सोमवार, 14 अप्रैल 2014

लेखक होने का अर्थ

-गणेश पाण्डेय

     कोई पांच दिन लेखक होने की अपनी ज्यादा और दूसरों की बहुत कम मूर्खता से दूर रहा। कहें कि पूरी तरह मुक्त रहा। यह मुक्ति बड़ी प्रतिकर थी। न कोई मोदी, न कोई राहुल, न कोई मुलायम न कोई आजम, न अमुक-ढ़मुक लेखक जी लोग। बेटियों के पास उनकी यूनिवर्सिटी और इंस्टीट्यूट के परिसर में और उनके साथ एक-एक क्षण। बीच-बीच में फोन आते तो हां-हूं, नहीं और बाद में कह कर काटता रहा। सच आप माने या न माने पिता का पद लेखक के पद से ही नहीं, पृथ्वी के बड़े से बड़े पद से बड़ा होता। आप न माने, आपकी मर्जी और लेखक होने की आपकी महानता का आदर फिर भी करूंगा, पर विनम्रता के साथ यह भी कहूंगा कि हम जो पैदा हुए हैं तो किस काम के लिए ? हमारा नैसर्गिक दायित्व क्या है ? पिता होना अर्थात सृष्टि को चलाना या प्रधानमंत्री होना ? हम कहीं नौकरी करते हैं या कोई व्यवसाय करते हैं या कृषि का कार्य करते हैं तो अपने घर-परिवार के लिए ही। लेकिन हम सिर्फ अपने घर-परिवार के लिए सब नहीं करते हैं, कुछ दूसरों के घर-परिवार के लिए भी करते हैं। हम एक साथ परिवार और समाज के सदस्य होते हैं। परिवार तो अपने आप में समाज की एक इकाई है ही। बहरहाल कहना यह कि पूरी तरह बच्चों के साथ रहा पांच दिन। इस बीच फेसबुक की राजनीति विषयक टिप्पणियों अर्थात फेसबुकी पत्रकारिता से दूर रहा। दूर तो सचमुच के अखबार से भी रहा। बमुश्किल दो-चार मिनट टीवी से आमना-सामना हुआ। नही ंके बराबर। 
    हां, भले हमें राजनीति से दूर रहना कभी प्रीतिकर लगे, लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीति का प्रभाव सब पर पड़ता है। मनुष्य तो मनुष्य, सचमुच के पशुओं पर भी। उसके निर्णय और उसकी नीतियां, हमारे बच्चों के भविष्य को प्रभावित करती हैं। कहना चाहिए कि सबके बच्चों को प्रभावित करती हैं। इसलिए अपने समय की राजनीति की अनदेखी बड़ी ना समझी है। देखना तब अच्छा होता है, जब हम ठीक से देखें। सम्यक। आगे देखें, नीछे न देखें या दायें देखें और बायें न देखें तो इस देखने का वह प्रतिफल नहीं मिलेगा जो पूरा देखने पर मिलेगा। यह इसलिए कह रहा हूं कि फेसबुक पर कभी-कभी राजनीति के पंडितों के विचार और तर्क इत्यादि से अरूचि पैदा हो जाती है। छाछठ-सड़सठ साल में भी इस देश से गरीबी दूर नहीं हुई। असमानता जस की तस है। बीच में एक मष्यवर्ग जरूर थोड़ा फैल गया है, पर वह पूरा देश नहीं है। कुछ नौकरी वाले लोग कुछ सुविधाएं और अवसर पा गये हैं, कुछ दूसरे लोगों को भी तलछट से कुछ मिल गया होगा, पर देश की बुनियादी समस्याएं जस की तस हैं। पूरे पांच दिन मैं जहां-जहां गया, मध्यवर्ग के बाहर की दुनिया मेरा पीछा करती रही। यात्रा में गरीबी मेरे साथ यात्रा करती रही। कण-कण में दिखी गरीबी। हर जगह झुग्गी-झोपड़ी और बेघर लोग दिखे। समतल हो या पहाड़, गरीबी का घर हर जगह दिखा। मिट्टी के कच्चे घर, छत फूस की। कोई दरवाजा नहीं, न किस्मत का, न पैसे का, न व्यवस्था का...शुरू में इसीलिए लेखक होने की मूर्खता का जिकर किया है। क्या विख्यात मोदी जी के आने से, इस देश में सम्पन्नता या खुशहाली आ जाएगी ? आएगी तो किस वर्ग के लिए ? क्या कुख्यात मोदी जी के न आने से गरीबी उड़नछू हो जाएगी ? बेरोजगारी दूर हो जाएगी ? अपराध मिट जाएंगे ? क्या हिंदी का बड़े से बड़ा लेखक आज चुनाव लड़ने में सक्षम है ? एकाध करोड़ खर्च कर सकता है ? फिर यह मूर्खता लेखक क्यों करे कि बस यह नहीं ? लेखक को यह नहीं कहना चाहिए कि यह, यह, यह, यह सब नहीं ? पार्टियां पवित्र हैं, व्यक्ति खराब ? यहां तक भी बहुत बुरा नहीं, चलो किसी एक का विरोध कर लो, लेकिन क्या यह चुनाव से पहले मान लिया है कि किसे देश का नेता बनना है ? पक्का है ? कोई और दृश्य नहीं हो सकता है, यह नहीं हो सकता है कि पार्टी में ही कुछ ऐसा हो जाए कि किसी और को नेता बनाना पड़ जाय ? उस स्थिति में आपके आकलन का क्या होगा ? चलो वह न बने तो जो अब तक रहा है, वही आ जाए तो बुनियादी समस्याएं हल हो जाएंगी ? पिछले छाछठ सालों में किसका-किसका पेट फूला है ? विपन्न तो आज भी जस का तस है। स्त्री आज भी उतनी ही असुरक्षित है। असुरक्षित भी और असमानता की शिकार भी। जिसे भी चुनते हैं कि जाओ जरा हाकिम से बात करो कि क्यों व्यवस्था ऐसी है ? वह जाता है बात करने और खुद हाकिम बन जाता है-

‘ऐसा क्यों है वहाँ 
बिजली नहीं है वहाँ 
रास्ता नहीं है, पानी नहीं है शुद्ध
कोई आदमी नहीं है वहाँ
जो कर सके हाकिम से बात।
हर बार मत के भाड़े पर
वे बुलाते हैं जिस आदमी को
वही हाकिम हो जाता है।’’ 
(वे बुलाते हैं जिस आदमी को / ‘जल में’ से)
 
       आप लेखक जी लोग कहते हैं कि इसको नहीं ? अरे भाई मैं जानना चाहता हूं कि किसको ? बताते क्यों नहीं कि फिर किसको ? मैं अच्छी तरह अनुभव करता हूं कि किसी अमुक जी के आने से यह देश सोने की चिड़िया नहीं होने जा रहा है, चलो मान लूं कि सोने की चिड़िया हो भी जाए तो वह चिड़िया घुरहू-निरहू की फूस की झोपड़ी में वास नहीं करेगी ? वह वास या उपवास का नाटक जो भी करेगी अमीर-उमरा की कोठी में ही करेगी। चुनाव के पहले हो या बाद में नेता जी लोग कहते कुछ और हैं, करते कुछ और हैं। कहते हैं कि चोर को पकड़ने का कानून बनाएंगे और पीछे से उसी में बचने का रास्ता भी निकाल देंगे। कहते हैं कि गरीबी दूर करंेगे और अमीरो की अमीरी और बढ़ाने का रास्ता निकाल देंगे। परिवर्तन का स्वांग करने वाली पार्टी भी जाति और धर्म के आधार पर चुनाव लड़ती है। हर दल राजनीति के हम्माम में एक-सा है-

‘‘फिर उपराये
नये-नये छपहार
घुसकर, घर-घर
खोज-खोज कर 
आजू-बाजू, छाती-पुट्ठ
अंग-अंग पर छापा जीभर
टीका।
उल्टा टीका, सीधा टीका
छोटका टीका, बड़का टीका
माई का टीका
चाई का टीका
फिर भरमाये
हँस-हँसकर छपहार।
अन्न मिलेगा, पुन्न मिलेगा
राज मिलेगा, पाट मिलेगा
सरग मिलेगा धरती पर
चेहरा-चेहरा फूल खिलेगा
फिर बतियाये
हाथ पकड़ छपहार। 
तंबू लेकर, भोंपू लेकर
सर्कस लेकर, जोकर लेकर
फिर फुसलायें
बड़े-बड़े छपहार।’’
(छपहार / ‘जल में’ से)
 
      मित्रो! यह देश कोई प्राइमरी स्कूल नहीं है और न जनता प्राइमरी की विद्यार्थी कि जैसे हम छपहार के आने की झूठी सूचना से भी भयभीत होकर प्राइमरी स्कूल से भाग जाया करते थे, आज के राजनीतिक छपहारों को विभिन्न मुद्राओं में साक्षात देखकर भाग जायें....तब के छपहार हमें बीमारी से बचाने के लिए टीका लगाते थे, ये जनता को फँसाने के लिए...सच तो यह कि ये राजनीतिक छपहार जनता को अभी भी प्राइमरी का विद्यार्थी ही समझते हैं। समझ की जगह डर पैदा करने वाले लेखक जी, संपादक जी, बुद्धिजीवी जी इत्यादि को क्या कहें...ये इस बड़े सच को क्यों पीठ दिखाते हैं कि जो एक कर रहा है और जिस लिए कर रहा है, दूसरा भी वही कर रहा है। जिन्हें जनता की शक्ति और सत्ता में विश्वास है वे जानते हैं कि जनता आसमान से विकल्प नहीं ला सकती है। मौजूद विकल्पों में से ही उसे कभी इस पार्टी को तो कभी उस पार्टी को चुनना होता है। विकल्प, परिवर्तन और चुनावसुधार के लिए जनता ने किसी बिल्कुल नये या पुराने दल को कोई ठेका नहीं दिया है। विचार, साहित्य और कला की दुनिया के लोगों की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है...दुख इस बात का है कि लेखक जी लोग भी पार्टी कार्यकर्ता की तरह प्रतिद्वन्दी पार्टी को चोर है कहते हैं। इस बार तो पार्टी को भी नहीं, सिर्फ किसी एक व्यक्ति को कह रहे हैं। जबकि सब वैसे ही हैं, सत्तालोलुप। कौन है भाई जो सत्ता लोलुप नहीं है ? कौन है जो दमदार विपक्ष बनाना चाहता है ? कौन है ? जब लक्ष्य किसी तरह सत्ता प्राप्त करना होगा तो जायज-नाजायज सब हथकंड़े अपनाए जाएंगे। बात तो तब बनेगी जब लक्ष्य परिवर्तन का हो, सत्ता हस्तांरण का नहीं। इस बात तक पहुंचने में कई सदियां बीत जाएंगी, लेकिन एक लेखक क्या सिर्फ अपने समय से संवाद करता है ? क्या उसकी आवाज रह नहीं जाती है ? क्या बाद में उसे सुना नहीं जाता है ? बहरहहाल फेसबुक पर जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नक्कारखाने में तूती की यह आवाज रह जाएगी या नहीं, नहीं जानता। यह ठीक है कि अपने समय में आंख मूंद कर नहीं रहा जा सकता है, जो सामने है, उसका विरोध या समर्थन किया जा सकता है, बल्कि कहना चाहिए कि करना ही चाहिए, लेकिन लेखक सिर्फ अपने समय का मशालची नहीं होता है, उसकी मशाल आगे भी जाती है और राजनीति के आगे तो उसे होना ही चाहिए।




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