-गणेश पाण्डेय
हिंदी कभी देश की बेटी रही होगी। इस देश का उजास रही होगी कभी। अपने हृदय प्रदेश के ललाट पर सूरज के गोले की तरह दमकती हुई बिंदी रही होगी कभी। हमारी नसों में हमारे रक्त को दौड़ाती हुई बिजली रही होगी कभी। देश की स्वाधीनता का परचम रही होगी कभी। हाँ, लो, कहता हूँ, झाँसी की रानी भी रही होगी कभी हिंदी। सच तो यह कि हिंदी विचार और संवेदना के वाहक के रूप में शुरू से ही सामाजिक सरोकारों और लोक की अभिव्यक्ति में अपने जीवन की खोज करती रही है। अपने को अर्थ देती रही है। आघ्यात्मिक मुक्ति के साथ सामाजिक मुक्ति को भी जोड़ती रही है। सामाजिक मुक्ति की खोज में राजनीतिक मुक्ति को भी स्वर देती रही है। साहित्य के छोटेमोटे कार्यकर्ता के रूप में ही सही, खुद मैंने इस हिंदी विरोधी समय में साहित्यिक मुक्ति का स्वप्न अपने लेख ‘साहित्यिक मुक्ति का प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो’ में देखने की हिमाकत की है। इस पर यहाँ कुछ नहीं। यहाँ बात हिंदी के बारे में, तब और अब के बीच उभरते तनिक कुछ और जटिल प्रश्नों के बारे में। आज हिंदी का परिदृश्य वह नहीं है जो हिंदी के स्वर्णकाल में था। हिंदी का वह स्वर्णकाल समाज या राजनीति की किसी सत्ता ने नहीं रचा था। उसे बनाया था सीधे-सादे लोगों ने। जनता ने। जनता के भरोसे उस कारनामे को अंजाम दिया था, उस दौर के हिंदी के लेखकों और सेवियों ने। कवियों और कविता प्रेमियों ने हिंदी को उस समय जिस आसन पर बैठाया था, वह अब धराशायी हो चुका है। प्रगतिशील कह भर देने से कोई भाषा आगे नहीं बढ़ती। किसी भाषा को आगे बढ़ने के लिए एक जीवन जीना होता है। जीवन के लिए संघर्ष करना होता है। जनजीवन का प्रतिनिधि बनाना होता है। हिंदी या कोई भी भाषा पुरस्कारो से दीर्घजीवी नहीं है, हाँ पुरस्कारों और भाषा तथा साहित्य की राजनीति से मृत्युमुख जरूर हो जाती है। कहने के लिए हिंदी वही है, पर वह हिंदी नहीं है। वह हिंदी जो उम्मीद की हिंदी थी। वह हिंदी जो इस मातृभूमि की तरह हमारी मातृभाषा थी। वह हिंदी जो हमारी माँ थी। हिंदी तो आज भी है, पर किस हाल में है, यह जानने से पहले रधुवीर सहाय के समय की हिंदी को उनकी कविता ‘ हमारी हिंदी’ में देखें-
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ातंे जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाए
पसीने से गंधाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए
रधुवीर सहाय ने हिंदी का जो चित्र खींचा है, वह डराता है। ऐसी हिंदी जिसे देखकर और खासतौर से जिसके बारे में सोचकर डर लगे। रधुवीर सहाय पत्रकार भी थे। उनकी यह कविता सिर्फ हिंदी को ही नहीं, हिंदी पत्रकारिता को भी आईना दिखाती है, बशर्ते अखबारों से जुड़े पत्रकार-संपादक इस पर नजर डालना पसंद करें।
कभी हिंदी बहुत बोलने में नहीं, फटकार कर बोलने में यकीन करती थी। बहुत खानेवाली और बहुत सोनेवाली तो खैर तब थी ही नहीं। तब तो उसे देश को और समाज को जगाने का काम करना था, खुद भूखों रह कर जन की जठराग्नि का उपाय ढ़ूँढ़ने का काम करना था, सदियों की गुलामी से जनता को मुक्त कराने का काम करना था। तब लेखक भी इतने र्बइमान कहाँ थे ? जगह-जगह प्रचारिणी सभाएँ थीं। कई संस्थाएँ सामाजिक उद्देश्यों के लिए ईमान के भरोसे चल रही थीं। हिंदी के नाम पर धंधा तो बाद में चला है। हिंदी के अखबार भला आजादी के पहले ऐसे ही धंधा करते थे ? हिंदी के लेखक और पत्रकार पुरस्कारों के पीछे भागते थे ? हिंदी उस वक्त ईमान की भाषा थी। इसी भाषा में व्यापार भी होता था, पर हिंदी का व्यापार नहीं होता था। कितना फर्क आ गया है ? आज हिंदी बाजार की भाषा नहीं, खुद एक बाजार है। विज्ञापन की हिंदी देखिए। हिंदी के अखबार और हिंदी की फिल्में और हिंदी के चैनल देख लीजिए। हिंदी को कहाँ आजादी के बाद जन-जन का कंठहार बनाना था, जन के जीवन का आधार बनाना था और कहाँ आज हिंदी जनता के लिए नित्य ठगे जाने और पिछड़े रहने की भाषा है। हिंदी न इस देश की माँ है न बेटी। मुझे क्षमा करेंगे हिंदी के बेटे यह कहने के लिए कि आज अमीरों के पैरों की जूती की भी हैसियत नहीं है उसकी। पूरा देश जैसे अंग्रेजी भाषा के शराब के नशे की गिरफ्त में है, आज अभिभावक अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई से अपने बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने का स्वप्न देखते हैं। सोचने की बात है कि जो हिंदी देश की आजादी के महास्वप्न की वाहक रही है, आज युवाओं की बेहतरी के स्वप्न का माध्यम क्यों नहीं बन पा रही है ? अंग्रेजों से लड़ने वाली हिंदी आज देशी अंग्रेजों से क्यों नहीं लड़ पा रही है ? हिंदी के कई लेखक अंग्रेजी पीते रहते पर हिंदी में सोचते रहते तब भी ठीक था, यहाँ तो वे सोचते भी अंग्रेजी में है और जीते भी अंग्रेजी में है। फेसबुक पर हिंदी का राष्ट्रीय चाहे अंतरराष्ट्रीय लेखक बनने वाले अनेक लोगों को अक्सर अंग्रेजी लिखते देख सकते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि जैसे हिंदी फिल्म के कलाकार फिल्म के बाहर कैमरे पर अक्सर अंग्रेजी में बोलते हैं, उसी तरह ये लेखक भी उन्हीं की नकल करते हैं। मैं ये नहीं कहता कि आप अंग्रेजी न पढें या न बोलें, पढ़ें खूब और बोलेें भी खूब, पर जब हिंदी वाले से कुछ कहना हो तो सिर्फ हिंदी में कहें। दिक्कतें कम नहीं हैं। ये अंग्रेजीदां लेखक हिंदी में किस्सा कहानी लिखने के साथ-साथ हिंदी में विज्ञान की किताबों का सुंदर और सर्जनात्मक भाषा में अनुवाद करने में भी मदद करते तो क्या कम अच्छा होता ?
आज हिंदी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का माध्यम क्यों नहीं है ? चिकित्सा की पढ़ाई का माध्यम क्यों नहीं है ? ऐसी दूसरी तमाम पढ़ाई का माध्यम क्यों नहीं है ? हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में विज्ञान और तकनीक इत्यादि की पढ़ाई क्यों नहीं ? हिंदी दिवस क्या इन सवालों के लिए नहीं याद किया जाना चाहिए ? राजभाषा बनने या न बनने से क्या और कितना फर्क पड़ता है ? अपनी भाषा में पढ़ाई न होने से देश की गरीब जनता पर बहुत फर्क पड़ता है। कह सकते हैं कि अब हिंदी एक अर्थ में गरीब की बेटी है । कोई भी कभी भी कहीं भी जिसे नुकसान पहुँचा सकता है, जिसके संग हिंसा कर सकता है। अमीर-उमरा तो होते ही किसलिए हैं ? हिंदी का राजपाट आज जिन हाथों में है, वे हिंदी के कितने शुभचिंतक हैं ? हिंदी के हृदय प्रदेश में हिंदी की लूट है। कितनी बेबस है बेचारी हिंदी। जब तक हिंदी लुटती रहेगी, हिंदी के जन लुटते रहेंगे।
सच तो यह कि आज हिंदी कहीं ज्यादा राजनीति की शिकार है। हिंदी वाले ही हिंदी के साथ राजनीति कर रहे हैं। राजनीति ही नहीं, उसके साथ हिंसा भी कर रहे हैं। राजनेता ही नहीं, हमारे साहित्य के नेता भी हिंदी में वही कर रहे हैं जो राजनेता देश के साथ कर रहे हैं। भ्रष्टाचार राजनीति ही नहीं आज साहित्य का भी सबसे बड़ा और दुष्ट ग्रह है। सरकारी संस्थान तो वर्ष में एक बार हिंदी दिवस मना कर हिंदी का श्राद्ध करते हैं, पर शिक्षण संस्थाओं के हिंदी विभाग तो नित्य, बल्कि क्षण-प्रतिक्षण हिंदी का श्राद्ध करते रहते हैं। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिंदी का विद्यार्थी किस हिंदी को पढ़ रहा है ? इससे उसका भविष्य कितना सुरक्षित है ? इस पढ़ाई का उसके जीवन और जीविका के लिए क्या मोल है ? इससे उसे नौकरी मिलेगी या चरित्रवान बनेगा या उसकी संवेदना का परिष्कार होगा ? हिंदी पढ़ाने वाले अब उसके लिए आदर्श क्यों नहीं रहे ? क्या यह सवाल हिंदी दिवसों के लिए गैर जरूरी हैं ? कहाँ चूक हुई कि हिंदी आज गहन चिकित्सा कक्ष के बाहर हिंदी के चिकित्सकों की प्रतीक्षा कर रही है ? कहाँ हैं हिंदी के सब पत्रकार, क्यों नहीं खबर लिखते हैं कि हिंदी खतरे में है।
हिंदी खतरे में है तो इसके लिए कौन हैं जो जिम्मेदार हैं ? किसने हिंदी को इस हाल में पहुँचाया है ? हिंदी के पाठकों ने या हिंदी के लेखकों और संपादकों ने ? हिंदी की किताबों के पाठक हैं भी या सब सरकारी खरीद का धंधा है ? पाठक की चिंता क्या हिंदी की चिंता नहीं है ? आज की कविता के पाठक कहाँ हैं ? कितने कम हैं ? हैं भी या नहीं ? कहानी के पाठक हैं या कविता जैसी स्थिति है ? दरअसल आज हिंदी साहित्य में शुद्ध पाठकों का टोटा है। पाठक वे हैं जो या तो कविता-कहानी लिखते हैं या आलोचक हैं या विद्यार्थी हैं और मजबूरी में हिंदी पढ़ते हैं या दुर्भाग्य से कोई किताब उनके हाथ लग गयी है। कुछ ऐसे भी पाठक हो सकते हैं जो सचमुच साहित्य के शुद्ध पाठक हैं, पर यह सच है कि वे सिर्फ कहानी या उपन्यास छूते होंगे, कविता या आलोचना नहीं। आलोचना की पठनीयता पर पहले भी कह चुका हूँ। कविता और साहित्य की दूसरी विधाओं के सामने पठनीयता का संकट है। हिंदी की दुनिया से पाठकों को बेदखल करने में प्रकाशकों की भी कम भूमिका नहीं है। वे भी ठस गद्य की भूसाछाप किताबें छापना अधिक पसंद करते हैं। ऐसी किताबें जो अकादमिक जरूरतों के हिसाब से तैयार की गयी हों या जिसमें नमक कहीं न हो। आलोचना की किताबें तो हद दर्जे की ठस होती है। लेखक के पास अपनी कोई भाषा नहीं। कहीं कोई आकर्षण नहीं। उपन्यास के बारे में कह सकते हैं कि ज्यादातर सतही भाषा में अखबारी वृत्तांत कथानक के रूप में परोस दिया जाता है। प्रगतिशीलता के नाम पर या विचार के नाम पर उन्नत कथाभाषा की खोज न करना कथाकार की बड़ी समस्या होती है। प्रेमचंद ने ‘साहित्य का उद्देश्य’ में उन्नत कथाभाषा की वकालत की है। आज जरूरत है हिंदी को फिर से जन-जन का कंठहार बनाने की। इसके लिए लेखक को अपनी भाषा और छाप पर ध्यान देना जितना जरूरी है, उतना ही पाठक की रुचि का परिष्कार करना जरूरी है। हिंदी भले ही आज नौकरी की गारंटी वाली भाषा नहीं है। हिंदी का विकास और महत्व भले ही वोट की राजनीति में कहीं कोई मुद्दा नहीें है, लेकिन चिंता की बात सिर्फ हिंदी के लिए ही नहीं, उर्दू के लिए भी है, उसके विकास के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। कहना यह है कि आज सरकारों के लिए भाषा और साहित्य और संस्कृति दो कौड़ी की चीज है। संस्कृति मंत्रालय खोल लेने से क्या होता है ? भाषा और साहित्य का धंधा जारी है। अब राजनीति और सार्वजनिक जीवन में वह पीढ़ी नहीं है जो भाषा और साहित्य की चिंता करे। बुरा यह नहीं कि राजनीति में अब वह पीढ़ी नहीं है। बुरा यह कि आज राजनीति और साहित्य, दोनों में वह पीढ़ी नहीं है।
आज दृश्य पर हिंदी का राजपाट जिनके हाथों में है, वे आलोचक हैं, संपादक हैं, पुरस्कार बाँटने वाले अलेखक हैं, जिन्होंने हिंदी को जीवन और जरूरत की भाषा की जगह बैठे-ठाले की भाषा बना दिया है। जिस हिंदी को देश के विकास का रथ बनाना चाहिए था, वह खुद दरिद्र स्थिति में हैं। हिंदी के नाम पर चलने वाली संस्थाएँ और अकादमियाँ अपात्र लोगों के हाथ में पड़कर लूट-खसोट का अड्डा बन चुकी हैं। जहाँ हिंदी के सच्चे साधक नहीं, पक्के स्वार्थी, पुरस्कारकामी और अलेखक जाते हैं। हिंदी के संत भला किस सीकरी में जाते थे ? आज समाज और धर्म में ही नहीं, साहित्य में भी असंतो का ही बोलबाला है। ऐसे में हिंदी दिवस क्या और कितना कर सकते है, यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा यह कि हम क्या कर सकते हैं ? हम सच्चे संत नहीं बन सकते हैं तो कोई बात नहीं, क्या हम इतने कमजोर हैं कि साहित्य और भाषा का सच फटकार कर कह भी नहीं सकते हैं ? क्यों नहीं कह सकते हैं हम कि हिंदी को बाहर वालों ने नहीं, खास हिंदी के लोगों ने मारा है। अम्बार लगा हुआ है हिंदी की दुनिया में क्रांतिकारी विमर्शों से। कभी दलित के नाम पर तो कभी स्त्री के नाम पर। कभी क्रांति के नाम पर तो कभी गरीबों के नाम पर। सवाल यह है कि यह विमर्श कितने काम है, जब उसका पाठक उसे देखने के लिए हिंदी के परिसर में मौजूद नहीं है। उसे ही नहीं, महान संत काव्य तक से दूर है। स्त्री और दलित की चिंता जरूरी है, बहुत जरूरी है, उसे जगह मिलनी ही चाहिए, लेकिन भाई मेरे हिंदी की चिंता भी जरूरी है। हिंदी रहेगी और जन-जन का कंठहार बनेगी तभी सारे अच्छे विचार और संवेदनाएँ उस तक पहुँचेंगी। आजादी के छाछठ साल बाद भी क्या हिंदी इस देश के विकास की वाहक है ? क्या हिंदी जनता के स्वाभिमान और सम्मान की वाहक है ? क्या हिंदी सभी सरकारी और गैरसरकारी क्षेत्रों में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने का माध्यम है ? अनुवाद की दृष्टि से क्या आज भी जनता के लिए जो शब्द गढ़े जाते हैं वे संप्रेषणीय हैं ? क्या बोलचाल की सुबोध भाषा में सभी सरकारी आवेदनपत्र का प्रारूप हिंदी में सुलभ है ? क्या हिंदी में बातचीत छोटे से लेकर उच्चतर स्तर तक प्रतिष्ठा का पयार्य है ? क्या अंग्रेजी के विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित करने की कोई कामयाब कोशिश की गयी ? क्या आनेवाला वक्त अच्छा होगा ? क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि हिंदी भाषा का जादू सत्ता पर छा जाएगा ? सत्ता हिंदीमय हो जाएगी ? क्या हिंदी सिर्फ वोट माँगने की भाषा बनकर रह जाएगी ? कोई भाषा किसी समाज की सिर्फ जुबान नहीं होती दोस्तो, उसके हाथ और पैर भी होती है। समाज की आँख और दिमाग का भी काम करती है, लेकिन क्या कर सकते हैं हम, जब भाषा के जादूगर, चाहे भाषा के इंजीनियर, चाहे भाषा के सौदागर, चाहे भाषा के आचार्य सबसे भ्रष्ट के रूप में जाने जाएंगे और अपनी इस कामयाबी पर इतराएंगे।
कभी हिंदीसेवी पद सम्मान का प्रतीक था, वे हिंदी के लिए पूरा जीवन समर्पित कर देते थे। वे हिंदी को जीवन देते थे। आज हिंदीसेवी नहीं दिखते हैं। हिंदी के छलिया दिखते हैं। ढ़ोंगी दिखते हैं। हिंदी की इस मुश्किल घड़ी में जिन जगहों को हिंदी के जीवनरक्षक की भूमिका का निर्वाह करना था, यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज हिंदी शिक्षण से जुड़े वे उच्च शिक्षा संस्थान हिंदी के वधस्थल हैं। जब तक इन संस्थानों को हिंदी का सच्चा मंदिर नहीं बनाएंगे, जहाँ हिंदी के पुजारियों का सम्मान नहीं करेंगे, जहाँ से हिंदी के चापलूसों और धंधेबाजों को बाहर नहीं करेंगे, हिंदी जिस हाल में है, उससे बेहतर की उम्मीद बेमानी है। आज हिंदी प्रदेश मुश्किल में है। उच्चशिक्षा संस्थानों से जुड़े हिंदी विभाग सफेद हाथी हैं। आप हाथी की जगह चूहा या कुछ और भी कहना चाहें तो कह सकते हैं। सिर्फ कुछ लोगों को छोड़ दें तो दृश्य बहुत निराशाजनक है। अधिकांश आचार्य व्यवस्था की विसंगति के संगतकार हैं। जहाँ बोलना चाहिए, अक्सर वहाँ चुप रहते हैं। ऐसे-ऐसे आचार्य हैं कि पूछिए मत, जिन्हें कहीं किसी और सरकारी या गैर सरकारी दफ्तर में इंस्पेक्टर या मुंशी होना चाहिए, आचार्य हैं। ऐसे लोग जिन्हें आचार्य होना चाहिए था किसी और सरकारी या गैर सरकारी दफ्तर में हैं। कई नाम हैं जो हिंदी के विद्यार्थियों को बेहतर दे सकते थे और उन्हें बेहतर बना सकते थे। कम से कम एक माहौल तो बना ही सकते थे। जैसे एक बैलसे खेती नहीं हो सकती, उसी तरह एकाध प्रतिभाएँ पूरे विभाग का माहौल दुरुस्त नहीं कर सकतीं। हिंदी के इस वधस्थल में रहते हुए अपने को बचा ले जाएँ तो इतना ही बहुत हैं। मैं हिंदी का कोई ज्योतिषी नहीं हूँ, फिर भी कहता हूँ कि हिंदी का भविष्य मुश्किल में है। हिंदी के बच्चे मुश्किल में हैं, हिंदी के देश में जहाँ हिंदी में पी-एच.डी. करने के बाद हमारे बच्चे पाँच हजार रुपये महीने पर काम करते हों, वहाँ हिंदी का भविष्य कैसे और किनके भरोसे बेहतर होगा ? हिंदी के बच्चे बहुत मुश्किल में हैं।
(यह लेख ‘फरगुदिया’ ब्लॉग पर भी है। )
हिंदी की दुर्दशा के लिये जिम्मेदार लोगों की आपने सही पड़ताल की है और उनकी अच्छी खबर ली है. साधु!
जवाब देंहटाएंअभी हाल ही में हमने दो यव रचनाकारों की गद्य रचनाएँ पढ़ीं- अनिल कुमार यादव की "यह भी कोई देश है महराज" और राकेश कुमार सिंह की "बम शंकर टन गणेश" हिंदी का कंठहार नहीं तो कमसेकम लॉकेट तो हैं ही. दोनों एकदम नए प्रकाशन से छपीं और बिना किसी आयोज़न-प्रयोज़न के हाथोंहाथ बिक गयीं. पहली किताब का दूसरा संस्करण भी साल भर में आ गया. हमें बड़े-बूढों से नहीं, नई पीढ़ी से ही उम्मीद है.
पाण्डेय जी ने हिन्दी की दुर्दशा का यथार्थ वर्णन किया है । हिन्दी के आलोचक , सम्पादक , पत्रकार हिन्दी के माफ़िया के
जवाब देंहटाएंशिकार हैं । पुस्तक छपने से लेकर उस की समीक्षा , उस पर पुरस्कार या गोष्ठी तक पर उन की नज़र है । इस मार्मिक लेख
के लिए आप को बधाई ।