रविवार, 22 दिसंबर 2013

स्वतंत्रता क्या मनुष्य और पशु में भेद नहीं करती है ?

-गणेश पाण्डेय

        पिछले दिनों हुई एक खुदकुशी ने एफबी की दुनिया को भीतर से मथ दिया है। जिन्होंने इस दुनिया को सहसा छोड़कर जाने का फैसला किया, वे मेरे मित्र नहीं थे। मेरी मित्र सूची के कुछ मित्रों के मित्र थे। वे जो भी थे, अच्छे या बुरे, मैं उन्हें ठीक से जानता नहीं था, फिर भी उनकी खुदकुशी और उसके बाद लोगों की प्रतिक्रिया से दुखी था। कोई उन्हें निर्दोष बता रहा था तो कोई कह रहा था कि खुदकुशी दोषमुक्त होने की गारंटी नहीं। आज की दुनिया बहुत खुल गयी है, शायद इतनी कि जरा-जरा-सी बात पर भी विरोध का स्वर मुखर हो जाता है। यह अच्छी बात है। स्वागतयोग्य, पर इस खुलेपन की क्या हर बात स्वागतयोग्य है ?  
       पता नहीं क्यों, मुझे लगता है कि इधर कुछ खुलापन अधिक ही खुल गया है। लगता है कि अतिआधुनिकता का कोई नया क्षितिज यौन स्वाधीनता के रूप में हमारे समय में नये विचारसूर्य की तरह उदित हुआ है। जैसे कई हजार साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति में ऐसी कोई चीज कभी थी ही नहीं और यह पहली बार हो रहा है। हो सकता है कि सचमुच इसमें कुछ बहुत नया हो। मनुष्यों की यौन स्वतंत्रता और पशुओं की यौन स्वतंत्रता में क्या अच्छा और क्या बुरा है, यह मेरे अध्ययन का विषय कभी नहीं रहा है। कविता में भी मैंने कभी बिहारियों की कविता को पसंद नहीं किया है, आज के हिंदी के राजधानी के एकाधिक डॉनों में से एक कवि चाहे बिहारी के नाती ही क्यों न हों, उनकी कविता को भी स्त्रीदेह के शब्दानुवाद की वजह से पसंद नहीं करता। खैर, यह और बात है। यहाँ खुदकुशी वाले व्यक्ति के उभयपक्ष की सहमति वाले तर्क को फर्श पर रखकर देखना चाहता हूँ। आखिर पुरुष क्यों विवाहेतर संबंध के लिए अधिक व्यग्र रहता है ? इस रिश्ते के लिए हमारे यहाँ विवाह जैसी संस्था क्यों बनी ? आजकल, कभी-कभार लिव-इन रिलेशन जैसी बातें क्यों सामने आ रही हैं ? यदि यह कोई बहुत तार्किक, स्वास्थ्यवर्धक और उच्च मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाली चीज है तो इसे ही क्यों न विवाह की जगह अनिवार्य बनाने का कानून बना दिया जाय ? यदि बुद्धिजीवी बंधुओं को लगता है कि इससे समाज एक कदम और आगे जाएगा, तो उसे आगे क्यों नहीं ले जाना चाहिए ? क्या अपवाद को समाज की मुख्यधारा मान लेना चाहिए ?
       अगर पितृसत्तात्मक समाज को मातृसत्तात्मक बनाना जरूरी है तो उसे बनाने की दिशा में कानूनी पहल क्यों नहीं ? पिता का नाम अभिलेखों से हटाकर माँ का नाम क्यों न दर्ज किया जाय ? वह भी क्यों, पशुओं की तरह बच्चे पैदा करके दूध पीने की उम्र के बाद उन्हें छोड़कर चल देने की परंपरा क्यों नहीं शुरू की जाय ? स्वतंत्रता का यह संसार क्या कम आकर्षक होगा ? सौफीसदी स्वतंत्रता। यौन संबंध बनाइए और तुरत भूल जाइए कि कुछ हुआ है। जैसे चाट की दुकान से बाहर हो जाते हैं, जाइए मंच पर खड़े होकर आराम से भाषण दीजिए। विचार झाड़िए। अगर यौनक्रिया इतनी स्वतंत्र है, तो फिर भ्रष्टाचार करने या घूस लेने की स्वतंत्रता क्यों नहीं ? और यह स्वतंत्रता भी कोई मूल्य है या स्वभाव का अंग ? कोई कानून-वानून ? स्वतंत्रता क्या मनुष्य और पशु में भेद नहीं करती है ? आखिर पशुओं की दुनिया में कोई विचार या मूल्य का संसार है क्या ? पशुओं के संसार में सेक्स का संबंध संतानोत्पत्ति की भावना से जुड़ा है ? मनुष्यों को वस्त्र पहनने की परतंत्रता आखिर क्यों, नंग-धड़ंग रहने की स्वतंत्रता क्यों नहीं ? मनुष्य क्यों एक घर बनाए, बच्चों को पढ़ाए-लिखाये, शादी-ब्याह करे ? यह सब करने वाले बेवकूफ हैं ? इसी विधि से पढ़-लिखकर बुद्धिजीवी बनने वाले लोग, कोई और समाज बनाना चाहते हैं या स्वतंत्रता को, स्वतंत्रता के लिए प्राण देने वाले दीवानों से अधिक समझते हैं तो अपने लिए एक अलग दुनियाक्यों नहीं बना लेते ?
        बहरहाल, आज मीडिया ने ऐसे तमाम मुद्दों को सामने लाकर तमाम पीड़ित स्त्रियों को न्याय दिलाने के लिए उम्दा कोशिश भी की है। कई प्रभावशाली लोग कानून की पकड़ में आ सके तो मीडिया भी कहीं न कहीं श्रेय पाने की स्थिति में दिखती है। मीडिया का काम सिर्फ सच को जस का तस दिखा देना ही नहीं होना चाहिए और न एक पक्ष बन जाना चाहिए, बल्कि एक शिक्षक की तरह दण्ड और पुरस्कार की आँख से चीजों को देखते हुए बनते-बिगड़ते समाज को भी गौर से देखना चाहिए। देखना चाहिए कि समाज को क्या नुकसान पहुँचाने वाली बात है और क्या उसे फायदा पहुँचाने वाली बात है ? मेरे कहने का आशय यह नहीं कि दो जन विशेष परिस्थिति में जैसे विवाह संबंध टूट गया हो या अधिक उम्र के कारण एक साथी दुनिया से चला गया हो और बच्चे न हों तो अकेलेपन की स्थिति में या ऐसे ही कोई बड़ा कारण हो तो किसी हमउम्र को जीवनसाथी की तरह साथ रखने में बुराई नहीं दिखती है, लेकिन इस तरह की गतिविधि को विवाह जैसी संस्था के विकल्प के रूप में देखना या हर उम्र के लिए उचित बताना या महिमामंड़ित करना मुझे कुछ ठीक नहीं लगता।
        यह एफबी का संसार कई उम्र के लोगों का संसार है, कई समाजार्थिक और बौद्धिक स्तर के लोगों का संसार है, ऐसे लोगों का भी संसार है, जो अपने माता-पिता को कम और बाहर के विचार की दुनिया के आधुनिक या उत्तर आध्ुनिक माता-पिता को अधिक देखते हैं। कभी-कभी लगता है कि एकदम चुप रहना चाहिए। वैसे भी इस विषय पर कुछ कहना नहीं चाहता था, लेकिन किसी तरह कुछ कह गया।


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