरगिट चींटी
और गधे वगैरह किसी भी
प्राणी की मदद ले सकते थे
मेरी मदद नहीं लेना चाहते थे
वे मुझे ख़ुद से कमतर समझते थे
फिर मेरी मदद कैसे ले सकते थे
वे उन्हीं चीकटों के साथ रहते हुए
ख़ुद को मिटा देना चाहते थे
यह कैसी ज़िद थी

वे
मुझे छोड़कर
किसी के भी साथ खड़े हो सकते
किसी के भी दोस्त बन सकते थे
किसी से भी रिश्ता जोड़ सकते थे

आदरणीय
मेरे साथ दो नहीं एक कदम भी
आधा कदम भी चल नहीं सकते थे
मेरी बगल में कभी बैठ नहीं सकते थे
असल में उनकी भीतरी गुफा में 
कोई मनोमालिन्य छिपकर बैठ गया था
ऐसे लोगों का कुछ नहीं हो सकता था
फिर भी मैं उनके लिए प्रार्थना करता था 
उनके बारे में अक्सर सोचता था
और उदास हो जाता था।

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विलक्षण कविताएं
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कुछ कवि
अपनी कविताएं
ज़मीन पर नहीं रखना चाहते
शायद मैली हो जाने के डर से

वे अपनी कविताएं
फूल के पौधों पर भी
खिलने और सूखने के लिए
फैलाना नहीं चाहते
कि तेज़ धूप में मुरझा न जाएं

वे कवि
अपनी कविताएं
पेड़ पर भी नहीं रखना चाहते
कहीं आंधियों में खो न जाएं
किसी देहाती-भुच्चड़ के
हाथ न लग जाएं

वे अपनी कविताएं
मज़दूरों की टेंट में भी
छिपाकर नहीं रखना चाहते
कि उसे चिलम पर चढ़ाकर
गांजे की तरह पी न जाएं

वे अपनी कविताएं 
हीरे की अंगूठी की तरह
प्रेयसी की उंगलियों में
पहनाना नहीं चाहते कि कोई
चाकू की नोंक पर छीन न ले

वे कवि
अपनी कविताएं बैंक में 
इस डर से रखना नहीं चाहते
कि बैंक दीवालिया न हो जाए
कोई लेकर भाग न जाए

वे अपनी कविताएं
इतनी ऊंचाई पर रखना चाहते हैं
कि परिंदा भी पर न मार सके
ऐसे बचाकर रखना चाहते हैं
कि प्रलय भी नष्ट न कर सके

ऐसे कवियों की कविताएं
ग़रीब-गुरबा के चूल्हे पर
रोटी की तरह नहीं पकती हैं
जिससे सबकी भूख मिटे
सबके होठों को मीठी लगे

इनकी कविताएं
सीधे कला की भट्ठी से
भाप बनकर उठती हैं और
आकाश में बादल बनकर 
कविता के अंतरिक्ष में
राज करती हैं

पाठक 
देखकर ख़ुश हो सकता है
उचक-उचक कर आसमान में
उसे छू नहीं सकता 
चूम तो बिल्कुल नहीं सकता

वे विलक्षण कविताएं
प्रायः धरती पर उतरती नहीं
धरती पर कभी बरसती भी हैं 
तो ख़ास नक्षत्र में ख़ास मात्रा में

वह भी तब जब उनका आलोचक 
अपनी छत पर शरद की चांदनी में
मुंह निकाल और खोलकर सोया हो
और उसमें टप से चू जाएं।

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कवि-आलोचक-संवाद
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आलोचक जी
ग़रीब कवि वह होता है
जो कविता का अभिजन नहीं होता है
जो कला का ध्वजवाहक नहीं होता है
जो कविता में साहित्यिक मूल्यों के लिए
जोख़मि उठाता है संघर्ष करता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि वह नहीं होता 
जो साहित्य के मठों का कारिंदा होता है
जो साहित्यिक शामियाना हाउस का
मैनेजर वगैरह होता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि वह होता है
जो किसी नामी-गिरामी बाऊसाहब
और पंडिज्जी से आशीर्वाद नहीं लेता है
जो साहित्यिक यात्राएं नहीं करता है
जो अपनी मेज और अपने पाजामे से
बाहर नहीं जाता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि वरिष्ठ लेखकों की ख़ुशामद
और कनिष्ठ लेखकों के पीछे चलने का
काम नहीं करता है

आलोचक जी
कोई ग़रीब कवि 
(साहित्यिक रूप से)
ताउम्र भूखा रह सकता है 
पानी पीकर जी सकता है
भीख नहीं मांग सकता है
दांत नहीं चियार सकता है

आलोचक जी
ग़रीब कवि आपसे
कभी नहीं कह सकता है
उस पर लेख लिख दीजिए
सूची में उसका नाम डाल दीजिए

आलोचक जी
यह कवि की ख़ुद्दार ग़रीबी है
इस ग़रीबी को लंबे संघर्षों में
ख़ून-पसीना बहाकर कमाया जाता है
इस ग़रीबी का मज़ाक नहीं उड़ाया जाता है।

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कविता का छप्पर
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छप्पर बनाना
बहुत अच्छा काम है
इसे बनाने के काम में
उठाने और रखने के काम में
लगे हुए लोग एक दूसरे से आगे 
क्यों नहीं निकलना चाहते हैं

आज की तारीख़ में
ग़रीब कविता का छप्पर 
बनाने के काम में लगे हुए लोग
एक दूसरे से आगे क्यों होना चाहते हैं
आज का कवि कोरोना से ज़्यादा
दूसरे कवि से डरता है
कि उससे आगे निकल जाएगा

कवि का यह भय
क्या उसे जीते जी मार नहीं डालेगा
डर-डर कर तुम लोग
पेशाब तो ठीक से कर नहीं सकते
कविता क्या ख़ाक लिखोगे

कवियो
कविता का छप्पर बनाते समय
दूसरे कवियों को मत देखो
एक समय की कविता का छप्पर
कई लोग मिलकर बनाते हैं

इस काम के लिए
किसी उजरत की उम्मीद मत करो
यह भलाई का काम है व्यापार नहीं
कविता की दुनिया इसी तरह चलती है
कविता का छप्पर इसी तरह बनता है

ऊंची फ़ीस पर
अमीरों की कविता का 
महल बनाने के लिए विलायत से
कविता की इंजीनियरिंग पढ़कर लौटे
शहराती कवियों की ओर मत देखो

अपने लोगों की कविता को देखो
ग़रीब की कविता का छप्पर देखो
उसे देखो जिसके लिए
छप्पर बनाना है।

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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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सक्सेना
सर्वेश्वर दयाल
कविता के लाल थे
दलाल नहीं थे

मेरे 
जनपद के थे
स्वप्निल के जनपद के थे
हम उसी बस्ती जनपद के थे

बच्चो
वैसा सक्सेना
कविता की बस्ती में
कुआनो नदी के पास
फिर नहीं आया

सोने का 
पानी चढ़ाने वाले
कविता की भाषा के ठग
बहुत आए बहुत आए

मंचों पर 
घुंघरू पहनकर
कठिन नाच नाचने वाले
कविता को मौत के कुएं में भेजकर
सर्कस और जादू दिखाने वाले
तमाम कवि आए

सरल कवि कम आए
स्वाभाविक कवि कम आए
पाठकों की चिंता करने वाले कवि
बहुत कम आए।

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कविता का नाराज़ फूफा
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भाई जी ने
छोटे सुकुल को बताया-
कविता का स्वयंवर रचाया जा रहा है
उत्सव लाइव दिखाया जा रहा है
जिस कवि को देखो सजा-धजा
तेल-फुलेल लगाकर सीना फुलाये है
नयी-नयी कविता सुनाये है

छोटे सुकुल ने 
पहले ख़ुद को शांत किया
फिर भाई जी से कहा-
भाई जी मुझे क्या जी
मुझे लौंडों की बेजा हरकतों से 
बहुत से बहुत दूर रखो जी
उम्र के इस पड़ाव पर
मुझे कविता के स्वयंवर
और तख़्त और ताज़ से अब क्या जी
छोड़ो जी इस लाइव-साइव से 
क्या लेना-देना जी

देक्खो भाई जी 
मैं तो ठहरा कविता का देहाती-भुच्चड़
अपने समय की कविता की बारात का
नाराज़ फूफा हूं जी 
जिसे मेरा कोई साढ़ू साला उनका बेटा 
चाहे कोई और रिश्तेदार मनाता ही नहीं 
अब आप ही बताओ मैं क्या करूं जी
जो कर रहा हूं क्यों न करूं जी
ताड़ के पेड़ पर सबसे ऊपर चढ़कर
रोज़ अपनी नाराज़ कविता सुनाना
क्यों बंद करूं जी आओ नीचे बैठो जी
कविता के नाराज़ फूफा की कविता
आप तो सुनो जी।







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