रविवार, 18 मई 2014

टेंघती हुई अम्मा क्या चाहती है

-गणेश पाण्डेय

पके हुए आम हैं बाऊ जी
कुछ ठीक नहीं

ज्यों कोई पत्ता खड़केगा
बगिया की चुप्पी तोड़ते हुए
कंपकंपी छूटने लगेगी अम्मा को

अम्मा की धँंसी हुई और पियराई
आंखों में झाँक सको तो देखो
पके हुए मोतियाबिंद को भेदते हुए
घरेलू लड़ाइयों का जुझारू इतिहास

पेड़ की जड़ों में पानी देती हुई
जवानी के दिनों की हँसमुख
और छपेली साड़ियों की शौकीन अम्मा
किस गली में चंपत हो गयी अचानक

यह कौन है टेंघती हुई अम्मा
क्या चाहती है

पूछो-पूछो अपनी जेब से पूछो
अम्मा की गिरवीं पाजेब से पूछो

तिजोरी के आगे बेचारी पाजेब
अपना दुखड़ा सुनाये भी तो
सावजी की मर्जी के खिलाफ
भला कैसे हो सकती हैं तिजोरियां
टस से मस।

(1982)




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