रविवार, 24 नवंबर 2013

मैं कहता हूँ, खोट आदमी नाम के कीड़े में है...

    मनुष्य जीवन कोई सरल सीधी इकहरी रेखा नहीं है। विचार का संघर्ष और जीवन का संघर्ष एक-दूसरे से जितना नाभिनालबद्ध है, उतना ही एक-दूसरे से पृथक। कहीं का व्यक्ति, समूह, समाज पूरा का पूरा स्वार्थ केंद्रित दिख सकता है। अपने स्वार्थ के लिए विरोध करने वाले को अपमानित कर सकता है, उसके संग कई तरह की क्रूरता कर सकता है। व्यक्तिगत जीवन में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए कई बार महान विचारधारा भी मदद नहीं करती। महान विचारधारा के ध्वजवाहक प्रतिरोध में खड़े व्यक्ति के साथ दगा कर सकते हैं, उसे अकेला छोड़ सकते हैं निरंकुश सत्ता के सामने। व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष और विचार को पीठ दिखाने वाले जन विचारधारा के शामियाने के नीचे क्यों जगह पाते हैं ?

      जंगल में या पिछड़े इलाकों में रहने वाले नागरिकों के लिए की जा रही न्याय और समानता की जो लड़ाई ईमान के साथ दिखती है, वैसी लड़ाई समाज और संस्थाओं में क्यों नहीं होनी चाहिए ? न्याय और समानता जैसे मूल्य सुविधासापेक्ष हैं ?  क्यों व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष से बचना प्रगतिशीलता है ? क्यों संस्थाओं में चुप रहना या बगलें झाँकना बुद्धिवादी होना है ? विचारशील होना है ? जब सत्ता के अन्याय में महान विचारधाराओं वाले बुद्धिजीवी सहायक हों तो विरोधी विचारधारा के लोगों का सहयोग लेना क्यों बुरा है ? यदि उदाहरण देकर कहूँ तो यदि किसी फासिस्ट कहे जाने वाले संगठन के लोग किसी स्थानीय सत्ता के केंद्र हों या उससे प्रमुख रूप से जुड़े हों और महान क्रांतिकारी विचारधारा के लोग भी उनके साथ हों तो प्रतिरोध में अकेले खड़े व्यक्ति को क्या करना चाहिए ?
1-प्रतिरोध की बात भूल जाना चाहिए ?
2-सत्ता और उसकी चौकड़ी के समक्ष समर्पण कर देना चाहिए ?
3-न्याय के लिए किसी भी विचारधारा चाहे फासिस्ट ही क्यों न हो, उससे जुड़े व्यक्ति या सत्ता केंद्र की मदद लेनी चाहिए ?
4-किसी शहर या संस्था में बस्तर के लिए सात आँसू रोने वाले विचारधारा से जुड़े कथित लेखक या पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता लोग स्थानीय संघर्ष से आँख मूँद लें तो क्या करना चाहिए ?
5-अपने अंचल के बच्चों और युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करने वाली संस्थाओं और सत्ता केंद्रों से टकराना चाहिए या नहीं ?
6-सब भूल-भाल कर सत्ता की खुशामद में लग जाना चाहिए और अपने जीवन को ‘‘सुखमय’’ बनाने का उपाय करना चाहिए ?
7-जरूरी सवाल यह कि कोई विचारधारा महान और बहुत अच्छी है तो सबसे पहले अपने अनुयायिओं को अच्छा क्यों नहीं बनाती है ?  विचार अच्छे हों और जीवन बुरा, यह तो ठीक नहीं ? 

       यह सब कहने का आशय यह कि मित्रो, संकट बड़ा और पेचीदा है। राजनीति में सभी दल दूसरे को बुरे से बुरा बताने में अपनी ऊर्जा राष्ट्र की महान सेवा के नाम पर खर्च करते हैं। एकबार जो आ गया, उसे हटाओ मत, वही अच्छा है या दूसरे को लाओ, वह अच्छा है, नहीं वह भी खराब है, तीसरे को लाओ....लाख टके का सवाल यह कि विकल्प जब सब खराब हों तो हम करें क्या ? कहाँ जायें ? अँधेरा बहुत है। हम अभी उतने अँधेरे में ही हैं। यह उजाला जो दिख रहा है, साँप की काली त्वचा की तरह चमकीला है और हम इस उजाले को सचमुच का उजाला समझ बैठे हैं। मैं कहता हूँ, खोट आदमी नाम के कीड़े में है, पहले उसे बदलो... पिछले दिनों अखबार में जहाँ महात्मा गांधी की फोटो छपी थी उस जगह समाज, समता, न्याय, प्रतिपक्ष, मूल्य इत्यदि से दगा करने वाले ऐसे गंदों की फोटो मत छापो, न मंच पर ऐसे गंदे लोगों को माला पहनाओ... संसद ही नहीं, साहित्य की संसद में भी दागी हैं, ऐसे गंदों को सम्मान मत दो...विचारधारा को पहले ईमान से जोड़ो, नही तो आदमी तो बाद में मरेगा, विचारधारा पहले मर जाएगी।



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