गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

शेरशाह सूरी से एक दिलचस्प मुलाकात

- गणेश पाण्डेय

यहाँ गोरखपुर में पहलीबार लगने वाले एक राष्ट्रीय पुस्तक मेले में सुधाकर अदीब कें उपन्यास के लोकार्पण कार्यक्रम में जाना हुआ। दिल्ली के पुस्तक मेलों में से एक भी आज तक नहीं देख पाया हूँ, पर पुस्तक मेलों के बारे में अनुभव करता हूँ कि ये साहित्य और पाठक के बीच आधुनिक पुल हैं। जैसे कभी कविता को दरबार से बाहर निकाल कर जनोन्मुख करने के लिए कविसम्मेलनों की जरूरत तीव्रता से महसूस की गयी थी, आज साहित्य को विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम और पुस्तकालयों से बाहर जनता अर्थात पाठकवर्ग के बीच ले जाने में ये पुस्तक मेले बड़ा काम कर सकते हैं। पुस्तक मेले अधिक से अधिक लगें। किताबें सस्ती हों और पाठक फिर से पहले की तरह किताबों से जुड़ें। किताबें आज भी छप रही हैं और ज्यादा छप रही हैं, पर सवाल यह कि पढ़ी कितनी जा रही हैं। कभी एक किताब को कई सौ पाठक पढ़ते थे, अब शायद कई सौ पाठकों में एक किताब पढ़ी जाती है। पाठक उसे कह रहा हूँ जो शुद्ध पाठक हैं, कवि-कथाकार आदि नहीं। आज इन्हीं मेलों के बीच कुछ शुद्ध पाठक भी आ रहे हैं, यह अच्छी बात है।
    पुस्तक मेले में लोकार्पण अब एक रिवाज है। लेखक मित्रों के उत्साह में साथ देना जरूरी होता है, लेकिन जब शामिल हों और एक अच्छी किताब आपके हाथ लग जाये तो फिर क्या पूछना। मैं सुधाकर अदीब से सिर्फ एक बार मिला हूँ। संस्थान के कबीर पर केंद्रित एक कार्यक्रम में। पहले उनका कुछ भी नहीं पढ़ा था। जानता था कि उपन्यासकार हैं। कोई उपन्यास नहीं देखा था। उपन्यास तो दो मेरे पास भी है, लेकिन उपन्यासों का आकार डर पैदा करता है। मेरे एक शिक्षक उपन्यास को राँड़ का रोना कहते रहे हैं। वे कवि हैं, कह सकते हैं। मैं ऐसा कुछ तो नहीं कहता, लेकिन इधर के कई चर्चित उपन्यासों के शुरू के बीस-बीस पेज पढ़ कर इतना अधिक डर गया कि पूछिए मत। एक नोएडा की कथाकार और एक कोलकाता की कथाकार। असल में उपन्यास की पहली शर्त ही है पठनीयता, हालाँकि यह साहित्य मात्र की शर्त है। कविता हो या कथा, पठनीयता प्रधान गुण है। कवितापना या कथारस के बिना इन विधाओं की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, पर कई संपादक और आलोचक ठस कथाभाषा वाले उपन्यासों को भी सिर पर उठा लेते हैं, यदि लिखने वाला या लिखने वाली किसी भी प्रकार का लाभ पहुँचाने की स्थिति में हो। बहरहाल ऐसे उपन्यास बेईमानी से चर्चा और पुरस्कार पा सकते हैं, पर पाठकों का प्यार नहीं।
       पाठकों का प्यार पाने के लिए उपन्यास की भाषा मे मिठास और कोमलता ही नहीं, कल्पना और खासतौर से शक्ति जरूरी है। भाषा कृति का मुखड़ा है। भाषा ही हमें खींचकर भीतर ले जाती है और प्रस्तुति का आकर्षण हमें बाँधे रहता है। सुधाकर अदीब को भी ‘शाने-तारीख’ नहीं पढ़ता तो आज की तारीख में लखनऊ का शानदार कथाकार नहीं कहता। लखनऊ को कथा साहित्य के एक केंद्र के रूप में जानते हैं। लखनऊ चाहे अब उतनी बड़ी प्रतिभाओं का शहर न हो, पर कथा में काम करने वाले कुछ अच्छे लोग वहाँ हैं, सुधाकर उनमें एक और विशिष्ट हैं। इसलिए नहीं कि मुझे याद किया है, न भी याद करते तो उनका यह  उपन्यास काफी है उन्हें बेहतर कहने के लिए। यह शहर ऐसा है, जहाँ दृश्य पर जिन्हें पीछे रहना चाहिए वे सम्मान पाते हैं, जिनके पास न तो अच्छा काम है और न साहित्य का ईमान, जो हिंदी के बेटे और सगे होते हैं और उसके लिए नित जोखिम मोल लेते हैं वे अपमान पाते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि सम्मान का भूखा हूँ, बल्कि इसलिए कह रहा हूँ कि इससे हिंदी का अपमान होता है। अक्सर यहाँ मचों पर हिंदी का चीरहरण होता है। मैं कहीं जाता भी नहीं यहाँ के कार्यक्रमों में। बहरहाल गया। मंच पर सब ठीक दिखा। सुधाकर अदीब जी की किताब में बारे में  कुछ टूटा-फूटा कहा भी। कही हुई बातें जो याद आयीं, साझा कर रहा हूँ।
              आज का समय हिंदी की दुनिया में खासतौर से कथासाहित्य में महत्वपूर्ण रचनाओं के रूप में जितना जाना जाता है, उससे कहीं ज्यादा विमर्श के रूप में जाना जाता है। आशय कि विमर्श ज्यादा, अच्छी रचना कम। उपन्यास का हाल ऐसा ही है। स्त्री और दलित विमर्श के इस स्वघोषितयुग में बल सिर्फ विचार पर है, रचना पर नहीं। कथा साहित्य के अधार पर कहना हो तो इसे कथा साहित्य का विचारकाल  कह सकते हैं, रचनाकाल नहीं। यह समय एक अच्छे उपन्यास के लिए तरसने वाला काल है। हालाँकि इस बात से काफी लोग असहमत हो सकते हैं। हुआ करें। 
    ऐतिहासिक चरित्र पर लिखा गया अदीब का उपन्यास ‘शाने तारीख’, जिसे लोकभारती ने छापा है, सबसे पहले अच्छा इसलिए लगा कि लेखक ने अपने समय के कथाफैशन से बाहर निकलने का जोखिम उठाया है। हालाँकि कई लेखक ऐसा कर रहे हैं। कुछ तो अलग तरह का काम ही करते हैं। हाँ, दिगज्जों की तुलना में अपेक्षाकृत बाद के लेखक के लिए अपने समय के प्रचलित रास्ते से अलग होना गौरतलब है। इतिहास पर लिखना खासा मुश्किल होता है। एक तो उसे रचना बनाएँ, दूसरे इतिहास को बचाये रखें। इतिहास में वर्णन मुख्य होता है, उपन्यास में चित्रण। उपन्यास में कल्पना और भाषा की विशिष्ट शक्तियों का इस्तेमाल होता है, इतिहास में इतिवृत्त और भाषा का औसत। उपन्यास में कथाक्रम और पूर्वदीप्ति तथा अन्य तकनीक रचना को इतिहास की तरह स्थिर चित्र के रूप में एक रेखीय और सपाट नहीं, उसे बहुत गतिशील और जीवंत बनाता है। इससे बड़ी बात यह कि चरित्र किसी योद्धा या राजा-बादशाह को हो तो फिर बहुत सारे प्रसंग और खासतौर से युद्ध के वर्णन की भारमार होगी ही। जहाँ तक युद्ध की जीवंतता और उत्कृष्ट चित्रण का प्रश्न है, राम की शक्तिपूजा का पहला खण्ड गजब का है। कविता का रूप जाहिर है कि कथा का रूप नहीं हो सकता है। कथा में ब्योरे कथारस को और बढ़ाते जाते हैं। इस उपन्यास में भी अनगिनत युद्धप्रसंग हैं। कहीं भी ऊब नहीं होती। लगता है कि जैसे पाठक इन युद्धों में हाथी या घोड़े पर खुद सवार है। असल में यह सब जिस मजबूत धागे से बुना जाता है, उसका नाम शेरशाह सूरी है। कभी फरीद के रूप में बालक और किशोर तो कभी शेर खाँ के रूप में युवा अफगान और कभी हिंद के बादशाह के रूपप में शेरशाह सूरी। लेखक ने चरित्र के चयन में जिस समझदारी का परिचय दिया है, वह महत्वपूर्ण है। अदीब ने एक ऐसे बादशाह को चुना जो अपनी राह खुद बनाता है। शाहराह तो बनाता ही है, उससे पहले अपने जीवन का पथ खुद बनाता है। पिता और विमाता और सौतेले भाइयों की वजह से घर से बाहर होना पड़ता है। तालीम हासिल करके और उस्ताद की सीख से कमजोर और साधारण जन के प्रति लगाव और समाज के प्रति रचनात्मक नजरिया लेकर वापस लौटता है। फिर संघर्ष और संघर्ष। एक ऐसे समाज में जहाँ परगने की जागीरदारी से सुल्तान बनने का ख्वाब और सुल्तान से बादशाह बनने की चाहत काम करती हो, वहाँ ऊँचाई तक पहुँचने के लिए होशियारी ही नहीं अक्लमंदी और इंसानियत की भी बड़ी जरूरत होती है। इंसाफ ही वह रास्ता है जो किसी शासक को लोकप्रिय और टिकाऊ बनाता है। कड़े से कड़े फैसले और आवश्यक भूप्रबंधन और राजस्व की दूसरी स्थियों का भान किसी जागीरदार को , राजा का,े बादशाह को जनप्रिय बनाते हैं। दृढ़ता और संवेदनशीलता का मणिकांचन मेल कैसे शेरशाह को कामयाब बनाता है, इसे इस उपन्यास में देख सकते हैं।
       बहुत सारे चरित्र हैं, पर सबको बाँध रखने वाला चरित्र तो नायक ही है। यह अलग बात है कि सितार के तार की तरह सब मिल कर बजते हैं और एक ऐसे बादशाह का चेहर हमारे सामने रखते हैं, जिसकी प्राथमिकता में विलास नहीं, विकास है। जनकल्याण और राज्य का सुशासन है। शेरशाह का इकबाल ऐसा कि एक कमर झुकी बुढ़िया भी अपने सिर पर जेवरों की टोकरी लेकर बेखौफ सफर कर सकती थी।  बहुत सारे विवरण और घटनाएँ हैं, जिसमें शेरशाह पलप्रतिपल अपनी बहादुरी और बुद्धिमत्ता से पाठक के दिल को जीतता रहता है। बादशाह का बेटा होता तो शायद ऐसा न होता। इसलिए ऐसे चरित्र में कुछ खास होता ही है। इसमें भी खास है। ऐसे चरित्र सिर्फ किस्से कहानियों या इतिहास के लिए नहीं होते, होते हैं प्रेरणा पाने के लिए, शक्ति पाने के लिए, पाठक को अपने जीवन की गति को तेज करने के लिए और खुद अपने जीवन की लड़ाई को जीतने का मंत्र पाने के लिए। तीन सौ से ज्यादा पन्नों में फैली कथा जीवन के एक लंबे युद्ध का सजीव चित्रण है। इस उपन्यास को इतिहास के एक मार्मिक आख्यान के रूप में देखने का मजा ही कुछ और है। इतिहास तो है ही कि कैसे ग्रैण्ड ट्रंक रोड का निर्माण होता है या दूसरे विकास कार्य होते है या कैसे सोने चाँदी और तांबे के सिक्के ढ़लते है या रुपया पहली बार चाँदी के रुपये की शक्ल में आता है या हिन्दुओं के लिए कोमल भाव, सहिष्णुता, धर्म निरपेक्षता जैसी चीज एक पाँच वक्त नमाज पढ़ने वाले धार्मिक किस्म के बादशाह की सोच में कैसे दिखती है। इन सबसे बड़ी बात शेरशाह सूरी से दिलचस्प मुलाकात न होती, अगर सुधाकर अदीब ने आज के कथाफैशन से अपने को मुक्त न किया होता। लेखक की मुक्ति ही उसकी रचना की शक्ति होती है। लेखक तब तक अच्छा नहीं लिख सकता, जब तक उसके दिमाग में आलोचक और संपादक बैठा होगा, जैसे ही लेखक पाठक को अपने सामने देखना शुरू करेगा, उसकी रचना कुछ का कुछ और हो जायेगी। सुधाकर ने यह काम किया है। पाठक को बाँधने की पूरी कोशिश अपनी प्रस्तुति में और कथाभाषा में की है। शुरू में ही जिस अंदाज में पाठक के दरवाजे पर साँकल बजाते हैं, पता चल जाता है कि कोई है, इसे देखो और इससे मिलो। सुधाकर अदीब बधाई के पात्र हैं। 


मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

किसका है यह पेंसिलबॉक्स

-गणेश पाण्डेय

जिस किसी का हो
आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स
जो मुझे अभी-अभी मिला है
पागल पहिये और पैरों केबीच।
जिस पर कुछ फूल बने हैं
कुछ तितलियाँ हैं उड़ती-सी
और कम उम्र उँगलियों की ताजा छाप है
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
जिसके भीतर साबुत है आधी पेंसिल
और व्यग्र है उसकी नोंक
किसी मानचित्र के लिए
एक दूसरी पेंसिल है जो उससे छोटी है
बची हुई है उसमें अभी थोड़ी-सी जान
और किसी का नाम लिखने की इच्छा
मिटने से बचा हुआ है एक चौथाई रबर
काफी कुछ मिटा देने की उम्मीद में
किसी तानाशाह का चेहरा
किसी पैसे वाले की तोंद।
किसका है यह
किस दुलारे का किस अभागे का
किस रानी का किस कानी का
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।

(‘जल में’ से)