-गणेश पाण्डेय
अजीब आदमी हूँ। रोज सोचता हूँ कि अच्छा अब कुछ समय के लिए आलोचनात्मक गद्य नहीं। अवकाश लेता हँू। तुरत फिर कोई बात हाथ पकड़ लेती है। कहाँ तक बचने की कोशिश करूँगा। बच नहीं पाऊँगा। एक लड़ाई चल रही है तो इससे छुटकारा नहीं मिल सकता। जब तक हँू, किसी खास विधा में कोई बहुत चाहा हुआ लिखने का काम करने के लिए फुरसत निकाल पाना मुश्किल है। इसी में जो बन पड़ेगा, करूँगा। एक मित्र ने कहा कि मेरी आलोचना की भाषा आमतौर पर आलोचना के नाम पर लिखे जा रहे गद्य की तरह नहीं है। मैंने सोचा कि हाँ ठीक तो कह रहे हैं। कहाँ मेरी भाषा औरों की आलोचना भाषा की तरह है। पर वे चाहते हैं कि मैं भी वैसा ही लिखूँ। लिख तो लेता, कोई मुश्किल काम नहीं है। पर उस तरह लिखते हुए आलोचकों को देख रहा हूँ कि वे क्या कर रहे हैं। मुझे लगता है कि साहित्य में सच और झूठ की भाषा भी अलग तरह की होती है। मेरा एक ढ़िलपुक दोस्त लगातार उस भाषा में भंडारण करता रहा है। मैंने अपने ग़द्य का रास्ता उसे और उस जैसे तमाम आलोचकों को देख कर ही अलग किया है। मुझे लगा कि मेरी उम्र के आलोचक साफ-साफ कहने से बचते हैं। कोई डर है, जिसे छिपाने के लिए एक बनावटी और नखदंतहीन और कभी अतिशुष्क तो कभी अति चिकनी-चुपड़ी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। अधिकांश आलोचक - जिसमें मेरे वक्त के ही नहीं, मुझसे पहले के भी-आलोचना की भाषा के नाम पर बेस्वाद और हलवाई भाई से भी अधिक पेंचदार जलेबियाँ बनाने के लिए मशहूर रहे हैं। मेरे आसपास ही उदाहरण हैं। पर हर बार वही नहीं। मेरा मानना है कि कविता की तरह आलोचना की भाषा भी आलोचना का मुखड़ा है। चेहरा है। जिसे देखकर हम पहचानते हैं कि ये अमुक हैं। आचार्य शुक्ल की भाषा पाठक को बता देती है कि आप फलां से मुखातिब हैं। यहाँ तक कि उनका इतिहास भी आलोचना की भाषा का बहुत अच्छा उदाहरण है। अंदाजे-बयां ऐसा कि लगे कि आप इतिहास नहीं कोई रचना पढ़ रहे हैं। आखिर कविता के पाठक होंगे तो अलोचना के पाठक क्यों नहीं होंगे या होने चाहिए ? ये संप्रेषण की समस्या कवि के साथ होगी और आलोचक के साथ नहीं होगी या नहीं होनी चाहिए ? कवि अपनी कविता संप्रेषित नहीं करेगा तो हम उसे फाँसी लगा देंगे और आलोचक अबूझ गद्य रचेगा तो उसकी सचमुच की पूजा करेंगे। मैं तो पूजा भी करूँगा तो ऐसे आलोचक की तो ढ़ंग से करूँगा, अपनी शैली में। मित्रो, आलोचना भी एक रचना है, कालाजादू नहीं। पठनीयता उसके लिए भी अनिवार्य शर्त है। लेकिन जब आलोचक बेवकूफ होता है या आलोचना के नाम बाहर का अनुवाद करने की बेवकूफी कर रहा होता है तो उसका गद्य या तो भूसे का मंडीला हो जाता है या प्लास्टिक का पहाड़। कभी-कभी तो ऐसा वजनी पत्थर हो जाता है कि इच्छा होती है कि उठाकर उसके मुँह पर दे मारूँ। ये बड़ी-बड़ी आदालतों की तरह ऐसी भाषा में अपनी बात कहते हैं कि साधारण जन समझ न पायें कि क्या कहा। जैसे शादी-ब्याह में पंडिज्जी संस्कृत में बुदबुदाते रहते हैं और दूल्हा-दुल्हन इस कान से सुन कर बिना कुछ समझे उस कान से निकाल देते हैं। अरे बाबा ये रोबोट हैं कि आदमी ? क्यों ऐसी भाषा में आलोचना लिखते हैं ? इतना ही नहीं हद तो यह कि ये हिंदी में लिख कर भी हिंदी में नहीं लिखते हैं। ये क्या लिखते हैं और क्यों लिखते हैं ? इसे समझना मुश्किल भी है और आसान भी। आसान मेरे लिए है। मैं जानता हूँ कि ये क्या छिपाने के लिए लिखते हैं ? बनना चाहते हैं बड़ा आलोचक और पैर हैं नन्हे-नन्हे, करें क्या, बस पाजाम या जींस या प्लास्टिक का पाइप जो भी मिल जाय लंबा-सा, तुरत अपना पैर उसमें डाल देते हैं। उसी में फँस कर अपनी हालत चाहे जितने बड़े विदूषक की कर लें इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि ये आलोचक हैं। इन्हें कुछ भी बोलने और लिखने का हक है। ये खूब पहुँच वाली कविता या कथा पर ऐसी आलोचना लिख मारेंगे कि भगवान भी न समझ पायें। भगवान इसलिए कह रहा हूँ कि वे तो दुनिया की हजारों भाषाएँ जानते होगे। लेकिन दोस्तो आपको लग रहा होगा कि आलोचना में सभी ऐसे ही आलोचक हैं क्या ? बड़ी विनम्रता से कहना चाहूँगा कि नहीं। कई ऐसे आलोचक हैं जिनकी आलोचना भाषा उदाहरण है। सीखना चाहिए। हमारे समय के नये आलोचकों को जरूर सीखना चाहिए। मेरी बात और है, शुरुआत में ही मुझे अखाड़े में खींच कर फ्री स्टाइल कुश्ती का पहलवान बना दिया गया। मैं कविता का कार्यकर्ता, कुछ कथा साहित्य का कार्यकर्ता, मैंने तो स्वप्न में भी आलोचक बनने के लिए नहीं सोचा था। पर हमारे समय की आलोचना के कातिलों ने मुझे विवश किया कि मैं उनकी तफतीश करूँ। उनके गुनाहों की ओर आपका ध्यान खींचूँ। मैंने और कुछ भी नहीं किया है। बस, उनकी कलाई पकड़ने की जानबूझकर हिमाकत की है।
मैं चाहता हूँ कि नये आलोचक जिस भी इलाके में रहें, अपनी भाषा में संवाद करें। भोजपुरी या अवधी इलाके में रहकर पानी को पानी कहें, आब नहीं। नहीं तो पानी के बिना उसी तरह मर जायेंगे, जैसे बहुत से कवि असमय चले जाते हैं। जिससे कुछ कहना है उसकी भाषा में कहो, उसकी निकटतम भाषा और लहजे में कहो। आखिर आलोचना किसके लिए लिखते हो ? किसे बताना चाहते हो कि तुम किसी कविता या रचना को अच्छी तरह समझते हो ? यह मत भूलो आलोचकों कि तुम्हारा पाठक भी वही है जो कविता का या कहानी का पाठक है। कवि और कथाकार को अपना प्रथम पाठक समझने की नासमझी मत करो। ‘आलोचना क्या है’ जैसा कोई लेख तो अब तक हिंदी में किसी आलोचक ने नहीं लिखा है, पर मैंने ‘आलोचना क्या नहीं है’ लिखा है। आचार्य शुक्ल को पता रहा होता कि एकदिन आलोचना में आलोचना के कातिल भी आ जायेंगे तो यह जरूर लिखा होता कि ‘आलोचना क्या है’। बहरहाल शुक्ल जी ने जो लिखा है वह इतना अधिक है कि अब उनके छेद देखने के लिए मेरे पास फुरसत ही नहीं कि उनके यहाँ क्या नहीं है। आज की आलोचना के छेदीलालों को ही देखने में काफी व्यस्त हूँ। सच तो यह कि आचार्य शुक्ल ने सब को आलोचक समझा भी नहीं। बताया कि आलोचक में क्या-क्या होना चाहिए। आलोचना में क्या होना चाहिए, इसके लिए तो उनका आलोचनाकर्म खुद प्रमाण है। बात भाषा की हो रही है। आचार्य शुक्ल की भाषा आलोचना की सर्जनात्मक भाषा है। सर्जनात्मकता की तमाम खूबियाँ उनके यहाँ मौजूद हैं। उनकी भाषा मंें सौन्दर्य के साथ खासतौर से जो तंज और नमक है, वह बाद के कितने आलोचकों में है ? इसे अलग रखें तो भी कहना यह कि आचार्य शुक्ल को हिंदी आलोचना के प्रतिमान तय करने का जरूरी काम करना था। साहित्य की समझ के विकास और अध्ययन का व्यवस्थित मार्ग प्रशस्त करना था। पहले से चले आ रहे महत्वपूर्ण काम को आगे बढ़ाना था। हिंदी की मीनार बनाना था। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ उदाहरण है कि विद्यार्थियों के लिए भी किस तरह बेशकीमती काम करते हैं। उन्हें सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना का पथ सुदृढ़ करना था। आचार्य शुक्ल ने बाहर की पारिभाषिक शब्दावलियों की हड्डी गले में लटका कर आलोचना का तांत्रिक नहीं बनना चाहा, जैसा आज के कुछ आलोचक करते हैं। उन्होंने खुद पारिभाषिक शब्द गढ़े। मेरे एक बहुत अच्छे शिक्षक थे डॉ. रामचंद्र तिवारी, उन्होंने हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली पर अच्छा काम किया है। आचार्य शुक्ल आलोचना कोश बनाया है। शुक्ल जी की पारिभाषिक शब्दावलियों की व्याख्या की है। आचार्य शुक्ल ने व्यावहारिक समीक्षा का जो आदर्श उपस्थित किया वह आज भी गौरतलब है। बड़ी कविता के प्रसंग में आचार्य ने ही बताया कि प्रबंधकाव्य में भी कुछ मार्मिकस्थल होते हैं। अर्थात शुरू से अंत तक सब मार्मिक ही मार्मिक नहीं होता है। इसी से समझ सका कि किसी लंबी कविता की सभी पंक्तियाँ महत्वपूर्ण अथवा मार्मिक नहीं होती हैं। आगे चलकर कई लंबी कविताओं में भी इसे देखा। पर कहना यह कि हिंदी आलोचना वहीं ठहर नहीं गयी जहाँ आचार्य ने उसे छोड़ा था। उनके समय की आलोचना की भाषा भी भले ही सर्जनात्मकता का शिखर उदाहरण है, फिर भी आलोचना आगे चलकर और अधिक पठनीय और अधिक संप्रेष्य हुई। रामविलास शर्मा ही नहीं बल्कि जिन नामवर जी में साहित्य की राजनीति समेत कई दुर्गुण देखता रहा हूँ, उनकी भी आलोचना की भाषा अधिक पारदर्शी, अधिक प्रभावशाली रही है। इसी शर्मा-सिंह युग में आलोचना की भाषा सच्चे अर्थों में संवादधर्मी हुई। हालांकि मुक्तिबोध की आलोचना की भाषा इनसे अलग है। फिर भी कहना यह कि आलोचना भी रचना की तरह पाठक से संवाद है। एक अर्थ में हर पाठक से एक निजी बातचीत जितना आत्मीय उपक्रम। आलोचना की जटिल-कृत्रिमभाषा और सहज-तरलभाषा का उदाहरण किन्हीं दो भाइयों के बीच देना हो तो मेघ जी और शिवकुमार जी को याद किया जा सकता है। मेघ जी से एक आलोचना संगोष्ठी में मैंने कभी अपने भाषण में पूछा था कि आचार्य शुक्ल ने कितनी किताबों का लोकार्पण किया था ? जाहिर है कि मेरा इशारा आज के लोकार्पण बाबाओं की ओर था। मिनट-मिनट पर लोकार्पण और चर्चा का खेला। आलोचना के पतन की वजहें तमाम हैं। उस पर फिर कभी। फिलहाल, बात भाषा की।
ये ठहरे आलोचक गण। मैं ठहरा साहित्य का कार्यकर्ता। कार्यकर्ता की भाषा वही नहीे होगी, जो नेता या अधिकारी की होगी। सो मेरी भाषा आचार्य शुक्ल की तरह या रामविलास जी की तरह या किसी और की तरह कैसे हो सकती है। इनके बाद के उन आलोचकों की भाषा की तरह निर्जीव भी नहीं हो सकती है, जिन्होंने भूसाछाप गद्य को आलोचना की भाषा का पर्याय बना दिया है। कह सकते हैं कि प्लास्टिक युग की प्लास्टिक भाषा बना दिया है। जिसमें कोई जीवन नहीं है। मैं भाषा को रचना और आलोचना दोनों का मुखड़ा मानता हूँ। आलोचना की भाषा शुरु में ही आपको खींचेगी नही तो आप उसके भीतर प्रवेश कैसे करेंगे। हिंदी साहित्य की कोई परीक्षा पास करने की कोई मजबूरी तो नहीं कि जैसे-तैसे रोते-गाते पढ़ना ही है। कोई मजबूरी की शादी तो नहीं कि निर्वाह करना ही है। कुछ दूर साथ चलना ही है। मैं पहले भी कह चुका हूँ कि आलोचना में भी आलोचक की छाप दिखनी चाहिए। क्या आचार्य शुक्ल और रामविलास शर्मा की आलोचना की भाषा में उनकी छाप नहीं दिखती है ? पहले का समय कुछ और था। आज का समय कुछ और है। आचार्य शुक्ल के समय में हिंदी भाषी समाज में साहित्य का संस्कार बचा हुआ था। आज सब उस संस्कार की ऐसी-तैसी कर चुके हैं। आज हिंदी भाषी समाज में कविता के लिए ही जगह नहीं है तो आलोचना के लिए खाक जगह होगी ! आलोचना तो कविता से भी अधिक दिलचस्प और पारदर्शी भाषा में लिखने की जरूरत है। ऐसी भाषा में जो पाठक से तुरत दोस्ती कर ले। पाठक आलोचना को भी रचना की तरह पढ़े। मैं सिर्फ ऐसा ही सोचता और लिखता हँू। जब तक हँू और ंिहंदी कविता और आलोचना के गुम पाठकों की खोज तब तक ऐसे ही करता रहूँगा। वैसे क्या ऐसा नहीं सोचा जा सकता है कि जैसे कविता या कहानी के अलग-अलग पाठक होते हैं, उसी तरह ऐसी आलोचना लिखें कि उसके भी अपने पाठक हों ? वह भी पढ़े जो न कविता पढ़ता हो, न कहानी ? एक मित्र के यह कहने पर कि मेरे आलोनात्मक लेखों में आलोचना की भाषा नहीं है, भावना की तीव्रता है। मैंने विनम्र निवेदन किया कि यह मेरी सीमा है कि मैं उस तरह की आलोचना नहीं लिख पाता हूँ या लिखना ही नहीं चाहता हूँ। क्योंकि उस तरह तो तमाम मित्र लिख ही रहे हैं। अपने को अलग कर आलोचना लिख पाना मेरे लिए संभव नहीं है। अपने दर्द को टूटे-फूटे ढ़ंग से कहने की कोशिश करता हूँ। यहाँ यह कहना भी बहुत जरूरी है कि इसीलिए मैं हिंदी का दर्द हिंदी में हिंदी के लोगों से कहने की कोशिश करता हूँ। जिनके पास हिंदी का कोई दर्द ही नहीं होगा, बल्कि जिनकी जीभ पुरस्कार के लिए बित्ता भर निकली होगी, वे तो हिंदी आलोचना को भी अंग्रेजी में चाहे किसी अन्य कूटभाषा में लिखेंगे। मेरे लिए हिंदी के लोग सिर्फ विश्वविद्यालयों में पढ़ाने और पढ़ने वाले लोग या केवल कविता-कविता या पुरस्कार-पुरस्कार का खेल खेलने वाले लोग नहीं हैं। विश्वविद्यालय तो हिंदी के फाँसीघर हैं ही। आलोचना न तो शोधप्रबंध की भाषा है, न प्राध्यापक की भाषा है। हालांकि हिंदी के कई अगड़मबाइस आलोचक प्राध्यापकीय भाषा ही नहीं पूरी प्राध्यापकीय आलोचना की ही नकल करते या लिखते पाये जाते हैं। मैं यहाँ अपनी बात को साफ करना जरूरी समझता हूँ कि किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए जो प्राध्यापक लिखे वह प्राध्यापकीय आलोचना है, आचार्य शुक्ल से लेकर कण से भी छोटे और उससे भी छोटे अति छोटे, छोटे सुकुल तक सब प्राध्यापक रहे हैं। ऊपर जिन रामविलास जी और नामवर जी का जिक्र किया वे भी प्राध्यापक रहे हैं। पर ये प्राध्यापकीय आलोचक नहीं हैं। प्रायः प्राध्यापक अपने इमामजस्ते में हजारबार कूटे गये लोहे को फिर-फिर उसी तरह कूटता है, ंटाइप कराता है और जहाँ-तहाँ भेज देता है। यही काम गैरप्राध्यापक आलोचक भी आजकल खूब करते हैं। ये न अपने दिमाग का इमामजस्ता (इमामदस्ता) बदलते हैं ? न नया लोहा लाते हैं, न पुराने लोहे को नये ढ़ंग से कूट पाते हैं। बाजदफा नये लोहे की जगह चमड़ा उठा लाते हैं और कहते हैं कि यही नया लोहा है। सच तो यह कि नये से इनका सात पीढ़ियों से बैर है। रचना और आलोचना तो दूर ये अपने हाथ की रेखाएँ भी नहीं देखते हैं। यह भी नहीं देखते कि आखिर क्या बात है कि उनके हाथों की छाप उनके लिखे पर नहीं है। ये सामूहिक रूप से अपठनीय आलोचना लिखने का जुर्म करते हैं। इन्हें इस जुर्म की सजा भला कौन दे सकता है ? ये आलोचना की अदालत और उसके जजों के खासमखास होते हैं। यहाँ तक कि वे बड़े भारी आलोचक भी अपनी पत्रिका में आतंककारी ठसगद्य में लिखे गये इनके आलोचनात्मक लेख छापते रहे हैं। उन्होंने तनिक भी नहीं सोचा कि भाई जिस तरह मेरी आलोचना की भाषा पारदर्शी है, उस तरह की भाषा को बढ़ावा दूँ। हिंदी की पत्रिका में ये किस भाषा में विचार परोस रहा हूँ ? सर्जनात्मक गद्य है कि सचमुच का ही कोई लोहे का चना ?
बहरहाल मैं कोई उस तरह का आलोचक थोड़े हूँ कि कविता हुई नही ंतो चलो आलोचना से ही थोड़ा इश्क कर लेते हैं। मैं तो कविता से शुरुआती इश्क के दौरान ही हिंदी के राक्षसों से भिड़ने के लिए आलोचना में फाट पड़ा। असल में वे तंग बहुत करते थे। वे यह चाहते ही नहीं थे कि हिंदी का कोई मास्टर कविता-फविता लिखे। वे चाहते थे कि सब उनकी तरह नौमीनाथ से लेकर चिरकुटप्रसाद तक का झोला ढ़ोयें और जयजयकार करें। बस। और कोई काम न करें। मेरी हिमाकत देखिए कि मैं जल में रह कर मगर से बैर करने लगा। फिर हुआ वही जो होना था। मगर मुझे आहत करते और मैं मगर को पानी से निकाल-निकाल कर धोता। मेरी ऐसी किस्मत न थी या उसके लिए शर्तें पूरी करना मेरे लिए संभव न था कि मैं सरस्वती के सबसे बड़े मंदिर में पुजारी या महंत की गोद या चरणों में बैठने की जगह पाता। फिर मैंने तय किया कि मंदिर की ही सफाई जरूरी है। कहते हैं कि जब जुल्म हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो एक कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी बागी हो जाता है। बंदूक उठा लेता है। वे भाग्यशाली होते हैं जिन्हें महाबली की गोद में बैठते ही लेखक हों या न हों सोने की कलम इनाम में मिल जाती है। वे क्यों लोहे की बंदूक छुएँगे ? वे खुशकिस्मत लेखक होते हैं जिन्हें पैदा होते ही शुरू में कोई गॉडफादर मिल जाता है। कोई ऐसा रामचंद्र जो उन्हें हिंदी के राक्षसों के उत्पात से बचा कर रखता है और वे रचना का यज्ञ चुपचाप करते रहते हैं। वे बदनसीब लेखक होते हैं जो एक हाथ से हिंदी के राक्षसों से लगातार लड़ते हैं तो दूसरे हाथ से रचने का काम करते हैं। साहित्य के इस सबसे मुश्किल जीवन को सब नहीं समझ सकते हैं। कुछ होते हैं जिन्हें कोई बड़ा गॉडफादर नहीं मिल पाता है, उसका असस्टिेंट मिल जाता है, उसके जरिये द्विस्तरीय सुरक्षा पा जाते हैं। कुछ हैं जो उससे भी कम सुरक्षा में रहकर कभी-कभी पुरस्कार के लिए रो-रोकर रचना करते रहते हैं, ताकि कभी पुरस्कार पा सकें। आलोचना में भी ठीक यही स्थिति है। सुविधाजनक, सुरक्षित और ‘प्रगतिशील’ लेखन। कई लेखक ढ़ंग का गॉडफादर न मिलने पर लेखक संगठन में शामिल हो जाते हैं। सारी जिम्मेदारी संगठन पर डाल कर बिना किसी आत्मसंघर्ष के रचना और आलोचना करते रहते हैं। लेखक संगठन उनके लिए सुरक्षाचक्र और सीढ़ी दोनों का काम करने लगता है। कुछ दादा टाइप लेखक देशभर में राज करने के लिए संगठनोें के अध्यक्ष भी बने। किया भी। कई बार ऐसे संगठन इनके नेताओं को डुबाने का भी काम करते हैं। खुद उनकी आलोचना से ईमान गुम हो जाता है। अच्छा हुआ कि मैं इन संगठनों में नहीं गया, कोई गॉडफादर नहीं बनाया। बड़े-बड़े दिग्गज आते थे। चले जाते थे। उनके इर्दगिर्द हिंदी के राक्षसों का जमावड़ा और उनके बीच खुद उनका अट्टहास...लगता कि अरे ये तो खुद दशानन हैं। किधर से देखूँ ? हटाओ....हटाओ इसे.....
अच्छा यह कि मैं स्वेच्छा से बल्कि कहें कि अपनी आत्मा की पुकार पर सरस्वती के मंदिर में झाड़ूवाला बन गया। सफाई करने लगा। मेरे पिछले लेख ‘कविता की पहुँच’ पर एक टीप में नीलकमल ने ठीक ही कहा कि ‘‘ जो है उससे बेहतर चाहिए पर अमूमन एक आम सहमति तो बनती है लेकिन जैसे ही ‘बेहतर’ के निमित्त ‘मेहतर’ बनने की बात आती है, अच्छे-अच्छे लोग खामोश पाए जाते हैं। एक जेनुइन आलोचक-समीक्षक सबसे पहले साहित्य का सफाई कर्मचारी ही होता है। आपके इस आलेख का स्वागत और उद्योग को पूरा समर्थन।’’ ध्यान देने की बात है कि नील कमल जैसे निर्मल कमल ही साहित्य का सच कह और स्वीकार कर सकते हैं। आज के लाल और पीले कमलों के शीश कहाँ-कहाँ कितने नत हैं और किस-किस तिकड़म में रहते हैं, सब जानते हैं। कौन-कौन कविता और आलोचना में बाबू या मुंशी की तरह काम करता है, यह जानना मुश्किल नहीं है। बहुत से लोग आलोचना की बाबूगीरी में लगे हैं। कोई इन्हें मुंशी भी कह सकता है तो कोई मुनीम भी कह सकता है। हैं सब एक ही तरह के आलोचक। अभिनय ऐसा करेंगे जैसे इतनी गंभीरता से इसके पहले कभी विचार ही नहीं हुआ था, ये गंभीरता का पहाड़ अपनी धराऊँ या बहुप्रचलित, दोनों तरह की शब्दावली से करते हैं। अनुवाद की ऐसी हिंदी लिखते हैं कि हिंदी भी शरमा जाए। असल में इनकी अतिबौद्धिकता के आतंक के पीछे सिर्फ और सिर्फ इनका डर होता है। ये डरते हैं कि सब जान न जायें कि ये डरते हैं। बौद्धिकता इनके लिए सच और ईमान को छुपाने का खोल है। ऐसे में जिसमें रत्तीभर साहित्य का ईमान होगा, वह इनकी तरह बनने से रहा। वह सफाई कर्मचारी बन जाएगा, झाड़ू लेकर जगह-जगह खड़ा रहेगा पर बेईमान बाबू बन कर आलोचना की पुरानी फाइलें नहीं पलटेगा। इस सफाई वाले को भी कुछ लोग गौर से देखते हैं। हालचाल पूछते हैं। उसकी झाड़ू को इज्जत देते हैं। खुशी इस बात की कि ऐसे एक ही नहीं हैं, कई हैं। जिन्हें मैं देख रहा हूँ और जिनके साथ हूँ। सच के साथ रहने वालों की भाषा और झूठ के साथ रहने वालों की भाषा में फर्क होता है। कविता और आलोचना दोनों की भाषा में इसे देखा जा सकता है। कविता और आलोचना के स्वर्ग में रहने वाला कवि-आलोचक नहीं हूँ। अपनी ही एक कविता ‘नरक का कवि हूँ’ का जिक्र करना चाहूँगा। एक अंश-
नरक का कवि हूं तो हूं
कुछ भी नहीं हूं तो क्या
गोबर का गणेश हूं तो क्या
हूं तो हूं नरक का कवि हूं
लालाजी नहीं हूं तो क्या
पंडिज्जी नहीं हूं तो क्या
पानीपांड़े हूं तो क्या
हूं तो हूं
खुश तो हूं
नरक का कवि होने पर
यहां से वहां तक सिरपर
दुनियाभर का मैला ढ़ोने पर
लो देख लो लालाजी
हां-हां पंडिज्जी देख लो गौर से
खड़ा तो हूं सामने
थोड़ा-सा मैला निकालकर
चंदन की जगह पोत लो...
साहित्य में क्यों एक लेखक के सिर पर अपने अंचल चाहे दुनियाभर के पंडिज्जी लोगों का मैला है और मैला करने वाले पंडिज्जी लोगों के ललाट पर चंदन का टीका ? आखिर क्यों एक लेखक पंडिज्जी लोगों से कहता है कि चंदन की जगह थोड़ा-सा मैला पोत लो। यह कैसा प्रतिरोध है ? यह कैसी खराब कविता है कि चंदन की जगह मैला देखना चाहती है ? यह साहित्य का कोई विमर्श क्यों नहीं है ? साहित्य के अछूत या हाशिये के कार्यकर्ताओं का यह विद्रोह क्यों नहीं दिखता है ? विमर्शवादी खुद क्यों पंडिज्जी और बाऊसाहब या लाला जी लोगों के दरबार में शीश नवाते हैं ? उन्हें आखिर पुरस्कार और चर्चा से इतना प्रेम क्यों है ? साहित्य के समाज में पहले हाशिये के लोगों और पंडिज्जी लोगों की लड़ाई में क्यों नहीं अपना पक्ष चुनते हैं ? जाहिर है कि चुनने के नाम पर ये सत्ता की गोद चुनते हैं। टीका चुनते हैं, चरण चुनते हैं, खड़ाऊँ चुनते हैं। यह कैसी प्रगतिशीलता है ? ये विमर्शवादी क्यों संस्कृतीकरण का शिकार होकर साहित्य की प्रभुजातियों की तरह उनके रहन-सहन और सोच-विचार और आचरण का अनुकरण करते हैं। क्यों नहीं अपनी आलोचना को पाठकों तक ले जाने के लिए सोचते हैं ? क्यों नहीं हिंदी में हिंदी लिखते हैं ? किसका डर है ? कोई चाहे तो हवा निकालने के लिए पूछ सकता है कि रचना या आलोचना की भाषा ठीक वही है जो बोली जाती है ? हूबहू बोलचाल की भाषा ? नहीं भाई। वही भी है और सिर्फ वही नहीं है। सजर्नानात्मक भाषा बोलचाल की भाषा पर आधारित हो सकती है, पर वह एक उन्नत भाषा होती है। पाठकों को संप्रेषित होने वाली उन्नत सर्जनात्मक भाषा से बैर नहीं है। बैर उसके अबूझपन या अमूर्तन या जलेबीपन से हैं। सर्जनात्मक भाषा का जीवन उसकी अभिव्यक्ति के वैशिष्ट्य पर निर्भर करता है। यहाँ जोर सिर्फ साफ-साफ कहने पर है और पूरा सच कहने पर है। भाषा को छल से मुक्त करने पर है। कह सकते हैं कि सारा बल भाषा को ईमान की रोशनाई से लिखने पर है।
आदि से अंत तक धाराप्रवाह मदहोशी से पढ़ गया. आलोचनाकारों के वैशिष्ट्यवाद और आत्मविमुग्धता पर इतना बेहतरीन कटाक्ष पहले कभी नहीं दिखा. सहज रूप में अपनी बात कहने की कला को सच में प्रणाम करने की इच्छा होती है.
जवाब देंहटाएंराम कुमार पाण्डेय
मित्रो! यही चाहता हूँ कि आलोचना अपनी सहजता, सरलता, तरलता के साथ नगर ही नहीं, हिंदी के सुदूर इलाके तक पहुँचे। जैसे किसान के खेतों तक क्यारियों से पानी पहँुचता है। उसके खेतों को जीवन देता है। वैसे ही आलोचना का निर्मल जल अबाध हिंदी के हर पौधे तक पहुँचे और उसे सींचे। उसे हिंदी का मजबूत दरख्त बनाए। उसे हिंदी का सच्चा पाठक और रखवाला बनाए। पर आलोचना का जो दृश्य सामने है, उससे निराश हूँ। नयी पीढ़ी के आलोचक मित्रों से पहले भी निवेदन कर चुका हूँ, अपने ‘नई सदी की काव्यालोचना की मुश्किलें’ में कि गैरजरूरी कबूतरबाजी और कतरनबाजी से बचें। जहाँ बहुत जरूरी हो वहीं दें। जिससे किसी बात को समझने में मदद मिले या बात का वजन बढ़ सके। सिर्फ यह दिखाने के लिए नहीं कि आपके पास संदर्भों का बहुत बड़ा जखीरा है। इसे दहशत फैलाने के काम आने वाला जखीरा न बनाए। अलोचना को रचना का मित्र समझें। उसे रचना या संपादक या लेखक के बिचौलिए के रूप में न लें। सच्चा दोस्त वही होता है जो सच कहे और दो टूक कहे। जो दोस्त दोस्ती टूटने के डर से जिंदगी भर सच नहीं कह पाते हैं, वे दरअसल दोस्ती के साथ मजाक करते हैं। पुरानों को जितना करना था कर चुके। दोस्ती भी और मजाक भी। पिछली सदी से सिर्फ दोस्ती वाला जज्बा लें, मजाक वहीं का वहीं छोड़ दें।
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