-गणेश पाण्डेय
मेरे शरीर के आँवें में
बेताब हो रहे हैं नब्बे करोड़ पुरवे
दुनियाभर के होंठो को चूमने के लिए
निकल पड़ना चाहता हूँ चाय की गंगा लेकर
गाँव-गाँव, कस्बा-कस्बा, शहर-शहर
यहाँ-वहाँ, इस पर-उस पर
पूरे आसमान पर लिख देना चाहता हूँ चाय
गरुड़ की पीठ पर बैठ कर
मठाधीशों और इमामों के अँगरखे पर
छिड़क देना चाहता हूँ एक सौ आठ बार चाय
हृदय की अँगीठी पर
रक्त और धड़कनों की मिठास से बनी चाय
सबको पिलाना चाहता हूँ गरमागरम चाय
और सबसे मिलाना चाहता हूँ हाथ
हवाओं में भर देना चाहता हूँ चाय की आदिम गंध
सुनाना चाहता हूँ सबको भीतर के तारों पर
चाय का संगीत।
(1993)
मेरे शरीर के आँवें में
बेताब हो रहे हैं नब्बे करोड़ पुरवे
दुनियाभर के होंठो को चूमने के लिए
निकल पड़ना चाहता हूँ चाय की गंगा लेकर
गाँव-गाँव, कस्बा-कस्बा, शहर-शहर
यहाँ-वहाँ, इस पर-उस पर
पूरे आसमान पर लिख देना चाहता हूँ चाय
गरुड़ की पीठ पर बैठ कर
मठाधीशों और इमामों के अँगरखे पर
छिड़क देना चाहता हूँ एक सौ आठ बार चाय
हृदय की अँगीठी पर
रक्त और धड़कनों की मिठास से बनी चाय
सबको पिलाना चाहता हूँ गरमागरम चाय
और सबसे मिलाना चाहता हूँ हाथ
हवाओं में भर देना चाहता हूँ चाय की आदिम गंध
सुनाना चाहता हूँ सबको भीतर के तारों पर
चाय का संगीत।
(1993)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें