-गणेश पाण्डेय
यह सुख और दुख की दुनिया भी अजीब है, सबके लिए न दुख है और न सबके लिए सुख। साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में भी सुखी और दुखी दोनों तरह के लोग रहे हैं। आज भी जहाँ देखिए मिल जायेंगे, एक ओर हाल में निकाले गये पत्रकार हैं तो दूसरी तरफ संपादक, निदेशक इत्यादि कुर्सियों पर बैठकर इत्र सूँघते हुए चंद सुखी लोग। साहित्य में भी कभी कोई संघर्ष न करने वाले तिकड़मी लोग हैं जो अकादमियों में मालपुआ खा रहे हैं और आज की तारीख में साहित्य में लड़ाई लड़ते हुए लगातार तनाव में रहने वाले दूसरे तरह के दुखी लोग भी हैं। साहित्य के भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रतिदिन, प्रतिक्षण लड़ने वाले लोग कम हो सकते हैं, पर हैं। जाहिर है कि ऐसे लोग सुखी लोग नहीं है।
इस दुनिया में कई तरह के लोगों को देखने के लिए आँखें पूरी खुली रखना देखने की पहली शर्त है। मुश्किल यह भी है कि बहुत से लोग दुख और संघर्ष देखना ही नहीं चाहते हैं। जाहिर है कि जिनका पेट भरा होगा वे भूख के बारे में क्यों बात करेंगे ? बड़े तो बड़े , एक बच्चा भी अघाये हुए लोगों की भाषा और दुखीजन की भाषा में फर्क कर लेगा। आज किसी की भाषा अलग है तो इसे जाना जा सकता हैं कि ऐसा क्यों है। क्यों किसी की भाषा में इतना बारूद है, साहित्य में यह लेखक जब पैदा हुआ था तब तो ऐसा नहीं था, क्या देखा और भोगा है कि ऐसा हो गया है, किसे-किसे किस हाल में देख लिया है कि तब से गुस्से में है। कोई लेखक, कोई संपादक बताए भला! बहरहाल, अपना काम सिर्फ कहना है, अर्थ-अनर्थ करना पढ़ने वाले के जिम्मे। हाँ, तो मैं बात कर रहा था साहित्य के सुखिया और दुखिया संप्रदाय के बारे में। यह सब कहने की जरूरत क्यों आन पड़ी, इसके बारे में सिर्फ इतना ही कि सरसरी तौर पर एक मशहूर पत्रकार के स्टेटस पर यह चिंता दिखी कि भाई इस माध्यम पर लोग अपना रोना क्यों रोते हैं ? क्यों नहीं नित्य सुखीजीवन के गीत गाते हैं ? क्यों नहीं मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं ? क्यों नहीं हँसी-मजाक और हँसी-ठट्ठा करते रहते हैं ? क्यों नहीं संग्रहालयों की फोटो छापते रहते हैं, इत्यादि सुखी जीवन का व्यापार करते हैं ? क्यों नहीं इस माध्यम के लोग उनके सामने से शव, बीमार और बूढ़े आदमी चित्र हटा देते हैं, जिस तरह सिद्धार्थ के सामने से हटा दिया जाता था। ऐसा चाहने वालों की दिक्कत हर तरह के गरीबों को लेकर है, खासतौर से साहित्य के दीन-हीन, शोषित-पीड़ित की ऊँची आवाज को लेकर उनकी दिक्कत सबसे ज्यादा है। वे उन कवियों और लेखकों को पसंद करते हैं और बड़े गर्व से नाम लेते हैं , जो खुशामद के रास्ते पर चलता हो। साहित्य में लड़ने वाला, हरगिज नहीं। आलोचकों, संपादकों और अकादमियों के अधिकारियों के जूते में पालिश लगाने वाला लेखक चलेगा, इसी रास्ते से पुरस्कार पाने वाला लेखक चलेगा ही नहीं, दौड़ेगा। जाहिर है कि लूट का माल खाकर अघाये हुए लोग सुखी और स्वस्थ रहते हैं।
पत्रकार मित्र ने अपने स्टेटस में हालाकि यह सीधे नहीं कहा है कि दुख की बातें एकदम से न कहें, उन्होंने कहा है कि कहें पर सिर्फ वही-वही हरदम न कहें। शायद उनका आशय है कि प्रकृति, सौंदर्य, कला, प्रेम, उत्सव आदि की बातें भी बढ़चढ़कर करें। जो लोग ऐसा करते हैं उनकी तारीफ करता हूँ, पर सबके लिए ऐसा कर पाना संभव होगा, यह नहीं कह सकता। भला जिस स्त्री का नवजात शिशु अस्पताल से चोरी हो जाएगा, वह जीवन भर कैसे उत्सव मना पाएगी, जिसके जवान बेटों को हत्यारे कत्ल कर देंगे, वह माँ कैसे और कितना और कब-कब उत्सव मना पाएगी ? वह माँ, नाच पाएगी, वह माँ फोटो खींच पाएगी ? वह माँ यात्रा का किस तरह आनंद ले पाएगी ? इत्यादि बातें हैं। जिनके लिए हिंदी धंधा नहीं है, हालाकि कुछ लोगों के लिए नौकरी है, पर कुछ लोगों के लिए सिर्फ नौकरी नहीं है, जीवन है। जिनके लिए साहित्य यश और इनाम का जरिया नहीं, एक ड्यूटी है, चौकीदार जैसी, वह रातों में सो कैसे सकते हैं ? मजे कैसे ले सकते हैं, उन्हें तो सुनसान रातों में सीटी बजाते, जागते रहो कहते और सड़क पर लाठी से आवाज पैदा करते हुए रहना है। आशय यह कि जिसे हिंदी की लंका के तनाव में तीन बार स्कूटर दुर्घटना में मरने के करीब का दृश्य देखना होगा भला वह हिंदी की दुनिया में बहुत अधिक उत्सवधर्मी कैसे हो पाएंगे ? हिंदी के राक्षसों का अट्टहास उन्हें कितना उत्सवधर्मी बनने देगा ? कहने का यह आशय यह नहीं कि ऐसे लोग अपने घर में भी योद्धा की मुद्रा में ही रहते होंगे, निश्चितरूप से वे वहाँ अपने बच्चों से प्यार करते होंगे, हँसते होंगे, शादी-ब्याह में नाचते भी होंगे, लेकिन इस माध्यम पर ऐसे लोग उत्सव मनाने के लिए ही नहीं रह सकते हैं। ऐसा भी होता है कि एक लेखक अपने शहर में हिंदी की लंका में बिल्कुल अलग-थलग रहता हो और जब वह इस माध्यम पर आए तो अपने दर्द और संघर्ष के साथ मौजूद हो। ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो किसी विचारधारा और समाज के दुखी लोगों से प्यार करते हों, ऐसे लोग बहुत ज्यादा आनंदवादी नहीं हो सकते हैं। दरअसल दुखी लोगों के लिए यह माध्यम समाज का कोई ललित माध्यम नहीं हो सकता है। चित्रहार नहीं हो सकता है। जो लोग इसे एक ललित माध्यम के रूप में देखते हैं, वे अपनी जगह और दृष्टि और विचारधारा के आधार पर इसे अनंतकाल तक ललित माध्यम के रूप में ले सकते हैं, पर जिसकी बात कोई और माध्यम कम सुनता हो, जिसकी बातों से साहित्य के भ्रष्ट लोगों के कान पर जूँ न रेंगता हो, वह इस माध्यम पर अपनी आवाज समानधर्मा मित्रों तक क्यों नहीं ले जाएगा ? जाहिर है कि वह कानफोड़ू आवाज में भी अपनी बात कहने की सीमा तक जा सकता है, अच्छा हो कि आप सुखवादी है, संतुष्टिवादी है, ललितवादी हैं इत्यादि तो अपनी मित्र सूची से ऐसे दुखवादियों को अलग कर दें।
साहित्य और पत्रकारिता के सुखी लोग, दुखी लोगों को पसंद नहीं करते हैं तो न करें, लेकिन दुखी लोगों के रोने पर एतराज करेंगे तो जाहिर है कि दुखी लोग भी उनके ललितवाद पर एतराज करेंगे। सुखी लोग यह न समझें कि दुखी लोग उन रास्तों को नहीं जानते हैं, जहाँ से सारा सुख उन्हें भीख में मिलता है। दुखी लोग भीख नहीं, अपना हक चाहते हैं और उसके लिए रोते हैं, लड़ते हैं, हार जाते हैं, फिर लड़ते हैं, फिर रोते हैं और लड़ते ही रहते हैं। कबीर ने कहा है कि-
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।
कबीर का उदाहरण देने का आशय यह कि आज कबीर भी इस माध्यम पर होते तो ऐसे पत्रकार जी लोग उनसे भी कहते कि कबीरदास जी ये क्या आप रोना-धोना करते रहते हैं। ये क्या जीव-ब्रह्म करते रहते हैं, ये गरीबों और पिछड़ों की चिंता क्यों ? ये हिंदू-मुसलमान क्यों ? ये आग लगाने वाली बातें क्यों ? कुछ मीठा कीजिए कबीर दास जी। निराला होते इस माध्यम पर तो उन्हें भी डाँटते कि अरे भाई निराला ये क्या हरदम कहते रहते हो कि दुख ही जीवन की कथा रही...हिंदी के सुमनों के प्रति क्यों अनाप-शनाप कहते रहते हो, संपादक को बुरा-भला क्यों कहते रहते हो...अरे अजीब आदमी हो ये आराध्य की मूर्ति पर डंडे से चोट क्यों करते हो...ये साहित्यिक अन्याय और भ्रष्टाचार की बात क्यों करते हो भाई...क्या हुआ जो दूसरे तुम्हारे हिस्से की मलाई काट रहे हैं...इसमें रोने की कौन-सी बात है...हटाओ अपना ये रोना-धोना। कुछ अच्छी बातें करो। कुछ मस्ती करो। अरे भाई, पत्रकार जी ! आपके अज्ञेय ने भी तो कहा है कि दुख सबको माँजता है। आपको दुख माँजता नहीं है क्या ? कम माँजता है क्या ?
दरअसल ये कहना तो चाहते होंगे आज के राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक सरोकारों के लिए लड़ने वाले तमाम लोगों से कि भाई ये क्या हर समय दुख की बातें। ये क्या हर समय शोषण-उत्पीड़न का रोना। ये क्या हर समय सोनी सोरी की चिंता, ये क्या दामिनी जैसी तमाम बेटियों के लिए रोज-रोज गुस्सा, छोड़ो ये सब, हँसो-हँसो, हँसो कि हँसने से सेहत को फायदा है, हँसो कि रोना सत्ता को पसंद नहीं है। हजार झूठ छापते हुए तमाम पत्रकार -संपादक अपनी कुर्सी पर हँसते है जोर-जोर से। कहना सिर्फ इतना है कि यह माध्यम अपनी तमाम कमियों के बावजूद वह सब सबसे साझा करता है जिसे किन्हीं कारणों तमाम पत्रकार अपने अखबार में दे नहीं सकते हैं। जहाँ तक मैं जानता हूँ देश की संसद में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में ये जितना छापते हैं, उसका एक बटा हजार भी साहित्य की अकादमियों में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में नहीं छापते हैं । असल में ये सच के देवता नहीं , सौदागर हैं। सच, उतना ही और वही सच छापते हैं जिसमें जोखिम रत्तीभर न हो। इन्हें जनता के दुख से नहीं, सत्ता के सुख से प्रेम है। जनता का दुख भी इनके लिए दुख नहीं एक वस्तु है, जिसे उचित समय और उचित दाम पर ये बेचने के लिए मजबूर होते हैं। हाय, इस दुनिया में कितने मजबूर लोग रहते हैं। जाहिर है कि ये मजबूर लोग दुख के सिपाही नहीं, सुख के चाकर हैं। खुद चुना है सुख की यह नौकरी। आखिर दुख की नौकरी चुनने वाले भी कुछ कम पाजी तो नहीं हैं।
अंत में कविता का यह अंश -
सुखी हुए वे जन
त्याग दिया जिन्होंने
क्रोध
सुखी हुए वे भी
जिन्होंने एवज में दिया
शील
वे महाशय भी सुखी हुए
साध लिया जिन्होंने
चिंता से बैरभाव
परम सुखी हुए वे मनुष्य
जो हुए नित्य
सत्तामुख
दुखी रहे फिर भी कुछ पाजी
जिनके पास हुई गर्दन
तनी हुई।
यह सुख और दुख की दुनिया भी अजीब है, सबके लिए न दुख है और न सबके लिए सुख। साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में भी सुखी और दुखी दोनों तरह के लोग रहे हैं। आज भी जहाँ देखिए मिल जायेंगे, एक ओर हाल में निकाले गये पत्रकार हैं तो दूसरी तरफ संपादक, निदेशक इत्यादि कुर्सियों पर बैठकर इत्र सूँघते हुए चंद सुखी लोग। साहित्य में भी कभी कोई संघर्ष न करने वाले तिकड़मी लोग हैं जो अकादमियों में मालपुआ खा रहे हैं और आज की तारीख में साहित्य में लड़ाई लड़ते हुए लगातार तनाव में रहने वाले दूसरे तरह के दुखी लोग भी हैं। साहित्य के भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रतिदिन, प्रतिक्षण लड़ने वाले लोग कम हो सकते हैं, पर हैं। जाहिर है कि ऐसे लोग सुखी लोग नहीं है।
इस दुनिया में कई तरह के लोगों को देखने के लिए आँखें पूरी खुली रखना देखने की पहली शर्त है। मुश्किल यह भी है कि बहुत से लोग दुख और संघर्ष देखना ही नहीं चाहते हैं। जाहिर है कि जिनका पेट भरा होगा वे भूख के बारे में क्यों बात करेंगे ? बड़े तो बड़े , एक बच्चा भी अघाये हुए लोगों की भाषा और दुखीजन की भाषा में फर्क कर लेगा। आज किसी की भाषा अलग है तो इसे जाना जा सकता हैं कि ऐसा क्यों है। क्यों किसी की भाषा में इतना बारूद है, साहित्य में यह लेखक जब पैदा हुआ था तब तो ऐसा नहीं था, क्या देखा और भोगा है कि ऐसा हो गया है, किसे-किसे किस हाल में देख लिया है कि तब से गुस्से में है। कोई लेखक, कोई संपादक बताए भला! बहरहाल, अपना काम सिर्फ कहना है, अर्थ-अनर्थ करना पढ़ने वाले के जिम्मे। हाँ, तो मैं बात कर रहा था साहित्य के सुखिया और दुखिया संप्रदाय के बारे में। यह सब कहने की जरूरत क्यों आन पड़ी, इसके बारे में सिर्फ इतना ही कि सरसरी तौर पर एक मशहूर पत्रकार के स्टेटस पर यह चिंता दिखी कि भाई इस माध्यम पर लोग अपना रोना क्यों रोते हैं ? क्यों नहीं नित्य सुखीजीवन के गीत गाते हैं ? क्यों नहीं मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं ? क्यों नहीं हँसी-मजाक और हँसी-ठट्ठा करते रहते हैं ? क्यों नहीं संग्रहालयों की फोटो छापते रहते हैं, इत्यादि सुखी जीवन का व्यापार करते हैं ? क्यों नहीं इस माध्यम के लोग उनके सामने से शव, बीमार और बूढ़े आदमी चित्र हटा देते हैं, जिस तरह सिद्धार्थ के सामने से हटा दिया जाता था। ऐसा चाहने वालों की दिक्कत हर तरह के गरीबों को लेकर है, खासतौर से साहित्य के दीन-हीन, शोषित-पीड़ित की ऊँची आवाज को लेकर उनकी दिक्कत सबसे ज्यादा है। वे उन कवियों और लेखकों को पसंद करते हैं और बड़े गर्व से नाम लेते हैं , जो खुशामद के रास्ते पर चलता हो। साहित्य में लड़ने वाला, हरगिज नहीं। आलोचकों, संपादकों और अकादमियों के अधिकारियों के जूते में पालिश लगाने वाला लेखक चलेगा, इसी रास्ते से पुरस्कार पाने वाला लेखक चलेगा ही नहीं, दौड़ेगा। जाहिर है कि लूट का माल खाकर अघाये हुए लोग सुखी और स्वस्थ रहते हैं।
पत्रकार मित्र ने अपने स्टेटस में हालाकि यह सीधे नहीं कहा है कि दुख की बातें एकदम से न कहें, उन्होंने कहा है कि कहें पर सिर्फ वही-वही हरदम न कहें। शायद उनका आशय है कि प्रकृति, सौंदर्य, कला, प्रेम, उत्सव आदि की बातें भी बढ़चढ़कर करें। जो लोग ऐसा करते हैं उनकी तारीफ करता हूँ, पर सबके लिए ऐसा कर पाना संभव होगा, यह नहीं कह सकता। भला जिस स्त्री का नवजात शिशु अस्पताल से चोरी हो जाएगा, वह जीवन भर कैसे उत्सव मना पाएगी, जिसके जवान बेटों को हत्यारे कत्ल कर देंगे, वह माँ कैसे और कितना और कब-कब उत्सव मना पाएगी ? वह माँ, नाच पाएगी, वह माँ फोटो खींच पाएगी ? वह माँ यात्रा का किस तरह आनंद ले पाएगी ? इत्यादि बातें हैं। जिनके लिए हिंदी धंधा नहीं है, हालाकि कुछ लोगों के लिए नौकरी है, पर कुछ लोगों के लिए सिर्फ नौकरी नहीं है, जीवन है। जिनके लिए साहित्य यश और इनाम का जरिया नहीं, एक ड्यूटी है, चौकीदार जैसी, वह रातों में सो कैसे सकते हैं ? मजे कैसे ले सकते हैं, उन्हें तो सुनसान रातों में सीटी बजाते, जागते रहो कहते और सड़क पर लाठी से आवाज पैदा करते हुए रहना है। आशय यह कि जिसे हिंदी की लंका के तनाव में तीन बार स्कूटर दुर्घटना में मरने के करीब का दृश्य देखना होगा भला वह हिंदी की दुनिया में बहुत अधिक उत्सवधर्मी कैसे हो पाएंगे ? हिंदी के राक्षसों का अट्टहास उन्हें कितना उत्सवधर्मी बनने देगा ? कहने का यह आशय यह नहीं कि ऐसे लोग अपने घर में भी योद्धा की मुद्रा में ही रहते होंगे, निश्चितरूप से वे वहाँ अपने बच्चों से प्यार करते होंगे, हँसते होंगे, शादी-ब्याह में नाचते भी होंगे, लेकिन इस माध्यम पर ऐसे लोग उत्सव मनाने के लिए ही नहीं रह सकते हैं। ऐसा भी होता है कि एक लेखक अपने शहर में हिंदी की लंका में बिल्कुल अलग-थलग रहता हो और जब वह इस माध्यम पर आए तो अपने दर्द और संघर्ष के साथ मौजूद हो। ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो किसी विचारधारा और समाज के दुखी लोगों से प्यार करते हों, ऐसे लोग बहुत ज्यादा आनंदवादी नहीं हो सकते हैं। दरअसल दुखी लोगों के लिए यह माध्यम समाज का कोई ललित माध्यम नहीं हो सकता है। चित्रहार नहीं हो सकता है। जो लोग इसे एक ललित माध्यम के रूप में देखते हैं, वे अपनी जगह और दृष्टि और विचारधारा के आधार पर इसे अनंतकाल तक ललित माध्यम के रूप में ले सकते हैं, पर जिसकी बात कोई और माध्यम कम सुनता हो, जिसकी बातों से साहित्य के भ्रष्ट लोगों के कान पर जूँ न रेंगता हो, वह इस माध्यम पर अपनी आवाज समानधर्मा मित्रों तक क्यों नहीं ले जाएगा ? जाहिर है कि वह कानफोड़ू आवाज में भी अपनी बात कहने की सीमा तक जा सकता है, अच्छा हो कि आप सुखवादी है, संतुष्टिवादी है, ललितवादी हैं इत्यादि तो अपनी मित्र सूची से ऐसे दुखवादियों को अलग कर दें।
साहित्य और पत्रकारिता के सुखी लोग, दुखी लोगों को पसंद नहीं करते हैं तो न करें, लेकिन दुखी लोगों के रोने पर एतराज करेंगे तो जाहिर है कि दुखी लोग भी उनके ललितवाद पर एतराज करेंगे। सुखी लोग यह न समझें कि दुखी लोग उन रास्तों को नहीं जानते हैं, जहाँ से सारा सुख उन्हें भीख में मिलता है। दुखी लोग भीख नहीं, अपना हक चाहते हैं और उसके लिए रोते हैं, लड़ते हैं, हार जाते हैं, फिर लड़ते हैं, फिर रोते हैं और लड़ते ही रहते हैं। कबीर ने कहा है कि-
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।
कबीर का उदाहरण देने का आशय यह कि आज कबीर भी इस माध्यम पर होते तो ऐसे पत्रकार जी लोग उनसे भी कहते कि कबीरदास जी ये क्या आप रोना-धोना करते रहते हैं। ये क्या जीव-ब्रह्म करते रहते हैं, ये गरीबों और पिछड़ों की चिंता क्यों ? ये हिंदू-मुसलमान क्यों ? ये आग लगाने वाली बातें क्यों ? कुछ मीठा कीजिए कबीर दास जी। निराला होते इस माध्यम पर तो उन्हें भी डाँटते कि अरे भाई निराला ये क्या हरदम कहते रहते हो कि दुख ही जीवन की कथा रही...हिंदी के सुमनों के प्रति क्यों अनाप-शनाप कहते रहते हो, संपादक को बुरा-भला क्यों कहते रहते हो...अरे अजीब आदमी हो ये आराध्य की मूर्ति पर डंडे से चोट क्यों करते हो...ये साहित्यिक अन्याय और भ्रष्टाचार की बात क्यों करते हो भाई...क्या हुआ जो दूसरे तुम्हारे हिस्से की मलाई काट रहे हैं...इसमें रोने की कौन-सी बात है...हटाओ अपना ये रोना-धोना। कुछ अच्छी बातें करो। कुछ मस्ती करो। अरे भाई, पत्रकार जी ! आपके अज्ञेय ने भी तो कहा है कि दुख सबको माँजता है। आपको दुख माँजता नहीं है क्या ? कम माँजता है क्या ?
दरअसल ये कहना तो चाहते होंगे आज के राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक सरोकारों के लिए लड़ने वाले तमाम लोगों से कि भाई ये क्या हर समय दुख की बातें। ये क्या हर समय शोषण-उत्पीड़न का रोना। ये क्या हर समय सोनी सोरी की चिंता, ये क्या दामिनी जैसी तमाम बेटियों के लिए रोज-रोज गुस्सा, छोड़ो ये सब, हँसो-हँसो, हँसो कि हँसने से सेहत को फायदा है, हँसो कि रोना सत्ता को पसंद नहीं है। हजार झूठ छापते हुए तमाम पत्रकार -संपादक अपनी कुर्सी पर हँसते है जोर-जोर से। कहना सिर्फ इतना है कि यह माध्यम अपनी तमाम कमियों के बावजूद वह सब सबसे साझा करता है जिसे किन्हीं कारणों तमाम पत्रकार अपने अखबार में दे नहीं सकते हैं। जहाँ तक मैं जानता हूँ देश की संसद में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में ये जितना छापते हैं, उसका एक बटा हजार भी साहित्य की अकादमियों में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में नहीं छापते हैं । असल में ये सच के देवता नहीं , सौदागर हैं। सच, उतना ही और वही सच छापते हैं जिसमें जोखिम रत्तीभर न हो। इन्हें जनता के दुख से नहीं, सत्ता के सुख से प्रेम है। जनता का दुख भी इनके लिए दुख नहीं एक वस्तु है, जिसे उचित समय और उचित दाम पर ये बेचने के लिए मजबूर होते हैं। हाय, इस दुनिया में कितने मजबूर लोग रहते हैं। जाहिर है कि ये मजबूर लोग दुख के सिपाही नहीं, सुख के चाकर हैं। खुद चुना है सुख की यह नौकरी। आखिर दुख की नौकरी चुनने वाले भी कुछ कम पाजी तो नहीं हैं।
अंत में कविता का यह अंश -
सुखी हुए वे जन
त्याग दिया जिन्होंने
क्रोध
सुखी हुए वे भी
जिन्होंने एवज में दिया
शील
वे महाशय भी सुखी हुए
साध लिया जिन्होंने
चिंता से बैरभाव
परम सुखी हुए वे मनुष्य
जो हुए नित्य
सत्तामुख
दुखी रहे फिर भी कुछ पाजी
जिनके पास हुई गर्दन
तनी हुई।
सर प्रणाम
जवाब देंहटाएंआपका लिखा हुआ हमेशा से कुछ सीख दे जाता है , आपको पढ़ना सुखद लगता है ...!!
एकदम बेलाग और बेबाक !आपके लिखे की यह खूबी बेहद आश्वस्त करती है. कुछ लोग जो सब कुछ अपने मन-मुताबिक चाहते हैं, उनकी बेचैनी के स्रोतों को आपने न सिर्फ़ क़ायदे से चिह्नित किया है, अपने समय के सत्य को भी रेखांकित किया है. परम सुखी लोग सुखी रहें, और तनी हुई गर्दन वाले पाजी दुखी रहें, यह इसलिए भी ज़रूरी है कि दोनों तरह के लोग अपने काम करते रह सकें. पाजियों की संख्या कुछ बढ़े तो बात बने ! समाज को इन पाजियों की ज़रूरत ज़्यादा अनुभव होती रहे, यह शुभकामना !
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहुत सटीक और गंभीर चोट गणेश जी! लेकिन इन सब से बचा भी तो नहीं जा सकता। ये तो तब हैं जब कुछ लोग( भले ही वे दुखी हो ही बोलें)बोलते तो है, सोचिए! अगर बोलना छोड़ दिया जाए और सब कुछ "जो हो रहा है, होने दो अपन को क्या लेना- देना" सोच कर हर गलत-शलत को देखकर भी अनदेखा कर आंख मूंद बैठ जाना भी क्या उचित है?
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