बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

फासिस्ट कवि

- गणेश पाण्डेय

मैं हिंदू हूं
मेरा तो नाम ही गणेश है
इससे अच्छा नाम भला
उस दिन और क्या हो सकता था
जिस दिन मेरा जन्म हुआ
मां गणेश चतुर्थी का व्रत थीं

मैं भारत में पैदा हुआ हूं
बुद्ध के इलाके का हूं
बुद्ध के घर का हूं
कैसे कह दूं कि मेरे पुरखे
प्राचीन कपिलवस्तु की सीमा में नहीं
जर्मनी में रहते थे
कैसे कह दूं
कि बुद्ध को नहीं मानता हूं
कि बचपन से मुझ पर
बुद्ध का प्रभाव नहीं है

मेरे गुरु
सच्चिदानंद अनीश्वरवादी हैं
सिद्धार्थनगर में रहते हैं
उनके पुरखे भी यहीं रहते थे
बचपन में मां ने
सिंहेश्वरी देवी के चरणों में
अनगिनबार मेरा शीश नवाया
फिर मैं आप से आप करने लगा
किशोर जीवन में कविता ने
मुझे गुरु सच्चिदानंद से मिलाया
धीरे-धीरे गुरु ने मां के संस्कारों को
पूरा का पूरा तो नहीं पर
किसी हद तक धोने-पोंछने का काम किया
प्रगतिशील हिंदी और उर्दू कविता से मिलाया
मुझे कुछ का कुछ बना दिया

विश्वविद्यालय में आना
मेरे जीवन की बड़ी घटना थी
गुलमोहर और अमलतास के फूलों ने
मुझे एक नये रंग में रंग दिया था
यहां मुझे
हिंदी की एक बड़ी दुनिया मिली
देवेंद्र कुमार बंगाली मिले
और मैं कविता बदलकर
कुछ का कुछ हो गया

चालीस साल से
गोरख और कबीर की छाया में
रह रहा हूं मेरी कर्मभूमि है गोरखपुर
कैसे कह दूं कि मुझे प्रेमचंद
और फिराक पसंद नहीं हैं
वह फिराक जो कहता है कि कविता
तरकारी खरीदने की भाषा में लिखो

मैं प्रगतिशील हूं
लेकिन हिंदी के भ्रष्ट मार्क्सवादियों को
बिल्कुल पसंद नहीं करता
मुक्तिबोध को पसंद करता हूं
मुक्तिबोध के ईमान को पसंद करता हूं

मैं न केवल पुरस्कारविरोधी हूं
बल्कि पुरस्कारों का धंधा करने वाले
लेखक संगठनों और अकादमियों का
विरोधी हूं
मंच माइक माला विरोधी हूं

मैं हिंदी का सफाई वाला हूं
वक्त ने मुझे क्या से क्या बना दिया
कहने के लिए हिंदी का पांडे हूं
और हिंदी के भ्रष्ट लेखकों का
रोज मैला ढोता हूं
रोज गालियां देता हूं

चूंकि मैं भी
कबीर की तरह
मार्क्सवादी कवि नहीं हूं
किसी लेखक संगठन में नहीं हूं
आधा सच और आधा झूठ नहीं बोलता हूं
कबीर की तरह निरंकुश हूं
सबको ठोंकता रहता हूं क्या इसीलिए
आज की तारीख में हिंदी का फासिस्ट कवि हूं।





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