-गणेश पाण्डेय
मित्रो, संकट सिर्फ दूर से दिख रहा हो तो उतनी बेचैनी नहीं होती है, जितना वह दिख रहा हो चाहे न दिख रहा हो, बस निरंतर अनुभव हो रहा हो कि है खतरा है...तो बेचैनी भीतर से मथ डालती है। अपने समय के कवि समाज और कविता के सामने संकट के अहसास से इधर काफी दिनों से बहुत बेचैन हूँ। मेरे पिछले लेख ‘‘ क्रांति भी, रोना भी, प्यार भी....’’ पर पाँच शब्दों की एक छोटी-सी टीप के रूप में कवि विमल कुमार ने एक जरूरी बात पूछ कर मेरी बेचैनी को थोड़ा-सा और बढ़ा दिया है-‘‘कविता पहुँचे कैसे दूर तक ?’’ जाहिर है कि मेरे लिए इस प्रश्न से भी टकराना फिलवक्त बेहद जरूरी हो गया है। इसे मैं सिर्फ पाँच छोटे-छोटे शब्दों की एक साधारण टीप मान कर स्थगित नहीं कर सकता था। सच तो यह कि यह सिर्फ एक प्रश्न नहीं, जैसे मेरे कलेजे से उठती हुई कोई लंबी टीस है। मैंने विमल जी से कहा भी कि आपकी कविता मुझ तक तो पहुँचती है। मुझ तक पहुँचने में संप्रेषण का संकट नहीं है। पर यह हमारे समय की कविता का एक बड़ा संकट तो है कि वह अपने पाठक तक नहीं पहुँचती है। कविता के देहात का एक साधारण कार्यकर्ता हूँ, थोड़ा उजड्ड ही सही, इस नाते से यह हक तो बनता ही है कि हमारे समय में लिखी जा रही सभी कविताएँ कम से कम मुझ तक तो जरूर पहुँचें या मेरी तरह जितने भी लोग हैं, उन तक जरूर पहुँचें। अभी बाँदा, कोलकाता, दिल्ली, मेरठ, बलिया और दूसरी जगहों के तमाम मित्र भी कह रहे थे कि कविताएँ उनके यहाँ भी कम पहुँच रही हैं। जबकि कविता की लदनी तो खूब हो रही है। पर असल में सुपाच्य और श्रेष्ठ अन्न गरीबों तक पहुँच कहाँ पाता है ? गरीब बेचारा तो साँवाँ-कोदो इत्यादि से गुजर-बसर करता है। फिर कविता के हम गरीबों तक बासमती कविताएँ भला कैसे पहुँचेंगी ? वाह रे कविता ! आज जैसे राजनीति में गरीबों की बात केवल वोट लेने के लिए की जाती है और उनका कोई सचमुच का शुभचिंतक नहीं है। उसी तरह साहित्य की संसद में तीज-त्योहार पर कविता के पाठक की बात रह-रह कर की तो जाती है पर सचमुच में उनका कोई शुभचिंतक नहीं है। असल में यह देश अघाये हुए लोगों कर देश है। खूब तेल-घी पीकर मस्त लोगों का देश है। कोई-कोई उजड्ड लड़के खून पीकर मोटा हुए खटमल से भी इनकी तुलना करने का अकाव्यात्मक काम करते हैं। हाँ तो साहब किस्साकोताह यह कि अघाये हुए लोग ही साहित्य की सरकार भी चला रहे हैं। साहित्य में भी कोई जनता की सचमुच की सरकार थोड़े है। भला अघाये हुए लोगों को भ्रष्टाचार से क्या लेना-देना। उनके पास संसद है वे कानून बना सकते हैं कि आज से कोई भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार नहीं कहेगा, बल्कि शिष्टाचार कहेगा। साहित्य की संसद में कोई कानून तो नहीं बनता है पर हाँ एक रवायत शुरू कर दी जाती है। जिसमें तरह-तरह के भ्रष्टाचार और गड़बड़झाले होते हैं। दूसरे साहित्य में ऊपर चढ़ने की सीढ़ी भी तरह-तरह की होती है। इन्हीं सीढ़ियों में कुछ बाहर से मँगायी हुई सीढ़ियाँ भी होती हैं। इधर कविता में आयातित वैश्विक सीढ़ी के लिए बहुत से नये बच्चे मचल रहे हैं, कविता के पुराने घाघ तो उसे लगाकर साहित्य की संसद में कूद जाने का विफल उपक्रम कर ही चुके हैं। कहते हैं कि कोई पुराने ‘‘गद्यकाव्य’’ की जगह इधर विदेश से कोई नयी सीढ़ी ‘गद्य कविता’ की आयी है। कहते हैं कि यह सीढ़ी अन्तरराष्ट्रीय कविता की सीढी है। इस पर चढ़ते ही कवि दो मिनट में अन्तरराष्ट्रीय हो जाता है। इस सीढ़ी को ही कोई-कोई गद्य कविता भी कहते हैं। हमारे यहाँ यह सीढ़ी पहले नहीं थी। कोई देसी सीढ़ी थी। हमारे यहाँ महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘ कवि कर्तव्य ’’ नाम का निबंध लिखा था। उन्होंने यह कभी कहा था कि जैसे संस्कृत में सब छन्द तुकान्त नहीं हैं, उसी तरह तुम भी अपनी कविता का रूप बदलो। उन्होंने कहा था कि पर्वत से कण तक, समुद्र से बूँद तक और हाथी से चींटी तक सब कविता के विषय हो सकते हैं। उन्होंने हिंदी काव्यभाषा का आधार खड़ी बोली को बनाने का भारी उद्योग किया था। पर उन्हें कुछ ऐसा आता ही नहीं था, जैसा आज के संपादक करते हैं। उन्होंने सरस्वती को ‘‘साहित्य का झटका और थियरी का तड़का’’ कभी नहीं कहा था। आज की साहित्यिक पत्रिकाएँ खुद को क्या कहती हैं और क्या करती हैं, यह चिंता का विषय है या लज्जा का, यह मुझे मालूम नहीं है। पर कविता की चिंता तो मुझे है। भले की ‘कविकर्तव्य’ या ‘कविता क्या है’ जैसा लेख लिखने की कूवत मेरे पास न हो। इसीलिए मैंने छोटा काम किया, लिखा ‘कविता क्या नहीं है’। कविता की दुनिया में छंद-वंद बदलने की कूवत भी मेरे पास नहीं है। मुक्तछंद-वंद की बात-वात भी नहीं करना है मुझे। कवित्त का आधार कैसे हटा और सिर्फ लय कैसे छंद का काम करने लगी, इसे भी छोड़ो। इस बात को पकड़ो कि कैसे कुछ बंदे लय का कचूमर निकाल कर उसकी ऐसी-तैसी कर रहे हैं। वे कविता से कवितापन निकालकर उसे जटिल आशय का अति बौद्धिक निबंध और जटिल शिल्प की अमूर्त कथा और कुछ-कुछ अगड़मबाइस फैंटेसी का कॉकटेल बना देना चाहते हैं। ‘कविता का चाँद और आलोचना का मंगल’ लेख में एक लालबत्ती कवि की कविता का अंश रखकर बता चुका हूँ कि यह लेख का टुकड़ा है, कविता नहीं। ऐसे कवि कविता के पाठक को पहले अंधा बनाते हैं-जैसे कुछ राहजन आँख में मिर्ची झोंक कर राहगीरों को लूट लेते हैं- फिर कहते हैं कि लो छूकर देखो, यही कविता है। वे कविता से कविता के सारे जीवनोपयोगी अंग काट कर निकाल देना चाहते हैं। कोई चाहे तो कह सकता है कि कविता की किडनी निकाल कर उसे बेचने के बाद जो पाएंगे उससे दो-चार पुरस्कार खरीदेंगे और कुछ संपादकों और आलोचकों को दारू पिलाएंगे। जाने भी दो ऐसे नशेड़ियों को, जो घर के बर्तन बेच कर पीने की सोचते हैं। बीवी और माँ के गहने बेचकर पुरस्कार का जुआ खेलते हैं। लंबे-लंबे पैराग्राफ, तत्सम या कहीं-कहीं तद्भव की छौंक का मिलाजुला प्रकाशवृत्त, जैसे कोई नकली बाणभट्ट खुद गद्यकविता के लिए आ गये हों। बात या कथ्य या संवेदना या विचार, प्लास्टिक की जलकुंभी से ढ़के हुए तालाब के मैले जल की तरह अदृश्य, भीतर कहीं गहरे में अबूझ और अथाह। बेचारा बिना नाव का पाठक कैसे पहुँचेगा वहाँ तक ? मैं और मेरे जैसे कविता के सभी कार्यकर्ता डूब मरेंगे , कविता के पानी को न साफ कर पाने वाली प्लास्टिक की जलकुंभी में फँसकर। दुख यह कि मित्र विमल भी नही बचेंगे। जो भी कविता का कार्यकर्ता होगा, बचेगा नहीं। सब किस्सा खतम हो जायेगा। कोई कविता का उठाईगीर हो तो उसके बारे मेें कह नहीं सकता। असल में ये बाहर की सीढ़ी वाले, हिंदी कविता का किस्सा ही खतम कर देना चाहते हैं। यह चाहते हैं कि एक भी पाठक हिंदी में बचे ही नहीं। जिससे कि कोई ये कह ही न सके कि साहब आपकी गद्यकविता तो मुझ तक संप्रेषित हुई ही नहीं। ये कविकर्म के लिए नहीं जाने जाएंगे, कभी जाने भी गए तो कविता के शीर्षासन के लिए जाने जाएंगे। ये कवि गरीबी नहीं गरीब को ही खत्म करने के रास्ते पर चल रहे हैं। कोई पूछे इनसे कि फिर आप किसके लिए लिखते हैं ? असल में ये आलोचक महराज को खुश करने के लिए लिखते हैं। ये अंटशंट कुछ भी लिखकर कहते हैं कि आप हमें कविता का एवरेस्ट फतह करने का पुरस्कार दे दीजिए हुजूर। यह सब मगजमारी करने का आशय सिर्फ यह कि आप जो कविता लिख रहे हैं, किसके लिए लिख रहे हैं साफ-साफ बताइए ! लाख टके का सवाल यह कि आज कविताएँ पाठक को ध्यान में रखकर लिखी जा रही हैं या नहीं ? तुम मेरी कविता आँख मूँद कर देखो और अद्भुत कहो और मैं तुम्हारे साथ यही करूँ। कहना यह कि कविता और कवियों-आलोचकों का यह लेन-देन ही कविता का शत्रु है।
आज की हिंदी कविता के हजार शत्रु हैं। ऊपर जिस गद्यकविता की बात की गयी है, हालाँकि वह हमारे समय की कविता का दो फीसदी भी नहीं है। दो-चार भटके हुए मुसाफिर हैं। अर्थात यह संकट नहीं सिर्फ संकट की छाया है। कविता के बड़े शत्रु तो दूसरे हैं। सच तो यह कि कविता के कोई एक-दो शत्रु हों तो छोटा-बड़ा भी कहें। शत्रु तो हजार हैं। एक से बढ़कर एक। पर विमल जी की बात को केंद्र में रखते हुए कहना चाहूँगा कि कविता की पहुँच का संकट आज की कविता के ठीक सामने है। मित्रो, ये जो बार-बार गद्यकविता कह रहा हूँ, उससे आप यह न समझ लें कि मैं लौट कर छंदकविता के युग में जाने की बात कर रहा हूँ। ऐसी कोई बेवकूफी करने से रहा। कोई और करे तो उसकी मर्जी। मैंने पहले भी कहा था कि खराब कविता छंदबद्ध कविता में हो सकती है और छंदमुक्त कविता में भी। अच्छी कविता छंद में भी हो सकती और छंद मुक्त कविता में भी। सवाल अच्छी कविता का है। अलबत्ता, गीतों या जनगीतों और खंडकाव्य वगैरह की सीमा जानता हूँ। आप भी जानते हांेगे। इसलिए यह नहीं कह सकता कि सब छोड़छाड़ कर फिर से गीतों की पुरानी दुनिया में लौटिए। गीतों में ‘अँधेरे में’ नहीं लिख सकते। गीतों से ही देवेंद्र कुमार और दूसरे तमाम कवि नयीकविता और उसके बाद की कविता में आए थे। आप किसी खास मौके लिए अभियान गीत जरूर लिख और गा सकते हैं पर उसकी सीमा है। इधर छंद मे हिंदी गजल या दोहा इत्यादि कहने का एक छोटा दौर जरूर चला पर उसके साथ भी आज के यथार्थ और दर्द को व्यक्त करने का वैसा ही संकट है। गजल में आप ‘जापानी बुखार’ नहीं लिख सकते हैं। हर विधा की अपनी मूल प्रकृति होती है। आप धोती को फाड़कर रूमाल तो जरूर बना सकते हैं, पर जनाब रूमाल को धोती नहीं बना सकते। कविता और लंबी कविता का रूप थिर होने में भी वक्त लगा। महाकाव्य की जगह गद्य में उपन्यास ने ली तो कविता में लंबी कविता ने। कहानी विधा के साथ कई छोटी गद्यविधाओं का भी विकास हुआ। पर ऐसा नहीं हुआ कि कहानी, कविता बन जाय और कविता, कहानी। दोनों मे लेन-देन तो हुआ प्यार-मुहब्बत की तरह, पर गौर फरमाइए हुजूर कि दोनों का चेहरा नहीं बदला। ये दूसरे लोग हैं जो कविता को लड़की से लड़का या लड़का से लड़की बना रहे हैं। बहरहाल छोड़िए इन फरेबियों को, बात कविता की कीजिए। हाँ, कविता कैसे पहुँचे दूर तक ? बताते हैं कि एक जमाने में जब कविता राजाओं के दरबार में कैद हो गयी थी या कवियों को चंद अशर्र्फी देकर गुलाम बना लिया गया था, तो कविता को जनोन्मुख करने के लिए कविसम्मेलनों की शुरुआत हुई। यह विदित है कि एक समय में कविसम्मेलनों ने जनता को कवितामय करने में बड़ा योगदान किया है। समाज में कविता को फिर से प्रतिष्ठित किया था। आधुनिकाल के कई बड़े कवियों ने मंचों पर कविता पाठ किया था। आज की तारीख में गंभीर कही जाने वाली कविता के कितने कवि मंच पर टिक सकते हैं ? कोई ससुर गीत या हिंदी गजल पढ़कर हटेगा तो उसके बाद किस तरह की कविता टिक पाएगी ? कविता में वह ताकत होगी ? फिर एक उदाहरण दूँगा कि एक बार यहाँ दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में गलेबाज कवियों के बाद पाठ करना मुश्किल काम था। मैं दृश्य देख रहा था कि उनके पास कविता कम और गला ज्यादा था। बहरहाल मैं सुर में गजल पढ़ने वाले कवि के बाद आया और मैंने इस कविता का पाठ किया। मैं जानता था कि ,‘‘एक चाँद कम पड़ जाता है’’ कविता ही उस कवि की कविता का बेहतर जवाब है-
कई बार एक जीवन कम पड़ जाता है
एक प्यार कम पड़ जाता है कई बार
कई बार हजार फूलों के गुलदस्ते में
चंपे का एक फूल कम पड़ जाता है
एक कोरस ठीक से गाने के लिए
एक हारमोनियम कम पड़ जाता है
कई बार।
सांसे लंबी हैं अगर
और हौसला थोड़ा ज्यादा
तो तबीअत से जीने के लिए
एक रण कम पड़ जाता है
जो है और जितना है उतने में ही
एक दुश्मन कम पड़ जाता है।
दिल से हो जाय बड़ा प्यार अगर
तो कई बार
एक अफसाना कम पड़ जाता है
एक हीर कम पड़ जाती है
ठीक से बजाने के लिए
सितार का एक तार कम पड़ जाता है
एक राग कम पड़ जाता है।
कई बार
आकाश के इतने बड़े शामियाने में
एक चाँद कम पड़ जाता है
दुनिया के इस मेले में देखो तो
एक दोस्त कहीं कम पड़ जाता है
एक छोटी-सी बात कहने के लिए
कई बार एक कागज कम पड़ जाता है
एक कविता कम पड़ जाती है।
(परिणीता)
कुछ और प्रेम कविताएँ पढ़ीं। सुनने वाले इन कविताओं में भी पूरी तरह डूबे। बताना यह था कि अपनी कई नई कविताओं के बाद भी ज्ञानेंद्रपति ने जब चेतना पारीक वाली कविता का पाठ किया तब कहीं जाकर श्रोता उनसे तृप्त हुए। यह तो दूरदर्शन का कार्यक्रम था जहाँ कुछ विशिष्ट वर्ग के श्रोता थे। कविसम्मेलन और मुशायरे के अधिकांश श्रोता सतह की श्रृंगारिक कविताओं और फूहड़ हास्य कविता के रसिया होते हैं। मुशायरे में जरूर बद्र और राहत वगैरह कुछ दूसरे तरह के शायर होते हैं। वहाँ भी अब कृष्णबिहारी नूर जैसे शायर कम रह गए हैं, जिनके शेर अपने समय के युवाओं के दिमाग बदल देते थे-
‘‘ मैं एक कतरा हूँ मेरा वुजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।
अपने दिल की किसी हसरत का पता देते हैं
मेरे बारे में जो अफवाह उड़ा देते हैं।
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आईना झूठ बोलता ही नहीं। ’’
कहना यह है कि आज की हिंदी कविता कम से कम पाठकों और श्रोताओं के पास नहीं है। उनके बीच है जो कविता या आलोचना लिखते हैं। यह हमारे समय की कविता की सीमा है कि वह अपने पाठकों से कट गयी है। कह सकते हैं कि कविता के पाठक गुम हो गये हैं। जिन्हें ढ़ूँढना बेहद जरूरी हैं। जगह-जगह स्टेशनों पर पोस्टर लगाइए, चाहे लाउडस्पीकर लगाकर रिक्शे पर घूमिए। पर उसे ढ़ूँढिए। चाहे जाइए कविसम्मेलनों के मंचों पर उससे मिन्नत कीजिए कि अच्छे बच्चे की तरह घर लौट आये। इस सिलसिले में कहना यह कि सच्चाई कुछ और है। कविसम्मेलन का जो स्वरूप है, उससे हिंदी कविता के पुराने दिन लौट नहीं सकते हैं। उसके पहले हमें गोष्ठियों और चर्चाओं में उन कविताओं की ओर ध्यान केंद्रित करना होगा जो हिंदी कविता के नये पाठक या श्रोता वर्ग के निर्माण के लिए कारगर हों। यह काम हमें बिना भेदभाव और बेईमानी के करना होगा। यह भूल जाना होगा कि इस कवि ने मेरा पैर छुआ है या नहीं, इस कवि ने मुझे फलां वक्त पर गाली दिया था या नहीं इत्यादि। पाठक बचेगा, तभी कविता बचेगी और तुम भी तभी बचोगे बुद्धू ! दरअसल हिंदी पाठकों की रुचियों का परिष्कार करने से पहले हमें हिंदी के कुकवियों का परिष्कार करना होगा। क्योंकि इनकी चिंता में तो पाठक-साठक नहीं, बस पुरस्कार है। हिंदी जाय भाड़ में बस एक अदद मिल जाय कविता का तमगा। एक लालबत्ती। मूर्खता इस हद तक है दोस्तो कि कुछ लोगों को लगता है कि वही कवि बचेंगे जो किसी अकादमी द्वारा तैयार किये गये कविता संकलनों में होंगे। वही इतिहास में जिंदा रहेंगे। अरे इन मूर्खों से कौन पूछे कि जितने बड़े कवि हैं अकादमी के संकलनो की बदौलत जिंदा हैं ? क्यों नये बच्चों का दिमाग खराब कर रहे हो। बंद करो साहित्य का यह धंधा-पानी। इतिहास अकादमियाँ लिखेंगी या पैसे देकर लिखवाएंगी तो क्या आने वाले वक्त के समर्थ आलोचक भाड़ झोंकंेगे ? पद के मद में कालपात्र जमीन के अन्दर गड़वा कर देख लो, बाद में कोई उस पर थूकने भी नहीं आएगा। लेखक हमेशा अपनी रचना से जिंदा रहता है, इतिहास से नहीं। इतिहास से राजे-रजवाड़े याद किये जाते हैं, लेखक नहीं बुद्धू ! समर्थ आलोचक हमेशा बाद में आते हैं। समर्थ आलोचक ही विद्यार्थियों के लिए सच्चा इतिहास लिखते हैं। वे आयेंगे....जरूर आयेंगे। कमजोर आलोचक, लेखक ही नहीं, संस्थाओं की भी चाकरी करते हैं। मेरे शहर के एक बुजुर्ग आलोचक ने पिछले चालीस साल की कविता पर देश में सबसे ज्यादा लिखा है, पर एक भी लेख ऐसा नहीं है जिसे कभी कोई याद करेगा। जिन कवियों-लेखकों और लेखिकाओं का बारबार नाम लेते-लेते नाममात्र के आलोचक कहलाए, वे भी उन्हें याद नहीं करेंगे। इसी शहर के जिन लोगों को पीछे लेकर घूमते थे, आज कोई उनके घर झाँकने भी नहीं जाता है। ऐसे आलोचक खुद को तो बर्बाद करते ही हैं, कविता को भी बर्बाद कर देते हैं। दूध पीते बच्चों को महाबली का तमगा देने वाले आलोचक खुद जीवन भर दूध पीते बच्चे रह जाते हैं। यह अलग बात है कि उनके शहर के ही कुछ बच्चे गंभीर हो जाते हैं। किसी का शेर है। नाम इस वक्त याद नहीं आ रहा है-
हमारे दौर के बच्चे हो गये गंभीर
बुजुर्ग हैं कि अभी तितलियाँ पकड़ते हैं।
आलोचकों ने ही नहीं, संपादकों ने भी इधर हिंदी कविता को काफी नुकसान पहुँचाया है। यह जरूरी नहीं कि कथासंपादक की कविता संबंधी समझ अच्छी हो। कथासंपादक ही नहीं अखबार के साहित्य संपादकों की भी सीमा है। उन्हें भी अच्छी कविता की या तो समझ नहीं है या चयन में बेईमानी करते हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उनका पाठक कैसा है, सब कवि ही पाठक हैं या कोई सिर्फ पाठक भी है ? कैसी कविता दें कि उसकी कविता संबंधी रुचि का परिष्कार हो। वह अच्छी कविता से जुड़े। दिक्कत सबसे बड़ी यह कि देश का बड़े से बड़ा संपादक कवि का महत्व उसको मिले पुरस्कार से आँकने की नासमझी करता है। क्या किसी कथित बड़े पद पर पहुँच जाने से उस व्यक्ति की लिखी हुई चीजें भी अचानक बड़े महत्व की हो जायेंगी ? आलोचक भी ऐसी ही नासमझी और खासतौर से आला दरजे की बेईमानी का शिकार है। ऐसे में कविता कैसे दूर तक पहुँचेगी ? यह एक बड़ा सवाल है।
हिंदी पाठकों की कविताविमुखता के पीछे और भी कई कारण हैं। कविता ही नहीं साहित्य मात्र के लिए उसकी दिलचस्पी कम क्यों हो रही है, इसे इस रूप में देखें। आज का जीवन क्या तीस साल पहले का जीवन है ? राजनीति के विकेंद्रीकरण ने गाँव-गाँव से साहित्य और संस्कृति को बेदखल कर दिया है। किसे फुरसत है, पैसे के फेर से। मोबाइल और चैनल ही नहीं, आभासी दुुनिया और मेल की सुविधा ने लोगों को कागज से ही दूर कर दिया है फिर क्या साहित्य और क्या कविता ? प्रकाशकों ने बेचने का धंधा कर रखा है। बेचना जरूरी है, अच्छा साहित्य बेंचें जरूरी नहीं। कथित बड़े प्रकाशकों के यहाँ से कमजोर से कमजोर संकलन पता नहीं कैसे छाप दिए जाते हैं और अच्छे संकलन धूल फाँकते हुए पाये जाते हैं। कीमत ज्यादा होने की समस्या अलग से। पत्रिकाओं में भी बिकने की होड़ है। विमर्श स्त्री और दलित का और रचनाएँ देह की । लघु पत्रिकाओं के सामने सबसे बड़ी दिक्कत तो यह कि उन्हें मालूम नहीं है कि वे क्यों निकल रही हैं या उनके पास अपने समय के साहित्य में हस्तक्षेप जैसा कोई सरोकार नहीं है, बस अपने को जनाने के लिए निकल रही हैं कि हम निकल रही हैं। अपने समय की कविता और आलोचना और खुद के संपादन में व्याप्त भेड़चाल, भयंकर नासमझी और भ्रष्टाचार से टकराना उद्देश्य नहीं है। भला ऐसी पत्रिकाएँ कहाँ तक पहुँचेंगी ? जब इन पत्रिकाओं की ही कोई पहुँच नहीं है तो ये जो भी और जैसी भी कविता है उसे कहाँ तक ले जायेंगी ? डर-डर कर हम अपने भीतर के डर से नहीं लड़ सकते। पहले साहित्य की छोटी-बड़ी दगी और बिना दगी या बिना बारूद की तोपों से डरना बंद करना होगा। बारूद अपने भीतर पैदा करना होगा। जगह-जगह मौजूद साहित्य के भ्रष्ट किले को तोड़ने के लिए। मित्रो, इन हजार मुश्किलों के बीच किसी जादू की छड़ी की उम्मीद तो नहीं है, पर उम्मीद एकदम से खत्म भी नहीं हुई है। दो चरणों में हम कविता की पहुँच को दूर तक ले जाने के लिए काम कर सकते हैं। पहले चरण में साहित्य की दुनिया में सक्रिय ईमान वाले मित्र अपने हाथ में झाड़ू लें और सबसे पहले कविता के नाम पर हर गंदगी को साफ करें। डरें नहीं। बड़े से बड़ा हो और कविता विरोधी हो तो उस पर झाड़ू कस कर लगायें, ऐसे कि याद रखे। कविता का परिसर इससे कम पर साफ हो ही नहीं सकता। चाहे कोई अपनी जान ही क्यों न दे दे। जब हम कविता के कार्यकर्ताओं और ठेकेदारों को दुरुस्त करेंगे तभी अगले चरण में कविता की जनता भी दुरुस्त होगी। तभी कविता का नया पाठक समाज बनेगा। तभी कविता दूर तक जायेगी।
संपादकों ने भी इधर हिंदी कविता को काफी नुकसान पहुँचाया है।
जवाब देंहटाएंसहमत
कविता-कवियों के वर्तमान परिद्दश्य पर बहुत ही विचारोत्तजक,तर्कसम्मत व महत्त्वपूर्ण जरूरी और पठनीय आलेख
जवाब देंहटाएंएक और महत्वपूर्ण लेख ...बधाई आपको
जवाब देंहटाएंएक जरुरी हस्तक्षेप .. साधुवाद आपको ..
जवाब देंहटाएंसंपादकों ने ही इधर हिंदी कविता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है .. मैं तो इतना उजबक हूँ कि यह तक सोचता हूँ कि कविता लिखना ..कविता पढना और कविता समझना तीनों तीन चीजें हैं .. और अपना सम्पादक अगर गद्य वाला हो तो कई बार पद्य समझ का बस वारे न्यारे ही कर देता हूँ .. कविता के फोर्मेट में जो प्रयोग चल रहे हैं वे अजब वाहियात हैं .. ऐसा चलता रहा तो कुछ दिनों में मैं अपनी पत्रकारिता रिपोर्ट और अपनी लघुकथाओं को कविता बोलकर बेच लूँगा ..
कविता को लेकर आपकी चिंता बाजिब है सर... कई बार क्या हर बार मेरी कोशिश यह रही है कि कविता एक साथ आम पाठकों और आलोचक दोनों को उद्वेलित करें... उसमें भी यह ध्यान ज्यादा रहता है कि कविता पाठकों तक पहुंच पाए... उन्हें बौद्धिक व्यायाम न करवाए और अकदमिक लोगों को वह सस्ती भी न लगे...। यह कठिन काम तो है लेकिन अपना यही रास्ता है। बहरहाल एक बहुत अच्छे लेख के लिए आपको बहुत बधाई.....
जवाब देंहटाएंसर, एक बहस तलब अच्छे लेख के लिए बधाई! एकदम सही लिखा है कि मेरे शहर के एक बुजुर्ग आलोचक ....................... वे भी उन्हें याद नहीं करेंगे। इसे उस आलोचक की मर्मान्तक त्रासदी कहूँ या विडम्बना - यह तथ्य विचारणीय है। आप अच्छी कविता के पक्ष में एक बेहतर माहौल बनाने की जिद भरी कोशिशों में लगे हुए हैं। आपकी लेखनी को सलाम।
जवाब देंहटाएंआलेख बेहद स्तरीय सामयिक और अपने मारक तेवरों के अधीन बेहद सटीक है ... सभी संगत बातों को अचूक ढंग से ठीक अपने लक्षित मार्ग से , पढ़ने वालों तक ले जाता हुआ ... नए-पुराने सभी लिखने वालों के लिए एक अत्यंत आवश्यक आलेख ...
जवाब देंहटाएंसमसामयिकता से आक्रान्त है यह आलेख। और संचार माध्यमों में हुए परिवर्तन से भी कविता और मनुष्य के संबंधों में फ़र्क पडा है। आलोचकों ने कभी सशक्त कवि को अपना चहेता नहीं माना ... सिर्फ़ उन्हीं कवियों को सराहा जाता है जो आलोचक के नीचे रहते हैं ... और बात रही संपादकों की तो वह भी मनुष्य है अपनों को छापता है। देखना यह है कि संपादकों का अपना कोई किस तरह बनता है?
जवाब देंहटाएंकविता के लिए आपकी चिन्ता मजेदार लेकिन गैर वाज़िब है ..