-गणेश पाण्डेय
उठा है मेरा हाथ
मैं जहाँ हूँ
खड़ा हूँ अपनी जगह
उठा है मेरा हाथ।
रुको पवन
मेरे हिस्से की हवा कहाँ है।
बताओ सूर्य
किसे दिया है मेरा प्रकाश।
कहाँ हो वरुण
कब से प्यासी है मेरी आत्मा।
सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने।
(1996)
पूरे शरीर से
कई बार पसीजती हैं हथेलियाँ
कहना चाहती हैं कि बस
मुझे विदा करोे
कई बार दृश्य के विरुद्ध
उद्यत होती हैं
आँखें
कई बार उठते हैं हाथ
कि पूरा चाहिए, अपना
राज्य
कई बार बाजार से लौटकर
सीधे लाम पर जाना चाहते हैं
पैर
कई बार मचलता है मेरा दिल
और पूरे शरीर से होती है
बम होने की इच्छा।
(1996)
मुहावरे
तुम्हारी आँखें, तुम्हारी भुजाएँ
तुम्हारे पैर, तुम्हारी छाती
और तुम्हारा सिर
कुछ नहीं लेंगे वे
तुम्हारे बारे में गोपनीय सूचनाएँ
सामरिक महत्व के ठिकानों के पते
और साथियों के नाम
कुछ भी नहीं लेंगे वे
वे आएँगे तुम्हारे बीच
कोई भी रूप धर कर
उठाएँगे तुम्हारे मुहावरे
और सब ले लेंगे।
(1993)
दरअसल वे पिछड़े थे
जिनके पास पीने भर का साफ पानी नहीं था
जिनके पास दो जून का मनचाहा अनाज नहीं था
जिनके पास मुर्दे की तरह लेटने भर की जगह नहीं थी
जिनके पास नियम में छेद करने का कोई औजार नहीं था
जिनके पास जीने भर का कुछ भी नहीं था
जिनका कभी किसी संसद में आना-जाना नहीं था
जिनके लिए किसी भी तरह का बाजार
एक लंबी और अंतहीन दौड़ का डरावना सपना था
सबसे खराब बात यह कि जिनके पास कोई खतरनाक
शब्द नहीं था
दरअसल वे पिछड़े थे।
वे पिछड़े थे कि उनके प्रतिनिधि तनिक भी नहीं पिछड़े थे ।
(1996)
उठा है मेरा हाथ
मैं जहाँ हूँ
खड़ा हूँ अपनी जगह
उठा है मेरा हाथ।
रुको पवन
मेरे हिस्से की हवा कहाँ है।
बताओ सूर्य
किसे दिया है मेरा प्रकाश।
कहाँ हो वरुण
कब से प्यासी है मेरी आत्मा।
सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने।
(1996)
पूरे शरीर से
कई बार पसीजती हैं हथेलियाँ
कहना चाहती हैं कि बस
मुझे विदा करोे
कई बार दृश्य के विरुद्ध
उद्यत होती हैं
आँखें
कई बार उठते हैं हाथ
कि पूरा चाहिए, अपना
राज्य
कई बार बाजार से लौटकर
सीधे लाम पर जाना चाहते हैं
पैर
कई बार मचलता है मेरा दिल
और पूरे शरीर से होती है
बम होने की इच्छा।
(1996)
मुहावरे
तुम्हारी आँखें, तुम्हारी भुजाएँ
तुम्हारे पैर, तुम्हारी छाती
और तुम्हारा सिर
कुछ नहीं लेंगे वे
तुम्हारे बारे में गोपनीय सूचनाएँ
सामरिक महत्व के ठिकानों के पते
और साथियों के नाम
कुछ भी नहीं लेंगे वे
वे आएँगे तुम्हारे बीच
कोई भी रूप धर कर
उठाएँगे तुम्हारे मुहावरे
और सब ले लेंगे।
(1993)
दरअसल वे पिछड़े थे
जिनके पास पीने भर का साफ पानी नहीं था
जिनके पास दो जून का मनचाहा अनाज नहीं था
जिनके पास मुर्दे की तरह लेटने भर की जगह नहीं थी
जिनके पास नियम में छेद करने का कोई औजार नहीं था
जिनके पास जीने भर का कुछ भी नहीं था
जिनका कभी किसी संसद में आना-जाना नहीं था
जिनके लिए किसी भी तरह का बाजार
एक लंबी और अंतहीन दौड़ का डरावना सपना था
सबसे खराब बात यह कि जिनके पास कोई खतरनाक
शब्द नहीं था
दरअसल वे पिछड़े थे।
वे पिछड़े थे कि उनके प्रतिनिधि तनिक भी नहीं पिछड़े थे ।
(1996)
बीस साल बाद इस कविता की पंक्तोयों से रूबरू हुआ-
जवाब देंहटाएं"सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने।’'
कई बार मचलता है मेरा दिल
जवाब देंहटाएंऔर पूरे शरीर से होती है
बम होने की इच्छा।
काश इन कविताओं को उस समय के तथाकथित हिन्दी आलोचना- जनको ने देखा- पढा होता...