-गणेश पाण्डेय
उस खेत का, उस बीज का
उस धूप का, उस पानी का
उस किसान का ऋण है
मुझ पर
उस हवा का , उस जगह का
उस चौखट का, उस छत का
उस दुलार का ऋण है
मुझ पर
उस छड़ी का, उस किताब का
उस पाठशाला का, उस विचार का
उस गुरु का ऋण है
मुझ पर
उस चरण का , उस आशिष का
उस मोतीचूर का, उस हृदय का
उस बुआ का ऋण है
मुझ पर
उस भाई का, उस मित्र का
उस साथ का, उस चाह का
उस अपनत्व का ऋण है
मुझ पर
उस चितवन का, उस स्पर्श का
उस गंध का , उस स्मृति का
उस प्यार का ऋण है
मुझ पर
उस शत्रु का, उस वरिष्ठ का
उस घात का, उस कायर का
उस नाग का ऋण है
मुझ पर
उस आक्रोश का, उस ललकार का
उस साहस का, उस दर्प का
उस रक्त का ऋण है
मुझ पर
उस धारा का, उस यकीन का
उस शक्ति का, उस पृथ्वी का
उस अभिन्न संगिनी का ऋण है
मुझ पर
कोई देखे कितना सुख है
अपने होने की खोज में
कितनी तृप्त है मेरी आत्मा
अपनी इस अतिशय दरिद्रता में।
( ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से )
(यह कविता ई पत्रिका सृजनगाथा पर भी उपलब्ध है।)
मार्मिक रचना .. शुभकामनाएँ ..अपर्णा
जवाब देंहटाएंओह, कितने सारे ऋण... कितनी सरल, विशाल ह्रदय कविता है... बधाई।
जवाब देंहटाएंIs kratagyata k sath jeevan jeena manusya hona ha. Keshav.tiwari
जवाब देंहटाएंचेतना के धरातल पर संवेदनशील मन के उत्कट उदगार!
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