रविवार, 21 अप्रैल 2013

जमुआर नाला


- गणेश पाण्डेय

पता नहीं
कहां चला जाता है इसका पानी
कोई अदृश्य छेद है इसके हृदय में
जहां से कहीं और चला जाता है
इसका पानी देखते-देखते

कोई राक्षस है भीमकाय अदेख
इसके भीतर किसी सुरंग में छिपा हुआ
हजार-हजार जन्मों का प्यासा
एक सांस में पी जाता है
सारा डबडब पानी
एक-एक बूंद

आधा नींद में और आधा जागते
जाड़े की काली-काली
और लंबी सुनसान रातों में
जमुआर नाले के किस्से सुनाती थी
नानी

कभी जमुआर के राक्षस से
कभी समय के किसी प्रेत से
चुड़ैल से कभी
किसी टोनहिन के बान से
तो किसी धोकरकस के जाल से
कभी ठंड के तूफान से
कभी प्रचण्ड ताप से
औचक अकाल से
तो कभी काल से
अपनी रजाई में कभी
आंचल के नीचे कभी
कभी पलकों के भीतर
तो कभी अंतस्तल में
दिनरात
अपने नवासों को
लोहे के संदूक में
अपनी प्यारी-प्यारी
रंगीन छपेली साड़ियों की तरह
बड़े जतन से छुपाये रखनेवाली
मेरी अच्छी नानी
ओ मेरी नानी!

तम्बाकूवाले पान की शौकीन थी नानी
पान में बसी रहती थी नानी की जान
कहती थी सीखा था नाना की सोहबत में
क्या पता मुहब्बत में !
उसी प्यारी-प्यारी नानी की
प्यारी-प्यारी उंगलियों को पकड़कर
सीखा था पार करना
यह जमुआर नाला
जिसे अक्सर नानी
कहती थी आफत का परकाला

सचमुच
आफत के मारे थे
पास-पड़ोस के तमाम निर्धन खेत
एकटक ताकते हुए
बस खड़े रहते थे हरदम हाथ जोड़े
जब-जब सूखता था असमय
धान की नस-नस में बचा-खुचा पानी
याद आती थी बहुत नानी
खाली घड़े की तरह औंधे मुंह
पड़ा रहता था बेशर्म जमुआर
खूब गुस्साती थी नानी
छड़ी उठाती थी
खूब खरा-खोटा सुनाती थी

यों तो कमबख्त देखने में
गजब का भोला-भाला था
क्या ये लंबे-लंबे
प्यारे-प्यारे खट्मिट्ठे जामुन के दरख्त
और क्या झुंड के झुंड कंटीले बबूल
क्या बिना दाढ़ी-मूंछ के ये बड़े-बड़े
लड़के
और क्या बित्ता-बित्ता भर की बकरियां
जिनके संग घास जुटाती
ये लंबी-लंबी लड़कियां हंसती-बोलती
क्या कोई जिंदा और क्या मुर्दा
क्या अपना तेतरी बाज़ार
और क्या नौगढ़
कहने को
सबका रखवाला था
किसी अल्हड़ पहाड़ी नदी से निकलकर
किसी और नदी में घुस जाने वाला
आधा मामूली और आधा गैरमामूली
आधा शरीफ और आधा बदमाश
नाला था
जमुआर नाला    

जब भी आती थी नानी
जमुआर के एक से एक किस्से
सुनाती थी नानी
जब-जब बरसता था पहाड़ पर पानी खूब
रह-रह कर घबराती थी नानी खूब
अब फूलेगा जमुआर का पेट
अब फटेगा जमुआर का पेट
फैल जाएगा दूर-दूर तक
जमुआर का पानी
अड़ोस-पड़ोस, कस्बा, गांव-गिरांव
हजार-हजार घरों में घुस जाएगा
इसका पानी

ठीक-ठीक समझ नहीं पाती थी नानी
यह पहाड़ पर बरसने वाला पानी है
या जमुआर नाले के राक्षस का उत्पात
किस-किस की लेगा जान
ढहाएगा किस-किस का घर
उठा ले जाएगा किस-किस का
ढोर-डंगर
जानना चाहती थी नानी यह बात
जामुन जैसे अपने मासूम नवासों को
बताना चाहती थी नानी यह बात

नहीं रही नानी
कब को चली गयी नानी
बहुत कुछ अनकहा छोड़कर
वापस अपनी कहानी के परियों के देश में
नहीं रहा
काठ का वह छोटा-सा मजबूत पुल
ठीक हमारी तरह जमुआर नाले पर
जहां हमने दोस्ताना बातें की थीं जी भर
कभी तेजी से अस्त होते हुए सूर्य के संग
कभी जल्दी-जल्दी पंख हिलाकर
सूर्य को विदा करते हुए पक्षियों से
कभी किया था जहां
किसी चांद का जी भर दीदार
और फिर एक लंबा इंतजार

यह कोई और पुल बन गया है
लंबा-सा कोई बहुत आधुनिक
आधुनिक से भी आगे
जो मुझे नहीं पहचानता
मेरी नानी को नहीं जानता

यह जमुआर नाला
अब उस तरह नहीं रहा
परदेस में मेरी दिनचर्या का हिस्सा
शायद यह कोई और नाला है
जमुआर है कि समय कि जीवन
जो बह रहा है धीरे-धीरे
जो कह रहा है धीरे-धीरे
कुछ मेरे भीतर
यह क्या है मेरे भीतर
ये कहां से आकर बस गयी हैं मुझमें
जामुन के लंबे-लंबे दरख्तों की परछाइयां
मेरी जीभ और मेरे दांतों को
किसने रंग दिया है जामुन के रंग से
ये कैसी हवा चल रही है
फड़फड़ा रहे हैं
मेरी आत्मा के पन्ने
जिस पर दर्ज है
जामुन के स्वाद की कैफियत
और नानी के हजार किस्से
ये मेरी आंखों को क्या हो गया है
अचानक
बह रही हैं जमुआर नाले की तरह अबाध
कहां से आ गया है इतना सारा पानी।
                                       
(‘जापानी बुखार’ संग्रह से)




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