शनिवार, 27 अप्रैल 2013

इस डरी हुई दुनिया में


      दिल्ली में तो किसी घटना पर जोशीले नौजवान निकल पड़ते हैं। कुछ संस्कृतिकर्मी और कुछ पत्रकार हरकत में आते हैं। लेकिन इस शहर का क्या करूँ जो डरता है। अभी हाल में अनुभव साझा किया था-‘‘अभी-अभी बहुत दुखी होकर लौटा हूँ। हुआ यह कि मुख्यमार्ग पर तीन दबंग लड़के एक नौजवान शौहर के साथ उसकी पत्नी के सामने ही मारपीट कर रहे थे। भीड़ लग गयी थी। कुछ लोग बचाव के लिए उन दबंग लड़कों से चले जाने के लिए प्रार्थना कर रहे थे। कह रहे थे कि छोड़ दो बेटा। पर वे दबंग किसी के बेटे नहीं थे। शायद अपनी माँ के भी बेटे नहीं थे। माँ के बेटे रहे होते तो भला किसी लड़की के साथ अभद्रता करते। मोटर साइकिल में ठोकर मारते। उस लड़के ने उन दबंगों को बदमाशी करने से रोका था। एक पति जैसा भी हो भला अपनी पत्नी के साथ अभद्रता का विरोध क्यों नहीं करेगा ? दबंग लड़के ईंट उठा कर चलाने लगे तो बीच-बचाव करने वाले उम्रदराज पीछे हट गये। पर वहाँ से भागे नहीं। ताकत रही होती तो शायद इस्तेमाल भी करते। दबंग नंगा नाच करने के बाद खुद ही चले गये। उस लड़की में संसार की सभी लड़कियाँ दिख रही थीं। उसके पति में सभी बेटे दिख रहे थे। उन दबंगों में सिर्फ बदमाश दिख रहे थे। गंुडे दिख रहे थे। एक सिपाही कहीं से आया तो कुछ करने पर बोला कि आप लोगों को कुछ करना चाहिए था। किसी ने कहा कि आप तो ऐसे मौके पर कुछ करने की नौकरी करते हैं, आपके पास तो बंदूक और वायलेस भी है। बहरहाल ना-नुकुर के बाद उसने अगली पुलिस चौकी को दबंगों की गाड़ी का नंबर नोट कराया। लड़की के दो-तीन कम उम्र और कोमल काया के भाई भी आए। पर वे उन दबंगों से जीत पाएंगे ? क्या हर भाई और पति अपनी बहन और पत्नी की हिफाजत के लिए बंदूक लेकर चले ? क्या बंदूक से ऐसे दबंगों पर कार्रवाई करने के बाद कानून उन्हें छोड़ देगा ? क्या शरीफ लोगों के लिए यह दुनिया नहीं है ? यहाँ बड़ी-बड़ी बात करने वाले अधिक उम्र के दोस्त ऐसे दबंगों के सामने क्या करें ? बदमाशों को अपनी जान वहीं देकर घर अपने बच्चों के पास लौटना चाहिए ? क्या करना चाहिए ? जिम्मेदार लोगों के पास ऐसे मौकों के लिए क्या विकल्प है ?’’ कई मित्रों ने सुझाव दिये। सुझाव सबके पसंद आये। पर एक भोली प्रतिक्रिया ने मेरा ध्यान खासतौर खींचा-‘‘क्या कहें...’’ मुझे लगता है कि इन स्थितियों में स्तब्ध हो जाना भी एक ईमानदार प्रतिक्रिया है। जब तंत्र संवेदनहीन हो। कानून का डर खत्म हो गया हो। पत्रकारिता बिचौलिये की भूमिका में हो और लेखक सबसे पतित हो गये हों। कुछ ही दिन पहले अपने नोट ‘‘वीआईपीवाद के पंजे में फँसा जनसुरक्षा का टेंटुआ’’ में लिखा में-‘‘ यह किताब भी अजीब किताब है। कुछ होते ही कई पन्ने आप से आप फड़फड़ाने लगते हैं। कभी इसका रंग लाल दिखता है तो कभी काला तो कभी केशरिया और कभी इंद्रधनुष जैसा लुभावना। कभी-कभी तो इतना बेमेल दिखता है कि देखने का मन नहीं करता है। देश एक पाँच बरस की बेटी के साथ हुए हादसे से सदमें में है और एक लेखक अपनी फोटो बदल रहे हैं, एक संपादक अपना शब्द ज्ञान बघार रहे हैं। दुर्भाग्य यह कि आज ऐसे लेखक और पत्रकार ही देश और समाज के दुश्मन नम्बर एक हैं। कुछ लेखक या लेखकनुमा लोग इस घटना पर प्रवचन में दुश्मन नम्बर एक के रूप में पूँजीवाद को पहले गिरिफ्तार करने की बात करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भाई पूँजीवाद कोई घुरहुआ-निरहुआ नहीं है कि उसे आप कहीं से पकड़ कर जेल में ठूँस देंगे और सारी समस्या पलक झपकते ही छूमंतर हो जाएगी। अरे भाई पूँजीवाद एक बड़ी बीमारी है, जाते-जाते जाएगी, एक लंबी लड़ाई है। साल-दो साल में कुछ नहीं होने वाला। जब किसी व्यवस्था को राजरोग हो जाता है तो उसकी लंबी दवाई होती है। किसी आदमी को तपेदिक हो और उसका पैर भी टूट जाए तो पैर टूटने का इलाज क्या तपेदिक ठीक होने के बाद किया जाएगा ? या पैर को दिखाने हड्डी के चिकित्सक के पास जाएँगे ? प्लास्टर वगैरह जो जरूरी होगा, करेंगे ? कहना यह कि मौजूदा लोकतंत्र के फेफड़े में क्षय रोग हो गया है, जिसकी उपयुक्त चिकित्सा की जरूरत है। गंभीर बात यह कि लोकतंत्र को राजरोग के साथ पोलियो भी हो गया है। इससे भी गंभीर बात यह कि पोलियो दाहिने हाथ में हो गया है। सीधे-सीधे कहूँ तो पुलिसतंत्र को पोलियो हो गया है। विचारणीय यह कि यह पोलियो किसी टीके से नहीं दूर होगा, इसे दूर करने के लिए पुलिसतंत्र को ही कहीं दूर व्यवस्थित करना पड़ेगा। जब तक पुलिस का पोलियो ठीक न हो जाए तब तक उसे लालबत्ती अर्थात वीआईपी ड्यूटी या वीआईपीवाद से दूर रखना पड़ेगा। उसे जनता का सेवक और रक्षक बनाने के लिए राजनीतिक गुलामी से मुक्त करना पड़ेगा। उसकी सेवाशर्तों में बड़े फेरबदल की जरूरत है। उसे पहले जनता की रक्षा करने के लिए बाध्य करना पड़ेगा। इस घटना पर कुछ लोग कहते हैं कि फाँसी की सजा हो जाए तो क्या ऐसे अपराध बंद हो जाएंगे ? मैं कहना चाहता हूँ कि फाँसी की सजा नहीं है तो क्या ऐसे अपराध बंद हैं ? मानवाधिकारों की बात करने वाले कुछ लोग बड़े अपराधियों को फाँसी न देने की वकालत करते दिख जाते हैं। उनका कहना है कि फाँसी की सजा न हो। जानने की इच्छा होती है कि भाई जब एक या दस हत्या करने वाले अपराधी को फाँसी न देने की बात की जाती है, या ऐसा कानून बनाने की बात की जाती है तो फिर सेनाओं को दुश्मनों को मौत के घाट उतारने की अनुमति क्यों दा जाती है ? आखिर दुश्मन भी तो मानव है, उसके भी जिंदा रहने का अधिकार उस समय कहाँ होता है ? क्या उस समय संकीर्ण मानवाधिकार की बात करने वाली बहन या भाई को युद्ध के मोर्च पर भेज देना चाहिए ? क्या जिसकी हत्या होती है या जिसके देह के साथ क्रूरतम व्यवहार किया जाता है, उसके दर्द का कोई मोल नहीं है ? बस मानवाधिकार की ओर से निंदा के दो बोल काफी हैं ? क्या शरीर में गंभीर बीमारी होने पर कभी उसके अंग को अलग नहीं किया जाता है ? यहाँ फाँसी के दंड के पक्ष में कोई बहस नहीं कर रहा हूँ। सिर्फ यह कह रहा हूँ कि लकीर के फकीर मत बनिए। प्रगतिशीलता को पहले तर्क की कसौटी पर कसिए। फिर आप यह मुनासिब पाते हैं कि फाँसी की सजा एकदम से खत्म कर दी जाए तो खत्म कर दीजिए। लेकिन देखना यह है कि आप इस धरती पर सिर्फ फाँसी की सजा खत्म कर देने का स्वप्न देखने के लिए पैदा हुए हैं या समाज को हिंसा मुक्त कराने के लिए ? जिस देश में रहते हैं, उसे बेटियों और बहनों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए बेहतर बनाने के लिए योगदान करना चाहते हैं ? तर्क सिर्फ फाँसी की सजा तक ही नहीं रह जाएगा, फिर तो यह भी पूछना पड़ेगा कि भाई हथियार की क्या जरूरत ? बैंकों की सुरक्षा तो मानवाधिकार वाले लोग कर ही लेंगे ? बाहर की सेनाओं को भी अपने भाषण से प्रभावित कर लेंगे ? क्या मानवाधिकार की सोच का दायरा तंग है ? मानवाधिकार की बात क्या वहाँ नहीं करनी चाहिए जहाँ शासन की पुलिस या अन्य बल निहत्थे लोगों पर क्रूरताएँ करते हैं ? पिछड़े लोगों को ताकत के बल पर दबाते हैं, उनका सबकुछ छीन लेते हैं। उनकी आबरू लूट लेते हैं। फिर यहाँ आबरू लूटने वालों के साथ जान की माफी की बात क्यों ? जिस स्त्री या बच्ची के साथ ऐसा कुछ होता है, उसे न जाने कितनी बार, शायद रोज मरना होता होगा। पर यह जानता हूँ कि फाँसी की सजा से भी हमारा समाज सचमुच बदल नहीं जाएगा। हत्याएँ रुक गयीं क्या ? दूसरे अपराध खत्म हो गये क्या ? दरअसल सबसे बड़ा सवाल कानून के राज का है। कानून के डर का है। संविधान के प्रति निष्ठा का है। लेकिन यह होगा कैसे ? क्या हमारे देश के राजनेताओं की निष्ठा सचमुच संविधान के प्रति सच्ची है या सब दिखावा है ? कानून का डर वीआईपी को नहीं होगा तो जनता को कानून का डर कैसे होगा ? राजा कानून तोड़ेगा तो जनता  कानून का पालन कैसे करेगी ? यह सब यह कहने के लिए कह रहा हूँ कि हमारे लोकतंत्र के चुनाव में पैसे की भूमिका सबसे खतरनाक है। इसी पैसे के लिए कानून तोड़ने का खेल चलता है। यह सब विचारणीय है पर सबसे पहले वीआईपी की सेवा से पुलिस को मुक्त करने की जोरदार पहल हो। सरकारें सबसे पहले जनता की पुलिस से अपना काम लेना बंद करें अपनी सुरक्षा लिए दूसरे बल का गठन करें, चाहें तो दूसरी फौज बना लें। पर जनता की सुरक्षा में संेध न लगाएँ। सच तो यह कि आज की तारीख में जनसुरक्षा का टेंटुआ वीआईपीवाद के पंजें में है। इस वीआईपीवाद से टकराना ही होगा। वे जिस दिन पुलिस को अपनी सेवा से मुक्त कर देंगे, कम से कम कानून में भी इससे बेहतर हो जाएगा।’’ आगे कहा कि ‘‘यहाँ समस्या के केंद्र में पुलिस के चरित्र और उसकी सेवाशर्तों में सुधार का मुद्दा है। सिर्फ राजधानी ही नहीं, देश के बाकी हिस्सों में भी इस तरह के हादसे बच्चियों और महिलाओं के साथ हो रहे हैं। जिन पर मीडिया का फोकस कम है। पुलिस के चरित्र की समस्या वहाँ भी कमोबेश ऐसी ही है। अपराध छिपाना और अल्पीकरण करना या गलत दिशा देना, आम बात है। पुलिस परिवार की बच्चियों को भी कई बार यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। फिर भी अपराध छिपाना और अल्पीकरण करना या गलत दिशा देना, आम बात है तो ऐसा इसलिए कि पूरे देश में पुलिस कानून की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि सत्ता और वीआईपी की रक्षा के लिए काम करती है। जाहिर है कि यह सब खुशी-खुशी नहीं, बल्कि अपनी सेवाशर्तों की वजह से ऐसा करती है।’’ 
        यदि पुलिस का चरित्र जनपक्षधर होता तो सबसे पहले दंपति के मोटर साइकिल को ठोकर मारने वाली घटना का वह सिपाही खुद संज्ञान लेता। हरकत में आता। बदमाशों से लड़ना सामान्य लोगों के वश की बात है ? पुलिस को क्या प्राथमिक सूचना लिखाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए ? खुद नहीं दर्ज कर लेना चाहिए ? क्यों एक सिपाही तीन बदमाशों से लड़ने के लिए नाकाफी है ? राज्य की ताकत क्यों इतनी कम है ? बदमाशों के सामने प्रायः क्यों डरा हुआ रहता है सिपाही ? बदमाशो के पास असली बंदूक क्यों होती है और सिपाही के पास लकड़ी की बंदूक क्यों होती है ? लालबत्ती की सुरक्षा में चलने वाले दस्ते में ही असली बंदूक क्यों होती है ? ऐसा क्यों कि अपराध, जनता के लिए मुसीबत है तो अखबार और चैनल के लिए फायदे की चीज ? जब पैंसठ साल बाद देश को अपराध मुक्त नहीं कर सके तो गरीबी से मुक्त क्या खाक करेंगे ? बीमारी से भला कैसे मुक्त करेंगे ? बेरोजगारी भला कैसे खत्म करेंगे ? ये सरकारें आखिर काम क्या कर रही हैं ? समाज को धर्म, सिनेमा और क्रिकेट का अफीम सस्ते में बेंचने काम कर रही हैं ?  
       आखिर अपराध क्यों इतना बढ़ गये ? क्या जनसंख्या की वजह से ? क्या बेरोजगारी की वजह से ? क्या पैसे की वजह से ? कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है। है, पूँजीवाद जिम्मेदार है। पर सीधे पूँजीवाद पर निर्णायक चोट नहीं हो सकती है तो क्या  उसकी बाँह मरोड़ने की कोशिश भी नहीं हो सकती ? क्या देश को किसी सांस्कृतिक नीति की जरूरत नहीं है ? यहाँ मेरा आशय भारतीय संस्कृति के राजनीतिकरण की नहीं है। सीधे-सीधे कहना चाहता हूँ कि चैनलों और अखबारों और फिल्मों में आयी अश्लीलता की बाढ़ पढ़े लिखे या अनपढ़ युवाओं की मानसिकता को विकृत करने के लिए जिम्मेदार नहीं है ? सरकारें यदि समाज को खराब बनाये रखनें में अपना भला देखती हैं तो हम ऐसी सरकारों के पक्ष में मतदान क्यों करते हैं ? यदि कमोबेश सभी राजनीतिक दल यथास्थितिवादी हैं तो क्यों हम इन्हें वोट देने के लिए गीत गाते हुए जाते हैं ? कहना सिर्फ यह है कि हम बंदूक वाले अपराधियों से सीधे लड़ नहीं सकते तो कम से कम वोट देते समय क्यों नहीं कुछ सोचते ? मतदान का प्रतिशत कम होता है। यदि कभी ऐसा हो जाय कि यह प्रतिशत घट कर ‘‘दस’’ हो जाय तो भी सरकारें रहेंगी ? हम देश भर में फिलहाल कोई आंदोलन एक साथ नहीं चला सकते तो क्या विकल्प का विचार भी देश भर में नहीं ले जा सकते ? मित्रो, विचार की दुनिया का तो और भी बुरा हाल है....राहत की बात सिर्फ इतनी है कि कुछ लोग अभी भी इन स्थितियों से लड़ रहे हैं। पीड़ितों के पक्ष में कोर्ट में जा रहे हैं। मीटिंग कर रहे हैं। संभव मदद कर रहे हैं। पर दुखद यह कि ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। दिक्कत यह कि पैसे वाला मीडिया ऐसे लोगों का साथ नहीं देता है।


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